तब्दीली
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मैं
मनुष्य से नागरिक
नागरिक से मतदाता
मतदाता से एक खाली कनस्तर में
तब्दील हो रहा हूँ
जिसमें शुभकामना, हताशा,
जीवन, मृत्यु और उम्मीद जैसे शब्द
कंकड़ की तरह बज रहे हैं।
०००
वाट्स एप संदेश
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आपने संदेश भेजा
एक टिक हुआ
संदेश उसे/उन्हें मिल गया
दो टिक हुए
संदेश पढ़ लिया गया
दोनों टिक नीले हुए।
नीले टिक आपकी संतुष्टि होते हैं।
फिर जन्म लेती है चतुराई
जिसे कहते प्राइवेसी सैटिंग
उसके बाद पढ़ लिए जाने के बावजूद
दोनों टिक नीले नहीं होते
यह सैटिंग नीले को अपहृत कर लेती है।
क्या पता पढ़ा या नहीं?
उत्तर की बाध्यता से मुक्त यह सैटिंग
किसी की मजबूरी
किसी की सुविधा
किसी का निज
कोई मुझे समझाए कि यह
धूर्तता नहीं है।
०००
जंतर-मंतर
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जंतर-मंतर एक जगह होती है
जहाँ से आप खगोलीय पिंडों का अध्ययन कर सकते हैं
नई दिल्ली, जयपुर, मथुरा, वाराणसी
एक हमारे उज्जैन में भी है जयसिंह पुरे में
धूपघड़ी, सीढियाँ, कुछ गोलाकार आकृतियाँ
बचपन में इन्हें हम देखते कौतूहल से
एक नासमझ रोमांच के साथ।
इतिहास कहता बनवाया इन्हें महाराजा जयसिंह द्वितीय ने
अठारहवीं सदी की शुरुआत में
बनवाया होगा
रुचि रही होगी उनकी खगोलशास्त्र में
इसे वेधशाला, यंत्रमहल
और अंग्रेजी में 'ऑब्ज़र्वेटरी' भी कहा जाता है।
इस आज़ाद देश में
फिर एक और उपयोग हुआ इस जंतर-मंतर का
दिल्ली में लोग जुटने लगे
लगाने लगे नारे प्रतिरोध में
देने लगे धरना
गरजने लगे भाषण
बनने लगी मानव-श्रृंखला
सरकारें थीं परेशान
एक दर्शनीय स्थल पर हो रहे प्रदर्शनों से
नींद में पड़ता था ख़लल
आसपास के रिहायशियोँ की
शायद सरकार की भी
सो, एक निर्बाध नींद की खातिर
प्रतिबंधित हुए प्रदर्शन जंतर-मंतर पर
सूना हुआ जंतर-मंतर
सन्नाटे से प्रतिस्थापित हुए नारे
सुनते हैं, बावज़ूद इस प्रतिबंध के
सो नहीं पाते थे जंतर-मंतर के
आसपास रहने वाले लोग
धूपघड़ी सिसकती थी जोर-जोर से रात को
सीढियाँ करती थीं विलाप भयावह स्वर में
गोलाकार यंत्रों से निकलती थी एक मातमी धुन
होकर परेशान उन अदृश्य रुदालियों से
जारी होता है नया फ़रमान
इस कानाफूसी के बाद कि
'जंतर-मंतर एक सेफ़्टी वॉल्व है
प्रतिरोध की भाप के लिए
चिल्लाने दो, क्या फ़र्क पड़ता है!'
और खोल दिया जाता है जंतर-मंतर फिर से
भिंची मुट्ठियों, चीखते गलों और गुस्सैल आँखों के लिए
लोकतंत्र के शव में फिर से लौटती हैं साँसें
०००
मेरी आवाज़ आप तक पहुँच रही है ?
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इस कोरोना काल में लॉक डाउन से ऊबे
जब हम सभी 'लाइव' पेल रहे हैं
आचार्य/कवि/कथाकार/आलोचक इत्यादि...
आप इनके आगे 'कथित' लगाने को स्वतंत्र हैं
बाकी चार तो ठीक लेकिन 'कथित इत्यादि' वाकई मज़ेदार होगा!
अपने पूरे कथित अवदान के बावज़ूद
पहला वाक्य (संशय) सभी का एक-सा होता....
क्या आपको मेरी आवाज़ सुनाई दे रही है ???
एक जवाब है जो कभी दिया नहीं गया
'आपकी आवाज़ हमें कब सुनाई दी महामहिम?'
यह केवल इंटरनेट की समस्या नहीं थी
बहुत अवरोध थे
आपकी आवाज़ तो सबसे बड़ा...
जो किसी आत्मीय पुकार से नहीं
ज्ञान के अजीर्ण से अफरा रही थी
हमेशा की तरह हम पर सवारी के लिए!
