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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 मई, 2016

मई दिवस पर विशेष : हॉवर्ड फास्ट

जैसा कि आप सब जानते हैं, आज एक मई है-- दुनिया के सर्वहारा वर्ग के रक्त से लिखी गई एक महत्वपूर्ण तारीख़... "अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस"। हममें से अधिकांश लोग यह जानते हैं कि 1 मई को अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाया जाता है, परन्तु इसी तारीख़ को दुनिया के मज़दूरों की आवाज़ उठाने के महान उद्देश्य के लिए क्यों चुना गया..  इस बात से कुछ साथी अनभिज्ञ होंगे। 
  तो आज हम हावर्ड फास्ट के इस प्रसिद्ध लेख के रूप में आपसे यह जानकारी साझा कर रहे हैं कि हर साल मई दिवस को मनाने के पीछे क्या घटना,  परिस्थितियाँ और कारण रहे। 
साथियो, अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर मज़दूरों / श्रमिकों से संबंधित पोस्ट्स व टिप्पणियों का स्वागत है। 
( नोट: जैसा कि गत सप्ताह समूह में घोषणा की गई थी,  पाँच मई को कम्युनिस्ट विचारधारा के सबसे  सुदृढ़ स्तम्भ कार्ल मार्क्स का जन्मदिन है। अतः समूह के साथियों की सहर्ष सहमति व इच्छानुसार कल से रविवार तक यह पूरा सप्ताह मार्क्स को समर्पित रहेगा। आपसे विनम्र निवेदन है कि यदि आप मार्क्स पर आधारित कोई लेख / सामग्री यहाँ पोस्ट करना चाहते हैं,  तो कृपया स्वयं यहाँ पोस्ट न करके बिजूका की ईमेल आईडी bizooka15@gmail.com पर अथवा एडमिन के व्यक्तिगत नंबर पर वाट्स ऐप द्वारा प्रेषित कर दें, जिससे कि हम हर लेख को व्यवस्थित रूप से पोस्ट कर पाएँ और उस पर अलग से विस्तार में चर्चा हो सके। टिप्पणियों / प्रतिक्रियाओं का स्वागत है).... 
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हावर्ड फास्ट-

…स्कूल में आपने इतिहास की जो पुस्तकें पढ़ी होंगी उनमें उन्होंने यह नहीं बताया होगा कि ”मई दिवस” की शुरुआत कैसे हुई थी। लेकिन हमारे अतीत में बहुत कुछ उदात्त था और साहस से भरपूर था, जिसे इतिहास के पन्नों से बहुत सावधानी से मिटा दिया गया है। कहा जाता है कि ”मई दिवस” विदेशी परिघटना है, लेकिन जिन लोगों ने 1886 में शिकागो में पहले मई दिवस की रचना की थी, उनके लिए इसमें कुछ भी बाहर का नहीं था। उन्होंने इसे देसी सूत से बुना था। उजरती मज़दूरी की व्यवस्था इन्सानों का जो हश्र करती है उसके प्रति उनका ग़ुस्सा किसी बाहरी स्रोत से नहीं आया था।

पहला ”मई दिवस” 1886 में शिकागो नगर में मनाया गया। उसकी भी एक पूर्वपीठिका थी, जिसके दृश्यों को याद कर लेना अनुपयुक्त नहीं होगा। 1886 के एक दशक पहले से अमेरिकी मज़दूर वर्ग जन्म और विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा था। यह नया देश जो थोड़े-से समय में एक महासागर से दूसरे महासागर तक फैल गया था, उसने शहर पर शहर बनाये, मैदानों पर रेलों का जाल बिछा दिया, घने जंगलों को काटकर साफ़ किया, और अब वह विश्व का पहला औद्योगिक देश बनने जा रहा था। और ऐसा करते हुए वह उन लोगों पर ही टूट पड़ा जिन्होंने अपनी मेहनत से यह सब सम्भव बनाया था, वह सबकुछ बनाया था जिसे अमेरिका कहा जाता था, और उनके जीवन की एक-एक बूँद निचोड़ ली।

स्त्री-पुरुष और यहाँ तक कि बच्चे भी अमेरिका की नयी फैक्टरियों में हाड़तोड़ मेहनत करते थे। बारह घण्टे का काम का दिन आम चलन था, चौदह घण्टे का काम भी बहुत असामान्य नहीं था, और कई जगहों पर बच्चे भी एक-एक दिन में सोलह और अठारह घण्टे तक काम करते थे। मज़दूरी बहुत ही कम हुआ करती थी, वह अक्सर दो जून रोटी के लिए भी नाकाफी होती थी, और बार-बार आने वाली मन्दी की कड़वी नियमितता के साथ बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी के दौर आने लगे। सरकारी निषेधाज्ञाओं के ज़रिये शासन रोज़मर्रा की बात थी।

परन्तु अमरीकी मज़दूर वर्ग रीढ़विहीन नहीं था। उसने यह स्थिति स्वीकार नहीं की, उसे किस्मत में बदी बात मानकर सहन नहीं किया। उसने मुक़ाबला किया और पूरी दुनिया के मेहनतकशों को जुझारूपन का पाठ पढ़ाया। ऐसा जुझारूपन जिसकी आज भी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।

1877 में वेस्ट वर्जीनिया प्रदेश के मार्टिन्सबर्ग में रेल-हड़ताल शुरू हुई। हथियारबन्द पुलिस बुला ली गयी और मज़दूरों के साथ एक छोटी लड़ाई के बाद हड़ताल कुचल दी गयी। लेकिन केवल स्थानीय तौर पर; जो चिनगारी भड़की थी, वह ज्वाला बन गयी। ”बाल्टीमोर और ओहायो” रेलमार्ग बन्द हुआ, फिर पेन्सिलवेनिया बन्द हुआ, और फिर एक के बाद दूसरी रेल कम्पनियों का चक्का जाम होता चला गया। और आख़िरकार एक छोटा-सा स्थानीय उभार इतिहास में उस समय तक ज्ञात सबसे बड़ी रेल हड़ताल बन गया। दूसरे उद्योग भी उसमें शामिल हो गये और कई इलाक़ों में यह रेल-हड़ताल एक आम हड़ताल में तब्दील हो गयी।

     पहली बार सरकार और साथ ही मालिकों को भी पता चला कि मज़दूर की ताक़त क्या हो सकती है। उन्होंने पुलिस और फौज बुलायी; जगह-जगह जासूस तैनात किये गये। कई जगहों पर जमकर लड़ाइयाँ हुईं। सेण्ट लुई में नागरिक प्रशासन के अधिकारियों ने हथियार डाल दिये और नगर मज़दूर वर्ग के हवाले कर दिया। उन लोमहर्षक उभारों में कितने हताहत हुए होंगे, उन्हें आज कोई नहीं गिन सकता। परन्तु हताहतों की संख्या बहुत बड़ी रही होगी, इस पर कोई भी, जिसने तथ्यों का अध्ययन किया है, सन्देह नहीं कर सकता।

हड़ताल आख़िरकार टूट गयी। परन्तु अमरीकी मज़दूरों ने अपनी भुजाएँ फैला दी थीं और उनमें नयी जागरूकता का संचार हो रहा था। प्रसव-वेदना समाप्त हो चुकी थी और अब वह वयस्क होने लगा था।

अगला दशक संघर्ष का दौर था, आरम्भ में अस्तित्व का संघर्ष और फिर संगठन बनाने का संघर्ष। सरकार ने 1877 को आसानी से नहीं भुलाया; अमेरिका के अनेक शहरों में शस्त्रागारों का निर्माण होने लगा; मुख्य सड़कें चौड़ी की जाने लगीं, ताकि ”गैटलिंग” मशीनगनें उन्हें अपने नियन्त्रण में रख सकें। एक मज़दूर-विरोधी प्राइवेट पुलिस संगठन ”पिंकरटन एजेंसी” का गठन किया गया, और मज़दूरों के ख़िलाफ उठाये गये क़दम अधिक से अधिक दमनकारी होते चले गये। वैसे तो अमेरीका में दुष्प्रचार के तौर पर ”लाल ख़तरे” शब्द का इस्तेमाल 1830 के दशक से ही होता चला आया था, लेकिन उसे अब एक ऐसे डरावने हौवे का रूप दे दिया गया, जो आज प्रत्यक्ष तौर पर हमारे सामने है।

परन्तु मज़दूरों ने इसे चुपचाप स्वीकार नहीं किया। उन्होंने भी अपने भूमिगत संगठन बनाये। भूमिगत रूप में जन्मे संगठन नाइट्स ऑफ लेबर के सदस्यों की संख्या 1886 तक 7,00,000 से ज़्यादा हो गयी थी। नवजात अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर का मज़दूर यूनियनों की स्वैच्छिक संस्था के रूप में गठन किया गया, समाजवाद जिसके लक्ष्यों में एक लक्ष्य था। यह संस्था बहुत तेज़ रफ़्तार से विकसित होती चली गयी। यह वर्ग-सचेत और जुझारू थी और अपनी माँगों पर टस-से-मस न होने वाली थी। एक नया नारा बुलन्द हुआ। एक नयी, दो टूक, सुस्पष्ट माँग पेश की गयी : ”आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन”।

1886 तक अमेरिकी मज़दूर नौजवान योद्धा बन चुका था, जो अपनी ताक़त परखने के लिए मौक़े की तलाश कर रहा था। उसका मुक़ाबला करने के लिए सरकारी शस्त्रागारों का निर्माण किया गया था, पर वे नाकाफी थे। ”पिंकरटनों” का प्राइवेट पुलिस दल भी काफी नहीं था, न ही गैटलिंग मशीनगनें। संगठित मज़दूर अपने क़दम बढ़ा रहा था, और उसका एकमात्र जुझारू नारा देश और यहाँ तक कि धरती के आर-पार गूँज रहा था : ”एक दिन में आठ घण्टे का काम — इससे ज़रा भी ज़्यादा नहीं!”

1886 के उस ज़माने में, शिकागो जुझारू, वामपक्षी मज़दूर आन्दोलन का केन्द्र था। यहीं शिकागो में संयुक्त मज़दूर प्रदर्शन के विचार ने जन्म लिया, एक दिन जो उनका दिन हो किसी और का नहीं, एक दिन जब वे अपने औज़ार रख देंगे और कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे।

पहली मई को मज़दूर वर्ग के दिवस, जनता के दिवस के रूप में चुना गया। प्रदर्शन से काफी पहले ही ”आठ घण्टा संघ” नाम की एक संस्था गठित की गयी। यह आठ घण्टा संघ एक संयुक्त मोर्चा था, जिसमें अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, नाइट्स ऑफ लेबर और समाजवादी मज़दूर पार्टी शामिल थे। शिकागो की सेण्ट्रल लेबर यूनियन भी, जिसमें सबसे अधिक जुझारू वामपक्षी यूनियनें शामिल थीं, इससे जुड़ी थी।

शिकागो से हुई शुरुआत कोई मामूली बात नहीं थी। ”मई दिवस” की पूर्ववेला में एकजुटता के लिए आयोजित सभा में 25,000 मज़दूर उपस्थित हुए। और जब ”मई दिवस” आया, तो उसमें भाग लेने के लिए शिकागो के हज़ारों मज़दूर अपने औज़ार छोड़कर फैक्टरियों से निकलकर मार्च करते हुए जनसभाओं में शामिल होने पहुँचने लगे। और उस समय भी, जबकि ”मई दिवस” का आरम्भ ही हुआ था, मध्य वर्ग के हज़ारों लोग मज़दूरों की क़तारों में शामिल हुए और समर्थन का यह स्वरूप अमेरिका के कई अन्य शहरों में भी दोहराया गया।

और आज की तरह उस वक्त भी बड़े पूँजीपतियों ने जवाबी हमला किया — रक्तपात, आतंक, न्यायिक हत्या को ज़रिया बनाया गया। दो दिन बाद मैकार्मिक रीपर कारख़ाने में, जहाँ हड़ताल चल रही थी, एक आम सभा पर पुलिस ने हमला किया। उसमें छह मज़दूरों की हत्या हुई। अगले दिन इस जघन्य कार्रवाई के विरुद्ध हे मार्केट चौक पर जब मज़दूरों ने प्रदर्शन किया, तो पुलिस ने उन पर फिर हमला किया। कहीं से एक बम फेंका गया, जिसके फटने से कई मज़दूर और पुलिसवाले मारे गये। इस बात का कभी पता नहीं चल पाया कि बम किसने फेंका था, इसके बावजूद चार अमेरिकी मज़दूर नेताओं को फाँसी दे दी गयी, उस अपराध के लिए, जो उन्होंने कभी किया ही नहीं था और जिसके लिए वे निर्दोष सिद्ध हो चुके थे।

इन वीर शहीदों में से एक, ऑगस्ट स्पाइस, ने फाँसी की तख्ती से घोषणा की :

”एक वक्त आयेगा, जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताक़तवर सिद्ध होगी, जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो।” समय ने इन शब्दों की सच्चाई को प्रमाणित कर दिया है। शिकागो ने दुनिया को ”मई दिवस” दिया, और इस बासठवें मई दिवस पर करोड़ों की संख्या में एकत्र दुनियाभर के लोग ऑगस्ट स्पाइस की भविष्यवाणी को सच साबित कर रहे हैं।

शिकागो में हुए प्रदर्शन के तीन वर्ष बाद संसारभर के मज़दूर नेता बास्तीय किले पर धावे (जिसके साथ फ़्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत हुई) की सौवीं सालगिरह मनाने के लिए पेरिस में जमा हुए। एक-एक करके, अनेक देशों के नेताओं ने भाषण दिया।

आख़िर में अमेरीकियों के बोलने की बारी आयी। जो मज़दूर हमारे मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था, खड़ा हुआ और बिल्कुल सरल और दो टूक भाषा में उसने आठ घण्टे के कार्यदिवस के संघर्ष की कहानी बयान की जिसकी परिणति 1886 में हे मार्केट का शर्मनाक काण्ड था।

उसने हिंसा, ख़ूंरेज़ी, बहादुरी का जो सजीव चित्र पेश किया, उसे सम्मेलन में आये प्रतिनिधि वर्षों तक नहीं भूल सके। उसने बताया कि पार्सन्स ने कैसे मृत्यु का वरण किया था, जबकि उससे कहा गया था कि अगर वह अपने साथियों से ग़द्दारी करे और क्षमा माँगे तो उसे फाँसी नहीं दी जायेगी। उसने श्रोताओं को बताया कि कैसे दस आयरिश ख़ान मज़दूरों को पेनसिल्वेनिया में इसलिए फाँसी दी गयी थी कि उन्होंने मज़दूरों के संगठित होने के अधिकार के लिए संघर्ष किया था। उसने उन वास्तविक लड़ाइयों के बारे में बताया जो मज़दूरों ने हथियारबन्द ”पिंकरटनों” से लड़ी थीं, और उसने और भी बहुत कुछ बताया। जब उसने अपना भाषण समाप्त किया तो पेरिस कांग्रेस ने निम्नलिखित प्रस्ताव पास किया :

”कांग्रेस फैसला करती है कि राज्यों के अधिकारियों से कार्य दिवस को क़ानूनी ढंग से घटाकर आठ घण्टे करने की माँग करने के लिए और साथ ही पेरिस कांग्रेस के अन्य निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए समस्त देशों और नगरों से मेहनतकश अवाम एक निर्धारित दिन एक महान अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन संगठित करेंगे। चूँकि अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर पहली मई 1890 को ऐसा ही प्रदर्शन करने का फैसला कर चुका है, ”अत: यह दिन अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन के लिए स्वीकार किया जाता है। विभिन्न देशों के मज़दूरों को प्रत्येक देश में विद्यमान परिस्थितियों के अनुसार यह प्रदर्शन अवश्य आयोजित करना चाहिए।”

तो इस निश्चय पर अमल किया गया और ”मई दिवस” पूरे संसार की धरोहर बन गया। अच्छी चीज़ें किसी एक जनता या राष्ट्र की सम्पत्ति नहीं होतीं। एक के बाद दूसरे देश के मज़दूर ज्यों-ज्यों मई दिवस को अपने जीवन, अपने संघर्षों, अपनी आशाओं का अविभाज्य अंग बनाते गये, वे मानकर चलने लगे कि यह दिन उनका है। यह भी सही है, क्योंकि पृथ्वी पर मौजूद समस्त राष्ट्रों के बरक्स हम राष्ट्रों का राष्ट्र हैं, सभी लोगों और सभी संस्कृतियों का समुच्चय हैं।

 प्रस्तुति- बिजूका समूह 
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टिप्पणियाँ

रचना:-
मई दिवस - मेहनतकश वर्ग के चेतना की दुनिया में प्रवेश करने का जश्न
लेनिन
”मेहनतकश साथियो! ”मेहनतकश साथियो! मई दिवस आ रहा है। वह दिन, जब तमाम देशों के मेहनतकश वर्ग चेतना की दुनिया में प्रवेश करने का जश्न मनाते हैं, इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण और दमन के ख़िलाफ अपनी संघर्षशील एकजुटता का इज़हार करते हैं, करोड़ों मेहनतकशों को भूख, ग़रीबी और ज़िल्लत की ज़िन्दगी से आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा करते हैं। इस महान संघर्ष में दो दुनियाएँ रूबरू खड़ी हैं — सरमाये की दुनिया और मेहनत की दुनिया, शोषण तथा ग़ुलामी की दुनिया।

एक तरफ खड़े हैं ख़ून चूसने वाले मुट्ठी भर अमीरो-उमरा, उन्होंने फैक्टरियाँ और मिलें, औज़ार और मशीनें हथिया रखे हैं, उन्होंने करोड़ों एकड़ ज़मीन और दौलत के पहाड़ों को अपनी निजी जायदाद बना लिया है, उन्होंने सरकार और फौज को अपना ख़िदमतगार, लूट-खसोट से इकट्ठा की हुई अपनी दौलत की रखवाली करने वाला वफादार कुत्ता बना लिया है। दूसरी तरफ खड़े हैं उनकी लूट के शिकार करोड़ों ग़रीब। वे मेहनत-मज़दूरी के लिए भी उन धन्‍ना सेठों के सामने हाथ फैलाने पर मजबूर हैं। इनकी मेहनत के बल से ही सारी दौलत पैदा होती है। लेकिन रोटी के एक टुकड़े के लिए उन्हें तमाम उम्र एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। काम पाने के लिए भी गिड़गिड़ाना पड़ता है, कमरतोड़ श्रम में अपने ख़ून की आख़िरी बूँद तक झोंक देने के बाद भी गाँव की अँधेरी कोठरियों और शहरों की सड़ती, गन्दी बस्तियों में भूखे पेट ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है।करोड़ों मेहनतकशों को भूख, ग़रीबी और ज़िल्लत की ज़िन्दगी से आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा करते हैं। इस महान संघर्ष में दो दुनियाएँ रूबरू खड़ी हैं — सरमाये की दुनिया और मेहनत की दुनिया, शोषण तथा ग़ुलामी की दुनिया।

लेकिन अब उन ग़रीब मेहनतकशों ने दौलतमन्दों और शोषकों के ख़िलाफ जंग का ऐलान कर दिया है। तमाम देशों के मज़दूर श्रम को पैसे की ग़ुलामी, ग़रीबी और अभाव से मुक्त कराने के लिए लड़ रहे हैं जिसमें साझी मेहनत से पैदा हुई दौलत से मुट्ठी भर अमीरों को नहीं बल्कि सब मेहनत करने वालों को फायदा होगा। वे ज़मीन, फैक्टरियों, मिलों और मशीनों को तमाम मेहनतकशों की साझी मिल्कियत बनाना चाहते हैं। वे अमीर-ग़रीब के अन्तर को ख़त्म करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि मेहनत का फल मेहनतकश को ही मिले, इन्सानी दिमाग़ की हर उपज काम करने के तरीक़ों मे आया हर सुधार मेहनत करने वालों के जीवन स्तर में सुधार लायें उसके दमन का साधन न बनें।

सरमाये के ख़िलाफ श्रम के भीषण संघर्ष में सब देशों के मज़दूरों को अनेक कुर्बानियाँ देनी पड़ी हैं। बेहतर जीवन और वास्तविक आज़ादी के अधिकार के लिए लड़ते हुए उनके ख़ून के दरिया बहे हैं। जो मज़दूरों के हित में लड़ते हैं उन्हें हुकूमतों के बर्बर अत्याचार झेलने पड़ते हैं, लेकिन इतने जुल्मो-सितम के बावजूद दुनियाभर के मज़दूरों की एकता बढ़ रही है और वे लगातार, क़दम-ब-क़दम सरमायेदार शोषक वर्ग पर सम्पूर्ण विजय की ओर बढ़ रहे हैं।”

(रूसी क्रान्ति के महान नेता लेनिन ने 1904 में मई दिवस के अवसर पर यह पर्चा लिखा था।)

रचना:-
अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस अर्थात् मई दिवस (May Day) 1886 में शिकागो में आरंभ हुआ। श्रमिक मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन का अवकाश हो। इस दिन श्रमिक हड़ताल पर थे। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया तत्पश्चात् पुलिस गोलाबारी में कुछ मजदूर मारे गए, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए।
1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी समय से विश्व भर के 80 देशों में 'मई दिवस' को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्रदान की।
विश्व के लगभग सभी देशों में श्रमिक दिवस या मई दिवस मनाया जाता है। निसंदेह विभिन्न देशों में इसे मनाने का तरीका भिन्न हो सकता है किंतु इसका मूलभूत आशय व उद्देश्य मजदूरों को मुख्य धारा में बनाए रखना और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति समाज में जागरुकता लाना ही है।
भारत में मई दिवस पहली बार वर्ष 1923 में मनाया गया जिसका सुझाव सिंगारवेलु चेट्टियार नामक कम्यूनिस्ट नेता ने दिया. उनका कहना था कि दुनियां भर के मजदूर इस दिन को मनाते हैं तो भारत में भी इसको मान्यता दी जानी चाहिए। मद्रास में मई दिवस मनाने की अपील की गई। इस अवसर पर वहां कई जनसभाएं और जुलूस आयोजित कर मजदूरों के हितों के प्रति सभी का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया। इस प्रकार भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता दी गई।
न्यूजीलैंड में, श्रम दिवस (Labour Day) अक्टूबर के चतुर्थ सोमवार को आयोजित एक सार्वजनिक अवकाश है। इसके मूल 'एक दिन आठ घंटे काम वाले आंदोलन' जुड़े हैं जिसका उदय 1840 में नव गठित वेलिंग्टन कॉलोनी में हुआ था। यहां के बढ़ई सेम्युल पार्नेल (Samuel Parnell) ने दिन में आठ घंटे से अधिक काम करने पर आपत्ति जताई और उसने अन्य कर्मियों को भी प्रोत्साहित किया कि वे भी दिन में आठ घंटे से अधिक काम न करें। बाद में इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया। फिर श्रमिकों की एक सभा ने दिन में आठ घंटे से अधिक काम न करने के विचार को एक प्रस्ताव के रूप में पारित किया।
28 अक्टूबर 1890 को 'आठ घंटे के दिन' की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक परेड निकाली गई। तत्पश्चात् प्रतिवर्ष अक्टूबर अंत में 'श्रमिक दिवस' मनाया जाने लगा। 1899 में न्यूज़ीलैंड सरकार ने इस दिन को एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में मान्यता दी और 1900 से सैंवधानिक रूप से 'लेबर डे' का सार्वजनिक अवकाश होने लगा। यह दिन देश के विभिन्न क्षेत्रों प्रांतों में अलग-अलग दिन मनाया जाता था। इससे नौका व जहाज के मालिकों को यह समस्या आने लगी कि नाविक एक बंदरगाह पर 'श्रमिक दिवस' की छुट्टी रखता तो कई बार दूसरे बंदरगाह पर (जोकि अन्य क्षेत्र में होता) फिर श्रमिक दिवस के अवकाश की मांग करने लगता। इस प्रकार नौका व जहाजों पर काम करने वाले लोग इसका लाभ उठाने लगे। जहाज मालिकों की ने सरकार को शिकायत की और 1910 में सरकारी अवकाश देश भर में एक ही दिन पर निर्धारित किया गया जोकि अक्टूबर के चतुर्थ सोमवार को होता है।

प्रदीप मिश्रा:-
मजदूर दिवस पर हम सब मज़दूरों को खूब बधाई। इसी उत्साह से किसान दिवस भी मानाने की इच्छा है। हिंदुस्तान में तो किसान दिवस ज्यादा प्रासंगिक होगा।

रचना:-
जी बिल्कुल प्रदीप जी।  आपके सुझाव का स्वागत है।  किसान दिवस से संबंधित कोई सामग्री आपके पास हो, तो मेल कर सकते हैं

प्रदीप मिश्रा:-
रचना जी यात्रा में हूँ। फिर कभी जरूर करूंगा। मेरी नज़र में औद्योगिक विकास से बड़ा विकास कृषि विकास है। जिसका प्रमाण डेनमार्क आदि देशों में देखा जा सकता है। कृषि विकास की दृष्टि से भरे अनूठा देश है। यहां का जलवायु, संस्कृति, भूमि और आर्थिक सहिष्णुता कृषि विकास के अनुरूप जितना ज्यादा है उतना किसी भी देश का नहीं है। औद्योगिक विकास की दौड़ में हम अधिकतम द्वितीय हो सकते हैं लेकिन कृषि विकास में निश्चितरूप से दुनिया में प्रथम स्थान पैर हो जायेंगे। साथ ही अपने अनुपम प्रकृति को संरक्षित कर लेंगे। आने वाली पीढी को स्वस्थ जीवन दे पाएंगे। अन्यथा अभी जिस दौड़ में शामिल हैं। वह भविष्य में मजबूत आर्थिक स्थिति तो शायद दे दे लेकिन स्वास्थ तो बहुत ही बुरा होगा। जिसके लिए हमें आनेवाली पीढी माफ़ नहीं करेगी।

संजीव:-
कामगार चेतना से हम सभी चैतन्य हों और सबके साथ हक की लडाई में शामिल हों यही संदेश मई दिवस देता है।

प्रफुल्ल कोलख्यान:-
आज मजदूर दिवस है। मजदूर कौन है? इसे संक्षेप में इस तरह से समझा जा सकता है कि जो दैहिक या मानसिक (किसी भी श्रम में दोनों शामिल होते हैं आनुपातिक भिन्नता के साथ) श्रम से वस्तु का मूल्यवर्द्धन करता है और वर्द्धित मूल्य से होनेवाले मुनाफा के एक अंश को मजदूरी के रूप में प्राप्त करता है और बाकी अंश के विनियोग और प्रबंधन में किसी तरह की प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाता है।

संजीव:-
श्रमिक का वस्तु उत्पादन में लगा हूआ समय ही मूल्य का उत्पादक है। इसे मार्क्स ने श्रम समय कहा है। जो वस्तुएं बिना अतिरिक्त समय व्यय किए मिल जाती हैं उनका मूल्य नहीं के बराबर होता है। जैसे सोना और मिट्टी। अतः श्रमिक ही मूल्य का उत्पादक है और उसे ही मूल्यहीन माना जाता है।
आज के समय की बिडम्बना है कि वर्तमान व्यवस्था ने श्रमिक चेतना को जो कि सामूहिक श्रम के कारण पैदा होती थी,  व्यक्ति चेतना में बदल दिया यही कारण है कि अब बडी और कामयाब  हडतालें नहीं होती, जो कि मजदूर की मूलभूत परिस्थितयों में बदलाव ला सकें।

शिशु पाल सिंह:-
1मई ,मज़दूर दिवस पर विशेष

खेतों से खलिहानों से
    शहरों से कारखनो से
देता हे आवाज़ पसीना
        पत्थर की चट्टानों से

गर्मी हो चाहे सर्दी हो
    या बरसे बरसात
कभी रुके ना हाथ हमारे
     दिन हो चाहे रात
फौलादी है सीना अपना
        लोहे जैसे हाथ
फिर भी गुरबत घेरे रहती
        क्या है ऐसी बात
पूछ रहा है आज पसीना
       दुनिया के इंसानों से

खुद झोपड़पट्टी में रहते
     है जो  भवन बनाते
उनके हिस्से भूख गरीबी
     जो हैं अन्न उगाते
अपनी मेहनत के बल पर हम
      दुनिया रोज़ चलाते
हम भी है इंसान ,लोग
       यह कहने में कतराते
न्याय माँगता आज पसीना
         दुनिया के भगवानों से

बहुत है सीखा बहुत है जाना
      ज़ुल्म सितम की मारों से
अब हमको भरमाना छोडो
       अपने झूठे नारों से
अब न सहेंगे शोषण अपना
      लड़ेंगें अत्याचारों से
रोकना हमको मुश्किल होगा
      गोली की बौछारों से
लड़ने को तैयार पसीना
      है ज़ालिम शैतानों से
             शिशुपाल मधुकर
                मुरादाबाद
(अभिलाषा के पंख ) से

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