image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 मई, 2016

कविता : मृत्युंजय प्रभाकर

मित्रो, आज सप्ताह के नये दिन प्रस्तुत हैं समूह के साथी मृत्युंजय प्रभाकर जी की कवितायें। आज उनकी कुछ कविताएं पढ़े और अपने विचार भी रखें जिससे कवि की रचनात्मकता में और सुधार आए। आलोचना का भी स्वागत है।  मृत्युंजय जी भी अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में हम सब पाठकों को बताने की कृपा करें। चूंकि पाठकों के विचार रचनाकार को संबल प्रदान करते हैं इसलिए कविताओं पर अपनी बात अवश्य रखें।

कविताएँ

1. मन की पीड़ा
   ___________

और कितना दर्द समेटुंगा
इस छोटे से कलेजे में
कितना दर्द काफी होगा
एक छोटी सी ख़ुशी
खरीदने के लिए

कब तक भटकुंगा
अपने ही कन्धों पर
अपने अरमानों की
भट्टी में जली
खुद की लाश ढोते हुए

जब कि चीखना चाहता हूँ
हिमालय से भी
बेतरह ऊँची आवाज में
गले में ही चोख डाली गई है
मेरी आवाज तुम्हारी हरकतों द्वारा

किन-किन लम्हों में
नोच लिया गया मैं
शातिर गिद्धों द्वारा
इसकी खबर तक
न लग सकी मुझको

जिनसे कहना चाहता हूँ बहुत कुछ
उनके चेहरों से भी
नफरत हो गई है
कैसे कहूँगा उनसे
अपने हिस्से का सच

इतने स्वांग, इतनी कुत्सा
इतनी हिंसा और इतनी साजिशें
अपनी कुत्सित मुस्कान के
किन तहखानों में
दबाकर जी रहे होते हैं लोग

मैं जो नहीं छुपा पाता
अपने सुख और दुःख
कहता हूँ तुमसे निर्विकार
जाकर दफन हो जाओ
अपने उन्हीं तहखानों में

देखना एक दिन
तुम भी चाहोगे चीखना
पर घोंट देगी गला
तुम्हारी चीख का
तुम्हारी ही नीचताएं!

2. हिंदी का कवि
    ___________

यूँ तो यहाँ रिवाज था
औसत को भी श्रेष्ठ घोषित करने का
जगह और परिस्थितियों के अनुसार
हिंदी में लिख रहा हर अदना कवि
कभी न कभी महान घोषित किया जा चुका है
किसी न किसी आलोचक-समीक्षक के हाथों

हैरत कि बात यह है कि
उस कवि को छोड़कर इस पर
यकीन करने को कोई दूसरा तैयार नहीं है
न पाठक, न प्रकाशक न ही दूसरे कवि
न उसे श्रेष्ठ घोषित करने वाले आलोचक
क्यूंकि अगली सभा में उसने किसी और को
सबसे श्रेष्ठ कवि घोषित करने ठेका ले रखा है

उस पर वक़्त इतना धुंधला चल रहा है कि
पाठक तय करना भी उतना ही मुश्किल है
जितना कि क्रांतिकारियों के लिए ‘जनता’
क्यूंकि खुद को छोड़कर सभी क्रांतिकारी
दूसरे को जनता ही समझते हैं और
उन्हें अपनी ‘लाइन’ समझाने में पिले होते हैं
यही हाल हिंदी के कवियों का भी है
जो खुद को कवि और अन्य को पाठक मानते हैं

सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न प्रकाशकों के लिए है
वे उस पाठक का चेहरा देखने को तरस गए हैं
जिनकी घोषणा कवि हर जगह करता फिरता है
उन्हें गुमनाम फोन, सन्देश व चिठ्ठियाँ मिलती हैं
पत्रिका का उप-संपादक मनमर्जी पत्र बनाता है
एक महान कवि और लहलहाने लगता है
यह कारिस्तानी हर नए अंक में होती है

इसीलिए प्रकाशकों ने हिंदी के कवियों को
प्रकाशन के धंधे से देश निकाला दे रखा है
वह बस उन्हें छापते थे जो छपाई का खर्च
या तो चुकाने को तैयार बैठा है
या कहीं से भी निकलवा देने की स्थिति में है
हैरत नहीं कि सारे अफसर कवि हुए जा रहे हैं
प्रधानमंत्री होने की शर्त हो गया है कवि होना