तो, लाइव महोदय,
हमें बख़्श दें इस लॉक डाउन में
अपनी अपान वायु से
हमारी छोड़ें फ़िक्र... इस बन्द में भी रोज़ उग आती है भूख।
अब हम इस सैटिंगनुमा प्रपंच को
मारकर लात
निकल जाएँगे बाहर अद्भुत फ़िल्म 'अ वेंस्डे' के नसीर की तरह
एक मुम्बईया भेल भाषा बोलते कि
"बख्शों, विद्वानों बख्शो!"
आई एम जस्ट अ स्टुपिड कॉमन मेन...
कान्ट अफोर्ड योर .....!
०००
मंशा
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उन्होंने कहा फूल!
फूल मुरझा गए
उन्होंने कहा नदी!
नदी सूख गई
उन्होंने कहा आग!
आग बुझ गई
उन्होंने कहा मनुष्य!
मनुष्य मर गए
उनकी मंशा अंततः
उनके शब्दों में उतर चुकी थी।
०००
मोह भंग
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खूब पढ़ने के बाद
मैंने उच्च शिक्षा की नौकरी की
नौकरी क्या वो एक मिशन थी तब
धीरे-धीरे मोह भंग होता गया
स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली।
देश के लोकतंत्र पर अटूट भरोसा था
ता उम्र निर्वाचन का प्रशिक्षण दिया
हर एक वोट ज़रूरी समझाया।
फिर हुआ मोह भंग।
हँसी आती है अब मतदान केंद्र पर लगी कतार देख।
जीवन भी खूब जिया
लिया खूब तो दिया भी
लेकिन एक दिन देखा कि
देश के साथ मैं भी मर रहा हूँ
जीवन के प्रति यह मोह भंग देख
आप बेफ़िक्र न हों राजन!
मैं आत्म हत्या नहीं करने वाला
इन सारे मोह भंग की जड़ अब पता है।
वहीं पर अब डलेगी छाछ।
संभल कर रहना!
०००
चित्र फेसबुक से साभार
मैं मरा यूँ
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मैं मरा इसलिए
क्योंकि
सामने दंगाइयों की वहशी भीड़ थी
और मैं निहत्था था विचारों के साथ
क्योंकि इस पाचन-तंत्र में
था मैं कुछ अपच जैसा
जो अन्ततः वमन के साथ
बाहर कर दिया जाता है
क्योंकि इस यंत्र का
मैं था वह पुर्जा
जो तमाम चिकनाइयाँ लपेट देने के बावजूद
खर्र-खर्र करता है
क्योंकि था मैं उस बच्चे-सा अबोध
जो वस्त्रों की तारीफ करते जुलूस में
बाप द्वारा लगातार चुप कराए जाने के बावजूद
कहता रहा कि राजा नंगा है
मैं हृदयाघात, रक्तचाप और मधुमेह जैसे
जानलेवा रोगों से भी नहीं मरा
मैं लड़ रहा था अरसे से इन रोगों के ख़िलाफ़
और जीत रहा था।
०००
वारंट
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बादशाह को कविता से घृणा, संगीत से चिढ़ और चित्रों से एलर्जी थी।
मुल्क के सभी कवि, संगीतज्ञ और चित्रकार या तो मारे जा चुके थे
या थे कारावास में।
शब्दों, सुरों और रंगों से विहीन यह समय बहुत मुफ़ीद था बादशाहत के लिए
फिर एक दिन एक परदेसी आया उस देश
जैसा कि ऐसी कथाओं में आता ही है
उसने बादशाह को दिखाया गुलमोहर का सुर्ख़ पेड़ और ज़मीन पर गिरे कुछ फूल और कहा-- यह एक प्रेम कविता है।
उसने सुनाई अमराई में कूकती कोयल की कूक और कहा-- यह राग मल्हार है।
उसने दिखाया बारिश से धुले आसमान में उभर आया इंद्रधनुष और कहा--ये धरती के बादलों के प्रति आभार के रंग हैं।
बादशाह बेचैन हुआ
फिर मुल्क में जारी हुआ गुलमोहर, कोयल और इंद्रधनुष की गिरफ़्तारी का वारंट।
०००
टॅावेल भूलना
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यदि यह विवाह के
एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता
तो जान-बूझकर की गई ‘बदमाशी’ की संज्ञा पाता
लेकिन यह स्मृति पर
बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है
कि आपाधपी में भूल जाता हूँ टॉवेल
बाथरूम जाते वक्त
यदि यह
हनीमून के समय हुआ होता
तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का
जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद
एक खीझ भरी शर्म में
‘सुनो, जरा टॉवेल देना !’
की गुहार बंद बाथरूम से निकल
बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक
बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते
भरोसे की थाप पर
खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत
और झिरी से प्रविष्ट होता
चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टावेल
‘कुछ भी ख्याल नहीं रहता’ की झिड़की के साथ .
थामता हूँ टॉवेल
पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन
बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को
जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक
थामता हूँ झिड़की भी
जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को
बीस बरस से ठसे कोहरे को
भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !
०००
कोरोना कब जाएगा ?
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आपने कभी किसी बच्चे को
ज़ार-ज़ार रोते हुए देखा है ?
नवजात नहीं थोड़ा बड़ा...
(रोना तो नवजात का शगल है)
वह बच्चा जो समझता हो
मार, डाँट, प्रताड़ना और उपेक्षा का दंश
तो याद करें उस बच्चे का अविराम रुदन
वह थक जाता है रोते-रोते
किसी दंश की वजह से
और सो जाता है।
गहरी नींद में भी वह लेता है सिसकियाँ देर तक
ये सिसकियाँ पीड़ा का निस्यंद हैं
अधिक विचलित करती उसके रोने से भी
जब उस बच्चे की नींद में अटकी ये सिसकियाँ थमेंगीं
कोरोना तभी जाएगा।
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सौंदर्य
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आज मैंने मोर के बदसूरत पैर देखे
और ख़ुश हुआ
इन्हीं पैरों पर सवार हो आएगी बरसात
आज मैंने मज़दूर के खुरदुरे हाथ देखे
और ख़ुश हुआ
इन्हीं हाथों से बनेगी इमारत
आज मैंने माँ की फटी बिवाइयाँ देखीं
और ख़ुश हुआ
इन्हीं दरारों में सुरक्षित रहेंगे हम
आज मैंने बच्चे को कंचों के लिए रोते देखा
और ख़ुश हुआ
दुनिया ठीक-ठाक चल रही है
आज मैंने सौंदर्य को
उलट-पलट कर देखा
और ख़ुश हुआ!
०००
परिचय
जन्म: 17 नवम्बर 1960, उज्जैन में एक शिक्षक परिवार में।शिक्षा: विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में पी-एच.डी.सृजन: तीन कविता-संग्रह *जहाँ से जन्म लेते हैं पंख*,
*जुगलबंदी*, *न्यूटन भौंचक्का था*, दो कथा-संग्रह *उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ* और *धुआँ* , एक निबंध-संग्रह *आगदार तीली* प्रकाशित। 17 वर्षों तक साहित्य-संस्कृति की पत्रिका *समावर्तन* का संपादन। युवा कवियों के बारह *युवा द्वादश* का संचयन। कई रचनाओं का अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद। बच्चों के लिए भी लेखन।
संप्रति: एक सरकारी कॉलेज में अध्यापन।
संपर्क: 302, ड्रीम लक्जूरिया, जाटखेड़ी, होशंगाबाद रोड, भोपाल- 462 026
मोबाइल: 9827007736
ई-मेल: niranjanshrotriya@gmail.com
जीवन के विविध रंग और सुर को समेटे ये कविताएं हम सबको अनोखे ढंग से समृद्ध करती हैं. अद्भुत!
जवाब देंहटाएंनिरंजन जी की कविताएँ उन्हीं के शब्दों में कहें तो सौंदर्य को उलट पलट कर देखती हैं। क्षोभ से जन्म लेते एक अवश क्रोध और किंचित संयत उद्विग्नता से भरी कविताएँ। कवि के पास अपनी विस्तृत दृष्टि है जिसका प्रक्षेप एक टॉर्च की तरह नहीं दूरबीन जैसा आता है पाठक के लिए।
जवाब देंहटाएंकविताओं की भीड़ से बिल्कुल अलग ये कविताएँ ठहरकर पढ़ने की मांग करती है. इन कविताओं में खाली कनस्तर में कंकड़ की तरह बज रहे आम आदमी की पीड़ा है, लोकतंत्र की जीत का ढिंढोरा पीट रहे बादशाह और उसके शागिर्दों के क्रूर चेहरों को बेपर्द करती कविता है, मध्यवर्ग की हिपोक्रीसी या दोगलेपन को उघाड़ती कविताएँ और घोर निराशा और अंधकार के इस लम्बे दौर में उम्मीद का दामन मजबूती से थामे रहने की कविताएँ हैं. हार्दिक बधाई प्रिय निरंजन जी को इन कचोटती और उद्वेलित करती कविताओं के लिए।
जवाब देंहटाएंसादी सरल सारगर्भित शानदार जानदार व्यंग्यदार कविताएं
जवाब देंहटाएंख़ुशी होगी कि अपने 'जंतर मंतर' से
जनार्दन न सही जनता के ही किसी
(कथित इत्यादि) भाग को जगा पाएं।
सत्येन्द्र प्रकाश 12 नवंबर, 2024 11:16
जवाब देंहटाएंसादी सरल सारगर्भित शानदार जानदार व्यंग्यदार कविताएं
ख़ुशी होगी कि अपने 'जंतर मंतर' से
जनार्दन न सही जनता के ही किसी
(कथित इत्यादि) भाग को जगा पाएं।