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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 सितंबर, 2024

संजय शांडिल्य की भाषा-केंद्रित कविताएँ

 

शब्द ही मेरा घर है


शब्द ही

मेरा घर है


सबसे ज़्यादा

सभी रंगों में

मैं वहीं मिलता हूँ


तुम भी

वहीं आ जाना...

०००

अधूरी रचना

गर्भस्थ शिशु

सूखता हुआ

अपनी ही देह में


लौटता हुआ

अपने प्रारंभ की ओर


बिलाता हुआ

बिलबिलाता हुआ

अपनी आत्मा के अनंत में...!

०००

विराम-चिह्न


भाषा का आदमी 

सबसे अंत में

विराम-चिह्नों के पास जाता है 

जाता है और धीरे...धीरे 

प्यार के जाल में उन्हें फाँसता है

फाँसता है और साधता है 

साधने के बाद 

भाषा का आदमी

धीरे...धीरे 

भाषा से 

उन्हें बाहर फेंक देता है


यक़ीन न हो

तो जो पढ़ रहे हो आजकल

या लिख रहे हो 

उसे ग़ौर से देखो

तुम्हें ज़रूर लगेगा

तुम्हारी भाषा में 

बहुत कम बच गए हैं विराम-चिह्न !


भाषा पर पकड़ 


भाषा पर लेखक की पकड़ वैसी न हो

जैसी शेर की शिकार पर होती है

बाघ-चीते-तेंदुए-जैसी भी नहीं


उसकी पकड़

चील और बाज़-जैसी भी न हो

यहाँ तक कि आदमी-जैसी भी न हो

जैसी उसकी शत्रु पर होती है


भाषा पर लेखक की पकड़ 

शेर के मुँह में पड़े 

उसके शावक पर पकड़-जैसी हो

बाघ-चीते-तेंदुए के पंजों में खेलते

उनके शावकों पर पकड़-जैसी

चील और बाज़ के डैनों-तले

उड़ान भरने का इंतज़ार करते

उनके बच्चों पर पकड़-जैसी


दरअसल, 

भाषा पर लेखक की पकड़ वैसी हो

जैसी दोस्ती की हुआ करती है 

और प्यार की हुआ करती है


वैसी 

कि पकड़ाए हुए को ज़रा भी न महसूस हो

और छूटे हुए को महसूस हो ज़रूर...

०००

सर्जक का देखना


फूल नहीं

पराग चाहिए

वह मधु बना लेगा...

०००

सर्जक का कथन


दुखी था

कि लौट रहा था

सुख की तरफ़


सुखी हूँ

कि लौट रहा अब

दुख की तरफ़...

०००











अनुपस्थिति


अनुपस्थिति 

उपस्थिति का विलोम ही नहीं होती

पर्याय भी होती है 


अभी तुम नहीं दिख रहीं 

पर हो ज़रूर

हो कि नहीं ?

०००

भाषा की भी स्त्रियाँ कमज़ोर नहीं होतीं


जंग जितनी शिद्दत से लड़ी जाए

लड़ी जाती है

युद्ध की तरह लड़ा नहीं जाता

लड़ाई जैसी हो, की जाती है

झगड़े की तरह किया नहीं जाता


जितनी लंबी हो हड़ताल

होती है

जितना छोटा हो आंदोलन

होता है

भाषा की भी स्त्रियाँ

कमज़ोर नहीं होतीं भाषा के पुरुषों से

और भाषा ?

भाषा भी तो होती ही है

होता नहीं साहित्य की तरह !


बहुत जितना बहुत हो

प्रचुर जितना प्रचुर

अधिक जितना अधिक हो

जितना भी चाहे जितना

व्याकरण से नज़र बचाकर

दीर्घ कर भी दी जाए ह्रस्व की मात्रा

तो भी वस्तु की मात्रा नहीं बढ़ सकती


बधाई और शुभकामनाएँ

हार्दिक ही होती हैं

श्रद्धांजलियाँ विनम्र

नमस्कार होता है सप्रेम ही

या प्रणाम सादर होता है

विशेषणों की फ़िज़ूलख़र्ची

हमें दरिद्र बना सकती है शब्द-संसार में...

०००

मिलना


एक मुहावरे को

मैं ढूँढ़ रहा था शब्दों में

जब ढूँढ़ चुका बहुत

तो लगा किसी दृश्य में जाकर

वह अदृश्य हो गया होगा


फिर क्या था

तमाम दृश्यों को ढूँढ़ने लगा

ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मिला वह दृश्य भी

जिसमें उसके छिपे होने की 

सबसे ज़्यादा संभावना थी

मैं तुरंत उसमें दाख़िल हुआ


पर बेकार...एकदम बेकार !

कुछ ही देर पहले

जीवन में वह दाख़िल हो चुका था...

०००










तुम जो छूट गए हो


हर कवि

शब्दों के पास 

काफ़ी जगह बचाता है


असंख्य नदियाँ

आलापों के बीच 

रचता है गायक


चित्रकार

रंगों के अनंत जंगल 

सिरजता है काग़ज़ी दुनिया में


जानते हो क्यों

क्योंकि तुम वहाँ रह सको


तुम

जो छूट गए हो 

योजनाओं के बाहर

प्रेम से कर दिए गए हो विलग...

ज़रूरी नहीं


ज़रूरी नहीं

कि पानी से ही बने नदी

काठ-कीलों से ही बने नाव


एक बच्चे की किताब में

'न' से भी ये बन जाती हैं

उसकी कापी में

रंगों से भी ये बन जाती हैं...

०००

नकार


'न' से नदी

'न' से नाव


इस तरह भी

नकार

सकार होता है...

०००

दो नकार 


तुम्हारे नकार को

मैंने स्वीकार किया यह जानते हुए

कि मैं भी नकार हूँ


सुना है

दो नकार सकार हो जाते हैं


–नदी ने कहा नाव से...


तुम जब चाहो


हर शब्द के पहले और बाद

हर पंक्ति के ऊपर और नीचे

मैंने काफ़ी जगह बचा रखी है


तुम जब चाहो, आ जाना...

०००

नकारने वाले


वे नकारने वाले हैं

एक शब्द ही से नहीं

एक अक्षर से भी नकारने वाले


उनके हाथ में

न तलवार है न कुल्हाड़ी

ज़ुबान ही की धार से 

वे काटते हैं द्वंद्व के पाँव

भ्रम की दीवार को पल में ढहा देते हैं


जैसे वे नकारते हैं 

नकारने की हर बात

मसलन—

घृणा के फण को

कुचलते हैं साहस के नकार से

ठीक वैसे 

स्वीकारते भी हैं 

स्वीकारने की हर बात

मसलन—

स्नेह के मोती को 

धारते हैं

हृदय-सीप में प्यार से


उनकी फ़िज़ाओं में

चटक रंग कम होते हैं

हरा और लाल-जैसे तो 

होते ही नहीं

उनकी भावनाओं में 

पानी का रंग होता है

और साहस में आग का


बेहद कम हैं इस भवारण्य में वे

पर निकलते हैं तो शेरों की तरह निकलते हैं

भेड़ियों के पीछे चलनेवाली भेड़ें वे नहीं हैं 


वे पहाड़ हैं महानता के

दुनिया के बेहद ऊँचे-ऊँचे पहाड़

पर टूटते हैं साज़िशों से कभी-कभार

और प्यार से बार-बार...लगातार...

●●●

सभी चित्र फेसबुक से साभार 

०००

कवि परिचय

जन्म : 15 अगस्त, 1970 |स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर |शिक्षा : स्नातकोत्तर |वृत्ति : अध्यापन | 

प्रकाशन : कविताएँ 'आलोचना', 'आजकल', 'हंस', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'वागर्थ', 'वसुधा', 'बनास

जन', 'दोआबा', 'नई धारा', 'कृति बहुमत','नया प्रस्थान', 'ककसाड़' एवं 'मधुमती'-समेत हिंदी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं ‘अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले', ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, 'अँधेरे में पिता की आवाज़', 'इश्क एक : रंग अनेक', 'काव्योदय', 'प्रभाती', 'आकाश की सीढ़ी है बारिश', 'मेरे पिता', 'गीत-कबीर हृदयेश्वर' एवं 'पल-पल दिल के पास' सहित कई संकलनों में संकलित। कविता-संकलन ‘उदय-वेला’ के सह-कवि | 'समय का पुल' प्रकाशित | तीन कविता-संकलन 'लौटते हुए का होना', 'जाते हुए प्यार की उदासी से' (प्रेम-कविताओं का संकलन) एवं 'नदी मुस्कुराई' (नदी और पानी-केंद्रित कविताओं का संकलन) शीघ्र प्रकाश्य | 

संपादन : ‘संधि-वेला’, ‘पदचिह्न’, ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, ‘प्रस्तुत प्रश्न', ‘कसौटी’ (विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), ‘जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), ‘रंग-वर्ष’ एवं ‘रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ), 'जीना यहाँ मरना यहाँ' (गायक मुकेश के जीवन और कलात्मक अवदान पर केंद्रित स्मारिका) | फ़िलहाल अर्धवार्षिक पत्रिका 'उन्मेष' का संपादन एवं इसी नाम से एक साहित्यिक ब्लॉग का संचालन |

भारतीय फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII), पुणे, महाराष्ट्र द्वारा साहित्य अकादेमी की बहुचर्चित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित कविता 'जो आदमी लौट आया है' पर लघु फ़िल्म का निर्माण | 

रंगकर्म से गहरा जुड़ाव | बचपन और किशोरावस्था में कई नाटकों में अभिनय | हिंदी की प्रमुख कविताओं और काव्य पंक्तियों पर पोस्टर्स का निर्माण एवं उनकी प्रस्तुति | हिंदी की बहुचर्चित कविताओं का काव्यात्मक गायन |

संपर्क : साकेतपुरी, आर. एन. कॉलेज फील्ड से पूरब, प्राथमिक विद्यालय के समीप, हाजीपुर, वैशाली, पिन : 844101 (बिहार) |

मोबाइल नं. : 9430800034, 7979062845 |

मेल अड्रेस : sanjayshandilya15@gmail.com |

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं:- पन्द्रह

 

गुज़रना उसका शीशे के आर-पार

फय्याज़िद


मानों उलट गया हो 

तेल का घड़ा 

दूर क्षितिज पर 

कुछ हरा सा 

कुछ नीला सा


देहलीज़ पर खड़ी वो 

काँपती ठंढ से 

पहने सिर्फ़ एक झीना लिबास 

बढ़ायी उसने उसकी जैकेट, उसकी तरफ़ 

वक़्त आ ही गया प्यार करने का 

चन्द लम्हों के बाद 

मिलती हैं निगाहें दिलरुबा से 

फिसलतीं चारों ओर 

निगाहें पड़ गईं हैं सर्द 

वक़्त गुज़रने के साथ 

फिर भी, कस जाती हैं बाँहें 

फलदार बाग़ान घिर गया हो बाँहों में 

हाँ, एक उदास फल 

हाँ, एक मायूस फल 

हाँ, एक नींद से बोझिल फल 

चेहरे खो जाते हैं एक-दूसरे में 

लिख देती है पछुआ हवा अपना नाम



चित्र 

आस्मा अक्तर








दमिश्क़, दमिश्क़़, दमिश्क़ 

चौराहे उमड़ रहे 

भरे हैं लबालब 

पिछली रात के गुलाबों मे 

अलविदा, प्रिय 

अलविदा, प्रिये 

क्षितिज पर फैली सुबह 

दमिश्क़ बन कौंधती है यादों में


दमिश्क़ की पहली रात 

अंगूर के बेलों सी ऐंठती, 

चढ़ती मेहराबों पर, कंगूरों पर 

मुस्कुराती छोटे-छोटे होंठों में 

सहलाती क़दमों को हौले से 

आहिस्ता, दरिया के पानी की तरह 

दरिया के किनारे वाली ऊँची खिड़कियों से 

या उस तरफ़ जाती 

घुमावदार ख़ामोश सीढ़ियों से 

दोस्तों की भुतही निगाहों के साये में 

गुज़र जायेगी वह 

शीशे के आर पार एक 

खुशनुमा सुबह की तरह


बीस साल की लड़की 

चेहरे से जिसके 

टपक रही हो गर्मी 

होठों में समा गये हों जिसके 

गाँव के खुशनुमा मंजर 

शायद आने वाले 

सर्द मौसम की तैय्यारी में 

भर देती है हामी 

गुज़रती हुयी बग़ल से 

लगता है

उड़ रहीं हों दो चिड़ियाँ

पंख पसारे, दरिया किनारे 

गुज़रते हैं हम 

उसी खिड़की के नीचे से, उम्मीद लगाये नहीं, 

नहीं पकड़ पाया कोई अब तक 

शाहजादी के हाथ से उछाला सेब *


वक़्त गुज़रने के साथ 

हुए हम उम्रदराज 

खिड़कियों के नीचे भरी आहें 

हुईं बिल्कुल बेअसर 

आ धमकी लड़ाई सर पर 

दिन गुज़रा, शाम गुज़री 

सुबह हो गई इश्क़ के रात की 

रात, इकट्ठा करती है ओस 

एक प्याले में 

प्यार की 

एक लम्बी चाहत भरी रात की उम्मीद... 

प्यार के मारे 

जाते हैं इधर से 

उधर उधर से इधर 

इन्द्रधनुष की तरह 

फिर झाँकता है खिड़की से, दमिश्क़ 

ग़मजदा शाहज़ादी सा 

टूटे हुए फूलदान सा


यही है वह जो गुज़रा अलस्सुबह उधर से 

यही है वह दिखाई मुझे जिसने 

पहले पहल लिखी नज़्मों के पन्ने 

यही है वह मिलना चाहा जिसने, मुझसे


*. किस्सा सुल्तान की बेटी का है। जब शाहजादी ने शादी की इच्छा जाहिर की, तो मुल्तान ने हुक्म दिया कि शहर के नौजवान शाहजादी की खिड़की के नीचे से गुजरें। अगर कोई नौजवान उसको पसन्द आया तो वह उसकी तरफ़ सेब उष्ठालेगी फिर सिपाही उसे शाह‌जादी के पास ले आयेंगे ।




चित्र 

रमेश आनंद 






शाम के धुंधलके में 

मुँह लटकाये 

क्या था भला मेरे पास उसे देने को 

खो गई उसके क़दमों की आहट धीरे धीरे 

यही था वह, 

मिलती थी शक्ल जिसकी मेरे भाई से 

यही है वह, सुबह वाला दीवाना 

खड़ा चुपचाप, चौखट पर

०००

कवि का परिचय 


फ़य्याज़िद-समाख में, 1943 में, जन्म। कम उम्र से ही रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं। सऊदी अरब और सीरिया, दोनों जगहों में पत्रकार के रूप में काम किया। इनके तीन कविता संग्रह उपलब्ध हैं- 'मेरा चमकदार सूरज', 'जंगली घोड़ों की गर्दनें' और 'मैं घुल जाता हूँ राम में' ।


यूसुफ़ अब्दुल अजीज - एल-कोड के कतना क्षेत्र में 1956 में जन्म। पाँच कविता संग्रह प्रकाशित । इनमें 'राख हुए शहर से बाहर', 'पत्थरों के नगमे' एवं 'बादलों के काराजात' प्रमुख हैं।



अनुवादक 


राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

20 सितंबर, 2024

अंतोन चेखव की कहानी

 कमज़ोर


आज मैं अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिमा वार्सीयेव्जा का हिसाब चुकता करना चाहता था।

''बैठ जाओ, यूलिमा वार्सीयेव्जा।'' मेंने उससे कहा, ''तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फैसला हुआ था कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, हैं न?''

''नहीं,चालीस।''

''नहीं तीस। तुम हमारे यहाँ दो महीने रही हो।''

''दो महीने पाँच दिन।''

''पूरे दो महीने। इन दो महीनों के नौ इतवार निकाल दो। इतवार के दिन तुम कोल्या को सिर्फ सैर के लिए ही लेकर

जाती थीं और फिर तीन छुट्टियाँ... नौ और तीन बारह, तो बारह रूबल कम हुए। कोल्या चार दिन बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ वान्या को ही पढ़ाया और फिर तीन दिन तुम्हारे दाँत में दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात, हुए उन्नीस। इन्हें निकाला जाए, तो बाकी रहे... हाँ इकतालीस रूबल, ठीक है?''

यूलिया की आँखों में आँसू भर आए।

"कप-प्लेट तोड़ डाले। दो रूबल इनके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ डाला था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गई। पाँच रूबल उसके कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सताईस निकालो। बाकी रह गए चौदह।''

यूलिया की आँखों में आँसू उमड़ आए, ''मैंने सिर्फ एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे....।''

''अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं, तो चौदह में से तीन निकालो। अबे बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख्वाह। तीन,तीन... एक और एक।''

''धन्यवाद!'' उसने बहुत ही हौले से कहा।

''तुमने धन्यवाद क्यों कहा?''

''पैसों के लिए।''

''लानत है! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर धन्यवाद कहती हो। अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूँगा। यह रही पूरी रकम।''

वह धन्यवाद कहकर चली गई। मैं उसे देखता हुआ सोचने लगा कि दुनिया में ताकतवर बनना कितना आसान है।

०००

चित्र फेसबुक से साभार 


मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं:- चौदह

 


सलीब-I

ख़ालिद अबू ख़ालिद


तुम आये हवा पे सवार 

उस जगह से 

जहाँ से होती है हवा की शुरुआत 

जहाँ से होती है शुरू हर बरसात 

तुम आये हवा पे सवार 

इस खंडहर शहर के किनारे 

रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम


आते ही 

तुम फेंक देते हो अपना जाल बेफ़िक्री से 

बेख़बर हालात से 

तैरता है जाल बालू के ढूहों पर 

मछलियाँ, सिर्फ़ साये हैं मछलियों के 

निगाह जाती है जहाँ तक 

सलीब ही सलीब 

जन्नत से दोज़ख तक 

रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम


बरसों तक 

सलीबों से भरी टोकरी 

ढोयी है मैंने 

फिर भी, 

रुला देता है हर नया चेहरा 

रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम


जिधर भी घूमो 

बंद कर लो निगाहें 

दिखाई पड़ेगी फिर भी 

दहशत सिर्फ़ दहशत


हमारा वक़्त रह गया है 

कोलतार की 

एक झील की मानिन्द 

जो उतरा सो डूबा


हम डाल दिये गये हैं 

किसी प्रेत द्वारा गहरी खदान में 

पीस दिये गये हैं धूल में, धूल जैसे


हमारे दिलों की चिन्गारी 

दफ़्न कर दी गई है 

उसी गहरी काली खदान में

०००



चित्र रमेश आनंद
 







सलीब-II


सलाम, 

स्वागत है तुम्हारा दोस्त 

मेहमान मेरे 

जाने न दूँगा तुम्हें कभी भी


तूफ़ान उठा है तुम्हारी अगवानी में 

लपेट लेंगे तुम्हें, हजारों हज़ार तूफ़ान 

तूफ़ान उठा है 

तुम्हारे अनगिनत जालों के समुन्दर से 

जिसे तुम फेंकते हो और खींच लेते हो 

फिर फेंकते हो, फिर खींच लेते हो 

इतने फट गये हैं जाल 

मरम्मत होगी नामुमकिन 

तुम्हें नहीं मिले मोती 

तुम्हें नहीं मिले सीप


सलीब पे टँगा मैं 

देखता हूँ तुम्हारी एक-एक हरकत 

बालू के ढेर पर लगा के तम्बू 

तुम दौड़ते इधर-उधर 

अपने ख़्वाबों के मोतियों की तलाश में 

सोचते हो मिलेंगे यहीं कहीं 

अफ़सोस है तुम्हारे लिए 

अलकतरे के समुन्दर में 

मोती भला कहाँ


लौटते हो जब अपना चिथड़ा जाल लिये 

उड़ा ले जाता है रेतीला तूफ़ान तुम्हारे तम्बू 

मेरी तरह तुम भी 

टंग गये सलीब पर 

आँखें टिकी हैं क्षितिज पर 

गिड़गिड़ाते, पुकारते हर आदमी को 

रुको, जहाँ भी हो तुम


यहाँ रहते हैं वे 

जो खून पी जायेंगे तुम्हारा 

यह टापू भरा है कीड़ों और गद्दारों से 

यहाँ रुक गया है वक़्त


अरे, जरा मुस्कराना 

हमारे नग़मों पर 

हमारे दिल की धड़कनों पर 

हमारी पलकें झपकती हैं जल्दी जल्दी 

हमारी चमकदार आँखों में उतर आया ख़ून 

बेपनाह सन्नाटा, हवा और पानी के घर तक 

काश, 

तुम, तुम होते 

सिर्फ़ तुम, तुम होते


क्या सुना तुमने

मेरा और दोस्तों का नग़मा ? 

और देखा मुझे 

उखाड़ते उँगलियों के नाख़ून ? 

मेरी वहशत देखकर 

भागे तुम दहशत से 

छोड़कर अपना सलीब 

रुको, लादो इसे अपनी पीठ पर 

फिर दफ़ा हो यहाँ से 

फूंक-फूंक कर रखना कदम 

रुको, जहाँ भी हो तुम

०००



चित्र 

फेसबुक से साभार 







सलीब-III

इसके पहले

कि तुम अलविदा कहो, मेरे दोस्त 

इसके पहले

कि तुम भूल जाओ हमारी भूख, मेरे दोस्त 

एक प्यारी पुरवैया की ख़ातिर 

एक प्यारी मुस्कान की खातिर 

कहना चाहूँगा, जाओ सिर्फ़ कल तक के लिए 

आह, कल है कितना पास

आठ बजे

नौ बजे

दस बजे

दस बजकर दो सेकण्ड


शायद इन्तज़ार कर रहे थे तुम 

कि हम कहें कुछ भी 

माफ़ करना दोस्त, 

मेरी और मेरे दोस्तों की ख़ामोशी 


पैदा होने को होता है कोई जब 

होता है सब कुछ ख़ामोश 

फिर भी बंधाता है उम्मीद


अलविदा मेरे दोस्त, अलविदा 

छोड़ गये हो अपने पीछे 

मायूस खतों के पहाड़ 

और रोशनाई का 

काला, गहरा और ख़ौफ़नाक कुआँ

०००


कवि 


ख़ालिद-अबू-ख़ालिद - 1937 में सिलाल एथार में जन्म। इनके जन्म के पहले ही पिता की जिओनिस्ट और ब्रिटिश फौजों के बीच हुए युद्ध में मृत्यु । इन्हें

०००

अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए 

पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

19 सितंबर, 2024

बुद्धिलाल पाल की कविताएं

 

 चमगादड़

बुद्धि लाल पाल

राजा नंगा ही नहीं होता

जनता के सिर पर

पेशाब करता हुआ भी होता है


नंगा अभद्र कूद कूदकर

अपना लिंग दिखाता 

उसी की पूजा करवाता हुआ


जनता पर शासन करता 

जनता के दिल में रहता

जनता की दहशत में होता


सिर पर चमगादड़ ताज 

जनता का रक्षक दाता  

खुदा ईश्वर हो पुजवाता


कभी किसी गुफा में

कभी किसी,समुद्र,मठ

मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा में 

ध्यान लगाकर  बैठता

०००



चित्र निज़ार अल बद्र 







कब्जा


स्त्री बहुत सदियों से

मनुष्य श्रेणी में होना चाही 

उसे नहीं होने दिया गया

नहीं माना गया मनुष्य 


कि उसमें भी 

होती है स्वतंत्र चेता 

कि उसके भी होते हैं सपने 

उसकी भी होती है इच्छाएं 

उसकी चेता को सपनों को

नकारा गया,की गई अनदेखी


न न विध से पालतू बनाया गया 

कब्जा किया गया उसकी सांसों पर 

पिछलग्गू बनाया गया पुरुषों के 

आश्रित बनाया गया पशु की तरह 


इतिहास में, वर्तमान में 

युद्ध का खेत ही बनाई गई

वपरा गया उसे पशु की ही तरह 

रखी गई मर्दों की संपत्ति जागीर के रूप में

०००


 कविता के लिए


कविता क्यों 

लिखते हैं लोग। 

खुद के लिए।

खुद को महान 

बताने के लिए। 

दुनियां को भक्त 

बनाने के लिए। 

कुर्सी के लिए। 

सम्मान के लिए। 

लाभ में व्यवस्था में 

हिस्सेदारी के लिए। 

किसी को पढ़वाकर 

यही करने के लिए।

कविता के लिए

कितने लोग कविता लिखते हैं ?

०००

कवि 










बुद्धिलाल पाल , MIG -562 , न्यू बोरसी , दुर्ग ( छ.ग.)

पिन 491001 माेबा 78695 02334 ,9425568322

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- तेरह

 

रात दिन की दहशत

(अपनी दोस्त रोडमैरी के लिये)

फदवा तूकान 


मुर्दे टहलते हैं 

अपनी गलियों में 

जिन्न, मिल जाते हैं काली दीवारों के साथ 

आर पार दिखते हड्डियों के ढाँचे 

बहन,

उढ़ा दो कफ़न मुर्दा जिस्मों को

शर्म,

शर्म करो, बहन है मेरी बिना कपड़ों के 

पड़ोसी भी हैं बिना कपड़ों के 

कुछ नहीं बचा हमारे पास 

ढंक पायें शर्म जिससे अपनी







नंगे पेड़ हिल रहे पागलों की तरह

उड़ गये हैं चिड़ियों के पर, उन पर से

होती है दस्तक दरवजे पर, अचानक

सिपाही हैं शायद 

मेरी बहन 

चक्कर लगाती इधर से उधर 

उधर से इधर, जुनून में 

सिपाही, और ज्यादा सिपाही 

मैं भी घूमता हूँ इधर उधर 

फिर, घूम पड़ता हूँ पीछे


चारदीवारी के पार से 

आती है आवाज़ 

इश्क़ के मारे आशिक़ की आवाज़ महबूबा 

हो चुकी किसी ग़ैर की 

रह गया मैं, एक नामुराद आशिक़ 

बोलो, कुछ तो बोलो जानेमन 

मैं रहा हूँ क़रीबी तुम्हारा 

रौशनी तुम्हारी आँखों की 

क़सम ख़ुदा, 

तुम्हीं हो मेरी आँख और निगाह महबूबा, 

डूब जाने दो मुझे 

अपनी आँखों की गहराई में 

मत ढकेलो परे

तोड़ देते हैं दरवाज़ा 

कम्बख़्त सिपाही 

या खुदा, रहम कर 

जानेमन, उदास हो ? 

ले लो मेरे दिल का ख़ूनी लाल गुलाब 

रख लो इसे अपने दिल में, 

धड़कनों के पास 

दरवाज़े पर हैं सिपाही, या रब, 

छोड़ दिया है ख़ुदा ने भी मेरा साथ 

ढंक लो अपना चेहरा 

अपनों ने ही 

भोंक दिया खंजर पीठ में 

क़हर की रात दरवाजा खोल बदज़ात

दरवाज़ा खोल, हरामी की औलाद 

लगता है, दुनियाँ की हर जबान में

गाली दे रहे सिपाही


महबूबा मेरी, 

जाग उठा हूँ बिना सपनों वाली नींद से

कॉफी पीने से शायद 

हो जाये भारीपन ग़ायब 

ख़ामोशी 

कभी न ख़त्म होने वाली ख़ामोशी 

उदासी और गुजरे दर्द पर डालता हूं निगाह 

कौन सा रास्ता रह गया है चुनने को 

ख़ामोशी, सिर्फ़ ख़ामोशी 

या ख़ुदा, आख़िर क्यों 

एलकोड के अख़बारों में 

रोज़ छपती हैं ख़बरें 


बेथेलहम ! खोरबत बेत सकारिया के इलाक़े में किसानों ने कार 

आसियों की तरफ़ से बढ़ते बुलडोज़रों को देखा है। 

बताया जाता है कि इन बुलडोज़रों ने खेतों और फ़सलों का भारी नुक़सान किया है।" एक शिकायती ख़त जो किसी इब्राहीम अताउल्ला, बमुक़ाम वेत सकारिया, कार आसियों के मग़रिब में, ज़िला बेथेलहम द्वारा, लड़ाई के महकमे को लिखा गया -


मेरे खेतों को हथिया लेने के बाबत


जनाब, आपको इत्तिला हो कि जिस ज़मीन के बारे में आपको लिखा जा रहा है वो हमारे दाना-पानी का अकेला सहारा है। इससे इक्कीस लोग की परवरिश होती है। इनकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मेरे ऊपर है। परसों, बुलडोज़रों ने पूरी फ़सल तबाह कर दी जिससे हमारा साल भर का गुज़ारा होता। आपसे भूखे बाल बच्चों के नाम पर दरख़्वास्त है कि, बराये मेहरबानी, मेरी ज़मीन लौटवाने में मदद करें। ज़मीन के एवज़ में मुझे कोई पैसा या दूसरी ज़मीन नहीं चाहिये ।

           

                                                    -बक़लम 

                                             इबाहीम अताउल्ला








बार-बार 

हर बार वही बासी ख़बरें 

कुछ भी नहीं 

जो हो क़ाबिले ग़ौर या नया 

फँसता मालूम पड़ता है गला 

रेशमी कीड़े,


चूस लोगे तुम 

मेरे ख़ून की एक एक बूंद 

क्या रह पायेगी ज़िन्दगी भला उसके बाद 

या ख़ुदा, क्या हो रहा है 

टूटती नहीं ख़ामोशी घुमाता हूँ रेडियो की सुई 

क्या हो रहा है दुनियाँ-जहान में 

अँधा जिन्न, 

ली ले जा रहा है आदमी पर आदमी 

बेलफास्ट भी नहीं है अछूता 

सुनहरे फूलों का सर 

काट दिया गया हो किसी टाइम बम से 

यही है हश्र वियतनाम का 

उदासी रोज़ जज़्ब होती है 

वियतनाम की मिट्टी में 

खाद है नेपाम बमों की 

नोंच रहे गिद्ध अधमरे जिस्मों को 

फैल गये ख़ूनी पंजे

दहशत दे रही मौत का पैग़ाम 

किसने फैलायी 

ये खौफ़नाक़ दहशत 

हमारे जहान में ? 

किसने उढ़ा दिया है 

खौफ़ का कफ़न 

ऐ ख़ुदा मुहब्बत है कहीं बाक़ी 

या हो गई फ़ना ?


टूटती है ख़ामोशी आख़िर 

किसी जानवर की दर्दनाक आवाज़ से


दूर जंगल में 

ठहाके लगा रहा है ख़ुदा 

तूफ़ानी बादलों की ओट से

०००

सभी चित्र गूगल से साभार 


कवि का परिचय 

फदवा तूकान-नेपोलिस में 1917 में जन्म। स्वयं शिक्षित कवियित्री, महान कवि स्व० इब्राहिम तूकान की बहन हैं। इनके अनेक कविता-संग्रहों के कई कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध संग्रह हैं- 'एक दिन', 'इसे मैंने पा लिया', 'बन्द दरवाजे के सामने', 'अकेले दुनियाँ की छत पर', 'रात और बड़े लोग', 'पहाड़ी रास्ता - बेढब रास्ता' (आत्मकथा) तथा 'जुलाई वगैरह'।


अनुवादक 


राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।











18 सितंबर, 2024

अरुण यादव की कविताएं

 

सैल्फ़ी


जीवन में इतना दुख

कि तुम्हारी कृत्रिम मुस्कान भी

छिपा नहीं पा रही उसे


तुम्हारी मुस्कुराहट से ढकी उदासी

टपक रही है आँखों से

लेकिन अनदेखा किये जा रहे हो तुम


हालात के थपेड़ों से घबरा कर

दुख को चकमा देने की असफल कोशिश है  तुम्हारी सैल्फ़ी


आख़िर स्वीकार क्यों नहीं कर लेते

कि दुखी हो तुम

शायद दुख के स्वीकार से ही निकले

दुख से मुक्ति का कोई रास्ता 


तुम्हारी सारी कोशिश 

दुखी न होने की नहीं है

बल्कि दुखी दिखाई न देने की है


कविता में बार-बार प्रयोग किया गया शब्द "तुम" 

"हम" भी पढ़ा जा सकता है।

०००











कुछ इच्छाएं/घोषणाएं 



इतने चुपके से

गुज़र जाय यह सफ़र

कि छूटे न कहीं भी

क़दमों के निशां

अमर होना बड़ा बोरियत ख़्याल है


किसी की स्मृति का हिस्सा बनूं

या मूर्ति बन खड़ा रहूं चौराहे पर

परिंदों की बीट से घिन है मुझे 


पराजय का भय 

उसी दिन मिट गया

जिस दिन 

जीतने की इच्छा खत्म हुई थी


"प्रतिष्ठा" 

या "महान" शब्द का बोझ ढोना कष्टकारी है 

मेरे जैसे मामूली आदमी के लिए 

मैं अपने साधारण प्रदेश का राजा हूं


मेरे गाये गीत या मेरी कविताएँ 

जमा पूंजी है मेरे जीवन की

किसी अंबानी अदाणी  से

कम थोड़ी है ये संपत्ति 


निंदा या प्रशंसा के प्रभाव को

झटकार देता हूँ ऐसे

जैसे पूंछ हिलाकर कोई श्वान

उड़ा देता है मक्खियाँ 

निंदा या प्रशंसा के शब्दों से 

हिंसा की बू आती है मुझे


किसी अंजान जगह में 

अजनबी की तरह

चौराहे की गुमटी में

अदरख वाली चाय पीने का सुख

सौंपना चाहता हूँ

आने वाली पीढ़ी को। 

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वर्ष 2020 में इंडिया नेटबुक्स से कहानी संग्रह "जड़-ज़मीन प्रकाशित।