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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अप्रैल, 2010

वर वर राव की कविता:वह आदमी


वर वर राव हमारे समय के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक और साहसी कवि है। उनकी कविता की प्रत्येक पंक्ति धारदार होती है। वे न सिर्फ़ लालच के दलदल में फँसे लोगों के मन में दलदल से बाहर आने का जोश भरते हैं, बल्कि बाहर आकर ‘ चलना किस राह पर है, यह भी बताते चलते हैं, साथ ही इतिहास से सीख लेकर वर्तमान की कुरूपता को भी आईना दिखाते चलते हैं। ऎसे कवि साम्राज्यवादी व्यवस्था की आँख में काँच के किर्चों की तरह गचते रहते हैं। साम्राज्यवादी सत्ता और उसके दलाल ऎसे कवियों के जीवन को सदा ही ख़तरे में डालते रहते है। वर वर राव ने वर वर राव होने की क़ीमत ख़ूब चुकायी। वर वर का मतलब है श्रेष्ठों में श्रेष्ठ। वर वर राव ने अपनी ज़िन्दगी कुछ इसी तरह जी है और अपने कवि कर्म का निर्वहन भी कुछ ऎसी ही ईमानदारी से किया है। इस बार हम आपके लिए वरवर राव की एक ताज़ी कविता प्रस्तुत कर रहे हैं, उम्मीद है पसंद आयेगी।


वह आदमी
एक इंसान के बारे में बात करते हैं
लोगों से बेहद प्यार किया था जिसने
ममताओं को मन ही में छुपाकर
संघर्ष की राह पकड़कर गया था जो

ये पढ़ना लिखना, ज़मीन जायदाद
क्या सिर्फ़ मेरे ही लिए है
मेरे इर्द-गिर्द रहने वाले बच्चों को तो भी मिले ये सब
जोड़कर एक-एक लकड़ी
चेतना की लौ जलाई थी जिसने

सम्मोहनास्त्र की तरह धरकर मुस्कान को
अपनी बातों से ही सबको गले लगाते हुए
लोगों को जोड़कर
तेलंगाना से नल्लमला तक
क्रांति की फ़सल उगाई थी जिसने

लेकर आज़ादी की प्यास
रहकर लंबे समय तक बंदी
क़ैदखाने के प्राणांतक तारों से
बसंत का गीत प्रसारित करता रहा जो
अपनी क्रांति के आचरण से यह बताकर कि नक्सलवाद समस्या नहीं
समाधान है
अँधी देवी को आँखें दी थी जिसने

बीस राज्यों के सुरक्षा बलों की आँखों से
इंद्रधनुषी बादलों के पीछे रवि किरण की तरह
पहाड़ों के पीछे अदृश्य हो गया था जो

कृष्णपट्टी के चेंचु जनजाति के जूड़े का फूल बन
सरकार के कँटीले बबूलों के बीच
केवड़े की सुगंधों पर चर्चा करता था जो

वह इंसान था
उसने इंसानों पर बिना इठलाए किया था भरोसा
इनसान जिएँ इंसानों की तरह
इस बात को लेकर था चिंतित

संबंध कहीं न बन जाए बंधन
प्यार की ख़ातिर
थामा हुआ हाथ छोड़कर
आगे बढ़ जाने को कहा था जिसने

आँख में गिरा धूल का कण
ज्यों बह जाता है आँसुओं के साथ
शोषित मानवों के प्रति प्रेम में
वह बन गया धुला पानीदार मोती
उन जैसों की सँस्कृति
राज मार्ग की या बाज़ार की सँस्कृति नहीं
जिसके हम बन चुके हैं आदी
वह है गाँवों की सँस्कृति
जनता की सँस्कृति

अणु गर्भ भेदने वाली नहीं
अंधेरे जंगल की राह में
पगडंडी पर जुगनुओं की रोशनी में
सूरज के प्रकाश को अपना बनाने की सँस्कृति

