कहानी
भागी हुई लड़कियां
दिनेश कर्नाटक
|
दिनेश कर्नाटक |
दोनों लड़कियों के लिए अपने घरों से देवी के थान तक पहुंचना किसी यातना जैसा रहा। दोनों किसी से मिले तथा कुछ कहे बगैर चले जाना चाहती थी। मगर गांव के सुनसान घरों की महिलाओं ने न जाने कहां से उनको जाते हुये देख लिया था और ‘कहां जा रहे हो ? कब आओगे ?’ जरूर पूछा था।गोया किसी का कहीं जाना भी कोई घटना हो !
‘लोहाघाट वाली मौसी के वहां जा रहे हैं.....कई दिनों से बुला रही थी !’ उमा रटा-रटाया सा जवाब दे देती। कमला को कुछ न सूझता तो वह अपने को उसकी ओट में छुपा लेती।
खीझकर उमा ने कहा था, ‘कोई काम नहीं है, इन लोगों को। रास्ते पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’
बदले में हंस दी थी कमला ‘और दिनों तू भी तो सब पर नजर रखती थी !’
किसी और मौके की बात होती तो दोनों को औरतों का इस तरह से कुरेद-कुरेद कर पूछना अच्छा लगता। कोई नहीं पूछता तो उस पर गुस्सा भी आता, पर आज उनका इस तरह स्नेह दिखाते हुए पूछना उन्हें बुरा लग रहा था। उनको लग रहा था, पूछने के बहाने गांव की औरतें उनका भेद लेना चाह रही हैं।
देवी के थान पर आकर कमला खुद को रोक न सकी और रो पड़ी। घर से निकलने के बाद से ही वह गुमसुम थी। दिमाग में कई सवाल थे, जिनके उत्तर उसे मिल नहीं पा रहे थे। हर प्रश्न के साथ उसका हौंसला बैठता जाता था। हारकर वह उमा की ओर देखने लगती थी।
‘लोगों से तो जैसे-तैसे आंख मिला ली......अब देवी के सामने किस मुंह से जायें ?’ कमला ने उमा से कहा।
‘हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। तू अपने मां-बाप की बीमारी का इलाज कराने और उनका सहारा बनने के लिए घर छोड़ रही है। मैं उसके पास जा रही हूं, जिसने इसी देवी के सामने मुझे अपना मान लिया है।’
‘हम दोनों सही हैं फिर भी इस तरह चोरी-छिपे गांव छोड़कर जा रहे हैं। कल को लोग हमीं को नाम रखेंगे। बदनाम करेंगे। तेरा तो ठीक है। मैं क्या जवाब दूंगी ? मेरी बात कौन मानेगा ?’
‘तू किनकी चिन्ता कर रही है.......कौन जानता है इन लोगों को..........क्या हो जाएगा उनके नाम रखने से ? पता नहीं कैसे लोग अपनी सारी उम्र यहां बिता देते हैं ? इस गड्डे से बाहर निकलकर तुझे पता चलेगा, लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ! वहां पहुंचकर तेरी समझ में आएगा कि इस छोटे से गांव और यहां के लोगों का उस बड़े शहर के लिए कोई मतलब नही है ! यहां भी तो तू लोगों के घरों और खेतों में काम कर के जैसे-तैसे अपना घर चला रही है। कल को नौकरी करेगी। ताऊजी और ताईजी को अपने पास बुला लेगी।’ उमा ने हमेशा की तरह उसे समझाते हुए उसके सामने भविष्य की सुनहरी तस्वीर खींची।
‘डर लगता है। ऐसे ही एक दिन ददा भी घर से गया था। दो साल से उसका कहीं पता नहीं है !’ कमला ने कहा, जिसे अनसुना कर उमा आगे बढ़ गयी।
सड़क गांव के ठीक ऊपर, पहाड़ की चोटी पर थी। गांव नदी के बगल में दूर तक फैले हुए तप्पड़ से हटकर ऊंचाई पर बसा हुआ था। तप्पड़ में खेत और ऊंचाई में लोगों के कच्चे-पक्के मकान थे। पानी की कोई कमी नहीं थी। साल भर के लिए खाने-पीने की खेती आराम से हो जाती थी। कुछ वर्षो से गांव के पढ़े-लिखे लड़कों के गांव छोड़कर जाने में तेजी आ गयी थी। गांव से गये लोगों में से अधिकांश ने शहरों में जमीन और मकान जोड़ लिया था। जाते हुए लोग पीछे छूट गए लोगों के लिए, असफलता बोध और लगातार बढ़ता हुआ सन्नाटा छोड़ जाते थे। छूटे हुए लोगों के बीच उन्हें कामयाब माना जाता और सम्मान की नजर से देखा जाता था। वे प्रायः उनकी सफलता की कहानी एक-दूसरे को सुनाते और खुश होते थे, जैसे यह उनकी अपनी सफलता हो !
