जैसा कि हम सभी जानते हैं, आज देश के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में अनेक मुद्दों पर असंतोष अभूतपूर्व रूप से पनप रहा है। छात्र संगठन खुलेआम विद्रोह पर उतर आए हैं और सत्ता उनके खुलेआम दमन पर। ऐसा नहीं है कि यह लड़ाई रोहित वेमुला से ही आरंभ हुई है। विदित हो कि वर्ष 1997 में जेएनयू छात्र नेता कॉमरेड चंद्रशेखर (चंदू) की हत्या पर यह आग अपने विकराल रूप में थी। देश भर के छात्र सड़क से संसद तक फैल गए थे और उस समय भी उनका क्रूर दमन करने की, उनकी आवाज़ दबाने की कोशिशें की गईं थीं।
साथियो, वर्तमान समय में जो कुछ भी देश के विश्वविद्यालयों, विशेषकर जेएनयू में हो रहा है, यह आग थमती नज़र नहीं आ रही। इस विषय पर आपके विचार/ विमर्श आमंत्रित हैं कि आप इन हालात में देश और छात्रों का तथा राजनीति व शैक्षिक संस्थानों के संबंधों को लेकर क्या सोचते हैं।
( आज इस मौके पर 1928 में क्रांतिकारी भविष्यदृष्टा भगतसिंह का यह लेख बहुत मौजू सिद्ध होता है।)आपमें से अधिकांश ने यह लेख पढ़ा होगा, पर वर्तमान परिस्थितियों के आलोक में यह लेख और अधिक प्रासंगिकता के साथ हमारी सोच को एक बल प्रदान करता है।
1. विद्यार्थी और राजनीति
भगतसिंह (1928)
इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान(विद्यार्थी) राजनीतिक या पोलिटिकल कामों में हिस्सा न लें। पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है। विद्यार्थी से कालेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं कि वे पोलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे। आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मन्त्री है, स्कूलों-कालेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ानेवाला पालिटिक्स में हिस्सा न ले। कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था। वहाँ भी सर अब्दुल कादर और प्रोफसर ईश्वरचन्द्र नन्दा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पोलटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ(Politically backward) कहा जाता है। इसका क्या कारण है?क्या पंजाब ने बलिदान कम किये हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली है? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है?इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं। आज पंजाब कौंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है, और विद्यार्थी-युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस सम्बन्ध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब वे पढ़कर निकलते है तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।”
बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं,क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘Appeal to the young, ‘Prince Kropotkin’ ('नौजवानों के नाम अपील’, प्रिंस क्रोपोटकिन) पढ़ रहा था। एक प्रोफेसर साहब कहने लगे, यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है! लड़का बोल पड़ा- प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे। इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था। प्रोफेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हँस भी पड़ा। और उसने फिर कहा- ये रूसी सज्जन थे। बस! ‘रूसी!’ कहर टूट पड़ा! प्रोफेसर ने कहा कि “तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पोलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो।” प्रोफेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हँस भी पड़ा। और उसने फिर कहा- ये रूसी सज्जन थे। बस! ‘रूसी!’ कहर टूट पड़ा! प्रोफेसर ने कहा कि “तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पोलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो।”
देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते है?
दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबन्ध से सम्बन्धित कोई भी बात पोलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी,तो फिर यह भी पोलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जायेगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ। क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करनेवाले वफादार नहीं, बल्कि गद्दार हैं, इन्सान नहीं, पशु हैं, पेट के गुलाम हैं। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।
सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत हैं, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।
क्या इंग्लैण्ड के सभी विद्यार्थियों का कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पोलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहाँ थे जो उनसे कहते- जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो। आज नेशनल कालेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जायेंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है? सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहाँ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेंगे? नवजवानों 1919 में विद्यार्थियों पर किये गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रान्ति की जरूरत है। वे पढ़ें। जरूर पढ़े! साथ ही पालिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें। वरना बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता।
2. जेयनयू तथा संघी राष्ट्रोनमाद
ईश मिश्र
11 फरवरी 2016 को कुछ कुख्यात चैनलों पर जेयनयू में तथा-कथित देशद्रोही नारेबाजी के फर्जी वीडियो के प्रसारण के आधार जेयनयू पर पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई तथा मोदी सरकार के मंत्रियों और मोदी भक्तों के आक्रामक दुष्प्रचार के बाद लंबे समय से मीडिया तथा सोसल मीडिया की सुर्खियों में रहने से जातिवाचक संज्ञा – संस्था -- से भाववाचक संज्ञा – विचार में जेएनयू का संक्रमण हो गया है. जी हां जेयनयू निश्चित रूप से एक विचार है -- लोकतान्त्रिक शैक्षणिक संस्कृति का विचार -- जो छात्रों को तथ्य-तर्कों के आधार पर यथार्थ की वैज्ञानिक समझ विकसित करने तथा उस समझ की अभिव्यक्ति के साहस निर्माण का समुचित परिवेश प्रदान करता है. वाद-विवाद, विचार-विमर्श की बुनियाद पर खड़ी यह संस्कृति जेयनयू की ऐतिहासिक विरासत है जिसे मौजूदा छात्रों ने गौरवान्वित किया है. जेयनयू का रात्रिकालीन बौद्धिक जीवन ज्ञान-प्रक्रिया का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना दिन का. जी हां जेयनयू एक विचार है – द्वंद्वात्मक सवाल-दर-सवाल, अपनी सोच के संस्कार से शुरू कर हर बात पर सवाल की निरंतरता की प्रगतिशील ज्ञान-मीमांसा का विचार. जेयनयू एक विचार है जो मानता है कि किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल है, इसलिए कुछ भी सवाल से परे नहीं है न भगवान, न मार्क्स न मोदी सरकार और न ही देशभक्ति के आवरण ब्राह्मणवाद. जेयनयू एक विचार है मिथ के अनावरण से इतिहासबोध का. फासीवादी निरंकुशता की विचारधारा के पोषक संघ संप्रदाय तथा भूमंडलीय पूंजी को मुल्क गिरवी रखने को अतिउत्साहित मोदी सरकार को ब्राह्मणवाद तथा सरकार को बेनकाब करने के सवाल नागवार लगना ही था और उन्होने जेयनयू धावा बोल कर अपने अंत की शुरुआत कर दी. जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति का निर्माण सार्वजनिक सभाओं, फिल्म प्रदर्शन तथा अन्य सांस्कृतिक कार्क्रमों के आयोजन, 24 घंटे खुले रहने वाले पुस्तकालय का सामाजाकरण, ढाबों की अड्डेबाजी की सर्जनात्मक बहसों की अनवरत परंपरा का परिणाम है.
इस विचार की जमीन आरयसयस जैसे पुराणपंथी संगठनों की जीवन रेखा, भक्तिभाव तथा अंध अनुशरण की प्रवृत्ति के प्रजनन के प्रतिकूल है. इसलिए शुरू से ही यह आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी उग्रवादी संगठनों की आंख की किरकिरी बना रहा है. केंद्र सरकार की शह पर ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा रोहित वेमुला की संस्थानात्मक हत्या के विरोध का अड्डा बनते ही दक्षिणपंथी उग्रवाद के संचित रोष का घढ़ा फूट गया. अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध के इस अड्डे को सरकार ने इसे देशद्रोह का अड्डा घोषित कर धावा बोल दिया तथा संघी भोंपू आक्रामक दुष्रचार में जुट गये. हमले के तुरंत बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह तथा रोहित वेमुला की संस्थानात्मक हत्या की प्रमुख किरदार, मानव संसाधन मंत्री के बयानों की बौखलाहट से स्पष्ट है यह हमला पूर्वनियोजित था. जैसे गोधरा के प्रायोजन से गुजरात में कोहराम मचाकर समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से मोदी ने सत्ता हासिल की थी वही प्रयोग जेयनयू पर दोहराने की कोशिस की. गुजरात में हिंदुत्व पर खतरे का हौव्वा खड़ा किया था तो जेयनयू में राष्ट्रवाद पर. अजीब बात है, पतनशील ब्राह्मणवाद जब खतरे में होता है तो कभी हिंदुत्व बन जाता है तो कभी राष्ट्रवाद. लेकिन जेयनयू तो विचार है, विचार दबता नहीं, मरता नहीं, इतिहास रचता है. जैसा कि जगजाहिर हो चुका है, एबीवीपी, आईबी तथा सरकारी रखैल अफवाहबाज चैनलों की मदद से 9 फरवरी 2016 को कश्मीर पर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में देशद्रोही नारों के फर्जी वीडिओ के इस्तेमाल से जेयनयू के क्रांतिकारी विद्यार्थियों पर देशद्रोह का ठप्पा मढ़ दिया. फिर भी प्रधानमंत्री समेत संघ परिवार के सभी प्रवक्ता गोबेल्स की तर्ज़ पर, जेएनयू के छात्रों द्वारा भारत की बरबादी की नारेबाजी का झूठ लगातार दोहरा रहे हैं. संविधान के प्रति निष्ठावान ये युवा भारत के संविधान की दक्षिणपंथी, उग्रवादी हमले से रक्षा के लिए, जनता पर ज़ुल्म से लड़ने के लिए, मुल्क की बेहतरी के लिए कुर्बानी देने वाले हैं न कि भारत की बरबादी चाहने वाले.
बचपन से ही वंदे मातरम् तथा भारत माता की जय के कंठस्थ नारे अचानक भयावह लगने लगे हैं. एबीवीपी तथा आरएसएस के अन्य धड़ों ने इसे अल्पसंख्यकों, दलितों,तर्कवादियों और अब छात्रों पर आक्रमण का युद्ध घोष बना दिया है। धार्मिक भावना पर खतरे की जगह अब राष्ट्रवाद पर खतरे ने ले ली है. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने जेएनयू के संदर्भ में घोषणा की कि राष्ट्रवाद से समझौता नहीं किया जा सकता। उन्होंने प्रकारांतर से यह भी कहा कि भारत माता कि जय बोलना ही राष्ट्रवाद है. गौरतलब है कि इनकी भारत माता कि अवधारणा आम जन के अर्थ में दी गई नेहरू कि अवधारणा के विपरीत, सिंह पर सवार देवी है जिसके एक हाथ में त्रिशूल है और दूसरे में भगवा झण्डा. उनके अनुसार, इस नारे का उच्चारण न करना संविधान की अवहेलना है. गौरतलब है कि संविधान में कहीं भी राष्ट्रवाद अथवा भारत माता के संबंध में कुछ नहीं लिखा है। किसी पर विशेष नारे के उच्चारण के लिए दबाव डालना उसके विचार, अन्तःकारण,आस्था तथा विश्वास के संवैधानिक मौलिक अधिकार का अतिक्रमण है. प्रधानमंत्री समेत तमाम भाजपा नेताओं द्वाराहिन्दू राष्ट्रवादी होने का दावा संविधान के प्राक्कथन की भवना का अपमान है जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष,लोकतान्त्रिक राज्य के रूप में चित्रित करता है. मोदी जी को यदि संवैधानिक जनतंत्र के इतिहास की जानकारी होती तो जानते, जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने कहा है कि संवैधानिक राज्य में संविधान के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रवाद है. भारत माता कि जयकार करते हुए अभिव्यक्ति और सभा करने के संवैधानिक अधिकारों पर हमला राष्ट्रवाद नहीं हुड़दंग है तथा संविधान का अपमान, अतः देशद्रोह. जेएनयू हुड़दंग का जवाब तर्क से देता है.
हाल में अरुण जेटली ने दावा किया कि एबीवीपी ने जेएनयू में विचारधारात्मक जंग फतह कर लिया है।जेएनयू पर हमले तथा संघ के निराधार दुषप्रचार की विश्वव्यापी भर्त्सना तथा छात्रों के प्रतिरोध कि व्यापकता को देखते हुए,जेटली का दावा खिसियानी बिल्ली के खभा नोचने जैसा है. जेएनयू मुद्दे पर, मोदी समेत भाजपा के तमाम नेताओं के वक्तव्यों को पढ़-सुन कर लगता है कि भाजपा नेतृत्व में सारे के सारे झूठे और विदूषक हैं. यह बात बहुत पहले ही स्थापित हो गई थी कि तथाकथित राष्ट्रवादी चैनलों ने नारेबाजी के फर्जी वीडिओ प्रसारित किया था। झूठी खबर फैलाकर समाज में अशांति फैलाने वाले चैनलों पर कार्यवाही करने की बजाय ये अनवरत रूप से वही चैनली झूठ अलापते जा रहे हैं. मोदी को देश के लिए भगवान का उपहार बताने वाले वेंकइया नायडू को जेएनयू का प्रतिरोध चंद अतिवामपंथी-माओवादियों की कार्रवाई लगती है जबकि हजारों-हजार छात्र जेएनयू के फ्रीडम स्कायर पर रोज राष्ट्रवाद की कक्षाएं कर रहे है. यह एक बौद्धिक गृहयुद्ध, एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत है. रोहित वेमुला ब्राह्मणवाद के विरुद्ध इस निर्णायक सांस्कृतिक युद्ध का प्रतीक है तथा जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया नायक. संघ के मुख्यालय नागपुर में विशाल जनसमुदाय को संबोधित करते हुए जब वह संघिस्तान को ललकार रहा था तब खिसियाहट में एबीवीपी वालों ने उसपर हमला किया और जूता फेंका. कन्हैया ने जवाब में जोड़ी का दूसरा जूता भी फेंकने को कहा जिससे वे किसी के काम आ सकें. जेएनयू के विचार और संघी राष्ट्रोंमाद मे यही फर्क है.
भाजपा की उपरोक्त राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कार्यकर्ताओं से जेएनयू में विचारधारात्मक युद्ध पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा. लगता है विचारधारात्मक युद्ध की संघी परिभाषा गुंडागर्दी,गाली-गलौज तथा वैचारिक विरोधियों के कार्यक्रमों में हिंसक हुड़दंग है. फासीवादी दमन, विद्यार्थी परिषद की गुंडागर्दी व सांघी भोपुओं द्वारा देश द्रोह के कुप्रचार के बावजूद जेएनयू समुदाय - छात्र,शिक्षक तथा जेएनयू के पुराने छात्र -- रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या तथा जेएनयू पर हमले के विरुद्ध जारी संघर्ष को जनतंत्र तथा संविधान पर फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी संघर्ष में तब्दील करने को कटिबद्ध हैं.
जी हाँ, माननीय मोदी जी या जेटली जी या इनके नागपुरिया आक़ा ठीक कह रहे हैं कि यह एक वैचारिक युद्ध है, विचारों की विचारधारा व फर्जी वीडियो व पूर्वनियोजित दुष्प्रचार की विचारधारा के बीच; विवेक की विचारधारा एवं हुड़दंग की विचारधारा के बीच; जेएनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी हिन्दुत्व उग्रवाद के राष्ट्रोंमाद के बीच. जेएनयू एक विचार है जिसे दमन से न डराया जा सकता है न ही दबाया जा सकता है. दमन तथा जेल से जेयनयू डरा नहीं बल्कि इसका संघर्षशील संकल्प और मजबूत हुआ है. जैसा कि देशद्रोह के आरोप में जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद, उदीयमान इतिहासकार उमर ने कहा कि जेयनयू डरना जानता ही नहीं. जेटली के जेएनयू में विचारधारात्मक युद्ध में विजय की घोषणा हास्या.पद लगती है. जमानत पर रिहा होने के बाद 3 मार्च का कन्हैया का भाषण ऐतिहासिक हो गया. कन्हैया के ही नहीं, सभी छात्रों – छात्रसंघ की उपाध्यक्ष शहला राशिद, संसद में संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए स्मृति इरानी द्वारा देशद्रोही घोषित अनिर्बन, उमर, अनंत, आशुतोष, अपराजिता आदि सभी के भाषणों-लेखों में अद्भुत परिपक्वता, सुस्पष्टता तथा फासीवादी हमले से संविधान की रक्षा के संघर्ष की अडिग प्रतिबद्धता है. बीबीसी समाचार के अनुसार, कन्हैया के भाषण को लगभग 30 लाख लोगों के मध्य फेसबुक पर साझा किया गया तथा लाखों लोगों द्वारा पसंद किया गया.
संघीय राष्ट्रोंमाद जेएनयू को डराकार विद्रोह की आवाज को दबाना चाहता है, परंतु जैसा उमर ने कहा कि,भय में जीना जेएनयू के स्वभाव में ही नहीं है. वैचारिक जड़ता के चलते नए नारे गढ़ने में असमर्थ दक्षिपंथी उग्रवादी राष्ट्रोन्माद वही घिसे-पिटे नारों का शोर मचाते हैं. जेयनयू एक विचार है तथा विचार गतिशील होता है तथा अपने गति के नियमों का निर्माण नए नारों से करता है. जी हाँ जेटली जी, संवैधानिक राष्ट्रवाद के विचार व दक्षिणपंथी राष्ट्रोंमाद के बीच, ब्राह्मणवादी रूढ़िवाद तथा मार्क्स व अंबेडकर के स्वप्नों के समानतावाद के बीच यह एक सांस्कृतिक तथा बौद्धिक युद्ध है. तथा जेएनयू के विचार तथा आरएसएस के राष्ट्रोंमाद के बीच इस युद्ध में विजय अंततः विचार की होगी.
3. जेएनयूः एक विचार
जेएनयू वाकई एक विचार है -- अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का विचार. इस विचार के वाहक भावी इतिहास के नए सूत्रधार, देश के युवा है. आज हम इतिहास के एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जब जंतांत्रिक विचारों और संस्थाओं पर नाजी जर्मनी के पैटर्न पर फासीवादी हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। जेएनयू के विरुद्ध सोसल मीडिया पर जारी कई वीडियो में कुछ संघी भारत माता की जय के नारों साथ कन्हैया तथा उमर की मां-बहन को अश्लील भाषा में गालियां दे रहे हैं. यह है अमित शाह तथा अरुण जेटली का विचारधारात्मक युद्ध. वास्तव में, भक्ति भाव का शाखा प्रशिक्षण विद्रोह तथा विवेक की प्रवृत्तियों को कुंद बना देता है. इस हमले का जेएनयू का जवाब राष्ट्रवाद पर वैकल्पिक कक्षाएं तथा कल्पनाशील सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं. यह जेएनयू का विचार है.
सारे संघी कुतर्कों तथा गोयबल्सी झूठ के जवाब में जेएनयू की एमफिल की एक छात्रा, अपराजिता राजा का एक लेख, जहां दीवारें भी बोलती हैं (इंडियन एक्सप्रेस,9मार्च 2016) ही बहुत भारी पड़ता है. “यदि सवाल की इज़ाजत न हो, आलोचनात्मकता तथा तार्किकता पर रोक हो तो कोई भी विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र नहीं हो सकता. जेएनयू की पहचान भवनों, प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटरों से नहीं है. यह यहाँ के विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों से है, उनके बीच संवाद से है, उनके द्वारा विकसित ज्ञानमीमांसा के अभ्यास से है. हमारे प्रगतिशील वाद-विवाद तथा चर्चा-परचर्चा से उभरी समझ पर अमल की दत है जिसने एक हद तक जेंडर तथा सामाजिक न्याय को संस्थागत बना दिया है. इस प्रकरण के शुरू से ही संघी प्रवक्ता जेएनयू के 9 फ़रवरी के सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन को सियाचीन में भूस्खलन से हुई सैनिक की मौत से जोड़ रहे है. जैसे कि हिमालय मे भूस्खलन जेएनयू में नारेबाजी से हुआ हो!जेएनयू का जवाब तथ्यपरक व्याख्या तथा तार्किक विश्लेषण है. इसीलिए जेएनयू एक विचार है.
हम जेएनयू के पहले दशक के छात्रों को इस विचार के निर्माण प्रक्रिया में भागीदारी का फक्र है तथा हम इसके साथ खड़े रहने को दृढ़ संकल्प हैं. द फर्स्ट डेकेड ऑफ जेयनयूआइटेस नामक फेसबुक समूह के सारे सदस्य संघर्ष के साथ एकजुट हैं. जेएनयू के दिनों में हम सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे के विरुद्ध उग्र बहसें करते थे लेकिन शाम को गंगा ढाबे पर एक साथ अड्डेबाजी करते थे. हमारी लड़ाई विचारों की थी न कि वैयक्तिक. मतभेदों का ससम्मान खंडन जेएनयू की विरासत है, दक्षिणपंथी उग्रवादी इस विचार का गुरुत्व नहीं समझ नहीं सकते. इसीलिए वे इस महान विरासत को बर्बाद करना चाहते हैं. परंतु विचारों की विरासत मरती नहीं बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती है. दमन-उत्पीड़न उत्पीड़न तथा तथा राष्ट्रोंमादी दुष्प्रचार का पर जेएनयू का जवाब 15 फरवरी को 3.5 किमी लंबी मानव क्षृंखला थी. 18 फरवरी अभिनव नारे तथा गीतों के साथ जेएनयू की कई पीढ़ियों की तरफ से 15,000 लोगों का अहिंसक संसद मार्च दिल्ली के इतिहास में अभूतपूर्व था. रोष्च्रोंमादी हमले का यह जेयनयू का जवाब है. फ्रीडम स्क्वायर पर 4,000-5,000 छात्रों की राष्ट्रवाद पर रोजाना की कक्षा जेयनयू का जवाब है. एक जेएनयू का छात्र कभी भी भूतपूर्व जेएनयूआइट नहीं होता बल्कि अजीवन जेयनयीआइट ही रहता है. यह है जेएनयू का विचार.
जेयनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी उग्रवादी राष्ट्रोंमाद के बीच जारी युद्ध में तब से बहुत कुछ हो गया. पूरे विश्व से लोग जेयनयू के पक्ष में प्रदर्शन कर रहे हैं, लिख रहे हैं, बात कर रहे हैं. मोदी सरकार तथा संघपरिवार द्वारा साथ कैम्पसों पर भगवा हमले की चहुं ओर भर्त्सना हो रही है. नाजी तूफानी दस्तों (एसए) के ढर्रे पर एबीवीपी इस सरकार की परा-सैन्य बल की भांति कार्य कर रही है, जिसका प्रमुख कार्य विरोधी दलों की सभाओं को तोड़ना था। साम्यवादी तथा अल्पसंख्यक इसके मुख्य निशाने थे। 15 मार्च को उमर खालिद और आनिर्बान की रिहाई की मांग को लेकर संसद तक विरोध मार्च के समापन पर सभा में संघी गुंडों ने पुनः जेएनएसयू के अध्यक्ष कन्हैया को गाली दी तथा उसपर हमले की कोशिश की। कन्हैया ने इसका जवाब संविधान के प्रति निष्ठा के साथ फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष को तार्किक परिणति तक ले जाने के संघर्ष की प्रतिबद्धता के ऐलान के साथ दिया. कन्हैया तथा अन्य छात्र नेताओं के तार्किक दलीलों के साथ तथ्यपरक भाषण उनकी क्रांतिकारी प्रतिबद्धता तथा देशभक्ति के परिचायक हैं। लेकिन उनकी देशभक्ति भारत के लोगों के प्रति सरोकार की है मोदी भक्ति की नहीं। बाहुबल के विरुद्ध तार्किक विमर्श जेएनयू का जवाब है। यही जेएनयू का विचार है।
15 फ़रवरी 2016 हमारे जीवन तथा जेएनयू के इतिहास का एक यादगार दिन था। नए तथा पुराने कामरेडों के साथ 3.5 किमी लंबी मानव श्रृंखला में भागीदारी का राजनीतिक तथा नैतिक आनंद अवर्णनीय है. उत्तरी गेट से प्रशासनिकक ब्लॉक तक अभिनव बैनर-पोस्टरों के साथ नवीन गीत गाते हुए, नए-नए नारे लगाते हुए हजारों विद्यार्थियों, शिक्षकों, जेएनयू के पुराने छात्रों के अनुशाशित जुलूस ने, 70 के दशक को मुक्ति का दशक बनाने का सपना देखने वाले, हम लोगों के अंदर अनूठे आशावादिता का संचार कर दिया। जुलूस के बाद छात्र नेताओं द्वारा लगभग 7,000-8,000 की शांतिपूर्ण लोगों की सभा को परिपक्वता, समझ, वैज्ञानिकता, प्रतिबद्धता एवं स्पष्टता के साथ सम्बोधन ने हमें अभिभूत कर दिया। फक्र है हमे जेएनयू के विरासत पर। दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के विरोध में नागरिक मार्च के बाद 19 फ़रवरी को जेएनयू के समर्थन में संसद मार्च सबसे बड़ी रैली थी. इसने मुझे अपने इस कथन की प्रामाणिकता की आश्वस्ति दी कि इतिहास की गाड़ी में बैक गियर नहीं होता, कुछ अल्पकालिक यू-टर्न हो आ सकते हैं तथा यह कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जो जल्द ही इस यू टर्न को उलट देती है और नई दिशा प्रदान करती है. यही जेएनयू का विचार है.
शिक्षा के व्यावसायीकरण के सरकारी मंसूबों के विरुद्ध महीनों से चल रहे ऑक्युपाई यूजीसी आंदोलन में जेएनयू के छात्रों की अग्रणी भूमिका है. ब्राह्मणवादी उत्पीड़न से हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की शहादत से जेएनयू रोहित के न्याय के संघर्ष का केंद्र बन गया. जय भीम-लाल सलाम के नारे एक ही मंच से लगने लगे. यह संघर्ष के एक बहुप्रतीक्षित नए आयाम का आगाज है. यह सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की नई एकता की शुरुआत है. जेएनयू के विद्यार्थी तथा शिक्षक अपने सरोकारों को केवल कैंपस प्रकरणों तक सीमित नहीं करते बल्कि उनका सरोकार विश्व तथा देश के सभी अन्य प्रमुख मुद्दों तक व्याप्त होता है. इस आंदोलन ने मुझे 1970 के दशक के उत्तरार्ध में जनता पार्टी के शाशन काल के एक आंदोलन की याद दिला दी. जेएनयू के छात्रों ने जेएनएसयू के नेतृत्व में डीटीसी किराये वृद्धि के विरोध में सफल संघर्ष किया। डीटीसी की बसें परिवहन का प्रमुख साधन होती थीं. इस प्रक्रिया में अश्रुगैस, लाठीचार्ज तथा गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा। राज्य के सभी अवरोधों तथा दमन के बावजूद हम शांतिपूर्ण तथा दृढ़ बने रहे। कई छात्रों के हाथ-पैर भी टूटे. ऋतु जयरथ-(वर्तमान में जेएनयू के रूसी अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर) के पैर में लगे प्लास्टर के बारे में चुटकुला था कि बहुत सारा साहित्य खो जाएगा इस प्लास्टर के हटने के बाद. अंततः हम किराया वृद्धि वापस कराने में सफल रहे। किराये वृद्धि की पूरी वापसी का यह शायद एकमात्र उदाहरण है। आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र को लगा हम जब 12.5 रुपये के डीटीसी पास में पूरी दिल्ली कि यात्रा कर सकते थे तो आंदोलन कि मूर्खता क्यों कर रहे थे? हमारा जवाब था कि हमारे लिए दुनिया कि आबादी एक ही नहीं है क्योंकि व्यक्ति का वजूद महज आत्मकेंद्रित व्यक्ति के रूप में नहीं है बल्कि समाज की सामूहिकता के अंग के रूप में है. हम सिर्फ अपनी मेस बिल के लिए नहीं लड़ते, हम सिर्फ अपनी हॉस्टल की समस्याओं के लिए नहीं लड़ते बल्कि ईरान में शाह के दमन के खिलाफ भी प्रदर्शन करते हैं. हम सिर्फ फैलोशिप के लिए नहीं लड़ते बल्कि अफगानिस्तान में सोवियत फौज के खिलाफ भी प्रदर्शन करते हैं. इसीलिए जेएनयू दक्षिणपंथियों की आँख की किरकिरी बना रहा है. यही जेएनयू का विचार है.
आंदोलन का यह सुखद अनुभव इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आंदोलनों के अनुभवों से अलग था. वहां छात्रों की विरोध रैली का अर्थ था पत्थरबाजी , तोड़-फोड़ ,दुकानों की लूट तथा अन्य सार्वजनिक या निजी संपत्ति को क्षति पहुंचाना. हमने डीटीसी की बसें अगवा की तथा कुछ वरिष्ठ छात्रों ने बसों की रखवाली की ज़िम्मेदारी ली ताकि उनकी बाहरी शरारती तत्वों तथा घुसपैठियों से सुरक्षा की जा सके. बड़े आदर तथा सम्मान के साथ कंडक्टरों तथा चालकों को कैंटीन ले जाया गया और समोसे, चाय, सिगरेट तथा बातचीत के से उनका स्वागत किया गया. यह जेएनयू का व्यवहार है.
अब पुरानी यादों कि चर्चा यहीं बंद करता हूँ वरना सालों में आत्मसात यादों का सिलसिला खत्म ही नहीं होगा. इस भाग का समापन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ(जेएनयूएसयू) के अनूठे चरित्र की चर्चा के साथ करना चाहूंगा. 1970 के उत्तरार्ध में लखनऊ विश्वविद्यालय का एक छात्र चुनाव के समय जेएनयू आया था. चुनाव की प्रक्रिया तथा चुनाव सभाएं देख चकित रह गया. एक चुनावी सभा के बाद उसने मज़ाक में कहा कि जेएनयू में कोई भी छात्र चुनाव लड़ सकता है, क्योंकि हारने व जीतने के अलावा यहाँ जान का खतरा नहीं होता. चुनावों में जन बल और धन बल का प्रयोग एक स्थापित जंतांत्रिक वर्जना है. यहाँ विवादों का निपटारा बाहुबल से नहीं बलकि छात्रों की आम सभा (जीबीएम) में व्यापक विचार-विमर्श द्वारा किया जाता है. जेएनएसयू का संविधान एक अनूठा दस्तावेज़ है. यह संविधान 1978 में छात्रों की संविधान सभा में पारित हुआ था. जीबीयम संविधान सभा में तब्दील हो गयी थी. संप्रभु राष्ट्र-राज्यों के संविधानों के प्राक्कथनों की ही तरह इसका भी प्राक्कथन, "हम जेएनयू के छात्र......." से शुरू होता है। इस संविधान के निर्माण कि प्रक्रिया काफी लंबी चली। काफी अध्ययन, विचार-विमर्श के बाद प्रारूप समिति द्वारा निर्मित दस्तावेज़ पर प्रत्येक सेंटर तथा बाद प्रत्येक स्कूल की ता प्रत्येक छात्रावास के जीबीएम में व्यापक विचार-विमर्श हुआ. इसके बाद प्रारूप समिति ने किया, मान्य संशोधनों को समाहित करके अंतिम प्रारूप(ड्राफ्ट) तैयार किया. संविधान सभा में तब्दील यूजीबीएम में व्यापक चर्चा के बाद इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया. यह एक ऐतिहासिक जीबीएम थी. इस संविधान के अनुसार, जेएनयूएसयू के चुनाव एवं अन्य क्रियाकलापों में राज्य अथवा विश्वविद्यालय प्रशाशन की कोई भूमिका या नियंत्रण नहीं है. यह संविधान छात्रों के विरुद्ध प्रशासन की कार्रवाइयों को मान्यता नहीं देता. निष्कासन के बावजूद कोई भी छात्र न महज छात्रसंघ का हिस्सा बना रहता है बल्कि चुनाव भी लड़ सकता है. यह है जेएनयू का विचार.
छात्रसंघ का चुनाव एक निर्वाचित चुनाव आयोग करवाता है. सबसे पहले हर स्कूल के छात्र चुनाव आयुक्तों का चुनाव करते हैं. फिर निर्वाचित चुनाव आयुक्त आपस में से एक मुख्य चुनाव आयुक्त चुनते हैं. सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया का संचालन चुनाव आयोग करता है। किसी भी उम्मीदवार के विरुद्ध बाहुबल या धनबल के प्रयोग का किसी भी सबूत से नामांकन खारिज हो जाता है. चुनाव प्रचार में हाथ से लिखे पोस्टरों तथा पर्चों एवं चुनावी सभाओं से किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में पुलिस और प्रशाशन की कोई भूमिका नहीं होती. हाल के वर्षों में एबीवीपी के हुड़दंग के कुछ अपवादों को छोड़कर विश्वविद्यालय के पिछले साढ़े चार दशक के इतिहास में कोई बड़ी हिंसक वारदात नहीं हुई. जेएनयू मे चुनाव का मौसम लोकतान्त्रिक उत्सव सा होता है। चुनाव की रात सारा जेएनयू रतजगा करता है. मतगदना के हर चरण के परिणाम की सब गाते गप्पियाते इंतज़ार करते हैं. जेयनयू छूटने के कई साल बाद तक हम इस लोकतांत्रिक उत्सव में शरीक होते रहे. सारे संगठनों के लोग आपस में अलग-अलग समूहों में मिलकर चाय-सिगरेट के साथ बिना किसी दुराग्रह के चुट्कुले सुनते सुनाते गप्पे करते अगले चरण के मतदान का इंतज़ार करते. हारने या जीतने वाले उम्मेदवारों में कोई कटुता नहीं होती थी. राजनैतिक मतभेद कभी निजी विरोध में नहीं बदलते थे. सामाजिक सहानुभूति का माहौल जेएनयू की खास खासियत रही है. इसीलिए जेएनयू एक विचार है.
4. आरएसएस का राष्ट्रोनमाद
यहाँ का सवाल करने और वाद-संवाद का द्वन्द्वात्मक जंतान्त्रिक परिवेश भक्ति-भाव, अंध आस्था और अशनुरण भाव के प्रजनन के प्रतिकूल है जो कि दक्षिणपंथी उग्रवाद के स्तंभ हैं. जेएनयू की मिट्टी ब्राह्मणवादी पोंगापंथ तथा साम्राज्यवादी व्यवसायीकरण के भी प्रतिकूल है. (जब ब्राह्मणवादी विचारधारा अपने अस्तित्व के खतरे का सामना करती है, तो खुद को वह हिन्दुत्व या देशभक्ति के आवरण में छुपा लेती है, रोहित बेमुला मामले में हिंदुत्व कार्ड की गुंजाइश न देख, इसने राष्ट्रवाद का तुर्फ चल दिया.) इसलिए यह आरएसएस से लेकर जमात-ए-इस्लामी सभी दक्षिणपंथी उग्रवादियों की आँख की किरकिरी बना रहा है. हिन्दुत्व गिरोहो द्वारा आक्रामक कुप्रचार तथा राज्य के दमन का जेएनयू की प्रतिक्रिया शांतिपूर्ण प्रतिरोध है.
जेएनयू के विचार के विपरीत, दक्षिणपंथी उग्रवादी राष्ट्रोंमाद की अभिव्यक्ति एबीवीपी के जरिये गुंडागर्दी,हुड़दंग तथा विरोधियों के कार्यक्रमों के हिंसक विरोध में होती रही है. ऐसा प्रतीत होता है कि विचारों और कलपनशीलता के अभाव में अपने कार्यक्रम के आयोजन में अक्षम इसने दूसरे के कार्यक्रमों को हिंसा और गाली-गलौज से बाधित करने को ही अपना एकमात्र कार्यक्रम बना लिया है. इस ऋंखला में नागपुर की एक विशाल सभा में जेएनएसयू अध्यक्ष कन्हैया के भाषण को बाधित करने का मामला सबसे ताजा है जहां उसने संघ मुख्यालय के थोड़ी ही दूरी से संघिस्तान के विरुद्ध जंग का ऐलान किया.
दिल्ली विश्वविद्यालय में ''भगत सिंह का जीवन व कार्य" विषय पर जेयनयू के भूतपूर्व प्रोफेसर चमनलाल के लेक्चर का आयोजन था. एबीवीपी के 20-25 नरणबाकुरे भारतमाता की जय के नारों के साथ हुड़दंग मचाना शुरू कर दिया. आयोजन तब भी चला. पटियाला हाऊस में जेएनएसयू के अध्यक्ष, छात्र व प्रोफेसर पर केसरिया गुंडों द्वारा आक्रमण के दौरान जिस प्रकार पुलिस मौन दर्शक बनकर खड़ी रही उसी प्रकार उपर्युक्त कार्यक्रम में हुड़दंग के जौरान भी. इन सब घटनाओं में एक पैटर्न दिखता है. 20-25 एबीवीपी के लोग प्रतिरोध के कार्यक्रमों में हिंसक हुड़दंग करेंगे. उनको रोकने की बजाय पुलिस आयोजकों को कार्यक्रम रोकने को कहती है। यह नाजी तूफानी दस्ते(यसए) की याद दिलाता है जो कि विरोधियों विशेषकर साम्यवादियों के कार्यक्रमों को हुड़दंग से बाधित करते थे तथा अल्पसंख्यकों की बस्तियों पर हमला बोलते थे और पुलिस अपनी आखों पर पट्टी बांध लेती थी.
13 मार्च को एक पुराने जेयनयूआइट विजय शंकर चौधरी के नेतृत्व में नागरिक समाज नामक संगठन ने जेयनयू स्पीक्स विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया. नगरनिगम सभागार आम्रपाली की बुकिंग को आखिरी समय पर एक स्थानीय भाजपा नेता की शिकायत पर रद्द कर दिया गया। वक्ताओं में थे सुपरिचित वैज्ञानिक, प्रबीर पुरकायस्थ;जेएनयू के प्रोफेसर एसएन मलकर; महिला संगठन ऐडवा की जनरल सेक्रेटरी, कविता कृष्णन; विख्यात लेखक तथा कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तथा पूर्व जेएनएसयू अध्यक्ष जगदीश्वर चतुर्वेदी, तथा स्मृति इरानी द्वारा देशद्रोही करार, पिछली साल के जेयनयूयसयू अध्यक्ष आशुतोष और यह लेखक. जब आयोजकों ने सभागार परिसर के बाहर एक स्थान पर कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय किया तो अपने नियत पैटर्न का अनुशरण करते हुए 20-25 एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने आयोजन शुरू होते ही पर लाठियों तथा पत्थरो से हमला शुरू कर दिया. पुलिस मूक दर्शक बनी रही तथा आयोजकों को कार्यक्रम बंद करने का सुझाव दिया. इस दृश्य को बताने का मेरा उद्देश्य जेएनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी उग्रवादियों के राष्ट्रोंमाद के बीच के अंतर दर्शाना है.
प्रख्यात कलाकार यमयफ हुसैन की प्रताड़ना सुविदित है। एबीवीपी कार्यकर्ताओ न हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के स्वघोषित प्रवक्ता बन उनकी प्रदर्शनी मे तोड़-फोड़ किया. हुए थे। उन्हे अपने प्यारे वतन को छोड़ने को मजबूर कर दिया गया. बहादुर शाह जफर की तरह हुसैन को भी दो गज जमीन न मिली अपने कूचे यार में.
2008 में, 25-30 एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग मे तोड़-फोड़ किया तथा एक इतिहासकर प्रोफेसर के साथ बदतमीजी तथा गाली-गलौच किया. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में प्रख्यात इतिहासकर एके रामानुजन के निबंध थ्री हंड्रेड रामायनाज़, फाइव एक्ज़ाम्पल्स एंड थ्री ट्रांसलेसन्स को शामिल करने का विरोध कर रहे थे. गौरतलब है कि यह पाठ्यक्रम 2 साल पहले से ही पढ़ाया जा रहा था. यहां भी मामला धार्मिक भावनाओं के आहत होने का था. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश में बनी समीक्षा समिति के 4 में से 3 सदस्यों की अनशंसा तथा शिक्षकों, छात्रों एवं प्रमुख इकिहासकारों के विरोध प्रदर्शनों को दर किनार कर दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने 2011 में पाठ्यक्रम से निकाल दिया.
दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज के रंगमंच समूह अंकुर द्वारा सांप्रदायिक दंगों पर किया गया नाटक का मंचन एबीवीपी द्वारा बाधित कर दिया गया तथा एबीवीपी द्वारा संचालित डीयूएसयू द्वारा इस नाटक पर रोक लगा दी गई. प्रशासन ने हुड़दंगियों पर कार्ऱवाई करने की बजाय शांतिभंग की आशंका में नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
2013 में मुजफ्फर नगर सांप्रदायिक के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने दुल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के समाजशास्त्र विभाग में इसपर एक संगोष्ठी आयोजित की. संगोष्टी शुरू होने के पहले ही कुछ एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने वंदे मातरम चिल्लाना शुरू कर दिया। उनका विरोध इस बात पर नहीं था की "क्या कहा गया" बल्कि इस बात पर था की "क्यों कहा गया"?
किरोड़ीमल कॉलेज मे "मुजफ्फरनगर बाकी है" के प्रदर्शन को भी इसी प्रकार एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने हुड़दंग मचाकर रोक दिया. एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने अंग्रेजी साहित्य के एक सीनियर प्रोफेसर तथा जाने माने नाटककार,केवल वर्मा को गाली-गलौच के साथ धमकियां दीं. प्रशाशन द्वारा इन हुड़दंगियों को पुलिस में देने की बजाय प्रदर्शन को ही रुकवा दिया गया.
ब्राह्मणवादी गिरोहों द्वारा रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है, यहां सिर्फ दक्षिणपंथी उग्रवादियों द्वारा विश्वविद्यालय परिसरों में वफादार, संघी कुलपतियों की मदजद से असहमति की अभिव्यक्ति पर हमले के पैटर्न की तरफ इशारा करना है. रोहित के मामले में धार्मिक भावनाओं के आहत होने की चाल न चलती देख देशद्रोह का शगूफा छोड़ दिया. रोहितअंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएसन(एयसए) का सक्रिय कार्यकर्ता था. एयसए ने हैदराबाद में मुज़फ्फरनगर बाकी हैके प्रदर्शन को रोकने के लिए एबीवीपी के हुड़दंग का विरोध किया. जैसा कि सुविदित है कि एबीवीपी की शिकायत तथा स्मृति इरानी के निर्देश से एयसए के 5 सदस्यों को हॉस्टल से निष्कासन तथा सांस्थानिक पाबंदियों का दंड दिया तथा भविष्य के रोहितों के लिए एक भावी लेखक ने एक खत लिख कर शहादत दे दी. बहुत मामले में रोहित की शहादत भगत सिंह सी लगती है.
जब जेयनयू रोहित की शहादत के प्रतिरोध का गढ़ बन गया तो गृहमंत्री ने उसे देशद्रोह का अड्डा घोषित कर दिया तथा मानव संसाधन मंत्री ने परिसर को देशद्रोहियों से मुक्त कराने का ऐलान कर दिया. छोत्रों की गिरफ्तारी तथा आक्रामक दुश्प्रचार अब इतिहास बन चुका है. जेयनयू में भी वही पैटर्न, जैसे 1933 नाज़ी तूफानी दस्तों ने राइशटाग(संसद) में आग लगाकर इल्ज़ाम सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाकर रोष्ट्रोंमादी दुष्प्रचार के साथ कम्युनिस्टों तथा अल्पसंख्यकों पर हमला शुरू कर दिया. लेकिन 2016 का भारत 1933 का जर्मनी नहीं है. जेयनयू प्रशासन ने 9 फरवरी को एबीवीपी की शिकायत पर कुछ मिनट पहले क्मीर समस्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम ए सिटी विदाउट पोस्टऑफिस की अनुमति रद्द कर दी. कार्यक्रम का एबीवीपी ने हुड़दंगी विरोध शुरू कर दिया. तथाकथित राष्ट्रवादी चैनलों ने भारत की बर्बादी के नारेबाजी के फर्जी वीडियो टेलीकास्ट किया जिसे बहाना बनाकर सरकार ने हमला कर दिया.
आज हम इतिहास के एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. यह, एक सांस्कृतिक-बौद्धिक गृहयुद्ध की शुरुआत है—जेएनयू के विचार तथा संघी राष्ट्रोंमाद के बीच; असहमति के साहस तथा हुडदंगी उत्पात के बीच; विचार की खूबसूरती तथा दमन की क्रूरता के बीच. एक तरफ विश्वविख्यात बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की व उदीयमान बुद्धिजीवी अपराजिता राजा सरीखे लोग हैं, दूसरी तरफ सुब्रमण्यम स्वामी व वैंकिया नायडू सरीखे वुदूषक. एक तरफ प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका कन्हैया कुमार है, दूसरी तरफ उसपर आक्रमण करने वाले संघी गुंडे; एक तरप कन्हैया पर हमला करने वाले दक्षिणपंथी उग्रवादी गुंडे हैं, दूसरी तरफ जेएनयू के छात्र जो गुंडे को चाय पिलाकर गेट तक सुरक्षित पहुंचाते हैं; एक तरफ उमर खालिद, अनिर्बन की सरीखे तर्कशील छात्र हैं, दूसरी तरफ हिंसक धमकी के वीडिओ प्रसारित करने वाले एबीवीपी के लंपट; संक्षेप में एक तरफ विचार की स्वतन्त्रता के समर्थक तथा दूसरी तरफ स्वतन्त्रता के दमन के समर्थक. आज के अखबार, पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स के क्लिपिंग कल के इतिहासकारों की शोध सामाग्री हैं.
5. जेएनयू तथा कट्टर राष्ट्रोन्माद
इस प्रकरण से राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति पर; अभिव्यक्ति स्वतंत्रता तथा उसकी पर; सांस्कृतिक उत्सवों की आजादी तथा सास्कृतितिक पहरेदारी पर एक व्यापक बहस छिड़ गयी है. हर प्रतिकूलता में कुछ अनुकूलताएं छिपी होती हैं. विकासवाद के फूट चुके गुब्बारे, विश्व बैंक को राष्ट्रीय संप्रभुता समर्पित करने के मंसूबों, गरीबों की सब्सिडी खत्म कर कॉर्पोरेट को बैंकों का खजाना लुटाने, शिक्षा को गैट्स में शामिल करने के मंसूबों से ध्यान हटाने के लिए तथा परिसरों के भगवाकरण के मकसद से सरकार तथा संघ के संगठनों ने देशद्रोह का हव्वा खड़ाकर परिसरों पर धावा बोल दिया. रोहित की शहादत ने जय भीम तथा लाल सलाम के नारों की एकता स्थापित की. यह एकता वक़्त की जरूरत है. यह प्रतीकात्मक एकता मार्क्सवाद तथा अंबेडकरवाद की बहुप्रतीक्षित एकता के पथप्रशस्तक संभावनाओं की द्योतक है. सामाजिक न्याय तथा आर्थिक न्याय की लड़ाई मिलकर ही लड़ी जा सकती है. 18 फरवरी के विशाल प्रदर्शन में भाग लेने आए जाने-माने कवि मनमोहन ने सही कहा था कि रोहि की शहादत ने सोते शेरों को जगा दिया.
भाजपा नेताओं तथा सोसल मीडिया के मोदी भक्तों को पढ़-सुन कर देश की किश्मत पर रोना आता है तथा इनकी विवेकहीनता पर हंसी. भाजपा सांसद, सुब्रह्मण्यम स्वामी ने मांग की है कि विश्वविद्यालय के नाम से जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा देना चाहिए क्योंकि वे विद्वान नहीं थे और विश्वविद्यालय को 4 महीने बंद कर देशद्रोहियों का सफाया करना चाहिए. जाहिर है जिनके शीर्ष विद्वान माधवराव सदाशिव गोल्वकर तथा दीनदयाल उपाध्याय हों वे भारत के एक मात्र बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री को कैसे विद्वान मान सकते हैं? भारत की खोज(डिस्कवरी ऑफ इंडिया) तथा दुनिया की झलकियां(ग्लिम्पेसेज़ ऑफ द वर्ल्ड) की बात न की बात न भी करें तो उनकी एक आत्मकथा (ऐन ऑटोवायोग्राफी) जॉन स्टुअर्ट मिल की द ऑटोबायोग्राफी के समकक्ष एक क्लासिक आत्मकथा के दर्जे में आती है. गोलवल्कर ने अपनी चर्चित पुस्तक वि ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंडमौलिक भूविज्ञान का नमूना पेश करते हुए उत्तरी ध्रुव को बिहार-उड़ीसा में प्रतिस्थापित करते हैं तथा हिंदुओं को अंग्रेजी राज के विरोध में ऊर्जा न व्यय कर हिटलर का अनुशरण की हिदायत देते हैं. दीनदयाल उपाध्याय भी गोलवल्कर के पद-चिन्हों पर चलते हुए मनुस्मृति को दुनिया की सबसे अच्छी तथा न्यायपूर्ण कानून की किताब मानते हैं. बौद्ध दर्शन पर मातृधर्म के साथ गद्दारी का आरोप लगाते हैं तथा धर्म पर आधारित राज्य की हिमायत करते हैं. उ.प्र. में भाजपा शासन में गोरखपुर विवि का नाम दीनदयाल के नाम कर दिया गया. यहां संघ के ग्रंथों की समीक्षा करना मकसद नहीं है सिर्फ संघ के विचारकों की बौद्धिक विसंगतियों की तरफ इशारा करना है जिससे फनके अनुयायियों के बौद्धिक स्तर पर आश्चर्य न हो.
व्यवस्था की विसंगतियों पर सवाल करने के साहस तथा निर्भीक हो असहमति की अभिव्यक्ति को अंजाम देने तथा एक शोषण तथा अंधविश्वास से मुक्त खुशहाल भारत का सपना देखने वाले जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया जाता है. औपनिवेशिक शासन के इस काले कानून को रद्दी की टोकरी में डालने की बजाय सरकारें इसका उपयोग विरोधियों के दमन के लिए करती रही हैं. गौरतलब है कि अंग्रेजी हुक्मरानों ने इसी कानून के तहत तिलक, गांधी तथा भगत सिंह जैसे स्वतन्त्रता सेनानियों को बंद किया था. ये छात्र कामगारों, कृषकों, आदिवासियों,दलितों, महिलाओं एवं गरीबों के संगठनों के साथ मिलकर भावी क्रांति के सूत्रधार हैं। मैं देशद्रोही करार सभी छात्रों को जानता हूं, कुछ को बहुत करीब से तथा गारंटी के साथ कह सकता हूं कि ये क्रांतिकारी छात्र भारत को दुख-दारुण, शोषण-दमन, असमानता तथा नफरत से मुक्त एक खूबसूरत देश बनाने के लिए खुद को न्योछावर कर देंगे, मुल्क की बर्बादी की बात सोचना तो दूर, ऐसा मंसूबा रखने वालों को मुहतोड़ जवाब देंगे. इसीलिए तो वे शिक्षा पर साम्राज्यवादी तथा भगवावादी हमलों के विरुद्ध निरंतर अलख जगाए हुए हैं.
तब से यमुना में बहुत गंदा पानी बह चुका है. मीडिया के सभी प्रारूपों में राष्ट्रवाद, देशद्रोह तथा स्वतन्त्रता की हदों पर रोचक बहस छिड़ गयी है. एक तरफ तथ्यपरत तार्किक विश्लेषण है तो दूसरी तरफ झूठ तथा निराधार चरित्रहनन. कई गहरी जानकारी वाले लेख जेएनयू के साथ एकजुटता में देश-दुनिया के कई विद्वानों ने शानदार, ज्ञानवर्धक लेख लिखे तथा लिख रहे हैं। जेएनयू-विरोधी लेख नीरस हैं, जो भारत कि बरबादी नारे के उसी झूठ का गोयबेल्सियन आलाप कर रहे हैं.
6. वस्तुस्थिति
मनुवाद (ब्राह्मणवाद) के हिन्दुत्ववादी लंबरदार भली-भांति जानते हैं कि ब्राह्मणवाद का विचारधारा के रूप में हजारों वर्ष का ऐतिहासिक तथा इसकी परिभाषा एवं इसके माध्यम शिक्षा पर एकाधिकार पर आधारित रहा है. कानूनी रूप से शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता तथा आरक्षण नीति के चलते पिछली 2-3 दशाब्दियों में उच्च शिक्षा के परिसरों की संरचना में आमूल परिवर्तन आ रहा है. इससे ब्राह्मणवाद पर खतरा आ गया. अतः इसने आरक्षण को अप्रासंगिक बनाने के लिए शिक्षा संस्थाओं के निजीकरण और व्यावसायीकरण का रास्ता अपनाया तथा सरकारी वित्तपोषित संस्थाओं पर एबीवीपी के माध्यम से धावा बोल दिया. उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमले की शुरुआत मद्रास आईआईटी के अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल पर अंबेडकर पेरियार अध्ययन सर्कल पर प्रतिबंध से हुई. उनपर आरोप था कि वे प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध असंतोष फैला रहे थे तथा जाति मुद्दा उठा रहे थे.
परिसरों के भगवाकरण की दिशा में सरकार ने संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरएसएस से जुड़े लोगों को उच्च शिक्षा संस्थानों में डायरेक्टर/कुलपति बनाया. प्रशासन ने एबीवीपी की मिलीभगत से असहमति तथा प्रतिरोध की आवाजों के दबाना शुरू किया. मद्रास के बाद हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को निशाना बनाया. एफ़टीआईआई का प्रतिरोध पहले से ही अदम्य बना हुआ है.रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या ने सभी परिसरों में हड़कंप मचा दिया तथा जेयनयू इसका केंद्र बन गया. जेयनयू में प्रायोजित नाकरे बाजी गाधरा के प्रायोजन की याद दिलाता है जिसके बहाने गुजरात में प्रलय मचाकर मोदी ने सत्ता हासिल की.
रोहित की संस्थागत हत्या तथा देशद्रोह का शगूफा छोड़कर जेएनयू पर आक्रमण तथा साथ ही मोदी सरकार के लिए मंहगा साबित हो रहा है. इससे विश्व स्तर पर एक बौद्धिक युद्ध छिड़ गया है -- विवेक तथा राष्ट्रोंमाद के बीच. उच्चतर अकादमिक संस्थाओं के लोकतांत्रिक मूल्यों पर जारी आक्रमण ने बिखरे वाम छात्र संगठनों को एक मंच पर ला दिया उससे भी बड़ी बात वामपंथी संगटनों के साथ प्रगतिशील अम्बेडकरवादी संगठन भी जुट गय़े. बीएचयू के कुलपति ने जो आरएसएस से अपने संबंध पर गर्व का दावा करते हैं, कार्यभार संभालते ही मेगासेसे पुरस्कार पाने वाले प्रोफेसर संदीप पाण्डेय की सेवा को समाप्त कर दिया तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलित 6 छात्रों को भी. कुलपति ने इन्हे निकालते वक्त यह घोषणा की कि वे बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे. रोहित की संस्थागत हत्या के मुख्य अपराधी अप्पा राव कि वापसी तथा छात्रों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर पुलिस का नृशंस हमले से स्पष्ट है कि मोदी सरकार ढीली नहीं पड़ने वाली है. दमन के बावजूद छात्रों का प्रतिरोध जारी है. फासीवादी दमन की सीमा नहीं होती न ही क्रांतिकारी प्रतिरोध की. अतः यह एक लंबा संघर्ष होने जा रहा है. दमन का प्रतिरोध, प्रतिरोध का दमन दमन का प्रतिरोध.
7. प्रतिरोध की शक्तियाँ
यूरोपीय नवजागगरण तथा प्रबोधन आंदोलनों ने जन्मजात सामाजिक भेद को समाप्त कर दिया था. 19वीं शताब्दी में जब मार्क्स पूंजीवाद के राजनैतिक अर्थशास्त्र के गतिविज्ञान के नियमों का अन्वेषण कर रहे थे तब सामाजिक विभाजन का आधार केवल आर्थिक था. इसी लिए मैनिफेस्टो में मार्क्स-एंगेल्स लिखते हैं कि पूंजीवाद ने अंतरविरोधों को सरलीकृत कर समाज को 2 परस्पर विरोधी वर्गों – पूंजीपति और सर्वहारा – में बांट दिया. भारत में पारंपरिक-धार्मिक मूल्यों के निषेध के साथ नवजागरण के समतुल्य सामाजिक तथा साहित्यिक आंदोलन कबीर से शुरू हुआ था जिसका केंद्रेयीय विषयवस्तु थी सामाजिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता यही नवजागरण का भी मूलमंत्र था. यह आंदोलन ब्राह्मणवाद तथा कठमुल्लेपन के अंत की तार्किक परिणति तक क्यों नहीं जा पाया वह अलग चर्चा का विषय है. मार्क्स की अपेक्षा के प्रतिकूल उपनिवेशवादी शासन एसिआटिक उत्पादन पद्धति को तोड़ने की बजाय, औपनिवेशिक लूट के हित में इसके साथ मिली-भगत कर ली. भारतीय कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को वस्तुगत परिस्थितियों को समझने की विधि के रूप में अपनाने की बजाय इसे एक मॉडेल के रूप में अपनाया. यद्यपि वे जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षों की अग्रिम पंक्तियों में रहे क्योंकि शोषित जातियाँ शोषित वर्ग भी रही हैं. तथापि मेरी राय में, अलग से जाति एजेण्डा को संबोधित न करना रणनीतिक ही नहीं सैद्धांतिक गलती थी. जाति अभी भी समाज की जीवंत वास्तविकता है. मंडल-विरोधी उंमाद के दौरान विपक्ष में वामपंथी ही थे. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के वामपंथी अध्यक्ष एमएमपी सिंह को पद से स्तीफा देना पड़ा था क्.कि आरक्षण समर्थन का प्रस्ताव जीबीयम ने निर्त कर दिया था. जेएनएसयू के वामपंथी अध्यक्ष अमित सेनगुप्ता को भा उन्ही कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था. अंबेडकर तथा उनके अनुयायियों ने ब्राह्मणवाद के मुद्दे को प्रमुख मुद्दा बनाया. सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक न्याय के समेकित संघर्ष के लिए अंबेडकरवादियों तथा वामपंथियों के बाच संवाद समन्वय एवं एकता की जरूरत लंबे समय से विलंबित थी. रोहित की शहादत ने संघर्ष में एकता का अवसर प्रदान किया है जिसे जेयनयू प्रकरण ने पुख्ता किया है. संघर्षों की एकता की परिणति सैद्धान्तिक एकता में होनी चाहिए. सिर्फ पूंजीवाद ही नहीं सिद्धांत के संकट से जूझ रहा है, समाजवाद भी. जय भीम व लाल सलाम के नारों की एकता की निरंतरता बनी रहनी चाहिए.जैसा कि जेयनयू तथा यचसीयू पर हमलों से स्पष्ट है कि शिक्षा तथा जनतंत्र पर हमला दुहरा है – सांस्कृतिक और आर्थिक. संघर्ष भी दोनों मोर्चों पर हो रहा है. ब्राह्मणवाद द्वारा परिसरों के भगवाकरण के विरुद्ध तथा भूमंडलीय पूंजी के साम्राज्यवादी मंसूबों के विरुद्ध जो शिक्षा को व्यापारिक सेवा की भांति गैट्स में शामिल कर पऊर्णरूप से शिक्षा को एक उपभोक्ता सामग्री बना देना चाहता है.
पिछले 25-30 सालों में परिसरों की संरचना जातीय तथा लिंग समीकरणों में जबरदस्त बदलाव आया है. मनुवाद के तहत शिक्षा से वंचित तपके – दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियां तथा महिलाएं यानि, बहुजन का परिसरों में बहुमत है. इसका प्रमुख कारण दलित दावेदारी तथा प्रज्ञा एवं नारी दावेदारी तथा प्रज्ञा में या अभूतपूर्व उफान है. जेएनयू में लगभग 60% महिला छात्र हैं. हर तरह के मार्क्सवादी और अंबेडकरवादी साथ मिलकर फासीवाद के विरुद्ध बहुत ही मजबूत ताकत हैं लेकिन अलग-अलग रहकर एक- एक करके कुचले जाने के लिए अभिशप्त, जैसा कि नाज़ी जर्मनी में हुआ था. आज फासीवाद महज कल्पना नहीं है, वास्तविकता है. एबीवीपी के सदस्य पुलिस की मौजूदगी में विरोधियों की सभाओं में हुड़दंग मचा रहे हैं और सिर पैर तोड़ रहे हैं, जैसा ऊपर कहा जा चुका है नाजी तूफानी दस्ते की तर्ज पर. इतिहास से सीखने की जरूरत है.
8. समय की मांग
जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस अघोषित आपातकाल का फासीवाद 1975 में घोषित आपातकाल के फासीवाद से दो कारणों से अधिक खतरनाक है। पहला, इंदिरा गांधी ने अपनी जनपक्षीय छवि तथा सोविय संघ के समर्थन का औचित्य साबित करने के लिए संघ के नेताओं समेत कई मध्यवर्गीय दक्षिणीपंथियों को भी बंद कर दिया था जिससे मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा कुपित था. यह फासीवाद अल्पसंख्यको गरीबों, दलितों आदिवासियों एवं उनके समर्थकों को निशाना बना रहा है. दूसरे घोषित आपातकाल में दमन के लिए इंदिरा गांधी के पास राज्य का ही दमनतंत्र था, मोदी के पास एबीवीपी, बजरंगदल, विहिप जैसे अतिरिक्त दमन तंत्र हैं तथा अफवाह फैलाने के लिए ज़रखरीद चैनल. इसीलिए प्रतिरोध भी मजबूत तथा एकीकृत होना चाहिए. हमारे यवबा साथियों ने मिशाल पेश की है जिसका अनुशरण होना चाहिए.
ऐतिहासिक रूप से युवा ही क्रांतिकारी आंदोलनों के वाहक रहे हैं. यह मेरी सदिक्षापूर्ण फंतासी भले हो लेकिन मुझे यह यह सांस्कृतिक क्रान्ति कि शुरुआत लगती है—नवीनताओं के साथ भारतीय प्रबोधनकाल एक नए जोश,नई अंतर्दृष्टि तथा शक्तियों के नए समायोजन का प्रबोधनकाल जो ब्राह्मणवाद के साथ भूमंडलीय साम्राज्यवाद का भी मर्शिया लिखेगा. फासीवादी दमन तथा जय भीम-लाल सलाम के दो जुड़वा नारों साथ छात्रों के संयुक्त प्रतिरोध ने नई एकता का मंच प्रदान किया है. इस मंच में संघर्षों की एकता को सैद्धांतिक एकता में तब्दीली की प्रबल संभावनाएं हैं मगर तभी जब इन संगठनों की पार्टियों के हाई कमान निर्देश न दें तथा युवाओं की पहल को सम्मान दें. फौरी मकसद है ब्राह्मणवाद पर पर निर्भर संघी फासीवाद तथा साम्राज्यवादी कॉरपोरेटवाद. इस मंच में मार्क्सवाद तथा अंबेडकवाद के संशलेषण से जय भीम-लाल सलाम नारों को सैद्धांतिक रूप देने की प्रबल संभावनाएं हैं. संभावनाओं को वास्तविकता बनाने की जरूरत है. यह मुश्किल है लेकिन संभव. रोहित की शहादत प्रेरणा है. उसको इसी से सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है.
आखिरी परंतु महत्वपूर्ण बात है निर्दल वामपंथियों की बात जो मजबूती से जेयनयू के साथ खड़ा है लेकिन जो इस तरह के संकटों में ही सक्रिय होते हैं. वे जानते हैं कि कोई भी सार्थक आंदोलन संगठन के बिना नहीं हो सकता उन्हें छात्र आंदोलन को बल देने के लिए संगठित होने की जरूरत है.
000 ईश मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
9811146846
प्रस्तुति- बिजूका
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टिप्पणियाँ:-
रचना:-
मित्रो... उपरोक्त लेख प्रो. ईश मिश्र जी द्वारा लिखित है, जिनका जेएनयू से गहरा संबंध रहा है। हम इसे आधार लेख के रूप में लगा रहे हैं। लम्बा होने के कारण कई भागों में पोस्ट करना पड़ा। आपकी प्रतिक्रियाएँ आमंत्रित हैं।
संध्या:-
दरअसल आरएसएस बीजेपी और विहिप का जो साझा दमन तंत्र है इसकी केवल खिलाफत ही करते रह जाते हैं हम याने वो झूठे तथ्य प्रचारित करते हैं और हम उन्हें साफ़ करने में लग जाते हैं आम व्यक्ति इस तंत्र की गिरफ्त में आ जाता है स्वयं की कोइ विचार धारा स्पष्ट ना होनेऔर अज्ञान के कारण ...और एक बढ़ा हिस्सा आबादी का इन्ही की भाषा बोलने लगता है...सुनियोजित और तथ्यपूर्ण लड़ाई आवश्यक है जो इनके झूठ का पर्दाफाश करे ।युवा वर्ग का असनतोष सही दिशा में जाए जो विचार क्रांति से ही संभव है ।
सत्यनारायण:-
संध्या जी आपका कहना काफी हद तक ठीक है. जितना ज़रूरी दमन तंत्र की मुख़ालिफ़त करना ही है. उतना और उससे बहुत कुछ ज्यादा ऐसा काम करने की है...जिससे आने वाली पीढ़ी अपनी वैज्ञानिकस समझ बना सके. पहले यह काम हुआ भी करता था. मार्क्सवाद की अध्ययन शालाएँ...कार्यशालाएँ लगती थी...सप्ताह भर...पन्द्रह दिन....और वैज्ञानिक दृष्टिकोण निर्मित करने की...नयी पीढ़ी के तमाम सवाल और जिज्ञाषाओं के जवाब देने का काम होता था.....लेकिन लम्बे समय से यह एक ज़रूरी काम नहीं हो रहा....यदि कोई समूह संस्थान कर भी रहा...तो बहुत कम .....किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन देर से आता है....लेकिन परिवर्तन कैसे आए....! क्या परिवर्तन मानव समाज के ज़रूरी है! क्या नहीं! यह समझ एक लम्बी प्रक्रिया में निर्मित होती है. और इसके लिए सतत अध्ययनशील होना और समाज में चल रहे छोटे बड़े आंदोलनों में शरीक होना..सही संदर्भ में समझना बेहद जरूरी है....आज जे एन यू में छात्र जिस तरह से संघर्ष कर रहे हैं ...क्यों कर रहे हैं! क्या उनकी लड़ाई सिर्फ़ उनकी है! हम उनकी लड़ाई शामिल क्यों नहीं हो पा रहे हैं! या कुछ लेखक साथी हो भी रहे हैं...लेकिन यह लड़ाई अब सिर्फ़ जे एन यू कैम्पस के भीतर ही रहकर नहीं लड़ी जा सकती.....ज़रूरत है पूरे देश को जे एन यू कैम्पस में बदलने की......एक बात विनम्रता से कहना चाहता हूँ......आपने अपनी बात में एक शब्द ख़िलाफ़त उपयोग किया....उसका वहाँ आशय तो समझ में आ रहा है....ख़िलाफ़त शब्द ख़लिफ़ा आन्दोलन से जुड़ा है...आपकी बात में उस जगह मुख़ालिफ़त शब्द का उपयोग सही होगा....
संध्या:-
मेरा मतलब यही था मणि जी ,सही कहा आपने साथ ही आजकल युवा पीढ़ी का एक हिस्सा उस और धकेला जा रहा है जो अवैज्ञानिक और अंध धार्मिकता को बल देता है मनुवादी दृष्टिकोण को प्रश्रय देना और बार बार इतिहास को दोहरा कर उसकी गलत व्याख्या कर बरगलाना और इसका सुनियोजित प्रयोग मैंने व्हाट्सएप्प और fb में होते देखा है एक वर्ग जो केवल सुविधाभोगी है को तरक्की केवल कंक्रीट और सड़कों में नज़र आती है ,वो इन छिपे मंतव्यों को नही देख पाती मैंने ऐसी कहानियां साझा करते लोगों को देखा है जिसमे किसी मार्क्सवादी विचारधारा के व्यक्ति को स्वार्थी नाकारा और चरित्रहीन बताया जाता है जिससे ये एक विचार का वध करने का सुनियोजित षड्यंत्र करते हैं ।और एक साधारण समझ वाला व्यक्ति इस तरह के झांसे में आ जाता है इनके पास तर्क नही होते केवल भावनात्मक उत्तेजना होती है जो मूलत:असुरक्षा से उपजती है और इसी का फायदा उठाते है ये ।जहाँ तक jnu के आंदोलन का सवाल है मेरा मानना है कि, इसे देशव्यापी होना ही चाहिए ...और हम पूरी तरह इनके साथ हैं।अब तो कल खबर थी कि जवाहरलाल नेहरू का पाठ कोर्स से हटाया गया ,इतिहास की व्याख्या भी अलग ढंग से की जा रही है इसके लिए भी एजेंडा है इनके पास ...शक्ति का दुरूपयोग और फिर दुष्प्रभाव ये हम होता देख रहे हैं ।
रूपा सिंह :-
ईश ने बहुत मेहनत कर ले बहुत विस्तृत लेख लिखा है हालाँकि हम jnu वाले जानते हैं कि अभी jnu की कई अच्छाइयों का जिक्र तक न हो पाया है...फिर भी एक राजनैतिक समझ से लेख अच्छा बन पड़ा है।ईश मिश्र मेरे बहुत सीनियर हैं।लेकिन सिर्फ जिन सीनियर्स से हम पढ़े हैं उन्हें ही सर कहते हैं जैसे पुरुषोत्तम अग्रवाल सर।बाक़ी उनसे सीनियर्स को भी हम नाम से पुकारते हैं।यह भी jnu का एक विचार है।और गहरी बात है इस पुरणतांपंथी समाज में जहाँ कम से कम स्त्रियां एक उम्र के बाद स्वयं अपना नाम भूल जाती हैं।ईश मिश्र के लिए।
प्रणय कुमार:-
ईश मिश्र का लेख तार्किक होते हुए भी तथ्यपूर्ण और निष्पक्ष नहीं है|मैं दावे से कह सकता हूँ कि पश्चिम बंगाल और केरल की कम्युनिष्ट सरकारें अपने चरित्र और व्यवहार में अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अन्य सभी राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्त्ताओं से अधिक हिंसक और हमलावर रही हैं|ये हमले बौद्धिक स्तर पर हों तो कोई बात नहीं,परंतु ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जब पश्चिम बंगाल और केरल के तथाकथित प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता 'गुंडों' की तरह आचरण करते पाए गए|
किसी बुद्धिजीवी का एकपक्षीय विश्लेषण निराश करता है और यह और निराशाजनक है कि बिजूका जैसे साहित्यिक मंच पर संघ-भाजपा विरोध के नाम पर कुछ भी पोस्ट कर दिया जाता है|तब और मजा आता यदि बिजूका राजनीतिक बहस का मंच न होकर सांस्कृतिक-साहित्यिक विमर्श का माध्यम ही रहता|खैर.....
रचना:-
संस्कृति और साहित्य राजनीति से निरपेक्ष नहीं रह सकते प्रणय जी। यहाँ किसी एक विशेष राजनीतिक विचारधारा को पोषित नहीं किया जा रहा। साथी अपनी बात शालीनता से रखने के लिए स्वतंत्र हैं। हमें एक बीज लेख प्रस्तुत करना ही था विमर्श के लिए। चाहे वह जेएनयू के समर्थन में होता या नहीं। यदि हम किसी राजनीतिक विचारधारा के पक्ष में होते, तो विमर्श आमंत्रित नहीं करते। विमर्श पक्ष - विपक्ष, दोनों ओर से आई स्वस्थ बहस का स्वागत करता है।
प्रदीप मिश्रा:-
ईश मिश्र का बहरीन आलेख। संतुलित और हमारे समय की स्थितयों की चाभी थमता हुआ। बाकि जिन बातों की तरफ देवीलाल जी इशारा कर रहे हैं। उसकी पड़ताल होनी चाहिए। मुझे तो कोई ऐसी घटना नहीं याद आ रही है जो पानसरे और कुलबुर्जी जैसी हुयी हो। केरल और पश्चिम बंगाल में तुलनात्मक रूप से घोटाले और साम्प्रदायिक दंगे भी नहीं याद आ रहे हैं। प्रणय जी साहित्य में से राजनीती हटाने के बाद उसमें कुछ भी नहीं बचेगा।
प्रणय कुमार:-
मेरा मानना है कि विद्यार्थियों को राजनीति से परहेज करना चाहिए क्योंकि:-
1.विद्यार्थियों का अनुभव इतना व्यापक नहीं होता कि वे राजनीति की जटिलताओं या बारीकियों को समझ सकें!घाघ राजनीतिज्ञ भोले-भाले मासूम नौजवानों का इस्तेमाल कर अपना उल्लू सीधा करने की चेष्टा करते हैं!राजनीति के चक्कर में उनका कॅरियर बर्बाद हो जाता है!फिर उनकी जिंदगी राजनेताओं या विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के झंडे-बैनर ढोने, मंच सजाने,माइक लगाने या उनकी जय-जयकार करने में निकल जाती है!चाहे वह नारा-जय भीम हो,लाल सलाम या जय श्रीराम या भारत माता की जय!
2.एक बार जब उनका कैरियर बर्बाद हो जाता है तो ये विद्यार्थी इन राजनीतिक दलों और नेताओं के पिछलग्गू बनकर रह जाते हैं,वे उन्हें टूल के रूप में इस्तेमाल करते हैं!
3.विद्यार्थी वर्ग इतना परिपक्व व अनुभवी नहीं होता कि वह अपना अच्छा-बुरा सोच सके!उन्हें आसानी से बहलाया-फुसलाया-बरगलाया जा सकता है!थोड़े-से पैसे या प्रसिद्धि का प्रलोभन देकर उनसे उलटे-सीधे काम करवाया जा सकता है! मैं पूछता हूँ आए दिन सड़कों पर होने वाले धरने-प्रदर्शन,तोड़-फोड़ और आगजनी आदि में सबसे ज़्यादा कौन-सा वर्ग शामिल होता है,युवा और विद्यार्थी वर्ग !उसके कारण होने वाली जान-माल एवं सार्वजानिक संपत्ति के नुकसान का कौन जिम्मेदार है?
3.विद्यार्थियों के आने से राजनीति की शक्ल-सूरत-शीरत बदल जाएगी,ऐसा कयास लगाने वाले लोगों से मैं पूछना चाहूँगा कि जो विद्यार्थी राजनीति में आए,क्या वे राजनीति में शुचिता या वांछित बदलाव ला पाए!बल्कि विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में आ जाने के कारण वे और घाघ हो गए!जे.पी आंदोलन से निकले कुछ छात्र-नेता जो आज राजनीति के स्थापित कुनबों में तब्दील हो चुके हैं,कम-से-कम उनका उदाहरण तो यही अंदेशा पैदा करता है!
4.विद्यार्थियों में धैर्य,सूझ-बूझ आदि का पर्याप्त अभाव होता है!उनकी राजनीति कब गलत राह पर चल पड़े इसका पूर्व अनुमान या आकलन कर पाना उनके लिए भी संभव नहीं!क्या किसी ने सोचा था कि जे.एन. यू जैसे संस्थान के विद्यार्थी-"भारत तेरे टुकड़े होंगे,इंशा अल्लाह.इंशा अल्लाह;भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी,जंग रहेगी;तुम कितने अफ़जल मारोगे,घर-घर से अफ़जल निकलेगा' जैसे नारे लगाएँगे!जब जे.एन. यू जैसे अति प्रतिष्ठित संस्थान का ये हाल है तो बाकी विश्वविद्यालयों में क्या होता होगा?
5.आए दिन विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और शिक्षकों का घेराव,विभिन्न माँगों को लेकर होने वाले आंदोलन,परीक्षा स्थगित करने या उसकी तिथि को आगे बढ़ाने को लेकर होने वाले धरने-प्रदर्शन के आधार पर क्या निष्कर्ष निकाला जाय?क्या ये सकारात्मक या रचनात्मक राजनीति है?सच तो यह है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की विद्यार्थी -शाखा अपने-अपने दलों की राजनीति चमकाने के लिए सत्ता की गलियों में बैठे अपने आकाओं के इशारे पर कठपुतली की तरह नाच रहे होते हैं!
6.आज चाहे वह देश के शैक्षिक संस्थान हों या विदेश के -किनकी ज़्यादा साख है,कहाँ ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों का प्रवेश कराना चाहते हैं,जागरूक विद्यार्थियों की प्राथमिकता-सूची में कौन-सी संस्थाएँ सबसे ऊपर हैं?उत्तर आईने की तरह बिलकुल साफ़ हैं,वे संस्थाएँ जहाँ राजनीति नहीं,पढ़ने-पढ़ाने पर बल दिया जाता है!क्यों आई. आई.टी,आई.आई.एम आदि संस्थाएँ देश की सिरमौर बनी हुई है,क्योंकि वहाँ राजनीति नहीं होती!
7.विश्वविद्यालयों में राजनीति शास्त्र पढ़ाना एक बात है और सक्रिय राजनीति में भाग लेना दूसरी बात!आप पहले जो करने आए हैं,वह कीजिए,ज्ञान अर्जित कीजिए,अपना ध्यान सब तरफ से हटाकर पढ़ाई पर केंद्रित कीजिए और यदि सचमुच आप व्यावहारिक धरातल पर काम कर कुछ सीखना चाहते हैं तो राजनीति ही क्यों पहले समाज की सेवा कीजिए,जाइए किसी गाँव में और वहाँ सेवा के प्रकल्पों और कार्यों में हाथ बंटाइए,आपदा में जी खोलकर लोगों की सहायता कीजिए,बिना राजनीति में भाग लिए भी सामजिक सरोकारों को जिया जा सकता है!मैं तो कहता हूँ कि राजनीति में भाग लेने से पूर्व सभी पर यह अनिवार्य शर्त लगा देनी चाहिए कि आपको सेना,प्राकृतिक आपदा,पर्यावरण आदि के क्षेत्रों में काम का अनुभव लेना पड़ेगा!
8.जो मित्र लोकतंत्र की मजबूती या संसदीय प्रणाली की बेहतर जानकारी के लिए विद्यार्थियों का राजनीति में भाग लेना उचित बता रहे हैं,वे या तो भोले हैं या यथार्थ से अनभिज्ञ!सच तो यह है कि आज के जो सफल राजनेता अपने छात्र-जीवन में राजनीति में सक्रिय थे या विभिन्न जन-आंदोलनों में जिनकी भागीदारी थी,वे भी चुनावी राजनीति में आकर ढाक के तीन पात ही साबित हुए!विद्यार्थियों के बल पर जन-आंदोलन चलाने वाले और उससे निकले नेता तो और घाघ,कुटिल और भष्ट्र साबित हुए!क्या आपको पता नहीं कि आपात काल में भाग लेने वाले छात्र-नेताओं ने सफ़ल राजनेता बनने के बाद अपनी सारी ऊर्जा येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने में लगा दी,कई तो परिवारवाद,भाई-भतीजावाद और वंशवाद के पोषक बन गए!अभी-अभी हुए अन्ना-आंदोलन में विद्यार्थियों की भूमिका को कौन नजरअंदाज कर सकता है!पर क्या उसका फ़ायदा सिस्टम और समाज को मिला?वे मोमबत्तियाँ जलाते रहे,नारे लगाते रहे,क्रांति की डफ़ली बजाते रह गए और सत्ता की रेवड़ियाँ कोई और खा गया!क्या उस समय देश के नौजवानों ने खुद को छला नहीं महसूस किया होगा जब भ्रष्ट्राचार की दुहाई देकर आने वाली सरकारें भी सबसे पहले अपने विधायकों और पदाधिकारियों की सैलरी कई गुना बढ़ाती है!मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि विद्यार्थियों का राजनीति में आज तक केवल इस्तेमाल हुआ है!कभी मंडल, कभी कमंडल, कभी दलित-चेतना,कभी स्त्री मुक्ति,कभी आज़ादी तो कभी स्वायत्तता के नाम पर!जहाँ तक राजनीति और सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने की बात है तो यह विद्यार्थियों के राजनीति में आने से नहीं,बल्कि नीति और नीयत ठीक रखने से दूर होगा!भ्रष्टाचार व्यक्ति की नैतिकता से जुड़ा मसला है,न कि शिक्षा से!मेरा मानना है कि कम-से-कम कोई तो ऐसी जगह हो जहाँ पार्टी और विचारधारा से ऊपर उठकर लोग देश की समस्याओं पर खुलकर विचार-विमर्श करें,तू-तू,मैं-मैं की जगह मिल-बैठकर विकास की योजनाएँ बनाएँ,सब प्रकार के पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर अपने दिमाग़ की खिड़की खुली रखें!यह तभी संभव होगा जब हम शिक्षण-संस्थाओं को वोट-बैंक पॉलिटिक्स से दूर रखेंगे!
9.मैं आपसे पूछता हूँ कि आज देश के भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों या संस्थाओं में जो आंदोलन हो रहे हैं,क्या आप दावे से यह कह सकते हैं कि वे स्वतः प्रेरित हैं,क्या उनके पीछे राजनीतिक दलों या राजनीतिक विचारधारा का कोई योगदान नहीं है?क्या उनके राजनीतिक आका सचमुच उन्हें न्याय दिलाने की भावना से ही अलग-अलग विश्वविद्यालयों या संस्थाओं का दौरा कर रहे हैं!क्या सचमुच ये अभिव्यक्ति की आज़ादी का मसला है?क्या सचमुच ये विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता चाहते हैं?क्या सचमुच 'रोहित'या उस जैसे छात्रों के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध हैं ये?यदि 'कन्हैया' की जगह कोई और होता तो उसके हक में भी खड़े होते ये? मत खेलिए उस आग से,जिसमे इस देश का भविष्य ही जलकर नष्ट हो जाए!इससे किसी को कुछ नहीं मिलेगा,नुकसान ही नुकसान होगा,देश का,मानवता का और स्वयं उस बच्चे का!
10.युवाओं में व्याप्त गुस्से और उत्साह का,ऊर्जा और ज्ञान का रचनात्मक उपयोग ही न्यायोचित होगा!आक्रोश और अराजकता से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला!इन सभी तर्कों के आधार पर मैं ज़ोर देकर यही कहूँगा कि विद्यार्थियों को राजनीति से परहेज़ कर अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए!मानवता की बलि-वेदी पर खूब खिले और ताजे फूल ही चढ़ाए जाते हैं!इसलिए अपनी शिक्षा पूरी करने,हर प्रकार से समझदार और परिपक्व होने के बाद ही युवाओं को राजनीति में कदम रखना चाहिए!वरना कभी वामपंथ तो कभी दक्षिणपंथ या अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा के लोग निहित स्वार्थों की पूर्त्ति के लिए विद्यार्थियों का बेजा इस्तेमाल कर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे|
प्रदीप मिश्रा:-
प्रणय कुमार जी उन विद्यार्थियों की बात कर रहे हैं। जो देश के बेहतर नागरिक बनाने का स्वप्न न लेकर careeristic प्रोफेशनल बनते हैं। उनका देश समाज संस्कृति और सरोकार निज उन्नति होता है। इस तरह विद्यार्थियों की भरमार है। हमारे समय में इस तरह की मुकम्मल पीढ़ी तैयार हो रही है। इसका परिणाम भी हमारे सामने है। सामाजिक मूल्य और निष्ठा का ह्रास हम देख रहे हैं। इनसे देश प्रेम की अपेक्षा रखना तो दूर परिवार प्रेम भी नहीं है। बेहतर नागरिक तो संभव ही नहीं है। इस बहस में जाने से पहले हम यह तय कर लें की राजनीति अच्छी चीज है और जरूरी है की नहीं। मेरे विचार से किसी भी समाज के विकास के लिए राजनीति बहुत ही जरूरी तत्व है। यह उतना ही स्वागत योग्य है जितना दूसरे सामाजिक संरचना के औजार। विद्यार्थी जीवन में इस समझ को हासिल करनेवाला व्यक्ति ही आगे चलकर ऐसा नागरिक बन सकता है जो सरकार की योजनाओं और मंतव्य को ठीक से समझ सके। अपने अधिकारों की पहली लड़ाई तो विद्यालय में ही करनी होती है। वर्ना जिस तरह के नागरिक तैयार होंगे उसकी बानगी हम देख ही रहे हैं। चेतना शून्य प्रोफेशनल हमारे आस पास घूमते हुए मिल जायेंगे। जो पैकेज की एवज सब कुछ बेच देते हैं। आनंद जी मोदी जी की राजनीति से बहुत बेहतर राजनीति लालू जी की है। उनके नाटक और राजनीति के अंतर को समझने की जरूरत है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ की लालू बहुत अच्छे राजनीतिज्ञ हैं। लेकिन मोदी और केजरीवाल से बेहतर हैं। अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो भारतीय राजनीति में कई राजनीतिज्ञ छात्र राजनीती से निकालकर राजनीति के सकारात्मक मूल्यों को स्थापित किये हैं। अगर छात्रों में राजनीतिक चेतना और सक्रियता नहीं है तो वे सिर्फ भीड़ हैं। जिनको भेड़ की तरह पूंजी और सत्ता हांकती रहेगी। किसी भी बड़े परिवर्तन की अपेक्षा सिर्फ कल्पना भर रह जायेगी।
प्रदीप मिश्रा:-
बेहतर विद्यार्थी वही होते हैं जो राजनीती में सक्रीय होते हैं। जो राजनीतिक सक्रियता नहीं रखते है वे कूपमंडूप होंगे फिर अपने विषय के विशेषज्ञ कैसे बनेंगे। क्यों की हर विषय अपने उत्कर्ष में एक तरह की राजनीति को ही हासिल करता है।
आशीष मेहता:-
प्रदीप भाई, साहित्य से राजनीति निकाल दें, तो 'मंटो' बचता है। खालिस इन्सानियत से लबरेज़ किस्से या फिर इन्सानियत की ख़ासी कमी को रोते अफ़साने। और भी काफी कुछ गिना जा सकता है, पढ़ाई में हाथ कुछ तंग है मेरा, सो साथी मदद करें। मार्क्स भी तो इन्सान को मशीन न बनाने की वकालत है।
देवीलालजी, प्रणयजी एवं रचनाजी से कुछ कुछ सहमति रखते हुए निवेदन है (बुद्धिजीवी नहीं हूँ, सो सुझाव देने का सामर्थ्य नहीं है।) कि 'मार्क्स सप्ताह' में व्याप्त असक्रीयता की भरपाई होनी चाहिए।
निवेदन है कि "मार्क्स सवाया" मनाया जाए। एड्म स्मिथ के जन्मदिन (16 जून) तक 'मार्क्स' के विचारों/अवधारणाओं के औचित्य एवं क्रियान्वयन को भारतीय परिप्रेक्ष्य में टटोलें, खुले मन से विमर्श करें।
भारतीय समाज के पुष्ट समाजवादी (म. गाँधी) आजादी से पहले ही 'मुक्ति' गुहार चुके थे, जातिय वैमनस्य एवं उससे उपजी हिंसा से त्रस्त हो कर। फ्रेंच क्रांति के 'कारणों' एवं भारतीय 'जातिवाद' एवं उससे उपजे भाई भतीजावाद में क्या समानता या असमानता है, इस पर अकादमिक एवं ऐतिहासिक रुझान वाले साथी प्रकाश डालें।), पर क्या इस समस्या के समाधान को सिर्फ 'राजनैतिक सोच / या पार्टियों' के लिए छोड़ा जा सकता है ?
यदि भारत में मार्क्सवाद के नाम पर माओवादी आचरण ही परिलक्षित हो, तो विचारें की "मार्क्स के अनुयायी/समर्थक हैं कौन ?" भारतीय कम्युनिस्ट विचारधारा, ताउम्र काँग्रेस से 'प्रेम-नफरत' का रिश्ता रखती आई है। क्यों कि कभी भी कम्युनिस्ट विचारधारा का 'भारतीयकरण" हो ही नहीं पाया। हिन्दुस्तान में पैर जमते उससे पहले ही आपसी फूट और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिसलते कम्युनिस्म ने मुश्किल बरकरार रखी। क्या कोई 'मार्क्सवादी' मार्का राजनैतिक पार्टी महत्वपूर्ण है या 'मार्क्सवाद' ?
मार्क्सवाद किसी कम्युनिस्ट राजनैतिक पार्टी के कन्धे की दरकार रखता है, या मानवीय मूल्यों की खैरख्वाह कोई भी पार्टी 'मार्क्सवादी मूल्यों' को अपना सकती है ?
कन्हैया कुमार के पास पैसे आते ही क्या वे 'प्रशांत किशोर' की फीस नहीं चुकाना चाहेंगे ? उसी काले पैसे से, जिसके सदुपयोग के लिए 'भय्यूजी महाराज' को भी गुहार लगानी पड़ती है (यों, कई दिग्गज उन्हें साष्टांग दण्डवत् करते हैं।)
देवीलालजी और प्रणवजी के इशारों के साथ साथ, सत्ता दल में भी एक से एक गुण्डे उँचे पदासीन हैं। बिजूका साहित्यिक मंच है, या फिर सांस्कृतिक या राजनैतिक, यह तो आसानी से आपस में तय किया जा सकता है। यहाँ, रचनाजी से पुनः विनम्र सहमति कि 'साहित्य एवं संस्कृति, राजनीति से निरपेक्ष नहीं रह सकते '।
विगत समय में पसरी 'संघ बनाम वाम' की ओछी राजनीति से 'बिजूका' अछूता नहीं रह पाया है, तो यह बड़ा दोष नहीं है। सुलभ संचार माध्यमों के बीच 'दो मिनट मैगी संस्कार' के साथ समसामायिक मुद्दों पर विमर्श कम 'राजनैतिक दुकानें' ही खड़ी हो पा रही हैं ।
अंग्रेजों से मोदी शासन तक 'मार्क्सवाद' की जरूरत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ी ही है। पूँजीवाद का 'हारा' तो फेसबुक/ट्वीटर पर है, मार्क्सवाद का 'सर्वहारा' कहाँ है 'कड़ी' और है जो 'सर्वहारा' के अस्तित्व या 'विलोप' के रहस्य को खोल दे ? 'लाल सलाम' और 'जय भीम' के मिलाप से अगर 'समाजवाद' को 'छीन' कर पा लेने की जमीन तैयार होती है, तो 'ईश-निंदा' भी तार्किक रूप से इसमें जुड़ जानी चाहिए।
कैलाश बनवासी:-
प्रदीप जी से सहमत.कैरिअर पढ़ाई का एक हिस्सा है न कि जीवनदृष्टि.या कहें राजनीति की उचित समझ के बगैर आप अपने ही अधिकारों को नहीं जान सकेंगे.जिसकी इन वक्तों में बेहद जरूरत है.छात्र आंदोलन से निकले सारे लोग एक जैसे--पूर्वानुमानानुसार- ही निकलेंगे,यह एकांगी सोच है.जब तक आपके भीतर कोई चिंतन आकार नहीं लेगा,सही निर्णय पर पहुंचने में समस्या ही रहेगी. यह नहीं कि सारा समय छात्र राजनीति ही करते हैंऔर अध्ययन नही.ऐसा होता तो इन संस्थानों से हमें इतने स्वतंत्र और लोकतांत्रिक चिंतक,अध्यापक,या दूसरे क्षेत्रों के विद्वान नहीं मिलते.छात्र जीवन में राजनीति न करते तो हमें न कन्हैया मिलते न चंद्रशेखर न ही रिचा सिंह जैसी साहसी नेत्री. मेरी समझ से जो छात्र जीवन से ही राजनीति में आते हैं,उनके विचार निशचित रूप से ज्यादा ठोस और तार्किक होते हैं.किसी पार्टी का झंडा उठा लिया इसका यह अर्थ नहीं हो जाता कि उनके पिछलग्गू बन गये.परिपक्वता एक प्रक्रिया के तहत ही आएगी न कि झंडाबरदार मात्र हो जाने से.यदि छात्र आंदोलनों पर बैन लगा दिया जाएगा,नतीजे में संस्थायें या सरकारें ऐसी मनमानी करेंगे कि छात्र महज कठपुतली बनकर रह जायेंगे.हर दमन को चुपचाप सह जाने वाले. नहीं,हमें तो कल के भारत के लिये प्रखर और प्रतिरोध कर सकने की क्षमता वाले नागरिक्र ही चाहिये.बगैर राजनीतिक समझ के तो इस दुनिया को समझा ही नहीं जा सकता.मेरे मत में छात्र जीवन की राजनीति में ऐसी बुराइयां नहीं है जैसा कि प्रणय जी बता रहे हैं.
आशीष मेहता:-
आप राजनैतिक शुचिता के मानदंड पर 'राजनीति' की पुरज़ोर और वाजिब वकालत कर रहे, प्रदीप भाई।
पर, आमजन के सामने 'राजनीति' को घिघोना धंधा बना के रख छोड़ा है नेताओं ने। प्रणयजी छात्रों की 'मेजोरिटी' पर सटीक हैं। Meritorious basis पर कम उम्र में राजनैतिक रुझान का निश्चित फायदा है, अगर 'राजनीति' करियर का द्योतक न हो तो।
दीपक मिश्रा:-
प्रदीप जी से सहमत। यह बहस उतनी ही समीचीन है जितनी इंदिरा गांधी का यह कथन कि आओ पहले तय करे भ्रष्टाचार क्या है ? विद्यार्थी के राजनीति रोटी के साथ नमक के सदृश अनिवार्य है।
पल्लवी प्रसाद:-
Sahitya samaj ka aaina hy toh usme rajiniti, vichar, vimarsh aanshik rup me maujood rahenge hi/ kintu pramukh taur par sahitya 'an-kahi' ko kehne ka zariya hona chahiye. Sookshma ko darz karne ka manch/ Hindi sahitya media k tarah 'loud' ho gaya hy. Mudde-Vimarsh-vidvata-dukh pradhan/ sahitya me aam insan khud ko dhoondh nahi pa raha, muskura nahi pa raha toh pathak lupt ho gaye/ Aj lekhak bhool gaye hyn k ve kissago hyn - unki drishti prakashak aur aalochak par hy. Rachna rachne se pehle hi unhe maat de fateh hasil karna chahte hyn.
[7:27AM, 5/13/2016] प्रणय कुमार:-: आशीष मेहता जी का शानदार लेख,सटीक विश्लेषण
प्रदीप जी की बात और प्रभावी होती,यदि वे मोदी विरोध के नाम पर लालू जैसों की पैरवी से बच पाते!
प्रणय कुमार:-
सच कहा, आशीष जी ने|यह तय किया जाए कि राजनीति में आने वाले लोग किसी आंतरिक या वैचारिक चेतना से अनुप्राणित होकर या कोई स्वप्न या आदर्श लेकर आगे आ रहे हैं या वे राजनीति को कॅरियर का बेहतर विकल्प मान रहे हैं|
राजनीतिक चेतना से अधिक महत्वपूर्ण मैं सामाजिक एवं परिवेशगत सरोकारों को मानता हूँ|उन सरोकारों और स्वप्नों को साकार करने के लिए राजनीति अंतिम या एकमात्र विकल्प नहीं है|प्रदीप मिश्रा जी जिस प्रकार के विद्यार्थियों की बात कर रहे हैं,अधिकारों या कर्त्तव्यों के बोध से युक्त तो इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है|
परंतु प्रश्न यह उठेगा कि फिर ए बी वीपी वाले गुंडे,एन. एस. यू वाले चेतनाशून्य और वामपंथ की ओर झुकाव वाले छात्र-संगठनों से जुड़े छात्र चैतन्य कैसे हो गए?सारा मतभेद तो यहीं आकर खड़ा हो जाएगा|इसलिए मैंने कहा कि अपरिपक्वावस्था में उन्हें अपनी डुगडुगी थमाने की बजाय,उन्हें चीजों को जानने-समझने दीजिए,अपनी स्वतंत्र सोच विकसित कर राजनीति के उपलब्ध विकल्पों या नए विकल्पों का चयन करने दीजिए,तब शायद वे अपने चुने हुए सरोकारों के साथ अधिक न्याय कर पाएँ!
प्रदीप मिश्रा:-
प्रणय जी मैंने ना तो विरोध किया ना सपोर्ट। ऊपर आनंद जी की टिप्पणी का जवाब था जिसमें लालू का सन्दर्भ था। खैर इस मुद्दे पर खूब बहस कर लें हम। सरकार जिस तरह से विश्वविद्यालयों पर नज़र गड़ाये है। उसके बारे सोचकर भी बहुत भयानक लगता है। लोकतान्त्रिक मूल्यों को नष्ट करने के इस षड्यंत्र के हम सब saakshhee होंगे। आशीष जी सारे विषय इस वक्त व्यवहारिक रूप में बुरे हैं तो क्या हम उनको छोड़ दें। क्या इंजीनियरिंग मेडिकल न्यायिक और प्रशाशनिक हल्का घिनौना नहीं है। ये तो राजनीती से भी बुरे हैं। यहां तक की साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है।
संजीव:-
इस विमर्श में प्रणय जी का होना ही मार्क्स के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत को सच साबित कर रहा। दर असल कहीं भी किसी भी स्थिति में मार्क्स की द्वन्द्वात्मकता को नकार नहीं सकते । हां उपेक्षा कर सकते हैं। हर व्यवस्था में आत्मनिषेध की पद्धति काम करती है आर नकारात्मक प्रणाली के बिना कोई भी व्यवस्था टिक नहीं सकती वह विखर जाएगी। प्रणय जी के विचार इस समूह के लिए आत्मनिषेध का काम करते हैं जिससे नए विचार पैदा होते हैं।
प्रणय कुमार:-
प्रदीप भाई,आप अच्छा लिखते हैं,आपके विचार और तर्क मेरी अपेक्षा सुगठित भी हैं|परंतु अध्ययन-काल के दौरान मैंने विद्यार्थियों के सक्रिय राजनीति में भाग लेने का विरोध किया,उसके पीछे मेरे सहज तर्क हैं|जिसे समूह के साथी राजनीतिक चेतना कहते हैं उस चेतना को मैंने अनेक बार हिंसक,अराजक,उत्तेजक होते देखा है|हिंसा या सार्वजनिक संपत्ति और जान-माल की क्षति को मेरी सहज बुद्धि कभी उचित नहीं ठहरा पाती और मुझे लगता है कि वर्ग-संघर्ष में विश्वास रखने वाले असाधारण मेधा-संपन्न बुद्धिजीवियों को छोड़ दें तो जनसाधारण भी इसी ढंग से सोचता है|
यदि आप लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रतिरोध को उचित मानते हैं तो ABVP वाले 'गुंडे' कैसे हुए यह मेरी समझ से परे हैं?यह कौन तय करेगा कि विद्यार्थियों का कौन-सा समूह चेतना से अनुप्राणित है और कौन नहीं|अपनी-अपनी समझ से हर कोई किसी-न-किसी चेतना से प्रेरित-अनुप्राणित होकर ही सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होता है|इसलिए किसी को सुविधानुसार फासीवादी,किसी को अराजक,किसी को गुंडे कहकर ख़ारिज कर देना तर्कपूर्ण और न्यायसंगत नहीं होगा|मेरा मानना है कि लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने के लिए हमें वाद और विचारधारा से ऊपर उठकर विमर्श को आगे बढ़ाना होगा|
मैं फिर दुहराता हूँ कि प्रदीप भाई आप लोकतंत्र के लिए जिस आसन्न संकट की बात कर रहे हैं,वामपंथी शासन वाले राज्यों में आम लोगों को इससे अधिक दमन व शोषण झेलना पड़ा है|मैं बिहार के जिस जिले से आता हूँ वह बिहार के 'मास्को' के नाम से प्रसिद्ध रहा है|मेरे सगे मामा कम्युनिस्ट पार्टी के न केवल सक्रिय सदस्य रहे,वरन् अनेक बार विधायक के प्रबल दावेदार भी रहे|परंतु ताउम्र वे अपनी ही पार्टी के सत्ताधीश नेताओं के निशाने पर रहे और जान बचाने के लिए यहाँ-वहाँ छुपते रहे|इस एक जिले में मेरे देखते-देखते सैकड़ों लोगों को वैचारिक विचलन का आरोप लगाकर मौत के घाट उतार दिया गया|किन लोकतांत्रिक मूल्यों की बात कर रहे हैं आप?वहाँ तो बोलने की आज़ादी तक नहीं है|
आशीष मेहता:-
धन्यवाद मज़कूरभाई । मुझे दिली तसल्ली होती है जब दो भाई मिल कर कुछ कह बोल पाते हैं। आपके सुझाएँ दोनों नामों के लिए साधुवाद। हालांकि, मेरा अभिप्राय प्रदीपजी के कथन (साहित्य से राजनीति निकाल दें, तो कुछ नहीं बचेगा।) को एक 'corrective tilt' देना भर था।
टिटवाल का पुनः पाठ जरूर करूँगा। ठंडा गोश्त में 'राजनीति' ढूँढने पर "मैं कुछ नहीं कहूंगा।" (कल रात ही सीखा है। प्रदीप भाई को एक चाय पक्की)...... ठंडागोश्त का समय, भारतीय समाज का संकटकाल था। अंबेडकर और पटेल का लौहा था (कृपया अनगिनित नाम जोड़ें इसमें) तो नेहरू-गाँधी की विवशताएँ ...समझोते थे।
पर फिर भी ठंडा गोश्त में 'अमानवीयता' ढूँढे, 'अराजकता' देखें, राजनीति नहीं। हाँ,1984 के दंगों में राजनीति को ढूँढें, तो मैं आपके आसपास ही हूँ।
1950 के ही दशक की एक और कहानी (फिल्म) है "जागते रहो", उसमें राजनीति ढू्ँढ कर बताईए।
रात गई, और बात बनी रही। आज संजीव भाई खुश (मार्क्स के जयकारे के साथ) हैं कि मार्क्स सप्ताह के उनके आह्वान ( जागते क्यों नहीं हो) का कुछ असर बीती रात पर रहा।
उम्मीद है, "मार्क्स सवाया" पर निगहबानी होगी। (रचनाजी, दिन में सोना मना है।)
साथ ही, शुक्रिया प्रणयजी। जब कहीं पे 'कुछ नहीं' भी नहीं था, वहीं था 'कुछ', जो हम सब में है।
प्रदीप मिश्रा:-
संजीव जी आपसे सहमत हूँ। प्रणय भाई का होना हम सब के लिए महत्व पूर्ण है। मैं उनके विचारों का दम्मान करता हूँ और उनकी उपस्थिती में चर्चा करने से बातें ज्यादा खुलती हैं। बीच बीच आशीष जी जिस तरह से उत्प्रेरक का काम करते हैं वह भी मेरे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। मित्रों आप सब से चर्चा करना खुद को समृद्ध करना है। लेकिन मैं अपनी नौकरी की गुलामी से मुक्त नहीं हो पता हूँ। या यू कहें क़ी वहां पर भी एक सतत संघर्ष चलता है। इस लिए ठीक से शामिल नहीं हो पता हूँ। मित्र छमा करें। प्रणय भाई वर्ग और खाचें में मनुष्य को बांटने वालों के मैं सख्त खिलाफ हूँ। मैं मनुष्य को मनुष्य की तरह ही देखने में विश्वास करता हूँ। हमारे यहाँ आत्मालोचन की परम्परा है। मैं जिस विचारधारा के साथ हूँ। तो पूरे विवेक के साथ हूँ। आगर उस विचारधारा के लोग गलत करेंगे तो उनको भी गलत कहने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। खैर फिलहाल वापस ऑफिस जाना है। शाम को मिलते हैं।
सत्यनारायण:-
प्रदीप यहाँ बात सहमत - असहमत होने भर की नहीं है.....एक ऐसी राजनीति का चलन चल पड़ा है....जो अपने सिवा हर किसी के राजनीति करने के अधिकार को समाप्त कर देना चाहती है...अगर संवैधानिक तरीक़े से नहीं कर सकती तो.....लाठी ..गोली से....क़ानून के दुरुपयोग से....और एक बड़ा तबका....खाता पीता वर्ग इसे अच्छा मान रहा....सही मान रहा.....यह बहुत भयानक बीमारी के लक्षण है.....जो पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नष्ट कर देगी.....वे भारत में किम जॉन उन जैसे किसी शासक का सपना देख रहो हो शायद!
संजीव:-
प्रणय जी आग्रह किया कि हम मनुष्य को मनुष्य की तरह देखें खांचों वांट कर नहीं। "मानवतावादी" विचारधारा के तहत आदर्श स्थिति है यह, परन्तु यथार्थ कुछ अलग है। मनुष्य का मनुष्य बनना अभी यूटोपिया है। वास्तविक मनुष्यत्व को उपलब्ध हुए बिना मनुष्य को मनुष्य की तरह देखना अनुभव करना और वैसा व्यवहार करना असंभव है। क्या हम स्वयं को वर्ग जाति या किसी भी तरह के वैशिष्ट्य के बिना अनुभव करते है? नहीं । कोई हां कहता है वह स्वयं को धोखा दे रहा। जब तक मानवता मनुष्यत्व को पूर्णतः उपलब्ध नहीं कर लेती है तब तक इस तरह की बात बेमानी है।
रचना जी ने इसे छापने की सूचना पहले ही दे दी थी, देखा आज. उनका आभार और विमर्श में सहभागियों का भी. शासक वर्ग शिक्षा को कारीगरी का जरिया बनाना चाहता है जिससे लोग भेड़चाल में पिसते रहें. विस्तृत टिप्पणी बाद में.ट
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