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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 नवंबर, 2017

रमेश शर्मा की कविताएं:

रमेश शर्मा: छः जून छियासठ , रायगढ़ छत्तीसगढ़ में जन्म।
एम.एस.सी. (गणित) , बी.एड. शिक्षा हासिल। एक कहानी संग्रह ' मुक्ति ' से प्रकाशित . छह खण्डों में प्रकाशित कथा मध्यप्रदेश के छठवें खंड में कहानी सम्मिलित ।
रमेश शर्मा
समकालीन भारतीय साहित्य ,परिकथा, समावर्तन , हंस ,पाठ ,परस्पर , अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, माटी इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियां प्रकाशित। देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं कविताएं प्रकाशित। सम्प्रति: व्याख्याता


कविताएँ


सीढ़ियाँ
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जिनके पाँव नहीं हैं
या काटे जा रहे आए दिन पाँव जिनके
निरर्थक हैं सीढ़ियां उनके लिए !
अंतिम पायदानों तक पहुँच चुके जो
और चाहते नहीं उतरना
निरंतर बड़ी हो रही
बिना पांवों वाले लोगों की दुनिया में
निरर्थक हैं सीढ़ियां उनके लिए भी !
ऊपरी पायदानों पर पहुँच चुके जो
वे हो गए सपनों के सौदागर
सीढ़ियां जिनके लिए
रह गई हैं सपने बेचने का साधन भर !
जो बच गए बिन पेंदी के लोटे सा मध्य में
जिनकी आँखों में पलता रहता हर वक्त
ऊपर चढ़ने का सपना
भाग-दौड़ में निरर्थक जी रहे मरते हुए जो
उनके लिए बदले नहीं हैं अर्थ
सीढ़ियों के !
सपनों की उड़ानें भरते हुए
वे चढ़ जाना चाहते हैं
अंतिम पायदानों तक
चाहते हैं हो जाना शामिल
सौदागरों की उस दुनिया में
जिनके शब्दकोष में
पूंजी के अलावा
सारे शब्द हटा दिए गए हैं !

चित्र: अवधेश वाजपेई

प्रेम करने वाली लड़की
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वह बेनाम नहीं थी
पर बहुतों को नहीं था उसके नाम का पता
ओ जा रही लड़की कहकर लोग पुकारते उसे
जब गुजरती नजरों के सामने
गाने वाली लड़की कहकर भी लिया जाता नाम
कई बार उसे गाते हुए भी सुना गया था
होता खूबसूरती का जिक्र जब कभी तो
मोहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की का दर्जा मिलता उसे
अपने नाम के बाहर भी
कई-कई परिचय थे उसके
जो टंगे हुए थे लोगों की जुबान पर !
प्रेम करने वाली लड़की की तरह
उसने प्रेम भी किया
पर नहीं पुकारी गई इस नाम से कभी
वह बेनाम नहीं थी
पर उस दिन हो गई बेनाम
जब उतरकर लोगों की जुबान से
चली गई चुपचाप अपनी दुनियां में
जहां जाते हैं प्रेम करने वाले !
टंगी हैं तस्वीरें अब भी घर में
पर अर्सा हो गया
कि तस्वीरों वाली लड़की के नाम से
पुकारी गई हो कभी !
बंजर होती दुनिया में
उसके परिचय का हरापन
नहीं दीखता कहीं अब
जैसे सड़ गए हों झड़कर पेड़ों से पत्ते
स्मृति के दलदल जंगलों में
जैसे उतारकर जुबान से
टांग दी गई हो सूली पर
प्रेम करने की सजा के बतौर
वह प्रेम करने वाली लड़की !

काम वाली केतकी बाई
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एक घर में होती है तुम्हारी सुबह
फिर होकर कई घरों से हो जाती है शाम
इस तरह
तुम्हारी सुबह और तुम्हारी शाम
हो जाती है दुसरे घरों के नाम !

