30 अक्तूबर, 2024

जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

  

चौथी कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००

कविताऍं

नखरे का मौन


अरे! क्या मौन?

शब्दों के गांभिर्य मिटाकर

निःशब्द के झंझटों का दमन 

पत्थरनुमा पड़े घन हे मौन;


वर देने के लिए हाथ उठाए देवताओं को 

उठे हाथ को वैसे ही मौन में मिलाकर

कारणिक के मूँह को बंद कर

गर्व से दिखावा करते हो।


असहायकता के धुन को निगल के

कराल अंधकार से बी बढ़कर

उभरते अहम् को मन में पोसते

आकाश तक पालते लबक करते हो।


उभरते निर्धारों को छिपाकर

गुस्सा, रूठन, परिहास, दया

और नजाने कितने तुम्हारे अंदर

छिपाकर सभी शोरगुल के

गर्वभंग कर मौन होकर ही रहते हो।


मौन होकर ही रहते हो

जैसे कुछ भी न हुआ हो

हे नखरे का मौन, वह

तुम्हारे गहरे कंदरों में

क्या कभी कभी प्यार को भी छिप के रखना है? 

*****


रूबरू विज्ञापन जैसे


सोच लिया था-

रात के अंधकार मात्र अपने

गर्भ में न जाने क्या

छिपा के रख लेता है;

माया को पापों को

मगर सूर्य के प्रखर उजाला भी 

वही कर लेता है।


आलीशन बंगला खड़ा है

शांत, गंभीर होके मार्ग के बगल में

मोहक कांच, सुंदर बगीचा

पानी की बुदबुदापन आदि....

रूबरू विज्ञापन जैसे।

दीवार का मोहक रंग

कलाकार की आकर्षक कलाकारी।

मार्ग के छोर जाकर

कौतुहलवश, पैर के 

अंगुष्ठों पर खड़े होते लंगडाते

अंदर देखा क्या हो सकता है?

बाहर प्काशमान सूर्य

न प्रकाशित मकान के भीतर

एक रात वहाँ चलते समय

उस घर के सामने, फिर एक बार

पैर के अंगुष्ठों पर मेरा सर्कस।

घर के चारों तरफ एवं अंदर-बाहर

फूल की कलीनुमा लाइट

विशाल भवन, कमरे

आकर्षक पीठोपकरण, ठंडक 

महसूस करती दीवारों में रंग

रूबरू विज्ञापन में जैसे थे।

ताज्जुब हो के देखते समय

भवन के अंदर घुसे, सुशिक्षित

दिखते स्त्री और एक पुरुष

एक बालक को घसीटकर 

ले आके लात मारे, उसकी चिल्लाहट

सुनाई नहीं दिया वहीं खड़े मुझे।

कुंदर कीवाड की कांच

शोरगुल को बाहर न किए

अंदर जा नहीं सकते

सात फेरी का किला।

अंगुष्ठों पर खड़े ताकरहा था मूक प्रेक्षक।

पीठोपकरण, ठंडक रंग, लाइट 

आदि, आदि....

रूबरू विज्ञापन जैसे।

*****

 

अवस्था


ठोकर खाते संघर्ष करते देखा

सपने सारे मुट्ठी में

कहती बातें सारी बने सपने

या उन्हीं से कही हुई बातें बनी।


मुझे निगलने आए गुम्म को 

माँ के आँचल में बंधे थे।

पिता की कहानी की चिड़िया

कीवाड पर बैठ की गई बातें

मात्र कहानी नहीं बनी, सपने बनकर न रहीं

सपने ही बात, बातें ही सपने

गोलियाँ जिसतरह लुढ़कती हैं।


वैसे एक-एक सपने धीरे से

चल बसे लुढ़क-लुढ़कते

बचपना मुड़कर आयी थी,

रंगीन बिहु फसल त्योहार।


मात्र गड़बड़ के रंगारंग

रंगीनता ही सपने,भविष्य।

घने पत्थर के गोद में सुनाई देता

सभी, औ सभी के सपने

अंतरहित सागर में

बिनथकी तैराकी, मस्ती

अर्थव्यर्थ सभी सपने

देखते देखते ही जलती

सिगरेट के जैसे गये

धुँआ बनकर घटती गटती

बुढ़ापे की बुजुर्ग गोद में 

तभी गिर गया था फिसलकर।


आँखें थक गई हैं

पलकों समा नहीं सकती सपनों को,

दिवा में जलाए उजाले जैसे

पास में पड़े थे बेहोश 

किशोरी भूली ओढ़नी 

फिसलगई अंचल पल्लू

पास ही में थे सपने

दिनों को भी पलों को भी

निगलकर भरपेट गिरे थे

न हिलते, न डुलते, बिन किसी आवाज।

*****


सपने अभी भी हैं


मात्र दिन-रातों के 

दिवा तम का खेल

निरंतर चलनशील।

इधर कोंपल भी निकले

सूखे भी नहीं खोखले

गर्भ में झूठे सपने 

संघर्षरत हैं अस्तित्व हेतु।

सपने अभी भी हैं।


बाजार में बिछेरखे रंगारंग

तम की छांव की आँखों में

चारों तरफ शोरगुल, बात नहीं

बिखरे शब्दों की ध्वनि

कंपित मनों के 

एकला प्रेत है ये जनता

चलन नहीं, सबकुछ स्थिर है।

सपने अभी भी हैं। 


अप्रवासित पंछी को 

फिर से नहीं मिली नीड़

पेड़ गिरें जड़ें उनकी

तल से चाहती हैं फिर कोंपलित होने

बोये नींव सारी आकाश सी ऊँची।

गरीब बने आलीशन भवनें।

बहती नदियाँ नहर

पाताल में पुराणों में।

सपने अभी भी हैं।


सृष्टि के मर्म को खोदकर

फटे बिखरे गर्भ से

निकाल फेंके भ्रूणों।

कोंपल को भूली भूमि

सोई है तन बिछाकर

बिनलगाम के घोड़े नुमा

नरुकनेवाली यात्रा है यह....

सपने अभी भी हैं.....

*****

अंधेरा मत बनो


पु में निःश्वास की आग

धधकाती जलती रही।

मैं रानी, ढूँढ रही हूँ

दुःख का मूल कहाँ है।


यकीनन के स्वच्छ झील में

लहरें पागल बनके हिल रही हैं।

भावनाओं को हृदयांतराल में।

मन में चांद को समाये

आय़ी हूँ यहाँ दुल्हन बन के 

तुम ही मेरी संपदा मान के

आश्रय मांगती आयी मुझे

झूठे बन गए सारे सपने

धोखा हुआ प्यार को

षड्यंत्र के जाल में फंसकर।


तुम्हारी आँखों की उजाली रोशनी में

अधरमधु में अंकुरित

हँसी में देख ली आशा।

शंकाकुल कभी नहीं हुआ

एक बार भी मन में

कितने दिनों की योजना है यह?

अनजाने में हार गया क्या?

फिर बसंत के आगमन सा

आयेगा तुम मानके इंतजार

सीमा पार कर आए रवि

ना निकले बाहर कभी

अंतःपुर में कभी अंधकार न छाए

ना लगे तम की छाँव बच्चे को

बच्चे को ना बने पर सब को बने पिता तुम।


बुद्ध बनने उठकर

क्या जाना चाहिए छुपके

घर बार तजकर?

क्या नहीं कहना है मनोभिलाषा एक बार?

बिन किसी आतंक से साथ में आती।

सभी बुद्ध है अपनी अपनी प्रज्ञा के

सच जानने अवलंबित मन त्याग

क्या जाना चाहिए बोधी की छाँव में?

हर टहनियाँ मुझे 

निःश्वास करती थी क्या मैंने नहीं समझा?

यहीं रह कर क्यों बुद्ध नहीं बन जाते?

*****


कहाँ ढूँढ़ लूँ मुझे


आप के देखे सपने में 

 आदेशों में आशाओँ में

खो गई हूँ मैं।


आप के रखे नाम में न हूँ मैं

मात्र अक्षर बन गई,

आप के देखे सपनों में

सिकुडती छाँव बनी।

सूर्य के तरल प्रकाश में

गलगई हूँ क्या?

तिमिरांध के गर्भ में

डूब चुकी हूँ क्या?

कहाँ ढूँढ़लूँ मुझे?


न ढ़ोनेवाली यादगारों को 

बंधित सर्प बेड़ियों को 

फेंकदूँगी युगयगों से पार।

मैं क्यों अपने को आप की

आँखों में दिखा दूँ?

मैं दिखलाती

अपने सपनों 

बहा करती अपनी ओर

मेरी करती हुई बातों में

मेरी गाती रागों में

मेरे अपने सपनों में

मुझे ढूँढ़ लेती...

मुझे ही देख लेती।

*****


विशाल जगत


यह विशाल जगत 

मेरे सिर में न भरने 

और मुझे न पकड़ने जैसी छोटी है।


सपनों की जड़ें

हिलती रही भूकंपन से

तो भी बाजुओं से भद्र आलिंगन करती।


रूठे प्रवाहों में 

बहाव करती ध्वनियों को

पकड़ के रोक सकती


तूफानों में बहते 

शब्दों को खिसककर

कविता रचा सकती।


तमाध की बाहों में 

हिलडुल करते प्रकाश को 

फिर से अंकुरित कराती।


विशाल आकाश बन

आप नक्षत्रों को 

पकड़ टिमटिमाने देती।


अनचाही बिंबों को 

कामयाबी से चाँद को 

बिंबित करनेवाली आईना बन जाती।


अब कहिए,

मेरे लिए आप क्या बनेंगे?


यह विशाल जगत

मु....झ....को

ना पकड़ पाने जैसा

ना मानने जैसा

छो...टा...है। 

*****

अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।


अवधेश प्रीत की कहानी: छोटे सरकार


सेंट्रल जेल के बाहर,भीमाकार गेट के सामने एक बड़ा-सा हुजूम बेचैनी से उन बंद कपाटों पर टकटकी लगाये हुए था, जिसके पीछे से किसी भी वक़्त छोटे सरकार के नमूदार होने के

इमकिनात थे। जेल गेट की लिंक रोड से जुड़ती मुख्य सड़क पर गाड़ियों की लंबी कतार थी। गाड़ियों में बैठे कई लोगों के हाथों में कसकर थामी हुई राइफलें थीं। इन राइफलों की नालें थोड़ा-थोड़ा गाड़ी की खिड़कियों से झांक रही थीं। गाड़ियों के बाहर खड़े लोगों के चेहरों पर कभी तनाव, कभी ऊब और कभी उत्सुकता के मिले-जुले भाव आ-जा रहे थे। प्रतीक्षा की सुई टिक-टिक करती हुई धैर्य की परीक्षा लेने लगी थी। लोग बार-बार अपनी घड़ियां देखते और बेसब्री से जेल के विशालकाय गेट के खुलने की उम्मीद में टकटकी बांधे आंखें गाड़ देते।

इस भीड़ में सबसे आगे थे छोटे सरकार के दाहिना हाथ कहे जानेवाले उनके साले दोनाली सिंह। दोनाली सिंह का असली नाम, जिसे उनके माता-पिता ने दिया था,वह तो था दुलार सिंह, लेकिन उनके जीजा ने उनका नया नामकरण कर दिया था-दोनाली सिंह। दोनाली सिंह बगटूट गालियां देने के अलावा उसी रफ़्तार से हाथ-पैर साथ-साथ चलाने में ज़बरदस्त पारंगत थे। यह दक्षता उन्होंने अपने गाँव में खेत मज़दूरों से काम लेते हुए अर्जित की थी, जो उनकी दीदी के ब्याह के बाद, जीजा जी के साथ रहते हुए, उनके काम आई। उनकी यह विशेषज्ञता देखकर एक सुबह जीजा छोटे सरकार ने सरेमहफ़िल एलान कर दिया था,'ई हमरा दुलरुआ, हाथ-पैर, मुंह सब एक साथ चलाता है, एकदम दोनाली माफ़िक।' 

छोटे सरकार के मुंह से निकला वचन कभी न जाये ख़ाली। छोटे सरकार के दुलरुआ दुलार सिंह जिस दिन दोनाली हुए, उसी दिन से उनके जनक-जननी का नामराशि के अनुसार बड़े सोच-विचार के बाद दिया उनका नाम सदा के लिए लोप हो गया,ठीक उसी तरह जैसे वह ख़ुद छोटे सरकार में लोप हो गये थे.उनके लोप होने की कथा के पीछे भी उनका दुलरुआ होना ही था. हुआ यह कि  इंटर की परीक्षा देकर वह दीदी-जीजा के यहां छुट्टियां बिताने आये थे, पर जीजा माने छोटे सरकार का जलवा देखकर इस कदर प्रभावित हुए कि अपने घर लौटने की इच्छा टालते रहे. इसी बीच इंटर का रिजल्ट आ गया। दोनाली सिंह चार विषय में फेल हो गये थे. छोटे सरकार अपने दुलरुआ का लटका चेहरा देखकर तड़प उठे। उन्हें पास बैठाकर प्यार से झिड़की दी,'धत्त साला, इम्तिहान कुम्भ का मेला है क्या,जो बारह साल बाद आएगा? अबकी साल हमरे गाँव के कॉलेज से इम्तिहान दीजियेगा। देखते हैं, कैसे नहीं पास होते हैं?'

दीदी ने भी अपने छोटे भाई का हौसला बढ़ाया,'तुमरे जीजा जी ठीके कह रहे हैं। तुमको बस फारम भरना है। रिजल्ट तो घरे चल के आएगा।' 

रिजल्ट घरे चल कर आयेगा? बात का मर्म बूझने में मदद की रामा भाई ने,'सब छोटे सरकार का जलवा है। यहां उनकी सरकार चलती है...उनका हुकुम चलता है। पत्ता भी उनके इशारे पर हिलता है।'

जीजा-दीदी के इस लाड़-दुलार से उनका मन थिराया। धीरे-धीरे वह रिजल्ट के ग़म से उबरे। इस बीच दीदी ने बाबू जी को ख़बर भिजवा दी,'छोटका का नाम उसके जीजा जी यहीं लिखवा रहे हैं। आप लोग निफिकिर रहिये। आगे की पढ़ाई यहीं रहके करेगा।'

बेटी का प्यार और दामाद का आदेश सिर आँखों पर। दुलार सिंह खूंटा गाड़कर यहीं के होके रह गये। दुलार सिंह के दुलरुआ और फिर दोनाली होने की इस यात्रा में उनका मन इतना रमा कि पढ़ाई लिखाई,इम्तहान-परीक्षा सब बेमानी हो गये। जीजा जी का जलवा देखकर वह अक्सर सोचने लगते,एक से एक पढ़ा-लिखा लोग छोटे सरकार के दरबार में माथा टेकता है...हुकुम बजाता है... फिर वही पढ़कर क्या तोप बन जायेंगे?' 

इस पर एक दिन रामा भाई ने टोका,'पढ़-लिख के आदमी कुछ बने न बने,अच्छा इंसान ज़रूर बन जाता है।' 

दोनाली सिंह को यह आप्त वचन कुछ जंचा नहीं,असहमति स्वरूप मुंह बिचका दिया था। दोनाली सिंह की इच्छा हुई थी कि पूछें,'रामा भाई, इसीलिए अपने बेटे को पढ़ा लिखा रहे हैं?' 

लेकिन सवाल से पहले रामा भाई जा चुके थे।

दोनाली सिंह इंटर की परीक्षा तो नहीं दे पाये,लेकिन तरह-तरह के हथियार चलाने की हर परीक्षा पास कर गये। एके 47, ऑटोमेटिक मशीनगन, एलएमजी से लेकर पिस्टल, रिवॉल्वर तक उनके यार-दोस्त हो गये। उनकी लगन, मेहनत और खिदमत को देखते हुए आख़िरकार छोटे सरकार ने उन्हें अपना अंगरक्षक बना लिया। वह हर वक़्त अपने जीजा छोटे सरकार के साथ साये की तरह लगे रहते। जीजा-साले के इस प्रेम को देखते हुए एक दिन उनकी दीदी ने एकांत देखकर दोनाली सिंह से कहा,'हमरे सुहाग का रच्छा अब तुमरे ज़िम्मे है।' 

उस दिन दोनाली सिंह ने भी अपनी दीदी को वचन दिया,'प्राण जाय पर वचन न जाई।'

अपने वचन से बंधे दोनाली सिंह छोटे सरकार के हर अच्छे-बुरे काम में सदा साथ रहते।

यही वजह थी कि जिस भोर पुलिस हवेली को घेरकर छोटे सरकार को गिरफ्तार करने के लिए अंदर दाखिल हुई,वह पुलिस के सामने दीवार की तरह अड़ गये थे। उन्हें विरोध करते देख एसपी अनुराधा सिंह ने सीधे उनके ऊपर रिवॉल्वर तान दिया था। अब तक लोकल थाने के दारोगा-सिपाही से निबटते आये दोनाली सिंह एसपी अनुराधा सिंह के हाथ में तनी 32 बोर की पिस्टल का निशाना अपनी छाती पर देखकर सनाके में आ गये थे। होशो-हवास सटककर जाने कहां गुम हो गया था। पटर-पटर चलनेवाली ज़ुबान अंदर ही ऐंठकर रह गई थी। उन्हें महसूस हुआ था कि हथेलियों में पसीना चिपचिपाने लगा है। पांवों पर खड़ा रह पाना मुहाल हुआ जा रहा था। जान पर बनी हो तो सारी हेकड़ी टें बोल जाती है। उस वक़्त वह सूखते गले और गीली आँखों के दरम्यान बेचारा होकर रह गये थे। ठीक उलट एसपी अनुराधा सिंह गालियों की बौछार के साथ उनके कुल-खानदान की मां-बहन एक किये जा रही थी। उसके मुंह से इतनी फाहिश गालियां सुनकर दोनाली सिंह के कान सुन्न पड़ गये थे। आँखें फटी जा रही थीं। एक सुन्दर, जवान और स्मार्ट लड़की को बेछूट गालियां देते देखने का यह अनुभव इतना ख़ौफ़नाक था, कि उनकी रूह फ़ना हो गई थी। घर के मुख्य दरवाज़े के सामने उन्हें जड़ देखकर दो दरोगाओं ने बाज़ की तेज़ी से झपट्टा मारकर उन्हें दीवार से लगा दिया था। इसी तेज़ी के साथ दो सिपाहियों ने दरवाज़ा तोड़ने के लिए राइफल के कुंदों से पीटना शुरु कर दिया था। बमुश्किल तीन-चार चोट पड़ी थी कि दरवाज़ा अंदर से खुला और ठीक सामने छोटे सरकार दोनों हाथ ऊपर उठाये खड़े थे। वह पुलिस के सामने... वह भी महिला एसपी अनुराधा सिंह के सामने आत्मसमर्पण की मुद्रा में थे। इस अघटित को घटता देखकर दोनाली सिंह की आँखों पर पड़ा परदा चर्र से फट गया था। कोई तिलिस्म था जो बेसाख्ता टूटकर बिखर गया था, कि अपने जीजा को, छोटे सरकार को इतना बेबस लाचार देखने की कभी न की गई कल्पना का असर था कि दोनाली सिंह के भीतर अपने जीजा के लिए एकाएक धिक्कार पैदा हुआ था। सारा तमाशा वह असहाय मन देखते रह गये थे।

पलक झपकते पुलिस के जवान हवेली के अंदर भरभराकर घुस गये थे। चप्पे-चप्पे की तलाशी लेने के दौरान एक कमरे से एके 47, एके 56, ऑटोमेटिक मशीनगन,एसॉल्ट राइफल जैसे तमाम हथियार,सैकड़ों मैगज़ीन और हज़ारों जीवित कारतूस बरामद हुए थे। आनन-फानन जब्ती सूची बनाकर, पुलिस छोटे सरकार को बख्तरबंद जीप में बैठाकर रवाना हो गई थी। इस दौरान रिज़र्व पुलिस,रैपिड एक्शन फोर्स और ज़िला पुलिस के हथियारबंद जवानों ने पूरे गाँव को घेरे रखा था। परिंदों के भी पर मारने की ज़ुर्रत नहीं थी। जब तक गाँव को इस दबिश की भनक लगती, लोग कुछ ठीक से समझ पाते, पुलिस पलटन धूल-धुआँ उड़ाती निकल गई थी। पीछे जो भीड़ जुटी थी, वह निंदियाई हुई भौंचक थी कि यह अजगुत हुआ तो हुआ कैसे? 

'थाना वाला कोई ख़बर ना दिया क्या?'

दोनाली सिंह,उनकी दीदी, यहां तक कि रामा भाई को भी थाने से इस दबिश की कोई सूचना नहीं मिली थी। हवेली के बाहर गाँव वालों की जमा भीड़ को इस बार अपने छोटे सरकार का जलवा देखना नसीब नहीं हुआ। गाँव वालों को यक़ीन नहीं आ रहा था कि हर बार की तरह छोटे सरकार इसबार पुलिस वालों को नाक क्यों नहीं रगड़वा पाये? यह पहला मौका नहीं था, जब हथियारबंद पुलिस जवानों ने छोटे सरकार की हवेली को घेरा था, लेकिन छोटे सरकार कभी पुलिस के हाथ नहीं आये, तो इसलिए कि पुलिस की छापेमारी से पहले उन्हें पुलिस वालों से ही भनक मिल जाती थी और वह पलक झपकते ग़ायब हो जाते। एकाध बार पुलिस से मुठभेड़ की नौबत आई भी तो, वही भारी पड़े। उन्हें घिरा देखकर पहले से ही तैनात आसपास की छतों से पुलिस पर अंधाधुंध फायरिंग शुरु हो जाती। ऐसे में ख़ुद को घिरा पाकर पुलिस अपना मिशन बीच में ही छोड़कर लौट जाती थी। एक बार तो ऐसी ही मुठभेड़ में एएसपी श्रीनिवास सुब्रह्मण्यम बाल-बाल बचा था,जब दोनाली सिंह की बंदूक से निकली गोली उसकी टांग में जा लगी थी। बाद में छोटे सरकार ने उन्हें धिक्कारा था,'हमको बिस्वास नहीं था कि तुम्हारा निशाना चूक जायेगा!'

दोनाली सिंह को ख़ुद पर शर्म आई थी, माथा अपमान से झुक गया था। वह छोटे सरकार से आँखें मिलाने के काबिल नहीं रह गये थे। एकतरह से उस दिन वह छोटे सरकार की नज़र से गिर गये थे। रामा भाई ने समझाया था,'दोनाली सिंह, इस धंधा में रिश्तेदारी नहीं, वफ़ादारी काम आती है।' 

यह नसीहत उन्होंने गांठ बांध ली थी, हालांकि रिश्तेदारी की कसक़ हमेशा चुभती रहती। 

पुलिस पर गोली चलाने के मामले में दोनाली सिंह का नाम पहली बार किसी एफआईआर में दर्ज़ हुआ था। पहली बार उन पर किसी अपराध का आरोप लगा था। रामा भाई ने ठिठोली की थी,' अब जाके बपतिस्मा हुआ है।'

'माने?'

'छोटे सरकार के दरबार की पक्की मेम्बरी मिली है।' दोनाली सिंह के चेहरे पर पसरी उदासी कुछ और गहरा गई थी।दिल डूबने को हो आया था। थानेदार त्रिभुवन तिवारी ने ख़बर भिजवाई थी, 'दोनाली सिंह को कुछ दिन अंडरग्राउंड रहने को कहिये। पुलिस पर गोली चलाने से मामला बहुत गरम है। पुलिस के हत्थे चढ़े तो एनकाउंटर भी हो सकता है।' 

एनकाउंटर के नाम से दोनाली सिंह के प्राण सूख गये थे। काफी दिनों तक रात में नींद नहीं आई...कभी आँख लगी भी तो लगता एक गोली सनसनाती हुई उनकी ओर आ रही है। वह चीख़ मारकर उठ बैठते। जाड़े की रात में भी पसीने में भीगे होते। उनकी यह हालत देखकर एक दिन रामा भाई ने टोका,'छोटे सरकार को पता चला तो बड़ी भद्द पिटेगी तुमरी। ऐसा डरपोक छोटे सरकार के किसी काम का नहीं।' 

रामा भाई की समझाइश से ज़्यादा उनकी आँखों में जो हिकारत थी, उसने दोनाली सिंह को छलनी कर दिया था। वह मन मज़बूत करके ख़ुद को संभालते रहे। धीरे-धीरे ख़ौफ़ कम होता गया, उनकी हिम्मत बढ़ती गई। उसी हिम्मत का नतीजा था कि छोटे सरकार की गिरफ्तारी वाले दिन वह पुलिस के सामने डट कर खड़े हो गये थे। उन्हें लगा था, उनकी इस दिलेरी से उनपर डरपोक होने की तोहमत का धब्बा धुल जायेगा और रामा भाई को ज़वाब भी मिल जायेगा। लेकिन उस दिन एसपी अनुराधा सिंह के आगे छोटे सरकार ने बिना हील-हुज्जत जिस कायरता से समर्पण कर दिया, वह उन्हें हैरान किये हुए था। छोटे सरकार के जिस रुतबे के वह क़ायल रहे ... जिस दमखम पर नाज़ था,वह सब इतना फुस्स निकलेगा, यह सोचते हुए वह शर्म से गड़े जा रहे थे? 

भांय-भांय करती हवेली में डाकिनी-सी डोलती उनकी दीदी ने ख़ुलासा किया था,'समर्पण ना करते तो अनुराधा सिंह एनकाउंटर कर देती।' 

'किसका एनकाउंटर कर देती...छोटे सरकार का?' 

दीदी उनके चेहरे पर आँखें गड़ाए हुए थी। वे आँखें नहीं दहकते हुए दो शोले थे,'पुलिस जब हवेली घेर ली थी तब छोटे सरकार के पास थानेदार तिवारी का मोबाइल आया था,'पुलिस पर गोली चलाने वाले दोनाली सिंह से बदला लेने आई है एसपी अनुराधा सिंह।आप सरेंडर कर दीजिये नहीं तो वह  दोनाली सिंह का एनकाउंटर कर देगी।' 

'क्या?' दोनाली सिंह का मुंह खुला का खुला रह गया था...रीढ़ में ठंडी लहर रेंग गई थी। दीदी ने बड़े रहस्यमय अंदाज़ में ख़ुलासा,'तुमरे चलते छोटे सरकार को जेल जाना पड़ा है... अब तक मज़ाल ना हुआ जो पुलिस उनको हाथ लगा दे।'

दोनाली सिंह पर जैसे वज्र टूटा हो। एकबारगी हृदय फट पड़ा था। गहरे अपराधबोध में धंसे वह बेतरह फफ़क़ पड़े थे,'कहां तो हम छोटे सरकार का दाहिना हाथ बनने चले थे, कहां हम उनके लिए फांस बन गये। दीदी, जीजा जी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। हो जाता मेरा एनकाउंटर... जीजा जी को तो आंच न आती।दीदी, तुम जीजा जी को काहे ना रोकी?' 

'छोटे सरकार किसी की सुनते हैं क्या? ' दीदी के ज़वाब में मायूसी थी... शायद अफ़सोस भी।

'दीदी, हम यहां से चले जाते हैं...न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।' दोनाली सिंह ने गहरे ग़म में निर्णय सुनाया था।

दीदी ने ठंडी आह भरी थी,'तुमरे जीजा के पीछे इतना सब तामझाम हम अकेले कैसे संभालेंगे?'

दोनाली सिंह के सामने भक्क से कोई लौ कौँधी थी और उनकी आँखें झपझपाने लगी थीं। उन्होंने सुझाया था,'रामा भाई हैं न?' 

'गोतिया... गोतिया होता है... अपना अपना।' दीदी ने सूत्र वाक्य में मन की बात कह दी थी।


छोटे सरकार के सरेंडर वाले दिन एसपी अनुराधा सिंह ने लोकल थानेदार त्रिभुवन तिवारी को अर्जेंट मीटिंग के लिए अपने ऑफिस बुला लिया था। थानेदार तिवारी एसपी के बुलावे की प्रतीक्षा में दिन भर इस कोना,उस टेबल डोलते रहा, लेकिन न मीटिंग के आसार दिखे और न कोई आदेश मिला, न स्टेशन छोड़ने का संदेश। देर रात एसपी अनुराधा सिंह ने उन्हें अपनी जीप में बैठाया और आगे- पीछे अमला-दस्ता लेकर दबिश देने निकल पड़ी। थानेदार त्रिभुवन तिवारी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं। उसे समझते देर न लगी कि यह चढ़ाई छोटे सरकार पर है। एसपी अनुराधा सिंह ने इस मिशन की भनक न उसे लगने दी थी, न उसके थाने को। इस ख़याल के कौँधते ही उसकी सांसें सीने में अंटक गईं। रंगे हाथ पकड़ लिए जाने की घबराहट से चेहरा फक्क पड़ गया था। एसपी अनुराधा सिंह ने ऐन हवेली के पास पहुँच कर थानेदार तिवारी को निर्देश दिया था,'छोटे सरकार को कॉल करो, सरेंडर करे वरना उसके साले दोनाली सिंह का यहीं एनकाउंटर कर दूंगी।' 

यह झूठी धमकी थी, लेकिन स्पष्ट था कि एसपी अनुराधा सिंह के पास छोटे सरकार के बाबत काफी जानकारी थी। तिवारी के पास हुक्म की तामील के अलावा कोई चारा न था। उसने छोटे सरकार के निजी मोबाइल नंबर पर कॉल कर के सरेंडर कर देने की ख़बर दे दी थी। उधर से कुछ पूछा गया था,जिसके ज़वाब में तिवारी ने कहा था,'हमरा कहना मानिये, इसी में सबकी भलाई है।' वह एकहैरतअंगेज़ रात थी, जब छोटे सरकार ने बिना लड़े...बिना प्रतिरोध किये...समर्पण कर दिया था। क्या कोई चमत्कार हुआ था...क्या हृदय परिवर्तन हो गया था? या कोई ऐसा रहस्य था,जिसे छोटे सरकार के सिवा और कोई नहीं जानता? और बड़ा प्रश्न यह था कि पुलिस दोनाली सिंह को छोड़ कर सिर्फ छोटे सरकार को ही क्यों पकड़कर ले गई? 


इस वक़्त जेल गेट की ओर टकटकी लगाये दोनाली सिंह के चेहरे पर बदहवासी इस कदर चस्पां थी, कि गमछे से बार-बार पोंछने के बावज़ूद उसका एहसास मिटने का नाम नहीं ले रहा था। उनके बाल बिखरे हुए थे, जिसे सुबह की हवा छितराये दे रही थी। क़ुरता मुड़ा-तुड़ा था गोया रात का पहना सुबह बदलने तक का ख़याल न रहा हो।

'दोनाली सिंह, काहे इतना देरी हो रहा है हो?' रामा भाई ने व्यग्रता से टोका।

'फॉर्मेलिटी में टाइम लगता है रामा भाई... थोड़ा धीरज धरिये।' दोनाली सिंह ने ख़ुद को भी समझाया।

'पचास से ऊपरे गाड़ी जुट गई है। आदमी का तो ठिकाना नहीं है।' रामा  भाई ने हुजूम की ओर मुड़कर देखा,' सगरे गाँव उठ के आने वाला था, बड़ी मुश्किल से रोके हैं हम।'

'फूल माला सब तैयार है न?' 

'मुखिया जी का जिम्मा था.... देख लेते हैं हम।' रामा भाई पीछे चले गये।

उधर रामा भाई गये, इधर मुखिया जी भीड़ में लोगों को माला बांटते हुए दोनाली सिंह के क़रीब आये,' दोनाली, तुमरे लिए गुलाब का स्पेशल माला बनवाये हैं... छोटे सरकार के दुलरुआ जो हो!' 

दोनाली को यह मज़ाक भीतर तक चुभ गया। हमरा महत्व बस यही है कि हम छोटे सरकार के साला हैं? भीतर उठी कुफुत दबाकर बोले,'मुखिया जी, हमछोटे सरकार के ख़ाली साला ही नहीं हैं, उनका दाहिना हाथ भी हैं।'

'दाहिना हाथ इसीलिए हैं कि छोटे सरकार का दुलरुआ है।'

'आप मुखिया हैं, यह कृपा भी तो छोटे सरकार की ही है।'

'कौन है, जिस पर छोटे सरकार की कृपा नहीं है?' मुखिया ने ताल-सा ठोंका,'थाना, पुलिस, कोर्ट कचहरी किस पर कृपा नहीं है, बताइये भला?'

मुखिया की बात सही थी। फिर भी पुलिस ने छोटे सरकार को गिरफ्तार कर लिया था...अवैध और प्रतिबंधित हथियार रखने के जुर्म में। काफी दिनों तक ज़मानत नहीं मिली। कोर्ट में पुलिस की ओर से सरकारी वक़ील कोई न कोई पेंच लगाकर ज़मानत याचिका का विरोध करता और उनकी अगली सुनवाई महीनों टल जाती। दोनाली सिंह जब जेल में छोटे सरकार से मिलने गये थे तो उन्होंने बताया था,'सब मुख्यमंत्री के इशारे पर हो रहा है।'

छोटे सरकार के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी, लेकिन आवाज़ में थकान भरी थी। कितने ही केस उन पर थे, पर वह कभी इतने हताश नहीं दिखे थे। कई केस की जाँच पेंडिंग थी, तो किसी की चार्जशीट भी फ़ाइल नहीं हुई थी...कुछ केस झूठे क़रार दिये गये थे, तो कई केस वापस ले लिए गये थे। मर्डर के दो केस थे। एक भूलोटन पहलवान का और दूसरा पकरांवा के गुलाटी मुखिया का। लेकिन उनके चश्मदीद गवाहों की हत्या हो गई थी। इन गवाहों की हत्याओं के आरोप भी छोटे सरकार पर ही लगे, लेकिन किसी ने एफआईआर में उनका नाम दर्ज़ नहीं कराया। उनके वक़ील का दावा है कि छोटे सरकार गवाहों के अभाव में हत्याओं के सभी आरोप से मुक्त हो जायेंगे।

छोटे सरकार की पार्टी जब तक सरकार में रही पुलिस की मज़ाल नहीं थी कि उन्हें हाथ लगा दे... लेकिन सरकार बदलते ही उनका सारा शिराजा बिखर गया। उपचुनाव में छोटे सरकार ने जिस उम्मीदवार शंकर प्रसाद को जिताने में बढ़-चढ़ कर मदद की, वह एक तो जात भाई था, दूसरे पार्टी आला कमान का रिश्तेदार भी था, इसलिए ना करते नहीं बना। फिर अपने रसूख का जलवा दिखाने का अवसर वह कैसे छोड़ देते? उनके रौब, उनके ख़ौफ़ और उनकी रणनीति के चलते शंकर प्रसाद उपचुनाव जीत गया। जीत के बाद शंकर प्रसाद ने छोटे सरकार के दरबार में आकार एलान किया,'छोटे सरकार, हम आपका अहसान कभी नहीं भूलेंगे। कोई कुर्बानी देने से नहीं हिचकेंगे।'

शंकर प्रसाद ने जिस उम्मीदवार को हाराया था, उससे सत्तारुढ़ पार्टी की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही थी, मुख्यमंत्री का करीबी दोस्त होने के कारण उसकी हार से मुख्यमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर गहरा झटका लगा था। तभी से छोटे सरकार मुख्यमंत्री की नज़र पर चढ़ गये थे। उन्हें जाल बिछाकर फंसाया गया था। उनकी गिरफ्तारी के लिए एसपी अनुराधा सिंह को खुली छूट दी गई थी।

एसपी अनुराधा सिंह की जीप मोड़ काटकर जैसे ही लखनहिया की ओर मुड़ी थी। एसपी अनुराधा सिंह ने ठंडे स्वर में टोका था,'तिवारी क्या हुआ... परेशान लग रहे हो?' 

' न... न... नहीं सर...!' थानेदार तिवारी का हलक सूख गया था,'वो क्या है कि...।'

'तुम्हारा इलाका है और तुम्हें कुछ ख़बर नहीं?' व्यंग्य से हंसी थी एसपी अनुराधा सिंह।

थानेदार अनुभवी था...अफसर की स्ट्रेटजी समझते देर न लगी...माथे पर पसीना चुहचुहा आया था।

'तुम्हे लाइन हाज़िर कर दिया है।' एसपी अनुराधा सिंह का ठंडा स्वर थानेदार त्रिभुवन तिवारी को सिहरा गया था,'कल से पुलिस लाइन में रिपोर्ट करोगे।'

किसी चमत्कार की तरह आठ महीने बाद छोटे सरकार को ज़मानत मिल गई। इस बार सरकारी वक़ील ने उनकी ज़मानत का विरोध नहीं किया।

जेल में मिलने आये विधायक शंकर प्रसाद ने सारी बिसात सेट की थी।

'छोटे सरकार, हम सत्ता पार्टी ज्वाइन कर लिए हैं?' 

'क्या?' छोटे सरकार चौंके।

'मुख्यमंत्री जी लोकसभा चुनाव में टिकट देने का वादा किये हैं।'

छोटे सरकार चिंहुके,'तो आप पार्टी बदल दिये?'

'छोटे सरकार, सरकार के इक़बाल को तो मानना ही पड़ता है। विपक्ष में कब तक धक्का खाते रहेंगे?'

छोटे सरकार चुप थे। उन्हें चुप देख शंकर प्रसाद ने पहलू बदला।

'तो अब आप क्या चाहते हैं?' एक विराम के बाद छोटे सरकार ने पूछा।

'छोटे सरकार, अगर आप पार्टी ज्वाइन कर लें तो मुख्यमंत्री जी विधानसभा का टिकट आपको देने को तैयार हैं।' 

'मुख्यमंत्री इतने कृपालु कैसे हो गये?'

'छोटे सरकार, ताली दोनों हाथ से बजती है।' विधायक शंकर प्रसाद अर्थपूर्ण अंदाज़ में मुस्कुराये।

छोटे सरकार ने व्यंग्य किया,'चुनाव क्या हम जेल से लड़ेंगे?' 

और अगली सुनवाई में ही ज़मानत मिल गई। कोर्ट का ऑर्डर देर शाम आया था, इसलिए रिहाई सुबह तक के लिए टल गई थी।


जेल गेट पर संतरियों की हलचल बढ़ते ही दोनाली सिंह का दिल धक-धक बजने लगा। रामा भाई साथ आ गये थे। मुखिया जी भी बग़लगीर थे। अचानक रहस्यलोक का पट खुला और लहीम- शहीम छोटे सरकार नमूदार हुए। उनके चेहरे पर अवसाद की मलिनता थी,बावज़ूद इसके वह मुस्कुरा रहे थे। सामने दोनाली सिंह, रामा भाई और मुखिया जी को देखकर उन्होंने हाथ लहराया। ऐन इसी वक़्त नारा गूंज गया,'छोटे सरकार : जिंदाबाद... जिंदाबाद।'

छोटे सरकार दोनों हाथ जोड़े आगे बढ़े। दोनाली सिंह ने लपक कर उनके गले में माला डाल दी। फिर तो एक-एक कर माला पहनाने वालों का ताँता लग गया। अपने इतने भव्य एवं आत्मीय स्वागत से अभिभूत छोटे सरकार दोनों हाथ जोड़े सबका अभिवादन स्वीकारते अपने लिए लाई गई खुली जीप में सवार हो गये। वह पूर्ववत हाथ जोड़े जीप से आगे बढ़ रहे थे। उनके कारवां के आगे -पीछे पुलिस की गाड़ियां चल रही थी। 'छोटे सरकार :जिंदाबाद' के नारों का शोर देखते-देखते रोड शो में बदल गया। सड़क के दोनों तरफ जितने लोग खड़े थे,उससे ज़्यादा लोग अपनी छतों और बारजों से उनके जलवे का दीदार कर रहे थे। यह एक शानदार रिहाई थी। गाँव तक के पूरे रास्ते में लोग जगह-जगह छोटे सरकार का स्वागत करने को खड़े थे। पुलिस जीप उन्हें स्कॉर्ट करते हुए गाँव तक आई। इस कारवां के गाँव में दाखिल होते ही राइफलों से हवाई फ़ायर शुरु हो गये... धाँय...धाँय... धाँय। आज लखनहिया ही नहीं,ज़िला-जवार के कई गाँवों से लोग उमड़े चले आये थे। हवेली के सामने रामा भाई की देख-रेख में मंच बनाया गया था।उसे फूलों से सजाया गया था। यह सारा तमाशा पुलिस चुपचाप देख रही थी। रामा भाई मुस्कुरा रहे थे,'दोनाली, देख रहे हैं न छोटे सरकार का जलवा?'

दोनाली सिंह चमत्कृत थे। कुछ बोलते नहीं बन रहा था।

छोटे सरकार जैसे ही जीप से उतरे विधायक शंकर प्रसाद छोटे सरकार का स्वागत करने के लिए आगे आये। वह आधा घंटा पहले ही लखनहिया पहुँच गये थे।

'छोटे सरकार : जिंदाबाद... जिंदाबाद' के अनवरत नारे के साथ सैकड़ों हाथ हवा में लहरा रहे थे। इस रोमांच भरे दृश्य में दोनाली सिंह और रामा भाई गौण हो गये थे। विधायक शंकर प्रसाद ने एकबारगी सब कुछ अपने हाथ में ले लिया था... केंद्र में छोटे सरकार थे, लेकिन केंद्रीय भूमिका में विधायक शंकर प्रसाद थे। वह छोटे सरकार को लिए दिये मंच पर आये और बिना देरी किये भीड़ से मुख़ातिब हो गये,'भाइयों... बहनों, मैं आज माननीय मुख्यमंत्री जी का संदेश लेकर यहां आया हूं। मुख्यमंत्री जी की ओर से मैं छोटे सरकार का उनकी पार्टी में स्वागत करने के लिए हाज़िर हुआ हूं। छोटे सरकार के बारे में मुख्यमंत्री जी को ग़लत जानकारी देकर जो ग़लतफहमी पैदा की गई थी, उसे हमने उनसे मिलकर दूर कर दी है। उन्हें बता दिया है कि छोटे सरकार जनता के हृदय सम्राट हैं। बिना उनकी मदद के हम चुनाव नहीं जीत सकते। छोटे सरकार हमारे साथ रहेंगे तो हमारी पार्टी मज़बूत होगी। आज यहां हम मुख्यमंत्री जी के आदेश से आये है। हम छोटे सरकार का पार्टी में स्वागत करते हैं।' 

तालियां बज रही थीं। नारे गूंज रहे थे। हुजूम छोटे सरकार के लिए भाव विह्वल हुआ जा रहा था। छोटे सरकार ने दोनों हाथ उठाकर भीड़ का अभिवादन किया। लोग ख़ुशी के मारे चीख़ पड़े। छोटे सरकार ने सबको चुप कराते हुए एलान किया,'विधायक शंकर प्रसाद जी हमरे सगे भाई से बढ़कर हैं...हम इनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं...हम मुख्यमंत्री जी को भरोसा दिलाते हैं कि तन... मन.. धन से हम उनके साथ हैं...।'

'छोटे सरकार : जिंदाबाद' के शोर से दसों दिशाएं गूंज गईं।


दोनाली सिंह को गुमशुम देख रामा भाई ने झकझोरा,'कहां खो गये?'

'रामा भाई, छोटे सरकार  की चलती देखिए... गाँव-जवार उमड़ा तो उमड़ा... विधायक... मुख्यमंत्री सब लहालोट।'

'छोटे सरकार ऐसे ही छोटे सरकार नहीं हैं। छोटे सरकार बनने के लिए उन्होंने बड़ी कुर्बानी दी है।' रामा भाई भीतर भरी अपनी भावना को दबा नहीं पाये।

जिस कुर्बानी की बात रामा भाई कर रहे हैं वह दोनाली सिंह को खूब याद है। बच्चा-बच्चा जानता है वह किस्सा... भूलोटन पहलवान अपनी पहलवानी के बूते ज़िला जवार में काफी नाम कमा चुका था, लेकिन उसकी एक ख़्वाहिश पूरी नहीं हो पाई थी... बड़े सरकार को पटखनी न दे पाने की। यह कचोट उसे हमेशा सालती। बड़े सरकार का रुतबा ऐसा कि कभी उनका शुमार सूबे के नामी पहलवानों में होता था। कई इनाम जीते थे...कई तमगे हासिल किये थे। शीर्ष पर पहुंचकर एक दिन अचानक उन्होंने कुश्ती से सन्यास ले लिया था। फिर भी उनकी शोहरत और इज़्ज़त में कोई कमी नहीं आई थी। लोग अक्सर उनकी पहलवानी की मिसाल दिया करते। वह कुश्ती के सिरमौर बने हुए थे। उनके इस प्रभामंडल के आगे भूलोटन की पहलवानी निष्प्रभ थी। यह फांस उसके अंदर लगातार कसकती रहती। उसे लगता बड़े सरकार को पटखनी दिये बिना बड़ा रुतबा हासिल नहीं हो सकता। इसी हिरिस में वह कई बार बड़े सरकार को ललकार चुका था,पर बड़े सरकार हंसकर टाल देते,'पहलवानी में अहंकार ठीक नहीं।'

भूलोटन पहलवान हंसी उडाता,'लड़े की औकात नहीं, फुटानी आसमान पर। किस बात के बड़े सरकार?'

आख़िर एक दिन बड़े सरकार ने भूलोटन की चुनौती स्वीकार कर ली। नागपंचमी के दिन दोनों अखाड़े में उतरे। एक तरफ भूलोटन के चेले चपाटे और समर्थक तो दूसरी ओर बड़े सरकार के साथ लखनहिया का बच्चा-बच्चा। छोटे सरकार तब छोटे सरकार नहीं हुए थे, बल्कि बउआजी थे...पढ़निहार बउआजी। उस दिन बाईस साल के जवान बउआजी भी बड़े सरकार का जलवा देखने को उत्सुक दर्शक की तरह दम साधे खड़े थे। कुश्ती शुरु हुई। पहले राउंड में ही बड़े सरकार ने भूलोटन को बुरी तरह छकाया। कब धोबिया पाट मारा कि भूलोटन की अक़्ल गुम हो गई। बड़ी मुश्किल से संभल पाया वह। उसे आभास हो चुका था कि बड़े सरकार उस पर भारी पड़ रहे हैं। बस इसी वक़्त उसने मौका देखकर बड़े सरकार को लंगड़ी मारकर गिराया और झपट्टा मारकर उनकी छाती पर चढ़ गया। यह नियम विरुद्ध था... चारों ओर हाहाकार मच गया। रेफरी सीटियां बजाता रहा, लोग चिल्लाते रहे...लेकिन भूलोटन पर जैसे शैतान सवार था। चीख़... पुकार और बढ़ते शोर के बीच भी वह बड़े सरकार के सीने पर हुमचता रहा। भीड़ उग्र हो चुकी थी। तभी भूलोटन के चेले-चपाटों ने हवा में गोलियां चलानी शुरु कर दीं। भूलोटन इसी अफरा-तफरी में निकल भागा।

अखाड़े में पस्त पड़े बड़े सरकार उठ सकने की स्थिति में नहीं थे। उनके सीने में असह्य दर्द की चिलकारी उठ रही थी। बउआ जी, रामा भाई और गाँव के अन्य लोग उन्हें आनन-फानन जीप में डालकर अस्पताल भागे। एक्सरे में सीने की दो हड्डियां टूटी पाई गईं। बड़े सरकार को अपनी पीड़ा से ज़्यादा अपना अपमान साल रहा था। वह एकदम गुमशुम हो गये थे... सूनी आँखों की कोरों पर आँसू आ-आ कर अंटक जा रहे थे। बउआजी अपने पिता की इस हालत पर तड़प उठते। उनके भीतर भूलोटन का वह हंसता हुआ विकृत चेहरा बार-बार घुमड़ता और बेतरह तड़प उठते। रामा भाई उन्हें धीरज बंधाते,'बड़े सरकार को ठीक हो जाने दें,उसके बाद ही कुछ सोचियेगा।'

लेकिन बड़े सरकार ठीक नहीं हुए। अंदर की गुम चोट ऐसी थी कि वह उससे उबर नहीं पाये। इलाज़... दवाई... डॉक्टर सब नाकाम हो गये...आख़िर बड़े सरकार की लाश ही गाँव लौटी। 

जिस दिन बड़े सरकार का श्राद्ध था, उस दिन बड़ी गहमा गहमी रही। श्राद्धभोज देर रात तक सम्पन्न हुआ। उसी रात की भोर होते-होते... भूलोटन पहलवान भूलोक छोड़ गया। उसके सीने में आधा दर्ज़न गोलियां धंसी थीं। वह अपने ही अखाड़े में चारों खाने चित्त पड़ा था... गोलियों की आवाज़ से अखाड़े में जाग हो गई थी... जब तक कोई कुछ समझता अंधाधुंध फायरिंग करते बउआजी ने ललकारा था,'कोई आगे बढ़ा तो भून कर रख दूंगा।'

बउआजी के सिर पर ख़ून सवार था। इससे पहले कि वह अपना आपा खोते रामा भाई ने आवाज़ दी,'काम हो गया... चलिए अब।' 

रामा भाई ने मोटरसाइकिल स्टार्ट रखी थी। बउआजी हवा में फायरिंग करते हुए छलांग लगाकर पिछली पर बैठे थे और मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी थी। 


दोनाली सिंह समझ नहीं पाते कि रामा भाई इतने निर्विकर... इतने निस्पृह कैसे रह लेते हैं? छोटे सरकार के प्रति उनके भक्तिभाव को देखकर लगता है, रामा भाई का जन्म शायद इसी निमित्त हुआ है... छोटे सरकार जब जेल में थे, रामा भाई दीदी का हुक्म उसी भक्ति भाव से बजाते रहे। दीदी कहती,'रामा भाई पर छोटे सरकार का बहुत एहसान है... ई जनम भर ना चुका पाएंगे।'

वाक़ई रामा भाई दूसरी मिट्टी के बने थे... कर्म और कर्तव्य से बंधे...उन्हें देखकर मन वितृष्णा से भर जाता... इतना बेरीढ़ आदमी भी कोई हो सकता है क्या? लेकिन रामा भाई ऐसे ही थे।

छोटे सरकार हवेली के मुख्य द्वार पर खड़े थे। दीदी आरती उतार रही थीं। भीड़ जयकारे लगा रही थी... हवाई फायर मुतवातिर जारी थे...छोटे सरकार का ये रुतबा देखकर दोनाली सिंह चौड़े हुए जा रहे थे गोया उसमें अपनी भी प्रतिछाया देख रहे हों। यह अकारण नहीं था। छोटे सरकार के जेल में रहने के दौरान उनके साम्राज्य को दीदी ने संभाला था। वही हुक्म देती, निर्णय लेती। लेकिन वह जैसे छोटे सरकार होने के मुग़ालते में जीते रहे। अब छोटे सरकार लौट आये थे... दुगुनी शक्ति के साथ... दुगुने प्रभाव के साथ। इस ख़याल के आते ही दोनाली सिंह के भीतर गहरा सन्नाटा पसर गया... चेहरा बेरंग हो आया... लगा वह सरेराह लुट गये हों।अगल-बगल देखा, रामा भाई  कहीं नहीं दिखे। मुखिया जी भी भीड़ में कहीं खो गये थे। इस भीड़ में वह अकेले हैं या भीड़ ने उन्हें अकेला कर दिया है? इस प्रश्न के साथ ही भीतर कुछ कचक कर रह गया। कमतरी का अहसास टीस गया। सहसा, किसी ने कंधे पर हाथ रखा। चिंहुक कर पीछे देखा, यह रामा भाई का बेटा जयवीर था। सुदर्शन कद काठी का शानदार नौजवान। कॉलेज में पढ़ने वाला जहीन लड़का। वह जब इंटर में अव्वल आया था, तब रामा भाई का सिर गर्व से तन गया था। छोटे सरकार ने भी उसकी खूब तारीफ की थी। रामा भाई से हुलक कर कहा था,'रामा भाई, जयवीर को खूब पढ़ाइये। देखिएगा एक दिन वह गाँव का नाम रोशन करेगा।' 

जयवीर को इस भीड़ में देखकर दोनाली सिंह को आश्चर्य हुआ,'तुम यहां क्या कर रहे हो?'

'छोटे सरकार का जलवा देखने आये हैं।' जयवीर उत्साह से भरा हुआ था। उसकी आवाज़ में गज़ब की उत्तेजना थी।

दोनाली सिंह अवाक थे। समझ नहीं पा रहे थे कि जयवीर के इस रोमांच का क्या अर्थ लगायें? मन मसोस कर रह गये। 

तभी जयवीर ने ठंडी आह भरते हुए उन्हें टोका,'स्साली जिंदगी हो तो ऐसी हो! क्या कहते हैं, दोनाली जी?'

दोनाली सिंह के भीतर एकाएक उदासी का रंग कहीं ज़्यादा धूसर हो आयाथा। वह जयवीर के सवाल से बचते हुए रामा भाई के लिए अफ़सोस से भर गये थे।

०००


परिचय 

शिक्षा :एमए( हिन्दी) कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल । प्रकाशित पुस्तकें: हस्तक्षेप, नृशंस, हमजमीन, कोहरे में कंदील, चांद के पार एक चाभी,अथ कथा बजरंग बली,मेरी चुनी हुई कहानियां (कहानी संग्रह) प्रकाशित।

उपन्यास :अशोक राजपथ, रुई लपेटी आग प्रकाशित 

 दैनिक हिन्दुस्तान( पटना) में दैनिक व्यंग्य काॅलम लेखन। सैकड़ों लेख , रिपोर्ट, टिपण्णियां और समीक्षाएं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित ।

संप्रति : दैनिक हिन्दुस्तान, पटना से सहायक संपादक के पद से सेवानिवृति के बाद स्वतंत्र लेखन।

सम्मान: बनारसी प्रसाद भोजपुरी कथा सम्मान( हिन्दी) ,अ.भा. विजय वर्मा कथा सम्मान, मुबंई, सुरेन्द्र चौधरी कथा सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु कथा सम्मान ( राजभाषा विभाग,बिहार) ।

स्थाई निवास : कृष्णा निवास, सुमति पथ, रानीघाट, महेंद्रु, पटना -800006

संपर्क : 8877614421/ 9431094596

ईमेल : avadheshpreet950@gmail.com

28 अक्तूबर, 2024

खुआन रामोन खिमेनेज की कविताऍं

 

अनुवाद: सरिता शर्मा

24 दिसंबर, 1881 को पैदा हुए स्पेनिश कवि खुआन रामोन खिमेनेज का सबसे महत्वपूर्ण योगदान आधुनिक कविता में ‘शुद्ध

कविता’ का विचार था। विशाल साहित्य रचने वाले खुआन रामोन खिमेनेज को 1956 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी बेहतरीन रचनाएँ हैं-- स्पिरिचुअल सोनेट्स; पिएद्रा य सिलो; पोएजिया ओं प्रोजा य वर्सो;  वोसेज द मी कोपल और आनिमाल द फोंदो। 29 मई, 1958 को उनकी मृत्यु हो गई थी।  

कविताऍं


किसको पता है क्या हो रहा है 


किसको पता है क्या हो रहा है हर घंटे के उस ओर 

कितनी बार सूरज उगा 

वहां, पहाड़ के पीछे!

कितनी ही बार दूर उमड़ता चमकता बादल 

बन गया सुनहरा गर्जन!

यह गुलाब विष था।

उस तलवार ने जन्म दिया।

मैंने फूलों के मैदान की कल्पना की थी 

एक सड़क के खत्म होने पर,

और खुद को दलदल में धंसा पाया।

मैं मानव की महानता के बारे में सोच रहा था,

और मैंने खुद को परमात्मा पाया।

०००


मैं मैं नहीं हूँ

मैं मैं नहीं हूँ

मैं वह हूँ जो 

मेरे साथ चल रहा है, जिसे मैं नहीं देख सकता हूँ।

और यदा कदा जिसके यहां मैं जाता हूँ,

और जिसे कभी- कभी मैं भूल जाता हूँ  ;

मैं बात करता हूँ, तो चुप रहता है वह, 

मैं नफरत करता हूँ तब क्षमाशील और प्यारा बना जाता है,

मैं घर के अंदर हूँ तो वह बाहर चल देता है,

मैं मर जाऊॅंगा तो खड़ा रहेगा वह, 

०००


कविता

उस व्याकुल बालक सी मैं

हाथ पकड़ कर घसीटते हैं वे जिसे

दुनिया के त्यौहार से।

अफसोस कि मेरी आँखें लगी रहती हैं 

चीजों पर...

और कितने दुख की बात है वे उनसे दूर ले जाते हैं।

०००


मोगुए

मोगुए, माँ और भाइयो।

साफ सुथरा और गर्म, घर।

आहा क्या धूप है कितना आराम

दूधिया होते कब्रिस्तान में!

पल भर में, प्यार अकेला पड़ जाता है ।

समुद्र का अस्तित्व नहीं रहता; अंगूर के 

खेत, लालिमायुक्त और समतल,

शून्य पर चमकती तेज रोशनी सी है दुनिया 

और सारहीन शून्य पर चमकती रोशनी ।

यहां बहुत छला गया हूँ मैं!

सबसे बढ़िया बात यहां मर जाना है, 

बस वही छुटकारा है, जो मैं शिद्दत से चाहता हूँ,

जो सूर्यास्त में मिल जाता है।

०००


जीवन

जिसे मैं सोचता था मुझ पर यश का द्वार बंद होना,

दरअसल इस स्पष्टता की ओर

खुलता हुआ दरवाजा था:

अनाम देश:

कोई भी नष्ट नहीं कर सकता, एक के बाद एक 

सदा सत्य की ओर, 

खुलते जाने वाले दरवाजों वाले इस रास्ते को:

अनुमान से परे जीवन!

०००


मैं वापस नहीं आऊंगा  


मैं वापस नहीं आऊंगा। और शांत और खामोश गुनगुनी सी रात दुनिया को लोरी सुनायेगी अपने अकेले चाँद की चाँदनी में।

मेरा शरीर नहीं होगा, और चौपट खुली खिड़की से, एक ताज़ा झोंका आ कर मेरी आत्मा के बारे में पूछेगा।

मैं नहीं जानता किसी को मेरी दोहरी अनुपस्थिति का इंतजार है या नहीं, या दुलारते बिलखते लोगों में से कौन मेरी स्मृति को चूमेगा।

फिर भी, तारे और फूल रहेंगे, आहें और उम्मीदें होंगी, पेड़ों की छाया तले रास्तों में प्रेम पनपता रहेगा।

और वह पियानो इस शान्त रात की तरह बजता रहेगा, और मेरी खिड़की के चौखटे में, उसे ध्यान मगन हो सुनने वाला कोई न होगा।

०००

सूर्यास्त

आह, सोने के जाने की अद्भुत ध्वनि,

सोने का अब अनंत काल में जाना;

कितना दुखद है हमारे लिए सुनना  

सोने का अनंत काल में जाना,

यह ख़ामोशी बनी रहेगी 

उसके सोने के बिना 

जो अनंत काल के लिए प्रस्थान कर रहा है!

०००


अनूवादिका का परिचय 

सरिता शर्मा (जन्म- 1964) ने अंग्रेजी और हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तथा अनुवाद, पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पांच वर्ष तक

नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सम्पादकीय सहायक के पद पर कार्य किया। बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में कार्य करने के बाद नवम्बर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति। कविता संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष, कहानी संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और पिताजी की जीवनी 'जीवन जो जिया' प्रकाशित। रस्किन बांड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज पीपल, स्ट्रेंज प्लेसिज’ और ‘क्राइम स्टोरीज’, 'लिटल प्रिंस', 'विश्व की श्रेष्ठ कविताएं', ‘महान लेखकों के दुर्लभ विचार’ और ‘विश्वविख्यात लेखकों की 11 कहानियां’  का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें, समीक्षाएं, यात्रा वृत्तान्त और विश्व साहित्य से कहानियों, कविताओं और साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साक्षात्कारों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। कहानी ‘वैक्यूम’  पर रेडियो नाटक प्रसारित किया गया और एफ. एम. गोल्ड के ‘तस्वीर’ कार्यक्रम के लिए दस स्क्रिप्ट्स तैयार की। 

संपर्क:  मकान नंबर 137, सेक्टर- 1, आई एम टी मानेसर, गुरुग्राम, हरियाणा- 122051. मोबाइल-9871948430.

ईमेल: sarita12aug@hotmail.com

डॉ. परिधि शर्मा की कहानी:उम्मीद


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बाहर धूप में तार पर टांग कर दो चादरें सुखाई गई थीं।  दोनों लगभग एक ही समय पर खरीदी गईं और लगभग उतनी ही फीकी पड़ चुकीं।  पर उनमें से एक थोड़ी ज्यादा गीली । दूसरी थोड़ी कम गीली । 

सीताफल से लदा पेड़ अनमनाया सा ऊँघ रहा था। अपने पके फलों के प्रति निश्चिंत। एक ऊँघता हुआ उदार वृक्ष। और उसके

ठीक सामने खड़ा एक अन्य नस्ल और प्रजाति का पेड़  बेर टपका-टपका कर हल्का हो रहा था। उसके आसपास पीले नारंगी बेरों से ढकी जा रही एक जमीन थी । तैयार होती एक और चादर (जो कहीं धोकर सुखाई नहीं जाएगी )। अधकच्चे ,अधपक्के बेरों की चादर। 

बाहर से आंगन में प्रवेश करने का एक सीधा सा रास्ता उस लोहे की गेट से होकर निकलता था जिसके ठीक बगल में बेशरम  का एक फूल खिल आया था। जीवन की नई उमंगों से लबालब भरा हुआ । किसी को पुकारता हुआ । आतुरता से । शायद दूर के तालाब में खिले कमल के गुलाबी फूल को । छुपा-छुपाई खेलने के लिए ।

जल्दी आओ कमल भाई 

हम मिलकर खेलें छुपा-छुपाई

काली मखमली और शिकारी आंखों वाली पालतू सी जान पड़ती आवारा बिल्ली आंगन में फुदक रही गौरेय्यों के आसपास घात लगा रही थी । पर उनके करीब जाने से  कतराती हुई । इस डर से कि उनके करीब जाते ही वह सब फ़ुर्र ..अ  से उड़ जाएंगी और वह बैठी रह जाएगी। मूर्खों की तरह। जमीन पर पंजे गड़ाए लार टपकाती हुई। एक स्वाभिमानी खिलाड़ी की तरह , जिसके अहम पर चोट किया गया हो । चिंताओं से घिरी एक शातिर बिल्ली। 

दोपहर ने एक कसी हुई अंगड़ाई ली और फिर करवट बदलने लगी। शाम होने लगी । बेहद आहिस्ता से । दबे पांव । और उसके आगमन की खबर पाकर कांव कांव  करते दो बुजदिल कौव्वों की कर्कश आवाज़ को नजरअंदाज करता, घर से सटे बगीचे के एक ऊंचे नीलगिरी के पेड़ की चोटी पर बैठा, इधर-उधर सिर घुमाता एक नीलकंठ पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। बगीचे के सबसे अंतिम छोर पर बने गड्ढे में जमा करियाये पानी के ऊपर भनभनाते मच्छरों का एक समूह यह दर्शाने में प्रयत्नशील था कि बगीचा वहां पर खत्म होता है या शायद वहीं से शुरू होता है । उल्टी दिशा में । सूख कर पपड़िया गए पीले पत्तों की कई परतें बगीचे के चारों तरफ लगे पेड़ों से झर-झर कर धरती पर जमी पड़ी थीं। उन पर चलने से चर-चर की आवाज़ें आना स्वाभाविक था। एक वीरान, ऊंचे-ऊंचे पेड़ों वाला डरावना सा और शहरीकरण से अब तक अनजान बगीचा । बगीचा जिसमें बगीचेपन से ज्यादा जंगलीपन नजर आता था । देखभाल की नितांत कमी के चलते।

खालीपन और उदासी से तनी बनी घर की वस्तुएं एक दूसरे का मुंह ताक रही थीं।

किसी के आगमन की उम्मीद में प्रतीक्षारत।  गहरी चुप्पी लगाए । कई दिनों से । वर्षों से । 

एक अजीब सा मुंह बनाते हुए उसने खुद को आईने में निहारा । सीमेंट से दीवार पर चिपकाया गया एक बड़ा सा आईना । अपनी अप्रिय छवि को देखकर उसने कसकर आंखें मूंद ली । इससे उसके चेहरे की झुर्रियां और भी साफ-साफ नजर आ गईं । अपने को आईने में देखना अब उसे अपने चेहरे की तौहीन लगने लगा । क्या उसे अपनी बची-खुची जिंदगी ऐसे ही दिखते हुए काटनी होगी? तब तो आईने के सामने जाना खुद का उपहास उड़ाना ही होगा । पर यह आईना रखवाया भी तो ऐसी ही जगह पर गया था कि आते जाते उसे अपनी छवि की एक झलक मिल ही जाती । रसोई घर के ठीक सामने की दीवार पर। उसके छोटे जिद्दी बेटे की करतूत । उसे याद आया कि वह किस तरह बरामदे को पक्का करवाते समय मजदूरों को आदेश दे रहा था कि दीवार पर एक आईना चिपकाया जाए और उसने उस समय उसे टोकते हुए पूछा भी था,  अरे प्रकाश यहां आईने की क्या जरूरत? लगवाना है तो अपने कमरे में लगवा।  पर उसने उसकी एक न सुनी । वह सुनता भी कब था।  न मां की सुनता था न बाप की । उसका मन हुआ कि जमादार जी से शिकायत कर दे। तुम्हारा लड़का खुद तो यहां रहता नहीं है , हम बूढ़ों के लिए यह आईना रखवा गया है । हालांकि शिकायतें तो उसके पास ढेरों थीं पर उन्हें सुनने वाले एकमात्र जमीदार जी ही थे जिनके पास ना तो उनका कोई समाधान था ना ही उन्हें सुनने की कोई रुचि। पर अब वे इन शिकायतों के आदी हो चुके थे । उनकी पत्नी एक सनकती हुई बुढ़िया में तब्दील होती एक ऐसी औरत थी जो अपने दिमाग के खालीपन को नफरत और शिकायतों से भरती हुई अपने मनपसंद दिनों में लौट जाना चाहती थी। और वे यह बात जानते थे । वे खुद भी तो बैठे थे एक धुंधली उम्मीद लिए कि उनके मनपसंद दिन लौट आएंगे। 

जमीदारनी बरामदे पर बैठी थी। पैर पसारे। अपने सफेद पड़ रहे केश को कंघी से सँवारती हुई । एक ऐसा श्रृंगार जो बालों में लट बनने से रोकने के उद्देश्य से किया गया था । नियमबद्ध होकर किया गया एक अनचाहा श्रृंगार। अंदर कमरे की एक खाट पर लेटे जमीदार जी खर्राटे भर रहे थे । इस बात से बिल्कुल अनजान (शत प्रतिशत) कि उस समय उनका शरीर खर्राटों की लय में फूलता और सिकुड़ता हुआ बेहद हास्यास्पद लग रहा है । मेज पर रामायण की एक मोटी किताब थी जिसे जमीदारनी कभी कभार पढ़ लिया करती । कमरे के कोने में एक धूल खाई अलमारी थी जिसके भीतर किताबों की गड्डियां थीं। वर्षों से खोली नहीं गई किताबें , एक सुयोग्य पाठक का इंतजार करती किताबें , जो जमीदारनी को कैंसर की मौत मर चुके अपने बड़े बेटे की याद दिलातीं। किताबों का शौकीन बेटा । अलमारी की बगल में रखा ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन हफ्तों से बिजली के अभाव में बंद पड़ा था। किसी कारणवश वहां बिजली की कटौती कर दी गई थी।

बरामदे के एक कोने में मिट्टी का एक गमला था । गमले में गुलाब के पौधे की एक टहनी थी। एक अधनंगा पौधा जिसकी ज्यादातर पत्तियां झड़ चुकी थीं और उसकी कांटेदार छाती उसे और भी बदसूरत बना रही थी । बोरियत भरी दुपहरी में जमीदारनी कभी कभार उसके पास जा बैठती और उसका एक कांटा बड़ी सावधानी से उखाड़ लेती । फिर उसकी नुकीली छोर की तरफ से उसे दोबारा उस टहनी में घुसेड़ देती और फिर सहसा इस आभास के साथ कि उसने अपने करीब की किसी वस्तु को तकलीफ पहुंचाई है , वह तीव्रता से उस कांटे को बाहर खींच लेती। फिर उस चोट खाई टहनी को हल्के हल्के सहलाने लगती जैसे कि उस बदसूरत टहनी में उसके जवान बेटों की और यहां तक की उसके ससुराल जा चुकी बेटी की आत्मा भी आ समाई हो और उसकी तीनों संताने उसे माँ-माँ पुकार रहे हों। पीड़ा  से बिलखते हुए।  

और उस समय घुटनों के दर्द से व्याकुल वह स्वयं प्लास्टिक की एक कुर्सी आंगन में लगाए उस पर बैठी गेट के सामने से आते-जाते लोगों को निहार रही थी । सुन रही थी दूर के मंदिर में बज रही घण्टियों को । वह संध्या का समय था। 

उस घर से तीन घरों की दूरी पर बसी झोपड़ी में रहने वाला मंगल छः वर्ष पुरानी साइकिल खड़खड़ाता हुआ सामने से निकला । एक मग्न लकड़हारा जिसने अपने बूढ़े पिता की मौत के बाद स्वतः उसकी जिम्मेदारियां ढो ली थीं ।उसके छोटे से खेत में सब्जियां उगाकर बाजार में बेचना भी आरंभ कर दिया था । उन लकड़ियों को बेचने के साथ-साथ जिन्हें अपने ही पिता की तरह वह जंगलों से काटकर लाने लगा था। यह जानते हुए भी कि उसके पिता की मौत कैसे हुई थी । आखिर हुई कैसे थी उनकी मौत? गए तो थे वे जंगलों में लड़कियां काटने पर लौटकर नहीं आए थे । जंगल में छान मारा गया । काफी मशक्कत के बाद ही तो मिल पाई थी उनकी लाश। अनुभवी ग्रामीणों ने सुझाया था और ठीक ही सुझाया था कि उनकी मौत भालू के नोच खाने से हुई थी । 

एक खतरनाक जानवर के हाथों मारा गया एक बूढ़ा लकड़हारा । 

जमीदारनी को मंगल फूटी आंख न सुहाता । महज इसलिए नहीं कि वह एक निचली जात का था और वह एक ब्राह्मणी थी (घुटनों के दर्द से परेशान एक शुद्ध ब्राह्मणी। एक धूर्त लोमड़ी की तरह अंगूर खट्टे हैं कहने की आदत से मजबूर ) , महज इसलिए कि मंगल को देखते ही शिकायत के लिहाज में उसके मन में दबे किसी प्रश्न की उसे याद आ जाती और वह अपने पति से फिर फिर पूछना चाहती कि उन्होंने उसके छोटे लड़के को फौज में क्यों जाने दिया? जबकि वह जानती थी कि उन्होंने (उन दोनों ने ही) उसे रोकने की कोशिशें काफी हद तक की थीं। वह यह नहीं जानती थी कि फौज में जाकर व्यक्ति वास्तव में क्या करता है और ना ही उसने यथार्थ में कभी फौजियों को देखा था (टेलीविजन में एक बार जरूर देखा था), पर सुना जरूर था उसने कभी कि एक बार जमकर लड़ाई हुई थी देश की सीमा पर । धड़ाधड़ गोलियां चली थीं।  खून बहे थे । कुर्बानियां दी गई थीं। 

कभी कभार उसे स्वप्न आते । उसका छोटा बेटा हँसता हुआ लौट आया है और कह रहा है ...अब फौजियों को कहीं जाने की जरूरत नहीं । अब लड़ाइयां नहीं होंगी। सीमा पार के सैनिकों ने इधर के सैनिकों की ओर आकर उन्हें गले लगा लिया है । जश्न मन रहा है । इधर भी उधर भी । और कभी कभार वह  देर रात तक मंसूबा बांधती रहती कि इस बार जब उसकी बेटी अपनी नन्ही बिटिया को लेकर मायके आएगी तो वह उसके लिए क्या-क्या उपहार खरीदवा कर रखेगी।  और फिर उसे देर रात तक नींद न आती । 

अब भोजन पकाया जाना था । रसोई घर में घुसते ही उसे कुछ

अजीब सा नजर आया।  गौर से देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही । एक हेलीकॉप्टर सा कुछ , और उससे उतरते लोगों की भीड़ । इतने लोग आखिर कैसे? उसे समझते देर न लगी कि यह उसके फौजी बेटे की करतूत है । वह मुस्कुराने ही वाली थी कि उसे उसका बेटा नजर आ गया हेलीकॉप्टर से उतरता हुआ । टीवी वाले हेलीकॉप्टर जैसा , पर वह सब आखिर था क्या ?एक मरा हुआ कनखजूरा और उसके आसपास चीटियों का जमावड़ा। वही चीटियां जिनके मन में कोई असीम सपने नहीं थे , सिर्फ दावत उड़ाने की उमंग थी। वह कभी कभार स्वयं भी डर जाती जब उसे जमींदार जी का किया गया वह मजाक याद हो आता जिसमें उन्होंने कह दिया था कि देर रात तक नींद न आना बुढ़ापे की निशानी है। वह जानती थी कि वह बुढ़ा रही थी , पर यह एहसास बेहद मार्मिक होता है । उसके लिए भी था । कभी कभार वह यूं भी सोच लेती कि वह तो अब तक एक पुल के ऊपर चल रही थी। एक नदी पार करने के उद्देश्य से । अब वह लगभग नदी के इस पार आ गई थी और जबकि वह जानती थी कि उस पार काफी कुछ छूट गया है ,अब वापस लौटना उसके लिए असंभव था। हर किसी के लिए असंभव था क्योंकि जैसे-जैसे वह पुल पर चलती हुई अपने कदम बढ़ाती गई पुल के पीछे का हिस्सा वैसे-वैसे टूटता चला गया । पहले एक हल्की दरकन ,और फिर एक चरमराहट और फिर पानी में कुछ गिरने से आई छपाक  की आवाज (जो कि बेहद धीमी होती थी और उसे सुन पाने वाले बेहद गिने चुने लोग थे ) । उसने वह धीमी सी आवाज सुन ली थी। पता नहीं कैसे वह वापस लौट जाना चाहती थी पुल से नीचे कूद कर । पर नदी पार कर पाना भी नामुमकिन ही था। नदी अपने पूरे वेग से बह रही थी और जब तक नदी सूखेगी तब तक वह नदी के उस पार पहुंच चुकी होगी और उसके पांव शिथिल हो चुके होंगे । पूर्णतः निष्क्रिय । 

आसपास के लोग उसे सहज ही पगली कहने लगे थे।  उसका बेवजह पड़ोसियों पर चिल्लाना अब लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं करता था । नित्य के कर्म ज्यादा आकर्षक होते भी नहीं , इसलिए अब वे उसे देखकर पहले की तरह खुसुर-फुसुर करना भी छोड़ चुके थे । ज़मीदार जी इस बात से अवगत थे और जमीदारनी भी । पर उनके मन में कोई दु:ख नहीं था । बस उम्मीदें थीं। उनके बच्चे एक दिन लौट आएंगे। या शायद उनका अपना बचपन।

घर की चीजें अब भी उस सूनेपन से एक दूसरे का मुंह ताक रही थीं। घर के पीछे से बगीचे की ओर खुलने वाला दरवाजा , आंगन में पड़ी प्लास्टिक की कुर्सी , एक कमरे के कोने में किताबों से भरी धूल खाई एक अलमारी , एक दीवार पर सीमेंट से चिपकाया गया आईना ,कांच का एक गुलदस्ता और एक बंद पड़े कमरे के भीतर सलीखे से सजाई गई एक अल्हड़ युवा लड़के की चीजें,  एक वॉकमैन , एक जोड़ी स्पोर्ट्स शू और पेन स्टैंड पर रखे दो कलम । 

वह भी एक समय हुआ करता था जब वह अपने तीनों बच्चों को रोज सुबह जगाती,  उन्हें तैयार करती , उन्हें पाठशाला पहुंचा आती । उनके वापस आने की राह देखती, उनके लौटते ही उनके लिए भोजन की व्यवस्था करती । वे उसके मनपसंद दिन थे । उसकी व्यस्त दिनचर्या वाले दिन । जमीदार जी उन्हें बैठा कर पाठशाला में पढ़ी गई चीजें दोहराने को कहते।  वे उनके भी मनपसंद दिन थे । अब न तो पढ़कर दोहराई जा सकने वाली चीजें रह गई थीं, न पाठशाला पहुंचा आने के लिए बच्चे थे। वे गिनती में तीन थे । एक बड़ा लड़का, उससे एक वर्ष छोटी लड़की और उससे डेढ़ वर्ष छोटा सबसे छोटा लड़का जो अब एक अल्हड़ युवा था । बड़ा लड़का कैंसर की मौत मर चुका था । लड़की का विवाह हो चुका था और तीसरा सेना में था । अब पाठशाला पहुंचा आने के लिए बच्चे नहीं थे। उनमें से एक मृत्यु  शैय्या में लेट चुका था । अन्य दो अपनी व्यस्त दिनचर्या वाले दिनों में मशगूल थे । अपने आप में व्यस्त । अपने मनपसंद दिनों में । और अब जमींदार और जमींदारनी अकेले थे । उनके बीच बातचीत बेहद कम हो चुकी थी  और जब भी होती अक्सर झगड़े में तब्दील हो जाती। बातों के नाम पर जमीदारनी के पास सिर्फ शिकायतें थीं और उन्हें सुनने को सिर्फ जमीदार जी । वे  बूढ़े हो चुके थे और असमर्थ भी । फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि उनके अच्छे दिन लौट आएंगे ।उनके मनपसंद दिन । 

वे इंतजार कर रहे थे बच्चों  का,  जो लौटकर इसलिए भी आएंगे कि वे जल्द से जल्द वापस लौट सकें अपने बूढ़े मां-बाप को इंतजार करता हुआ छोड़कर । उनकी अपनी मजबूरियां थीं और यह जमीदार जमीदारनी समझते हुए भी नहीं समझते थे । जबकि वे जानते थे कि जो कुछ भी है , वह ठीक है । वह प्राकृतिक है । पक्षी अपनी माँ के पास तभी तक होते हैं जब तक उनके पंख उड़ने लायक न हो जाएं।  इसे कभी गलत नहीं माना गया है। यह हर बार सही ठहराया गया है । पीढ़ी दर पीढ़ी । सभ्यता दर सभ्यता।  

पर घर में सूनापन है । युवा अट्टहासों की कमी है । हिमालय की उन पहाड़ियों की तरह जो बूढ़े लामाओं के जाप से ऊब चुकी हैं । जो युवाओं को अपने पास बुलाती हैं । इस वृद्ध दंपति की मनोस्थिति ऐसी ही हो चुकी है, और यह बात तब स्पष्ट हो जाती है जब आधी रात तक जमीदार जी अपनी एकमात्र प्यारी सी गाय की बछिया से बतियाते रहते हैं । हालांकि उनके पास खुद को सांत्वना देने के ऐसे सैकड़ों रास्ते हैं , पर उन्हें उम्मीद है,  इंतजार है , उनके बच्चे लौट आएंगे एक दिन। 

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चित्र मुकेश बिजौले 


परिचय 

नाम : डॉ.परिधि शर्मा,जन्म : 6 अगस्त 1992,शिक्षा :  मास्टर ऑफ डेंटल सर्जरी( MDS ) अंतिम वर्ष में अध्ययनरत. सम्प्रति : दन्त चिकित्सक 

प्रकाशन : भास्कर रसरंग (20.09.2009) , वागर्थ (मार्च 2010), समावर्तन (अक्टूबर 2011),परिकथा (जनवरी-फरवरी 2012), समावर्तन (फरवरी 2012),परिकथा (मार्च-अप्रेल 2014), अहा जिन्दगी (दिसम्बर 2023) परिकथा (सितंबर-दिसम्बर 2024)इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित.

छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद के आमंत्रण पर श्रीकांत वर्मा सृजन पीठ बिलासपुर के मंच पर कहानी पाठ, रज़ा फाउंडेशन "युवा 2024" के दिल्ली में हुए आयोजन में उनके आमंत्रण पर सहभागिता एवं कवि श्रीकांत वर्मा पर वक्तब्य की प्रस्तुति।

एक यात्रा संस्मरण "आनंदवन में बाबा आमटे के साथ"मधुबन बुक्स की किताब वितान-7 (जो कुछ कान्वेंट स्कूलों में कक्षा सातवीं के बच्चों को पढ़ाई जाती है) में शामिल। 

संपर्क : डॉ. परिधि शर्मा,  जुगल किशोर डेंटल क्लिनिक,आर.के टावर, न्यू मेडिकल रोड़, मलकानगिरी (ओड़िसा)

Email-  mylifemychoices140@gmail.com

26 अक्तूबर, 2024

कनकने राखी सुरेंद्र की कविताऍं

 

मध्य प्रदेश के जबलपुर से ताल्लुक रखने वाली कनकने राखी सुरेंद्र एक प्रतिष्ठित मीडिया प्रोफेशनल और सम्मानित लेखिका हैं। उनकी शैक्षणिक यात्रा जितनी अद्वितीय है, उतनी ही प्रेरणादायक भी—इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद जनसंचार के

क्षेत्र में कदम रखते हुए उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।राखी की लेखन शैली की सबसे बड़ी ताकत उसकी सहजता और भावनात्मक गहराई है, जिसने उन्हें कविता प्रेमियों के बीच खास स्थान दिलाया है। उनका पहला हिंदी कविता संग्रह 'तुम्हारी मेरी बातें', जो जनवरी 2018 में प्रकाशित हुआ और नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में लॉन्च किया गया, ने साहित्य जगत में उनकी प्रभावशाली शुरुआत को चिह्नित किया।

हिंदी कविता में अपनी सफलता के साथ ही, राखी ने अंग्रेजी साहित्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। उनकी तीन अंग्रेजी किताबों में दो लघु कथा संग्रह और एक कविता संग्रह शामिल हैं। जनवरी 2021 में प्रकाशित 'द लेमनेड' लघु कथा संग्रह को पाठकों से व्यापक सराहना मिली, जिसके बाद जनवरी 2022 में इसका दूसरा भाग '2nd सर्विंग ऑफ द लेमनेड' जारी हुआ। जुलाई 2022 में प्रकाशित उनका कविता संग्रह 'द सिटी स्पैरो एंड इट्स टेल्स' ने शहर के जीवन को गौरैया की आँखों से दर्शाते हुए उनकी लेखकीय विविधता को और मजबूत किया।

कनकने राखी सुरेंद्र की रचनाएँ नियमित रूप से कई प्रिंट और ऑनलाइन माध्यमों में प्रकाशित होती रहती हैं, और वह विभिन्न साहित्यिक मंचों की सक्रिय सदस्य हैं। उनके साहित्यिक योगदान को उज्जैन की मालवा रंग मंच समिति द्वारा ‘हिंदी सेवा सम्मान 2016’ से सम्मानित किया गया है।

अपने संवेदनशील लेखन और गहरे विचारों के साथ, कनकने राखी सुरेंद्र आज भी साहित्य प्रेमियों को प्रेरित और प्रभावित करती रहती हैं। उनका लेखन न केवल भावनाओं को छूता है बल्कि जीवन के प्रति एक नई दृष्टि भी प्रदान करता है।


कविताऍं


एक

रोशनी की दरारें


यूँ ही कभी-कभी  

ज़िंदगी मुट्ठी से रेत सी फिसलती है

जैसे बेमौसम बारिश की बूंदें  

ज़मीन में समा जाती हैं

हम सोचते हैं कि हम टूट रहे हैं

पर शायद वो गिरना नहीं

नये रास्तों पर बिखरना है

कहीं और बह जाना है


दरारें यूं ही नहीं बनतीं

वो रास्ते खोलती हैं  

जहाँ से सुबह की पहली किरण  

चुपके से दाखिल हो

हर बिखरा टुकड़ा

अपनी नयी शक्ल की तलाश में होता है

एक नया चाँद

एक नई दिशा


कभी-कभी टूटने का मतलब  

वापस जुड़ना नहीं

बल्कि कुछ और होना है

हम बिखरते नहीं

हम एक दरार से गुज़र रहे होते हैं 

रौशनी का नया चेहरा लिए

०००


दो

कहानियाँ जो गुमसुम रह गईं


कभी तो हम बैठते थे  

आग के पास

रात के सन्नाटे में

लफ्ज़ों की रौशनी से  

दिलों को गर्माते हुए

अब शहर चमकता है

पर बातों का अंधेरा गहरा है

टीवी की स्क्रीन में छिपे

फिल्मों के पर्दों के पीछे

हम खो गए हैं अपने ही घरों में


कभी रिश्ते नज़रों में थे

अब बस आवाज़ें सुनते हैं  

पर एक-दूसरे को नहीं

सुनने का हुनर खोया है  

जैसे कोई भूला हुआ गीत

कहानी वही है

पर अब वो आग कहाँ  

जहां लोग कहानियाँ कहते थे

सुनते थे

०००


तीन 

अंदर का मैदान


कब समझ में आएगा

कि जो जंग हम बाहर लड़ते हैं

वो असल में

अंदर ही छिड़ी रहती है


हर तर्क, हर आरोप

सिर्फ़ सामने वाले से नहीं

अपने ही अंदर किसी हिस्से से होता है

जो शोर हम दुनिया में मचाते हैं

वो हमारे भीतर के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश है


हम तलवारें दूसरों पर चलाते हैं

मगर उनके घाव हमें भी लगते हैं

हर चोट, हर वार

दरअसल अपनी ही आत्मा को लगता है


जब तक अंदर की जंग नहीं थमेगी

बाहर का युद्ध बस एक परछाईं रहेगा

जो हर मोड़ पर वापस आएगा

०००













चार

बेआबरू ईमान


हर रोज़ देखती हूँ

लोग नैतिकता का ख़ूबसूरत मुखौटा पहनते हैं

जैसे चाँदनी रात में  

छिपे बादल


उनके शब्द फूल से महकते हैं

पर हाथ काँटों से लहूलुहान

सिद्धांतों की चादर ओढ़े

वो छल की बारिश में भीगते हैं


ईमानदारी तो हवा है

जिसे कोई दीवार रोक नहीं सकती

वो बेपरवाह बहती है

बिना किसी क़ायदे के


सच्चाई किसी दरवाज़े से नहीं गुजरती

वो खिड़की से अंदर आती है

और वहीं बस जाती है

जहाँ दिल खुला हो

०००


पॉंच 

अधूरी पेंटिंग


दीवार पर टंगी वो अधूरी पेंटिंग

जिसमें रंग बिखरे हुए हैं

पर तस्वीर अब भी साफ़ नहीं

कैनवास पर उभरे चेहरे  

जैसे पूछते हैं सवाल

क्या हम कभी पूरे होते हैं

या हमारी ज़िंदगी भी  

इसी पेंटिंग की तरह अधूरी रह जाती है?

०००


छः 

सूखा पत्ता


वो सूखा पत्ता

जो एक बेंच पर गिरा था

किसी ने उठाया नहीं


वो अकेला था

पर हवा के हर झोंके के साथ  

कुछ और दूर हो जाता था


क्या पत्ते भी  

हमारी तरह दूरियों में खो जाते हैं

या वो वापस पेड़ से मिलने की कोशिश करते हैं?

०००


सात 

सड़क पर चलते हुए


जब मैं सड़क पर चलती हूँ

गाड़ियों का शोर और लोगों की आवाज़ें  

कभी-कभी धुंधली लगती हैं


हर कदम पर

मैं सोचती हूँ

कितने अनजान चेहरे

कितनी कहानियाँ हैं

हर किसी की अपनी राह है

लेकिन हम सब एक साथ हैं

इस जीवन के एक बड़े सफर में

हर टकराहट

हर मुस्कान

एक अज्ञात बंधन की याद दिलाती है

०००

चित्र फेसबुक से साभार