डॉ. संजीव कुमार जैन
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की यह पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में एक विचित्र इतिहास रच रही है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जो कि बहुत ही साहस और हिम्मत का काम था, जो मैंने किया, एक वाक्य में इस पर टिप्पणी की जाये तो इस तरह होगी ‘‘हिन्दी आलोचना के इतिहास में इससे अधिक कूढ़मगज, ढेरों असंगतियों और विसंगतियों से युक्त, अन्तर्विरोधी तथ्योें और असंगत भाषा, वाक्यों और व्याकरण से भरी कोई अन्य किताब न है और न होगी। यह असंगतियों, विसंगतियों, अन्तर्विरोधों का अजायबघर कही जाये तो अतिषयोक्ति नहीं होगी।
मुझे यह आष्चर्य होता है कि इसकी प्रषंसा जो लोग कर रहे हैं वे क्यों कर रहे हैं? या तो उन्होंने इसे पढ़ा ही नहीं है और यदि पढ़कर ऐसा कर रहे हैं तो हिन्दी पाठकों के साथ गंभीर मजाक कर रहे हैं। इसके लेखक को न तो भाषा की तमीज है और न विषय की। न वाक्य संरचना की न शब्दों के इस्तेमाल की। न ‘लेखन’ की तमीज है। गद्य की समझ और पकड़ का नितांत अभाव है इसमें। इतना घटिया गद्य लिखने के बाद भी यदि वह हिन्दी आलोचना का सिरमोर बन रहा है तो सोचनीय स्थिति है हिन्दी आलोचना की।
इसका शीर्षक भले ही ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर का कविता और उनका समय’’ हो, परन्तु इसके केन्द्र में न कबीर की कविता है और न उनका प्रेम। यह भी एक विसंगति ही कही जायेगी की लेखक जिसे अपनी बत्तीस वर्ष के निरंतर शोध, जिज्ञासा और अध्ययन का परिणाम बता रहा है, उसमें कबीर पर परिमाण के हिसाब से भी एक चौथाई भाग नहीं लिखा गया है, उनकी कविता पर तो मुष्किल से दसवां भाग भी नहीं है। विषय की दृष्टि से देखें तो विसंगति औश्र गहरा जाती है कि लेखक ने एक भी बात ऐसी नहीं की जो कबीर पर नई सोच या शोध से संबंधित हो। बल्कि कई तो इतनी हल्की और बचकानी है, जैसे विद्यार्थी सीरीज की गाइडों में मिलती हैं। कबीर केन्द्र में नहीं हैं तो फिर क्या है इस किताब के केन्द्र मे? ठेठ भाषा में कहा जाये तो ‘शुद्ध बकवास’ के अलावा कुछ भी नहीं है इस किताब में।
शुद्ध बकवास इसलिए कि लेखक ने जिस देषज आधुनिकता बनाम औपनिवेषिक आधुनिकता और ज्ञानकांड जैसे शब्दों का संजाल (अवधारणात्मक विचार या दृष्टि का नितांत अभाव है अतः शब्दों का संजाल कहा है।) बुना है और जिसके जाल में पूरा हिन्दी प्रदेष और हिन्दी के विद्वान फंस गये हैं, उसका क, ख, ग भी लेखक को नहीं पता। इसमें प्रयुक्त:आधुनिकता’ की समझ को लेखक के शब्दों में ही देखें तो उसकी समझ पर आपको तरस आयेगा।
पृष्ठ 67 के तीसरे पैरा का दूसरा वाक्य ‘‘आधुनिकता के बाद ही समाज प्रबोधन की दिषा में बढ़ता है।’’ और चौथे पैरा का दूसरा वाक्य ‘‘इतिहास क्रम में प्रबोधन आधुनिकता के पीछे ही आता है।’’ सबसे पहले तो इन दोनांे वाक्यों में प्रयुक्त क्रिया को देखें और लेखक की भाषा समझ पर तरस खाने के अलावा कुछ कर नहीं सकते। ‘बढ़ता है’’ और ‘आता है’’ दोनों में वर्तमान सातत्य बोधक अनिष्चत काल की क्रिया का उपयोग किया गया है जैसे कि किसी सार्वभौमिक सत्य के बारे में लिख रहा हो। जैसे कि सूरज उगता है, वारिष के बाद बाढ़ आती है, राम खाता है, घोड़ा दौड़ता है इत्यादि। जिस आधुनिकता और प्रबोधन के संबंध में लेखक लिख रहा है वह इतिहास में स्वयं लेखक के अनुसार ही चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में हो चुकीं हैं। क्या इस तरह की क्रियाओं का प्रयोग संगत है? तो क्यों हम इस किताब को पढ़कर अपना समय खराब कर रहे हैं।
अब जरा लेखक की आधुनिकता और प्रबोधन की समझ की संगति के बारे में बात करलें। सबसे पहले तो मैं माननीय प्रतिष्ठित आलोचक महोदय को एक सलाह देने की हिमाकत करूंगा कि वे आधुनिकता के संबंध में कम से कम रमेष कुन्तल मेघ की पुस्तक ‘‘आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण’’ को गौर से पढ़ लें। यदि उसे पढ़ने का समय और क्षमता आप में न हो तो राजकमल से प्रकाषित ‘‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’’ में आधुनिकता और पुनर्जागरण की अवधारणा को ही पढ़ लें। इस विषय के अधिकारिक विद्वानों को पढ़ने की सलाह में नहीं दे सकता, क्योंकि उन्हें पढ़वाकर उनका अपमान नहीं करूंगा।
महोदय, निवेदन है कि इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है कि ‘प्रबोधन’ (रिनँसां) पहले आया था और उसके परिणाम स्वरूप आधुनिकता का जन्म हुआ। आपने यह गाड़ी के पीछे इंजन लगा कर क्यों अपनी और अपने गुरुओं की थोड़ी बहुत बची-खुची इज्जत को सरेआम नीलाम कर दिया।
आधुनिकता और प्रबोधन के संबंध में लेखक के दोनों ही कथन असंगत हैं तो इस आधार पर लिखी गई पूरी किताब में कुछ भी संगत कैसे हो सकता है? अगला वाक्य है ‘‘आधुनिक होने के पहले कोई समाज प्रबुद्ध नहीं हो सकता।’’ समाज तो आधुनिक होने के बाद भी प्रबुद्ध नहीं होता तो आप क्या कर लेंगे, जैसा कि भारतीय समाज और यूरोप का पूरा समाज आधुनिक बाद में हुआ पहले प्रबुद्ध हुआ। कैसे? यह आगे बात करेगंे। लेखक आगे लिखता है ‘‘यूरोप में आरम्भिक (आधुनिक काल, कहना चाहता है और कह दिया आरंभिक काल, इस तरह की असंगतियाँ पूरी किताब में भरी पड़ी हैं।) काल शुरू हुआ पंद्रहवीें सदी में। प्रबोधन (एनलाइनमेंट) का दौर शुरू हुआ सत्रहवीं सदी से।’’ एक ही पृष्ठ पर तीन बार लेखक उल्टी गंगा बहा रहा है और लोग उसकी तारीफ किये जा रहे हैं। आष्चर्य हो रहा है हिन्दी विद्वानों की समझ और सोच पर। इतना असंगत लिखते हुए भी यह किताब कैसे छप गई और कैसे चर्चा का विषय बनी हुई है? समझ से परे है? क्या होता जा रहा है हिन्दी के पाठकों और विद्वानों को? क्या हमने अपनी सोचने विचारने की क्षमता को बिल्कुल ही गिरवी रख दिया है या स्वनामधन्य नामवरों के आतंक से इतने आतंकित की अपनी वैचारिक क्षमता को ही खो चुके हैं।
प्रबोधन का युग सबसे पहले इटली में 14 वीं सदी में प्रारंभ हुआ था। इसके बाद फ्रांस, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देषों में प्रबोधन का प्रसार हुआ। हिन्दी आलोचना की परिभाषिक श्ब्दावली के पृष्ठ 312 पर लिखा है ‘‘14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक के समय को यूरोप में पुनर्जागरण काल कहा जाता है।’’ आगे पृष्ठ 313 पर लिखा है कि नवजागरण की कल्पना के प्रचार का श्रेय इटली के नवजागरण के प्रथम इतिहासकार वर्कहार्ट को है, यद्यपि रिनँसां शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांसीसी इतिहासकार दार्षनिक मिषेसेट ने 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में किया था।’’ इसी पुस्तक में आधुनिकता के बारे में लिखा है पृष्ठ 83 पर लिखा है 6‘ आधुनिकतावाद का युग यूरोप में उन्नीसवीं सदी से शरू होकर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक माना जाता है।’’ इसी पृष्ठ पर आधुनिकता को परिभाषित करते हुए लिखा है ‘‘आधुनिकता का संबंध आधुनिकीकरण के फलस्वरूप पुरातन तथा परंपरागत विचारों एवं मूल्यों, धार्मिक विष्वासों और रूढ़िगत रीति रिवाजों के विरूद्ध नवीन और वैज्ञानिक आविष्कारों, विचारों, नए मूल्यों आदि से है। ‘आधुनिकीकरण’ शब्द उन समस्त परिवर्तनों तथा प्रक्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाता है जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत औद्योगीकरण तथा यंत्रीकरण के कारण प्रकट हुई है।’’ इन दोनों उद्धरणों के आलोक में इस पुस्तक की आधुनिकता संबंधी बकवास को पढे ंतो हजारों असंगतियाँ प्रकट हो जाती हैं। आधुनिकता का पूरा इतिहास और मार्क्स सहित सभी विचारक यह मानते हैं और प्रमाणित करते हैं कि आधुनिकता का संबंध औद्योगिकीकरण से है। जबकि विद्वान् आलोचक पृष्ठ 105 पर लिखता है कि ‘‘आधुनिक विचारों और रूझानों का कार्यकारण संबंध औद्योगिकीकरण से नहीं व्यापार से है।’’ मार्क्सवादी गुरू परंपरा का यह षिष्य किसतरह मार्क्स के सिद्धांत को उलटा लटका रहा है और पूरा भारतीय मार्क्सवादी समाज उसकी प्रषंसा कर रहा है। लेखक को इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान होता तो शायद वह यह कभी नहीं लिखता क्योंकि भारतीय व्यापार तो ईसा पूर्व की दूसरी तीसरी सदी में इससे अधिक विस्तृत था। प्लनी ने व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में होने पर चिन्ता जताई थी और रोम को भारत से व्यापार बंद करने की सलाह दी थी। यदि व्यापार से ही आधुनिकता का संबंध होता तो भारत तो ईस्वी सन् के प्रारंभ में ही आधुनिक हो चुका होता। गुप्त युग तक व्यापार के विकास की स्थिति बहुत विकसित थी।
नई सोच, आस्था पर तर्क की विजय, ईष्वर के स्थान पर मनुष्य की प्रतिष्ठा, नई भौगोलिक खोजों, नई वैज्ञानिक खोजों, नई तकनीक, नई कला, नया साहित्य। इन सबने मिलकर यूरोप को जैसे सोते से जगा दिया था। यह सब 14 वीं सदी से सोलहवीं सदी तक होता रहा। इस सबके परिणामस्वरूप उत्पादन की नई तकनीक का विस्तार और आद्योगिकीकरण ने यूरोप को आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। इस तरह 17वीं सदी से आधुनिकता का वास्तविक प्रारंभ माना जा सकता है। यदि प्रबोधन से भी आधुनिक युग का प्रारंभ मानें तो भी प्रबोधन कारण है और आधुनिक युग कार्य। पर लेखक ने तो ठीक उल्टा ही कर दिया। इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखने का मन है और लेखक की हजारों असंगतियाँ इस संबंध में पूरी किताब में भरी पढ़ीं हैं जिन्हें फिर कभी प्रस्तुत करूंगा।
यह तो इस पुस्तक के आधार की मुख्य असंगति की ओर एक इषारा भर था। इस पुस्तक की छोटी-छोटी मगर बहुत महत्वपूर्ण असंगतियाँ और विसंगतियाँ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मैं इसके पहले अध्याय की कुछ बहुत ही स्थूल असंगतियों और विसंगतियों को सप्रमाण यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। पूरी किताब की असंगतियाँ और विसंगतियाँ लिखने के लिए इससे भी बड़ी पुस्तक लिखना पडे़गी।
इस पूरी किताब की मुख्य विषेषता है जुमलेबाजी। इसमें बहुत महत्वपूर्ण अवधारणाओं को बहुत चलते ढंग से इस्तेमाल किया गया है, जैसे ‘उत्तर अधुनिकता’ आज के युग की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा को जितनी बार भी प्रयोग किया गया है, उतनी ही बार उसकी मूलचेतना को समझे बिना। इसी तरह ‘आधुनिकता’ और ‘ज्ञानकांड’ जैसी अवधारणाओं को जिन्होंने पूरी दुनिया का नक्षा बदल दिया, बहुत ही सरलीकृत और बिना अवधारणात्मक चेतना के प्रयोग किया है, जो बहुत ही गंभीर मसला है हिन्दी आलोचना के लिए।
अध्याय एक: जो कलिनाम कबीर न होते ...’ जिज्ञासाएँ और समस्याएंँ का पहला उप अध्याय है ‘बैचेनी, जिज्ञासा और यात्रा: कबीर से मेरा नाता।’’ यहीं से असंगति और विसंगति की बात प्रारंभ की जाए।
इस अध्याय का पहला ही ‘पैरा’ ‘‘कबीर के अध्ययन की समस्याएँ - भक्ति संवेदना के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्याएँ भी हैं।’’ इस वाक्य में अर्थगत असंगति है। इस एक वाक्य में तीन अलग-अलग समस्याओं को एक ही लाठी से हांकने की कोषिष की गई है जो कि असंगत है। असंगत आलोचक के लिए भी है, इसीलिए इस एक वाक्य का अर्थविस्तार पूरे अध्याय में कहीं भी नहीं है। यह एक विसंगति है कि वो कौन सी समस्यायें हैं कबीर के अध्ययन की जो भक्ति संवेदना के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की समस्यायें भी हैं, यह नहीं बताया गया।
तीन अलग अलग तरह की चीजों की समस्यायें एक ही कैसे हो सकती हैं -
(1) कबीर के अध्ययन की समस्यायें,
(2) भक्ति संवेदना के अध्ययन की समस्यायें,
(3) भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्यायें।
इसमें असंगति यह है कि कबीर एक व्यक्ति हैं उनके अध्ययन की समस्यायें बिल्कुल अलग होंगी जो ‘भक्ति संवेदना’ के अध्ययन की समस्याओं से नहीं मिल सकती, क्योंकि भक्ति संवेदना एक प्रवृत्तिपर अवधारणा है जिसका विस्तार कबीर के समय तक भी लगभग एक हजार वर्ष में फैला हुआ है। तीसरी बात है जिसे दूसरी से मिला दिया गया है, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की समस्यायें जो न भक्ति संवेदना के अध्ययन की समस्यायें हो सकती हैं और न कबीर के अध्ययन की।
पृ. 15 का दूसरा पैरा ‘‘भारत, बल्कि किसी भी गैर यूरोपीय समाज के अतीत और वर्तमान को समझने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है - चेतना का उपनिवेषीकरण।’’ इसमें असंगति यह है कि भारत यहाँ एक राष्ट्र के रूप में संबोधित है जबकि अन्य जगह ‘भारतीय समाज’ पद का प्रयोग किया गया है। इस स्थल पर भारतीय समाज होना चाहिए था। विसंगति यह कि यहाँ ‘गैर यूरोपीय समाज’ पद के साथ भारतीय समाज संगत होता। दूसरी विसंगति यह है कि भारत के अतीत और वर्तमान को समझना और किसी भी गैर यूरोपीय समाज को समझने की आपसी संगति बैठाने के लिए एक नहीं इस जैसी कई किताबें लिखना पढेंगी तब भी षायद संभव न हो और ‘गैर यूरोपीय समाज’ जैसा कोई समाज इस दुनिया में न था और न है। गैर यूरोपीय देष तो हैं, परन्तु समाज पद का प्रयोग इस प्रसंग में असंगत है। इस पर भी विचार करें कि जब भारत जैसे विषाल देष के विभिन्न समाजों को समझने का एक ही फार्मूला संभव नहीं है तो गैर यूरोपीय समाजों तक को इस फार्मूले में कैसे सरलीकृत किया जा सकता है। इस ‘गैर यूरोपीय’ पद का प्रयोग कई जगह किया गया है, परन्तु विसंगति यह कि कहीं भी इसे मूर्त रूप देने की या विवेचित करने की कोषिष नहीं की गई है। वह इसलिए कि ऐसा करना या होना असंभव है। अब बात करें ‘चेतना के उपनिवेषीकरण’ पद की। यह पद आगे के वाक्यों, या पैराओं से अपनी संगति नहीं बैठा पाता है। कहीं भी, किसी भी रूप में ‘चेतना के उपनिवेषीकरण को स्पष्ट करने की कोषिष लेखक ने नहीं की है। जो कि एक अच्छे गद्य की मांग के अनुरूप अगले ही वाक्य में होनी चाहिए थी।
इसी पैरा का अगला वाक्य है ‘कुछ लोगों को लगता है कि अंग्रेजी राज की स्थापना से पहले का भारत धरा पर स्वर्ग समान था।’ अब इसे चेतना का उपनिवेषिकरण समझा जाये क्या? पर नहीं लेखक ऊपर की बात का स्पष्टीकरण नहीं कर रहा। यह भी एक विसंगति है जो पूरी किताब में व्याप्त है कि अधिकांषतः एक ही पैरा के सारे वाक्य अलग-अलग और आपस में असंबद्ध और असंगत होते हैं। अब इसकी अर्थगत असंगति को देखें। इस वाक्य की अर्थ ध्वनि यह है कि भारत को स्वर्ग समान मानना जैसे कोई अपराध है जो ‘कुछ लोग’ करते हैं, तो शायद यह बताना मूर्खता होगी की ऐसा अपराध ‘कुछ लोग’ नहीं ‘अधिकांष लोग’ करते हैं और इसमें हमारे सारे विचारक, दार्षनिक और सिद्धांतकार भी शामिल हैं। इस वाक्य की दूसरी अर्थ ध्वनि है कि उन ‘कुछ लोगों’ को ऐसा नहीं लगना चाहिए था। विसंगति यह है कि पूरी किताब में लेखक ने यही कोषिष की है कि ‘अंग्रेजी राज के पहले का भारत धरा पर स्वर्ग समान था यह बात सिद्ध हो जाये।’ इस बात को लेखक बार-बार ‘देषज आधुनिकता’ की अवधारणा से प्रस्तुत करता है। इसमें एक विसंगति और है वे ‘कुछ लोग’ कौन हैं? इस बारे में लेखक अन्त तक मौन है। क्यों? कारण स्पष्ट है कि वे ‘कुछ’ नहीं ‘अधिकांष’ लोग हैं जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। एक अन्य विसंगति यह उभर कर सामने आती है, दर असल ‘कुछ लोग’ वे हैं जिनकी चेतना का उपनिवेषिकरण हो गया है और जो भारत को स्वर्ग समान नहीं मानते हैं। यदि इस वाक्य को पहले वाक्य की संगति में पढ़ा जाये और जैसा कि गद्य की मांग होती है, पढ़ा ही जाना चाहिए तो विसंगति साफ हो जाती है कि दूसरा वाक्य पहले वाक्य के ‘चेतना के उपनिवेषीकरण’ के ठीक उलट है। इसका तीसरा वाक्य - ‘हमारी हर समस्या विदेषियों की देन है।’ इसे दूसरे वाक्य के ‘कुछ लोगों को लगता है’ के साथ ही पढ़ा जायेगा। अब यदि ये वे ही ‘कुछ लोग है’ जिन्हें भारत धरा पर स्वर्ग समान लगता था, तो जाहिर कि हमारी हर समस्या विदेषियों की देन, ऐसा मानना या लगना जायज है, परन्तु लेखक पहली बात के विपक्ष में है और दूसरी बात के पक्ष में, क्योंकि अगले ही वाक्य में इसकी विसंगति उभर कर सामने आ जाती है। जिसमें स्वयं के लिए समस्यायें पैदा न कर पाने की सामर्थ्य के अभाव की बात कही गई है।