जीवन से प्रेम के कारण
चुना था उसने जो जीवन
वह
शेर के मुँह में सिर देने वाले इंसान की
साहस यात्रा-सा गुज़रा

वह था एक मानव ज्वाला
आदिवासियों की हरी भरी जिंदगियों पर
कंपनी के ताप का सामना झरनों का प्रवाह बन
करता था जो

हरियाली को डसने वाले कोबरा के
एनकाउंटर में जान गँवा बैठा था जो
हरे रंग का चँद्रमा
उसकी आँखों के सूरज पर
दुश्मन ने दागी बंदूक
देखा था न आपने

ग्रीनहंट का सामना करने वाले
हथियार को संभालने वाले कंधे में से
गोली हो गई पार
तभी तो वह हो गया था धराशायी

राज्य ने उसके सिर का दाम लगाया था
उससे पहले ही
उसने अपने माथे पर मृत्यु-शासन
ख़ुद लिख डाला
फिर कूद पड़ा वर्ग संघर्ष में

भगत सिंह का वारिस है वो
अपनी मुस्कान को अपनी बातों को
अपने प्रेम को वज्र युद्ध को
हमारे हाथों में झँडा बनाकर
पकड़ा गया वह
अनुवादः आर. शान्ता. सुन्दरी

20 अप्रैल, 2010

वो सुबह कभी तो आएगी

- प्रदीप कांत

बावजूद इसके कि फिल्मों में बेहतरीन लेखन हुआ है किंतु इसे दोयम दर्ज़े का मान कर इस पर बात करने में भी कोताही बरती जाती है। साहिर लुधियानवी की एक नज़्म है वो सुबह कभी तो आएगी जो गीत बनकर फिल्म फिर सुबह होगी में शामिल हुई थी। यह नज़्म आज़ादी के तुरन्त बाद के बदहाली के दिनो के एक बेहतरीन दस्तावेज़ में शामिल की जा सकती है।


साहिर की यह नज़्म आपके ज़ेहन में हालात की बेचैनी पैदा करती है तो मुकेश की आवाज़ और ख़य्याम का संगीत इस नज़्म में गुथे मुथे तात्कालिक हालात और आम आदमी के सपनों में प्राण भर देता है। राजकपूर और माला सिन्हा पर फिल्माई गई इस नज़्म में आस की पराकाष्ठा है मगर समय की बदहाली और नायक के अनुसार मुकेश की जो आवाज़ नज़्म में है, वह अद्वितीय है किसी निरीह मनुष्य का एक दम कातर सा स्वर... लगभग प्रार्थना जैसा... और उसमें भी जो आस है.... उसका जवाब नहीं। और साथ में आशा भोंसले...,नाम के अनुरूप आस में नायिका की तरफ से अपने आलापों के साथ कुछ और आस मिलाती हुई...। यहाँ मुकेश का दर्द भरा काँपता सा स्वर बदहाली में भी एक याचक सी आस ले आता है और आशा का स्वर का स्वर उसी आस को पूरी तरह से ताकतवर बनाता महसूस होता है।


संगीत सुनकर लगता है कि ख़य्याम साहब को इसका संगीत बुनते समय बडी नज़ाकत बरतनी पडी होगी। साजों का इस्तेमाल इतना कम कि कहीं संगीत की तेज़ आवाज़ बदहाली को व्यक्त करने में खलल न बन जाए या उसमें से गूंजते आम आदमी के सपने भारी भरकम संगीत के तले दब न जाए। सुनते समय एसा लगता है जैसे बहुत कम पानी वाली एक नदी मंथर गति से बह रही हो और फिर भी कह रही हो कि मैं हूँ ना... तुम्हारी प्यास बुझाने के लिये...चिंता क्यों करते हो?