आखिर अपने साथ क्या ले जाती हो केतकी बाई
थकी हुई देह और रात के सिवा
और खटती हो रात में भी
किसी कथा की नायिका सी
जबकि मॉडलों से भरा हुआ है इतिहास इस समय का
जो बुनना जानती हैं देह की परिभाषा
और हमारे समय की नायिका बनकर
भुनाती हैं ठीक ठीक उसे !

केतकी बाई
तुम करती हो श्रम कई गुना ज्यादा उनसे
तुम्हारी दस्तक से कई घरों में होती है सुबह
और तुम्हारी प्रतिक्षा में
होती है शाम कई घरों में
पर नहीं हो सकी हो दर्ज क्यों
इतिहास में अब तक ?
यह कि अपनी देह को
ठीक से संभालना भी नहीं आया तुम्हें
इसलिए नहीं भातीं बाजार को अदाएं तुम्हारीं

केतकी बाई
जीवन की धरती पर
गहरे धँसी हैं तुम्हारी जड़ें फिर भी
समय के आईने में ठूँठ सी लगती हो क्यों ?
जबकि तुम्हें तो मॉडल नहीं
रोल मॉडल होना चाहिए
हमारे समय का !

बूढ़े
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अपने समय की लाठियां टेक
लंगड़ाते पाँवों से चलकर आते हैं
वे सुबह शाम
और पार्क की कोने वाली बेंच पर बैठ
सुनाते हैं अपनी-अपनी कथा !

उनकी कथा में
उनका दर्द फूटता है
और झरते हुए यहाँ-वहां
ओंस की बूंदों की तरह
फ़ैल जाता है
हरी दूब की नोंक पर !

सुनाकर अपनी कथा रोज
वे खाली होकर लौटते हैं
अपने समय के भीतर
कि थोड़ी नींद के लिए
उनके पास अब
बस यही एक दवा बची रह गई है !

तेज भागते इस शुतुरमुर्गी समय में
गिरते-पड़ते ढूँढ़ते हैं सहारा अपने लिए वे
कि इस खोज में
कितना डराता है दीवारों पर पसरा सन्नाटा उन्हें !

जब नहीं मिलते सहारे भीड़ में
तो एक दूसरे के सहारे ही वे
टिक जाते हैं बचे रहने के लिए इस समय में
और झांककर एक-दूसरे की आँखों में
कहते हैं
कि एक रेगिस्तान तुम्हारी आँखों में दिखता है
मेरी आँखों में दिखता है एक रेगिस्तान
मित्र चलो तुम ऊंट बन जाओ
मैं सवार हो जाऊं पीठ पर तुम्हारी
कि बची हुई यात्रा के लिए
हमें अब भीड़ की जरूरत नहीं है !


चित्र: अवधेश वाजपेई


कबरा पहाड़
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आकाश के एक छोटे हिस्से को घेरकर
छतरियों की तरह फैला कबरा पहाड़
दिखता है दूर से हमें
जैसे आकाश के बीच उग आया हो
कोई  दूसरा आकाश
हमारी धरती के ऊपर


जिन्होंने फेरा था उसकी पीठ पर हाथ
और हजारों  वर्ष पूर्व अपनी कलाओं से
दिया था मनुष्य होने का सबूत
कोई मोल  उनका नहीं रहा अब जैसे
मानों लौट  आया हो कोई बर्बर युग फिर से
सभ्यताओं का संहार करने के लिए !


देखते हुए उस तरफ
लौट लौट आती हैं नजरें
उसकी मटमैली पीठ से टकराकर
और ले जाती हैं हमें
इतिहास के घोड़े पर बिठा
रीते हुए समय के पोखरों में
जहां हमारे पूर्वजों के अवशेष
दम तोड़  रहे हैं जल बिन मछली जैसे
सभ्यता के उदास पत्थरों पर !


देखकर अपनी ओर आते
वह कबरा पहाड़ इस तरह देखता है हमें
जैसे चाहता हो बातें करना
पर अटक गया हो
बीते हुए समय का कोई कालखंड
उसकी शिराओं में
गिनते हुए रिश्तों  की धड़कनों को !