चौथा वाक्य इस किताब का सबसे अधिक असंगत वाक्य है। ध्यान से पढें़ इस वाक्य को ‘‘दूसरे शब्दों में, अपनी समस्यायें हल तो हम क्या करेंगे, इतनी भी सामर्थ्य परमात्मा ने भारतीयों को नहीं दी है कि अपने लिए कुछ समस्यों खुद भी पैदा कर सकें।’’ दुनिया में ऐसा कौन सा विचारक या व्यक्ति होगा जो परमात्मा से स्वयं अपने लिए स्वयं ही समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य देने की मांग करेगा? कोई स्वयं के लिए खुद ही समस्याएं पैदा करेगा? यह वाक्य अपने आप में दुनिया का सबसे असंगत वाक्य कहा जायेगा। फिर है! विदेषी आत्मन् (पुरुषोत्म अग्रवाल जी) भारतीय परमात्मा समस्यायें हल करने की सामर्थ्य देने की तो सोच सकता है, समस्यायें पैदा करने की नहीं।
इस वाक्य की शब्दगत असंगतियों को देखें - पहली असंगति यह कि यह वाक्य जिन शब्दों - ‘दूसरे शब्दों में,’ से प्रारंभ होता है, जिसका अर्थ है कि यह वाक्य ऊपर कही गई बात को ही स्पष्ट करेगा, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है, क्योंकि इसमें भारतीयों में समस्यायें हल करने की सामर्थ्य तो है नहीं, समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य भी परमात्मा ने नहीं दी (अर्थात् भारतीय नपुंसक हैं जो कुछ भी नहीं कर सकते, इसमें स्वयं पुरुषोत्तम अग्रवाल और उनके स्वनाम धन्य गुरु भी शामिल हैं) यह कहा गया है जिसका ऊपर के वाक्यों से कोई संबंध नहीं है। दूसरी असंगति यह कि ‘सामर्थ्य’ शब्द का प्रयोग समस्यायें पैदा कर सकने के लिए किया गया है जो कि एकदम असंगत है। सामर्थ्य समस्यायें हल करने की हो सकती या हल करने की नहीं हो सकती, परन्तु समस्यायें पैदा करने की सामर्थ्य न! बा बा! न! किसी भी भाषा में संभव नहीं, सिर्फ पुरुषोत्तम अग्रवाल को छोड़कर। एक अन्य असंगति यह है कि यह अन्तिम वाक्य विदेषियों की तरफ से कहा गया है, क्योंकि इसमें ‘भारतीयों को नहीं दी’ कहा है जिसका सीधा सा अर्थ है कि कोई बाहरी व्यक्ति यह बात कह रहा है। वह कौन है? इसका प्रमाण देना आवष्यक नहीं समझा गया और ऐसा सभी स्थलों पर हुआ है। विसंगति यह है कि जिस वाक्य के स्पष्टीकरण के रूप में यह वाक्य आया है उसमें ‘कुछ लोग’ भारतीय हैं न कि बाहरी। इसके अलावा इस वाक्य में एक और असंगति है, वह यह कि इसकी अर्थ ध्वनि यह है कि स्वयं अपने लिए समस्यायें पैदा कर सकने की सामर्थ्य का न होना कोई खेदजनक बात है, जो भारतीयों के पास नहीं है और विदेषी जो न केवल स्वयं के लिए बल्कि हम भारतीयों के लिए भी समस्यायें पैदा करते रहे हैं यह बहुत ही नेक काम हो।
इस किताब के इस दूसरे ही पैरा में ‘पाठगत’ असंगति भी देखी जा सकती है कि पैरा जिस बात से प्रारंभ हुआ, अन्त होते होते बात बिल्कुल ही बदल गई। यह असंगति इसी पैरा में हो ऐसा नहीं है, यह पूरी किताब की खास विषेषता है। गद्य की थोड़ी भी समझ रखने वाले हम जैसे लोग भी यह बात जानते हैं कि एक पैरा में पहला वाक्य जो बात कहता है और आगे के सारे वाक्य लगभग उसी से संबद्ध बातें कहते हैं या उसकी व्याख्या करते हैं, या स्पष्टीकरण करते हैं, या प्रमाणित करते हैं, परन्तु इस किताब में ऐसा नहीं हुआ, जो गद्य की विडंबनात्मक विसंगति ही कही जायेगी।
पृष्ठ 16 के पैरा तीन का दूसरा वाक्य ‘गहराई के साथ ‘गुजरना’। इस वाक्य में असंगति यह है कि गहराई के साथ ‘जुड़ना’ शब्द अधिक संगत है ‘गुजरना’ नहीं। पैरा चार की तीसरी पंक्ति में ‘निरन्तर चलती आ रही’ में ‘चलती’ षब्द असंगत है। इसके स्थान पर ‘चली आ रही’ होना चाहिए। ‘ती’ प्रत्यय अनिष्चित वर्तमान का द्योतक है और ‘रही’ सतत् भूतकाल का दोनों एक साथ कालगत असंगतता की प्रतीक हैं।
इसी पृष्ठ का पांचवां पैरा इस तरह प्रारंभ होता है ‘‘दस वर्ष बीत चले। सन् निन्यानवें के दिसम्बर में बनारस में नवलदास जी से भेंट हुई थी।’ इन दो वाक्य में पहला वाक्य इस पूरे प्रसंग में कोई अर्थ नहीं रखता और उसकी टोन भी गद्य के अनुकूल नहीं है। किस बात के लिए दस वर्ष बीत चले इसका कोई सुसंगत संदर्भ नहीं है। अगले वाक्य में जब आप ‘सन्’ शब्द का उल्लेख कर रहे हैं और इसके पहले किसी तरह के काल का कोई संदर्भ नहीं है तो यह वाक्य असंगत है। दूसरी असंगति यह है कि पृष्ठ 18 के पहले पैरा में लिखा है कि ‘‘एकेडमिक ढंग से कबीर का अध्ययन शुरु किए बीस बरस हो चुके थे, जब नवलदास जी से मिला था।’’ इसके बाद का वाक्य है ‘‘दस बरस और बीत चुके।’’ पहले का ‘दस वर्ष बीत चले’ ‘और बीत चुके’ में बदल गया। अब इन दोनों वाक्यों की संगति बैठाने की कोषिष कीजिए? इस सन् निन्यानवें को आप भूमिका के ठीक बत्तीस बरस हो चुके हैं दिल्ली आये और इसके पहले लिखा है कि बत्तीस बरस हो चुके कबीर पर टर्म पेपर लिखे हुए। इन दानों बत्तीस बरस की असंगति इस बात में है कि लेखक ने ग्वालियर से दिल्ली आकर जेएनयू से एम. ए. किया और 1985 में कबीर पर पीएच.डी. की थी। अब आप इन तिथियों की संगति बिठायेंगे तो आपको कबीर के जन्म की तिथि से अधिक मेहनत करनी होगी और लगभग सभी तिथियाँ एक दूसरे को गलत सिद्ध कर देंगी। यह बहुत बड़ी विसंगति है कि एक नामधारी आलोचक नामघारी आलोचकों की अनुषंसा और आषीर्वाद के तले इस तरह की आलोचनायें लिखे और पूरा हिन्दी प्रदेष उसकी तारीफ में ताली बजाये।
अब हम अपने मूल पैरा की अन्य असंगतियों को देखें - ‘सन् निन्यानवें के दिसम्बर में’ यह वाक्य आपको हिन्दी की प्रकृति के कितने अनुकल लग रहा है? जरा ध्यान से सोचें कि आपने किसी आलोचनात्मक गद्य की पुस्तक या लेख में इस तरह का वाक्य कहीं कभी पढ़ा या सुना है? शायद नहीं। भाषा की दृष्टि से दाल में कंकड़ की तरह खटकता है और अर्थ की दृष्टि में ‘सन् निन्यानवें’ का कोई मतलब इस प्रसंग में नहीं है। इस पूरे संदर्भ में आप सन् के स्थान पर ‘उन्नीस सौ’ लिखते तो सुन्दर और संगत होता दूसरी बात इस सन् लिखने की कोई बहुत अधिक आवष्यकता नहीं है। आप निन्यानवें में मिले या 2000 में, दिसम्बर में मिले या मार्च में इससे कोई फर्क इस विष्लेषण पर पढ़ने वाला नहीं है। आप मिले और इस शोध पर क्या फर्क पड़ा यह महत्वपूर्ण है, जो आगे के विवेचन में उपलब्ध नहीं है। नवलदास जी ने कबीर की अकथ कहानी के बारे में क्या जानकारी दी? यह ज्यादा महत्वपूर्ण है यदि दी हो तो! क्योंकि आगे आपने जो उनकी मुलाकात का विष्लेषण किया है वह भी विषय विवेचन की दृष्टि और तर्कसंगतता की दृष्टि से असंगत है।
