छठवीं कड़ी
डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर
कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।
उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।
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कविताऍं
सपनों का हाथ बढ़ाकर
टहनियों के हाथ बढ़कर खड़ी हूँ
पेड़ जैसे
सूखे पत्तों की ढ़ेर पड़ी है
छाती तक बढ़कर
आकाश की ओर सिर उठाके देखती
सितारें बिखर पड़े हैं।
बिखरे सफेद बादल
पूरब की दिशा में झूल रहे हैं।
तांदी का पात्र चंद्रमा
भरपूर चांदनी फैल दिया है।
मन में पिघले पानी को पिरोकर
लहरे उठाते, सपनों के हाथ बढ़ा दिया है।
हथेली में चंद्रमा को पाने।
*****
बिंब
सुमधुर संध्याकाल
मोहक बातें
तैरते सपने
तुझे ही ताक रही हैं, खाली आँखें....
मैं नहीं थी वहाँ।
भूल गई थी। कभी पहले,
छुपा के रखी थी बिंब को
सुंदर संदूक में।
उठा के रखी थी सतर्कता से
किसी के नज़र न लगने के स्थल में
दौड़ती गई। निकाल के देखा ढ़क्कन।
बिंब सो गई थी वहीं
तदेक दृष्टि से।
*****
वह गांव
यह शहर अब मेरा शहर नहीं है,
घुमावदार सड़कें जिन्हें बड़े करीने से
खोदा और मरम्मत किया गया है,
इमली पेड़ के नीचे भागते भूत,
रूबरू शहर से मिलते-जुलते जल्दबाजी वाले
प्रकाशमान लाइटें,
पोस्टर शानदार देवी के चेहरे के लिए
चांदी का मुखौटा है।
नारियों का शोर शोर नहीं,
न कमर पर घड़ा है,
न सुडौल चलना है,
सन्नाटा पूर्ण उस कुएं के पास,
दरवाजे की ओर देख रही है निंगी।
एक ही फल जबड़े से खाया है
झूले में बैठकर झूला है,
धूप में पकी हुई ओस की बूंद की तरह
क्या भूल ही गई?
अब एक दरार पहले ही उठ चुकी है
लेकिन ढ़ोल बजाने की लय
गूँज बजती रही है,
छाती के अंदर मेरी माटी की यह धूल
घम-घमाती रही है।
*****
शाश्वत दंड
भोर के वक्त गरमी जैसे बढ़ती
फिर आता है वह लड़का वापस।
घर के सामने खड़ा होता
और अपने होंठ नादस्वर के शीर्ष पर रखता है,
आँखें बंद कर गालों को फुलाये
राग फूंकने की ललक।
श्रद्धा अपने पिता की तरह नहीं हैं.
शास्त्रीय गंधावन भी नहीं,
बल्कि सभी फ़िल्मी राग।
जैसे ही राग बजाया जाता है,
राग खाई में कूदी हुई गाड़ी
की तरह फंस जाता है।
सहमकर जब आगे बढ़े तो
विस्फोटित राग को तभी
ग्रसित की रहती हैं घाव।
न जाने किस जन्म के बदले में
गीत गायन की चीख
मेरे दिमाग में इतनी गर्म कर देती
बर्दाश्त नहीं करते भाग के गेट की ओर
छुट्टा उसके हाथ में रखते ही,
वह अगले घर में चला गया
क और दूसरे राग के साथ।
*****
जब तुम नज़र नहीं आते
जब तुम नज़र नहीं आते
पंक्तियाँ बनती कविताएँ
बादलों में चाँद की तरह
दर्द की भारीपन में।
पल-पल की लहरें उठीं
और चट्टान पर चढ़ गईं
सीने पर झुर्रियों की एक परत
दिखा दी जिगर पर।
एक नजरिया की पुलक
बिजली की धार चमकने दें
फिर प्रत्यक्ष हो और समीर
की तरह बहते रहे हरियाली में।
*****
चित्र
मुकेश बिजौलेप्रकाश की धूल
गहराई से बुदबुदाती गहरी खामोशी
छुपे मौन को सुर
प्रदान करने का है वक्त।
परछाइयों को कितना उधेड़ना है?
बीजासुर की तरह फिर से ना लौटे,
बड़ी ही नाजुकता से उन्हें
सिर से पाँव तक छील दिया
जमीन पर झुका दिया
ताकि उन्हें चोट न लगे,
अंधेरे में लीन हो गए तो
यूँ बस हँसती रही मानो जीत गई।
गीले शब्दो जब पोंछे जाते हैं,
पलकों के नीचे सपने
उग आते हैं, सुरक्षित,
मिटते नहीं,
उन्हें ऐसे ही रहने दो।
बिना रोशनी, बिना छाया,
कोई स्वप्न-मृत छवियाँ
दर्पण में न तैरती रहीं
और न ही मैं उन्हें
प्रकाश की धूल में देख सकूँ।
*****
चांद को दिखलाजा
प्रेम के दर्द में पीड़ित है कविता
शब्द गर्मी में तपते खो गए
सपनें डर गए रोशनी में
वाष्पित होने के डर से।
बेसब्री से इंतज़ार करती
आँखों में जज्बात,
पंखुड़ी की नोक पर
ओस की बूँद का आकर्षण।
मन का बादल भूल गया है,
शीतल जल का सिंचन,
मन की खाली जगह में,
चांद को दिखलाजा।
*****
प्रज्ञा का सपना
तुम मेरा सचेत स्वप्न हो।
चांदनी की चांदी रोशनी की तरह
सो रही है, चट्टान
पलकों के अंदर के रंगों से
सुरुचिपूर्ण कलाकारी सांस ले रही हैं।
धीमी सांसों से, हिल-डुस करती हरियाली
जंगल के चिमटे फूलों से लदे हुए हैं।
आज की सुबह के साथ सभी बीते कल
यादें बनकर न रहने दें।
ठोस खामोशी के अंदर शब्दों को
समझने वाली आंखों को शब्दों की
झंझट की जरूरत नहीं होती। मौन पथ पर
समय को अपने स्थिर रहने दो।
निरंतर, ठंडे महीनों में
चकोरा की उपस्थिति।
*****
अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे
अनुवादक परिचय
परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा
आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।
सुंदर कविताएं भावानुवाद में भी .. साधुवाद .. कंडवाल मोहन मदन
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