पचास के दशक के भारत की कडवी सच्चाइयों के साथ भी आम आदमी के सपनो का ताना बुनती यह नज़्म सुनने के बाद अब भी सवाल उठता है कि क्या तस्वीर अब भी वही नहीं है? हाँ... तस्वीर अब भी वही है...मैली कुचेली बदहाल... बस ग्लोबलाइज़ेशन और बाज़ार के मुल्लमे की नई फ्रेम लगा दी गई है। गरीब और गरीब अमीर और भी अमीर... कब तक? आख़िर कब तक? और उम्मीद अब भी बाकी है... वो सुबह कभी तो आएगी । कई बार आपने सुनी होगी पर नज़्म पढ कर इसके सामाजिक सरोकारों पर गौर करें।


वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी


मगर अब आपको यह जानकर आश्चर्य भी ज़रूर होगा कि साहिर साहब ने पहले वो सुबह हमीं से आयेगी लिखी थी जो कि फिल्म फिर सुबह होगी के लिये वो सुबह कभी तो आयेगी बदल गई थी। (साभार: http://dhankedeshme.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html)


वो सुबह हमीं से आयेगी

जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब ज़ुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लायेंगे, वो सुबह हमीं से आयेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

मनहूस समाजों ढांचों में, जब जुर्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे, जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की, सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

- साहिर लुधियानवी

17 अप्रैल, 2010

मित्रों,
नर्मदा बाचाओ आंदोलन का धरना 13 अप्रैल से आज तक सतत ज़ारी है। उनका धरना पूरी तरह से शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा है, लेकिन अभी सरकार और सरकारी अधिकारियों के पास उनके सवालों के कोई जवाब नहीं है। आंदोलन कारियों का कहना है कि वे जवाब लेकर ही लौटेंगे और अधिकारी चाह रहे हैं कि यह धरने पर बैठे-बैठे इतने परेशान हो जाये कि हार मान कर चले जायें। अधिकारी अपनी ज़िम्मेदरियों से नज़रे चुरा रहे हैं। आपसे अनुरोध है, आप जहाँ हैं, वहीं से इन आंदोलन कारियों का मनोबल बढ़ाये। अपने लेखन के मार्फ़त और अपने साथियो से की जाने वाली बातों भी इनके साहस का ज़िक्र करे।

बिजूका लोक मंच इन्दौर

नर्मदा पर निर्माणाधीन महेश्वर बांध पर परियोजनाकार को कारण बताओ नोटिस जारी

बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
उपयुक्त पुनर्वास न होने के कारण जब महेश्वर बांध परियोजना के सैकड़ो प्रभावितों ने नई दिल्ली में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के समक्ष अचानक धरना दिया तो केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए पर्यावरण मंत्रालय के अधिनियम 5 के तहत परियोजनाकार को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। बांध से प्रभावित गांववासी सालों से यह कहते रहे हैं कि उनका पुनर्वास उस गति से नहीं हो पा रहा है जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा है। जबकि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा परियोजना को दी गई सशर्त मंजूरी में यह कहा गया है कि बांध का निर्माण और पुनर्वास साथ-साथ होने चाहिए।नर्मदा घाटी से करीब आठ सौ गांववासियों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में दिल्ली पहुंचकर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के समक्ष धरना दिया। धरने में गांववासियों ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से मांग की कि महेश्वर बांध के काम को तत्काल रोका जाए क्योंकि हजारों विस्थापितों का अभी तक पुनर्वास नहीं हो सका है। विस्थापितों ने कहा कि यदि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय महेश्वर बांध को दी गई मंजूरी के शर्तो को पालन कराने में और बांध के काम को रोकने में नाकाम रहती है तो, गांववासी इसके खिलाफ मार्च महीने के मध्य में राजधानी में अनिश्चितकालीन धरना देने को बाध्य होंगे। धरने के दौरान प्रभावितों के एक प्रतिनिधिमंडल ने पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश से मिलकर उन्हें अवगत कराया कि महेश्वर बांध के पुनर्वास की योजना आज नहीं बनी है। जबकि बांध के कार्य के मुकाबले पुनर्वास का काम बहुत पीछे छूट चुका है।प्रतिनिधिमंडल की मांगों पर विचार करते हुए जयराम रमेश ने प्रभावितों को आश्वस्त किया कि वे स्वयं इस मामले में तत्काल नोटिस लेंगे। साथ ही उन्होंने 16 फरवरी का शाम को ही परियोजनाकारों को एक कारण बताओ नोटिस जारी किया। परियोजनाकारों को 15 दिन का कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए कहा गया है कि यदि वे मंत्रालय के निर्धारित शर्तों का पालन करने में नाकाम रहते हैं तो क्यों न परियोजना के काम को रोक दिया जाय। मंत्री ने भी माना कि पुनर्वास एवं निर्माण कार्य साथ-साथ चलने चाहिए।महेश्वर बांध नर्मदा घाटी में बनाये जा रहे बड़े बांधों में से एक है, जिससे क्षेत्र के करीब 50,000 से 70,000 किसानों, मछुआरों, मल्लाहों एवं भूमिहीन कामगारों के 61 गांव के आवास एवं जमीन में डूब जाएंगे। सन 1992 में इस परियोजना का निजीकरण करके एस. कुमार्स समूह को सौंप दिया गया था। इस परियोजना की निर्धारित उत्पादन क्षमता 400 मेगावाट होगी। इस परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पहली बार 1994 में और फिर उसके बाद सन 2001 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत शर्तों के आधार पर मंजूरी दी गई थी। जिसके तहत राज्य सरकार एवं एस कुमार्स कंपनी गांववासियों के पुनर्वास करने एवं प्रभावित परिवारों को कम से कम दो हेक्टेयर जमीन, पुनर्वास स्थल एवं अन्य लाभ उपलब्ध कराने को बाध्य है। मंजूरी के शर्तों के अनुसार दिसंबर 2001 तक खेती की जमीनों सहित पुनर्वास की पूरी योजना प्रस्तुत हो जानी चाहिए, और पुनर्वास उपायों का