वह बिना कुछ कहे कह लेता है इतना कुछ
कि उतरकर इतिहास के घोड़े से
हमारे समय के भीतर लौटते हैं जब हम
तो इस तरह दिखता है
उसका झुर्रियों भरा चेहरा हमें
जैसे आशीष में उठ गए हों  पूर्वजों के हाथ
और उसके भीतर अब भी चल रही हों
पूर्वजों की सासें
जिसे ठीक ठीक देखते और सुनते हुए भी
हम नहीं देख पा रहे हैं
और  नहीं सुन पा रहे हैं
मानो इस बहरे समय ने
पूंजी की काली ब्रश से
सभ्यता पर चढ़ाकर अंधेरे का रंग
हमें अंधा और बहरा कर दिया है !


(रायगढ़ के निकट स्थित प्रागैतिहासिक काल के शैल चित्रों से समृद्ध छत्तीसगढ़ की प्रमुख पुरातात्विक धरोहरों में से एक कबरा पहाड़ जो अब नष्ट होने के कगार पर है )


जीवन एक बैलून की तरह है
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उसने प्रेम भी किया
और मारा गया
न भी करता तो यूं ही घूटकर मरना था उसे
ये कैसा समय है
कि जिस रस्ते जाइए
मरना तय है
जीवन सिकुड़ रहा ऐसे
जैसे मानो वह कोई बैलून हो
जो खिलौना भर होती है
जिसे फोड़ कर पिचकाते बच्चे
थोड़ी देर खुश हो लेते हैं
फिर कूड़े में होती है उसकी जगह !
सचमुच जीवन और बैलून में कितनी समानता है
फूलना फिर पिचककर फूटने में
भला कितना समय लगता होगा
बस उतना ही आखिर
जितना एक जीवन जी लेने में !
जीवन जो अंततः मृत्यु पर जाकर
ठहरता है
फिर कूड़ा हो जाता है !
कभी कब्रिस्तान से
होकर भी गुजरिए
सुनिए उन आवाजों को
जो कहती हैं
"ये मारकाट कैसी?
ये हिंसा किसलिए?
जबकि सबकुछ खत्म है
धरती पर निरर्थक है सबकुछ
इस प्रेम से परे
इस प्रेम के बिना ! "


अफ़सोस कि जिन्हें सुने बिना ही हम बड़े हो गए
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हम पैदा हुए
न नानी थी पास न दादी को खबर हुई
जैसे बादलों ने आने से रोक दिया उन्हें
और सारी रात बरसते रहे
सुबह सूरज भी लगा दूर
सब तरफ पानी ही पानी
बाढ़ ही बाढ़ सब तरफ
उनके और हमारे बीच
जैसे रूकावटें दीवार बन गईं
धरती बेईमान हो षड़यंत्र पर उतर आई
जैसे षड़यंत्र करते हैं बेईमान
और दुनिया में खडी कर देते हैं
बेईमानी की न जानें कितनी दीवार !
आखिर वे नहीं आ सके तो नहीं आ सके
और बड़ा होना पड़ा उनके बिना ही हमें
तहजीब जो सीखनी थी उनसे
वो हमसे नहीं सीखी गई !
आखिर हम बड़े हुए
उनकी कहानियों को सुने बिना
जहां से जन्मती हैं सम्भावनाएं
मिला करते हैं रास्ते जहां से !
उन रास्तों को
इस न सुन पाने ने हमेशा के लिए किया ख़त्म
जहां से गुजरने की इच्छा लिए
हर बच्चा धरती पर उतरता है !
हमें तो बेईमान ही होना था आखिर
जो हम हुए
ठगना था जग को
जो हमने ठगा
मचानी थी लूट जो हमने लूटा
करनी थीं हत्याएं
जो हमने की
मनुष्यता और लोकतंत्र हमारे हाथों ही मारे जाने थे आखिर
जो मारे गए
अबलाओं का बलात्कार होना था
जो हुआ हमसे !
तहजीब से विदा हुए लोग आखिर करेंगे क्या ?
वे कब चुकेंगे दादी-नानी की कहानियों को भी कठघरे में खडा करने से ?
कब चुकेंगे उन सारी चीजों को ख़त्म करने से भी
जिनका दुनिया में होना कितना जरूरी है आज !
ये चीजें बिकतीं नहीं कि अम्बानी और अदानी की दुकानों में खरीदे जा सकें
इन्हें तो पाने के लिए हमें लौटना होगा
दादी-नानी की कहानियों में ही
सुनकर जिन्हें बड़ा होना था हमें
पर अफ़सोस कि जिन्हें सुने बिना ही हम बड़े हो गए
और और बड़े होते गए हर चीज को अनसुना करते हुए !


चित्र: अवधेश वाजपेई


डर और बंदिशों के बीच
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कभी कभी ऐसा क्यों होता है
कि मनचाहा
कुछ भी नहीं होता
मनुष्य की बाजीगरियों को
हम लाना चाहते हैं कविता में
पर कई बार उसे
वह ढो नहीं पाती
इस न ढो पाने में छुपे होते हैं
इस समय के अनगिनत भय
जो डराते हैं
और कविता है कि
एक शर्मीले
डरपोक मनुष्य की तरह
घरों में छुप जाती कहीं !
हम मनुष्य भी तो आखिर कविताओं के झुंड ही हैं
जिनके बीच पसरा हुआ है भय
जिसने लगा रखी हैं पहरेदारियां
कि एक कविता दूसरी कविता से
नहीं कर सकती थोड़ी
खुलकर बातें
नहीं कर सकती बस थोड़ा सा प्रेम
समय के अनगिनत भय
और अनगिनत बंदिशों ने
जीवन को कितना
जकड़ लिया है
इस जकड़न में मनुष्य
जिसे सचमुच एक कविता होना चाहिए
वह बन गया है एक कठपुतली
और इस डरावने सपनों की
जमीन पर नाच रहा है
बस लगातार नाचे ही जा रहा है !

ये समझ की कमी भी बहुत ख़तरनाक है
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ये समझ की कमी भी
होती है बहुत ख़तरनाक
कभी दिन को
रात समझ लेती है
रात को दिन समझ लेना
है ही इसकी फितरत !
इसका होना कितना ख़तरनाक है
ऐसे समय में और भी खतरनाक
जबकि यह एक हथियार की तरह
लाई जा रही उपयोग में
और जीवन में हर फतह
इसी के भरोसे हमसे
अब जीती जाने लगी हैं !



इन हंसती हुई तस्वीरों में
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इन हंसती हुई तस्वीरों में
हम कैसे लगते होंगे भला ?
एक सवाल है यह
जो चलकर आया एक बच्चे के हिस्से !
बच्चा न सवाल समझता था
न ही किसी जवाब के मायने
जानने की जहमत
अब तक उठाई थी उसने !
उसकी खिलखिलाहटें ही जैसे
हर सवाल का जवाब थीं
जो हथौड़े की तरह हर सवाल पर भारी पड़ रहीं थीं
खिलखिला उठने की यह कला
न जाने कहां से सीखी उसने
कि सवाल-जवाब के हर उलझनों से बचाती रहे उसे !
खिलखिलाती तस्वीरें
इन कलाओं से भरी होती हैं
शायद भली लगती हैं इसलिए
कभी कभी इन तस्वीरों से
होकर गुजरना
एक नन्हें बच्चे की उंगलियों के स्पर्श का सुख पाने जैसा है
इस सुख के एहसास से भरी
हंसती हुई
इन तस्वीरों की कहानियां
सुनते हुए
पढ़ते हुए
हम कितना सुकून से भर उठते हैं
अपने कर्कश चेहरों का भार
उठाते-उठाते जब हम थक जाते हैं
तो ऐसी तस्वीरें ही बचाती हैं हमें
काश एक बच्चे की तरह
किसी दिन हम भी जन्में
इन हंसती हुई तस्वीरों में
जो बहुत दूर होकर भी
हमारे बहुत करीब लगती हैं
और जिनमें
जीवन की किलकारियां
हर सुबह उठती हैं
सलाम करती हुईं
और जिनकी हंसी
पसर जाती है मखमली चादर सी
जीवन की हर उस कहानी पर
जो गढ़ी जाती है हर सुबह
जीते हुए जिसे
हम रोज पढ़ते हैं
रोज सुनते हैं
और निकल पड़ते हैं
अपनी यात्राओं पर
जो अब भी जारी है
जारी रहेगी
आने वाले कई-कई सदियों तक !





चित्र: अवधेश वाजपेई
और उस वक्त बुद्ध हमारे भीतर पैदा होते हैं
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तुम जब धरती पर
पहली पहली बार उतरे
और नर्म घास पर चलते हुए
तुम्हारे मखमली पांवों ने
जो किया महसूस
वही महसूसना शायद
धरती से तुम्हारा पहला प्रेम था
बुद्ध जो हमें विरासत में दे गए प्रेम
शायद वे अब जन्मते नहीं दुनिया में कहीं
प्रेम को महसूसना
शायद जन्मता होगा हमारे भीतर ही उन्हें !

धरती के एक कोने पर बैठे हुए
लगा कि तुम पुकारे गए
हजारों मील दूर से आ रही किसी आवाज में
यही तो प्रेम था
आना था बुद्ध का जीवन में तुम्हारे
आवाजें जो कई बार नहीं सुनीं जा सकीं
कई बार अपने न होने की भ्रामकता से भरीं हुईं लगीं
तब भी तो उनमें छुपा था प्रेम
छुपे हुए थे बुद्ध
जिसे कि हजारों मील दूर से आ रही किसी आवाज में
अक्सर तुम महसूसते रहे !
प्रेम जो सत्य और करूणा के निकट ले जाए
बुद्धत्व तो जन्मता है
उसी दिन उसी प्रेम में !
वही प्रेम जो हमें सिखाता है
कि बची रहे हरी घास
इसलिए सींचो धरती को
बचा रहे उसका हरापन
इसलिए ओढ़ो जीवन में उसे
जिस तरह तुम चले
उस पर चल सकें हजारों मखमली पाँव
जो अभी उतरे नहीं
शायद वही बुद्ध होंगे देखना
जिन्हें धरती पर उतरना है किसी दिन हम सबके भीतर
और जन्मना है उसी प्रेम में !

इंतजार का पेड़
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यहां की बारिश भी बड़ी खूब है
रात सपने में आती है
और विदा हो जाती है सपने में ही !
लोग भी मजेदार कम नहीं यहां
बहुत मीठा बोलते हैं
फिर चुपके से जहर घोलते हैं !
हवा भी ऐसी चली प्रेम की
कि एक ही समय में
एक पुरूष की कई-कई प्रेमिकाएं
कई-कई प्रेमी एक स्त्री के एक ही समय में यहां !
अपने ठीक ठीक स्वरूप से
जैसे विदा हो गई चीजें
न बारिश बची
न रिश्ते बचे
न ही बचा प्रेम !
जो बचा वही हाथ में लिए हम रह गए
ये भरे हुए हाथ भी
कितने खाली लगते हैं इनके बिना
तुम आओगे किसी दिन
और इन खाली हाथों को
भर दोगे फिर से
एक इंतजार का पेड़
ऊग आया है धरती पर
तुम आओगे तो शायद फलने भी लगे
संभव हैं चीजें
अपने ठीक ठीक स्वरूप में लौट आएं फिर से !
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संपर्क:

 रमेश शर्मा
92 श्रीकुंज, बीज निगम के सामने, बोईरदादर, रायगढ़ छत्तीसगढ़ 496001 मो. 9752685148



ब्लॉग के लिए इस आय डी पर रचनाएं भेजिए: bizooka2009@gmail.com
सत्यनारायण पटेल



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