गांव के लड़के देश के तमाम बड़े शहरों में जाकर धीरे-धीरे वहीं के हो जाते। गांव उन्हें सरपट दौड़ते जीवन में अचानक सामने से उभर आई बाधा की तरह लगता था। मौका मिलते ही वे लोग अपने घर-परिवार को भी वहीं पहुंचा दिया करते थे। कभी पुरानी मान्यताओं और रीति-रिवाजों को निभाने के लिए मजबूरी में गांव आना पड़ता तो वे छूट गये लोगों से कहते, ‘सोचा, घर-गांव और देवताओं के दर्शन कर आते हैं !’ गांव वाले सब समझते और मन ही मन उनसे कहते, ‘तुम तब भी अपने मतलब के लिए गये थे और अब भी अपने मतलब के लिये आ रहे हो ?’ गांव में रह गए लोग भय और उत्सुकता के साथ शहरों के बारे में बात करते थे। भय वहां होने वाले दंगे-फसाद, लूट एवं हत्याओं का और उत्सुकता लोगों के बेहतर जीवन की। मगर उनके हालात उन्हें वहां से निकलने नहीं देते थे और वे लोग वहां की जमीन, जंगल, पानी, जानवर, रीति-रिवाज और आपसी रिश्तेदारी को अपना सब कुछ मानकर जिये चले जाते थे।
गांव के ऊपरी हिस्से पर, जहां से रास्ता शुरू होता था, बांज के विशाल पेड़ के नीचे गांव की कुल देवी का मंदिर था। मान्यता थी कि देवी के थान में प्रार्थना करने से चढ़ाई आसान हो जाती है। इस विश्वास के सहारे सदियों से गांव के लोग इस चढ़ाई को चढ़ते आ रहे थे। पहले जीवन में इतनी गति नहीं थी। कभी-कभी ही कहीं को जाना होता था। जीपों और मोबाइल के आने के बाद लोगों के जीवन में एक बेचैन किस्म की तेजी आ चुकी थी। बगैर आए-जाए गुजारा नहीं था। हर बार चढ़ाई को देखकर हिम्मत जवाब देती हुई लगती। लेकिन सड़क पर पहुंचकर कुछ देर सुस्ताने के बाद जब थकान गायब हो जाती तो उन्हें यह देवी की कृपा लगती। हालांकि गांव के पढ़े-लिखे युवक-युवतियां अब ऐसा नहीं मानते थे। यही वजह थी कि वे स्थानीय विधायक और जनप्रतिनिधियों से जोर-शो र से सड़क की मांग करते थे। गांव की आबादी को देखते हुए क्षेत्रीय विधायक ने वहां तक रोड पहुंचाने के प्रस्ताव को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत पास करवा लिया था, लेकिन रोड के लिए भी उस चढ़ाई से पार पाना किसी चुनौती से कम नहीं था। हर बार रोड सड़क से कुछ नीचे की ओर जाती, और बरसात के मौसम में सब कुछ पहले जैसा हो जाता।
उमा ने मंदिर के अंदर जाकर देवी को प्रणाम किया। लौटते हुए पेड़ के तने पर जगह-जगह बंधी हुई घंटियां पर हाथ मारा। घंटियों की आवाज से कुछ देर के लिए आस-पास पसरा हुआ सन्नाटा गुम सा हो गया। कमला अंदर जाने का साहस नहीं जुटा पायी। उसने बाहर से हाथ जोड़कर मन ही मन देवी से क्षमा मांगी और भविष्य में सब कुछ ठीक करने की प्रार्थना की। फिर दोनों चढ़ाई चढ़ने लगे। दोनों चुप थे। बीच-बीच में उमा कमला को खुश करने या हौंसला बढ़ाने वाली कोई बात कहती, जिसे सुनकर वह हंस देती। लेकिन उसकी हंसी उसकी बेचैनी को छुपा नहीं पाती थी।
कमला ज्यों-ज्यों आगे को कदम रखती जाती, उसे लगता वह अनिष्चितता की एक अंधी सुरंग की ओर बढ़ती जा रही है। उसके भीतर तूफान मचा था। ‘दुनिया में कितने ही पढ़े-लिखे लोग हैं, मेरी जैसी मामूली लड़की को वहां कौन काम देगा ? वहां जीने के तौर-तरीके भी मुझे मालूम नहीं ! सब मुझे बेवकूफ समझेंगे !’
फिर उम्मीद की लहर उठती, ‘रमेश ऐसे ही थोड़ा बुला रहा होगा, उसने कहीं बात कर रखी होगी ! हो सकता है, सब ठीक हो जाए। कोई अच्छा मालिक मिल जाए। मैं अपनी ओर से खूब मेहनत करूंगी। हालात बदलने में क्या समय लगता है ? यहां भाभी तो है, ईजा-बाबू को देखने के लिए। काम जमने के बाद अपने पास लिवा ले जाऊंगी।’
गांव के लोगों के बीच उमा के लच्छन अच्छे नहीं माने जाते थे। उसके बेधड़क तरीके से बोलने और तपाक से जवाब देने की आदत से उन्हें लगता, पढ़ाई ने उसका दिमाग खराब कर दिया है ! वे कहते, इसीलिये बुढ़े-बुजुर्ग लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने से मना करते हैं। जबकि रमेश का नजरिया कुछ और था। वह उसकी तारीफ करते हुए कहता, ‘तेरा खुलकर बात करना मुझे अच्छा लगता है.........तेरी जैसी लड़की मैंने आज तक नहीं देखी।’
‘जब तुमको भी ऐसे ही जवाब दूंगी क्या तब भी मेरी तारीफ करोगे ?’ उमा ने कहा तो रमेश को एकाएक कोई जवाब नही सूझा था।
उमा प्राइवेट इंटर पास कर चुकी थी और बीटीसी, आंगनबाड़ी या साक्षरता कार्यकत्री बनकर अपने पैरों पर खड़े होने की फिराक में रहती थी। मगर इसी बीच रमेश ने उसे दिल्ली में बढ़िया काम दिलवाने और घर-गृहस्थी जमाने की बात कही थी। गांव के लोग उसे कितना ही होशियार समझते हों, मगर खुद उसे शहरों की दुनिया भयभीत करती थी। हत्या, बलात्कार, लूट, आतंक, दंगे, जालसाजी और दुर्घटनाओं की बुरी खबरें वहीं से आती थी। इसलिए शहर एक ओर जहां उसे आजादी और तरक्की का प्रतीक लगता था, वहीं डराता भी कम नहीं था।
दिन चढ़ने के साथ यह टनकपुर मंडी के शबाब में आने का समय था। सभी व्यापारियों, ड्राइवरों को ट्रकों पर अपना-अपना माल लदवाकर हर हाल में शाम तक वापसी करनी थी ताकि घर पहुंचकर दिनभर की थकान मिटाकर अगले दिन फिर पहाड़ से उतरा जा सके। सब तत्परता से अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। किसी ने सीमेंट तो किसी ने ईंट वाले के वहां ट्रक लगा दिया था। कोई ट्रांसपोर्ट के ऑफिस में मुनीम को पकड़कर बिल्टियों का हिसाब समझने में लगा था तो कोई गोदाम में राशन के बोरों और तेल के कनस्तरों की गिनती में लगा हुआ था। कोई भाड़े के माल के लिए दुकानों में भटक रहा था तो कोई गाड़ी की खिंचाई से परेशान होकर मैकेनिक को मर्ज समझाने तथा समय और खर्चे का पता करने में लगा था।
पुराने और खांटी उस्तादों ने कलैंडरों को काम में लगा रखा था और खुद किसी ढाबे में टांगें पसारकर दाल फ्राई की महक में खोये हुए थे। कुछ चाय सुड़क रहे थे। लिपटिस, भोनिया, कैसिट और राजू उस्ताद जैसे रौनकिया ड्राइवर नजर आ रहे थे। सभी बातों में मशगूल थे। सुबह के बोनी-बट्टा से लेकर सफर के अनुभव को एक-दूसरे को बता रहे थे।
उस्ताद लोग नये लौंडों को मुंह लगाना कम ही पसंद करते थे। उनसे बात करने लगो तो साले सिर में मूतने को तैयार हो जाते थे। आखिरकार उम्र और तजुर्बा भी कोई चीज होती है। लिपटिस हमेशा कुछ नया कहकर उनके व्यूह में घुसपैठ की फिराक में लगा रहता था। मौका मिलते ही एक सांस में अपनी बात कह गया-‘अरे सारी बात छोड़ो......तुम लोगों ने देखा नहीं.......वो साला धौलिया आज बड़े मजे में था। बगल में दो बिठाई हुई थी।’
‘अबे, उसकी किस्मत में तो लड़कियां ही लड़कियां हैं !’ कैसट ने आह भरते हुए कहा।
‘तो तुझे क्यों जलन हो रही है !’ राजू उस्ताद ने कैसट को हड़काया तो बाकी सब हंसने लगे।
‘कहीं ये घाट से पहले मोड़ पर खड़ी लड़कियां तो नहीं थी ?’ भोनिया उस्ताद भी बातचीत में कूद गए।
‘हां, मैंने भी उनको वहां पर देखा था !’ कैसट ने फिर से बातचीत में सेंधमारी शुरू की।
‘‘उस्ताद, अपनी तो सूरत देखकर ही लड़कियां की मां-बहन एक हो जाती है। आज तक समझ में नहीं आया, अपने में ऐसी क्या बुराई है ?’ अपनी बात के असर से उत्साहित हो चुके लिपटिस ने राजू उस्ताद से कोई मार्के की बात सुनने की उम्मीद में कहा।
‘अबे, यहां भी यही हाल है। पता नहीं ऊपर वाले ने किस जन्म के कर्मों का बदला लिया। बनाते समय थोड़ा हाथ संभालकर चला देता तो उसका क्या बिगड़ता ?’ राजू उस्ताद बोले।
‘उस्ताद, मैंने भी उनके लिए हॉर्न बजाया था। सालियों ने ऐसे सूरत फेर ली जैसे मैं कोई तड़ी पार हूंगा !’ लिपटिस फिर से मूल विषय की ओर लौट आया।
‘मुझे भी मुंह नहीं लगाया। खुशामद की अपनी आदत है नहीं ! यहां कौन सा सूखा पड़ा है। चार पैसे फैकेंगे हो जाएगा अपना काम !’ कैसट ने कहा।
‘धौलिया साला, चिकना भी तो ठैरा ! लड़कियां उसकी ओर फिसलते हुए जाती हैं। जब मेरे साथ था तो साले ने कितनी बार मूड खराब किया। साला, सोचने से पहले ही गोल हो जाता था।’ राजू उस्ताद ने पुराने दिन याद करते हुए आह भरी।
‘छोड़ो यार राजू उस्ताद, चूतिया मत बनाओ। तुमने साले को खूब रगड़ा होगा !’ लिपटिस राजू उस्ताद के काफी करीब पहुंच चुका था।
राजू उस्ताद प्रतिक्रिया में कुछ कहने के बजाय सीमा लांघते हुए लिपटिस को उसकी औकात याद दिलाने की गरज से चुप रहे।
‘मैंने तो सुना वो लड़कियों को अपने साथ खाना खिला रहा था !’ कैसट किस्से की महक में खो चुका था और उसका सारा रस लेना चाहता था।
‘पता नहीं साले का उनके साथ कब से चक्कर चल रहा होगा। अब उनको बैठाकर घुमाने भी लगा है। अकेले तो मैं भी नहीं तरने दूंगा। छै महीने उस्तादी सिखायी है। आज भी, कहीं पर देख लेता है तो झुककर नमस्कार करना नहीं भूलता। कहता है, उस्ताद तुम्हारी मार और गालियों की बदौलत आज अपना घर चल रहा है।’ राजू उस्ताद ने अपने उम्र और अनुभव के सिक्के को उछाला तो सब की बोलती बंद हो गयी।
‘ऐसे लोगों की वजह से ही हमारी इमेज खराब होती है !’ भोनिया उस्ताद ने बातचीत का सार-संक्षेप करते हुए कहा।
सभी उस्ताद लोग अपने ट्रकों की ओर चल दिये और कलैंडरों को टाईट करने की गरज से, कोई न कोई कमी निकालकर गालियां बकने लगे। धौलिया उस्ताद और लड़कियों की बात सब के दिमागों में जोर-शोर से घूम रही थी। कोई भी मिलता, नमक-मिर्च लगाकर उसे किस्सा सुना देते। सुनने वाले को मजा आ जाता और वह अतीत में घटे किसी यादगार प्रसंग को सुनाकर माहौल को रोमांचक बना देता।
दोनों सड़क पर पहुंची, तो उन्हें लगा जैसे उन्होंने गांव की सीमा को पार कर लिया है। मुंडेर पर बैठकर उन्होंने सुनसान सड़क पर नजर डाली। थोड़ी-थोड़ी देर में जीप, बस और कारें हॉर्न से सन्नाटा तोड़ते हुए उनके सामने से गुजर जाते थे। वहां पहुंचकर उनके खून के प्रवाह तथा धड़कनों में बदलाव आ गया था। घाट के पार अल्मोड़ा को जाने वाली सड़क दूर तक दिखायी दे रही थी। कुछ देर तक मुंडेर पर बैठकर सुस्ताने, स्रोत का पानी पीने और मुंह-हाथ धोने के बाद धीरे-धीरे शरीर में स्फूर्ति लौटने लगी। इस बीच कुछ जीपों तथा ट्रकों के ड्राइवरों ने उनसे चलने के लिए पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। जब वे चलने को तैयार हुई तो धौलिया अपने ट्रक के साथ वहां पहुंच गया। संयोग से आज उसके केबिन में कोई सवारी भी नहीं थी।
दोनों को देखकर वह सवारी के लालच में पड़ गया।
‘चलो बैंड़ियो, आ जाओ ! सीटें खाली हैं। अरे, सोच क्या रही हो ? बस के किराये से दस रूपये कम दे देना !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा। उमा बोली-‘हम तो रोडवेज की बस से जायेंगे !’