इस बीच एक दिन कोहराम मच गया
जब हिंदी के एक औसत कवि ने
दूसरे औसत कवि को सरेआम
घोषित कर दिया एक टुच्चा कवि
जो तब तक प्राइवेट बैठकों में आम था
उसके बाद हिंदी कविता ने ऐसे-ऐसे
शब्द, वाक्य और मुहावरे देखे जो
कविता में कतई आम नहीं हैं।

3.  कवि की चिंता
    ____________

वह एक मनुष्य ही था
मनुष्य पर भरोसा खो देने से पहले

वह एक हिन्दू के रूप में ही बड़ा हुआ
हिन्दू विरोधी हो जाने के पहले

उसे भी अपनी जाति पर गुमान था
जाति विरोधी विचार पनपने से पहले

वह भी कभी बच्चा रहा था
बचपन को भूलने की चेष्टा से पहले

उसने भी प्यार किया था
प्यार पर भरोसा खो देने के पहले

वह जहाँ-जहाँ से गुजरा
भ्रम दूर होते गए उसके

अब वह ठहरना चाहता है
लेकिन समय गुजर रहा है

वह कहना चाहता है बहुत कुछ
सब कुछ चुक जाने से पहले

वह कवि ही था आखिर
कविता विरोधी हो जाने से पहले!

4.  लौटना
     _______

जिन रास्तों से गुजर चुका हो आदमी
वो भी अनजाने रह जाते हैं कई बार

गुजर जाने का मतलब नहीं हो जाता
जान लेना पूरा-पूरा उसे जिससे गुजरे

आँखों से गुजरकर भी नहीं हो जाता
हर चीज़ हमारे निजी अनुभव में शामिल

बहुत कुछ रह जाता है अन्चिन्हा-अनजाना
बहुत हद तक जान लेने के बाद भी

हम रिश्तों की परिधि पर होते हैं कई बार
यह सोचते हुए कि उसका केंद्र हमसे ही है

कितना भी लम्बा और गहरा हो समुद्र का पेट
फिर-फिर लौटना होता है लहरों को किनारे

ख़त्म नहीं होता कुछ भी इस संसार में
बस रूप बदल रहा होता है कई बार

लाजिमी है कि जो गया है वो लौटेगा
दिशा कोई ले ले पर कहाँ सिमटेगा

इतनी मोहलत तो देना ही चाहिए इंसा को
कि लौटे और लौटकर बुद्धू न कहलाए।

5.   बुरा कुछ भी तो नहीं
     _________________

बुरे दिनों की कोई आहट नहीं होती
कहीं से भी टपक पड़ते हैं जीवन में
ठीक बुरे लोगों की तरह अकस्मात

अच्छाई भले ही बताकर की जाती हो
कोई बताकर नहीं करता आपका बुरा
उसे ख्याल होता है बुरा लग जाने का

कबीर की मानें तो बुरा कोई होता भी नहीं
खोजने निकलो तो खुद से बुरा नहीं मिलता
पर खोजने से भी कोई अच्छा कहाँ मिलता है

मैं जिन्हें बुरा माने बैठा हूँ संभव हो वो भी
मुझे जमाने से सबसे बुरा माने बैठे हों
अपने-अपने मुगालते होते हैं जीवन जीने के

बुरे दिनों की तरकश में भरे तीर की तरह
सबसे खतरनाक शय सरगोशियाँ होती हैं
वह इतनी बुरी नहीं होतीं गर छुपी न होतीं

अफ़सोस बस इस बात का होता है कि
ये अपनों के भीतर भी घर कर जाती हैं
गैरों में होतीं तो किसे फर्क पड़ना था

बुरा कुछ भी तो नहीं होता उम्मीदों के सिवा
जो टूटती हैं तो तकलीफ होती हैं वेवजह
आखिर उम्मीद थी, कोई हकीक़त तो नहीं थी।

6.  जीवन और मृत्यु
    ______________

सांसों का ख़त्म हो जाना ही मृत्यु नहीं है
देखते हुए घटित आस-पास चीज़ों को निर्विकार
अंतस और चेतस से उनमें शामिल होने की
इच्छा का खत्म हो जाना भी मर जाना होता है

मौत बिल्कुल उस तरह झटके से नहीं आती
जैसा कि बारहा प्रचारित किया जाता है
हम आदतन रोज़ ही मरते हैं थोड़ा-थोड़ा
यह जाने बगैर कि हम शनैः- शनैः मर रहे हैं

एक दुर्बल और वीतरागी मन का होना भी
मौत की दिशा में एक कदम बढ़ाना है
भारतीय जीवन में मौत से ठीक पहले
इसलिए तो वैराग्य का इतना महत्व है

एक पूरा दिन बर्बाद करने के बाद
अगले दिन के प्रति उत्साह का मर जाना
ठीक वैसे ही सहज और स्वाभाविक है
जैसे वीतरागी होने के बाद मृत्यु का स्वीकार

सबका सच इस कविता का सच
न हो पाने की सूरत में भी
मेरा इतना सा सच इसमें शामिल है
मैं रोज़ खुद को थोड़ा मरता हुआ पाता हूँ!

7.  व्यस्तता
     ----------

सारे लोग अपने काम में व्यस्त हैं
फिर भी कोई काम समय से नहीं होता
मनुष्यता एक इंच भी ऊपर नहीं उठ सकी
गुजिस्ता हजारों सालों से गड्ढे में पड़ी है
मैं इंतजार में हूँ उस दिन के
जब चाँद-सूरज, जल-जंगल, हवा-पानी आदि
इसी तरह व्यस्त घोषित कर देंगे खुद को।

8.  अहिंसा परमो धर्मः
     -----------------------

अजीब तासीर है इस देश की
सुदूर विदेश में राजा लिखता है
‘अहिंसा परमो धर्मः’
उसके गण समझते हैं
उसका सही अर्थ
यहाँ देश में ‘हिंसा’ फैला देते हैं।

9.    सफ़दर
       -----------

सफ़दर के होने का मतलब
सफ़दर के न रहने पर
ज्यादा समझ आता है

अपने बीच के सफ़दर की
पहचान भी तो तभी होती है
जब वह हमसे बिछड़ चुका होता है।

10. २०१५
     ----------

तू गुजरा सदियों की तरह
इस कदर भारी पड़ीं मुझपर
तेरे सितम, तेरी मेहरबानियाँ

इल्तिजा इतनी है तुझसे बस
लौट न आना फिर कभी
किसी तारीख की इबारत बन

न ही कोई याद रहे तेरी
बाकी मेरे जेहन में
बस इतनी मोहलत दे ज़िन्दगी!

11. लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता
       ---------------------------------------------

हम संतान हैं अपने समय के
उसकी कुप्रवृतियों के
जो नहीं जानते
वे सच में क्या चाहते हैं
मैं भी चाहता हूँ बहुत कुछ होना और करना

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
जलजला आ जाए
सारी दुनिया पानी पानी हो जाए
पानी के लिए व्याकुल 
पृथ्वी से बेहतर होगा वह दृश्य

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
ख़त्म हो जाएँ वर्जनाएं
आदम और हव्वा पर लादी नैतिकताएं
पवित्र मानी जाएँ आदिम इच्छाएं
धरती की तरह नंगी हो जाएँ सभ्यताएं

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
ख़त्म हो जाएँ धर्म
धार्मिक रूढ़ियाँ, परंपराएं, कुरीतियाँ कट्टरता, हत्याएं और पागलपन
और इनके साथ इन्हें फैलाने वाली ताकतें

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
ख़त्म हो जाए इस दुनिया से मूढ़तायें
जो बनाते हैं मनुष्य को जानवर
हिंसक, सनकी और पागल
संभव हो तो उनके साथ ही मूढ़ मानव भी

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
जो एक रीढ़ की हड्डी है
उसे निकाल कर स्टील की भर दी जाएँ
ताकि हर जरूरत-गैरजरूरत
झुकना बंद हो जाए मानव का
और रोक लगे मनुष्यता को शर्मसार होने पर

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

मैं चाहता हूँ
सत्ता को उखाड़ फेंकना 
हमेशा हमेशा के लिए
क्यूंकि सत्ता गढ़ती है शासन और शासित 
ताकि खत्म हो सके दुनिया से गैर-बराबरी

लेकिन मैं ठीक-ठीक यही नहीं चाहता

बिलकुल आपकी तरह ही
मैं भी गढ़ना चाहता हूँ
दुनिया को सुन्दर बनाने वाले औजार
नियम, कायदे और कानून
पर वे क्या हों ठीक-ठीक नहीं जानता

हाँ, पर इतना तय है कि आपकी तरह मैं भी इस दुनिया को सुन्दर और न्यायपूर्ण देखना चाहता हूँ।

12. मुखालिफ़त
----------------

दिल में तूफ़ान और होठों पर म्यान रखते हैं
ऐ हुक्मरानों हम अब भी मुंह में ज़बान रखते हैं

बड़े-बड़े तीसमार खां आए और ख़ाक हो गए 
धरती के उन वीरों से हम भी ताल्लुकात रखते हैं