क्रियान्वयन उसी गति से होना चाहिए जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा हो। जबकि, उन शर्तों का खुला उल्लंघन करते हुए आज तक पुनर्वास की योजना प्रस्तुत ही नहीं की गई है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि परियोजनाकारों ने आज तक पुनर्वास नीति के अनुरूप एक भी गांववासी को खेती की जमीन नहीं उपलब्ध करायी है। इसके बजाय परियोजना प्रवर्तक अवैध रूप से डूब क्षेत्र में सीधी जमीन खरीद रहे हैं और विस्थापितों को पुनर्वास नीति के अनुरूप पुनर्वास लाभों से वंचित करने के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने को बाध्य कर रहे हैं। यह प्रक्रिया उच्च न्यायालय के आदेश के बाद मई 2009 में रोक दी गई, जिसे अदालत ने असंवैधानिक ठहराया था।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि परियोजनाकारों द्वारा डूब की वास्तविक स्थिति को भी कम करके बताया जा रहा है। परियोजना के तकनीकी आर्थिकी मंजूरी एवं नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 1435 हेक्टेयर जमीन डूब में आयेगी, जबकि परियोजनाकर सिर्फ 873 हेक्टेयर जमीन को ही डूब में बता रहे हैं। परियोजनाकार बैक-वाटर सर्वेक्षण भी उपलब्ध कराने से इनकार कर रहे हैं। इस तरह वास्तव में कितनी आबादी प्रभावित हो रही है और उनके लिए कितनी रकम और जमीन की जरूरत है वह भी आज तक मालूम नहीं है। इस तरह, परियोजना की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति एवं करीब 80 फीसदी काम पूर्ण हो गया है, जबकि आज तक केवल 3 फीसदी विस्थापितों का ही पुनर्वास हो सका है।प्रभावित क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को देखते हुए 29 अक्तूबर 2009 को केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह कहते हुए पत्र लिखा था कि पुनर्वास का कार्य अभी शुरूआती स्थिति में है, लेकिन बांध का काम करीब 80-90 फीसदी पूरा हो चुका है। इस तरह मंत्रालय को इस बात की चिंता है कि निजी कंपनी श्री महेश्वर हाइडिल पॉवर कॉरपोरेशन विस्थापितों को मझधार में छोड़ते हुए पुनर्वास की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी। इस तरह पर्यावारण मंत्रालय के शर्तों के उल्लंघन के कारण मंत्रालय ने पुनर्वास योजना प्रस्तुत करने एवं पुनर्वास कार्य बांध के निर्माण के गति के अनुरूप होने तक बांध को के निर्माण को रोकने का प्रस्ताव किया। राज्य के मुख्यमंत्री ने मंत्रालय को दिये जवाब में माना कि पुनर्वास का काम सिर्फ 3 फीसदी ही हो पाया है। अभी हाल ही में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित निगरानी समिति ने क्षेत्र का दौरा करके स्पष्ट किया था कि पुनवार्स कार्य काफी पीछे चल रहा है और आवश्यक पुनर्वास योजना प्रस्तुत नहीं किया गया है।यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि महेश्वर परियोजना को तकनीकी-आर्थिकी मंजूरी के अंतर्गत परियोजना की लागत 1673 करोड़ रुपये आंकी गई थी, जो कि अब बढ़कर 2800 करोड़ रुपये हो गई है। इस तरह बिजली की कीमत निश्चित रूप से काफी ज्यादा आयेगी, जिससे मध्य प्रदेश के लोगों को बिल्कुल फायदा नहीं होगा। जबकि एस कुमार्स के साथ किये गये बिजली खरीद समझौते के अनुसार मध्य प्रदेश सरकार अगले 35 सालों तक इस महंगी बिजली खरीदने को बाध्य होगी।नर्मदा बचाओ आंदोलन की मांग है कि राज्य एवं केन्द्र सरकार यह सुनिश्चित करें कि यह परियोजना लागों के हित में हो, और यह भी मांग है कि जब तक पुनर्वास कार्य पूरा न हो जाय तब तक पर्यावरणीय मंजूरी के कानूनी शर्तों का पालन करते हुए महेश्वर बांध के काम को तत्काल रोका जाए।

15 अप्रैल, 2010

सवाल लेकर आयें हैं.. जवाब लेकर जायेंगे.......

नर्मदा बचाओ आंदोलन के सैकड़ों कार्यकर्ता इन्दौर में एन.सी.ए के कार्यालय के सामने गाँधीवादी तरीक़े से अपना अधिकार माँग रहे हैं। जो सरकार हिंसक तरीक़ों से अपने अधिकार की माँग करने वालों को जड़ से ख़त्म करने के लिए अड़बी पड़ी है, उससे अनुरोध है कि वह गाँधीवादी तरीक़े से अपना अधिकार माँगने वालों की सुध ले। इनका भरोसा देश के लोकतंत्र पर से उठने से बचाये। कहीं ऎसा न हो कि कुछ समय बाद इनके लिए भी कोई आपरेशन शुरू करना पड़े। आंदोलनकारी 13. 4. 2010 से एन सी ए कार्यालय के बाहर पर धरने पर बैठे हैं। एन सी ए के वरिष्ठ अधिकारी हमेशा की तरह 13, 14 को गायब रहे हैं। आंदोलनकारियों का कहना है, सवाल लेकर आये हैं, जवाब लेकर जाएँगें। क्या सच में इन्हें कोई ठीक-ठक जवाब मिलेगा ? या हमेशा की तरह आश्वासन का झुनझुना पकड़ा दिया जायेगा ? जैसे पिछले 25 बरस से किसी न किसी आश्वासन का झुनझुना पकड़ाया जाता रहा है।


पर्यावरण मंत्रालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति की विपरीत रिपोर्ट के बावजूद बांध की ऊँचाई 122 मीटर से 17 मीटर
और बढ़ाकर 139 मीटर करने हेतु गेट लगाने की अनुमति दे दी गई है। सरकार का यह बि कहना हे कि गेट केवल खड़े किये जा रहे हैं, बंद नहीं करंगे, खुले रखेंगे, तो भइया केवल दिखाने के लिए गेट लगा रहे हो कया ?

इन सब बातों के इसके पीछे जहां एक ओर गुजरात की राजनीति सक्रिय है वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सरकार अपने निवासियों और गांवों के हित की अनदेखी करते हुए गुजरात सरकार की हाँ में हाँ मिला रही है। आखिर म. प्र. को भी गुजरात की तरह विकसित प्रदेश बनाने की ज़िम्मेदारी जो निभानी है !

आओ .... इन आंदोलन कारियों के धैर्य और हौसले को सलाम करें... लेकिन लाल सलाम मत कहना.. वरना सरकार आपके ख़िलाफ़ भी कोई कार्यवाही का ऎलान कर देंगी। सरकार की कार्यवाही का सभी अवसरवादी भी समर्थन करेंगे। हाँ... जय श्री राम कहोगे तो ..... सरकार की भी पूँ.....बोल जायेगी।

बिजूका लोक मंच, इन्दौर
bizooka2009.blogspot.com

13 अप्रैल, 2010

सरदार सरोवर का सबक


शिरीष खरेनर्मदा घाटी में एक और तीसरे बड़े बांध का प्रस्तावित नक्शायह सच है कि सरदार सरोवर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध है, जो 800 मीटर नदी में बनी अहम परियोजना है। सरकार कहती है कि वह इससे पर्याप्त पानी और बिजली मुहैया कराएगी। मगर सवाल है कि भारी समय और धन की बर्बादी के बाद वह अब तक कुल कितना पानी और कितनी बिजली पैदा कर सकी है और क्या जिन शर्तों के आधार पर बांध को मंजूरी दी गई थी वह शर्तें भी अब तक पूरी हो सकी हैं ?साल 2000 और 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा है कि सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने के छह महीने पहले सभी प्रभावित परिवारों को ठीक जगह और ठीक सुविधाओं के साथ बसाया जाए। मगर 8 मार्च, 2006 को ही बांध की ऊंचाई 110 मीटर से बढ़ाकर 121 मीटर के फैसले के साथ प्रभावित परिवारों की ठीक व्यवस्था की कोई सुध नही ली गई। हांलाकि 1993 में, जब इसकी ऊंचाई 40 मीटर ही थी तभी बडे पैमाने पर बहुत सारे गांव डूबना शुरू हो गए थे। फिर यह ऊंचाई 40 मीटर से 110 मीटर की गई और प्रभावित परिवारों को ठीक से बसाया नहीं गया।तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने भी स्वीकारा था कि वह इतने बड़े पैमाने पर लोगों का पुनर्वास नहीं कर सकती। इसीलिए 1994 को राज्य सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक में बांध की ऊंचाई कम करने की मांग की थी ताकि होने वाले आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय नुकसान को कम किया जा सके। 1993 को विश्व बैंक भी इस परियोजना से हट गया था। इसी साल केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के विशेषज्ञ दल ने अपनी रिपोर्ट में कार्य के दौरान पर्यावरण की भारी अनदेखी पर सभी का ध्यान खींचा था। इन सबके बावजूद बांध का काम जारी रहा और जो कुल 245 गांव, कम से कम 45 हजार परिवार, लगभग 2 लाख 50 हजार लोगों को विस्थापित करेगा। अब तक 12 हजार से ज्यादा परिवारों के घर और खेत डूब चुके हैं। बांध में 13,700 हेक्टेयर जंगल डूबना है और करीब इतनी ही उपजाऊ खेती की जमीन भी। मुख्य नहर के कारण गुजरात के एक लाख 57 हजार किसान अपनी जमीन खो देंगे।अगर सरदार सरोवर परियोजना में लाभ और लागत का आंकलन किया जाए तो बीते 20 सालों में यह परियोजना 42000 करोड़ रूपए से बढ़कर 45000 करोड़ रूपए हो चुकी है। इसमें से अब तक 2500 करोड़ रूपए खर्च भी हो चुके हैं। अनुमान है कि आने वाले समय में यह लागत 70000 करोड़ रूपए पहुंचेगी। गौर करने वाली बात है कि साल 2010-11 के आम बजट में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सरदार सरोवर परियोजना के लिए 3000 करोड़ रूपए से ज्यादा की रकम आंवटित करने की घोषणा की है। इसके अलावा सरकार के मुताबिक परियोजना की पूरी लागत गुजरात के सिंचाई बजट का 80% हिस्सा है। इसके बावजूद अकेले गुजरात में ही पानी का लाभ 10% से भी कम हासिल हुआ है। जबकि मध्यप्रदेश को भी अनुमान से कम बिजली मिलने वाली है। ऐसे में पूरी परियोजना की समीक्षा होना जरूरी है।पर्याप्त मुआवजा न मिलना, मकानों व जमीनों का सर्वे नहीं होना, या तो केवल मकानों को मुआवजा देना या फिर केवल खेती लायक जमीन को ही मुआवजा देना, पुनर्वास स्थलों पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव, कई प्रभावित परिवार को पुनर्वास स्थल पर भूखण्ड न देने आदि के चलते हजारों डूब प्रभावित अपना गांव छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जहां-जहां गांव का पुर्नवास स्थल बनाया गया है वहां-वहां पूरे गांव के प्रभावित परिवारों को एक साथ बसाने की व्यवस्था भी नहीं है। गांव में लोगों की खेती की सिंचित जमीन के बदले सिंचित जमीन कहां देंगे, यह उचित तौर पर बताया नहीं जा रहा है।कुछेक लोगों को बंजर जमीन दी गई है और कुछेक को गुजरात में उनकी इच्छा के विरूद्ध प्लॉट दिये गए। गुजरात में जहां कुछ परिवारों को बसाने का दावा किया गया है वहां भी स्थिति डूब से अलग नहीं है। करनेट, थुवावी, बरोली आदि पुनर्वास स्थल जलमग्न हो जाते हैं, उनके पहुंच के रास्ते बंद हो जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति की जीविका का आधार यानी उसकी खेती लायक जमीन बांध से प्रभावित है और उसका घर पास के गांव में है तो उसे बाहरी बताकर पुनर्वास लाभ से वंचित किया जा रहा है।डूब प्रभावितों के अनुसार आवल्दा, भादल, तुअरखेड़ा, घोघला आदि गांवों के तो पुर्नवास ही नहीं बनाये गए हैं। गांव भीलखेड़ा साल 1967 और 1970 में दो बार नर्मदा नदी में आई भारी बाढ़ से उजड़कर बसा है। बांध की ऊंचाई बढ़ाने से यह तीसरी बार उजड़ने की कगार पर है। भादल का राहत केम्प 7 किमी दूर ग्राम सेमलेट में बनाया गया है। भादल से सेमलेट सिर्फ पहाड़ी रास्तों से पैदल ही पहुंचा जा सकता है। एकलरा के प्राथमिक स्कूल को गांव से करीब ढ़ाई किलोमीटर दूर पुनर्वास करने से 53 में से केवल 8-10 बच्चे ही पहुंच पा रहे हैं। शिक्षकों को रिकॉर्ड रखने में परेशानी हो रही है और मध्यान्ह भोजन योजना का उचित संचालन नहीं हो पा रहा है।यह तो महज एक सरदार सरोवर परियोजना के चलते इतने बड़े पैमाने पर चल रहे विनाशलीला का हाल है। मगर 1200 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी पर छोटे, मझोले और बड़े करीब 3200 बांध बनाना तय हुआ है। यहां से आप सोचिए कि नर्मदा नदी को छोटे-छोटे तालाबों में बांटकर किस तरह से पूरी घाटी को असंतुलित विकास, विस्थापन और अनियमितताओं की तरफ धकेला जा रहा है।