‘बैंड़ियो, अब कौन सी रोडवेज की बस से जाओगे ! अब कोई बस नहीं आती। देर हो गयी है। घबराने की कोई बात नहीं। धौलिया, इसी रोड पर चलने वाला ठैरा ! मेरे होते हुए कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अपना भाई जैसा समझो....कोई परदेशी, थोडा हूं।’ अपने तरकश से एक के बाद एक भरोसेमंद तीर निकालकर वह उनके ऊपर छोड़ता चला गया।
दोनों पर उसकी बातों का असर हुआ। उसकी आत्मीयता से भरी बातों को सुनकर, कुछ ही पलों में वह उन्हें अपना सा लगने लगा। उधर कलैंडर को हमेशा की तरह उस्ताद की बातों को सुनकर शर्म आ रही थी। ‘सवारी को पटाने के लिए उस्ताद, क्या-क्या नहीं कह देता है। इतनी खुशामद लाईन में और कोई नहीं करता।’
‘चलो-चलो आ जाओ। रोडवेज से एक घंटा पहले पहुंचाऊंगा। चल भाई कलैंडर, बैड़ियों का सामान रखवा दे ! अब, रूकने का समय नहीं है......पहले ही बौत देर हो चुकी है !’
दोनों मंत्रमुग्ध से केबिन की ओर बढ़ चले।
‘हां भाई कलैंडर, अपना कोटा पूरा हो गया !’ उसने क्लीनर से कहा तथा ‘ओ चन्दू डरैवर, गाड़ी चलाछैं बागेष्वर लैना...’ गुनगुनाते हुए कुछ ही पलों में गेयर लीवर दूसरे से होते हुए चौंथे पर पहुंच कर ठहर गया।
कुछ समय तक वह अपने गीतों में मग्न रहा। फिर लड़कियों से मुखातिब हुआ-‘बैंड़ियो, एक बार जो अपने साथ चल देता है, सड़क पर दूसरी गाड़ी की ओर देखता तक नहीं। बहुत मेहनत से लाईन में अपनी रैपुटेशन बनायी है। यकीन न आ रहा हो तो मेरा नाम किसी भी गाड़ी वाले से पूछ लेना। कमाते तो सभी हैं, अपनी सोच दूसरे के दर्द को समझने की हुई। इसलिए लाईन में अपने दुश्मन भी कम नहीं हुए.....करें दुश्मनी .......करते रहें.......हम तो अपनी मेहनत की खाते हैं। लोग साले अपना जैसा समझते हैं !’
उस्ताद की बातें सुनकर कलैंडर ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढक लिया।
‘कहां तक जा रहे हो ?’
‘मौसी के वहां........नहीं......दिल्ली !’
‘दिल्ली मौसी है तुम्हारी ?’
‘नहीं......वो........हां.....’
‘अरे, धौलिया उस्ताद को बताने से क्यों घबरा रहे हो ? घर का आदमी समझो........कभी धोखा नहीं होगा !’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं है।’
‘मैंने तो कई लोगों को फ्री में उनके घर पहुंचाया ठैरा ! इसी साल की बात है, एक लड़की घर वालों से नाराज होकर टनकपुर आ गयी। वहां जिसे देखो साले उसे बुरी नजर से देखने वाले हुए। मैं उसे अपने साथ बैठाकर लाया। सब साले मुझसे चिढ़ गये। अपना जैसा समझने वाले हुए। अपनी बहन को भी बहन नहीं समझने वाले लोग यहां हर ओर भरे हुए ठैरे ! टनकपुर से नीचे को गए तो जिसे देखो वो ही ताक में लगा रहता है। धंधा है सालों का। दिल्ली और बौम्बे में नेपाल की मजबूर लड़कियां यहीं से जाती हैं। सीधी-सादी और अकेली औरतों पर इन लोगों की नजर लगी रहने वाली हुई।’
‘टनकपुर तक जायेंगे !’
‘वहां से दिल्ली की शाम की बस पकड़ोगे ?’
‘हां !’
‘मौसी के वहां पहले भी गये हो ?’
‘नहीं, पहली बार जा रहे हैं !’
‘मुझे तो बता दिया। रास्ते में कोई कुछ पूछे तो मत बताना। उससे कहना, अपने काम से मतलब रख। समय बहुत बुरा है, बैड़ियो !’