चलते पुर्जे की तरह जाने कितने हुक्मरान बदल गए
हम बसर यहाँ की उन्हें झेलने की कूबत रखते हैं

ताकत मिली है तो छीन भी जाएगी एक दिन
कौन है यहाँ जो कदम सदा के लिए रखते हैं

देखे हैं हमने जाने कितने बदजुबान और बदगुमान
एक तुम्हीं नहीं जिसने इस धरा पर कदम रखे हैं

तुम कहते रहो आदतन सच को झूठ और झूठ को सच
हम दूध का दूध और पानी का पानी करने का हुनर रखते हैं

चली नहीं कभी भी किसी की हमेशा-हमेशा के लिए
हम तो यूँ ही बैठे-ठाले सबके नज़ारे लिया करते हैं

उतर गए उस पार जो हिलने को तैयार न थे कभी
जाओगे तुम भी उसी घाट हम भी खबर रखते हैं।

परिचय
------------
डा. मृत्युंजय प्रभाकर
एसिसटेंट प्रोफेसर
ड्रामा एंड थियेटर आर्ट संगीत भवन, विश्वभारती विश्वविद्यालय  , शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल
भारत , पिन -731235
मोब- 8170097507
प्रस्तुति- बिजूका समूह
--------------------------------
टिप्पणियाँ:-

कैलाश बनवासी:-
पहली को छोड़ बाकी सभी कवितायें इस दौर के यथार्थ पर बारीक और आलोचनात्मक नजर रखने वाली अच्छी कवितायें...दो टूक अनुभवसिद्ध कवितायें...बधाई !

मनीषा जैन :-
आज का यथार्थ प्रस्तुत करती हुई कविताएं हैं। पहली और छठी कविता मुझे अच्छी लगी। कवि को         शुभकामनाएं।
और भी मित्र अपने विचार व्यक्त करें।

आशीष मेहता:-
"मेरी तो हर रोज़ ही परीक्षा होती है।" (प्रदीपजी, लंच टाइम में सहमति दर्ज करें, शायद।)
यथार्थवादी अधीरता भी नुमाया है, सरल कवि की। यह social media जनित है या 'भोली - बाल सुलभ' सहर्ष स्वीकार्य है  ।
सच तो यही है कि यहीं पर कविता पढ़ना सीख रहा हूँ। सो, तथ्य कम, धुंधले भाव ही पहुंचा सकता हूँ कवि तक।
आज की रचनाओं में 'व्यस्तता' अपनीबात रखने में समर्थ रही । पाँचवीं ऊहापोह की खदान है, तथा आखिरी में सिर्फ 'गुमान' है। २०१५ से क्या शिकायत है, दिन में भेद खुले शायद... (सरकार तो २०१४ की है।)
बड़े दिनों बाद कल फिर रचनाकार का आलोचना/विमर्श में शामिल होना रास आया। सच्चा आत्म-आलोचक कठिन एवं सही राह पा ही लेता है।
कवि को साधुवाद। खूब लिखें ।

संजीव:-
सही है आलम जी। कविता को व्यापक संदर्भ में ही देखना चाहिए। मुखालिफत थोडी भावुक किस्म की रचना है। व्यस्तता भी कुछ इसी तरह की है।

प्रणय कुमार:-
मानवीय भाव और संवेदनाएँ किसी वाद की मोहताज़ नहीं!मार्क्सवादियों ने वाद से ऊपर न उठ पाने की मानसिकता के कारण साहित्य का भरपूर नुकसान किया है और अनेक संभावनाशील कवि  इनकी खेमेबाजी के शिकार होकर काल-कवलित हुए|अन्य जगहों पर कला को कला के नजरिए से देखने की पैरवी करने वाले पता नहीं क्यों साहित्य को साहित्य के नज़रिए से नहीं देख पाते?वाद ने साहित्यकारों को भी गुटों और खेमों तक समेट कर रख दिया|मेरे लिए किसी की कविताएँ मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं!

संजीव:-
मैं ठीक ठीक ...... का अर्थ यह भी संभव है कि यह तो चाहता ही हूं इसके अलावा भी बहुत कुछ चाहता हूं। यह कविता की ताकत है कमजोरी नहीं।

मृत्युंजय प्रभाकर:-
उनका खत्म हो जाना मेरी सदीक्षा है। जो खुद व खुद तो होने से रही। इसलिए उन्हें खत्म किए जाने की जरूरत है। मैं ये चाहता हूँ ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें