मन्नू भंडारी
आज मन्नू भंडारी जी का पुण्यतिथि है। आज उन्हें याद करते हुए मन्नू जी और बिजूका के पाठक, मित्र, व साथियो के लिए मन्नू भंडारी जी की आख़िरी कहानी प्रस्तुत है।
बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए इस गांव ने भी आ़िखर कस्बे की दहली़ज पर पांव रख ही दिये. सदियों से उस गांव में समय चलता नहीं बस, रेंगता था. पांच साल बाद आप जाओ तो उस समय गोदी में लटके या उंगली पकड़कर घिसटते बच्चे आज गलियों में गिल्ली-डंडा या वांचे खेलते मिलते और तबके वांचे खेलते बच्चों की मसें भीगती दिखायी देती. पर बस, जो भी परिवर्तन दिखायी देता शरीर के स्तर पर ही.. बा़की दिल-दिमा़ग और सोच-समझ तो जस की तस. पर जैसे ही उस गांव ने देहती चोला उतार कर कस्बाई धज धारण की, वहां समय रेंगने की जगह चलने लगा.
गांव में तो चाहे युवा हों या बुजुर्ग, सबकी ऩजरें और पांव गांव की
जमीन में ही गड़े रहते थे और अपने से संतुष्ट मन गांव की चौहद्दी के बीच ही घूमता-टहलता रहता. पर कस्बे की हवा लगते ही युवा वर्ग के पांव वहां से उखड़ने के लिए छटपटाने लगे और ललचाई ऩजरें शहर पर जाकर टिक गयीं, पर जायें तो जायें वैसे? हां, दो-चार रईस परिवारों के बच्चे जरूर लोटपोट कर जैसे-तैसे शहर पहुंच गये पर उनके अलावा उस समय न तो शहर ़कस्बे को अपने में समेट रहा था और न ही पैल पसर कर खुद उसमें समा रहा था. हां, रईसों के ये बच्चे जब कभी गांव का चक्कर लगाते तो जरूर अपने साथ थोड़ा सा शहर भी बांध ही लाते और उन्हीं के बलबूते पर गांव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते. उनका रहन-सहन बोली-बाली देख सुनकर गांव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने बुलबुलाने लगते... पर न साधन, न सुविधा न ही जोड़-तोड़ की ऐसी कोई जुगत जो उन्हें वहां ले जाती.
यों कस्बा बनते ही गांव का प्राइमरी स्कूल डल स्कूल तो बन ही गया था और बिल्डिंग उसकी चाहे टूटी-फूटी ही रही हो पर कक्षाएं तो लगनी ही थीं. मास्टर लोग भी जबान की जगह छड़ी का प्रयोग ज्यादा करने के बावजूद कुछ तो पढ़ाते ही थे कि बच्चे जैसे-तैसे पास हो ही जाया करते थे. पर मिडिल पास करने के बाद रास्ते बंद. अब करें तो क्या करें?
यह महज एक संयोग ही था कि इसी कस्बे के एक बेहद मामूली-सी हैसियत वाले किसान रामनिझावन के बड़े बेटे गोविंदा ने जैसे ही मिडिल पास किया तो शहर से उसके मामा आ गये और प्रस्ताव रखा कि यदि जीजा चाहें और गोविंदा राजी हो तो वे उसे शहर ले जाकर बिजली के कारखाने में नौकरी दिलवा सकते हैं. वे खुद वहां नौकरी ही नहीं करते बल्कि थोड़ी बहुत पहुंच भी है उनकी उधर. एक बार सरकारी नौकरी मिल जाय तो समझो बादशाही मिल गयी. पर बादशाही को परे सरकाते हुए बिफर गया रामनिझावन...
‘‘अरे अइसा जुलुम न करो महेसवा... अभी तो ई हमार हाथ बटावे लायक हुआ अउर तुम हो कि... न न, हम नाही भेजी रहे सहर-वहर. हम खेती-बाड़ी कर वाले म़जूर ठहरे... हम का करिहें सरकारी नौकरी की बादसाहत लइके?’’
पर गोविंदा, एक तो शहरी मामा का अपना चुंबकीय आकर्षण दूसरे उससे बड़ा आकर्षण शहर जाकर नौकरी करने का... फिर थाली में परोस कर सामने आये इस मौ़के को वैसे छोड़ दे भला? छोटे भाई-बहनों के साथ मिलकर मोर्चा बनाकर अड़ गया गोविंदा!
रामनिझावन रोता-कलपता ही रह गाय कि दो-दो बेटियों के हाथ पीले करने हैं... छोटे बेटे को भी पढ़ाना है, अब ई सारा बोझ मैं इकल्ला कइसे ढोऊंगा? अरे बड़ा बेटा ही तो सहारा हुई है बाप का... पर गोविंदा को तो जाना था वो वह चला गया. हां, इतना हौसला जरूर बंधा गया कि खेती में चाहे मैं तुम्हारी मदद न कर सवूं दद्दा पर पैसे में तुम्हारी मदद जरूर करता रहूंगा. मुझे भी अपने छोटे भाई-बहिनों का ख्याल है. उनके लिए जो हो सकेगा करूंगा.
बात का पक्का निकला गोविंदा. उसे अपने दद्दा की ... भाई-बहिनों की ज़िम्मेदारी का पूरा ख्याल था सो वह अपने खर्चे लायक पैसे रखकर तऩख्वाह के सारे रुपये दद्दा के पास भेज दिया करता. साल में दो बार जब सबसे मिलने घर आया तो सबके लिए कुछ-न-कुछ लेकर भी आता. अब राम निझावन ने भी संतोष कर लिया कि चलो बेटा राजी-़खुशी है, अपना कमा-खा रहा है... घर में मदद भी कर रहा है और सबसे बड़ी बात कि खूब खुश है. अब बच्चों के सुख से तो बड़ा और कोई सुख होता नहीं मां-बाप के लिए.
पर यह सुख भी ज्यादा दिन के लिए नहीं लिखा था रामनिझावन की त़कदीर में. पूरा पहाड़ टूटकर गिर जाता तब भी शायद वह इस तरह चकनाचूर नहीं होता, जितना इस घटना ने कर दिया. कोई हारी-बीमारी की खबर नहीं,... दुख-त़कली़फ की सूचना नहीं, सीधे गोविंदा की लाश लेकर ही चला आया महेसवा तो. रामनिझावन भरोसा करे तो वैसे करे कि सामने लेटा यह आदमी ज़िंदा नहीं, लाश है.
गोविंदा के पूरे घर में ही नहीं बल्कि सारे ़कस्बे में कोहराम मच गया. देखने वालों की भीड़ टूट पड़ी. क्या हो गया... वैसे हो गया...कब हो गया... किसने कर दिया...? एक ओर देखने वालों के प्रश्नों की बौछार तो दूसरी ओर रामनिझावन और उसकी पत्नी का छाती फोड़ व्रंदन. ‘‘अरे महेसवा, ई कउन जनम का बैर निकाला रे हमसे... तू नौकरी दिलावे की खातिर ले गवा रहा कि जान लेवे की खातिर... तुमका जान ही लेवे का रहा तो हमरी लेइ लेते...’’ माथा ठोक-ठोक कर वह अपने को ही कोसने लगा, ‘‘का बताई, ई तो मत मारी गयी ती हमरी ही जो तुम्हरे साथ भेजे रहे न. हमार बीस बरस का जवान जहान बेटा... हमरे बुढ़ापे की लाठी छीनिके का मिलि गवा रे...’’ दुख, आरोप, असहायता, पश्चाताप की आंच में सुलगता रामनिझावन का प्रलाप और अपराध-बोध से ग्रस्त, सारे आरोपों को चुपचाप झेलते जाने की महेश की म़जबूरी.
आंसुओं में डूबा, टुकड़ों-टुकड़ों में जो बता पाया महेश उसका सार इतना ही था कि ऊपर तार पर काम रहा था गोविंदा और नीचे किसी ने गलती से स्विच ऑन कर दिया. करेंट दौड़ा और तार से ही चिपक कर रह गया गोविंदा. रामनिझावन को कारण से कुछ लेना-देना नहीं... उसे तो बस परिणाम ने चकनाचूर करके रख दिया था. तीन दिन बाद प्रलाप का पहला दौर जरा ठंडा पड़ा तो हिम्मत करके मलहम की पुड़िया निकाली महेश ने इस उम्मीद से कि इसका लेप लगते ही धीरे-धीरे घाव भरने शुरु होंगे. बहुत हिम्मत करके बोला, ‘‘देखो जीजा, गोविंदा अपनी मौत तो मरा नहीं... एक अ़फसर की गलती से मरा है सो सरकार मुआव़जा तो देगी ही... कम नहीं पूरे पच्चीस ह़जार मिलेंगे... कोशिश तो करूंगा कि कुछ और भी मिल जाये और जल्दी से जल्दी ही वसूली करने में भी जान झोंक दूंगा मैं.’’
‘‘चोऽऽप कर’’, ऐसे दहाड़ा रामनिझावन कि सबके सब सन्न रह गये.
‘‘पहिले तो हमार बेटवा की जान लै ली अउर अब वहिकी कीमत चुकाना चाहता. अरे बाप हूं गोविंदा को, कौनो कसाई नहीं जो अपन बेटवा की मौत की कीमत वसूलूंगा. ई सब कमीनी बातें न कर हमरे सामने... तू दूर जा हमरी आखन के आगे से.’’ और वह फूट-फूट कर रोने लगा. महेश ने जिस बात को मलहम समझ कर सामने रखा था, वह तो नश्तर साबित हुई, जिसके लगते ही घाव फिर रिसने लगा और आंखों से आंसू की जगह खून मवाद के रेले बह चले. रोती–कलपती पत्नी अपने भाई को भीतर ले गयी और तसल्ली देकर वहीं से बिदा भी कर दिया.
महेश अपमानित और आहत चाहे जितना हुआ हो पर जीजा के प्रति अपनी जिम्मेदारी जम्मेदारी नहीं भूला. तीन महीने की भाग-दौड़ के बाद वह मुआवा़जे के पच्चीस ह़जार रुपये लेकर जीजा के यहां पहुंचा पर हिम्मत नहीं हुई पहले रामनिझावन के पास जाने की. सो सीधे सरपंच के पास पहुंचा और सारी बात समझायी. जीजा की माली हालत जैसी है, उसमें कितनी मदद मिलेगी इन रुपयों से. दोनों बेटियों के ब्याह निपट जायेंगे... छोटा बेटा पढ़ जायेगा और भी छोटी-मोटी जरूरतें पूरी होंगी. इतना रुपया तो न जाने कितने साल नौकरी करके भी नहीं भेज सकता था गोविंदा. जीजा का दुख समझता हूं पर दुख अपनी जगह और जरूरतें अपनी जगह. गोविंदा तो अब आ नहीं सकता पर इन रुपयों में बहुत-सी परेशानियां तो दूर की ही जा सकती हैं. पहले आप जाकर आगा-पीछा सब समझा दीजिए, जब मान जायेंगे तो मैं जाकर उनके रुपये उन्हें थमा दूंगा.
वैसे तो सरपंच अपने वहां भी बुला सकता था रामनिझावन को पर मौ़के की ऩजाकत देखकर अपने साथ और दो-चार बु़जुुर्गों को लेकर वह खुद ही पहुंचा रामनिझावन के घर. ठेठ दुनियादारी की बातों में लपेट कर वह सारी ऊंच-नीच समझायी. आगा-पीछा सुझाया. उसकी माली हालत का.... ज़िम्मेदारियों का हवाला देकर सरपंच ने जब वह प्रस्ताव रखा उसके सामने तो उसकी झुकी हुई गरदन और झुक गयी और हाथ जोड़कर वह इतना ही कह पाया, ‘‘हमौ गरीबै सही माई-बाप, पर बाप हौं गोविंदा को... अब ़कसाई न बनाओ.’’ और उसकी बा़की बात आंसुओं में ही डूब गयी. इसके बाद तो बिना बोले आंसुओं में ही वह सरपंच के सारे तर्वâ काटता रहा. सरपंच और बु़जुर्गों का सारा समझाना-बुझाना बेकार — मुआव़जे के रुपये लेने के लिए रामनिझावन नहीं माना तो नहीं ही माना. हां, इर्द-गिर्द घिर आये तीनों बच्चों के मन में ़जरूर कुछ इच्छाएं... कुछ सपने बुलबुलाने लगे थे पर बाप के हिचकियों में बदलते रोने के आगे वे भी चुप हो गये.
आख़िर तीन दिन तक बु़जुर्गोंं में ही सलाह-मशवरा चलता रहा और फिर पानी की किल्लत को ध्यान में रखकर यह प्रस्ताव रखा गया कि इन रुपयों से गांव में गोविंदा के नाम से एक प्याऊ खुलवा दी जाये. हर प्यासा राहगीर पानी सच्चे मन से जो दुगाएं देगा, वह सीधे गोविंदा की आत्मा को ही सहलाएंगी. रामनिझावन ने जब इस प्रस्ताव की बात सुनी. गदगद हो गया. मेरे बेटे के नाम की प्याऊ... प्यासे लोग पानी पियेंगे और मेरे बेटे को दुआएं देंगे... इससे बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है मेरे बेटे के लिए. बाप होकर भी इतना पुण्य कमा सकता था क्या मैं अपने बेटे के लिए?
देखते ही देखते प्याऊ बन गयी और गोविंदा के नाम का बोर्ड भी लग गया उस पर. पहले दिन तो राम निझावन ने ़खुद बैठकर सबको पानी पिलाया और उसे लगा जैसे उसका दुख सबके सुख में बदल गया. फिर तो खेत से आते-जाते कुछ देर खड़े रहकर उसी को निहारता... गोविंदा के नाम का बोर्ड देखकर पानी पीने वालों से ज्यादा उसका अपना मन जुड़ा जाता. सरपंच कभी मिलते तो कहते, ‘‘देख रे रामनिझावन. कितै प्यासों की दुआएं मिल रही हैं तेरे गोविंदा को’. तो वह गदगद भाव से सिर झुका लेता.
पता नहीं, पानी पीने वालों की दुआएं गोविंदा तक पहुंचती या नहीं पर रामनिझावन के परिवार तक तो जरूर ही पहुंची रहीं. तभी तो इन पच्चीस सालों में उसकी दोनों बेटियां अच्छे घरों में ब्याहकर आज अपने फलते-फूलते परिवार के साथ प्रसन्न है. उसका छोटा बेटा गोपाल भी दो बच्चों का बाप है जो रामनिझावन अपने बच्चों को दूध-दही खिलाने के लिए कभी एक भैंस नहीं खरीद सका उसने अपने पोतों के लिए एक भैंस भी खरीद ली. अपने घर के एक हिस्से को पक्का करवा दिया, जिससे गोपाल का परिवार आराम से रह सके. उसे तो अपने कच्चे घर में रहने की आदत, सो वह तो उसी में आराम से रहता. इससे ज्यादा सुख की तो वह अपने लिए कल्पना ही नहीं कर सकता था और यह सब वह उस पुण्य का प्रताप ही समझ रहा था, जो पानी पिलाकर उसके खाते में जमा हो रहा था.
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अब इन पच्चीस सालों में उस कस्बे का क्या हाल हुआ, वह भी देखिए. शहर और कस्बे के बीच बस क्या चलने लगी कि उसमें लदकर सवारियों के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में शहर भी कस्बे में आने लगा. कस्बे के हाट-बा़जार शहरी सामानों से भरने लगे तो वहां के लोगों के मन उन्हें पाने की उमंग भरी ललक से. किशोरों और युवाओं ने अपनी टांगों से प़जामें उतारकर जीन्स चढ़ा लीं और उनकी कलाइयों में घड़ियां चमचमाने लगीं. धूप होने पर वे भी काले चश्मे पहन कर घूमते. लड़कियां भी होंठों पर गहरे रंग की लिपस्टिक पोते, माथे पर चमकीली बिदिया चिपकाये... रंगबिरंगे कपड़ों में अपने को मिस इंडिया से कम नहीं समझतीं. जैसे-जैसे बा़जार नये-नये सामानों से भरता जाता उन्हें खरीदने के लिए पैसे की जरूरत बढ़ती जाती. और सामान और पैसा... और सामान और ज्यादा पैसा.
दस साल की उम्र से रामनिझावन के साथ खेती-बाड़ी करने वाले उसके छोटे बेटे गोपाल के मन में भी शहर कब और कैसे फैल-पसर गया. रामनिझावन को इसका पता ही नहीं लगा. लगता भी वैâसे? अंटो में संतोष धन की पूंजी बांधे उसकी दुनिया तो आज भी खेत और घर तक ही सिमटी हुई थी. पर गोपाल को अब संतोषधन — असली धन चाहिए था और इसलिए उसने धीरे-धीरे खेती का काम बाप के कंधों पर डाल शहर के चक्कर लगाने शुरू किये. जब-जब वह शहर जाये... वहां की चकाचौंध उसके मन में नित नयी हवस जगाये. पर वह हवस पूरी हो तो कैसे? बिना पढ़ाई के अच्छी नौकरी मिलने से रही... रहा कोई धंधा सो उसके लिए पैसा चाहिए. जिस भी धंधे की बात सोचता, बात पैसे पर आकर अटक जाती. हर असफलता से हताशा जनमती और हताशा से जनमता गुस्सा और ़गुस्सा जाकर टिकता रामनिझावन पर. और एक दिन आ़िखर वह खम ठोककर बाप के सामने खड़ा हो ही गया.
‘‘दद्दा मुझे तो न पढ़ाया न लिखाया. बैलों की पूंछ मरोड़ते-मरोड़ते आधी ़िजंदगी तो बर्बाद हो गयी मेरी... पर अब बची ़िजंदगी में कुछ बनना चाहता हूं... पैसा कमाना चाहता हूं सो समझ लो कि अब नहीं करना मुझे तुम्हारी यह खेती-बाड़ी!’’ और बड़ी हि़कारत से उसने अपना मुंह झटक दिया.
रामनिझावन ने जो सुना, जो देखा तो अवाक!
‘‘कइसो बात करे रे बेटा तू? अरे ई तो हमार पुश्तैनी धंधा है. ई नाही करिहें तो का करिहें?’’
‘‘क्या रखा है इस पुश्तैशी धंधे में. हाड़-तोड़ मेहनत करो तो दो जून की रोटी मिल जाय बस. जिस साल आसमान से पानी न बरसे तो बैठे-बैठे आंखों से पानी बहाते रहो. कोई धंधा है साला यह भी?’’
दो साल से गोपाल के बदले मि़जा़ज तो देख रहा था रामनिझावन और उसने खेती का ज्यादा काम अपने कंधों पर ले भी लिया था पर बात इतनी बढ़ गयी है, यह नहीं समझ पाया था. उसका सुर और तेवर देखकर बड़े ठंडे मन से उसने कहा — ‘‘तोर मन नहीं लागत अब खेती मा तो तू कौनो अउर काम देख ले आपन मन का. साठ का भवा तो का भवा... अबहुं हाड़-गोड़ में इत्ता जोर तो हइहं कि अकेले ही आपन खेती कर सकत हूं.’’
‘‘हां, अब तुम्हीं करो अपनी खेती... मैंने तो अपने लिए दूसरा काम देख भी लिया है. अब दिखाता हूं कि कैसे किया जाता है काम और कैसे कमाया जाता है पैसा. पर मुझे अपने काम के लिए पचास ह़जार रुपये चाहिए और यह रुपये तुम्हें देने होंगे.’’
सुना तो रामनिझावन तो जैसे आसमान से गिर पड़ा. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था... ये क्या कह रहा है गोपाल? इत्ते रुपये तो उसने अपनी ज़िजंदगी में कभी देखे ही नहीं. इसे कहां से लाकर दे? गुमसुम-सा वह गोपाल का मुंह ही देखता रहा.
‘‘मेरा मुंह क्या ताक रहे हो... सुना नहीं क्या कि मुझे रुपये चाहिए पचास ह़जार. तय कर लिया है मैंने. मुझे बीच बा़जार में दुकान
खोलनी है एक. शहर के एक-दो लोगों से बात भी कर ली है. वह तीन महीने की उधारी पर सामान देने को तैयार हैं... पर बेचने के लिए दुकान तो चाहिए. आज बड़े बा़जार में एक छोटी-सी दुकान भी खरीदो तो पचास ह़जार से कम में नहीं मिलेगी.’’‘‘गोपाल!’’ राम निझावन कुछ ऐसे बोला मानो विश्वास करना चाह रहा हो कि सामने बैठा यह आदमी उसी का बेटा है. फिर धीरे से बोला, ‘‘बेटा, पांच सात बरस में पइसा-कौड़ी का हिसाब तोहार हाथन में ही तो रहा. अनाज तू बेचत रहा. खाद-बीज तू खरीदन रहा... अउर घरौ तू ही ते चलावत रहा. अइसे में हमरे पास पइसा कहां...’’
‘‘जानता हूं... जानता हूं. तुम्हारे पास पचास रुपये क्या पचास पैसे भी नहीं मिलेंगे और हिसाब-किताब रखने से क्या होता है? इस बित्ते भर की खेती से तो पेट भर लेते थे सो ही बड़ी बात. कोई काम है यह भी. पर मुझे तो पैसा चाहिए ही चाहिए. बस, यह कह दिया मैंने.’’
क्षण भर को दोनों चुप और फिर गोपाल ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘रुपये नहीं हैं तो बस फिर एक ही उपाय है. बीच बा़जार में बनो उस प्याऊ को हटाकर मैं दुकान खोल लेता हूं उस जगह. दुकान के लिए इससे अच्छी जगह तो और कोई हो ही नहीं सकती.’’
‘‘गोपाऽऽल!’’ अपनी सारी ताकत लगा कर ची़ख पड़ा रामनिझावन.
‘‘ई प्याऊ नही रे! इ तो निसानी है हमार बेटवा की... हमार गोविंदा की... तोहार बड़ा भाइयां तो रहा ऊ... अउर तू है कि...’’ और आवा़ज भरभरा कर टूट गयी उसकी.
‘‘अरे जब था तब था. पच्चीस बरस हो गये उसे मरे खपे. अब क्या सारी ज़िंदगी उसे छाती से चिपकाये ही बैठा रहूंगा?’’
‘‘ई का कहत है रे तू... अइसी बात न बोल...न...’’
बात बीच में ही काटकर गोपाल बोला, ‘‘तुम्हारा बस चले तो तुम तो उस मरे बेटे के लिए अपने इस ज़िंदा बेटे को मार दो.’’
दोनों हाथों से बरजता हुआ, अंसुवाई आंखों से गिड़गिड़ाते हुए राम निझावन ऐसे बोला मानो याचना कर रहा हो.
‘‘न बोल अइसी बात... न बोल रे अइसी बात. आज तू ही तो हमार सब कुछ है... तू अउर तोर बेटवा हो तो जिनगी है हमार... ई तू काहे समझत नाहीं रे!’’
‘‘अच्छा. ़िजंदगी हूं तुम्हारी तो बस प्याऊ सुपुर्द कर दो मेरे.’’
रामनिझावन बोले तो क्या बोले? उस बेचारे से तो न बोलते बने, न प्याऊ देते बने! हाथ जोड़कर किसी तरह इतना ही कह पाया, ‘‘बेटा, ई प्याऊ न तोहरी कमाई से बनी, न हमरी कमाई से. ई तो गोविंदा की मौत की कमाई से बनी. तू ही सोच ई पर कइसे ह़क जमा सकित हैं हम?’’
इस बार भन्ना गया गोपाल. सोच रहा था कि उसकी बात, उसकी ़जरूरत सुन-समझ कर राजी हो जायेगा. दद्दा पर ये तो उस मरे बेटे को ही छाती से चिपकाये बैठा है. धिक्कार भरे स्वर में बोला, ‘‘अरे, बरसों हो गये उसकी मौत को और मौत की कमाई को. आज तो वह सब किसी को याद भी नहीं होगा, आज तो हमीं मालिक हैं उस प्याऊ के. हम जो चाहे करें.’’
‘‘बेटे की बात छोड़... यही समझ कि प्यासन को पानी पिलाई के तो धरम होत है... पुन्न मिलत है तू काहे...’’
बात बीच में ही काटकर बड़े व्यंग्य से बोला गोपाल, ‘‘धरम... पुन्न... ये सब रईसों के चोंचले हैं... मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा ये धरम-पुन्न! मुझे तो अपनी दुकान के लिए बस प्याऊ चाहिए.’’
‘‘आपन खातिर ज़िंदा तो सबै रहत हैं बेटा पर मानुस जनम लेकर दूसरन की खातिर भी कछु करैका चाही के ना?’’
‘‘अपना ठौर-ठिकाना नहीं और दूसरे की खातिर करने चले हैं. बहुत कर लिया दूसरों के लिए. अब तो जो कुछ करना है मुझे अपने लिए करना है. सोचा था मेरी जरूरत समझ कर तुम खुशी-़खुशी दे दोगे प्याऊ. पर तुम नहीं देने वाले तो इतना समझ लो कि लेना मुझे भी आता है. देखता हूं कौन रोकता है मुझे और कैसे रोकता है?’’ और गुस्से से दनदनाता हुआ गोपाल बाहर निकल गया.
रामनिझावन को जैसा सदमा गोविंद की लाश को देखकर लगा था, वैसा ही सदमा गोपाल की बातें सुनकर लगा. उसे तो बिजली के तार ने मार दिया था, पर उसे? गोविंद की दैहिक मौत थी! गोपाल की आत्मा मर चुकी है ! यह सवाल बड़ा है कि गोविंद को तो बिजली के तार ने मार दिया था पर गोपाल को किसने मारा? उसकी चुनौती से सिहर कर बेहद लाचार, बेबस रामनिझावन ने घुटनों में सिर छिपा लिया.
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बाहर निकल कर गोपाल सीधा अपने उन दो दोस्तों के पास गया, जिन्होंने कमीशन पर उधारी में सामान दिलवाने का जुगाड़ कर रखा था. वे उसी का इंत़जार कर रहे थे. उसे देखते ही पूछा — ‘‘क्या हुआ, मिल जायेगी प्याऊ?’’
गुस्से से भन्नाये हुए गोपाल ने गरदन झटक कर कहा — ‘‘बहुत कहा, समझाया, अपनी ़जरूरत बतायी पर मानता ही नहीं बुढ़ऊ. बैठा रहने दो उसे अपने मरे बेटे और धरम-पुन्न को छाती से चिपकाये-चिपकाये. चलो मेरे साथ... मैं ठिकाने लगाता हूं... उसका पुन्न प्रताप! आ़िखर क्या बिगाड़ लेगा वह मेरा...’' और अपने दोनों दोस्तों को लेकर एक दृढ़ संकल्प के साथ वह प्याऊ की ओर बढ़ गया!
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