धौलिया की बकबक अब उन्हें बोझिल करने लगी थी। उससे किनारा करने के लिए दोनों कलैंडर की ओर मुड़कर बाहर की ओर देखने लगे। चौदह-पन्द्रह साल का कलैंडर जिसकी मुस्कान रीत सी गयी थी। ट्रक में लड़कियों को देखकर खुश था। अब स्त्रियां उसे अपनी ओर आकर्शित करने लगी थी। उनकी ओर देखना उसे, हवा के ताजे झोंके की तरह सुकून का एहसास करा रहा था। खिड़की से सिर बाहर निकालकर वह रोड पर आ-जा रही लड़कियों का चेहरा देख लिया करता था, हालांकि दूसरे ड्राइवर-कंडक्टरों की तरह उनकी ओर बेहयाई से देखना या कोई अश्लील बात कह देना उसे पसंद नहीं था। वह उनको कुछ इस तरह देखता की उनको भी पता नहीं चल पाता था कि कब उसने उनके रूप का पान कर लिया। यहां भी वह क्षण भर के लिए बाहर देखता और मौका मिलते ही गौर से उनका चेहरा देख लेता। पहली बार सुंदरता उसके इतने करीब थी कि उसका उनके चेहरों से नजरें हटाने का मन नहीं कर रहा था। कुछ देर में जब उमा को उसके इस खेल का पता चला तो उसने अपनी नजरें उस पर गड़ाना शुरू कर दिया। उसकी सतर्कता देखकर लड़के ने इस खेल में हार मान ली।
उमा को कलैंडर के मनोभावों को पढ़ने के बाद इस खेल में मजा आने लगा। उसने कमला के कान में कुछ कहा। लड़के को लगा, कहीं उसी के बारे में बात तो नहीं हो रही है। वह घबरा गया। अगर उन्होंने उस्ताद से कुछ कह दिया तो ! उस्ताद पिटाई लगाने के साथ कई दिनों तक किस्म-किस्म की बातें सुनाते रहेंगे। वह घबरा गया और लड़कियों की ओर देखने से तौबाकर बाहर की ओर देखने लगा। इसी बीच अनायास वह भावुक हो गया और उसके भीतर उथल-पुथल मच गयी।
उसे अपनी मां की याद आ गयी। बचपन के दिन कितने कष्ट थे, लेकिन मां अपनी शीतल छांव उसके ऊपर फैलाकर उसे उन कष्टों का एहसास नहीं होने देती थी। उसके कोमल स्पर्श प्रेम का ध्यान आते ही उसकी आंखें भर आयी। उसे पता था, लाईन के कलैंडर कभी उसके दिल की बात नहीं समझ सकेंगे। उन्हें क्या पता कि उसका स्त्रियों के बारे में क्या नजरिया है ? जब भी मां की याद आती, उसे खूब रोना आता था। मां के अंतिम दिन कितने दुःखदायी थे। चाहकर भी वह उसके लिए कुछ नहीं कर पाया था। बस, पल-पल मां को मरते हुए देखता रहा। कौन समझेगा उसके साथ कैसी बीती है ? कोई नहीं समझता। सब अपने को दुनिया का सबसे बड़ा पीड़ित समझते हैं !
कई बार सोचता, वह कैसे पत्थर लोगों के बीच आ गया है, जो सिर्फ दूसरों को नोचना जानते हैं। लेकिन कभी कोई अपनी कहानी सुनाने लगता तो उसे सुनकर उसका दिल दहल जाता। अकेला वही नहीं है। सभी ने झेला है। लेकिन वे लोग अपने पुराने दिनों को भूलकर वर्तमान में जीने लगे हैं। उसे लगता, एक वही है जो अभी भी अतीत से चिपका हुआ है।
वह फिर से वर्तमान में लौट आया। उसकी इच्छा हुई उमा उसे अपने सीने से लगा लेती तो अब तक की सारी थकान, कई दिनों की नींद, सारे दुःख, उस्ताद की गालियां, लोगों की उपेक्षा, दुत्कारती हुई नजरें सब कुछ धुल जाता और ठूंठ में बदलते जा रहे जीवन में नई कोंपले फूट पड़ती।
उमा ने लड़के की आंखों में भर आये आंसुओं और मासूम सी आदिम इच्छा को पढ़ लिया । वह उसके दुःख से दुःखी हो गयी और सोचने लगी-‘कितना प्यारा लड़का है। इसकी उम्र अभी घर में रहकर खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की है। पता नहीं किस मजबूरी के कारण यह इस ट्रक में जुता हुआ है।’ उसका जी हुआ लड़के को अपनी छाती में भींचकर, उसके बालों को सहलाए और उसके कोमल चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर दे।
उधर धौलिया उस्ताद टेप में बज रहे गानों के साथ सुर मिलाता जाता और पारखी नजरों से लड़कियों तथा कलैंडर के बीच चल रहे खेल को देख लेता। उसे लगने लगा, मामला अब कुछ सीरियस होने लगा है। लड़के का ध्यान हटाने के लिए वह उसे उसकी ड्यूटी याद दिलाने लगा-
‘हां भई कलैंडर, टायरों की हवा चेक की थी ?
बोल्ट टाइट करने के बाद व्हील-पाना संभाल कर रखा था ?
गाड़ी का तेल-पानी तो ठीक है ना ?
मालिक साहब से एजेंट वाली चिट्ठी संभालकर रखी है ना ?’
जब वह कलैंडर था तो उसका उस्ताद भी उससे ऐसे ही सवाल पूछता था। धौलिया ने उन दिनों गौर किया था, जब ट्रक में कोई खास सवारी हेती तो उस्ताद के सवाल बढ़ जाते थे। तब वह मन ही मन उस्ताद से कहता था, ‘दिखा लो उस्ताद तुम भी अपनी उस्तादी.....कभी हमारा समय भी आएगा !’ आज वैसे ही उसके सवाल बढ़ गये थे। लड़का इस बात पर गौर कर रहा था और वही बात मन ही मन कह रहा था, जो कभी धौलिया कहा करता था।
उमा को नींद सी आने लगी थी। पलकें मूंदी तो देखा, भीतर भारी उथल-पुथल मची हुई है। एक-एक कर माता-पिता, गांव के लोगों और रिश्तेंदारों के चेहरें आंखों के आगे आते जा रहे थे। सब उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देख रहे थे। उसे लगा, जमाने का सच जो भी हो मगर अपने तो यही लोग हैं। इनकी नजरों में गिरने के बाद क्या कभी इस कालिख से पीछा छुड़ाना संभव हो पाएगा ? वियोग तो सहा जा सकता है, लेकिन जिंदगीभर का अपमान और लांछन नहीं ! उसने पलकें खोलकर कमला की ओर देखा तो उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
‘क्या हुआ ?’ उमा ने धीरे से उसके कान में पूछा।
वह चुप रही।
‘बोल तो सही.......कर लिया ऐसे तूने दिल्ली में काम !’ उमा ने फिर से कहा।
‘चल लौट जाते हैं। मुझे बहुत डर लग रहा है। पता नहीं हमारा क्या होगा ? आस-पास कितनी बदनामी होगी। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा !’
‘उसका पता तो है हमारे पास। उसने कहां तो है वो तेरे लिए नौकरी का इंतजाम कर देगा !’
‘अगर वो वहां नहीं हुआ तो ! उसने तुझसे जोश में कहा और हम उसकी बातों में आकर चल पड़े। कहां से करेगा वो दो-दो लड़कियों के लिए नौकरी और रहने का इंतजाम ! लड़के तो बढ़ा-चढ़ाकर बोलते ही हैं। वहां जाकर अगर कुछ नहीं हुआ, तब क्या होगा ?’
‘नहीं, वो ऐसा नहीं है.........उसने मुझसे कहा है कि वो मेरे लिए कुछ भी कर सकता है !’ उमा ने दृढ़ता से कहा।
‘वो अच्छा आदमी है। मैं जानती हूं, लेकिन वहां उसके बस में कितना है ? ये हमें पता थोड़ा है ? तेरा तो ठीक है तू उससे षादी कर लेगी। मेरा क्या होगा ? कहीं मैं तुम दोनों के लिए समस्या बन गयी तो ? कुछ समय की हो तो बात है तुम दोनों की शादी को कौन रोक सकता है ? इतनी जल्दबाजी से क्या फायदा ?’ कमला ने अब तक उपजे सवालों को दबाने के बजाय कह देने में ही भलाई समझी।
‘जल्दबाजी....तू आजकल के लड़कों को नहीं जानती......मैं उसे खोना नहीं चाहती.......घर वाले मेरी शादी की बातें करने लगे हैं.......कब तक मना करती रहूंगी.......ऐसे ही किसी गांव में शादी कर देंगे..........मैं एक गड्डे से निकलकर दूसरे में फंसना नहीं चाहती ! फिर भी तू लौटना चाहती है तो ठीक है !’ उसने कमला की बात में हामी भर दी थी।
उनकी फुसफुसाहट से धौलिया उस्ताद ने भी अंदाजा लगा लिया था कि मामला उतना सीधा नहीं है, जितना दिख रहा है।
‘दाज्यू, टनकपुर में आपका कितनी देर का काम है। टनकपुर से हम आप के साथ वापस लौट जायेंगे। एक कागज में मौसी का पता लिखा था। कहीं मिल नहीं रहा है। शायद हम उसे जल्दीबाजी में घर ही भूल आए !’ उमा ने धौलिया से कहा।
‘बैड़ियो, इतनी बड़ी गलती.........देख लो यहीं, कहीं होगा, किसी थैले-थूले में !’
‘हमने अच्छे से देख लिया......कहीं नहीं मिल रहा !’
‘ठीक है, अपनी जिन्दगी को मुसीबत में डालना ठीक नहीं.......मेरा एक-दो घंटे का काम है। तब तक खाना-खुना खा लेते हैं.....जल्दी है तो किसी गाड़ी में निकल लो !’
‘दाज्यू तुम्हारे साथ ही जायेंगे !’
टनकपुर पहुंचकर उसने कैंटर को ईंटों के ठेकेदार के आगे खड़ा कर दिया। उसका लड़कियों वाला किस्सा सुन चुके ड्राइवर उनकी हर एक गतिविधि पर नजर रखे हुए थे। कुछ ने आगे बढ़कर धौलिया से मामले के बारे में पूछा तो उसने ‘लड़कियों का दिल्ली का पता खोने वाली बात दोहरा दी, जिस पर किसी को यकीन नहीं हुआ।
दोनों लड़कियां अब काफी खुश थी। उन्होंने घर तथा रास्ते पर मिलने वाले गांव के लोगों को बताने के लिए बहाना सोच लिया था। ‘मौसी के घर में कोई नहीं था......क्या करते........कहां रहते.......इसलिये लौट आए !’
अब तो वे समय से घाट पहुंचकर घर का रास्ता पकड़ने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। दोनों मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे, ‘हे भगवान, आज सकुशल घर पहुंचा दो। आगे से जो करेंगे, खूब सोच समझकर होशो -हवास में करेंगे !’
अब इसे धौलिया का लड़कियों के प्रति सम्मानजनक नजरिया माना जाए या साथ के ड्राइवरों द्वारा खुद को निशाने पर लेने की प्रतिक्रिया समझा जाए या दो जवान और खूबसूरत लड़कियों के सान्निध्य का सुख मान लिया जाए या इसे उसकी बेवकूफी कहा जाए कि उसने लौटते समय जगह होते हुए भी किसी और को नहीं बैठाया। जिसने लाईन के लोगां के शक को पुख्ता कर दिया और सवारियों के लिए मरने वाला धौलिया, इस चूक की वजह से और भी संदेह के घेरे में आ गया।
लड़कियों से किराये में मिले चार सौ रूपये उसने चोर जेब में खोंस दिए। टनकपुर में एक घंटे रूकने के दौरान लड़कियां पसीने से तरबर हो चुकी थी। कैंटर के चलने से उन्हें राहत महसूस हो रही थी। इस दौरान धौलिया ने उनसे उनके घर-बार के बारे में पता कर लिया था। उनके न पूछने पर भी अपने बारे में वह उन्हें काफी कुछ बता चुका था। उनकी नजरें देखकर अनुमान लगा चुका था कि लड़कियां गलत नहीं हैं। ‘होगी इनकी कोई बात.........मुझे क्या मतलब। सड़क पर रोज नए-नए लोग मिलते रहते हैं। सब के बारे में सोचने लगूं तो हो गया अपना काम !’
जैसे ही वह लोहाघाट से पहले पुलिया पर पहुंचा। उसे आगे के चैक पोस्ट पर दरोगा तथा कुछ सिपाही मुस्तैदी से खड़े दिखायी दिए। ‘कोई खास मामला होगा। कोई मुखबिरी हुई होगी। अभी पूछता हूं दरोगाजी से !’ लड़कियों पर रौब डालने के लिए उसने कहा।
चैक पोस्ट के करीब पहुंचते ही उसका दांया हाथ सलाम की मुद्रा में उठ गया। पुलिस वालों के हाव-भाव बदले हुए थे। उनमें रोज की जान-पहचान के संकेत नहीं थे। उन्होंने उसे रूकने का इशारा किया। एक सिपाही उसके दरवाजे की ओर लपका।
‘चल उतर.......गाड़ी को साइड लगा !’ डंडा घुमाते हुए सिपाही ने उससे कहा।
‘कोई बड़ा कांड हुआ होगा......तभी ऐसा कर रहे होंगे !’ धौलिया ने सोचा।
किसी प्रकार की आफत के अपनी ओर आने का उसे कोई अंदेशा नहीं था। ऐसे कोई संकेत भी उसे नहीं मिले थे। वैसे भी इंसान अपनी ओर आती हुई मुसीबत के बारे में आश्वस्त रहता है कि वह ऐन वक्त पर किसी और दिशा को मुड़ जाएगी।
लेकिन धौलिया का आशावाद धरा का धरा रह गया। उसका कैंटर रोड के किनारे खड़ा था। दो जोरदार डंडे उसके पिछवाड़े पर पड़ चुके थे। लोगों का मजमा लग चुका था।
‘साला, लड़कियों का धंधा करता है। सुबह से ट्रक में घूमा रहा है।’
‘अच्छा.......!’ लोग सुनते और आश्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखते हुए कहते।
‘कहां की रहने वाली हो ? अपने मां-बाप का नाम बताओ ?’
लड़कियां डर के मारे चुप रही।
‘बोलो, नही तो अंदर बंद कर दूंगा। किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा। उमा बोली, ‘हम लोहाघाट मौसी के वहां जा रहे थे.......’
‘और ये साला तुमको जबरदस्ती बहला-फुसलाकर टनकपुर ले गया, क्यों ?’
वे समझ गयी सच कहना उन्हें बहुत भारी पड़ेगा।
‘तुम लोग अपनी इच्छा से इसके साथ गये......या कोई बहाना बनाकर ये तुमको अपने साथ ले गया !’
पहले ‘ना’ फिर ‘हां’ कहकर उन्होंने दरोगा की बात की पुष्टि कर दी।
‘चलो, यहां पर साइन करो। इस साले को तो हम देख लेंगे !’ उसने एक सादा कागज उनकी ओर बढ़ाया था।
‘साहब, आप तो मुझे अच्छे से जानते हो। रोज मुलाकात होती है। कभी कोई गलत काम नहीं किया ठैरा साहब ! लड़कियां दिल्ली जा रही थी, फिर कहने लगी पता कहीं खो गया। मेरे साथ वापस लौट आई। बस, इतनी सी बात है!’
‘बातें मत बना............हमें सब पता है। उन्होंने तेरे खिलाफ बयान दिया है।’
‘मैंने कुछ नहीं किया साहब ! मैं निर्दोष हूं। घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं !’
‘साले, लड़कियों का धंधा करते समय तुझे बच्चों का ख्याल नहीं आया। लड़कियों को लेकर सड़क पर घूमता है।’ कहकर दरोगा वहां से चला गया।
धौलिया की समझ में आ रहा था कि वह मुसीबत में फंस चुका है। उसका आत्मविश्वास डगमगा चुका था। ‘क्या जरूरत थी, टनकपुर से दुबारा लड़कियों को अपने साथ लेकर आने की। जब मैं जानता हूं, सब मुझसे जलते हैं। क्या जरूरत थी, उनकी खुशामद करने की ? अपनी मार्केट बनाने में लगा रहता हूं। कौन पूछता है किसी को ? कौन किस को याद रखता है ? लड़कियां दूसरों को भी तो मिलती हैं। कोई उनकी इतनी खुशामद नहीं करता। वो समझते हैं औरतों का मामला !’
तभी उसे अपनी जान-पहचान का एक सिपाही दिखायी दिया। उसे देखते ही धौलिया ने सलाम ठोका।
‘क्यों भाई, कैसे फंस गया इस चक्कर में ?’ सिपाही के तेवर बदले हुए थे।
‘दीवानजी, अब क्या बताऊं ? मैं तो सिर्फ सवारी ले जा रहा था। मेरी खुद समझ में नहीं आ रहा है। मेरे ऊपर ऐसे आरोप क्यों लग रहे हैं ? आप तो मुझे अच्छे से जानते हो !’ उसने अपने को दयनीय बनाते हुए कहा।
‘चल, जो हुआ सो हुआ ! अब यहां से निकलने की सोच। तेरे ऊपर अपहरण का मामला बन रहा है। इसमें जमानत भी नहीं मिलती। अभी मामला दरोगाजी के हाथ में है। किसी जिम्मेदार आदमी के जरिये बात करा ले !’ फिर वह फुसफुसाने लगा ‘हमारी तेरी तो रोज की दुआ-सलाम हुई। देख ले, बात आगे नहीं बढ़नी चाहिए !’
‘दीवान जी, अब तक मालिक के पास खबर पहुंच गयी होगी। कोई न कोई आता होगा ! तुम दरोगाजी से कह दो, सुबह तक इंतजाम हो जाएगा !’
‘चिन्ता मत कर, काम करवा दूंगा ! मेरा ख्याल रखना !’ सिपाही ने मुस्कराते हुए कहा।
वह इसी माहौल में पला-बढ़ा था। जानता था, सिपाही के जरिए बात आगे बढ़ाकर वह बाहर हो सकता है। पर अभी मामला गर्म था। दाम ऊंचे लगते। लेकिन रूपये खर्च होना अब तय था। दिन-रात मेहनत करके कुछ रूपये जोड़े थे। सोचा था, इस बार छत पर नई चादरें बिछवा दूंगा। लेकिन सोचने से ही तो सब काम नहीं हो जाते ! पता नहीं, किसकी नजर लगी ?’
ट्रक का मालिक रात को अपने साथ एक ड्राइवर लेकर आया और दरोगाजी की जेब गरम कर के ट्रक को लेकर चलता बना। अगले दिन सुबह-सुबह उसके पिता इधर-उधर से रूपयों का इंतजाम कर पिछले चुनाव में विधायकी के लिए खड़े क्षेत्र के समाज सेवक अमर सिंह के साथ थाने में हाजिर हो गये। मुलाकात के समय धौलिया ने पिता से कह दिया था कि ‘किसी को भी अपने पास दस हजार से ज्यादा रूपयों की खबर मत होने देना !’
उसके कंधे पर हाथ रखकर अमर सिंह ने कहा, ‘चिन्ता मत कर मैं हूं न ! सब ठीक हो जाएगा !............‘पुलिस वाले अपहरण का मामला बता रहे हैं। पन्द्रह-बीस से कम में तो क्या मानेंगे !’
‘इतना तो नहीं है। शायद बाबू आठ-दस लाये हैं !’
‘चल देखता हूं, क्या होता है। आज बीडीसी की जरूरी मीटिंग में जाना था। खैर कोई बात नहीं, अपने लोगों के लिए सब छोड़ना पड़ता है !’ उसने एहसान जताते हुए कहा था।
अमर सिंह दरोगा के कमरे में पहुंच गया। दोनों ने जोशो -खरोश से हाथ मिलाए।
अमर सिंह ने मजाकिया लहजे में पुलिस के द्वारा सीधे-सादे स्थानीय लोगों का उत्पीड़न बढ़ने की बात कही। थानेदार ने लड़कियों की शिकायत दिखायी। अमर सिंह ने मंत्रीजी तथा राज्य के आला अधिकारियों से हाल में हुई अपनी मुलाकात का जिक्र किया तथा लड़कियों के बयानों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। उसने धौलिया के अब तक के अच्छे रिकार्ड का जिक्र किया। मामले को जबरदस्ती का तूल दिया हुआ बताया।
दरोगा नियम-कायदे की बात करने लगा। अमर सिंह ने पांच हजार की गड्डी उसकी मेज पर रखी और झटके से बाहर निकल गया। माहौल को शांत होता हुआ देखकर अगले दिन धौलिया को छोड़ दिया गया।
और जैसे कि हर बार अपने जीवन में घटने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना के बाद धौलिया उसका विष्लेशण करते हुए आगे के लिए सबक लिया करता था, इस बार उसने निष्कर्ष निकाला कि ‘अब से अकेली लड़कियों को गाड़ी में नहीं बैठाना है। सालियों ने न सिर्फ खू-पसीने की कमाई को मिट्टी में मिला दिया, बल्कि वर्षों की मेहनत से बनी मार्केट भी खतम कर दी। अब, किस-किस को समझाऊंगा........किस-किस का मुंह बंद करूंगा !’
उधर, जीप के अंदर से बाहर घिर आए अंधेरे को देख रही लड़कियां, डरी हुई अपने-अपने ख्यालों में खोयी थी। दोनों को लग रहा था ‘जब तक घर नहीं पहुंचते, अपने को सुरक्षित नहीं समझ सकते !’ उमा सोच रही थी, ‘जब नदी में छलांग लगा दी थी तो पार भी हो ही जाना चाहिए था। देखा जाता। कमला कमजोर निकली। कमला ही क्यों ? वह भी तो ढीली पड़ गयी थी। ज्यों-ज्यों वह घर के करीब पहुंचती जा रही थी, एक गहरी खिन्नता उसके ऊपर हावी होती जा रही थी। मगर कमला के चेहरे में ऐसे भाव थे, जैसे वह किसी मुसीबत से निकल आयी है और अब कम से कम ऐसा कदम नहीं उठायेगी। जब दोनों रोड पर उतरी तो उनका सामना एक बिल्कुल नयी और अपरिचित सी जगह से हुआ। सड़क में कीड़ों के कुलबुलाने, नीम अंधेरे और मौन के अलावा कुछ नहीं था। यह सन्नाटा दूर तक तना हुआ था और माहौल को भयानक बना रहा था। दोनों को अकेले, सुनसान जगहों में आने-जाने का अनुभव नहीं था। लग रहा था जैसे आधी रात हो चुकी है। दोनों भयभीत थी। अंधेरे में ढलान वाले रास्ते पर कैसे उतरेंगे ?
तभी कमला ने पहाड़ों के काले-काले सायों के बीच कुछ बल्बों के सहारे रोशनी से टिमटिमाते हुए अपने गांव को पहचाना तो वह अपनी खुशी छिपा नहीं पायी-‘देख, यहां से हमारा गांव कितना अच्छा लग रहा है ?’
‘हां, बहुत अच्छा है तेरा ये गांव ! कल से लोगों के वहां जाकर भीख मांगना शु रू कर देना ! अपने मां-बाप की तरह तू भी रोते-कलपते हुए ऐसे ही गाड़-गधेरों में अपनी जिन्दगी बिता देना ! किसी दिन पहाड़ से गिरकर........नदी में डूबकर मर जाना !’ उमा ने गुस्से में कहा।
एकाएक गुस्से में कही उमा की बातें कमला की समझ में नहीं आई। वह चौंककर उसकी ओर देखने लगी। वह कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। ०००
दिनेश कर्नाटक
जन्म 13 जुलाई 1972, रानीबाग (नैनीताल)
शिक्षा एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य) बी.एड., पीएचडी
रचनाएं
पहली कहानी ‘एक छोटी सी यात्रा’ 1991 में ‘उत्तर प्रदेश’ में प्रकाषित हुई। कहानी-संग्रह ‘पहाड़ में सन्नाटा’, ‘आते रहना’ तथा ‘मैकाले का जिन्न’ क्रमशः ‘बोधि प्रकाशन, जयपुर, ’अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद तथा लेखक मंच प्रकाषन, गाजियाबाद से प्रकाशित उपन्यास ‘फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित। ऽ यात्रा-संस्मरण ‘दक्षिण भारत में सोलह दिन’ लेखक मंच प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाषित। हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियां तथा अन्य रचनाएं प्रकाशित।
पुरस्कार तथा अन्य प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान’10 से सम्मानित। उपन्यास ‘फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में पुरस्कृत। विद्यालयी षिक्षा, उत्तराखंड की कक्षा 4, 5, 7 तथा 8 की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों ‘हंसी-खुशी’ तथा ‘बुरांश’ का लेखन तथा संपादन। शिक्षा के मुद्दों पर केन्द्रित पत्रिका‘क्षिक दखल’ का संपादन।
संप्रति राजकीय इंटर कालेज, गहना (नैनीताल) में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर कार्यरत।
संपर्क ग्राम व पो.आ.-रानीबाग
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन-26 31 26
मोबाइल-094117 93190