आपने नवलदास जी की जो विषेषता प्रतिपादित की है जरा उसकी संगति और औचित्य को भी देख लिया जाये। इसी पैरा के तीसरे चौथे वाक्य में आपने लिखा ‘‘संस्कृत और अंग्रेजी दोनों से अनभिज्ञ होने के कारण, हिन्दी भी बस पढ़ ही सकने के कारण, ‘पढ़े’ लिखे लोगों के मुहावरे में नवलदास ‘अनपढ़’ कहे जायेंगे।’’ सबसे पहले तो आप स्वयं उनकी इस ‘अनपढ़ता’ को बता कर स्वयं अपने पर ही व्यंग्य कर रहे हैं, क्योंकि आप ही वह पढ़े लिखे हैं जो उनके बारे में इस तरह की बात लिख रहे हैं, जैसे उनकी जीवनी लिख रहे हों। सामान्य षिष्टाचार भी यह कहता है कि आप किसी से मिलें तो उसके बारे में उसकी योग्यतायें और अच्छाइयाँ ही बखान करें बषर्तें उनकी जीवनी न लिख रहे हों और फिर कबीर जैसे व्यक्ति पर शोध के संबंध में आप जिस व्यक्ति से मिल रहे हैं, वह अनपढ़ होगा यह आपकी विद्वता ही कह सकती है, अन्य किसी की सामान्य बुद्धि तो नहीं।
श्री नवलदास जी अनपढ़ हैं या नहीं पर जिस वाक्य से आपने उनको अनपढ़ सिद्ध किया है, उस वाक्य से आपका ‘पढ़क्कूपन’ अवष्य सिद्ध हो रहा है? जरा देखें इस वाक्य में आये आये इस उप वाक्य को ‘‘हिन्दी भी बस पढ़ ही सकने के कारण’ यह वाक्य किसी हिन्दी पढ़े लिखे का तो नहीं ही लगता। खास तौर से ‘पढ़ ही सकने’ पद पर ध्यान दीजिये और इसकी संगतता पर गौर कीजिए। इसमें आये ‘भी’, ‘बस’, ‘ही’ ‘सकना’ इतने सारे सामर्थ्य और अनिवार्यता बोधक शब्दों का इस्तेमाल आपको किसी अन्य उपवाक्य में नहीं मिलेगा। दूसरी असंगति पूरे वाक्य में यह है कि ‘होने के कारण, हो सकने के कारण,’ दो बार एक ही तरह के सामर्थ्य बोधक शब्दों का प्रयोग भी असंगत है। इस वाक्य को इस तरह लिखा जाता तो कुछ संगत होता ‘‘संस्कृत और अंग्रेजी से अनभिज्ञ होने और थोड़ी बहुत हिन्दी जानने के कारण आप अनपढ़ कहे जा सकते हैं।’’
आगे उनसे मुलाकात का विवरण दिया है कि नवलदास द्वारा कबीर बानी की व्याख्या सुनकर लेखक को एकाएक लगा, ‘‘अरे! ये तो वैसी ही बातें कर रहे हैं, जैसी मुझे बचपन में सूझा करतीं थीं।’’ इसकी असंगति यह है कि लेखक को नवलदास से मिलकर आत्मबोध हुआ जबकि लेखक उनसे मिला (संभवतः) कबीर के बारे में जानने के लिए था। दूसरी बात यह है कि लेखक को नवलदास की अध्यात्म की बातें बचपन में ही सूझ चुकीं थीं। इससे दो बातें सिद्ध हो रहीं हैं एक तो लेखक बचपन से ही आत्मज्ञानी किस्म के संत रहे हैं, क्योंकि जिस तरह की बातें आपने आगे लिखीं वह किसी आत्मज्ञानी और पहुँचे हुए संत को ही सूझ सकती हैं, प्रोफेसर को नहीं और फिर बचपन में...............?
आगे लिखा है कि ‘‘उन दिनों (मतलब बचपन में) जब सहजबोध तरह -तरह के शास्त्र ज्ञान और विमर्षों से आच्छादित नहीं हुआ था।’’ पहली असंगति यह कि बचपन में किसका ‘सहजबोध’ शास्त्रज्ञान और विमर्षाें से आच्छादित होता है, पता नहीं? दूसरी असंगति यह कि सहजबोध कहते ही उसे हैं जो बिना किसी कृत्रिम साधन के उत्पन्न होता है। जो शास्त्र ज्ञान और विमर्षाें से आता है वह सहजबोध होता ही नहीं है। ‘उन दिनों,...(मतलब बचपन में लेखक को इतनी गहरी दार्षनिक अनुभूति होती है)....‘‘जो कुछ है, भीतर या बाहर, संसार भर में, सब एक अखण्ड का ही पसारा है। इस अनादि अनन्त जगत के परे कौन परमात्मा हो सकता है? कहाँ हो सकता है?’’ इस पूरे ‘शब्द समूह’ (वाक्य तो मैं कह नहीं सकता) को जरा गौर से पढें तो बहुत सारी असंगतियाँ एक साथ दिखाई देंगी। ‘भीतर या बाहर’ में ‘या’ नहीं ‘और’ होना चाहिए, क्योंकि आगे ‘संसार भर’ में लिखा है। जब भीतर या (और) बाहर लिख दिया तो ‘संसार भर’ में लिखने की आवष्यकता नहीं है, क्योंकि लेखक अपने आत्मबोध के बारे में बात कर रहा है। ‘भीतर या बाहर’ और ‘संसार भर’ में एक साथ एकदम असंगत हैं।
अब आगे के शब्द समूह पर विचार करें ‘‘इस अनादि अनन्त जगत के परे कौन परमात्मा हो सकता है? कहाँ हो सकता है?’’ इसमें जो दो प्रष्नसूचक शब्द और प्रष्नवाचक चिहृ दिये हैं, इनकी संगति को गौर से देखें। पहला प्रष्न जो अर्थ ध्वनि दे रहा दूसरा ठीक उससे उल्टी। पहले प्रष्न से ऐसा महसूस हो रहा है कि लेखक यह कह रहा है कि इस अनादि अनन्त जगत से परे कोई परमात्मा नहीं हो सकता? ‘कौन परमात्मा हो सकता है?’ का यही अर्थ है कि कोई नहीं हो सकता। दूसरा प्रष्नवाचक वाक्य कह रहा है यदि वह इस अनादि अनन्त जगत से परे है तो कहाँ रहता है? ये कौन और कहाँ के बीच की दूरी का ज्ञान न होना हिन्दी गद्य को विसंगतिपूर्ण बना रहा है।
अन्य विसंगति यह कि इतने दार्षनिक प्रष्न लेखक को ‘उन दिनों’ यानि बचपन में उठ रहे थे और इसकी अनुभति नवलदास से मिलकर हुई। खैर, आगे बढें, नवलदास का यह प्रसंग दो तीन पैराग्राफों तक चलता है, परन्तु इनमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जिससे कबीर के बारे में कोई जानकारी लेखक को मिली हो।
संगत प्रष्न यह उठाया जाना चाहिए इस असंगति के बीच से कि भई आखिर आप दस बर्ष बीत चले पर’ नवलदास जी से क्यों मिले थे?
पृष्ठ 17 का दूसरा पैरा इस तरह प्रारंभ होता है ‘‘भगत नवलदास बता रहे थे-मैं उनकी बानी को अपने शब्दों में ढाल रहा था - सर्वव्यापी, अखंड चेतन का बोध मनुष्यमात्र का जन्मजात बोध है।’’ इस वाक्य को सुनकर आपको गणेष जी कि वह कथा याद नहीं आई जिसमें एक ऋषि बोलते हैं और गणेष जी ग्रंथ लिखते हैं। मजेदार बात यह है कि अब तक लेखक अपने बचपन से बाहर नहीं आया बल्कि जन्म के समय तक पहुँच गया। ‘सर्वव्यापी, अखंड चेतन का बोध मनुष्यमात्र का जन्मजात बोध है।’’ अगर ऐसा बोध जन्मजात होता जैसा की लेखक को लगता है तो कम से कम लेखक को तो मोक्ष हो जाना चाहिए था। विसंगति यह कि इसके पहले के पैरा में जो सहजबोध था वह जन्मजात बोध में बदल गया। ‘सहजबोध और जन्मजातबोध के बीच का ‘बोध’ (अन्तर) लेने के लिए लेखक को जेएनयू छोड़कर मेरे कस्बे में आना चाहिए। मजाक देखिए कि यह ‘जन्मजात बोध’ अगले ही पैरा में ‘सहजात बोध’ और इसकी अगली ही पंक्ति में ‘सहज समता बोध’ में बदल जाता है।
इसी पैरा की पहली पंक्ति में ‘ऐसा ही सहजात बोध है, मनुष्य मात्र की ‘समता’ का’ यहाँ ‘समता’ की संगति पर विचार कीजिए। दरअसल लेखक को ‘समता’ और ‘समानता’ शब्दों के बीच की असमानता का ज्ञान नहीं है जो आष्चर्यजनक है। यहाँ लेखक समानता के अर्थ में समता शब्द का उपयोग कर रहा है। यह एक विसंगति ही कही जायेगी कि लेखक को इस तरह के शब्दों के बीच के फर्क का पता नहीं है।
पृष्ठ 18 के दूसरे पैरा में एक पद आया है ‘‘विनम्रता नहीं जुटा सकते?’’ विनम्रता जुटाई नहीं जाती दिखाई जाती है, आलोचक महोदय।
इसी पृष्ठ का तीसरा पैरा देखें - ‘‘कबीर समाज पर टिप्पणी करने वाले कवि थे,’’ इसमें आये ‘टिप्पणी’ शब्द की संगति को कबीर द्वारा समाज की की गई तीखी आलोचना के संदर्भ में देखें। आलोचक ने कबीर की पूरी ‘धार’ को सामान्य पत्रकार या अधिकारी की (‘टीप’) ‘टिप्पणी’ में बदल दिया। यदि भारत भूमि पर कबीर भी समाज पर सिर्फ ‘टिप्पणी’ करने वाले कहे जायेंगे तो कबीर का पैदा होना ही व्यर्थ हो जायेगा और इन जैसे घटिया लोग कबीर को रसातल में ले जाकर दफनाने में संलग्न हैं।
इसके आगे का वाक्य कबीर की पूरी ‘ऐसी की तैसी’ करके रख देता है। यह वाक्य कॉमा के बाद प्रारंभ होता है ‘‘जो रचनाकार समाज के बारे में कुछ नहीं कहते, उनकी रचनायें भी उनके समाज के बारे में कुछ बताती हैं।’’ कितना बढ़िया कॉम्प्लीमेंट लेखक ने कबीर को दिया है! कि जो रचनाकार (लेखक जैसे) समाज के बारे में कुछ नहीं कहते, जब उनकी रचनायें भी समाज के बारे में कुछ न कुछ कहती हैं तो महाषय (कबीर) आपने समाज पर टिप्पणी करके कौन सा तीर मार लिया। विसंगति यह है कि लेखक के आसपास ही ऐसे रचनाकार होंगे जो रचनाकार तो हैं, परन्तु वे समाज के बारे में कुछ नहीं कहते! फिर वे किसके बारे में कहकर रचनाकार हैं, भगवान ही जाने! या लेखक!
इस पैरा की एक असंगति तो यह है कि इसमें ‘समाज’ शब्द सात बार आया है और जब वास्तविक समाज शब्द की आवष्यकता हुई तो वहाँ ‘समय’ शब्द आ गया। समाज की जगह ‘समय’ कितना संगत है आप विचार कर सकते हैं और समय के साथ ‘सुन रहा है’ क्रिया का उपयोग ‘उत्सुकता’ और ‘सम्मान’ जैसे विषेषणों के साथ किया गया है जो समाज के साथ ही संगत हैं, समय के साथ नहीं।
महत्वपूर्ण विसंगति और लेखकीय समझ की विडंबना इस वाक्य में स्पष्ट होती है ‘‘जिस समाज की वे आलोचना कर रहे हैं, वह क्या वक्त की बर्फ में जमा हुआ समाज लगता है?’’ भाई साहब! वक्त की बर्फ मंें जमा हुआ समाज नहीं होता तो कबीर आलोचना नहीं, प्रषंसा करते। कबीर आलोचना कर ही इसलिए रहे हैं कि वह समाज ‘जड़’ हो चुका था, सोया हुआ था, तभी तो उन्होंने जागरण गीत गाये हैं। सैकड़ों साखियाँ और पद कबीर ने समाज को जगाने के लिए, सावधान करने के लिए गाये हैं। ‘‘सुखिया सब संसार है खावै अरु सौवे। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे।’’ क्या जाग्रत समाज के लिए कहा जायेगा? लेखक महोदय के पास इसके प्रमाण न हों तो मैं साखियों और पदों को छांटकर भेज सकता हूँ। और भारतीय चिन्तन के इतिहास लेखकों के हजारों प्रमाण दे सकता हूँ जो उस युग को यथास्थितिवादी और जड़ सिद्ध करते हैं, और वे सही करते हैं क्योंकि इतिहास और समाज का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाले जानते हैं कि मध्यकाल के सामंतीय जीवनमूल्य यथास्थितिवादी ही होते हैं।
इस पैरा का प्रारंभ समाज पर टिप्पणी को लेकर हुआ बीच में फिर प्रष्न उठाया कि क्या बताती है कबीर की कविता उनके समाज के बारे मे?’ इसके बाद कबीर ने जो बताया है, वह लेखक को पता नहीं इसलिए बात बदल दी और समय कैसा है इस पर बात करने लगा। इस प्रसंग को विष्लेषित करना चाहिए था, नहीं किया। यह इस पूरी किताब की विषेषता (दुर्गुण, घटिया गद्य का उदाहरण) है, जो कि अधिकांष पैराग्राफों में दिखाई देती है। जिस बात को लेकर बात प्रारंभ होती है, उसे अन्त में या बीच में ही बिना कोई संगत विष्लेषण, विवेचन किए छोड़ दिया जाता है।
पृष्ठ 21 का पैरा चार ‘‘कबीर का निधन ‘देर से देर’ 1518 ईस्वी में माना गया है।’’ इसमें प्रयुक्त ‘देर से देर’ पद की संगति पर विचार कीजिए इसके प्रयोग की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। देर से देर क्या होता है?
पृष्ठ 22 का पहला पैरा ‘‘इन ‘आधुनिक’ आकलनों के विपरीत’’ के इस वाक्य की संगति ‘‘इन’’ शब्द की संगति में निहित है और ‘‘इन’’ शब्द की संगति इसके पहले अगर आधुनिक आकलनों को प्रस्तुत किया गया हो तो उससे जुड़ी है। विसंगति यह है कि इसके पहले या बाद में किसी भी तरह के ‘आधुनिक आकलनों’ को प्रस्तुत नहीं किया गया है तो इस वाक्य की असंगति अपने आप स्पष्ट हो जाती है।
पृष्ठ 22 के पांचवे पैरा की छह पंक्तियों को दो वाक्यों में विभाजित किया गया है। ये दोनों वाक्य एक दूसरे से विपरीत विचारों को प्रस्तुत करते हैं, जबकि लेखक ने इन्हें एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रस्तुत किया है। पहले वाक्य में कहा गया है कि ‘‘औपनिवेषिक आधुनिकता में रची-बसी खोज दृष्टि कबीर के समाज की लोक स्मृति को ही नहीं, स्वयं कबीर को भी ऐसी कृपा दृष्टि से देखती है जिसे कबीर अबोध बच्चे से नजर आते हैं, जो अपने घर का पता तक ठीक से नहीं बता पाता।’’ इसमें औपनिवेषिक आधुनिकता मे रची बसी दृष्टि (किसकी है यह बताने की कृपा पूरी पुस्तक में कहीं भी नहीं है, यह लेखक के दिमाग का फितूर भी हो सकता है) कबीर को बच्चा मानती है। इसके बाद दूसरा वाक्य देखिए और इन दोनों की संगति बिठाने की कोषिष कीजिए- ‘‘देखिए न, असल में तो वे थे - ईसाई मिषनरी के पूर्व पुरुष (कौन? संभवतः कबीर, क्योंकि ऊपर कबीर के बारे में ही बात हो रही। अब इस पूर्व पुरुष का अर्थ निकालिये।) शरा या बेषरा सूफी, (कौन? कबीर, कैसे यह आप लेखक या उनके परमपिताओं से पूछ सकते हैं।) महायानी बौद्ध, नाथ पंथी या आजीवक, लेकिन समझते थे खुद को नारदी भक्ति में मगन,’’ इसका अर्थ है कबीर जो खुद को नारदी भक्ति में मगन समझते थे, वह गलत समझते थे, क्योंकि वे तो ईसाई मिषनरियों के पूर्व पुरुष, शरा या बेषरा सूफी, महायानी बौद्ध, नाथपंथी या आजीवक थे। इनमें से भी दरअसल क्या थे? यह लेखक को भी नहीं मालूम। लेखक को यह भी नहीं मालूम की आजीवक सम्प्रदाय कबीर या उनसे बहुत पहले से ही अस्तित्व में नहीं था और ईसाई मिषनरी सबसे पहले अकबर के दरबार में आये थे तो उनके पूर्व पुरुष वे कैसे हो सकते हैं? क्या तुक है इन असंगत बातों को कबीर के साथ जोड़ने की और वास्तविक विसंगति यह है कि इनका ऊपर के पहले वाक्य से क्या लेना-देना है जिसमें उन्हें बच्चा कहा गया है। यदि बच्चा मानने की सोच औपनिवेषिक है तो ईसाई मिषनरी के गुरु मानने की सोच क्या देषज है?
पृष्ठ 23 के पहले पैरा में - ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘‘बाकी लोगों के बुद्धुपन’’ जैसे पदों का इस्तेमाल हुआ है। क्या लेखक बताने का कष्ट करेगा कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने साजिषें कीं? नहीं, वह यह कष्ट कर ही नहीं सकता, क्योकि वह डरपौंक है, यही कारण है की पूरी किताब में इसी तरह के - ‘कुछ लोगों’ - जुमलों का प्रयोग किया गया है, न तो किसी की तथ्यात्मक जानकारी दी गई है और न उन साजिषों का पर्दाफाष किया गया है, जिनके बारे में लिख रहा है। दूसरी बात यह कि ‘‘बाकी लागों के बुद्धुपन’ में बाकी लोग कौन हैं, और इस बांकी में स्वयं लेखक भी शामिल नहीं है क्या? और उनके गुरु नामवर जी और उनके गुरु डॉ. रामविलास शर्मा जी, उनके गुरु डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, और उनके गुरु क्षितिमोहन जी और पूरे हिन्दी साहित्य के गुरु श्री रामचंद्र जी शुक्ल षामिल नहीं हैं क्या? और अगर नहीं हैं तो ‘बांकी लोग’ जैसा असंगत पद क्यों लिखा। और लिखा है तो क्या इनके बुद्धुपन को सिद्ध कर सकता है लेखक? उसमें साहस और हिम्मत है इनके बुद्धुपन और लोगों की साजिषों का पर्दाफाष करने की? शायद नहीं, क्योंकि वह न तो साजिषों को जानता है और न बुद्धुपन को वह तो अपने असंगत विवरणों की रौ में बस यूँ लिख गया है।
इस पैरा की अन्य विसंगतियाँ और असंगतियाँ देखिए - ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘बांकी के बुद्धुपन’’ को औपनिवेषिक आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की कृपा ने भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या के बीज शब्दों के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है।’’ अब यह औपनिवेषिक आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की कृपा क्या है? कोई जबाव नहीं है। प्रसंग बस जहाँ तक मेरा अध्ययन है कबीर पर उत्तर आधुनिक विचारदृष्टि से किसी भी लेखक या विचारक ने अभी तक विचार नहीं किया है। दूसरी बात भारतीय आलोचना के विकास में जितने भी प्रतिष्ठित विचारक आलोचक हुए हैं उन सबने एक स्वर से कबीर को अपने समय का सबसे आधुनिक व्यक्ति सिद्ध किया है, माना है और वे थे भी। ‘औपनिवेषिक आधुनिकता’ पद का सैकड़ों बार उपयोग करने के बावजूद लेखक ने कहीं भी इसकी व्याख्या करने की कोषिष नहीं की है, और न यह बताने की कोषिष की है कि इस औपनिवेषिक आधुनिकता के कृपापात्र लेखक या आलोचक कौन हैं जिन्होंने कबीर को आधुनिक नहीं माना।
जरा इस ‘बीज शब्द’ पर ध्यान दीजिए। किसको ‘बीज शब्द’ के रूप में प्रतिष्ठित किया है जबाव है ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ और ‘बांकी के बुद्धुपन’’ को। हिन्दी आलोचना के विकास और इतिहास में कहीं भी इस तरह के बीज शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है सिवाय लेखक की इस किताब के। अब जरा इस पदबंध पर ध्यान दीजिये ‘‘भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या’’ किसकी? बीज शब्द के जबाव में यह पदबंध है। क्या होती है यह भारतीय सांस्कृतिक अनुभव की ऐतिहासिक व्याख्या? कोई बतायेगा जिसके बीज शब्द ‘‘कुछ लोगों की साजिषों’’ ‘बांकी के बुद्धुपन’’ जैस शब्द हैं। कहाँ की गई है इस तरह की व्याख्या? किसने की है इस तरह की व्याख्या? इनके जबाव संभवतः लेखक की अगली किताब में मिल जायेंगे! भगवान करे वह कभी न आये।
अध्याय एक का तीसरा भाग: आधुनिकता: देशज बनाम औपनिवेशिक
यह पूरा अध्याय जो कि दस पृष्ठों में लिखा गया है को एक सुसंगत पाठ के रूप में पढ़ने की कोशिश व्यर्थ प्रयास में तब्दील हो जाती है। इसमें वर्णित विषय को पकड़ने की कोशिश मैंने की, जो निष्कर्ष सामने आया उसे जरा ध्यान से देखें - इसके पहले पैरा में कुछ (वकौल लेखक) ‘सांस्कृतिक घटनाओ’ का उल्लेख है। दूसरे पैरा में कुछ बेतुके और असंबद्ध प्रश्न किए गये हैं। तीसरे पैरा में इमेनुएल वार्लस्टाइन का उद्धरण है जिसकी कोई संगति नहीं है। चौथे और पांचवे में भविष्य और अतीत की कुछ बेतरतीब बातें करते हुए पेन्डुलम धर्म पर बात समाप्त होती है। छटवें पैरा में कविता कैसे पढ़ी जाए से बात प्रारंभ की गई है और अन्त तक देशकाल के बारे में प्रामाणिक निष्कर्षांे तक पहुँचने की बात लेखक करने लगता है। सातवें पैरा में इतिहाकार और समाजशास्त्री आ गए और दैनन्दिन व्यवहारों के स्रोतों की बात करते हुए लेखक आठवें पैरा में ब्राह्मण वर्चस्व की बात को औपनिवेशक सांठगांठ बताते हुए अन्त में ब्राह्मण वर्चस्व को समझने की बात करने लगता है। इसके बाद नवें पैरा से बारहवें पैरा तक तुलसी और उनके कलिकाल वर्णन की बात आ जाती है। इसी संदर्भ में वह वर्णव्यवस्था को मिलने वाली चुनौती की बात उस रचनाकार के अभिलेखों से करता है जो ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक रहा है।
तेरहवें पैरा (पृ.30) में वह देशभाषाओं की प्रतिष्ठा की बात करते है। चौदहवें पैरा में जाकर लेखक को याद आता है कि मैंने इस अध्याय का नाम आधुनिकता: देशज बनाम औपनिवेशिक रखा है। देश भाषाओं की सहस्राब्दी में यूरोपीय और गैर यूरोपीय समाज अपने अपने ढंग से आधुनिकता की ओर बढ़ रहे थे।’’ यहाँ से लेखक ने एक नया विमर्श खड़ा करने की कोशिश की है। वह ‘आधुनिकता’ को लेकर है और पूरी पुस्तक में उसने सैकड़ों बार देशज आधुनिकता को प्रतिष्ठित करने और औपनिवेशिक आधुनिकता को अपदस्थ करने की कोशिश की है। दरअसल इस पुस्तक का केन्द्र ‘कबीर की अकथ कहानी प्रेम की’ की जगह यह देशज और औपनिवेशिक आधुनिकता हैं। यह भी एक विसंगति है।
यह विमर्श यदि ठीक तरह से सही संदर्भ में उठाया जाये तो वाकई हम सही निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं, परन्तु लेखक हर बार कहीं से भी इसका सिरा पकड़ लेता है और कहीं भी किसी भी मुद्दे पर जाकर छोड़ देता है और फिर यही कार्य करता है।
इस पैरा का अन्त भी कबीर को हाशिए की आवाज मानना ऐसी ही भूल है पर समाप्त होता है। प्रारंभ आधुनिकता से किया समाप्त किसी और निष्कर्ष से। इसके बाद का पन्द्रहवां पैरा पिछले पैरे की पूँछ पकड़ कर प्रारंभ होता है ‘‘हाशिए पर ही रहे होते तो..... से और दूसरे ही वाक्य में इस बात को छोड़ दिया जाता है और बीच में तुलसी, राजसत्ता को फालतू मानना जैसे जुमले सामाजिक गतिशीलता और नई जातियों के बनने की बात से पैरा समाप्त होता है। अगला पैरा भी वर्णाश्रम के सैद्धांतिक ढांचे से प्रारंभ होता है और सामप्त होता राज सत्ता और सामाजिक व्यवहारों की बात पर जाकर। इसके बाद के पैरा में अंग्रेजी राज के पहले भारत में पॉलिटिकल इकॉनॉमी की बात प्रारंभ करते हैं। अंत में धर्मशास्त्र के अर्थशास्त्रीकरण की बात पर बात समाप्त करते हैं। अगला पैरा इसी आर्ष पद से प्रारंभ होता है ‘धर्मशास्त्र के अर्थशास्त्रीकरण’ के इस काल में’ यहाँ से वैष्णव सोच की बात करने लगते हैं जो आगे दो तीन पैरा तक चलती है।
इस तरह पूरा अध्याय विचित्र और अन्तर्विरोधी बातों से भरा है। कहीं कोई संगति नहीं है इसके बीच। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि दो पैराओं के बीच तो कोई तालमेल ढूँढ़ना बेमानी है ही अधिकतर एक ही पैरा में कई कई तरह की अलग-अलग बातें लेखक लिखता रहा। इन सारे पैराओं को ध्यान से पढ़ा जाये तो हजारो विसंगतियाँ - भाषा, पद, वाक्य, अर्थ और संगति की मिलेंगी। कुछ की बानगियाँ यहाँ पेश हैं।
इसका प्रारंभ जिस पैरा से होता है उसका पहला वाक्य है ‘‘कबीर और रामानन्द ईसा की पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में सक्रिय थे।’’ इस ‘सक्रिय थे’ क्रिया को ध्यान से पढें तो ऐसा लगता है मानो कोई गुंडे या असामाजिक तत्वों के सक्रिय होने की बात कही जा रही हो। जैसे दक्षिण के चन्दन वनों में वीरप्पन सक्रिय था या चम्बल के बीहड़ों में फूलनदेवी सक्रिय थी, या कश्मीर में आतंकवादी सक्रिय थे। ‘सक्रिय थे’ क्रिया पद किसी भी रचनाकार या कवि या लेखक के बारे में प्रयुक्त किया जाना भाषायी असंगति का ही प्रमाण है। इसके बाद इस पैरा की दस पंक्तियों में नौ वाक्य हैं जिनका आपस में कोई तालमेल दिखाई नहीं देता। सिर्फ कुछ नाम और सन् गिनाये गये हैं जो किसी भी (उच्चस्तरीय?) समीक्षा पुस्तक या आलोचना के लिए संगत नहीं लगता। इसमें छटवां वाक्य है ‘‘इसके पहले वल्लभाचार्य, दादू, और चैतन्य के सम्प्रदाय स्थापित हो चुके थे।’’ इसमें जो ‘इसके पहले’ पद है, वह असंगत ह,ै क्योंकि इसके पहले वाले वाक्य में कहा गया है कि ‘‘धर्मदास ने कबीरपंथ की स्थापना सत्रहवीं सदी के आरंभ में की थी।’’ अतः ‘इसके पहले’ पद का अर्थ धर्मदास के कबीरपंथ की स्थापना के पहले हुआ जो कालक्रम की दृष्टि से असंगत है और वल्लभाचार्य, दादू और चैतन्य का क्रम भी गलत है। यहाँ ‘इसके पहले’ के स्थान पर होना चाहिये ‘इनके पहले’। विसंगति यह है कि सुधी आलोचक को इसके और इनके का फर्क नहीं पता। इसी पैरा का दूसरा वाक्य है ‘‘1582 में ‘पद सूरदास जी का’ नामक संकलन तैयार किया गया।’’ और अन्तिम वाक्य है ‘‘पद सूरदासजी का में सूरदास के ही नहीं नामदेव और कबीर के पर भी हैं।’’ ये दोनों वाक्य एक साथ लिखे जाते तो ज्यादा संगत होते। इसे इस तरह लिखा जाता - ‘‘सन् 1582 में ‘पद सूरदासजी का’ नामक संकलन तैयार हुआ जिसमें सूरदास के अलावा नामदेव और कबीर के पद भी हैं।’’ सुसंगत वाक्य रचना हिन्दी के महान् आलोचक से अनुमोदित पुस्तक में न हो तो यह बहुत बड़ी विसंगति ही कही जायेगी।
अब पृ. 27 के तीसरे पैरा को पढें -इसमें तीन वाक्य हैं, जो प्रश्नवाचक हैं, पहला प्रश्नवाचक वाक्य है ‘‘पन्द्रहवीं, सोलहवीं, और सत्रहवीं सदियों में घट रही उपर्युक्त सांस्कृतिक घटनाओं का सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिवेश से कोई संबंध था या नहीं?’’ सबसे पहले ‘सांस्कृतिक घटनाओं’ की संगति पर विचार कर लें। इसके पहले पैरा जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है उसमें कौन सी सांस्कृतिक घटना हैं जो घटी? कबीर और रामानन्द का सक्रिय होना या ग्रंथों के संकलन तैयार होना, या परचईयों की रचना होना? चलो मानलें की ये साहित्यिक कार्य थे इस लिए सांस्कृतिक कार्य भी हो सकते हैं, परन्तु इन्हें सांस्कृतिक ‘घटनायें’ कहना भाषा और समझ की असंगति ही कही जायेगी। भक्ति ओदालन सांस्कृतिक घटना थी, सूफी आंदोलन सांस्कृतिक घटना थी। मगर कबीर या रामानन्द का सक्रिय होना सांकृतिक घटना नहीं ‘सांस्कृतिक क्रियाषीलता’ का उदाहरण हैं। क्रियाषीलता और घटना के बीच के अन्तर को न समझना एक विसंगति ही कही जायेगी।
इस वाक्य गठन की संगति पर विचार करें - ‘‘से कोई संबंध था या नहीं?’’ पूछा जा रहा है तो (गद्य की मांग है और प्रष्न पूछने के तरीके के की भी कि) इसका उत्तर अगले ही वाक्य में मिलना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं हुआ और उत्तर नहीं देना था तो वाक्य संरचना इस प्रकार होनी चाहिए ‘से कोई संबंध था?’ यह संगत वाक्य है, लेखक द्वारा लिखा गया वाक्य असंगत है।
दूसरा प्रष्नवाचक वाक्य ‘‘उस परिवेष के स्वरूप को समझे बिना क्या इन घटनाओं का सामाजिक अर्थ और ऐतिहासिक महत्व समझा जा सकता है?’’ इसमें ‘उस परिवेष’ की संगति खोजिए और ऊपर के वाक्य से तालमेल करने की कोषिष कीजिए? पहले वाक्य में बात ‘सांस्कृतिक घटनाओं’ की हो रही थी और परिवेष से उसके संबंध के बारे में पूछा जा रहा था, संगति इसमें थी की ‘इन घटनाओं’ से संबंधित कोई नया प्रष्न किया जाता, लेखक चाह तो ऐसा ही रहा है, परन्तु हो ठीक उल्टा रहा है। अब वह परिवेष के स्वरूप को समझने की बात कहने लगा। विवेच्य विषय की संगति की दृष्टि से इन दोनों वाक्यों की विसंगतियों को देखा जा सकता है। विवेच्य ‘सांस्कृतिक घटनायें’ हैं या ‘परिवेष’? यह निष्चित कर पाना लेखक के लिए असंभव है, क्योंकि यह बात इस पूरी पुस्तक में पसरी (पसारा है) हुई है। लेखक बात कुछ प्रारंभ करता है और आगे बढ़ते ही कोई बिल्कुल अलग बात कहने लगता है और पहली बात की संगति बैठाने का ध्यान उसे नहीं रहता। लगभग प्रत्येक पृष्ठपर यह विसंगति देखी जा सकती है।
तीसरा प्रष्न भी देखें और उसकी संगति बिठाने की कोषिष (कष्ट) करें ‘‘इन घटनाओं की तर्कसंगत व्याख्या किए बिना उस ऐतिहासिक परिवेष को तर्कसंगत ढंग से ‘पढा’ जा सकता है?’’ पहले प्रष्न में सांस्कृतिक घटनाओं का परिवेष से संबंध बिठा कर तर्कसंगत व्याख्या करने की सोची गई होगी दूसरे में उसी परिवेष के स्वरूप को समझ कर इन घटनाओं का महत्व समझने की सोची गई अब तीसरे प्रष्न में बात इन घटनाओं से परिवेष की तर्कसंगत व्याख्या की आ गई। कैसे कारण कार्य को कार्य कारण में बदला गया इसकी संगति आलोचक और उनके समर्थक ही बैठा पाने में समर्थ हो सकेंगे? एक और असंगति देखें पहले प्रष्न में सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक परिवेष’ की बात है तीसरे प्रष्न में ‘उस ऐतिहासिक’ में ‘उस’ पद से उपर्युक्त परिवेष है जो ‘ऐतिहासिक’ में बदल गया। कैसे? क्यों? स्वनामधन्य लोग ही बता सकते हैं?
अगला वाक्य देखें इसी (पृष्ठ से) ‘‘सवाल इतिहास से भी जुड़े हैं, वर्तमान और भविष्य से भी’’ वर्तमान और भविष्य के साथ ‘अतीत’ या ‘भूत’ शब्द की संगति ही ठीक है ‘इतिहास’ की नहीं और दो क्या एक बार भी ‘भी’ की आवष्यकता नहीं है। सुसंगत वाक्य ‘‘सवाल भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़े हैं’’ यह है
इसके ठीक बाद में आलोचक महोदय ने ‘इमेनुएल वार्लस्टाइन’ की पुस्तक से ए¬क उद्धरण प्रस्तुत किया है। क्यों किया है? उसका विवेच्य विषय और संदर्भ से क्या नाता है? वर्णित सांस्कृतिक घटनाओं से उसकी क्या संगति है? या तो लेखक जानता होगा या उसके भगवान। यह एक ऐसी विसंगति है जो इस पूरी पुस्तक में दिखाई देती है। इसी तरह के जो अन्य उद्धरण दिए गए हैं उनकी कोई भी संगति अलोचक उस संदर्भ से नहीं बिठा पाया है, बस यों ही थेगड़े की तरह चिपका दिए गए हैं।
पृष्ठ 28 के पहले पैरा का पहला वाक्य ‘‘विधाता ने इतिहास को किसी पूर्वनिर्धारित मार्ग पर चलाकर उस मार्ग का नक्षा कुछ चुनिन्दा लोगों के कान में नहीं फँूक दिया है।’’ सबसे पहले इस वाक्य के औचित्य पर विचार कीजिए। क्या अर्थ है इस वाक्य का इस पुस्तक और इस संदर्भ में? क्यों लिखा गया है यह वाक्य? क्या संगति है इसके पहले आये उद्धरण से इस की? दूसरे आलोचक को शायद नहीं पता की नक्षा या तो बनाया जाता है या दिखाया जाता है कान में नहीं फूँका जा सकता। नक्षा दिमाग में भी बनाया जा सकता है, परन्तु कान में फूँकने का प्रयोग विद्वान् आलोचक ही कर सकते हैं। इस वाक्य के गठन के औचित्य पर भी विचार किया जा सकता है। ‘चलाकर’ और ‘दिया है’ जैसे क्रिया पदों की संगति हिन्दी भाषा में तो नहीं बैठ सकती।
कबीर पर लिखी जा रही इस किताब में एक विसंगति यह है कि इसमें कबीर पर जब भी लेखक कुछ कहने की सोचता है उसे कोई न कोई दूसरी बात याद आ जाती है और वह उसी वाक्य में उस दूसरी बात के बारे में कहने लगता है कबीर को वहीं छोड़ देता है, जैसे पृष्ठ 28 पर ही ‘‘कबीर को ही नहीं, समूचे भारतीय अनुभव’ ‘कबीर हों या कोई और कवि’ इस वाक्य में ‘और’ शब्द की संगति पर विचार कीजिए। महोदय ‘और’ नहीं ‘अन्य’ शब्द ज्यादा सुसंगत है। इसके पहले 26 पेज पर दूसरे पैरा का प्रारंभ यों करते हैं ‘‘कबीर ही नहीं भारतीय इतिहास लेखन मात्र के प्रसंग में’’ पृष्ठ 34 के अन्तिम पैरा में ‘कबीर के ही नहीं, अन्य प्रसंगों में भी’ पृष्ठ 38 का अन्तिम पैरा ‘यह अकेले कबीर का नहीं, मानवीय चैतन्य मात्र का’ पृष्ठ 39 का अन्तिम पैरा ‘कबीर और दूसरे निर्गुण संतों के स्वप्न’ प्रत्येक जगह कबीर अन्य की तरह ही प्रयुक्त हुए हैं मुख्य की तरह नहीं।
पृष्ठ 28 के तीसरे पैरा को पढें और भूलभुलैया की तरह अर्थ का द्वार खोजें, शायद आपको मिल जाये? पहला वाक्य है ‘‘आवष्यक है कि कविता को बतौर कविता के, संवदेनषीलता और सम्मान के साथ पढ़ा जाये।’’ इस वाक्य के प्रारंभ का जो तरीका है उससे इस वाक्य का संबंध ठीक इसके ऊपर वाले वाक्य या संदर्भ से होना चाहिए। विसंगति यह है कि इस तीसरे भाग में जिसका एक हिस्सा यह पैरा है कविता को लेकर कोई भी बात नहीं कही गई है जिससे इसका संबंध बिठाया जा सके। नई बात कहने के लिए नया पैरा किस तरह प्रारंभ किया जाना चाहिए यह भी अगर मुझे बताना पढे़गा तो फिर आलोचक को जेएनयू छोड़कर मेरे कॉलेज में दाखिला ले लेना चाहिए।
इसकी अर्थ संगति पर विचार करें। भई! कविता को बतौर कविता ही पढ़ा जाता है, बतौर इतिहास या राजनीति या दर्षन के नहीं, इसमें आवष्यक है जैसी कोई बात नहीं है, मैने आज तक कवि को सम्मान पूर्वक पढ़ा या सुना जाने की बात सुनी है कविता को नहीं, कविता को संवेदना के साथ पढ़े जाने की आवष्यकता को मैं स्वीकार कर सकता हूँ। कविता के संदर्भ में सम्मान शब्द असंगत है उसकी जगह संवेदना होना चाहिए। ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ यह मुहावरा सौ साल पुराना हो कर घिस गया है, आज के विखण्डनवादी युग में कविता के बारे में यह कहना कि ‘‘सामाजिक गतिषीलता के बारे में जानने-समझने के लिए भी कविता को पढ़ना चाहिए’’ यह कह कर आलोचक कौन सा तीर मार रहा है? और अगर 21 वीं सदी की आलोचना इसी बिन्दु पर अटकी है तो क्या कहने हिन्दी आलोचना के विकास के और क्या कहने इन स्वनाम धन्य आलोचकों की आलोचनात्मक वृत्ति के? इस पैरा का अगला वाक्य पढ़ें और विचारें की आपकी समझ में क्या आया - ‘‘कबीर हों या कोई ‘और’ (‘और’ की जगह ‘अन्य’ शब्द सुसंगत है) कवि - उन्हें ‘इतिहास की अदालत’ में अपने मुकदमे के गवाह के तौर पर बरतने भर से कविता के प्रति संवेदनहीनता तो प्रकट होती ही है, इतिहास लेखन की अपनी भी हानि होती है।’’ इस इतिहास की अदालत से मुझे कमलेष्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ की अदालत याद आ गई। क्या लेख का आषय इसी अदालत से है? यदि हाँ तो उससे जितनी संवेदनषीलता पैदा हुई उतनी किसी अन्य से नहीं और यदि नही ंतो कौन सी इतिहास की अदालत और कौन सा अपना मुकदमा और कौन से गवाह? और कवि को इतिहास की आदलत में खड़ा कर भी दिया तो इतिहास लेखन की अपनी हानि कैसे संभव है? आपने ही ऊपर कहा कि सामाजिक गतिषीलता को जानने के लिए कविता को पढ़ना चाहिए तो कबीर के समय की सामाजिक गतिषीलता और इतिहास लेखन में कैसे अन्तर करेंगे? ‘इतिहास’ सामाजिक गतिषीलता से ही बनता है महोदय! तो उसकी हानि कैसे होगी?।
इस अध्याय में देष भाषा स्रोतों की बात बार-बार की गई है, परन्तु विसंगति यह है कि कहीं भी देषभाषा स्रोतों का कोई विवरण या प्रमाण नहीं दिया गया है। कौन से हैं वे देषभाषा स्रोत? कब लिखे गए किसके बारे में बात करते हैं, किस युग के बारे में? कोई भी प्रमाणिक तथ्य नहीं रखा गया। इसके अतिरिक्त ‘औपनिवेषिक आधुनिकता’ या औपनिवेषिक ज्ञानकांड’ पद का भी कई बार प्रयोग किया गया है। इस अध्याय में कहीं भी आधुनिकता को परिभाषित या विवेचित करने का प्रयास नहीं किया। सिर्फ जुमलों की तरह इन शब्दों को इस्तेमाल किया गया है। इसी तरह ‘राजसत्ता का फालतूपन’ पद भी कई बार प्रयोग किया गया है। न तो लेखक ने यह बताया कि किसने यह बात कही और न यह बताया कि क्यों कही, उसके बारे में किसी तरह की कोई ठोस और प्रमाणिक जानकारी इसमें नहीं है जबकि कई बार इस पद का प्रयोग विचित्र संदर्भों में किया गया है और कई बार तो विरोधी संदर्भों में भी प्रयोग किया है। इसी तरह ‘धर्मषास्त्र का अर्थशास्त्रीकरण’ का प्रयोग कई बार किया है क्या है इसका मतलब बताने की या कोई प्रमाणिक तथ्य पेष करने की कोषिष लेखक ने नहीं की है। ये जुमले किन्हीं स्रोतों (संभवतः विदेषी) से लेकर ज्ञान का आतंक जमाने के लिए प्रयोग किए गये हैं।
पृष्ठ 31 के दूसरे पैरा के इन वाक्यों को पढ़ें और कुछ संगतिपूर्ण अर्थ खोजने की कोषिष करें तो आपको लगेगा कि सागर से अमृत निकालना तो आसान है पर इन वाक्यों से अर्थ निकालना मुष्किल। इस पैरा और इसके पहले के पैरा में लेखक दो बातें कह रहा है कि वर्णाश्रमपरक चिन्तन, राजसत्ता और धर्मषास्त्र ईसा की आठवीं सदी से लौकिक व्यवहार को वरीयता दे रहे थे। दूसरी उसे चिन्ता है कि कहीं ‘शास्त्रों’ का अपमान न हो जाये तो वह पीछे से लगा देता है कि इन लौकिक व्यवहारों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के प्रयत्न करना भी उस समय की शास्त्री चिन्ता थीं इसके बीच में राजसत्ता और अर्थषास्त्र भी घुस गए हैं। ‘‘ईसा की आठवीं सदी के बाद से तो धर्मषास्त्रीय चिन्तन की मुख्य चिन्ता ही राजसत्ता की व्यावहारिक महत्ता को सैद्धांतिक रूप से ‘‘शास्त्र सम्मत’’ भी सिद्ध करने की हो जाती है।’’ इस पैरा की अर्थगत संगति पर बाद में विचार करेंगे पहले इसके तथ्यों की संगति को देख लें। ‘आठवीं सदी के बाद से’ लेखक शायद नहीं जानता की सारे के ‘धर्मशास्त्र’ लगभग आठवीं सदी के पहले ही लिखे जा चुके थे। हाँ उन पर टीकायें इस युग में हो रहीं थीं। शंकराचार्य के ष्षास्त्र अवष्य इसी समय में सामने आये, परन्तु उनकी संगति इस कथन के मूल अर्थ से ठीक विपरीत है, शंकराचार्य का पूरा दर्षन सामंतीय मूल्यों यानि जड़ता और यथास्थिति को बनाये रखने की दिषा में सक्रिय था। जो कि लेखक की मूल चिन्ता धर्मषास्त्र को व्यावहारिक सिद्ध करने के विपरीत हैं। दूसरी बात यह कि सारे धर्मषास्त्र सदियों से यही करते रहे हैं जो लेखक ने लिखा है ‘‘धर्मषास्त्रीय चिन्तन की मुख्य चिन्ता ही राजसत्ता की व्यावहारिक महत्ता को सैद्धांतिक रूप से ‘‘शास्त्र सम्मत’’ भी सिद्ध करने की हो जाती है।’’ मनुस्मृति से लेकर याज्ञवलक्य स्मृति तक और पुराणों ने यही कार्य किया है, इसमें ऐसी कोई बात नहीं जो आठवीं सदी में घटित हो रही हो। असंगति इस बात में है इसके लिए लेखक ने इसी पैरा के अन्तिम वाक्य में जो प्रमाण दिया है वह भी कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है शंकर की त्रयी का नहीं कौटिल्य का अर्थशास्त्र कब लिखा गया था यह बताने की आवष्यकता नहीं है। दूसरी बात की कौटिल्य का अर्थशास्त्र ‘धर्मषास्त्र’ नहीं है।
इस किताब की एक महत्वपूर्ण असंगति इस बात में है कि इसमें तथ्यों के संदर्भों और प्रमाण देने की कोषिष नहीं की गई है। पहले ही अध्याय में लेखक कई ऐसी बातें करता है जिन्हें बिना प्रमाण के लिखना ‘अषोधपरक’ दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। इस अध्याय के अन्त में जो 19 संदर्भ दिए गए हैं, वे सब के सब इस तरह के हैं जो सिर्फ सूचना देने वाली जानकारियों को प्रमाणित करते हैं, किसी भी विचारधारा और विष्लेषण या अवधारणाओं को प्रमाणित करने के लिए कोई भी प्रमाण न देना ही आपके बीस वर्ष से निरंतर शोध करते रहने पर प्रष्नचिहृ लगाता है।
इस एक अध्याय में ही विषय और अवधारणाओं संबंधी असंगतियाँ और विसंगतियाँ पंक्ति दर पंक्ति भरी पड़ी हैं। कोई भी तथ्य और कथन न तो किसी विचारधारा का अंग बन पाता है और न कोई संगत बात प्रस्तुत कर पाता है। इसकी विषय और अवधारणागत असंगतियों पर अलग से लिखने पर ही स्पष्ट कर सकूँगा।
मेरा निवेदन इतना भर है कि ज्ञान और आलोचना के इन मठों और गढ़ों को हिन्दी जगत कब तोड़ेगा? कब हम स्वयं को आतंक और छोटेपन की हीन भावना से मुक्त करेंगे?
00
डॉ. संजीव कुमार जैन
522 आधारषिला, ईस्ट ब्लाक
बरखेड़ा भोपाल 462021
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें