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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 मार्च, 2016

असंगति और विसंगति बनाम ‘अकथ'

 
डॉ. संजीव कुमार जैन
                  
                 
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की यह पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में एक विचित्र इतिहास रच रही है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जो कि बहुत ही साहस और हिम्मत का काम था, जो मैंने किया, एक वाक्य में इस पर टिप्पणी की जाये तो इस तरह होगी ‘‘हिन्दी आलोचना के इतिहास में इससे अधिक कूढ़मगज, ढेरों असंगतियों और विसंगतियों से युक्त, अन्तर्विरोधी तथ्योें और असंगत भाषा, वाक्यों और व्याकरण से भरी कोई अन्य किताब न है और न होगी। यह असंगतियों, विसंगतियों, अन्तर्विरोधों का अजायबघर कही जाये तो अतिषयोक्ति नहीं होगी। मुझे यह आष्चर्य होता है कि इसकी प्रषंसा जो लोग कर रहे हैं वे क्यों कर रहे हैं? या तो उन्होंने इसे पढ़ा ही नहीं है और यदि पढ़कर ऐसा कर रहे हैं तो हिन्दी पाठकों के साथ गंभीर मजाक कर रहे हैं। इसके लेखक को न तो भाषा की तमीज है और न विषय की। न वाक्य संरचना की न शब्दों के इस्तेमाल की। न ‘लेखन’ की तमीज है। गद्य की समझ और पकड़ का नितांत अभाव है इसमें। इतना घटिया गद्य लिखने के बाद भी यदि वह हिन्दी आलोचना का सिरमोर बन रहा है तो सोचनीय स्थिति है हिन्दी आलोचना की। इसका शीर्षक भले ही ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर का कविता और उनका समय’’ हो, परन्तु इसके केन्द्र में न कबीर की कविता है और न उनका प्रेम। यह भी एक विसंगति ही कही जायेगी की लेखक जिसे अपनी बत्तीस वर्ष के निरंतर शोध, जिज्ञासा और अध्ययन का परिणाम बता रहा है, उसमें कबीर पर परिमाण के हिसाब से भी एक चौथाई भाग नहीं लिखा गया है, उनकी कविता पर तो मुष्किल से दसवां भाग भी नहीं है। विषय की दृष्टि से देखें तो विसंगति औश्र गहरा जाती है कि लेखक ने एक भी बात ऐसी नहीं की जो कबीर पर नई सोच या शोध से संबंधित हो। बल्कि कई तो इतनी हल्की और बचकानी है, जैसे विद्यार्थी सीरीज की गाइडों में मिलती हैं। कबीर केन्द्र में नहीं हैं तो फिर क्या है इस किताब के केन्द्र मे? ठेठ भाषा में कहा जाये तो ‘शुद्ध बकवास’ के अलावा कुछ भी नहीं है इस किताब में। शुद्ध बकवास इसलिए कि लेखक ने जिस देषज आधुनिकता बनाम औपनिवेषिक आधुनिकता और ज्ञानकांड जैसे शब्दों का संजाल (अवधारणात्मक विचार या दृष्टि का नितांत अभाव है अतः शब्दों का संजाल कहा है।) बुना है और जिसके जाल में पूरा हिन्दी प्रदेष और हिन्दी के विद्वान फंस गये हैं, उसका क, ख, ग भी लेखक को नहीं पता। इसमें प्रयुक्त:आधुनिकता’ की समझ को लेखक के शब्दों में ही देखें तो उसकी समझ पर आपको तरस आयेगा। पृष्ठ 67 के तीसरे पैरा का दूसरा वाक्य ‘‘आधुनिकता के बाद ही समाज प्रबोधन की दिषा में बढ़ता है।’’ और चौथे पैरा का दूसरा वाक्य ‘‘इतिहास क्रम में प्रबोधन आधुनिकता के पीछे ही आता है।’’ सबसे पहले तो इन दोनांे वाक्यों में प्रयुक्त क्रिया को देखें और लेखक की भाषा समझ पर तरस खाने के अलावा कुछ कर नहीं सकते। ‘बढ़ता है’’ और ‘आता है’’ दोनों में वर्तमान सातत्य बोधक अनिष्चत काल की क्रिया का उपयोग किया गया है जैसे कि किसी सार्वभौमिक सत्य के बारे में लिख रहा हो। जैसे कि सूरज उगता है, वारिष के बाद बाढ़ आती है, राम खाता है, घोड़ा दौड़ता है इत्यादि। जिस आधुनिकता और प्रबोधन के संबंध में लेखक लिख रहा है वह इतिहास में स्वयं लेखक के अनुसार ही चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में हो चुकीं हैं। क्या इस तरह की क्रियाओं का प्रयोग संगत है? तो क्यों हम इस किताब को पढ़कर अपना समय खराब कर रहे हैं। अब जरा लेखक की आधुनिकता और प्रबोधन की समझ की संगति के बारे में बात करलें। सबसे पहले तो मैं माननीय प्रतिष्ठित आलोचक महोदय को एक सलाह देने की हिमाकत करूंगा कि वे आधुनिकता के संबंध में कम से कम रमेष कुन्तल मेघ की पुस्तक ‘‘आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण’’ को गौर से पढ़ लें। यदि उसे पढ़ने का समय और क्षमता आप में न हो तो राजकमल से प्रकाषित ‘‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’’ में आधुनिकता और पुनर्जागरण की अवधारणा को ही पढ़ लें। इस विषय के अधिकारिक विद्वानों को पढ़ने की सलाह में नहीं दे सकता, क्योंकि उन्हें पढ़वाकर उनका अपमान नहीं करूंगा। महोदय, निवेदन है कि इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है कि ‘प्रबोधन’ (रिनँसां) पहले आया था और उसके परिणाम स्वरूप आधुनिकता का जन्म हुआ। आपने यह गाड़ी के पीछे इंजन लगा कर क्यों अपनी और अपने गुरुओं की थोड़ी बहुत बची-खुची इज्जत को सरेआम नीलाम कर दिया। आधुनिकता और प्रबोधन के संबंध में लेखक के दोनों ही कथन असंगत हैं तो इस आधार पर लिखी गई पूरी किताब में कुछ भी संगत कैसे हो सकता है? अगला वाक्य है ‘‘आधुनिक होने के पहले कोई समाज प्रबुद्ध नहीं हो सकता।’’ समाज तो आधुनिक होने के बाद भी प्रबुद्ध नहीं होता तो आप क्या कर लेंगे, जैसा कि भारतीय समाज और यूरोप का पूरा समाज आधुनिक बाद में हुआ पहले प्रबुद्ध हुआ। कैसे? यह आगे बात करेगंे। लेखक आगे लिखता है ‘‘यूरोप में आरम्भिक (आधुनिक काल, कहना चाहता है और कह दिया आरंभिक काल, इस तरह की असंगतियाँ पूरी किताब में भरी पड़ी हैं।) काल शुरू हुआ पंद्रहवीें सदी में। प्रबोधन (एनलाइनमेंट) का दौर शुरू हुआ सत्रहवीं सदी से।’’ एक ही पृष्ठ पर तीन बार लेखक उल्टी गंगा बहा रहा है और लोग उसकी तारीफ किये जा रहे हैं। आष्चर्य हो रहा है हिन्दी विद्वानों की समझ और सोच पर। इतना असंगत लिखते हुए भी यह किताब कैसे छप गई और कैसे चर्चा का विषय बनी हुई है? समझ से परे है? क्या होता जा रहा है हिन्दी के पाठकों और विद्वानों को? क्या हमने अपनी सोचने विचारने की क्षमता को बिल्कुल ही गिरवी रख दिया है या स्वनामधन्य नामवरों के आतंक से इतने आतंकित की अपनी वैचारिक क्षमता को ही खो चुके हैं। प्रबोधन का युग सबसे पहले इटली में 14 वीं सदी में प्रारंभ हुआ था। इसके बाद फ्रांस, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देषों में प्रबोधन का प्रसार हुआ। हिन्दी आलोचना की परिभाषिक श्ब्दावली के पृष्ठ 312 पर लिखा है ‘‘14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक के समय को यूरोप में पुनर्जागरण काल कहा जाता है।’’ आगे पृष्ठ 313 पर लिखा है कि नवजागरण की कल्पना के प्रचार का श्रेय इटली के नवजागरण के प्रथम इतिहासकार वर्कहार्ट को है, यद्यपि रिनँसां शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांसीसी इतिहासकार दार्षनिक मिषेसेट ने 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में किया था।’’ इसी पुस्तक में आधुनिकता के बारे में लिखा है पृष्ठ 83 पर लिखा है 6‘ आधुनिकतावाद का युग यूरोप में उन्नीसवीं सदी से शरू होकर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक माना जाता है।’’ इसी पृष्ठ पर आधुनिकता को परिभाषित करते हुए लिखा है ‘‘आधुनिकता का संबंध आधुनिकीकरण के फलस्वरूप पुरातन तथा परंपरागत विचारों एवं मूल्यों, धार्मिक विष्वासों और रूढ़िगत रीति रिवाजों के विरूद्ध नवीन और वैज्ञानिक आविष्कारों, विचारों, नए मूल्यों आदि से है। ‘आधुनिकीकरण’ शब्द उन समस्त परिवर्तनों तथा प्रक्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाता है जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत औद्योगीकरण तथा यंत्रीकरण के कारण प्रकट हुई है।’’ इन दोनों उद्धरणों के आलोक में इस पुस्तक की आधुनिकता संबंधी बकवास को पढे ंतो हजारों असंगतियाँ प्रकट हो जाती हैं। आधुनिकता का पूरा इतिहास और मार्क्स सहित सभी विचारक यह मानते हैं और प्रमाणित करते हैं कि आधुनिकता का संबंध औद्योगिकीकरण से है। जबकि विद्वान् आलोचक पृष्ठ 105 पर लिखता है कि ‘‘आधुनिक विचारों और रूझानों का कार्यकारण संबंध औद्योगिकीकरण से नहीं व्यापार से है।’’ मार्क्सवादी गुरू परंपरा का यह षिष्य किसतरह मार्क्स के सिद्धांत को उलटा लटका रहा है और पूरा भारतीय मार्क्सवादी समाज उसकी प्रषंसा कर रहा है। लेखक को इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान होता तो शायद वह यह कभी नहीं लिखता क्योंकि भारतीय व्यापार तो ईसा पूर्व की दूसरी तीसरी सदी में इससे अधिक विस्तृत था। प्लनी ने व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में होने पर चिन्ता जताई थी और रोम को भारत से व्यापार बंद करने की सलाह दी थी। यदि व्यापार से ही आधुनिकता का संबंध होता तो भारत तो ईस्वी सन् के प्रारंभ में ही आधुनिक हो चुका होता। गुप्त युग तक व्यापार के विकास की स्थिति बहुत विकसित थी। नई सोच, आस्था पर तर्क की विजय, ईष्वर के स्थान पर मनुष्य की प्रतिष्ठा, नई भौगोलिक खोजों, नई वैज्ञानिक खोजों, नई तकनीक, नई कला, नया साहित्य। इन सबने मिलकर यूरोप को जैसे सोते से जगा दिया था। यह सब 14 वीं सदी से सोलहवीं सदी तक होता रहा। इस सबके परिणामस्वरूप उत्पादन की नई तकनीक का विस्तार और आद्योगिकीकरण ने यूरोप को आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। इस तरह 17वीं सदी से आधुनिकता का वास्तविक प्रारंभ माना जा सकता है। यदि प्रबोधन से भी आधुनिक युग का प्रारंभ मानें तो भी प्रबोधन कारण है और आधुनिक युग कार्य। पर लेखक ने तो ठीक उल्टा ही कर दिया। इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखने का मन है और लेखक की हजारों असंगतियाँ इस संबंध में पूरी किताब में भरी पढ़ीं हैं जिन्हें फिर कभी प्रस्तुत करूंगा। यह तो इस पुस्तक के आधार की मुख्य असंगति की ओर एक इषारा भर था। इस पुस्तक की छोटी-छोटी मगर बहुत महत्वपूर्ण असंगतियाँ और विसंगतियाँ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं इसके पहले अध्याय की कुछ बहुत ही स्थूल असंगतियों और विसंगतियों को सप्रमाण यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। पूरी किताब की असंगतियाँ और विसंगतियाँ लिखने के लिए इससे भी बड़ी पुस्तक लिखना पडे़गी। इस पूरी किताब की मुख्य विषेषता है जुमलेबाजी। इसमें बहुत महत्वपूर्ण अवधारणाओं को बहुत चलते ढंग से इस्तेमाल किया गया है, जैसे ‘उत्तर अधुनिकता’ आज के युग की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा को जितनी बार भी प्रयोग किया गया है, उतनी ही बार उसकी मूलचेतना को समझे बिना। इसी तरह ‘आधुनिकता’ और ‘ज्ञानकांड’ जैसी अवधारणाओं को जिन्होंने पूरी दुनिया का नक्षा बदल दिया, बहुत ही सरलीकृत और बिना अवधारणात्मक चेतना के प्रयोग किया है, जो बहुत ही गंभीर मसला है हिन्दी आलोचना के लिए। अध्याय एक: जो कलिनाम कबीर न होते ...’ जिज्ञासाएँ और समस्याएंँ का पहला उप अध्याय है ‘बैचेनी, जिज्ञासा और यात्रा: कबीर से मेरा नाता।’’ यहीं से असंगति और विसंगति की बात प्रारंभ की जाए। इस अध्याय का पहला ही ‘पैरा’ ‘‘कबीर के अध्ययन की समस्याएँ - भक्ति संवेदना के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्याएँ भी हैं।’’ इस वाक्य में अर्थगत असंगति है। इस एक वाक्य में तीन अलग-अलग समस्याओं को एक ही लाठी से हांकने की कोषिष की गई है जो कि असंगत है। असंगत आलोचक के लिए भी है, इसीलिए इस एक वाक्य का अर्थविस्तार पूरे अध्याय में कहीं भी नहीं है। यह एक विसंगति है कि वो कौन सी समस्यायें हैं कबीर के अध्ययन की जो भक्ति संवेदना के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की समस्यायें भी हैं, यह नहीं बताया गया। तीन अलग अलग तरह की चीजों की समस्यायें एक ही कैसे हो सकती हैं - (1) कबीर के अध्ययन की समस्यायें, (2) भक्ति संवेदना के अध्ययन की समस्यायें, (3) भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्यायें। इसमें असंगति यह है कि कबीर एक व्यक्ति हैं उनके अध्ययन की समस्यायें बिल्कुल अलग होंगी जो ‘भक्ति संवेदना’ के अध्ययन की समस्याओं से नहीं मिल सकती, क्योंकि भक्ति संवेदना एक प्रवृत्तिपर अवधारणा है जिसका विस्तार कबीर के समय तक भी लगभग एक हजार वर्ष में फैला हुआ है। तीसरी बात है जिसे दूसरी से मिला दिया गया है, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्यायें जो न भक्ति संवेदना के अध्ययन की समस्यायें हो सकती हैं और न कबीर के अध्ययन की। पृ. 15 का दूसरा पैरा ‘‘भारत, बल्कि किसी भी गैर यूरोपीय समाज के अतीत और वर्तमान को समझने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है - चेतना का उपनिवेषीकरण।’’ इसमें असंगति यह है कि भारत यहाँ एक राष्ट्र के रूप में संबोधित है जबकि अन्य जगह ‘भारतीय समाज’ पद का प्रयोग किया गया है। इस स्थल पर भारतीय समाज होना चाहिए था। विसंगति यह कि यहाँ ‘गैर यूरोपीय समाज’ पद के साथ भारतीय समाज संगत होता। दूसरी विसंगति यह है कि भारत के अतीत और वर्तमान को समझना और किसी भी गैर यूरोपीय समाज को समझने की आपसी संगति बैठाने के लिए एक नहीं इस जैसी कई किताबें लिखना पढेंगी तब भी षायद संभव न हो और ‘गैर यूरोपीय समाज’ जैसा कोई समाज इस दुनिया में न था और न है। गैर यूरोपीय देष तो हैं, परन्तु समाज पद का प्रयोग इस प्रसंग में असंगत है। इस पर भी विचार करें कि जब भारत जैसे विषाल देष के विभिन्न समाजों को समझने का एक ही फार्मूला संभव नहीं है तो गैर यूरोपीय समाजों तक को इस फार्मूले में कैसे सरलीकृत किया जा सकता है। इस ‘गैर यूरोपीय’ पद का प्रयोग कई जगह किया गया है, परन्तु विसंगति यह कि कहीं भी इसे मूर्त रूप देने की या विवेचित करने की कोषिष नहीं की गई है। वह इसलिए कि ऐसा करना या होना असंभव है। अब बात करें ‘चेतना के उपनिवेषीकरण’ पद की। यह पद आगे के वाक्यों, या पैराओं से अपनी संगति नहीं बैठा पाता है। कहीं भी, किसी भी रूप में ‘चेतना के उपनिवेषीकरण को स्पष्ट करने की कोषिष लेखक ने नहीं की है। जो कि एक अच्छे गद्य की मांग के अनुरूप अगले ही वाक्य में होनी चाहिए थी। इसी पैरा का अगला वाक्य है ‘कुछ लोगों को लगता है कि अंग्रेजी राज की स्थापना से पहले का भारत धरा पर स्वर्ग समान था।’ अब इसे चेतना का उपनिवेषिकरण समझा जाये क्या? पर नहीं लेखक ऊपर की बात का स्पष्टीकरण नहीं कर रहा। यह भी एक विसंगति है जो पूरी किताब में व्याप्त है कि अधिकांषतः एक ही पैरा के सारे वाक्य अलग-अलग और आपस में असंबद्ध और असंगत होते हैं। अब इसकी अर्थगत असंगति को देखें। इस वाक्य की अर्थ ध्वनि यह है कि भारत को स्वर्ग समान मानना जैसे कोई अपराध है जो ‘कुछ लोग’ करते हैं, तो शायद यह बताना मूर्खता होगी की ऐसा अपराध ‘कुछ लोग’ नहीं ‘अधिकांष लोग’ करते हैं और इसमें हमारे सारे विचारक, दार्षनिक और सिद्धांतकार भी शामिल हैं। इस वाक्य की दूसरी अर्थ ध्वनि है कि उन ‘कुछ लोगों’ को ऐसा नहीं लगना चाहिए था। विसंगति यह है कि पूरी किताब में लेखक ने यही कोषिष की है कि ‘अंग्रेजी राज के पहले का भारत धरा पर स्वर्ग समान था यह बात सिद्ध हो जाये।’ इस बात को लेखक बार-बार ‘देषज आधुनिकता’ की अवधारणा से प्रस्तुत करता है। इसमें एक विसंगति और है वे ‘कुछ लोग’ कौन हैं? इस बारे में लेखक अन्त तक मौन है। क्यों? कारण स्पष्ट है कि वे ‘कुछ’ नहीं ‘अधिकांष’ लोग हैं जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। एक अन्य विसंगति यह उभर कर सामने आती है, दर असल ‘कुछ लोग’ वे हैं जिनकी चेतना का उपनिवेषिकरण हो गया है और जो भारत को स्वर्ग समान नहीं मानते हैं। यदि इस वाक्य को पहले वाक्य की संगति में पढ़ा जाये और जैसा कि गद्य की मांग होती है, पढ़ा ही जाना चाहिए तो विसंगति साफ हो जाती है कि दूसरा वाक्य पहले वाक्य के ‘चेतना के उपनिवेषीकरण’ के ठीक उलट है। इसका तीसरा वाक्य - ‘हमारी हर समस्या विदेषियों की देन है।’ इसे दूसरे वाक्य के ‘कुछ लोगों को लगता है’ के साथ ही पढ़ा जायेगा। अब यदि ये वे ही ‘कुछ लोग है’ जिन्हें भारत धरा पर स्वर्ग समान लगता था, तो जाहिर कि हमारी हर समस्या विदेषियों की देन, ऐसा मानना या लगना जायज है, परन्तु लेखक पहली बात के विपक्ष में है और दूसरी बात के पक्ष में, क्योंकि अगले ही वाक्य में इसकी विसंगति उभर कर सामने आ जाती है। जिसमें स्वयं के लिए समस्यायें पैदा न कर पाने की सामर्थ्य के अभाव की बात कही गई है। चौथा वाक्य इस किताब का सबसे अधिक असंगत वाक्य है। ध्यान से पढें़ इस वाक्य को ‘‘दूसरे शब्दों में, अपनी समस्यायें हल तो हम क्या करेंगे, इतनी भी सामर्थ्य परमात्मा ने भारतीयों को नहीं दी है कि अपने लिए कुछ समस्यों खुद भी पैदा कर सकें।’’ दुनिया में ऐसा कौन सा विचारक या व्यक्ति होगा जो परमात्मा से स्वयं अपने लिए स्वयं ही समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य देने की मांग करेगा? कोई स्वयं के लिए खुद ही समस्याएं पैदा करेगा? यह वाक्य अपने आप में दुनिया का सबसे असंगत वाक्य कहा जायेगा। फिर है! विदेषी आत्मन् (पुरुषोत्म अग्रवाल जी) भारतीय परमात्मा समस्यायें हल करने की सामर्थ्य देने की तो सोच सकता है, समस्यायें पैदा करने की नहीं। इस वाक्य की शब्दगत असंगतियों को देखें - पहली असंगति यह कि यह वाक्य जिन शब्दों - ‘दूसरे शब्दों में,’ से प्रारंभ होता है, जिसका अर्थ है कि यह वाक्य ऊपर कही गई बात को ही स्पष्ट करेगा, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है, क्योंकि इसमें भारतीयों में समस्यायें हल करने की सामर्थ्य तो है नहीं, समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य भी परमात्मा ने नहीं दी (अर्थात् भारतीय नपुंसक हैं जो कुछ भी नहीं कर सकते, इसमें स्वयं पुरुषोत्तम अग्रवाल और उनके स्वनाम धन्य गुरु भी शामिल हैं) यह कहा गया है जिसका ऊपर के वाक्यों से कोई संबंध नहीं है। दूसरी असंगति यह कि ‘सामर्थ्य’ शब्द का प्रयोग समस्यायें पैदा कर सकने के लिए किया गया है जो कि एकदम असंगत है। सामर्थ्य समस्यायें हल करने की हो सकती या हल करने की नहीं हो सकती, परन्तु समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य न! बा बा! न! किसी भी भाषा में संभव नहीं, सिर्फ पुरुषोत्तम अग्रवाल को छोड़कर। एक अन्य असंगति यह है कि यह अन्तिम वाक्य विदेषियों की तरफ से कहा गया है, क्योंकि इसमें ‘भारतीयों को नहीं दी’ कहा है जिसका सीधा सा अर्थ है कि कोई बाहरी व्यक्ति यह बात कह रहा है। वह कौन है? इसका प्रमाण देना आवष्यक नहीं समझा गया और ऐसा सभी स्थलों पर हुआ है। विसंगति यह है कि जिस वाक्य के स्पष्टीकरण के रूप में यह वाक्य आया है उसमें ‘कुछ लोग’ भारतीय हैं न कि बाहरी। इसके अलावा इस वाक्य में एक और असंगति है, वह यह कि इसकी अर्थ ध्वनि यह है कि स्वयं अपने लिए समस्यायें पैदा कर सकने की सामर्थ्य का न होना कोई खेदजनक बात है, जो भारतीयों के पास नहीं है और विदेषी जो न केवल स्वयं के लिए बल्कि हम भारतीयों के लिए भी समस्यायें पैदा करते रहे हैं यह बहुत ही नेक काम हो। इस किताब के इस दूसरे ही पैरा में ‘पाठगत’ असंगति भी देखी जा सकती है कि पैरा जिस बात से प्रारंभ हुआ, अन्त होते होते बात बिल्कुल ही बदल गई। यह असंगति इसी पैरा में हो ऐसा नहीं है, यह पूरी किताब की खास विषेषता है। गद्य की थोड़ी भी समझ रखने वाले हम जैसे लोग भी यह बात जानते हैं कि एक पैरा में पहला वाक्य जो बात कहता है और आगे के सारे वाक्य लगभग उसी से संबद्ध बातें कहते हैं या उसकी व्याख्या करते हैं, या स्पष्टीकरण करते हैं, या प्रमाणित करते हैं, परन्तु इस किताब में ऐसा नहीं हुआ, जो गद्य की विडंबनात्मक विसंगति ही कही जायेगी। पृष्ठ 16 के पैरा तीन का दूसरा वाक्य ‘गहराई के साथ ‘गुजरना’। इस वाक्य में असंगति यह है कि गहराई के साथ ‘जुड़ना’ शब्द अधिक संगत है ‘गुजरना’ नहीं। पैरा चार की तीसरी पंक्ति में ‘निरन्तर चलती आ रही’ में ‘चलती’ षब्द असंगत है। इसके स्थान पर ‘चली आ रही’ होना चाहिए। ‘ती’ प्रत्यय अनिष्चित वर्तमान का द्योतक है और ‘रही’ सतत् भूतकाल का दोनों एक साथ कालगत असंगतता की प्रतीक हैं। इसी पृष्ठ का पांचवां पैरा इस तरह प्रारंभ होता है ‘‘दस वर्ष बीत चले। सन् निन्यानवें के दिसम्बर में बनारस में नवलदास जी से भेंट हुई थी।’ इन दो वाक्य में पहला वाक्य इस पूरे प्रसंग में कोई अर्थ नहीं रखता और उसकी टोन भी गद्य के अनुकूल नहीं है। किस बात के लिए दस वर्ष बीत चले इसका कोई सुसंगत संदर्भ नहीं है। अगले वाक्य में जब आप ‘सन्’ शब्द का उल्लेख कर रहे हैं और इसके पहले किसी तरह के काल का कोई संदर्भ नहीं है तो यह वाक्य असंगत है। दूसरी असंगति यह है कि पृष्ठ 18 के पहले पैरा में लिखा है कि ‘‘एकेडमिक ढंग से कबीर का अध्ययन शुरु किए बीस बरस हो चुके थे, जब नवलदास जी से मिला था।’’ इसके बाद का वाक्य है ‘‘दस बरस और बीत चुके।’’ पहले का ‘दस वर्ष बीत चले’ ‘और बीत चुके’ में बदल गया। अब इन दोनों वाक्यों की संगति बैठाने की कोषिष कीजिए? इस सन् निन्यानवें को आप भूमिका के ठीक बत्तीस बरस हो चुके हैं दिल्ली आये और इसके पहले लिखा है कि बत्तीस बरस हो चुके कबीर पर टर्म पेपर लिखे हुए। इन दानों बत्तीस बरस की असंगति इस बात में है कि लेखक ने ग्वालियर से दिल्ली आकर जेएनयू से एम. ए. किया और 1985 में कबीर पर पीएच.डी. की थी। अब आप इन तिथियों की संगति बिठायेंगे तो आपको कबीर के जन्म की तिथि से अधिक मेहनत करनी होगी और लगभग सभी तिथियाँ एक दूसरे को गलत सिद्ध कर देंगी। यह बहुत बड़ी विसंगति है कि एक नामधारी आलोचक नामघारी आलोचकों की अनुषंसा और आषीर्वाद के तले इस तरह की आलोचनायें लिखे और पूरा हिन्दी प्रदेष उसकी तारीफ में ताली बजाये। अब हम अपने मूल पैरा की अन्य असंगतियों को देखें - ‘सन् निन्यानवें के दिसम्बर में’ यह वाक्य आपको हिन्दी की प्रकृति के कितने अनुकल लग रहा है? जरा ध्यान से सोचें कि आपने किसी आलोचनात्मक गद्य की पुस्तक या लेख में इस तरह का वाक्य कहीं कभी पढ़ा या सुना है? शायद नहीं। भाषा की दृष्टि से दाल में कंकड़ की तरह खटकता है और अर्थ की दृष्टि में ‘सन् निन्यानवें’ का कोई मतलब इस प्रसंग में नहीं है। इस पूरे संदर्भ में आप सन् के स्थान पर ‘उन्नीस सौ’ लिखते तो सुन्दर और संगत होता दूसरी बात इस सन् लिखने की कोई बहुत अधिक आवष्यकता नहीं है। आप निन्यानवें में मिले या 2000 में, दिसम्बर में मिले या मार्च में इससे कोई फर्क इस विष्लेषण पर पढ़ने वाला नहीं है। आप मिले और इस शोध पर क्या फर्क पड़ा यह महत्वपूर्ण है, जो आगे के विवेचन में उपलब्ध नहीं है। नवलदास जी ने कबीर की अकथ कहानी के बारे में क्या जानकारी दी? यह ज्यादा महत्वपूर्ण है यदि दी हो तो! क्योंकि आगे आपने जो उनकी मुलाकात का विष्लेषण किया है वह भी विषय विवेचन की दृष्टि और तर्कसंगतता की दृष्टि से असंगत है। आपने नवलदास जी की जो विषेषता प्रतिपादित की है जरा उसकी संगति और औचित्य को भी देख लिया जाये। इसी पैरा के तीसरे चौथे वाक्य में आपने लिखा ‘‘संस्कृत और अंग्रेजी दोनों से अनभिज्ञ होने के कारण, हिन्दी भी बस पढ़ ही सकने के कारण, ‘पढ़े’ लिखे लोगों के मुहावरे में नवलदास ‘अनपढ़’ कहे जायेंगे।’’ सबसे पहले तो आप स्वयं उनकी इस ‘अनपढ़ता’ को बता कर स्वयं अपने पर ही व्यंग्य कर रहे हैं, क्योंकि आप ही वह पढ़े लिखे हैं जो उनके बारे में इस तरह की बात लिख रहे हैं, जैसे उनकी जीवनी लिख रहे हों। सामान्य षिष्टाचार भी यह कहता है कि आप किसी से मिलें तो उसके बारे में उसकी योग्यतायें और अच्छाइयाँ ही बखान करें बषर्तें उनकी जीवनी न लिख रहे हों और फिर कबीर जैसे व्यक्ति पर शोध के संबंध में आप जिस व्यक्ति से मिल रहे हैं, वह अनपढ़ होगा यह आपकी विद्वता ही कह सकती है, अन्य किसी की सामान्य बुद्धि तो नहीं। श्री नवलदास जी अनपढ़ हैं या नहीं पर जिस वाक्य से आपने उनको अनपढ़ सिद्ध किया है, उस वाक्य से आपका ‘पढ़क्कूपन’ अवष्य सिद्ध हो रहा है? जरा देखें इस वाक्य में आये आये इस उप वाक्य को ‘‘हिन्दी भी बस पढ़ ही सकने के कारण’ यह वाक्य किसी हिन्दी पढ़े लिखे का तो नहीं ही लगता। खास तौर से ‘पढ़ ही सकने’ पद पर ध्यान दीजिये और इसकी संगतता पर गौर कीजिए। इसमें आये ‘भी’, ‘बस’, ‘ही’ ‘सकना’ इतने सारे सामर्थ्य और अनिवार्यता बोधक शब्दों का इस्तेमाल आपको किसी अन्य उपवाक्य में नहीं मिलेगा। दूसरी असंगति पूरे वाक्य में यह है कि ‘होने के कारण, हो सकने के कारण,’ दो बार एक ही तरह के सामर्थ्य बोधक शब्दों का प्रयोग भी असंगत है। इस वाक्य को इस तरह लिखा जाता तो कुछ संगत होता ‘‘संस्कृत और अंग्रेजी से अनभिज्ञ होने और थोड़ी बहुत हिन्दी जानने के कारण आप अनपढ़ कहे जा सकते हैं।’’ आगे उनसे मुलाकात का विवरण दिया है कि नवलदास द्वारा कबीर बानी की व्याख्या सुनकर लेखक को एकाएक लगा, ‘‘अरे! ये तो वैसी ही बातें कर रहे हैं, जैसी मुझे बचपन में सूझा करतीं थीं।’’ इसकी असंगति यह है कि लेखक को नवलदास से मिलकर आत्मबोध हुआ जबकि लेखक उनसे मिला (संभवतः) कबीर के बारे में जानने के लिए था। दूसरी बात यह है कि लेखक को नवलदास की अध्यात्म की बातें बचपन में ही सूझ चुकीं थीं। इससे दो बातें सिद्ध हो रहीं हैं एक तो लेखक बचपन से ही आत्मज्ञानी किस्म के संत रहे हैं, क्योंकि जिस तरह की बातें आपने आगे लिखीं वह किसी आत्मज्ञानी और पहुँचे हुए संत को ही सूझ सकती हैं, प्रोफेसर को नहीं और फिर बचपन में...............? आगे लिखा है कि ‘‘उन दिनों (मतलब बचपन में) जब सहजबोध तरह -तरह के शास्त्र ज्ञान और विमर्षों से आच्छादित नहीं हुआ था।’’ पहली असंगति यह कि बचपन में किसका ‘सहजबोध’ शास्त्रज्ञान और विमर्षाें से आच्छादित होता है, पता नहीं? दूसरी असंगति यह कि सहजबोध कहते ही उसे हैं जो बिना किसी कृत्रिम साधन के उत्पन्न होता है। जो शास्त्र ज्ञान और विमर्षाें से आता है वह सहजबोध होता ही नहीं है। ‘उन दिनों,...(मतलब बचपन में लेखक को इतनी गहरी दार्षनिक अनुभूति होती है)....‘‘जो कुछ है, भीतर या बाहर, संसार भर में, सब एक अखण्ड का ही पसारा है। इस अनादि अनन्त जगत के परे कौन परमात्मा हो सकता है? कहाँ हो सकता है?’’ इस पूरे ‘शब्द समूह’ (वाक्य तो मैं कह नहीं सकता) को जरा गौर से पढें तो बहुत सारी असंगतियाँ एक साथ दिखाई देंगी। ‘भीतर या बाहर’ में ‘या’ नहीं ‘और’ होना चाहिए, क्योंकि आगे ‘संसार भर’ में लिखा है। जब भीतर या (और) बाहर लिख दिया तो ‘संसार भर’ में लिखने की आवष्यकता नहीं है, क्योंकि लेखक अपने आत्मबोध के बारे में बात कर रहा है। ‘भीतर या बाहर’ और ‘संसार भर’ में एक साथ एकदम असंगत हैं। अब आगे के शब्द समूह पर विचार करें ‘‘इस अनादि अनन्त जगत के परे कौन परमात्मा हो सकता है? कहाँ हो सकता है?’’ इसमें जो दो प्रष्नसूचक शब्द और प्रष्नवाचक चिहृ दिये हैं, इनकी संगति को गौर से देखें। पहला प्रष्न जो अर्थ ध्वनि दे रहा दूसरा ठीक उससे उल्टी। पहले प्रष्न से ऐसा महसूस हो रहा है कि लेखक यह कह रहा है कि इस अनादि अनन्त जगत से परे कोई परमात्मा नहीं हो सकता? ‘कौन परमात्मा हो सकता है?’ का यही अर्थ है कि कोई नहीं हो सकता। दूसरा प्रष्नवाचक वाक्य कह रहा है यदि वह इस अनादि अनन्त जगत से परे है तो कहाँ रहता है? ये कौन और कहाँ के बीच की दूरी का ज्ञान न होना हिन्दी गद्य को विसंगतिपूर्ण बना रहा है। अन्य विसंगति यह कि इतने दार्षनिक प्रष्न लेखक को ‘उन दिनों’ यानि बचपन में उठ रहे थे और इसकी अनुभति नवलदास से मिलकर हुई। खैर, आगे बढें, नवलदास का यह प्रसंग दो तीन पैराग्राफों तक चलता है, परन्तु इनमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जिससे कबीर के बारे में कोई जानकारी लेखक को मिली हो। संगत प्रष्न यह उठाया जाना चाहिए इस असंगति के बीच से कि भई आखिर आप दस बर्ष बीत चले पर’ नवलदास जी से क्यों मिले थे? पृष्ठ 17 का दूसरा पैरा इस तरह प्रारंभ होता है ‘‘भगत नवलदास बता रहे थे-मैं उनकी बानी को अपने शब्दों में ढाल रहा था - सर्वव्यापी, अखंड चेतन का बोध मनुष्यमात्र का जन्मजात बोध है।’’ इस वाक्य को सुनकर आपको गणेष जी कि वह कथा याद नहीं आई जिसमें एक ऋषि बोलते हैं और गणेष जी ग्रंथ लिखते हैं। मजेदार बात यह है कि अब तक लेखक अपने बचपन से बाहर नहीं आया बल्कि जन्म के समय तक पहुँच गया। ‘सर्वव्यापी, अखंड चेतन का बोध मनुष्यमात्र का जन्मजात बोध है।’’ अगर ऐसा बोध जन्मजात होता जैसा की लेखक को लगता है तो कम से कम लेखक को तो मोक्ष हो जाना चाहिए था। विसंगति यह कि इसके पहले के पैरा में जो सहजबोध था वह जन्मजात बोध में बदल गया। ‘सहजबोध और जन्मजातबोध के बीच का ‘बोध’ (अन्तर) लेने के लिए लेखक को जेएनयू छोड़कर मेरे कस्बे में आना चाहिए। मजाक देखिए कि यह ‘जन्मजात बोध’ अगले ही पैरा में ‘सहजात बोध’ और इसकी अगली ही पंक्ति में ‘सहज समता बोध’ में बदल जाता है। इसी पैरा की पहली पंक्ति में ‘ऐसा ही सहजात बोध है, मनुष्य मात्र की ‘समता’ का’ यहाँ ‘समता’ की संगति पर विचार कीजिए। दरअसल लेखक को ‘समता’ और ‘समानता’ शब्दों के बीच की असमानता का ज्ञान नहीं है जो आष्चर्यजनक है। यहाँ लेखक समानता के अर्थ में समता शब्द का उपयोग कर रहा है। यह एक विसंगति ही कही जायेगी कि लेखक को इस तरह के शब्दों के बीच के फर्क का पता नहीं है। पृष्ठ 18 के दूसरे पैरा में एक पद आया है ‘‘विनम्रता नहीं जुटा सकते?’’ विनम्रता जुटाई नहीं जाती दिखाई जाती है, आलोचक महोदय। इसी पृष्ठ का तीसरा पैरा देखें - ‘‘कबीर समाज पर टिप्पणी करने वाले कवि थे,’’ इसमें आये ‘टिप्पणी’ शब्द की संगति को कबीर द्वारा समाज की की गई तीखी आलोचना के संदर्भ में देखें। आलोचक ने कबीर की पूरी ‘धार’ को सामान्य पत्रकार या अधिकारी की (‘टीप’) ‘टिप्पणी’ में बदल दिया। यदि भारत भूमि पर कबीर भी समाज पर सिर्फ ‘टिप्पणी’ करने वाले कहे जायेंगे तो कबीर का पैदा होना ही व्यर्थ हो जायेगा और इन जैसे घटिया लोग कबीर को रसातल में ले जाकर दफनाने में संलग्न हैं। इसके आगे का वाक्य कबीर की पूरी ‘ऐसी की तैसी’ करके रख देता है। यह वाक्य कॉमा के बाद प्रारंभ होता है ‘‘जो रचनाकार समाज के बारे में कुछ नहीं कहते, उनकी रचनायें भी उनके समाज के बारे में कुछ बताती हैं।’’ कितना बढ़िया कॉम्प्लीमेंट लेखक ने कबीर को दिया है! कि जो रचनाकार (लेखक जैसे) समाज के बारे में कुछ नहीं कहते, जब उनकी रचनायें भी समाज के बारे में कुछ न कुछ कहती हैं तो महाषय (कबीर) आपने समाज पर टिप्पणी करके कौन सा तीर मार लिया। विसंगति यह है कि लेखक के आसपास ही ऐसे रचनाकार होंगे जो रचनाकार तो हैं, परन्तु वे समाज के बारे में कुछ नहीं कहते! फिर वे किसके बारे में कहकर रचनाकार हैं, भगवान ही जाने! या लेखक! इस पैरा की एक असंगति तो यह है कि इसमें ‘समाज’ शब्द सात बार आया है और जब वास्तविक समाज शब्द की आवष्यकता हुई तो वहाँ ‘समय’ शब्द आ गया। समाज की जगह ‘समय’ कितना संगत है आप विचार कर सकते हैं और समय के साथ ‘सुन रहा है’ क्रिया का उपयोग ‘उत्सुकता’ और ‘सम्मान’ जैसे विषेषणों के साथ किया गया है जो समाज के साथ ही संगत हैं, समय के साथ नहीं। महत्वपूर्ण विसंगति और लेखकीय समझ की विडंबना इस वाक्य में स्पष्ट होती है ‘‘जिस समाज की वे आलोचना कर रहे हैं, वह क्या वक्त की बर्फ में जमा हुआ समाज लगता है?’’ भाई साहब! वक्त की बर्फ मंें जमा हुआ समाज नहीं होता तो कबीर आलोचना नहीं, प्रषंसा करते। कबीर आलोचना कर ही इसलिए रहे हैं कि वह समाज ‘जड़’ हो चुका था, सोया हुआ था, तभी तो उन्होंने जागरण गीत गाये हैं। सैकड़ों साखियाँ और पद कबीर ने समाज को जगाने के लिए, सावधान करने के लिए गाये हैं। ‘‘सुखिया सब संसार है खावै अरु सौवे। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे।’’ क्या जाग्रत समाज के लिए कहा जायेगा? लेखक महोदय के पास इसके प्रमाण न हों तो मैं साखियों और पदों को छांटकर भेज सकता हूँ। और भारतीय चिन्तन के इतिहास लेखकों के हजारों प्रमाण दे सकता हूँ जो उस युग को यथास्थितिवादी और जड़ सिद्ध करते हैं, और वे सही करते हैं क्योंकि इतिहास और समाज का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाले जानते हैं कि मध्यकाल के सामंतीय जीवनमूल्य यथास्थितिवादी ही होते हैं। इस पैरा का प्रारंभ समाज पर टिप्पणी को लेकर हुआ बीच में फिर प्रष्न उठाया कि क्या बताती है कबीर की कविता उनके समाज के बारे मे?’ इसके बाद कबीर ने जो बताया है, वह लेखक को पता नहीं इसलिए बात बदल दी और समय कैसा है इस पर बात करने लगा। इस प्रसंग को विष्लेषित करना चाहिए था, नहीं किया। यह इस पूरी किताब की विषेषता (दुर्गुण, घटिया गद्य का उदाहरण) है, जो कि अधिकांष पैराग्राफों में दिखाई देती है। जिस बात को लेकर बात प्रारंभ होती है, उसे अन्त में या बीच में ही बिना कोई संगत विष्लेषण, विवेचन किए छोड़ दिया जाता है। पृष्ठ 21 का पैरा चार ‘‘कबीर का निधन ‘देर से देर’ 1518 ईस्वी में माना गया है।’’ इसमें प्रयुक्त ‘देर से देर’ पद की संगति पर विचार कीजिए इसके प्रयोग की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। देर से देर क्या होता है? पृष्ठ 22 का पहला पैरा ‘‘इन ‘आधुनिक’ आकलनों के विपरीत’’ के इस वाक्य की संगति ‘‘इन’’ शब्द की संगति में निहित है और ‘‘इन’’ शब्द की संगति इसके पहले अगर आधुनिक आकलनों को प्रस्तुत किया गया हो तो उससे जुड़ी है। विसंगति यह है कि इसके पहले या बाद में किसी भी तरह के ‘आधुनिक आकलनों’ को प्रस्तुत नहीं किया गया है तो इस वाक्य की असंगति अपने आप स्पष्ट हो जाती है। पृष्ठ 22 के पांचवे पैरा की छह पंक्तियों को दो वाक्यों में विभाजित किया गया है। ये दोनों वाक्य एक दूसरे से विपरीत विचारों को प्रस्तुत करते हैं, जबकि लेखक ने इन्हें एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रस्तुत किया है। पहले वाक्य में कहा गया है कि ‘‘औपनिवेषिक आधुनिकता में रची-बसी खोज दृष्टि कबीर के समाज की लोक स्मृति को ही नहीं, स्वयं कबीर को भी ऐसी कृपा दृष्टि से देखती है जिसे कबीर अबोध बच्चे से नजर आते हैं, जो अपने घर का पता तक ठीक से नहीं बता पाता।’’ इसमें औपनिवेषिक आधुनिकता मे रची बसी दृष्टि (किसकी है यह बताने की कृपा पूरी पुस्तक में कहीं भी नहीं है, यह लेखक के दिमाग का फितूर भी हो सकता है) कबीर को बच्चा मानती है। इसके बाद दूसरा वाक्य देखिए और इन दोनों की संगति बिठाने की कोषिष कीजिए- ‘‘देखिए न, असल में तो वे थे - ईसाई मिषनरी के पूर्व पुरुष (कौन? संभवतः कबीर, क्योंकि ऊपर कबीर के बारे में ही बात हो रही। अब इस पूर्व पुरुष का अर्थ निकालिये।) शरा या बेषरा सूफी, (कौन? कबीर, कैसे यह आप लेखक या उनके परमपिताओं से पूछ सकते हैं।) महायानी बौद्ध, नाथ पंथी या आजीवक, लेकिन समझते थे खुद को नारदी भक्ति में मगन,’’ इसका अर्थ है कबीर जो खुद को नारदी भक्ति में मगन समझते थे, वह गलत समझते थे, क्योंकि वे तो ईसाई मिषनरियों के पूर्व पुरुष, शरा या बेषरा सूफी, महायानी बौद्ध, नाथपंथी या आजीवक थे। इनमें से भी दरअसल क्या थे? यह लेखक को भी नहीं मालूम। लेखक को यह भी नहीं मालूम की आजीवक सम्प्रदाय कबीर या उनसे बहुत पहले से ही अस्तित्व में नहीं था और ईसाई मिषनरी सबसे पहले अकबर के दरबार में आये थे तो उनके पूर्व पुरुष वे कैसे हो सकते हैं? क्या तुक है इन असंगत बातों को कबीर के साथ जोड़ने की और वास्तविक विसंगति यह है कि इनका ऊपर के पहले वाक्य से क्या लेना-देना है जिसमें उन्हें बच्चा कहा गया है। यदि बच्चा मानने की सोच औपनिवेषिक है तो ईसाई मिषनरी के गुरु मानने की सोच क्या देषज है? पृष्ठ 23 के पहले पैरा में - ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘‘बाकी लोगों के बुद्धुपन’’ जैसे पदों का इस्तेमाल हुआ है। क्या लेखक बताने का कष्ट करेगा कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने साजिषें कीं? नहीं, वह यह कष्ट कर ही नहीं सकता, क्योकि वह डरपौंक है, यही कारण है की पूरी किताब में इसी तरह के - ‘कुछ लोगों’ - जुमलों का प्रयोग किया गया है, न तो किसी की तथ्यात्मक जानकारी दी गई है और न उन साजिषों का पर्दाफाष किया गया है, जिनके बारे में लिख रहा है। दूसरी बात यह कि ‘‘बाकी लागों के बुद्धुपन’ में बाकी लोग कौन हैं, और इस बांकी में स्वयं लेखक भी शामिल नहीं है क्या? और उनके गुरु नामवर जी और उनके गुरु डॉ. रामविलास शर्मा जी, उनके गुरु डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, और उनके गुरु क्षितिमोहन जी और पूरे हिन्दी साहित्य के गुरु श्री रामचंद्र जी शुक्ल षामिल नहीं हैं क्या? और अगर नहीं हैं तो ‘बांकी लोग’ जैसा असंगत पद क्यों लिखा। और लिखा है तो क्या इनके बुद्धुपन को सिद्ध कर सकता है लेखक? उसमें साहस और हिम्मत है इनके बुद्धुपन और लोगों की साजिषों का पर्दाफाष करने की? शायद नहीं, क्योंकि वह न तो साजिषों को जानता है और न बुद्धुपन को वह तो अपने असंगत विवरणों की रौ में बस यूँ लिख गया है। इस पैरा की अन्य विसंगतियाँ और असंगतियाँ देखिए - ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘बांकी के बुद्धुपन’’ को औपनिवेषिक आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की कृपा ने भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या के बीज शब्दों के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है।’’ अब यह औपनिवेषिक आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की कृपा क्या है? कोई जबाव नहीं है। प्रसंग बस जहाँ तक मेरा अध्ययन है कबीर पर उत्तर आधुनिक विचारदृष्टि से किसी भी लेखक या विचारक ने अभी तक विचार नहीं किया है। दूसरी बात भारतीय आलोचना के विकास में जितने भी प्रतिष्ठित विचारक आलोचक हुए हैं उन सबने एक स्वर से कबीर को अपने समय का सबसे आधुनिक व्यक्ति सिद्ध किया है, माना है और वे थे भी। ‘औपनिवेषिक आधुनिकता’ पद का सैकड़ों बार उपयोग करने के बावजूद लेखक ने कहीं भी इसकी व्याख्या करने की कोषिष नहीं की है, और न यह बताने की कोषिष की है कि इस औपनिवेषिक आधुनिकता के कृपापात्र लेखक या आलोचक कौन हैं जिन्होंने कबीर को आधुनिक नहीं माना। जरा इस ‘बीज शब्द’ पर ध्यान दीजिए। किसको ‘बीज शब्द’ के रूप में प्रतिष्ठित किया है जबाव है ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘बांकी के बुद्धुपन’’ को। हिन्दी आलोचना के विकास और इतिहास में कहीं भी इस तरह के बीज शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है सिवाय लेखक की इस किताब के। अब जरा इस पदबंध पर ध्यान दीजिये ‘‘भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या’’ किसकी? बीज शब्द के जबाव में यह पदबंध है। क्या होती है यह भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या? कोई बतायेगा जिसके बीज शब्द ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ ‘बांकी के बुद्धुपन’’ जैस शब्द हैं। कहाँ की गई है इस तरह की व्याख्या? किसने की है इस तरह की व्याख्या? इनके जबाव संभवतः लेखक की अगली किताब में मिल जायेंगे! भगवान करे वह कभी न आये। अध्याय एक का तीसरा भाग: आधुनिकता: देशज बनाम औपनिवेशिक यह पूरा अध्याय जो कि दस पृष्ठों में लिखा गया है को एक सुसंगत पाठ के रूप में पढ़ने की कोशिश व्यर्थ प्रयास में तब्दील हो जाती है। इसमें वर्णित विषय को पकड़ने की कोशिश मैंने की, जो निष्कर्ष सामने आया उसे जरा ध्यान से देखें - इसके पहले पैरा में कुछ (वकौल लेखक) ‘सांस्कृतिक घटनाओ’ का उल्लेख है। दूसरे पैरा में कुछ बेतुके और असंबद्ध प्रश्न किए गये हैं। तीसरे पैरा में इमेनुएल वार्लस्टाइन का उद्धरण है जिसकी कोई संगति नहीं है। चौथे और पांचवे में भविष्य और अतीत की कुछ बेतरतीब बातें करते हुए पेन्डुलम धर्म पर बात समाप्त होती है। छटवें पैरा में कविता कैसे पढ़ी जाए से बात प्रारंभ की गई है और अन्त तक देशकाल के बारे में प्रामाणिक निष्कर्षांे तक पहुँचने की बात लेखक करने लगता है। सातवें पैरा में इतिहाकार और समाजशास्त्री आ गए और दैनन्दिन व्यवहारों के स्रोतों की बात करते हुए लेखक आठवें पैरा में ब्राह्मण वर्चस्व की बात को औपनिवेशक सांठगांठ बताते हुए अन्त में ब्राह्मण वर्चस्व को समझने की बात करने लगता है। इसके बाद नवें पैरा से बारहवें पैरा तक तुलसी और उनके कलिकाल वर्णन की बात आ जाती है। इसी संदर्भ में वह वर्णव्यवस्था को मिलने वाली चुनौती की बात उस रचनाकार के अभिलेखों से करता है जो ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक रहा है। तेरहवें पैरा (पृ.30) में वह देशभाषाओं की प्रतिष्ठा की बात करते है। चौदहवें पैरा में जाकर लेखक को याद आता है कि मैंने इस अध्याय का नाम आधुनिकता: देशज बनाम औपनिवेशिक रखा है। देश भाषाओं की सहस्राब्दी में यूरोपीय और गैर यूरोपीय समाज अपने अपने ढंग से आधुनिकता की ओर बढ़ रहे थे।’’ यहाँ से लेखक ने एक नया विमर्श खड़ा करने की कोशिश की है। वह ‘आधुनिकता’ को लेकर है और पूरी पुस्तक में उसने सैकड़ों बार देशज आधुनिकता को प्रतिष्ठित करने और औपनिवेशिक आधुनिकता को अपदस्थ करने की कोशिश की है। दरअसल इस पुस्तक का केन्द्र ‘कबीर की अकथ कहानी प्रेम की’ की जगह यह देशज और औपनिवेशिक आधुनिकता हैं। यह भी एक विसंगति है। यह विमर्श यदि ठीक तरह से सही संदर्भ में उठाया जाये तो वाकई हम सही निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं, परन्तु लेखक हर बार कहीं से भी इसका सिरा पकड़ लेता है और कहीं भी किसी भी मुद्दे पर जाकर छोड़ देता है और फिर यही कार्य करता है। इस पैरा का अन्त भी कबीर को हाशिए की आवाज मानना ऐसी ही भूल है पर समाप्त होता है। प्रारंभ आधुनिकता से किया समाप्त किसी और निष्कर्ष से। इसके बाद का पन्द्रहवां पैरा पिछले पैरे की पूँछ पकड़ कर प्रारंभ होता है ‘‘हाशिए पर ही रहे होते तो..... से और दूसरे ही वाक्य में इस बात को छोड़ दिया जाता है और बीच में तुलसी, राजसत्ता को फालतू मानना जैसे जुमले सामाजिक गतिशीलता और नई जातियों के बनने की बात से पैरा समाप्त होता है। अगला पैरा भी वर्णाश्रम के सैद्धांतिक ढांचे से प्रारंभ होता है और सामप्त होता राज सत्ता और सामाजिक व्यवहारों की बात पर जाकर। इसके बाद के पैरा में अंग्रेजी राज के पहले भारत में पॉलिटिकल इकॉनॉमी की बात प्रारंभ करते हैं। अंत में धर्मशास्त्र के अर्थशास्त्रीकरण की बात पर बात समाप्त करते हैं। अगला पैरा इसी आर्ष पद से प्रारंभ होता है ‘धर्मशास्त्र के अर्थशास्त्रीकरण’ के इस काल में’ यहाँ से वैष्णव सोच की बात करने लगते हैं जो आगे दो तीन पैरा तक चलती है। इस तरह पूरा अध्याय विचित्र और अन्तर्विरोधी बातों से भरा है। कहीं कोई संगति नहीं है इसके बीच। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि दो पैराओं के बीच तो कोई तालमेल ढूँढ़ना बेमानी है ही अधिकतर एक ही पैरा में कई कई तरह की अलग-अलग बातें लेखक लिखता रहा। इन सारे पैराओं को ध्यान से पढ़ा जाये तो हजारो विसंगतियाँ - भाषा, पद, वाक्य, अर्थ और संगति की मिलेंगी। कुछ की बानगियाँ यहाँ पेश हैं। इसका प्रारंभ जिस पैरा से होता है उसका पहला वाक्य है ‘‘कबीर और रामानन्द ईसा की पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में सक्रिय थे।’’ इस ‘सक्रिय थे’ क्रिया को ध्यान से पढें तो ऐसा लगता है मानो कोई गुंडे या असामाजिक तत्वों के सक्रिय होने की बात कही जा रही हो। जैसे दक्षिण के चन्दन वनों में वीरप्पन सक्रिय था या चम्बल के बीहड़ों में फूलनदेवी सक्रिय थी, या कश्मीर में आतंकवादी सक्रिय थे। ‘सक्रिय थे’ क्रिया पद किसी भी रचनाकार या कवि या लेखक के बारे में प्रयुक्त किया जाना भाषायी असंगति का ही प्रमाण है। इसके बाद इस पैरा की दस पंक्तियों में नौ वाक्य हैं जिनका आपस में कोई तालमेल दिखाई नहीं देता। सिर्फ कुछ नाम और सन् गिनाये गये हैं जो किसी भी (उच्चस्तरीय?) समीक्षा पुस्तक या आलोचना के लिए संगत नहीं लगता। इसमें छटवां वाक्य है ‘‘इसके पहले वल्लभाचार्य, दादू, और चैतन्य के सम्प्रदाय स्थापित हो चुके थे।’’ इसमें जो ‘इसके पहले’ पद है, वह असंगत ह,ै क्योंकि इसके पहले वाले वाक्य में कहा गया है कि ‘‘धर्मदास ने कबीरपंथ की स्थापना सत्रहवीं सदी के आरंभ में की थी।’’ अतः ‘इसके पहले’ पद का अर्थ धर्मदास के कबीरपंथ की स्थापना के पहले हुआ जो कालक्रम की दृष्टि से असंगत है और वल्लभाचार्य, दादू और चैतन्य का क्रम भी गलत है। यहाँ ‘इसके पहले’ के स्थान पर होना चाहिये ‘इनके पहले’। विसंगति यह है कि सुधी आलोचक को इसके और इनके का फर्क नहीं पता। इसी पैरा का दूसरा वाक्य है ‘‘1582 में ‘पद सूरदास जी का’ नामक संकलन तैयार किया गया।’’ और अन्तिम वाक्य है ‘‘पद सूरदासजी का में सूरदास के ही नहीं नामदेव और कबीर के पर भी हैं।’’ ये दोनों वाक्य एक साथ लिखे जाते तो ज्यादा संगत होते। इसे इस तरह लिखा जाता - ‘‘सन् 1582 में ‘पद सूरदासजी का’ नामक संकलन तैयार हुआ जिसमें सूरदास के अलावा नामदेव और कबीर के पद भी हैं।’’ सुसंगत वाक्य रचना हिन्दी के महान् आलोचक से अनुमोदित पुस्तक में न हो तो यह बहुत बड़ी विसंगति ही कही जायेगी। अब पृ. 27 के तीसरे पैरा को पढें -इसमें तीन वाक्य हैं, जो प्रश्नवाचक हैं, पहला प्रश्नवाचक वाक्य है ‘‘पन्द्रहवीं, सोलहवीं, और सत्रहवीं सदियों में घट रही उपर्युक्त सांस्कृतिक घटनाओं का सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिवेश से कोई संबंध था या नहीं?’’ सबसे पहले ‘सांस्कृतिक घटनाओं’ की संगति पर विचार कर लें। इसके पहले पैरा जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है उसमें कौन सी सांस्कृतिक घटना हैं जो घटी? कबीर और रामानन्द का सक्रिय होना या ग्रंथों के संकलन तैयार होना, या परचईयों की रचना होना? चलो मानलें की ये साहित्यिक कार्य थे इस लिए सांस्कृतिक कार्य भी हो सकते हैं, परन्तु इन्हें सांस्कृतिक ‘घटनायें’ कहना भाषा और समझ की असंगति ही कही जायेगी। भक्ति ओदालन सांस्कृतिक घटना थी, सूफी आंदोलन सांस्कृतिक घटना थी। मगर कबीर या रामानन्द का सक्रिय होना सांकृतिक घटना नहीं ‘सांस्कृतिक क्रियाषीलता’ का उदाहरण हैं। क्रियाषीलता और घटना के बीच के अन्तर को न समझना एक विसंगति ही कही जायेगी। इस वाक्य गठन की संगति पर विचार करें - ‘‘से कोई संबंध था या नहीं?’’ पूछा जा रहा है तो (गद्य की मांग है और प्रष्न पूछने के तरीके के की भी कि) इसका उत्तर अगले ही वाक्य में मिलना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं हुआ और उत्तर नहीं देना था तो वाक्य संरचना इस प्रकार होनी चाहिए ‘से कोई संबंध था?’ यह संगत वाक्य है, लेखक द्वारा लिखा गया वाक्य असंगत है। दूसरा प्रष्नवाचक वाक्य ‘‘उस परिवेष के स्वरूप को समझे बिना क्या इन घटनाओं का सामाजिक अर्थ और ऐतिहासिक महत्व समझा जा सकता है?’’ इसमें ‘उस परिवेष’ की संगति खोजिए और ऊपर के वाक्य से तालमेल करने की कोषिष कीजिए? पहले वाक्य में बात ‘सांस्कृतिक घटनाओं’ की हो रही थी और परिवेष से उसके संबंध के बारे में पूछा जा रहा था, संगति इसमें थी की ‘इन घटनाओं’ से संबंधित कोई नया प्रष्न किया जाता, लेखक चाह तो ऐसा ही रहा है, परन्तु हो ठीक उल्टा रहा है। अब वह परिवेष के स्वरूप को समझने की बात कहने लगा। विवेच्य विषय की संगति की दृष्टि से इन दोनों वाक्यों की विसंगतियों को देखा जा सकता है। विवेच्य ‘सांस्कृतिक घटनायें’ हैं या ‘परिवेष’? यह निष्चित कर पाना लेखक के लिए असंभव है, क्योंकि यह बात इस पूरी पुस्तक में पसरी (पसारा है) हुई है। लेखक बात कुछ प्रारंभ करता है और आगे बढ़ते ही कोई बिल्कुल अलग बात कहने लगता है और पहली बात की संगति बैठाने का ध्यान उसे नहीं रहता। लगभग प्रत्येक पृष्ठपर यह विसंगति देखी जा सकती है। तीसरा प्रष्न भी देखें और उसकी संगति बिठाने की कोषिष (कष्ट) करें ‘‘इन घटनाओं की तर्कसंगत व्याख्या किए बिना उस ऐतिहासिक परिवेष को तर्कसंगत ढंग से ‘पढा’ जा सकता है?’’ पहले प्रष्न में सांस्कृतिक घटनाओं का परिवेष से संबंध बिठा कर तर्कसंगत व्याख्या करने की सोची गई होगी दूसरे में उसी परिवेष के स्वरूप को समझ कर इन घटनाओं का महत्व समझने की सोची गई अब तीसरे प्रष्न में बात इन घटनाओं से परिवेष की तर्कसंगत व्याख्या की आ गई। कैसे कारण कार्य को कार्य कारण में बदला गया इसकी संगति आलोचक और उनके समर्थक ही बैठा पाने में समर्थ हो सकेंगे? एक और असंगति देखें पहले प्रष्न में सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक परिवेष’ की बात है तीसरे प्रष्न में ‘उस ऐतिहासिक’ में ‘उस’ पद से उपर्युक्त परिवेष है जो ‘ऐतिहासिक’ में बदल गया। कैसे? क्यों? स्वनामधन्य लोग ही बता सकते हैं? अगला वाक्य देखें इसी (पृष्ठ से) ‘‘सवाल इतिहास से भी जुड़े हैं, वर्तमान और भविष्य से भी’’ वर्तमान और भविष्य के साथ ‘अतीत’ या ‘भूत’ शब्द की संगति ही ठीक है ‘इतिहास’ की नहीं और दो क्या एक बार भी ‘भी’ की आवष्यकता नहीं है। सुसंगत वाक्य ‘‘सवाल भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़े हैं’’ यह है इसके ठीक बाद में आलोचक महोदय ने ‘इमेनुएल वार्लस्टाइन’ की पुस्तक से ए¬क उद्धरण प्रस्तुत किया है। क्यों किया है? उसका विवेच्य विषय और संदर्भ से क्या नाता है? वर्णित सांस्कृतिक घटनाओं से उसकी क्या संगति है? या तो लेखक जानता होगा या उसके भगवान। यह एक ऐसी विसंगति है जो इस पूरी पुस्तक में दिखाई देती है। इसी तरह के जो अन्य उद्धरण दिए गए हैं उनकी कोई भी संगति अलोचक उस संदर्भ से नहीं बिठा पाया है, बस यों ही थेगड़े की तरह चिपका दिए गए हैं। पृष्ठ 28 के पहले पैरा का पहला वाक्य ‘‘विधाता ने इतिहास को किसी पूर्वनिर्धारित मार्ग पर चलाकर उस मार्ग का नक्षा कुछ चुनिन्दा लोगों के कान में नहीं फँूक दिया है।’’ सबसे पहले इस वाक्य के औचित्य पर विचार कीजिए। क्या अर्थ है इस वाक्य का इस पुस्तक और इस संदर्भ में? क्यों लिखा गया है यह वाक्य? क्या संगति है इसके पहले आये उद्धरण से इस की? दूसरे आलोचक को शायद नहीं पता की नक्षा या तो बनाया जाता है या दिखाया जाता है कान में नहीं फूँका जा सकता। नक्षा दिमाग में भी बनाया जा सकता है, परन्तु कान में फूँकने का प्रयोग विद्वान् आलोचक ही कर सकते हैं। इस वाक्य के गठन के औचित्य पर भी विचार किया जा सकता है। ‘चलाकर’ और ‘दिया है’ जैसे क्रिया पदों की संगति हिन्दी भाषा में तो नहीं बैठ सकती। कबीर पर लिखी जा रही इस किताब में एक विसंगति यह है कि इसमें कबीर पर जब भी लेखक कुछ कहने की सोचता है उसे कोई न कोई दूसरी बात याद आ जाती है और वह उसी वाक्य में उस दूसरी बात के बारे में कहने लगता है कबीर को वहीं छोड़ देता है, जैसे पृष्ठ 28 पर ही ‘‘कबीर को ही नहीं, समूचे भारतीय अनुभव’ ‘कबीर हों या कोई और कवि’ इस वाक्य में ‘और’ शब्द की संगति पर विचार कीजिए। महोदय ‘और’ नहीं ‘अन्य’ शब्द ज्यादा सुसंगत है। इसके पहले 26 पेज पर दूसरे पैरा का प्रारंभ यों करते हैं ‘‘कबीर ही नहीं भारतीय इतिहास लेखन मात्र के प्रसंग में’’ पृष्ठ 34 के अन्तिम पैरा में ‘कबीर के ही नहीं, अन्य प्रसंगों में भी’ पृष्ठ 38 का अन्तिम पैरा ‘यह अकेले कबीर का नहीं, मानवीय चैतन्य मात्र का’ पृष्ठ 39 का अन्तिम पैरा ‘कबीर और दूसरे निर्गुण संतों के स्वप्न’ प्रत्येक जगह कबीर अन्य की तरह ही प्रयुक्त हुए हैं मुख्य की तरह नहीं। पृष्ठ 28 के तीसरे पैरा को पढें और भूलभुलैया की तरह अर्थ का द्वार खोजें, शायद आपको मिल जाये? पहला वाक्य है ‘‘आवष्यक है कि कविता को बतौर कविता के, संवदेनषीलता और सम्मान के साथ पढ़ा जाये।’’ इस वाक्य के प्रारंभ का जो तरीका है उससे इस वाक्य का संबंध ठीक इसके ऊपर वाले वाक्य या संदर्भ से होना चाहिए। विसंगति यह है कि इस तीसरे भाग में जिसका एक हिस्सा यह पैरा है कविता को लेकर कोई भी बात नहीं कही गई है जिससे इसका संबंध बिठाया जा सके। नई बात कहने के लिए नया पैरा किस तरह प्रारंभ किया जाना चाहिए यह भी अगर मुझे बताना पढे़गा तो फिर आलोचक को जेएनयू छोड़कर मेरे कॉलेज में दाखिला ले लेना चाहिए। इसकी अर्थ संगति पर विचार करें। भई! कविता को बतौर कविता ही पढ़ा जाता है, बतौर इतिहास या राजनीति या दर्षन के नहीं, इसमें आवष्यक है जैसी कोई बात नहीं है, मैने आज तक कवि को सम्मान पूर्वक पढ़ा या सुना जाने की बात सुनी है कविता को नहीं, कविता को संवेदना के साथ पढ़े जाने की आवष्यकता को मैं स्वीकार कर सकता हूँ। कविता के संदर्भ में सम्मान शब्द असंगत है उसकी जगह संवेदना होना चाहिए। ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ यह मुहावरा सौ साल पुराना हो कर घिस गया है, आज के विखण्डनवादी युग में कविता के बारे में यह कहना कि ‘‘सामाजिक गतिषीलता के बारे में जानने-समझने के लिए भी कविता को पढ़ना चाहिए’’ यह कह कर आलोचक कौन सा तीर मार रहा है? और अगर 21 वीं सदी की आलोचना इसी बिन्दु पर अटकी है तो क्या कहने हिन्दी आलोचना के विकास के और क्या कहने इन स्वनाम धन्य आलोचकों की आलोचनात्मक वृत्ति के? इस पैरा का अगला वाक्य पढ़ें और विचारें की आपकी समझ में क्या आया - ‘‘कबीर हों या कोई ‘और’ (‘और’ की जगह ‘अन्य’ शब्द सुसंगत है) कवि - उन्हें ‘इतिहास की अदालत’ में अपने मुकदमे के गवाह के तौर पर बरतने भर से कविता के प्रति संवेदनहीनता तो प्रकट होती ही है, इतिहास लेखन की अपनी भी हानि होती है।’’ इस इतिहास की अदालत से मुझे कमलेष्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ की अदालत याद आ गई। क्या लेख का आषय इसी अदालत से है? यदि हाँ तो उससे जितनी संवेदनषीलता पैदा हुई उतनी किसी अन्य से नहीं और यदि नही ंतो कौन सी इतिहास की अदालत और कौन सा अपना मुकदमा और कौन से गवाह? और कवि को इतिहास की आदलत में खड़ा कर भी दिया तो इतिहास लेखन की अपनी हानि कैसे संभव है? आपने ही ऊपर कहा कि सामाजिक गतिषीलता को जानने के लिए कविता को पढ़ना चाहिए तो कबीर के समय की सामाजिक गतिषीलता और इतिहास लेखन में कैसे अन्तर करेंगे? ‘इतिहास’ सामाजिक गतिषीलता से ही बनता है महोदय! तो उसकी हानि कैसे होगी?। इस अध्याय में देष भाषा स्रोतों की बात बार-बार की गई है, परन्तु विसंगति यह है कि कहीं भी देषभाषा स्रोतों का कोई विवरण या प्रमाण नहीं दिया गया है। कौन से हैं वे देषभाषा स्रोत? कब लिखे गए किसके बारे में बात करते हैं, किस युग के बारे में? कोई भी प्रमाणिक तथ्य नहीं रखा गया। इसके अतिरिक्त ‘औपनिवेषिक आधुनिकता’ या औपनिवेषिक ज्ञानकांड’ पद का भी कई बार प्रयोग किया गया है। इस अध्याय में कहीं भी आधुनिकता को परिभाषित या विवेचित करने का प्रयास नहीं किया। सिर्फ जुमलों की तरह इन शब्दों को इस्तेमाल किया गया है। इसी तरह ‘राजसत्ता का फालतूपन’ पद भी कई बार प्रयोग किया गया है। न तो लेखक ने यह बताया कि किसने यह बात कही और न यह बताया कि क्यों कही, उसके बारे में किसी तरह की कोई ठोस और प्रमाणिक जानकारी इसमें नहीं है जबकि कई बार इस पद का प्रयोग विचित्र संदर्भों में किया गया है और कई बार तो विरोधी संदर्भों में भी प्रयोग किया है। इसी तरह ‘धर्मषास्त्र का अर्थशास्त्रीकरण’ का प्रयोग कई बार किया है क्या है इसका मतलब बताने की या कोई प्रमाणिक तथ्य पेष करने की कोषिष लेखक ने नहीं की है। ये जुमले किन्हीं स्रोतों (संभवतः विदेषी) से लेकर ज्ञान का आतंक जमाने के लिए प्रयोग किए गये हैं। पृष्ठ 31 के दूसरे पैरा के इन वाक्यों को पढ़ें और कुछ संगतिपूर्ण अर्थ खोजने की कोषिष करें तो आपको लगेगा कि सागर से अमृत निकालना तो आसान है पर इन वाक्यों से अर्थ निकालना मुष्किल। इस पैरा और इसके पहले के पैरा में लेखक दो बातें कह रहा है कि वर्णाश्रमपरक चिन्तन, राजसत्ता और धर्मषास्त्र ईसा की आठवीं सदी से लौकिक व्यवहार को वरीयता दे रहे थे। दूसरी उसे चिन्ता है कि कहीं ‘शास्त्रों’ का अपमान न हो जाये तो वह पीछे से लगा देता है कि इन लौकिक व्यवहारों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के प्रयत्न करना भी उस समय की शास्त्री चिन्ता थीं इसके बीच में राजसत्ता और अर्थषास्त्र भी घुस गए हैं। ‘‘ईसा की आठवीं सदी के बाद से तो धर्मषास्त्रीय चिन्तन की मुख्य चिन्ता ही राजसत्ता की व्यावहारिक महत्ता को सैद्धांतिक रूप से ‘‘शास्त्र सम्मत’’ भी सिद्ध करने की हो जाती है।’’ इस पैरा की अर्थगत संगति पर बाद में विचार करेंगे पहले इसके तथ्यों की संगति को देख लें। ‘आठवीं सदी के बाद से’ लेखक शायद नहीं जानता की सारे के ‘धर्मशास्त्र’ लगभग आठवीं सदी के पहले ही लिखे जा चुके थे। हाँ उन पर टीकायें इस युग में हो रहीं थीं। शंकराचार्य के ष्षास्त्र अवष्य इसी समय में सामने आये, परन्तु उनकी संगति इस कथन के मूल अर्थ से ठीक विपरीत है, शंकराचार्य का पूरा दर्षन सामंतीय मूल्यों यानि जड़ता और यथास्थिति को बनाये रखने की दिषा में सक्रिय था। जो कि लेखक की मूल चिन्ता धर्मषास्त्र को व्यावहारिक सिद्ध करने के विपरीत हैं। दूसरी बात यह कि सारे धर्मषास्त्र सदियों से यही करते रहे हैं जो लेखक ने लिखा है ‘‘धर्मषास्त्रीय चिन्तन की मुख्य चिन्ता ही राजसत्ता की व्यावहारिक महत्ता को सैद्धांतिक रूप से ‘‘शास्त्र सम्मत’’ भी सिद्ध करने की हो जाती है।’’ मनुस्मृति से लेकर याज्ञवलक्य स्मृति तक और पुराणों ने यही कार्य किया है, इसमें ऐसी कोई बात नहीं जो आठवीं सदी में घटित हो रही हो। असंगति इस बात में है इसके लिए लेखक ने इसी पैरा के अन्तिम वाक्य में जो प्रमाण दिया है वह भी कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है शंकर की त्रयी का नहीं कौटिल्य का अर्थशास्त्र कब लिखा गया था यह बताने की आवष्यकता नहीं है। दूसरी बात की कौटिल्य का अर्थशास्त्र ‘धर्मषास्त्र’ नहीं है। इस किताब की एक महत्वपूर्ण असंगति इस बात में है कि इसमें तथ्यों के संदर्भों और प्रमाण देने की कोषिष नहीं की गई है। पहले ही अध्याय में लेखक कई ऐसी बातें करता है जिन्हें बिना प्रमाण के लिखना ‘अषोधपरक’ दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। इस अध्याय के अन्त में जो 19 संदर्भ दिए गए हैं, वे सब के सब इस तरह के हैं जो सिर्फ सूचना देने वाली जानकारियों को प्रमाणित करते हैं, किसी भी विचारधारा और विष्लेषण या अवधारणाओं को प्रमाणित करने के लिए कोई भी प्रमाण न देना ही आपके बीस वर्ष से निरंतर शोध करते रहने पर प्रष्नचिहृ लगाता है। इस एक अध्याय में ही विषय और अवधारणाओं संबंधी असंगतियाँ और विसंगतियाँ पंक्ति दर पंक्ति भरी पड़ी हैं। कोई भी तथ्य और कथन न तो किसी विचारधारा का अंग बन पाता है और न कोई संगत बात प्रस्तुत कर पाता है। इसकी विषय और अवधारणागत असंगतियों पर अलग से लिखने पर ही स्पष्ट कर सकूँगा। मेरा निवेदन इतना भर है कि ज्ञान और आलोचना के इन मठों और गढ़ों को हिन्दी जगत कब तोड़ेगा? कब हम स्वयं को आतंक और छोटेपन की हीन भावना से मुक्त करेंगे? 00

डॉ. संजीव कुमार जैन
522 आधारषिला, ईस्ट ब्लाक 
बरखेड़ा भोपाल  462021

25 मार्च, 2016

कविता : सुशील कुमार शैली

आज प्रस्तुत हैं समूह के एक साथी की दो कविताएँ...  
     आशा है आप इन्हें पढ़कर अपनी मूल्यवान और सारगर्भित टिप्पणियाँ देंगे...  

1.  'जलता है दीया मुंडेर पर'

हमारे घर की मुंडेर पर दीया जलता है
काली अंधियारी रात में, हर रोज़
कवितायों के लिए ओज
वहीं से लेता हूँ, मैं 
ये मेरी माँ का विश्वास ही है
कि वो जलता है, दो चार होता है
पास भी फटकने नहीं देता 
अंधेरे को
कि जब तलक सुबह का सूरज 
दस्तक नहीं देता बंद खोलियों पर 
निगल नहीं जाता 
आकाश पर छाई अंधेरे की चदरिया को 
वो जलता है, दो चार होता है
गिरता है, उठता है
लेकिन फिर भी तैनात है 
उसके विश्वास को आकार देने के लिये |
_____________________________________

2.  'न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान'

मेरे दोस्त ! जब मेरा जन्म हुआ
मेरी माँ को दाई ने आकर ये नहीं कहा कि
" बधाई हो आपके घर हिन्दू पैदा हुआ है "
न ही मेरी माँ की पहली देखनी ने मुझे 
हिन्दू की दृष्टि से देखा 
और न ही मुझे पहली गुड़ती देने कोई
हिन्दू देवता ही वहां आया
मेरी माँ के लिए मैं उसके ज़िगर का टुकड़ा था
उसकी दुनिया ..............
न कि हिन्दू .........
मैं बता दूं, बताना ही पडे़गा
मेरे मुहँ से निकलना  पहला शब्द माँ था 
न कि हिन्दू...........,

मेरे दोस्त ! तुम्हें याद है मासूम बचपन में 
मुहल्ले में खेलते समय आँख-मचौली 
मैं तुम्हें, तुम मुझे 
इस लिये पकड़े नहीं थे पहले 
कि तुम सिक्ख थे, या अब्बास मुस्लिम और मैं हिन्दू
हमारी तौतली ज़ुबान से निकलते शब्द 
उस समय न हिन्दू थे न सिक्ख न ही मुस्लमान
वे मात्र प्रेम था एहसास थ .....,
  
मेरे दोस्त ! हमारे घर के पास की पाठशाला की दीवारों के
भीतर न तुम सिक्ख थे, न मैं  हिन्दू , नहीं अब्बास मुस्लमान
मेरे दोस्त ! पाठशाला का सिखा वह पहला शब्द 
जिसे बोलने लिखने की खुशी में तुम मैं 
घण्टों उच्छले थे, वह शब्द
न हिन्दू था, न मुस्लिम, न सिक्ख ,

तुम्हें याद है ! आधी छुट्टी के समय 
जब हमारे डिब्बे खुलते थे 
तो हम चकित रह जाते थे और एक दूसरे को शक्क की
निगाह से देखते थे
उस समय जब हम एक-दूसरे की रोटी चुरा कर 
खा जाते थे 
हां ! हां ! उसी समय
उस समय न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान,

मेरे दोस्त ! हमारी आपस में बदलती कापियों 
और नकल करके उतारे गए सारे प्रश्न 
न उस समय हिन्दू थे न सिक्ख न ही मुस्लमान
और ...और तुम्हें याद होगा 
जब छुट्टी होती थी
तब घर जाते समय
बाज़ार में चलते समय, सड़क पार करते समय
वाह्नों की तेज़ रफ़तार से डरते 
जब हम एक दूसरे का हाथ कस्स के 
पकड़के सड़क पार करते थे तो डरे सहमे
एक दूसरे को डांडस देते, सहारा देते 
न तुम सिक्ख थे न मैं हिन्दू न ही अब्बास मुस्लमान,
तो अब मेरे दोस्त ! तुम क्यों कहते हो
कि मैं हिन्दू, तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान

मेरे दोस्त ! तुम्हें याद होगा बाज़ार में हुआ हमारा झगड़ा
जब हमने मिलकर पिट्टा था 
उस आततायी को जिसने 
पहले तुम्हें फिर मुझे फिर अब्बास को गाली दी थी
उस समय भी न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान
और हमारे लिए वो था एक दरिंदा बस

मेरे दोस्त ! तो अब क्यों तुम.........

मेरे दोस्त ! मैं आज भी पाठशाला के उसी मोड़ पर
सडंक पार करने के लिए
और हाथ में वही डिब्बा लिए
इसी आशा में कि हम एक दूसरे का चुराकर खाना खायेंगे
खड़ा हूँ 
कि भूल कर तुम कि
मैं हिन्दू हूं तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान
आओगे और सड़क पार करते हुए 
चुपके से हम एक दूसरे का खाना खा जायेंगे...

कुछ और कविताएँ -

1.'समकालीन संदर्भ में'

लेकर बैठ जाता हूं मैं  ,
वर्षों के महाकाव्य 
गुजरता हूं पंक्ति - दर - पंक्ति
ठहरता हूं , हर विराम पर
देख भी लेता हूं 
आगे बढ़ते - बढ़ते , हर बार
पीछे मुड़कर
वहीं , उसी मोड़ पर , आकार 
ठहर जाता हूं ,
सोचता हूं कि-
कविता क्या है ?
गूंजते है ,
उदात्त व्याकरण की गृहस्थी के 
सभी उच्चकुल संपन्न नायक
कि कविता - 
घरेलू हिंसा के खिलाफ़
शब्दों का सत्याग्रह है, 
जलती हुई मोमबत्ती की 
पिघलती हुई आह है ,

रास्तों में, सड़क पर 
भीड़ का , बाजूओं पर
काले धागों में बदल जाना
चल पड़ना प्रगति मैदान में
किसी न किसी छाया के नीचे
हाथों में लिए , तख्तियों पर
कुछ अहिंसा के गिने चुने , संवैधानिक शब्द लिए
कि नागरिकों को अधिकार है
वो निर्धारित कर सकें
अपनी जुबान से निकलने वाली ध्वनियों के
स्पर्श स्थान , मुंह के भीतर , 
अब जब आक्रोश का दूसरा नाम
भूख हड़ताल है ,
निकल पड़ना गंगा घाट पर
देश भक्ति की पहचान ,

मुझे उचित लगता है , उस समय , कहना
उस बंदूक धारी का
कि कविता और कुछ नहीं 
युद्ध है , अपनी पहचान का
उससे , आंखें न मिला पाने की , विवशता 
धरोहर  से अलग कर देने की 
चालाकी
उसे नक्सली बता देती है 
और विधान के इस प्रपंच में
एक आवाज़ को असंवैधानिक , ठहरा
देती है |
___________________________________

2. 'शब्दों की हत्याओं के खिलाफ़ '           

लोग चुप हैं
शब्दों की हत्याओं के खिलाफ़
कहीं कोई विरोध नहीं , प्रतिरोध नहीं
कि टांग दिया गया हैं चौराहे पर 
एक किताब को क़त्ल कर, 
बहस के लिए पैैदा कर दिये गए हैं 
कुछ नाजाय़ज शब्द 
हमारे नाम पर , मेरे साथी !

पैदा किये गये अफ़वाहों के धूल भरे भवंड़रों के बीच
कटी हुई गायें के ऊपर
किसी को दिखाई नहीं दे रही एक बहसी सोच
शहर के नक्शे पर उगाई गई
कंटीली झाड़ियों की चुबन 
दूर कहीं शंख की ध्वनि
ह्वन के धूंए से परास्त हो गई है
कुछ ऐसा माहौल है मेरे शहर आज कल,
मेरे साथी !

नहीं भेद पा रही है आदमी की आँख
उस तिलिस्म को 
जो ऊँचाई के कुछ नुख्तों के नाम पर 
उसे ज़मीन में गाड़ता जा रहा है,
क़त्लाये गये शब्दों पर अफ़सोस तो 
सभी को है, सभी उस के चीथड़ों को लेकर 
रो रहे हैं पीट रहे हैं,
लेकिन विरोध , प्रतिरोध कहीं 
नहीं है , मेरे साथी !
_____________________________________

 3.   'घृणा की शुरूआत'

मैं, उस समय
उस आदमी से घृणा करने लगता हूँ
जब बाईं ओर मुँह कर 
वह आदर्श की जुगाली करता है 
कुछ समय बाद, दीवार की बाईं ओर 
जांघों को खुजलाता, आदमी चबाता 
धीरे-धीरे शहर निगल जाता है
फिर भी शाकाहारी ही कहलाता है,

यह एक सोच की पूरी श्रंखला है
जो ईमारतों के पहले स्तर से शुरू हो अंतिम स्तर तक
बिल्डर और इंजीनियर की मिली-भूगत का नतीजा है
कि बसते हुये लोग शहर 
शहर ईमारत , और ईमारत दीवार बनती जाती है|
_______________________________________

कवि परिचय -

नाम-    सुशील कुमार शैली
सम्प्रति- प्राध्यापक , एस.डी. कॉलेज ,बरनाला 
रचनात्मक कार्य - कविता संग्रह- तल्खियां (पंजाबी में ),  समय से संवाद ( हिन्दी में ),  कविता अनवरत-1, काव्यांकुर-3, सारांश समय का (सांझा संकलन) 
विभिन्न पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएं व शोधालेख प्रकाशित |
पता - एस. डी कॉलेज, बरनाला
               हिन्दी   विभाग 
के. सी रोड़ ,बरनाला (पंजाब) 148101
मो - 9914418289
ई.मेल- shellynabha01@gmail.com

प्रस्तुति - मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-

पारितोष:-
कविताओ का विषय और भावात्मकता तो बेहतर है लेकिन शिल्प के स्तर पर काफी सामान्य ।कविता का आनंद तभी होता है जब उसकी अर्थवत्ता जितना कहे उससे अधिक अनुत्तरित रहे,सपाट बयानी से कवि आगे बच सके तो ठीक होगा।

परमेश्वर फुंकवाल:-
परितोष जी से सहमत। एक बात और जोड़ना चाहूंगा शब्दों के दोहराव से बचा जाना चाहिए। शब्दस्फीति से रचना की कसावट जाया होती है।

संजना तिवारी:-
परितोष जी से सहमत हूँ । विषय चयन बहुत नया ना होकर भी अच्छा है लेकिन सपाटपन अखरता है । आजकल ऐसा जरूरी नही की कविता छंदबंद हो लेकिन कम से कम एक लय का जुड़ाव महसूस हो तो बेहतर  ।

संजना तिवारी:-
कवि के पास कहन की विद्द्या है , विषय चुनने का हुनर है , बस थोड़ा सा काम बाकी है लय पर

मनचन्दा पानी:-
दोनों कवितायें अच्छी लगी। बुनावट कमजोर है। कसावट में कमी है। विषय चयन और भाव अच्छे हैं। पारितोष जी और संजना जी ने जैसा कहा कि शब्दों में अनावशयक दोहराव से बचा जाए। दूसरी कविता इसी कारण से कमजोर हो जाती है।

समूह के वरिष्ठ साथी बताएं कैसे ऐसी गलती से बचा जाये। हमें कुछ सीखने को मिलेगा।

परमेश्वर फुंकवाल:-
कविताओं में प्रतिरोध की बुलंद आवाज है। कल के मुकाबले बेहतर कविताएँ। वर्तनी की गलतियां अखरती हैं। संभावना से भरे कवि को बधाई और शुभकामनाएं।

आशीष:-
अच्छी  कविताएं । खासकर  आज के  समय में  दूसरी  कविता  ,   सहजता  से  सम्प्रेषित  हो रही  है । धार्मिक खांचे   में  बांटे  जारहे  सामाजिक तानबाने  के  लिए  आइना है । 
      कभी-कभी   बहुत  गम्भीर तरीके  से  इन  बुनियादी प्रश्न  को  सामने  लाते  हैं   तब  वह  हमारे  बौद्धिक विमर्श  का  हिस्सा   तो  बनता  है लेकिन  हमें  आसपास   की व्यवहारिक जिंदगी  में  वह  दिख नहीं  रहा  होता । सामान्य   आमफहम  बात  भी  हमारे  सामने जो  घट रहा  है उन परिघटनाओं  की अनौचित्य को  प्रश्नांकित  कर  रही होती है ।।  क्या   होना   चाहिए यह  एक  आगामी विकल्प  की  ओर  इशारा करता  है ।  लेकिन  वास्तविकता में  हम  अपने  सामाजिक क्रियाव्यापारों  में एक  दूसरे  कितने  गहरे  जुड़े  है  कि  अलग  पहचान का  ख्याल  तक  नहीं   आता । वह हमारा  बचपन  हो  या  जिंदगी के  कोई  और  क्षण   ।
जलता  है  दीया   मुंडेर पर ,  उम्मीद  की  कविता  है ।  घनघोर  हताश पल  में भी   कुछ  करपाने  की  रोशनी  से   आगे  बढ़ते  है । मुंडेर पर  दिया   अंधेरे  में  उम्मीद   की  लौ  है ।

रचना:-
साथियों,  कल समूह में जिन साथी की कविताएँ पोस्ट हुई थीं,  आज भी उन्हीं की कुछ अन्य कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत हैं। उनका परिचय और तस्वीर भी कविताओं के पश्चात दिया गया है।
आपकी सटीक टिप्पणियाँ रचनाकार को एक दिशा प्रदान करती हैं। अतः टिप्पणी करने की परंपरा बनाए रखें।

21 मार्च, 2016

लेख :स्त्रीकाल में निवेदिता शक़ील

नमस्कार साथियों,
   आज हम समूह की साथी निवेदिता शक़ील का एक लेख यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। यह लेख एक ऐसे विषय पर आधारित है,  जिसकी चर्चा भी लम्बे समय तक वर्जित माना जाती रही थी...  किन्तु अब महिलाएँ बहुत मुखरता से अपना पक्ष रख रही हैं। यह सकारात्मक बदलाव है। अपने जीवन से जुड़े मुद्दे जितनी स्पष्टता से स्वयं महिलाएँ उठा सकती हैं,  पुरुष नहीं।
आशा है आप इस लेख पर अपनी प्रतिक्रियाएँ देकर इसे एक सार्थक विमर्श का रूप देंगे......
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"स्त्रीकाल में निवेदिता शक़ील" --

मैं कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक गोष्ठी में गयी थी। जहां मेरी मुलाकात स्वामी शिवानंद से हुई। उन्हें पर्यावरण के मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए बुलाया गया था। हमारे देश में धर्म के नाम पर बाबाओं ने जो कुछ कुकर्म किया है उसकी वजह से मुझे बाबाओं से काफी अरुची है। पर उन्हें जब सुना तो लगा कि ये जनता के बाबा है। उनकी बातों ने मुझपर गहरा असर किया। मैं उसी असर में उनसे मिलने गयी और कहा बाबा आपको सुनकर अच्छा लगा और स्नेह से उनकी तरह हाथ बढ़ाया । अचानक उनके शिष्य ने मुझे धकेल दिया और कहा कि बाबा के शरीर को छुए नहीं। मैं अपमान से भर गयी। मैंने कहा बाबा आप तो अभी प्रकृति  की बात कर रहे थे। प्रकृति की कल्पना हमारे शास्त्रों में भी स्त्री के रुप में की गयी है। क्या स्त्री के छूने से आप अपवित्र हो जायेंगे?  बाबा तैयार नहीं थे कि कोई स्त्री ऐसे सवाल कर सकती है। वे लज्जित हुए और जवाब नहीं दे सके। मुझे लगा कम से कम वे लज्जित तो हुए पर आज भी हमारे देश में औरतें अपवित्र मानी जाती हैं। जो धर्म के ठेकेदार हैं स्त्रियों के मंदिर और मस्जिद जाने पर प्रतिबंध लगाते हैं और बड़ी बेशर्मी से इसके पक्ष में तर्क देते हैं। शनि मंदिर और हाजी अली की दरगाह में औरतों के प्रवेश के बहाने कम से कम इस देश में यह बहस का मुद्दा तो बना ।

दरअसल जब हम धर्म की बात करते हैं तो उसके भीतरी तहों में झांकने की जरुरत होती है। मैं लोगों के जीवन में धर्म के गहरे असर से इंकार नहीं करती । शायद यही वजह है कि मार्क्स  ने  धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि धर्म हृदयहीन विश्व का हृदय है। अगर धर्म के पास हृदय होता तो दुनिया में धर्म के लिए मर-खप जाने वाली स्त्री के खिलाफ धर्म षड़यंत्र करता हुआ नजर नहीं आता। दुनिया में इतने दुख नहीं होते, इतनी असमानताएं नहीं होतीं, इतनी अनिश्चिताएं नहीं होतीं तो शायद धर्म इतना फलता -फूलता नहीं। इतने लंबे अनुभवों के बाद मैंने यही पाया है कि धर्म स्त्रियों के जीवन में दुख लेकर आता है। धर्म स्त्रियों को अपवित्र समझता है। धर्म स्त्री के शरीर से घृणा करता है। धर्म स्त्री के शरीर पर कब्जा जमाता है। सवाल यह है कि जिस धर्म की रचना पुरुषों ने की उस धर्म में स्त्री के लिए क्यों जगह होगी!  दुनिया का कोई धर्म ऐसा नहीं है जहां स्त्री का दर्जा कमतर नहीं है। स्त्रियां अपने जीवन में धर्म द्वारा किए जा रहे इस विभेद को झेलती रहती हैं।

मुझे याद है बचपन में अक्सर हम सारे भाई, बहन शाम को प्रार्थना करते थे। पर जब मेरी माहवारी होती तो उस दौरान भगवान के घर में हमारा प्रवेश निषेध रहता। मैं अक्सर मां से सवाल करती रहती थी मेरा ये खून अपवित्र क्यों है? जो खून हमारे बदन  से रिसता है, जिसकी वजह से स्त्री को मां का दर्जा मिलता है वही खून समाज के लिए ,धर्म के लिए अपवित्र है। धर्म ने स्त्री के लिए सुचिता जैसे शब्दों का इजाद किया।  उसकी रक्षा के लिए नयी नयी तरकीब निकाले। इतिहास बताता है कि दुनिया में स्त्री पर एकाधिकार के लिए धर्म का सहारा लिया गया। यूरोपीय सामंत घर से बाहर जाने पर अपनी पत्नियों  को कमरपेटिया पहनाते थे। जो लोहे की बनी होती थी। जिसमें आगे-पीछे मल-मूत्र त्यागने के लिए छेद बने रहते थे। दक्षिण भारत में भी इसका रिवाज था। "मरुगुब्ल्लिा" के नाम से लोहे और सोने की कमर पट्टियां बनती थीं। "मरुगुब्ल्लिा" और "सिगुब्ल्लिा" तेलगू शब्द हैं। सिग्गुब्ल्लिा का अर्थ होता है लाज-रक्षक पदक । मरुगुब्ल्लिा का अर्थ है मर्मांगों को छुपाने वाला।  यह सब पातिव्रत्य धर्म के रक्षा के नाम पर होता। आज भी धर्म के नाम पर स्त्री के लिए तरह तरह के बंधन हैं।

मनुस्मृति से लेकर अनेक ग्रथों में इसकी चर्चा है कि स्त्री को क्या करना है और क्या नहीं। धर्म जिस तरह आत्म सम्मोहन में फंसकर  विवेक का ध्वंस करता है उसका सबसे वीभत्स रुप  धर्मिक नरसंहार और साम्प्रदायिक दंगों में देखा जा सकता है। वहां एक पक्ष धर्म के लिए मरता है, दूसरा पक्ष धर्म के लिए मारता है। और जब स्त्री का सवाल हो तो धर्म सबसे वीभत्स रुप में सामने आता है। सती प्रथा से लेकर मंदिरों की दासियों की अनगिनत गाथाएं हमारे पास है। सामंतवादी व्यवस्था में सबसे ज्यादा इसकी शिकार औरतें होतीं रही हैं। धर्म के नाम पर जब मुसलमान औरतों को सार्वजनिक रुप से कोड़े से उघेड़ा जाता है और हिन्दू स्त्री को नंगा कर  घुमाया जाता है या एक स्त्री को डायन, चुडैल कह कर मारा जाता है तो उसके पीछे उसका धर्मिक होना होता है। स्त्री का बलात्कार कर दुश्मन के धर्म से बदला लिया जाता है। मुझे लगता है ऐसे धर्म के साथ रहने से अच्छा है कि स्त्रियां खुद को विधर्मी कहें। या फिर अपने लिए एक नए धर्म  की रचना करें जो सहृदय हो और सभी तरह के विभेदों से मुक्त हों। क्योंकि ये  धर्म स्त्री का धर्म नहीं है। ये धर्म मनुष्यता के साथ खड़ा नहीं है। धर्म के इस चेहरे की रचयिता स्त्री नहीं हो सकती।

(लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता निवेदिता "स्त्रीकाल" के संपादन मंडल की सदस्य हैं)
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टिप्पणियाँ:-

प्रणय कुमार:-
सार्थक विमर्श। धर्म के विरुद्ध जाने की बजाय उसे और मानवीय बनाया जाय|उसके ठेकेदारों और मठाधीशों को बहस की चुनौती दी जाय|उसे बाह्याडंबर से बाहर निकाल आंतरिक शुद्धि और आत्मिक उन्नति का माध्यम बनाया जाय|यह लेख बहुत निष्पक्ष भाव से लिखा गया है|मैं लेखिका के अधिकांश तर्कों और दृष्टांतों से न केवल सहमत भर हूँ,बल्कि चाहता हूँ कि ये स्थितियाँ बदले|इस लेख की सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इसमें छद्म धर्मनिरपेक्षता की बू नहीं आ रही है|

मनचन्दा पानी:-
अच्छा विषय उठाया है बहस के लिए। दो विषयों पर अच्छी बहस की जा सकती है एक है धर्म और दूसरा है स्त्री अधिकार। इसमें दोनों हैं तो साथियो को इसपर अपनी बात जरूर रखनी चाहिए।

मैं इनकी कही सभी बातो से सहमत हूँ और रहा हूँ। हालांकि पुरुष के लिए भी धर्म कोई अच्छा काम नहीं करता। करता उन्हें भी लाचार ही है। पर स्त्रियों के साथ यहां ज्यादा भेद किये गए हैं। जो कुछ हमें अपेक्षाएं है कि धर्म से हमें मिलेगा वह सब हम बिना किसी धर्म के मार्ग पर चले भी कर सकते हैं।

अपने घर परिवार और समाज में मैं देखता हूँ कि धर्म का बोझ स्त्रियां ही ज्यादा ढोती हैं। बाबाओं के चक्कर में पड़ती भी स्त्रियां ही हैं ज्यादा। कोई भी साधू बाबा इनके माध्यम से ही पहले अपना विस्तार करता है। व्रत, मंदिर, पूजा, कथा सबकुछ स्त्रियां ज्यादा करती हैं पुरुषों के मुकाबले। और ये जो परहेज बताये गए हैं कि इन दिनों में पूजा नहीं कर सकते इसे स्त्रियां और लड़कियां बिना सवाल किये स्वीकार करती हैं।

पवन शेखावत:-
निवेदिता जी ने उस पहलू को छुआ है जिसे अक्सर बात करने में भी कठिनाई होती रही है लेकिन आज समाज में काफी बदलाव आया है.. आज की पीढ़ी इस रूढिवादिता को सिरे से नकार रही है... मैं आपको बताऊं.. जब हमारे प्रदेश ( पहाड़ी इलाकों में ) में किसी महिला को इस स्थिति से गुजरना पड़ता था तो उसे रहने के लिए घर में जगह नहीं दी जाती थी.. उसे कई दिनों तक पशुशाला में ही समय बिताना होता था.. यह उसके साथ हर महीने होता... लेकिन अब बदलाव काफी आए है लेकिन काफी बुजुर्ग अभी भी उसी ढर्रे में कुंडली मारकर बैठे हुए हैं..

संजीव:-
स्त्री पर तमाम तरह के शारीरिक और मानसिक नियंत्रण के लिए ऐतिहासिक कारण हैं। वैदिक काल से पूर्व जब आर्य जाति भारत आ रही थी तो उसके साथ बहुत कम स्त्रियां थीं। न के बराबर। भारत में आकर यहां के मूल निवासियों से संघर्ष में आर्यों को जब जीत मिलने लगी तो वे विजितों की स्त्रियों को उठाकर अपने इस्तेमाल के लिए रखने लगे पर उनके भाग जाने का खतरा हमेशा बना रहता था इसलिए उन्हें बाडे में बांधकर रखा जाता था। पैर में रस्सी  या लोहे के प्रयोग के बाद सांकल से बांधकर रखा जाता था। इन्हीं बंधनों के प्रतीक पायल चूडी कान छिदवाना नाक छेदना हैं । ये तरीके पशु और स्त्री के साथ समान रूप से आज तक प्रयुक्त होते हैं। क्योंकि पशुधन और स्त्रीधन पराये घरों से लाया जाता था। बाद में जब स्त्रियां आर्यों के प्रति शीरीरिक रूप से अनुकूलित हो गईं तो पुरुष उसकी सृजन शक्ति से डरता रहा । इसलिए उसके मानसिक अनुकूलन के लिए रीति रिवाज और आचार संहिताएं रची गईं। तमाम तरह के प्रतिबंध उसकी यौनिकता पर लगाये गए क्योंकि वह स्त्री की सबसे बडी सृजनात्मक ताकत इसके बल पर वह साम्राज्यों को उलट सकती थी यदि पुत्रों पुत्रियों पर उसका अधिकार रहता। संतान को पिता के नाम से पहचाने जाने की तकनीक ईजाद करना स्त्री की सृजन क्षमता पर नियंत्रण करने का तरीका ही था। स्त्री मुक्ति के संदर्भ में यौनिकता से मुक्ति के आयाम को ग्रहण करने के पीछे यही ऐतिहासिक प्रतिबंध है।

प्रणय कुमार:-
यह लेखक की कपोल-कल्पना अधिक और ऐतिहासिकता कम लगती है|विशेष रूप से उनके साज-सज्जा आदि प्रवृत्तियों को गुलामी का प्रतीक मानना|कहीं गहरे में यह स्त्री से उनके सजने-संवरने के स्वाभाविक अधिकार को छीन लेने की पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक है|इतना ही नहीं,वरन् देश के कई हिस्से में पुरुषों के भी कान आदि छिदवाने का चलन है,कड़ा या अन्य आभूषण भी पुरुषों में खूब लोकप्रिय हैं|शायद लेखक इसे ब्राह्मणवाद की उपज बता दें तो ब्राह्मणों में भी अनेक ऐसे संस्कार प्रचलित हैं,कर्णछेदन आदि तो आपने सुना ही होगा|आर्य-अनार्य सिद्धांत पर भी विद्वान एकमत नहीं हैं|यौनिकता से मुक्ति भी कहीं गहरे में दासता की ओर ही ले जाती है|

गीतिका द्विवेदी:-
निवेदिता जी का लेख अंतर्मन को झकझोर देता है।सच में सारे नियम  और बंधन धर्म ने हम स्त्रियों के लिए ही बना रक्खे हैं।परन्तु मैं अपने मित्रों के विचारों से भी सहमत हूँ कि आज स्थिति बहुत बदल गई है।विशेषकर शहरों में स्त्रियाँ नियम और बंधन को मानने के लिए विवश नहीं हैं।धार्मिक मान्यताएँ भी उन्हें रोक नहीं पातीं ।हाँ गाँव की औरतों को आज भी कमोवेश इन बंधनों का शिकार बनना पड़ता है।कई महिलाओं को इन धार्मिक और सामाजिक शिकंजों में जकड़ कर रहना बहुत गौरवान्वित करता है।ये बातें मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ।

आशीष मेहता:-
निवेदिताजी को साधुवाद, एक गम्भीर यक्ष प्रश्न को उठाने के लिए।

धर्म की विवेचना के लिए तो मैं असमर्थ हूँ। पर इस अभिव्यक्ति (स्त्रीकाल...) में मुख्यतः, दो नकारात्मक पक्ष पर ध्यान जाता है :
१) स्त्री को इन्सान न मानते हुए, वस्तु मानना।
२) स्त्री का अपवित्र होना।

धर्म पर कोई स्वामी व्याख्यान दें या मार्क्स की नजर से देखें, तो चर्चा संगोष्ठी / वाद-विवाद के स्तर पर तो दमदार रहती है। पर, व्यवहारिक तौर पर तो आचरण बतौर (स्त्रीदशा के लिए) स्त्री -पुरुष बराबर के दोषी पाए जाते हैं।

संजीवजी की पोस्ट्स् पर सहमति- असहमति न रखते हुए वर्तमान की भारतीय परिस्थितियों में उपरोक्त दोनों 'नकारात्मक तथ्यों' को मानवीय स्तर पर टटोलें, तो पाएँगे कि शिक्षा/रोज़गार के बढ़ते अवसरों में स्त्रीदशा में सुधार तेज गति से हो रहा है। स्वावलंबन बढ़ रहा है, जो 'आजादी' की धूरी है।

चाहे पशुशाला में रहें, मंदिर में न जा पाए, अपनी रसोई में न जा पाएँ, या फिर निवेदिताजी को मिले धक्के (बाबा के शीष्य से) खाऐं, यह तो फिर भी वो चोटें हैं, जो स्त्रियां घर (या घर सी जगहों) में ही खाती हैं। कभी बाहर की दुनिया देखें, जिसे न धर्म की परवाह (या दरकार) है न किसी विचारधारा की।

स्त्री-पुरुष के स्वभावगत एवं यौनिक अंतरों के बहुआयामी पहलू है। बेशक हर जगह पलड़ा 'पुरूषों' की तरफ झुका है । जरुरत धर्म (आडंबर पढ़ें) से  परे व्यवहारिक धरातल पर विमर्श की है। संजीवजी की 'गहरे अनुकूलन' की बात तार्किक है, पर '१००% वाम' चश्में ने विमर्श की दिशा ही बदल दी है। 'वाम-अवाम' के निरंतर प्रवाह में 'भारत' क्या पाऐगा, क्या खोएगा, पता नहीं, पर संजीवजी के थोड़े नम्बर कम करने का मन हो रहा है। ..... (यह द्वेषरहित है....., तथा नम्बर मिले हैं, इस सकारात्मकता के साथ  है, कोई फैसला सुनाने जैसा लगे, तो मुआफ करें )......

निवेदिताजी का पुन:आभार, "आज के विचार" के लिए।

प्रणय कुमार:-
आशीष जी की बातें तर्कसंगत हैं,इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी से सहमति-असहमति प्रकट की है|अपनी-अपनी बात कहने की सबको आज़ादी है,मानने की भी|मैंने जो कहा उसके अन्यार्थ न निकालें|स्त्रीदशा में सुधार तो हुआ है,अभी और होने की जरूरत है|वाज़िब सवाल 'वाम-अवाम' के बहस में वर्गीय हितों के साथ देश के हितों का भी ध्यान रखा जाय तो खांटी वामपंथी होने में भी मुझे कोई गुरेज़ नहीं|

संजीव:-
वस्तु मानने का अर्थ उसके साथ पशुओं की तरह व्यवहार करना है और अपवित्रता का संबंध यौनिकता से है या स्त्रीत्व की वस्तुता से। दोनों ही प्रश्न उसके साथ परायेपन का बोध कराते हैं । जो चीजें हजारों सालों से निरन्तर चली आ रही हैं उनके कारण हमें इतिहास की परिस्थितियों में ही खोजना होंगे। सजने संवरने की संकल्पना उनके साथ किए जाने वाले पशुवत व्यवहार को उनकी सहमति हासिल करने के लिए की विकसित की गई। जरा सोचें जब सोना चांदी नहीं था तब स्त्री नाक कान गले में क्या पहनती होगी? और वे किस बात के लिए पहनाए जाते होंगे? हाथ में चूड़ियां उसके निरन्तर मौजूदगी का बोध कराती हैं बजती रहती हैं, पायल भी आवाज करती हैं ताकि उसके भागने की सूचना मिल सके। ये प्रतीक हैं। आज ये प्रतीक उसके सौन्दर्य से जोड दिए गए। ये अधिकार नहीं बंधन है जिससे उसे वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है  । इस सजने संवरने के कारण स्त्री की चेतना को उलझाए रखा जाता है स्वयं अपनी देह की सजावट तक ताकि वह पुरुषों की दुनिया से दूर रहे घर के काम या आफिस के काम के अलावा जो समय मिले उसे सजने संवरने में गंवा दे। बाहर की दुनिया और उसकी वास्तविक दशा के संबंध में सोचने का वक्त न मिले।
मेरे आस पास जितनी पढी लिखी स्त्रियां हैं उनमें से अधिकांश अपना समय सजने संवरने में, या उसकी तैयारी में व्यतीत करती हैं। वे रचनात्मक या सामाजिक कामों से बचती हैं बहाना ये कि समय नहीं मिलता। मेरे कहना यह नहीं कि अच्छे से नहीं रहना चाहिए। पर इसे इतना ग्लेमराइज किया जाता है कि दीगर काम जो वे कर सकतीं हैं, नहीं कर पातीं। ये स्त्रियों पर इलजाम नहीं है उन पर थोपी गई मानसिकता है जो पुरुष ने अपने स्वार्थ में अंजाम दी है। जो स्त्रियां शारीरिक मेहनत करतीं हैं वे सजने संवरने पर कम ध्यान देती हैं। निराला की वह तोडती पत्थर, प्रेमचन्द की धनिया, छिन्नमस्ता की प्रिया क्यों अच्छी लगती हैं?
मेरा कोई विरोध सजने संवरने से नहीं है। मैं तो उसके पीछे निहित तर्क की बात कर रहा हूं। पूँजीवाद के आर्थिक शोषण का बहुत बडा भाग प्रसाधन उद्योग से ही आता है। स्त्रियां जिस षड्यंत्र की शिकार हैं उसे वे अपना हक मानतीं हैं। मेरी बात इस पर केन्द्रित है। एक प्रोफेसर स्त्री एक तीन सौ रुपये की किताब एक साल में एक भी नहीं खरीदती है और 500 रु का फेसियल हर सप्ताह कराती है। मैं इस मानसिक स्थिति की बात कर रहा हूं।

प्रणय कुमार:-
सभ्यता की विकास-यात्रा में कुछ बातें स्वाभाविक रूप से शामिल होती हैं|साज-शृंगार,आभूषण-अलंकार मनुष्य की स्वयं को सुंदर तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रतीक है न कि वर्ग-संघर्ष की उपज|इस तर्क के अनुसार कल को यह भी कहा जाएगा कि वस्त्र धारण करना भी गुलामी का प्रतीक है|वनफूलों और जूड़े आदि से स्वयं को सजाने की वृत्ति आज भी गाँव-देहात में देखी जा सकती है

संजीव:-
तर्क और तथ्य तो बिखरे पडे हैं किताबों और प्रकृति में।विचार ही उन्हें जीवन देते हैं। बिना " वाद "के कोई संवाद होता नहीं। वाद के बिना प्रतिवाद कैसे होगा और बिना प्रतिवाद के निष्कर्ष एकांगी होगा। क्या हम ऐसा निष्कर्ष चाहते हैं तो समूह की आवश्यकता ही नही  है।

वनिता बाजपेयी:-
मैं अपनी बात करूँ तो में प्रोफेसर भी हूँ और पढ़ती भी हूँ फेशियल नहीं । महीने में कम से कम 3 हजार की किताबें खरीदती हूँ । वैसे सजने सवरने को बुरा नहीं मानती चाहे स्त्री हो या पुरुष परन्तु स्त्री को केवल सजने के पर्याय के रूप में नहीं देखना चाहती और इसके लिये में कोशिश भी करती हूँ

निवेदिता:-
Darsal Sanjiv ka ishara us tarf hai jab  istree ke liye sare niyam dusre banate hai...samaj ne istree ki yek chavi gadhi hai..wo chavi bajar bhunata hai .  yek had tak wah dabab banaya hai ki aap kis tarh dikhe..yah sanyog nahi hai ki gorepan ke liye samaj Mara ja raha hai.  Fair and lovely ka bajar kya hai..istree ko apni chavi khud gadhni hogi

संजीव:-
‘स्त्री मुक्ति’ के विमर्ष का स्वरूप
‘स्त्री विमर्ष’ या ‘स्त्रीवाद’ उत्तर आधुनिक वैचारिक परिदृष्य का एक महत्वपूर्ण आयाम है। हिन्दी साहित्य में इसका उदय लगभग 1960 के बाद माना जाता है। स्त्री मुक्ति का संघर्ष तो पंडिता रमाबाई ने आरंभ कर दिया था और उसके भी पहले कष्मीरी कवयित्री लल्लद्येद और हब्बाखातून, दक्षिण की आण्डाल और पष्मिच की मीरा ने आरंभ कर दिया था, परन्तु ‘स्त्री विमर्ष’ एक तकनीकी अर्थ में 1960 के आसपास उदित हुआ माना जाता है। स्त्री विमर्ष स्त्री को स्त्रीत्व के रूप में अपनी पहचान प्राप्त करने का विमर्ष है। स्त्री को एक गुमनाम इकाई के रूप में जाना जाता है जिसकी कोई स्वंतत्र अस्मिता नहीं थी और न बिना पुरुष संदर्भ के कोई अस्तित्व था। स्त्री विमर्ष इसी अस्मिता और स्वतंत्र अस्तित्व को प्राप्त करने का विमर्ष कहा जा सकता है। इस अर्थ में स्त्री विमर्ष का स्वरूप ‘स्त्री मुक्ति’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
यहाँ ‘मुक्ति’ शब्द परंपरागत अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। ‘मुक्ति’ एक ऐसे संदर्भ से मुक्ति जिसके तहत स्त्री को परिभाषित किया जाता था, यहाँ मुक्ति एक ठोस और वस्तुगत कार्यवाही है, जो स्त्रियों को स्वयं अपने संकल्प और साहस के साथ अंजाम देनी है। मुक्ति कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं जो पुरोहितीय पद्धति से आषीर्वाद स्वरूप मिल जाये। यह एक क्रांतिकारी आचरण है जो आलोचनात्मक चिंतन और दूसरे के अस्तित्व को खंडित नहीं होने देकर भी किया जा सकता है। मुक्ति एक ऐसे ‘आचरण’ से मुक्ति है जो स्त्रियाँ करती थीं पर जो उनके अपने संकल्प और निर्णय का परिणाम न होकर दूसरांे के द्वारा संकल्पित और निर्णीत हुआ करता था। ‘मुक्ति’ कर्म से नहीं कर्म के पीछे के चिंतन से है, उस दबाव से है जो उन्हें हांकता था पषुओं की तरह। यह एक शब्द ‘मुक्ति’ नई दुनिया और नये संदर्भों को रचे जाने के लिए किया गया महाभारत है। एक ऐसी दुनिया जिसमें किसी की अस्मिता और अस्तित्व को न तो जुंए में दांव पर लगाया जायेगा और न चोटी पकड़कर भरी सभा में बेआबरू किया जायेगा। यह दुनिया और यह सभा सिर्फ ताकतवरों और अंधों की नहीं होगी। इसमें सब बराबरी से एक दूसरे के बजूद को स्वीकार करेंगे और सम्मान करेंगे सबका सब। ऐसी दुनिया के सृजन के लिए महाभारत से कम संघर्ष का तो सवाल ही नहीं उठता है। अतः मुक्ति एक सकारात्मक आचरण है, एक ऐसा चिंतन है जो ‘प्रत्येक स्वयं’ के द्वारा ‘प्रत्येक दूसरों’ के साथ किया जायेगा और सब सामूहिक रूप से इसे अंजाम देंगे अपनी अपनी अस्मिता और गरिमा के साथ। मुक्ति एक नई महाभारत की इबारत लिखे और अंजाम हो सबके लिए सबकी स्वतंत्रता।
दरअसल स्त्री जो निरंतर दूसरों के सोचे गए को आचरित करती रही है, उसे ‘स्वतंत्रता से भय’ (इस पदबंध का प्रयोग पाओलो फ्रेरे ने अपने ‘उत्पीड़ितों के षिक्षा शास्त्र’ में जिस अर्थ में किया है उसी अर्थ और संदर्भ में यहाँ इसका प्रयोग किया गया है) लगने लगा है। उसे इस ‘स्वतंत्रता के भय’ से मुक्त होना है। यह एक ऐसा भय है जो स्त्री जाति के रक्त में संस्कारों की तरह बह रहा है। स्वतंत्रता के भय से मुक्त होने में खतरे तो बहुत हैं, पर खतरों से खेलने के बाद जो मुक्ति युक्त आचरण होगा, कर्म होगा, वही असली जीवन होगा। स्वतंत्र, निर्भय, स्वयं निर्णीत, साहस और आत्मसम्मान, आत्मगौरवपूर्ण आचरण। ऐसा आचरण जो ‘उपलब्धि के इस क्षण’ के पहले कभी नहीं ‘जिया गया’ था। ‘एक अब तक न आचरित किया गया आचरण’ जिसे जीने के लिए लाखों स्त्रियाँ कोषिष करती रहीं पर उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया और उन्हें आत्मबलिदान देना पड़ा। जोखिम उठाये बिना उपलब्ध जीवन उपहार हो सकता है और उपहारों और कृपा से प्राप्त जीवन (स्वतंत्रता उपहार में नहीं मिलती, संघर्ष में विजयी होने पर मिलती है। उसे पाने का प्रयास लगातार और जिम्मेदारी के साथ करना पड़ता है। स्वतंत्रता कोई ऐसा आदर्ष नहीं है, जो मनुष्य के बाहर स्थित हो।’’ (पाओलो फ्रेरे, उत्पीडितों का षिक्षा शास्त्र, गंथ षिल्पी पृ. 10) में और पशु के समान जीवन में कोई अन्तर नहीं होता। पषु अपने निर्णय स्वयं नहीं लेता, वह अपने जीवन का रूपांतर नहीं कर सकता, वह अपने जीवन के लिए स्वयं उत्तरदायी नहीं होता, विष्व उसके लिए प्रदत्त आवास है जिसमें बिना किसी रूपांतर के उसे जीना है। वह सिर्फ अपने वर्तमान में जीता है, उसके लिए भूत और भविष्यकाल नहीं होता। वह एक अनैतिहासिक प्राणी होता है। यदि स्त्री बिना स्वयं के बारे में निर्णय लिए जी रही है और उसका अपने प्रति कोई उत्तर दायित्वपूर्ण अनुभव नहीं है तो वह अपनी दुनिया स्वयं रचने के लिए संकल्पबद्ध नहीं हो सकती और उसके लिए स्त्री मुक्ति का कोई अर्थ नहीं है, जैसा पषुओं के लिए बाड़े में बंद रहना या खुले जंगल में रहने का कोई विषेष अर्थ नहीं होता क्योंकि वह प्रदत्त भौतिक परिस्थितियों को बदलने के बारे में सोच नहीं सकता, निर्णय नहीं कर सकता और न रूपांतरण के लिए कर्म कर सकता है।
‘स्त्री विमर्ष’ स्त्री मुक्ति के लिए किया गया चिंतनपूर्ण कर्म होना चाहिए। एक उत्तरदायित्व पूर्ण आचरण जिसमें विष्व के रूपांतरण के लिए प्रतिबद्धता हो। यदि सिर्फ विमर्ष के लिए विमर्ष होगा और जैसा कि अक्सर हो रहा है तो यह पदबंध (स्त्री विमर्ष) अपनी प्रामाणिकता खो देगा वह एक सक्रियतावाद में बदल जायेगा। एक ऐसा विमर्ष जो सिर्फ विमर्ष के लिए किया जा रहा है। इसमें वास्तविक रूपांतरण के लिए किये जाने वाले कर्म का नितांत अभाव होगा। यथार्थ का रूपांतरण बिना ‘अयथार्थपूर्ण वास्तविकता’ की भर्त्सना के संभव नहीं होता, परन्तु यह भर्त्सना एक क्रांतिकारी कर्म में तब्दील होनी चाहिए।
अब तक न परखी गई संभावनाओं को परखने का सुख जीवन का अनमोल क्षण होता है। सदा ही दूसरों द्वारा तय किये गए रास्तों पर चलते रहना, दूसरों द्वारा बताई गई दिषा में एक निष्चित गति से चलते रहना, जानवरों की तरह चलने में कोई फर्क नहीं होता। जानवर भी कभी-कभी अपनी मन मर्जी के रास्ते पर चल पड़ता है। भले ही इसके लिए उसे मालिक द्वारा डंडे खाने पड़ें। कभी जब वह बहुत तंग आ जाता है ‘खूंटे से’ तो तोड़ देता है अपना सारा बल लगा कर एक बारगी तो उसे, भले ही पुनः मालिक द्वारा बांध दिया जाये उसी खूंटे से। मगर ‘अन परखी संभावनाओं’ को परखने का मजा कभी कभार तो चख ही लेना चाहिए। मुक्ति का प्रयास भी यदि नहीं होगा, स्वप्न में भी यदि ‘स्वतंत्रता के भय’ से मुक्त नहीं होंगे तो कैसे मिलेगी मुक्ति?
मुक्ति एक विमर्ष है, मुक्ति एक आचरण है जो हम अपने लिए नहीं दूसरों की मुक्ति के लिए सबके साथ दुनिया पर करेंगे, क्योंकि दूसरों के मुक्त हुए बिना हम प्रमाणिक रूप से मुक्त नहीं हो सकते। हमारे इस आचरण से संबंधों का नया संसार बनेगा, अब तक के संबंध अधिकारी और अधीनस्थ के थे, अब जो संबंध होंगे वे ‘सबके साथ सबके’ साहचर्य के संबंध होंगे। कोई किसी का मािलक और कोई दास नहीं होगा। संबंधों का यह नया स्वरूप मुक्ति के इस आचरण में निहित है।
पाओलो फ्रेरे ने लिखा है - ‘‘इस प्रकार मुक्ति एक प्रसव है और यह प्रसव पीड़ादायक है। इससे जो मनुष्य पैदा होता है, एक नया मनुष्य होता है, जिसका जीवित रहना तभी संभव है जब उत्पीड़क-उत्पीड़ित के अन्तर्विरोध के स्थान पर सभी मनुष्यों का मानुषीकरण हो जाये। अथवा दूसरी तरह से कहें तो, इस अंतर्विरोध का समाधान उसी प्रसूति में जन्म लेता है, जिसमें नया मनुष्य पैदा होता है-ऐसा मनुष्य, जो न तो उत्पीडक है न उत्पीड़ित बल्कि जो स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रक्रिया में है। वही पृ. 12)
‘मुक्ति’ एक ऐतिहासिक मनुष्य का संपूर्ण मनुष्य जाति के प्रति किया गया आचरण है। यदि ‘स्त्री मुक्ति’ पदबंध को इस संदर्भ में व्याख्यायित किया जाये तो स्त्री को अपने आपको एक ऐतिहासिक मनुष्य मानना होगा। एक ऐसा मनुष्य जो अपनी दुनिया को बदलने के लिए चिंतन कर सकता है और अपना जीवन अपने हाथ में ले सकता है। पूर्व की स्त्रियों के जीवन से प्रेरित हो सकता है और उनकी कमजोरियों से सबक सीख सकता है। अपने आचरण के प्रति स्वयं उत्तरदायी अनुभव कर सकता है और सबके प्रति अपने दायित्व को अनुभव कर सकता है। वर्तमान भौतिक परिस्थितियों में जीना ऐतिहासिक प्राणी का का काम नहीं है, ऐतिहासिक प्राणी का दायित्व भौतिक विष्व को अधिक मानवीय बनाने के लिए रूपांतरित करना है। अतः ‘मुक्ति’ का संदर्भ स्वयं को परिस्थितियों से मुक्त कर लेना नहीं है जैसा कि धर्म कहता है, बल्कि परिस्थितियों को अधिक मानवीय बनाने वाला आचरण है। मनुष्येतर प्राणी परिस्थितियों के दास होते हैं क्योंकि वे परिस्थितियों को बदलने के संबंध में सोच नहीं सकते चिंतन नहीं कर सकते और बदलने के लिए आचरण नहीं कर सकते इसलिए वे अनैतिहासिक प्राणी होते हैं। मनुष्य और ‘स्त्री मनुष्य’ यदि इसी तरह का अनैतिहासिक आचरण करे तो ‘स्त्री मुक्ति’ शब्द अपनी तमाम ऊर्जा को जड़ता में बदल चुका होगा। इसके लिए निर्मला पुतुल की एक कविता की ये पंक्तियाँ विचारबिन्दु बन सकती हैं - ‘‘मैं चाहती हूँ /आँख रहते अंधे बने आदमी की/आँख बने मेरे शब्द/उनकी जुवान बनें/ जो जुवान रहते गूंगे बनें  देख रहें हैं तमाषा।’’ स्त्री का आचरण ठीक इसी तरह का है आँख रहते अँधे बने आदमी की तरह का है। उसे अपने इसी आचरण से मुक्त होना है। स्त्री मुक्ति का सदंर्भ यही है। इस संदर्भ को स्त्री को स्वयं आचरित करना है। जब तक स्त्री इसका निर्णय स्वयं नहीं करेगी, स्वयं नहीं सोचेगी, तब तक उसकी दुनिया का रूपांतरण नहीं होगा। दुनिया को निरंतर पुनर्सृजित करने की क्षमता रखने वाली सृजनक्षम प्राणी होने के नाते उसे अपनी दुनिया को पुनः रचने का निर्णय करने का साहस और संकल्प लेना ही होगा। कोई देवता या पुरुष या भाग्य और नियति उसकी दुनिया को नहीं बदल सकती और यदि बदलेगी भी तो वह ‘स्त्री मुक्ति’ नहीं होगी बल्कि एक नये तरह की दासता होगी जो कुछ समय तक मुक्ति का भ्रम पैदा करेगी।
इतिहास में प्रायः ऐसा होता रहा है कि ‘मुक्ति का भ्रम’ भर पैदा किया गया और कई पीढ़ियाँ इस भ्रम को ही सच्ची ‘मुक्ति’ मानकर जीवन को खत्म करती गईं। आज की भूमंडलीकृत स्त्री का एक दायित्व यह भी है कि वह इस तरह के भ्रमों को अपने बौद्धिक चिंतन पूर्ण आचरण से तोड़े। उनकी संरचना के चक्रव्यूह को तिनके-तिनके बिखेर दे ताकि ‘वे लोग’ जो ‘स्त्री की मुक्ति’ से डरते हैं और उसे दासत्व की अवस्था में ही कैद रखने के लिए धर्म और संस्कृति के भ्रम को फैलाते हैं, इस तरह के आचरण को बदलने के लिए तैयार हो जायें और स्वयं भी मुक्त हो सकें अपने अमानवीय कर्म से और एक बेहतर मानवीय जीवन की संरचना में संलग्न हों। ‘सबकी मुक्ति में ही स्वयं की मुक्ति है’ यह पदबंध पुरुष पर भी उतना ही लागू होता है जितना स्त्री पर। पुरुष भ्रम में है कि वह तो मुक्त है और उसने अपने घर के बाड़े में एक ‘मादा’ को दास बना रखा है। दास जितना मालिक पर निर्भर नहीं होता उससे अधिक निर्भर मालिक दासों पर होता है। दास यदि मालिक के प्रति उसकी दुनिया को बदलने के लिए किया जाने वाला ‘कर्म’ करना बंद कर दें, स्वयं की मौत की शर्त पर तो मालिक दास के मरने से पहले मृत हो जायेगा। पुरुष जिस भ्रम में जी रहा है वह सिर्फ ‘स्त्री की मुक्ति’ का डर है। यह डर की यदि स्त्री मुक्त हो गई तो उसकी दुनिया समाप्त हो जायेगी। उसकी पूरी व्यवस्था और समाज संरचना विखर जायेगी। ऐसे में उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा। यदि स्त्री अपने मुक्त और दायित्वपूर्ण आचरण से इस भ्रम का निवारण कर दे तो दुनिया बहुत खूबसूरत हो जायेगी। सब ‘स्वतंत्रता के भय’ से मुक्त होकर स्वतंत्र आचरण करेंगे जिसमें किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन नहीं होगा।
‘सत्ता संरचना’ दूसरों के ‘स्वतंत्रता के भय’ पर आधारित होती है। सत्ताधारी वर्ग निरंतर इस बात का प्रयास करता है कि उसके अधीनस्थ वर्गों के अन्दर निरंतर यह भय बना रहे की यदि वे स्वतंत्र हुए तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। ‘स्वतंत्रता के भय’ को यथास्थिति बनाये रखने के सुरक्षा कवच में छिपाकर प्रस्तुत किया जाता है ताकि जब यथास्थिति के टूटने का समय आये तो ऐसा लगे कि स्वतंत्रता ही खंडित हो रही है। सत्ता संरचना की यही ताकत है जो उसे निरंतर बनाये रखने में सहायक होती है। मुक्ति का विमर्ष चाहे वह स्त्री मुक्ति का हो या सबकी मुक्ति का विमर्ष सत्ता संरचना के इसी विमर्ष को तोड़ने के स्वरूप को धारित करने वाला होना चाहिए। सत्ता विमर्ष ‘मुक्ति’, स्वतंत्रता और आजादी जैसे शब्दों की ताकत को विस्फोटक होने से रोकने के लिए निरंतर इनका प्रयोग इनके वास्तविक संदर्भों से काटकर करता है ताकि लोग इनके वास्तविक रूपांतरणकारी अर्थों को भूलते जायें। ‘स्त्री मुक्ति’ के संदर्भ में हमेषा से यही होता रहा है और परिणामस्वरूप वह पराधीनता की यथास्थिति को ही मुक्ति की स्थिति मानकर जीती रही है। उसके लिए ‘मुक्ति’ एक खोखला और पोपला शब्द है जिसके लिजलिजेपन से वह घृणा करती है। निरंतर की भोगी जाती रही यथास्थिति ने स्त्री चेतना के अस्तित्व और अस्मिताबोध को अपने से अलग कर दिया। उसने अपने अस्तित्वगत अनुभव को हमेषा ही उत्पीड़क व्यवस्था के साथ अनुभव किया। अपनी ‘अस्मिता’ को पितृवर्चस्वी संस्कृति के प्रवाह में ही ‘जिया’ इसलिए वह उत्पीड़क को अपने अंदर सुरक्षाबोध के रूप में अनुभव करती रही। स्त्री चेतना को अपनी उत्पीड़क परिस्थितियों और व्यवस्था को अपने से बाहर अनुभव करना, उनके बिना अपने अस्तित्व को जीना, ‘अपने होने’ को पहचानने की प्रक्रिया पर चिंतन करना उनकी मुक्ति के वास्तविक अनुभव को यथार्थ में तब्दील करने की परिस्थितियों को निर्मित करने की दिषा में उठाया गया कदम होगा। इस अनुभव से वह मुक्त नहीं होगी पर मुक्ति की राह को अन्वेषित कर सकेगी।
परिस्थितियाँ खुद व खुद कभी नहीं बदलती और न स्वयं बदली हुई परिस्थितियों और व्यवस्थाओं से स्त्री मुक्त हो सकती। मुक्ति की अनिवार्य शर्त है कि जिसे मुक्त होना है, उसे स्वयं अपने चिंतन और आलोचनात्मक क्रांतिकारी आचरण से परिस्थितियांे और व्यवस्थाओं को बदलना होगा। इसके बरक्स जो कुछ भी प्रयास दूसरों के द्वारा किये जाते रहे हैं वे सिर्फ और सिर्फ भाग्यवादी नियतत्ववाद को स्थापित करते रहे हैं। यही कारण है कि स्त्री हजारों लाखों स्त्रियों के बलिदान के बावजूद मुक्त नहीं हो सकी। संपूर्ण स्त्री जाति को मुक्ति के प्रति षिक्षित होना होगा। किसी एक स्त्री चाह वह झलकारी बाई हो या पंडिता रमाबाइ के प्रयास उसे तो मुक्ति का अनुभव करा सकते हैं, पर दूसरों को नहीं। मुक्ति एक निरंतर की जाने वाली प्रक्रिया है। एक स्थायी मूल्य या परिस्थिति नहीं है जिसे भारत की आजादी की तरह एक बार पंद्रह अगस्त 1947 को पा लिया गया तो हम आजाद हो गए हों। क्या आज हम स्वयं को स्वतंत्रता के भय से मुक्त अनुभव करते हैं? क्यों बार-बार हमें लगता है कि हम ठगे गए? आजादी एक प्रक्रिया है जिसे पाने और जीने का निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। हमने उसे स्थायी जड़ता में बदल दिया इसलिए ही हम स्वयं को ठगे गए सा अनुभव करते हैं। मुक्ति का आंदोलन 15 अगस्त 1947 को समाप्त नहीं हो जाना चाहिए था, वह वास्तविक मुक्ति के आंदोलन में रूपांतरित होकर निरंतर चलते रहना चाहिए था, यदि ऐसा संभव होता तो आज हम भारतीय मनुष्य भ्रष्टाचार और स्वार्थ की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होते।
‘स्त्री मुक्ति’ को कर्मकांड की तरह विमर्षित नहीं करना चाहिए। उसे अपने अस्तित्व के संघर्ष की तरह पाने का प्रयत्न करना होगा। इसके लिए अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार करने का समय नहीं है। इसी निरंतर बदसूरत होती जा रही दुनिया मंे, इन्हीं संकटों और अमानवीय होती जा रही व्यवस्थाओं के बीच प्रत्येक स्त्री को संकल्पबद्ध करने का विमर्ष पैदा करना होगा। यह विमर्ष कुछ तथाकथित मुक्त अनुभव करने वाली स्त्रियों के द्वारा शेष उप्तपीड़ित स्त्रियों के लिए किया जाने वाला उपकार नहीं होना चाहिए। जो ‘कुछ स्त्रियाँ’ यदि इस भ्रम को जी रहीं हैं कि वे तो मुक्त हो चुकीं अब उन्हें दूसरी स्त्रियांे को मुक्त करना है, तो वे स्वयं को ही धोखा दे रहीं हैं। कोई एक इकाई अलग से स्वतंत्र नहीं हो सकती। उसका अस्तित्व उसके संपूर्ण वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध है। सबके मुक्त हुए बिना एक व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। मुक्ति का भ्रम पाल सकता है और गफलत में जी सकता है। ‘दूसरों के अस्तित्व के बिना मेरा अस्तित्व नहीं हो सकता’ पाओलो फ्रेरे का यह मुक्तिदायक वाक्य इस तरह आगे बढ़ाया जा सकता है कि सबके मुक्त हुए बिना मैं मुक्त नहीं हो सकता। मुक्ति अकेले अनुभव की जाने वाली कुल्फी नहीं है जिसे जिसने खाया उसने अनुभव किया। यह एक सामूहिक आचरण है, सामूहिक अनुभव है, सामूहिक प्रक्रिया है - ‘‘वस्तुपरक परिस्थितियों में जन्म लेने वाली क्रांति उत्पीड़नकारी स्थिति को बदलकर उसके स्थान पर ऐसे मनुष्यों के समाज का शुभारंभ करती है, जो निरंतर मुक्ति की प्रक्रिया में होते है।’’ और भी ‘‘क्रांति की प्रक्रिया गतिषील होती और इस निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया में ही अर्थात् क्रांतिकारी नेताओं के साथ जनता के आचरण में ही, जनता और नेता दोनों संवाद करना तथा सत्ता का उपयोग करना सीखेंगे।’’ (वही, पाओलो फ्रेरे, पृ.94)
स्वतंत्रता की वास्तविक प्राप्ति के लिए जिस क्रांतिकारी आचरण की आवष्यकता है वह स्वतंत्र कर्म से ही संभव है। ‘स्वतंत्रता का भय’ और ‘स्वतंत्र कर्म’ दो परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं। जो स्वतंत्रता के भय में जीता है वह स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकता। उसका सब कुछ दूसरों के द्वारा निर्देषित होता है, दूसरों के द्वारा आदेषित होता है, इस दूसरों द्वारा विचारित और निर्देषित कर्म में कर्म करने वाला उस दूसरे के लिए ही आचरण कर रहा होता है। अतः वह दूसरों के विष्व का उनके हित में रूपांतरण कर रहा होता है। यही दासता की स्थिति है। स्वतंत्र कर्म में वह स्वचिंतित, स्वविचारित, स्वप्रेरित, स्वनिर्देषित कर्म का आचरण कर रहा होता है अतः वह स्वयं के विष्व का रूपांतरण कर रहा होता है -‘‘स्वतंत्र कर्म वही हो सकता है, जिसके द्वारा एक मनुष्य अपने विष्व को और स्वयं को बदलता है।....स्वतंत्रता की एक सकारात्मक शर्त है आवष्यकता की सीमाओं का ज्ञान, मानवीय सृजनात्मक संभावनाओं का बोध।.....एक स्वतंत्र समाज के लिए किया जाने वाला संघर्ष तब तक स्वतंत्र समाज के लिए किया जाने वाला संघर्ष नहीं है, जब तक उसके जरिए उत्तरोत्तर अधिक वैयक्तिक स्वतंत्रता का सृजन न होता हो।’’(वही, पृ.95) इस तरह स्वतंत्र कर्म मुक्ति के अनुभव की प्रक्रिया है जो न केवल स्वयं को मुक्त करती है बल्कि दूसरे सब को भी मुक्त करती है। स्वतंत्र कर्म के लिए स्वतंत्र समय का होना भी अनिवार्य शर्त है। यदि दासता की स्थिति में स्त्री का संपूर्ण समय दूसरों के आदेषपालन और उनके द्वारा प्रदत्त कर्मों के करने में व्यतीत हो रहा होगा तो वह अपनी मुक्ति के लिए स्वतंत्र समय का उपभोग करने की स्थिति में ही नहीं होगी। पितृसत्ता जिस वर्चस्व की तकनीक का उपयोग करती है, उसमें वह स्त्री को ‘स्वतंत्र समय’ नहीं देती। ऐसा कोई समय उसके पास नहीं होता जिसमें वह अपनी मुक्ति के संबंध में सोच सके, चिंतन कर सके और तदनुसार कर्म करने के लिए प्रेरित हो सके।
वर्चस्वी विचारधारा ने उत्पीड़कों को सोचने का समय प्रदान किया है जिसमें वे अधीनस्थ को निरंतर अधीनस्थ बनाये रखने की प्रक्रिया के बारे में सोच सकते हैं। क्योंकि उनके स्वयं के लिए किये जाने वाले कर्म अधीनस्थ लोग करते हैं और वे अपने स्वतंत्र समय और स्थान का उपयोग उन्हें उत्पीड़ित बनाये रखने की तरकीबें सोचने में लगाते हैं। स्त्री को निरंतर उत्पीड़ित की स्थिति में बनाये रखने के लिए पितृसत्ता में जिन मूल्यों की सांस्कृतिक परंपरा की संरचना की ही उनका गहन विष्लेषण यह सिद्ध कर देगा कि उसके पीछे एक मात्र उद्देष्य है कि वह सोचने का अवसर न पाये, दूसरी स्थिति यह है कि उसके पास स्वयं के बारे में स्वयं के लिए, अपनी दुनिया को रचने के बारे में सोचने लायक स्वतंत्र चिंतन की मानसिक स्थिति ही न हो। उत्पीड़क हमेषा यह सोचता है कि उत्पीड़ित सोचे नहीं। मुक्तिदायी चिंतन बिना दूसरों के साथ नहीं हो सकता, परन्तु दासत्व का बनाये रखने का चिंतन दूसरों के बिना हो सकता है -‘‘प्रभुत्वषाली अभिजन जनता के बिना सोच सकते हैं-और सोचते हैं - गोकि वे जनता के बारे में न सोचने की विलासिता की इजाजत स्वयं को नहीं दे सकते, क्योंकि अधिक कुषलतापूर्वक शासन करने के लिए जनता को बेहरत ढंग से जानना उनके लिए जरूरी होता है। नतीजतन, जनता और अभिजनों के बीच दिखाई पड़ने वाला संवाद या संप्रेषण वास्तव में उन ‘विज्ञप्तियों’ को जनता में ‘जमा करना’ है, जिनकी अंतर्वस्तु जनता को पालतू बनाने वाला प्रभाव उत्पन्न करने के इरादे से तैयार की जाती है।’’(वही, पृ.90) स्त्री को पालतू बनाने के लिए पितृसत्ता निरंतर सोचती है और उसके समय को फालतु की कार्यवाहियांे, उन पर की गई मक्कार किस्म की प्रषंसाओं से भरने का प्रयास करती है ताकि वह स्वयं की दुनिया बदलने संबंध में कतई न सोच सके। इसमें सबसे फालतू की कार्यवाही है जो आज की आधुनिक स्त्री का सबसे अधिक समय ‘लील’ जाती है, उसके अन्दर अपने ‘अच्छे दिखने की ललक’ पैदा करना। यह एक ऐसा धारदार हथियार पितृसत्ता के हाथ लगा है जिसके कई फायदे वह उठा रही है और स्त्री सदियों के लिए उसके जाल में फँस चुकी है, गोकि इसके कारण वह अपनी वास्तविक अच्छाई और वास्तविक सौंदर्य के संबंध में सोचने के लिए भी समय नहीं निकाल सकती है। स्त्री को ही क्यों अच्छा दिखना चाहिए? इस प्रष्न पर सोचने की आवष्यकता भी पैदा नहीं होने देता यह सौन्दर्य विमर्ष। पुरुष की कामुकता की कामना को पूरा करने के लिए। पुरुष के सौन्दर्य और प्रसाधन उद्योग से अकूत मुनाफा कमाने के लिए। उस उद्योग का विज्ञापन कर भोली-भाली मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की स्त्रियों में भी अच्छे दिखने की ललक पैदा करके उन्हें भी एक वस्तु में सुन्दर चीज में बदलने के लिए। ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ गाना जब पड़ी लिखी आधुनिक स्त्रियाँ मजे लेकर गाती और सुनती हैं तो तरस आता है उनके मनुष्य होने पर। उनकी चेतना की कुंठित और जड़ हो चुकी अवस्था पर। एक जीती जागती इकाई को ‘चीज’ में बदल दिया गया और वही चीज में बदली इकाई उसे चटकारे लेकर इंजॉय कर रही है। पितृसत्ता की सफलता और स्त्री जाति की असफलता ही इस बात में है कि स्त्री ने स्वयं को ‘चीज’ या वस्तु या माल के रूप में स्वीकार कर लिया है। जब तब स्त्री स्वयं को मनुष्य के रूप में स्वीकार नहीं करेगी मुक्ति का संघर्ष आरंभ करने के संबंध में अपनी और अपनी संपूर्ण जाति की दुनिया बदलने में, नये सिरे से दुनिया को रचने के संबंध में सोचने की प्रक्रिया भी आरंभ नहीं होगी -‘‘उत्पीड़ितों के सर्वनाष का कारण ही यह है कि उनकी स्थिति ने उन्हें मनुष्यों से चीजों में बदलकर रख दिया है। अपनी मनुष्यता को पुनः प्राप्त करने लिए आवष्यक है कि वे चीजें न बने रहें बल्कि मनुष्यों की तरह लडें़। यह एक आमूल-परिवर्तनवादी आवष्यकता है। वे ऐसा नहीं कर सकते कि चीजों के रूप में अपना संघर्ष शुरू करें और सोचें कि मनुष्य बाद में बन जायेंगे।’’(वही पृ.30) स्त्री का चीजों में बदलना स्वयं स्त्री ने स्वीकार कर लिया है क्योंकि वह इसके खिलाफ आवाज नहीं उइा रही है। स्त्री के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ कभी कभार कुछ प्रतिक्रिया दिख जाती है, परन्तु बलात्कार की मानसिकता का मूल उत्स ही स्त्री का चीज में रूपांतरण हो जाना है और चूँकि चीजें प्रतिक्रिया नहीं करती हैं, बदले की कार्यवाही नहीं करतीं हैं, इसलिए पेपर नेपकीन की तरह अपनी गंदगी पोंछ कर उसे कचरेदान में फेंक दिए जाने की मानसिकता निरंतर बलात्कार और अमानवीय हिंसा को जन्म दे रही है और कहीं भी कोई आंदोलनात्मक कार्यवाही स्त्रियों की ओर से सामूहिक तौर पर नहीं चलाई जाती है। कोई आवाज नहीं उठती है स्त्री के वस्तुकरण के खिलाफ। उसे निरंतर वस्तु में बदलते जाने की विज्ञापनीय प्रवृत्तियों की ओर कोई ‘इंकार’ का एक शब्द दिगंतों में नहीं गूँजता है कि बस बहुत हुआ अब नहीं सहन होगा यह। एक ‘इंकार’ ‘बस एक इंकार’ समस्त स्त्री जाति की ओर हर गाँव और नगर और घर से उठना चाहिए। यह ‘एक इंकार’ बबंडर की तरह सारे आकाष में गुँजायमान ‘हो’ और ‘होता रहे’ तब तक जब तक वस्तुकरण की सारी तकनीकें ध्वस्त न कर दी जायें, सारी मानसिकता को समुद्र के नीचे दफन न कर दिया जाये।
यह स्त्री को सोचना है कि उसे स्वयं को वस्तु में तब्दील होने देना है या नहीं। सोचने का अर्थ है उस पर आचरण करना और आचरण क्या सिर्फ एक ‘न’ ही तो कहना है, यह ‘न’ अपनी पूरी नकारात्मक क्षमता से सामूहिकरूप से जब उच्चरित होगा तो तमाम दुनिया का स्वरूप रूपांतरित हो जायेगा। यह ‘न’ नगाड़े की तरह बजना चाहिए लोगों के दिमाग में और जिसे सुनकर लोग सड़कों पर निकल आयें। ‘मै चाहती हूँ कि मेरे शब्द नगाड़े की तरह बजें/ जिसे सुनकर लोग निकल पडें़ अपने घरों से/सड़कों पर।’’ (निर्मला पुतुल, ‘नगाडे की तरह बजते शब्द’ ) दुनिया निहायत खूबसूरत है, बस उसे खूबसूरत देखने की उम्मीद जगाना है। यह ‘उम्मीद’ ही है जो एक जिंदा मुहावरा है। जिसके सहारे हम अपने परिवेष को रूपांतरित कर सकते हैं।
स्त्री की चेतना का वस्तुकरण किस हद तक हो चुका है यह उसे महसूस ही नहीं होता। कभी महसूस करने की कोषिष भी नहीं करती। स्त्रियाँ ऐसा इसलिए नहीं कर पातीं क्योंकि पितृसत्ता ने उनके प्रति होने वाले अमानवीय और नृषंस अपराधों को एक ‘व्यक्तिगत घटना’ के रूप में प्रस्तुत करके वर्गीय चेतना को विच्छिन्न कर दिया है। विघटित अन्तरात्मा अपने से बाहर निकलकर अपनी चेतना का विस्तार कर ही नहीं पाती। यही कारण है कि निरंतर छोटी-छोटी बच्चियों और विवाहिता स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार और अंगभंग तथा हत्या की घटनायें महज एक ‘न्यूज’ बनकर न्यूज पेपर की तरह दूसरे ही पल बासी हो जाती हैं। हमारी व्यक्तिगत सुख, व्यक्तिगत संपत्ति और व्यक्तिगत सुविधाओं की अनुभवगत संवेदनायें अन्ततः इन निरंतर बरती जाने वाली क्रूरताओं को भी ‘व्यक्तिगत क्षण’ मानकर सुख भोग की तरह विस्मृत कर जातीं हैं। पितृसत्ता के इस वर्गीय चेतना से विच्छिन्न और विघटित अन्तरात्मा को सचेतन अन्तरात्मा में बदलने की प्रक्रिया का नाम ‘स्त्री की मुक्ति का विमर्ष’ है।
जब तक समस्त स्त्री जाति किसी के प्रति कहीं भी होने वाले अपराधों को स्वयं पर घटित और स्वयं पर घटित होने के अनुभव से विचलित और विक्षोभित होकर उसकी भर्त्सना नहीं करेंगी तब तक इस तरह का वस्तुकरण और क्रूरतायें निरंतर बढ़ती रहेंगी। सच्चे अनुभव से जनित भर्त्सना विष्व को रूपांतरित करने की दिषा में उठा हुआ एक सार्थक कदम होगा। बिना सत्य का अनुभव किये असत्य की भर्त्सना संभव नहीं है। सत्य को निजी अनुभव की तरह जीना होगा तभी उसके खिलाफ होने वाले अपराधों और अवमाननाओं की मुखालफत की जा सकेगी। वर्चस्वी सत्ता विमर्ष अपने अधीनस्थ जनता को चाहे वे मजदूर हों, उपनिवेषित लोग हों या स्त्री हो को कभी भी एक उत्पीड़ित की चेतना से युक्त अनुभव नहीं करने देते। वे हमेषा उन्हें व्यक्तिगत इकाईयों में विभाजित करके लाभ-लोभ-भय के चक्रव्यूह में उलझाये रहते हैं। यह एक ऐसी तकनीक है जिसके कारण उत्पीड़ित उत्पीड़न का जातीय अनुभव नहीं कर पाते और उसके खिलाफ सामूहिक विरोध की चेतना से अनुप्राणित नहीं हो पाते। ‘स्त्री मुक्ति’ का सबसे बड़ा अन्तर्विरोध ही यह है कि वह एक व्यक्तिगत इकाई या चीज में बदल दी गई है उसे ‘स्त्रीय चेतना’ अनुप्राणित नहीं होने दिया जाता है। स्त्री को स्त्री की इस व्यक्तिगतता से मुक्ति पानी है और स्वयं को एक वर्गीय चेतना से अनुप्राणित होने की आवष्यकता है। यही वह स्थिति है जब स्त्री मुक्ति का संघर्ष सही दिषा में आरंभ हो सकेगा।
स्त्री चेतना को अपने अंदर बैठे पितृसत्ता के द्वारा ‘प्रदत्त स्वरूप’ से भी मुक्त होने की प्रक्रिया आरंभ करनी होगी। स्त्री की परिभाषा में जिन तत्वों को समाहित किया जाता है उनमें वह स्वयं को या तो पितृसत्ता के रूप में देखने लगती है या उसके द्वारा परिभाषित विनम्र, सुकोमल, मृदुभाषी, सुन्दर, दयालु, परिवार के प्रति निष्ठावान, बच्चो को पालने वाली माँ, समपर्णषील, विरोध न करने वाली, सहनषील, चुपचाप रहकर आज्ञा मानने वाली, करुणामयी,  इत्यादि। आज की आधुनिक स्त्री में हमें इन दोनों रूपों का अजीव घालमेल देखने को मिलता है। एक ओर वह पुरुषों की तरह रहन-सहन अपना रही है तो दूसरी और वह स्वयं को परंपरागत रूप में दिखाने को भी बेचेन है। दरअसल इसके पीछे पितृसत्ता की वर्चस्वी विचारधारा है जिसमें वह अपने वास्तविक स्वरूप को कभी नहीं समझ पाती और न उसके अनुरूप आचरण कर पाती है। पितृसत्ता के चस्मे से स्वयं को देखने और दिखाने की आदत उसके संस्कारों में और खून में समागई है। सुन्दरता और सहजता सहगामी होनी चाहिए। कृत्रिम रूप से सुन्दर दिखने की प्रवृत्ति विषुद्व सामंतीय और स्त्रीत्व विरोधी है। कृत्रिमता ने क्रूरता को जन्म दिया है। अपनी ही स्वाभाविक दैहिक स्थिति को हिंसक तरीकों से क्रूरता के साथ पुरुष को अच्छी लगे ऐसा दिखने के लिए विकृत किया जाता है जिसे कॉस्मेटिक सर्जरी कहा जाता है। स्त्री निरंतर अपनी छवि को जो है उससे ‘अच्छा’ (दूसरों की नजरों में कामुक) दिखाने का प्रयास करती है, दरअसल वह अपनी स्वाभाविक सौन्दर्य को विकृत कर रही होती है। मगर इस तरह सोचने का न तो उसके पास वक्त है न दिषा है। वह तो बस दूसरों के सौंदर्य के हंटर से हांकी जा रही है और अच्छा दिखने की होड़ में पागल है। यह विकृति हिंसा है अपने प्रति स्वयं के द्वारा की गई हिंसा। कैसे मुक्त होगी स्त्री अपने प्रति की गई इस हिंसा से? इस स्थिति को बदलने के लिए उसकी शैक्षिक स्थिति की दिषा बदलने की आवष्यकता है। उसे मानवीय स्वभाव और उसकी गरिमा की वास्तविक परिभाषा समझने की आवष्यकता है। स्वयं को एक मानवीय इकाई जानना और मानना और तद्नुसार आचरण करने की आवष्यकता है।
स्त्री की संपूर्ण चेतना दूसरों के द्वारा निर्देषित है, इस अकाट्य सत्य को किसी तथाकथित पढ़ी-लिखी अंग्रेजी में बोलने वाली, कम्प्यूटर पर काम करने वाली, आधुनिक दिखने वाली स्त्री से कही जायेगी तो वह कहने वाले पर हंसेगी। उसे इस बात पर तनिक भी विष्वास नहीं होगा की उसके बारे में जो कुछ कहा जा रहा है वह पूर्णतः सत्य है। यह इस कारण नहीं होगा क्योंकि जो कहा जा रहा है वह वास्तव में ‘पूर्ण सत्य है’ कि उसकी चेतना पूर्णतः पितृसत्ता द्वारा निर्देषित है। पराधीनता की चरम अवस्था यही होती है कि अधीनस्थ व्यक्ति या वर्ग उस अधीनस्थ अवस्था को ही अपना स्वरूप मान ले। इसे आसान शब्दों में कहें तो शेर पिंजड़े को ही अपना प्राकृतिक आवास मान ले तो वह पिंजड़ा खुलने पर भी भागेगा नहीं। स्त्री की चेतना इसी तरह की पराधीनता की स्थिति में पहुँच चुकी है। सुन्दर दिखने वाले कपड़े, गहने, मेकअप, सेंडिल, हेयर स्टाइल, फेसियल, आई ब्रो, दंत पंक्ति, होंठ, नाखून इत्यादि देह के इतने टुकड़े कर दिये गए कि अपनी देह के प्रति एक समग्र चेतना-संवेदना का होना असंभव हो गया। यह तमाम टुकड़े दैहिक चेतना को विघटित करने के लिए ही किये गए हैं। एकाग्रता और अखंडित चेतना ही अपने उत्पीड़न के खिलाफ जाग्रत हो सकती है विघटित और खंड़-खंड़ चेतना सिर्फ गुलामों की तरह का आचरण कर सकती है। स्त्री एक ऐसी मानसिक गुलामी की स्थिति में है जिसमें से निकलने के लिए उसे सदियों तक संघर्ष करना पड़ेगा।
स्त्री चेतना एक मानवीय इकाई है और उसमें किसी भी अतिवादी स्वरूप की स्थिति नहीं है। एक स्वाभाविक मानवीय चेतना समस्त अच्छाइयों और बुराइयों के साथ सहज में उसमें निहित हैं। वैषिष्ट्यीकरण उसे अलग दिखने अलग रहने और अपने ही वर्गीय साथियों के प्रति विद्वेषी और क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने की ओर प्रवृत करता है। पितृसत्ता ने आरंभ से ही स्त्री को कई विषिष्ट केटेगिरी में विभाजित कर रखा है। इसका चरम निदर्षन देवी, सती, और राक्षसी या चुडैल के रूप मंे देखा जा सकता है। एक ओर यदि स्त्री ने स्वयं को देवी की विषिष्टता का पद स्वीकार कर लिया तो दूसरी ओर आप राक्षसी, चुडैल के विषिष्टीकरण से इंकार नहीं कर सकते। इसके बीच में जो अन्य स्त्रियाँ होती हैं वे देवी की प्रषंसा-पूजा और राक्षसी या चुडैल की निंदा करने में स्वयं को अपनी स्थिति से विच्छिन्न कर लेती हैं। पितृसत्ता यही तो चाहती थी कि यह पूरा वर्ग अपनी वर्गीय स्थिति से च्यूत हो जाये और इसमें स्वयं अपने ही वर्ग के प्रति प्रषंसा और हिंसा का भाव पैदा हो। ऐसा ही हुआ। सती के मिथक या विरूपीकरण ने लाखों स्त्रियों को पतिता के निम्नीकृत अभिषाप से उत्पीड़ित कर दिया। सती या देवी अंगुलियों पर गिनी जा सकती हैं, परन्तु पतिता के अभिषाप से उत्पीड़ितों का कोई इतिहास नहीं बन पाया और इस प्रवृत्ति ने उनके प्रति सच्चाई जानने की किसी तकनीक को आविष्कृत नहीं होने दिया। सच्चाई जब जानी ही नहीं गई तो उनके प्रति संवदेनषीलता या सहवेदना का पैदा होना और उनके पक्ष में संघर्ष करना स्वयं में एक अपराध घोषित कर दिया गया। पितृसत्ता ने अपनी वर्चस्वी विचारधारा और प्रभावषीलता के कारण कुछ चंद स्त्रियों को अपने समकक्ष दिखाने का भ्रम पैदा किया और शेष स्त्रियों में उनके प्रति ललक पैदा की। इस ललक के कारण भी स्त्री अपने वास्तविक स्वरूप से विच्छिन्न होती रही। आज भी कुछ स्त्रियों को ‘मुक्त’ दिखाकर एक उन्मुक्तता का भ्रम पैदा किया जाता है। इस काम में मीडिया सबसे अधिक प्रतिगामी भूमिका निभाता है। पूँजीवादी पितृसत्ता का स्वार्थ है कि स्त्रियाँ स्वयं को ‘मुक्त’ नहीं ‘उन्मुक्त’ महसूस करें। यह उन्मुक्तता उनमें उन्माद पैदा करती है और उन्मादी व्यक्ति अपने स्वरूप को समझने में उस पर चिंतन करने के लिए पंगु हो जाता है। आज का विज्ञापन जगत मध्यवर्गीय स्त्रियों में एक उन्माद की हद तक उन्मुक्तता की ललक पैदा कर चुका है। तमाम तरह की विकृतियाँ और विरोध की चेतना का अभाव इस उन्मादपूर्ण स्वरूप के धारण कर लेने के कारण ही है। यह पितृसत्ता के द्वारा स्त्री की चेतना में अपने स्वरूप की प्रतिष्ठा करना है। अब स्त्री दो चरम स्थितियों में जीती हुई दिखाई जाती है। पूर्ण स्वतंत्रता का उपभोग करती हुई या निरंतर परंपराओं का निर्वाह करती हुई। ये दोनों रूप अलग-अलग स्त्रियों के नहीं है। एक ही स्त्री दोनों तरह की स्थितियों को जीती हुई आपको सीरियलों में दिख जायेगी।
स्त्री की यह अपने स्वरूप से विच्छिन्न होने की स्थिति ही है जो उसे उत्पीड़न के वास्तविक रूपांे के प्रति जागरूक नहीं होने देती। बलात्कार अबोध बालिकाओं, ग्रामीण लड़कियों और शहरी आधुनिक युवतियों के साथ समान रूप से हो रहे हैं, परन्तु उनके खिलाफ प्रतिरोध सिर्फ कैंडिल जला कर प्रदर्षन करना नहीं हो सकता। कारपोरेट जगत से जुड़ी पढ़ी लिखी अच्छा पैकेज पाने वाली लड़कियाँ उन बलात्कृत लड़कियों से संवेदना के स्तर पर कितना जुड़ पाती हैं? उनकी वेदना के प्रति सहवेदना का अनुभव कर पाती हैं कभी? शायद नहीं। उसे व्यक्तिगत दुर्घटना की तरह देख-सुन कर अपने शानदार ऑफिसों में कम्प्यूटरों पर काम करती रहती हैं। अपनी बहन के साथ हुए इसी तरह के बलात्कार के बाद भी क्या वे इसी तरह व्यस्त रह सकती हैं? शायद नहीं। यही कारण है कि उनमें बहनापे का सहजात बोध नहीं है। स्त्री अपने को एक उत्पीड़ित वर्ग नहीं मानती यद्यपि उत्पीड़ित सब हैं किसी न किसी रूप में। दूसरी ओर उत्पीड़ित स्त्री भी यह मानती है कि यह एक व्यक्तिगत घटना है। उसे ऐसा लगता है उसके साथ जिन लोगों ने बलात्कार किया है वे व्यक्तिगत रूप से सजा के पात्र हैं। यदि कुछ प्रतिरोध के स्वर दिखाई भी देते हैं तो सिर्फ उस एक व्यक्ति को सजा दिलवाने की हद तक। सवाल उस मनोवृत्ति का होना चाहिए जिसके कारण स्त्री के प्रति इस तरह के अपराध करने को बोध पैदा होता है। बलात्कार एक सामाजिक अपराध है। हमारी सामाजिक संरचना में स्त्री के प्रति जो वस्तुकरण, चीज या माल होने का बोध पैदा किया गया है वह इन अपराधों को करने की मानसिकता पैदा करता है और आचरण करने के लिए उकसाता है। इस वैचारिक स्थिति के खिलाफ लगातार संघर्ष करना आवष्यक है। यह संघर्ष स्त्री को ही करना होगा।
स्त्री मुक्ति का अर्थ स्त्री का पुरुषीकरण होना या पुरुष के स्वरूप को ग्रहण करते जाना नहीं होना चाहिए। स्त्री मुक्ति का अर्थ है उसका मानुषीकरण होना। वस्तुकरण से सजीवितीकरण होना। ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ यह मर्दाना होना स्त्री का विरूपीकरण है। आज पूरा तंत्र यही कर रहा है और स्त्रियाँ भी इसे स्वीकार कर रही हैं। सत्ता में शामिल होते ही वे पुरुष स्वरूप को धारण कर लेती हैं। सत्ता की संरचना का स्त्रीकरण या मानवीयकरण करने के बजाय वे स्वयं को कायान्तरित कर लेती हैं। सत्ता का स्वरूप चाहे वह धार्मिक सत्ता हो, सामाजिक सत्ता हो, राजनैतिक या सांस्कृतिक सत्ता हो, पितृसत्तात्मक ही है। उसके इस स्वरूप को मानुषीकृत करना होगा। पितृसत्तात्मकता को ही अब तक मनुष्य का स्वरूप माना जाता रहा है और स्त्रियों को उसमें समाहित मानने पर जोर दिया जाता है। यह संपूर्ण मानवीय स्थितियों का पुरुषीकरण करना है और ऐसा किया गया है। स्त्री मुक्ति के संघर्ष में तमाम तरह की संरचनाओं के इस पितृसत्तात्मक स्वरूप को बदलकर संपूर्ण मानवीयकृत बनाना होगा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों की समान स्थिति होगी अपने अपने स्वरूप के साथ कोई किसी के स्वरूप को धारण करने के लिए विवष नहीं किया जायेगा कोई किसी के स्वरूप को बदलने के लिए मजबूर नहीं किया जायेगा। सब अपने अस्तित्वगत अनुभवों के साथ अपनी अस्मिता की पहचान के साथ सामूहिक मानवीय दायित्वों का वहन करेंगे। यह एक अनपरखी संभावना है जिसे परखने का अवसर तो मिलना ही चाहिए।
                                                डॉ. संजीव कुमार जैन
                                                सहायक प्राध्यापक हिन्दी
                                  शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
                                           गंज बासौदा (म.प्र.)  मो. 09826458553






























मानसिक गुलामी बरक्स वैचारिक अपंगता
स्त्री मुक्ति का संपूर्ण विमर्ष पूँजीवादी पितृसत्तात्मक वैचारिक परिदृष्य के बीच उसकी अपनी शर्तों और नियमों के अनुसार चलाया जा रहा है। विमर्ष के इस खेल का सबसे मजेदार पहलू है कि इसमें खेलने वालों में जो स्त्रियाँ हैं वे स्वयं को खेल से बाहर समझती हैं परन्तु खेल वे ही खेलती हैं, जो पुरुष प्रतिभागी हैं वे भी वास्तविक खेल से स्वयं को अलग अनुभव करते हैं, पर खेल वे भी खेल रह हैं। इस खेल का जो उद्देष्य है या जो लक्ष्य समूह है वह इस खेल के किसी भी आयाम से जुड़ा हुआ नहीं है। उसे तो संभवतः पता ही नहीं है कि उसकी मुक्ति के लिए कोई विमर्ष का खेल चल रहा है और बड़े जोर शोर से चल रहा है।
खेल का मैदान, खेल के नियम, खेल के औजार, खिलाने वाले रैफरी, निर्णय करने वाले और प्रायोजित करने वाले सब पितृसत्तात्मक पूँजीवादी व्यवस्था के बड़े खिलाड़ी हैं, वे जानते हैं कि इस मैदान में उतरने वाले खिलाड़ी कितनी वैचारिक उछल-कूद मचा लें, इसकी सीमाओं से बाहर नहीं जा सकते और बाहर जो इनके समर्थक टाइप के कुछ लोग हैं वे इसके अंदर नहीं आ सकते। ये सिर्फ जोर आजमाइष कर सकते हैं, परिवर्तन करने लायक ऊर्जा इनके पास नहीं है।

[10:34AM, 3/20/2016] फ़रहत अली खान:-: लेख में स्त्री अधिकारों की बात की गयी। मैं इस बात से सहमत हूँ कि स्त्रियों को उनके अधिकार मिलने चाहिए।
लेकिन पूरी तरह से एकतरफ़ा लेख है ये।
किसी धर्म को जानने के लिए उसके ग्रंथों को पढ़ना ज़रूरी है, अगर केवल उस धर्म के मानने वालों का व्यवहार देखकर ही आप धर्म के बारे कोई राय बनाते हैं तो यक़ीनन आप (जानबूझकर या अंजाने में) बहुत बड़ी ग़लती कर रहे हैं, और ये भी एक प्रकार का अन्याय ही है।
दरअसल पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर किसी के भी बारे में कोई नाक़िस राय बना लेना, अन्याय ही है।

मार्क्स के क़ौल कि धर्म हृदयहीन विश्व का हृदय है, से मैं पूर्णतः असहमत हूँ।
हृदय से जुड़े तमाम पैरामीटर्स मसलन मानवता, न्याय, करुणा, प्रेम आदि की व्याख्या धर्म करता है और इनको अहमियत देता है।
इसके बजाए ये कहा जा सकता है कि 'विज्ञान' हृदयहीन विश्व का हृदय है, क्यूँकि विज्ञान अभी तक इन पैरामीटर्स की न तो पुख़्ता व्याख्या कर पाया है और न ही इनकी एहमियत के बारे में कुछ साबित कर पाया है।
इसलिए मेरा मानना है कि अगर हमें स्त्री अधिकारों की वकालत करनी है तो इसके लिए हमें धार्मिक तथ्यों का ही सहारा लेना पड़ेगा, वैज्ञानिक तथ्य यहाँ हमारी कोई मदद नहीं कर पाएँगे।
[10:45AM, 3/20/2016] आर्ची:-: फरहत जी से सहमत हूँ, जो कुछ समाज में धर्म के नाम पर गलत होता है, उसके मूल में धर्म की गलत व्याख्या और अपने स्वार्थ के लिए गलत उपयोग शामिल हैं. धर्म का मूल उद्देश्य सामाजिक संगठन को बनाए रखना होता है, कुछ प्रावधान जो सामाजिक और सार्वजनिक हित पूर्ति के लिए बनाए गए हों कालांतर में धीरे धीरे विकृत भी हो जाते हैं,जिनकी बेशक पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए परंतु विधर्मी होना बिलकुल जरूरी नहीं है
[2:16PM, 3/20/2016] संजीव:-: स्त्री पर तमाम तरह के शारीरिक और मानसिक नियंत्रण के लिए ऐतिहासिक कारण हैं। वैदिक काल से पूर्व जब आर्य जाति भारत आ रही थी तो उसके साथ बहुत कम स्त्रियां थीं। न के बराबर। भारत में आकर यहां के मूल निवासियों से संघर्ष में आर्यों को जब जीत मिलने लगी तो वे विजितों की स्त्रियों को उठाकर अपने इस्तेमाल के लिए रखने लगे पर उनके भाग जाने का खतरा हमेशा बना रहता था इसलिए उन्हें बाडे में बांधकर रखा जाता था। पैर में रस्सी  या लोहे के प्रयोग के बाद सांकल से बांधकर रखा जाता था। इन्हीं बंधनों के प्रतीक पायल चूडी कान छिदवाना नाक छेदना हैं । ये तरीके पशु और स्त्री के साथ समान रूप से आज तक प्रयुक्त होते हैं। क्योंकि पशुधन और स्त्रीधन पराये घरों से लाया जाता था। बाद में जब स्त्रियां आर्यों के प्रति शीरीरिक रूप से अनुकूलित हो गईं तो पुरुष उसकी सृजन शक्ति से डरता रहा । इसलिए उसके मानसिक अनुकूलन के लिए रीति रिवाज और आचार संहिताएं रची गईं। तमाम तरह के प्रतिबंध उसकी यौनिकता पर लगाये गए क्योंकि वह स्त्री की सबसे बडी सृजनात्मक ताकत इसके बल पर वह साम्राज्यों को उलट सकती थी यदि पुत्रों पुत्रियों पर उसका अधिकार रहता। संतान को पिता के नाम से पहचाने जाने की तकनीक ईजाद करना स्त्री की सृजन क्षमता पर नियंत्रण करने का तरीका ही था। स्त्री मुक्ति के संदर्भ में यौनिकता से मुक्ति के आयाम को ग्रहण करने के पीछे यही ऐतिहासिक प्रतिबंध है।

ललिता यादव:-
जिन स्त्रियों को इन दिनों कष्ट होता है। सच में रूटीन लाइफ से छुटकारा चाहती हैं।
एक सर्वे करा लिजिए
कितनी स्त्रियां स्वतंत्रता होने पर भी निज गृह के मंदिर में माहवारी के समय पूजा करती हैं? कुछ दिलचस्प नतीजे आ सकते हैं। मंदिरों में भी कौन चेक कर रहा है ठाठ से चली जाइये��
मुझे लगता है पूजा के लिए इतना बबाला क्यों?
और कितना कुछ है करने और स्वयं को सिद्ध करने के लिए।

राहुल सिंह:-
स्त्री-मुक्ति विमर्ष पर बहुत कम ही ऐसी सत्य पूर्ण और बेबाक टिप्पणी लेख सामने आते है।
खुद स्त्री सामाजिक जकड़-पकड़ नाते रिश्तों में इस तरह उलझा दी गई है की उसके सहित सारा बुद्धि वादी वर्ग तक, आज उसकी बेबसी को जरुरी बुराई के रूप में यथास्थिति को सही ठहराता  है।
यह वैश्विक प्रश्न है, स्त्री-गुलामी का, और उनकी परिस्थितियां ज्यादा निर्घृण तम हो जाती है, समाज के उस हिस्से में, जो वर्ग-वर्ण-रंग-भेद के निचले पायदानों पर दबा बैठा है। यहाँ स्त्री कुचल-मसल दी जाने के लिए होती है, क्या कुछ ऊपर स्तर की स्त्रियां इसीमे ख़ुशी मना लें, की वे उस निम्न-जगहों पर नहीं है?