12 नवंबर, 2024

हूबनाथ पाण्डेय की कविताऍं

 












दीपावली मुबारक!


कहानियों से बाहर निकलकर देखो

और बताओ


कि तुम्हारी अपनी ज़िंदगी में

तुम्हारे अपने अनुभव में

तुम्हारे बिल्कुल आसपास 


कितना

और कितनी बार

अंधेरा हारा है

और मामूली सा दिया

सिर उठा कर जीता है


सच सच बताना 

वाट्सऐप के संदेशों की तरह

लच्छेदार 

ख़ूबसूरत झूठ मत बोलना

क्योंकि 

बताना ख़ुद को है

मुझे नहीं 


देखो!

अपने चारों ओर

पूरी दुनिया में देखो

यह जो रौशनी का साम्राज्य फैला हुआ है

वह अंधेरे की

पर्सनल प्रॉपर्टी है

भले

थोड़ा अग्ली 

थोड़ा डर्टी है

पर है तो साम्राज्य ही


ज़्यादा दूर मत जाओ

अपने जन प्रतिनिधियों को ही देखो

और सीने पर हाथ रखकर कहो

कि ये सचमुच 

नन्हें नन्हें मासूम दिये हैं

और विशाल अंधेरे से 

लड़ रहे हैं

या रौशनी के दलाल हैं

जो संपत्ति के कचरे में 

सड़ रहे हैं और फैला रहे हैं सड़ांध

तुम्हारे प्यारे देश में

जिसके गीत

खड़े होकर गाते हो

और फिर पांच साल के लिए 

बैठ जाते हो


और दूर जाना ही है

तो गाज़ा पट्टी में जाओ

यूक्रेन रूस फिलीस्तीन 

इज़राइल में जाओ

और देखो

दिया जीत रहा है

या बारूद के ढेर पर

फटने की तैयारी कर रहा है


आप जिस भी क्षेत्र में हो

जिस गांव में

जिस शहर में

जिस धंधे में

मुझे एक बार

सिर्फ़ एक बार सच सच बताओ

कि वहां 

अंधेरा किस हाल में है

और दिया कितनी देर का

मेहमान है


उत्तर तुम भी जानते हो

उत्तर मैं भी जानता हूं 


फिर भी हम

एक बासी मुहावरा दुहरा रहे हैं

क्योंकि 

सच्चाई से अपना चेहरा छिपा रहे हैं


और एक मामूली से दिये के कंधे पर

अपनी ज़िम्मेदारियों का पहाड़ रखकर

शूगरफ्री मिठाइयां टूंग रहे हैं


दरअसल 

सच तो यह है कि

अंधेरा बना रहे

अंधेरा बचा रहे

और अंधेरे में हमें भी अंधेरे के टुच्चे मौके मिलें

इस लिए 

अंधेरे के ख़िलाफ़ हर बार

एक कमज़ोर

मासूम

असहाय सा दिया 

अंधेरे की गोद में

छटपटाकर मरने को छोड़ देते हैं

कभी कभी 

ऐसे लाखों दिये

अंधेरा ही स्पॉन्सर करता है

और एक पहर रात तक

उनकी अधमरी रौशनी में

दिये के बलिदान के गीत गाता है

जो जल नहीं पाए

वे भी प्रसन्न हैं

क्योंकि कवि की भाषा में

अंधेरे का उच्छिष्ट ही

उनका अन्न है


अंधेरा नहीं चाहता

कि कोई मशाल जले

और धधक कर पूरे आसमान को रौशन कर दे


इसलिए 

वह कवियों से

चिंतकों से

दिये की स्तुतियां करवाता है

किसानों के पर्व को

उनसे मनवाता है

जो किसान शब्द की

वर्तनी तक भूल गए हैं


इन भावुक कविताओं 

उबाऊ संदेशों 

रंगीन चित्रों के नीचे

एक छोटा सा दिया 

रात चढ़ने से पहले ही मर जाता है

जब आप 

पेट भर खाकर

या तो जुआ खेल रहे होते हो

या बारूद का धुआं झेल रहे होते हो


और दिये का निरर्थक बलिदान 

एक और साल के लिए 

मुल्तवी हो जाता है


और साल भर

बुझा हुआ दिया

अंधेरे के गीत गाता है 

०००












अमावस


दंडपाणि सम्राट ने

लाखों-करोड़ों दियोंं में

छटांक भर तेल

चुटकी भर बाती डालकर

धीर गंभीर स्वर में कहा


तुम हो

परंपरा और

संस्कृति के वाहक


इस अमावस के आगे

घुटने मत टेकना

जब तक जल सकते हो

जलो!


और लगे हाथों

धधकती मशालों को

आदेश किया


जाओ

दरबार को रौशन करो

हमारी महफ़िल में 

अंधेरे का क़तरा भी

नज़र नहीं आना चाहिए 


लपलपाती बिजलियों से कहा

बाज़ार को अंधेरे की

नज़र न लगने पाए

जाओ

दिन और रात का फ़र्क मिटा दो


और महफ़िल की ओर

रुख़ करने से पहले

मेहतरों से कहा


भोर में ही

सारे दिये बुहार दीजो

ज़रा सी भी गंदगी

इस पावन नदी के किनारे 

बर्दाश्त नहीं की जाएगी


आख़िर

यह ईश्वर का दरबार है


और सम्राट 


दियों को अंधेरे में छोड़

रौशनी का उत्सव मनाने

चले गए 


दिये

इस बार भी

छले गए 

०००


सर्वे भवन्तु सुखिन



जिन्हें जिलानी है

सिर्फ देह

भोगना है

निरे शरीर को

उनके लिए 

दुनिया बड़ी ख़ूबसूरत है


हालांकि 

वे धरती के

सबसे बदसूरत लोग हैं


जिन्हें जिलाना है

नेह भी

उन्हें जलानी पड़ती है

 देह अपनी

समस्त कामनाओं सहित 

उस दिये की तरह

जो कल परसों

शोभा था आपकी चौखट का

फ़िलहाल घूरे पर पड़ा है


और दुनिया की 

सबसे ख़ूबसूरत शै है


जिन्हें जिलानी है

इन्सानियत 

धर्म वर्ण जाति लिंग देश से परे


शुद्ध इन्सानियत 

पवित्र इन्सानियत 


उन्हें सबसे पहले

होना पड़ता है

शुद्ध और पवित्र 

उन तमाम गंदगियों से

जिसे सिरजा है

धर्म वर्ण जाति लिंग देश ने


और धधकना पड़ता है

उस सूरज की तरह 

अनायास 

जिसे नहीं पता

कि वह रौशनी 

लुटाने की कोशिश में

निरंतर मर रहा है


और भर रहा है

आंचल धरती का

पावन उजास से


दुनिया की सबसे पवित्र चीज़

यही है


किंतु 

इतनी सी बात 

समझने में

कई ज़िंदगियां 

बीत जाती हैं


उस पतझड़ की तरह

जो छोड़ तो जाता है

अनगिन सूखे बदरंग पत्ते


पर कोंपलों के लिए 

नहीं छोड़ पाता

ज़रा सी जगह

जहां सांस ले सकें

नये हरे पत्ते!

०००



तुकबंदी!

(प्रिय कवि धूमिल को उनकी जयंती पर याद करते हुए।)



वक़्त है

लबाड़ 

लंपट

लुच्चों का

या उनके 

वैध अवैध बच्चों का


अनुप्रास की मजबूरी 

ज़रूरी तो नहीं थी


लेकिन 

बकौल धूमिल 

निष्ठा का तुक

विष्ठा से मिलाना

कवि की हिमाकत से ज़्यादा 

वक़्त की नज़ाकत थी


दुल्हन की पालकी

बलात्कारियों के 

बेहया कंधों  पर होना

और 

सियासत का बोझ

नालायक अंधों पर होना

किन्हीं अनुबंधों का

सिला नहीं 


दरअसल 

वक़्त पर 

देश की गाड़ी हांकनेवाला 

कोई ठीक-ठाक 

मिला ही नहीं 


तो बैल की जगह 

 जनता को

और गाड़ीवान की जगह

गिद्ध को बिठाना

सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से

बेहतर लगा


जबकि

राजनीतिशास्त्र 

शासक से अधिक 

मेहतर लगा


जो पहले

सफ़ाई की बात कहता है

पीछे से

भितरघात करता है


अब 

आप ही बताओ


क्या कोई 

वक़्त से बड़ा है


वह भी

जो बढ़िया कपड़े में

खड़ा है


और दैत्याकार पोस्टर पर

भयावह हंसी हंस रहा है


और सार देश

रसातल में धंस रहा है

०००



 मृत्यु!



मृत्यु 

तथ्य है

सत्य नहीं 


मृत्यु 

जड़ता है

गति नहीं 


मृत्यु 

स्तब्ध कर सकती है

निस्तेज कर सकती है

निर्वाक कर सकती है


किंतु 

कुछ काल के लिए ही


उसके बाद 

स्तब्धता

निस्तेजता 

निर्वाकता को

एक ओर धकेलती ज़िंदगी 

चल पड़ती है


एक दिन

जब खत्म हो जाएगी पृथ्वी 

पांच अरब बरस बाद 

तब भी

बची रहेगी ज़िंदगी

इस ब्रह्माण्ड में


किसी और रूप में

किसी और ग्रह पर

फिर जनमेगा अमीबा

फिर अंखुआएंगे बीज

फिर उड़ेंगे परिंदे

रौंदेंगे बनैले पशु

उस ग्रह को

फ़िलहाल 

जिसका नाम हमें पता नहीं 


इस धरती से

इस ब्रह्माण्ड से

कोई भी

कही नहीं जाएगा

सब यहीं रहेंगे 

रूप बदलकर 


यह रूप बदलना ही तो

ज़िंदगी है

मौत तो

बदलाव की प्रक्रिया का

सिर्फ़ एक अनिवार्य मोड़ है


एक तथ्य 

सत्य नहीं!

०००

जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

 

छठवीं कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००

कविताऍं 


सपनों का हाथ बढ़ाकर


टहनियों के हाथ बढ़कर खड़ी हूँ

पेड़ जैसे

सूखे पत्तों की ढ़ेर पड़ी है

छाती तक बढ़कर

आकाश की ओर सिर उठाके देखती 

सितारें बिखर पड़े हैं।

बिखरे सफेद बादल

पूरब की दिशा में झूल रहे हैं।

तांदी का पात्र चंद्रमा

भरपूर चांदनी फैल दिया है।

मन में पिघले पानी को पिरोकर

लहरे उठाते, सपनों के हाथ बढ़ा दिया है। 

हथेली में चंद्रमा को पाने।

*****


 बिंब


सुमधुर संध्याकाल

मोहक बातें

तैरते सपने

तुझे ही ताक रही हैं, खाली आँखें....

मैं नहीं थी वहाँ।

भूल गई थी। कभी पहले,

छुपा के रखी थी बिंब को

सुंदर संदूक में।

उठा के रखी थी सतर्कता से

किसी के नज़र न लगने के स्थल में

दौड़ती गई। निकाल के देखा ढ़क्कन।

बिंब सो गई थी वहीं

तदेक दृष्टि से।

*****




 वह गांव


यह शहर अब मेरा शहर नहीं है, 

घुमावदार सड़कें जिन्हें बड़े करीने से 

खोदा और मरम्मत किया गया है,

 इमली पेड़ के नीचे भागते भूत, 

रूबरू शहर से मिलते-जुलते जल्दबाजी वाले 

प्रकाशमान लाइटें, 

पोस्टर शानदार देवी के चेहरे के लिए 

चांदी का मुखौटा है।


नारियों का शोर शोर नहीं, 

न कमर पर घड़ा है, 

न सुडौल चलना है, 

सन्नाटा पूर्ण उस कुएं के पास, 

दरवाजे की ओर देख रही है निंगी।

एक ही फल जबड़े से खाया है 

झूले में बैठकर झूला है,

धूप में पकी हुई ओस की बूंद की तरह 

क्या भूल ही गई?


अब एक दरार पहले ही उठ चुकी है 

लेकिन ढ़ोल बजाने की लय

गूँज बजती रही है, 

छाती के अंदर मेरी माटी की यह धूल 

घम-घमाती रही है।

*****


 शाश्वत दंड


भोर के वक्त गरमी जैसे बढ़ती

फिर आता है वह लड़का वापस। 

घर के सामने खड़ा होता 

और अपने होंठ नादस्वर के शीर्ष पर रखता है, 

आँखें बंद कर गालों को फुलाये 

राग फूंकने की ललक।

श्रद्धा अपने पिता की तरह नहीं हैं. 

शास्त्रीय गंधावन भी नहीं, 

बल्कि सभी फ़िल्मी राग।


जैसे ही राग बजाया जाता है, 

राग खाई में कूदी हुई गाड़ी 

की तरह फंस जाता है।

सहमकर जब आगे बढ़े तो

विस्फोटित राग को तभी

ग्रसित की रहती हैं घाव।


 न जाने किस जन्म के बदले में

गीत गायन की चीख 

मेरे दिमाग में इतनी गर्म कर देती

बर्दाश्त नहीं करते भाग के गेट की ओर 

छुट्टा उसके हाथ में रखते ही,

वह अगले घर में चला गया

क और दूसरे राग के साथ।

*****


जब तुम नज़र नहीं आते


जब तुम नज़र नहीं आते 

पंक्तियाँ बनती कविताएँ

बादलों में चाँद की तरह 

दर्द की भारीपन में।


पल-पल की लहरें उठीं 

और चट्टान पर चढ़ गईं 

सीने पर झुर्रियों की एक परत 

दिखा दी जिगर पर।


एक नजरिया की पुलक

बिजली की धार चमकने दें 

फिर प्रत्यक्ष हो और समीर 

की तरह बहते रहे हरियाली में।

*****


चित्र 

मुकेश बिजौले 








प्रकाश की धूल


गहराई से बुदबुदाती गहरी खामोशी 

छुपे मौन को सुर 

प्रदान करने का है वक्त। 

परछाइयों को कितना उधेड़ना है? 

बीजासुर की तरह फिर से ना लौटे, 

बड़ी ही नाजुकता से उन्हें 

सिर से पाँव तक छील दिया 

जमीन पर झुका दिया 

ताकि उन्हें चोट न लगे, 

अंधेरे में लीन हो गए तो 

यूँ बस हँसती रही मानो जीत गई। 


गीले शब्दो जब पोंछे जाते हैं, 

पलकों के नीचे सपने 

उग आते हैं, सुरक्षित, 

मिटते नहीं, 

उन्हें ऐसे ही रहने दो। 


बिना रोशनी, बिना छाया, 

कोई स्वप्न-मृत छवियाँ 

दर्पण में न तैरती रहीं

 और न ही मैं उन्हें 

प्रकाश की धूल में देख सकूँ।

*****


 चांद को दिखलाजा


प्रेम के दर्द में पीड़ित है कविता 

शब्द गर्मी में तपते खो गए 

सपनें डर गए रोशनी में 

वाष्पित होने के डर से।


बेसब्री से इंतज़ार करती 

आँखों में जज्बात, 

पंखुड़ी की नोक पर 

ओस की बूँद का आकर्षण।


मन का बादल भूल गया है, 

शीतल जल का सिंचन, 

मन की खाली जगह में, 

चांद को दिखलाजा।

*****


प्रज्ञा का सपना


तुम मेरा सचेत स्वप्न हो। 

चांदनी की चांदी रोशनी की तरह 

सो रही है, चट्टान 

पलकों के अंदर के रंगों से

सुरुचिपूर्ण कलाकारी सांस ले रही हैं। 

धीमी सांसों से, हिल-डुस करती हरियाली 

जंगल के चिमटे फूलों से लदे हुए हैं।


आज की सुबह के साथ सभी बीते कल 

यादें बनकर न रहने दें। 

ठोस खामोशी के अंदर शब्दों को 

समझने वाली आंखों को शब्दों की 

झंझट की जरूरत नहीं होती। मौन पथ पर 

समय को अपने स्थिर रहने दो। 

निरंतर, ठंडे महीनों में 

चकोरा की उपस्थिति।

*****


अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।

09 नवंबर, 2024

आन्ना आख़्मातोवा की कविताऍं

 

अनुवाद: सरिता शर्मा 

आख़्मातोवा आन्ना अन्द्रीवना गोरेन्को का साहित्यिक छद्म नाम है। उनका जन्म 1889 में हुआ था। वह अग्रणी एकमिस्ट कवियों में से एक थी जिनका उद्देश्य कविताओं में प्रतीकों के स्थान पर स्पष्टता लाना था। उन्हें उनकी कविताओं की दूसरी पुस्तक, बीड्स (1914) से प्रसिद्धि मिली। उनके शुरुआती दौर की

अंतरंग और बोलचाल की शैली धीरे - धीरे क्लासिकी गंभीरता में बदल गयी जोकि उनके बाद के काव्य संकलन वाइट फ्लोक (1917) से स्पष्ट है। आन्ना आख़्मातोवा की कविता में व्यक्तिगत और धार्मिक तत्वों की मौजूदगी से सोवियत अफसरशाही में बढ़ रही अरुचि और रोष के चलते उन्हें लंबे अरसे तक चुप्पी साधने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी अंतिम वर्षों की श्रेष्ठ काव्य कृतियां ए पोएम विदाउट ए हीरो और रेक्विम विदेश में प्रकाशित की गयी थी। अख़्मातोवा ने विक्टर ह्यूगो, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गियाकोमो और अनेक अर्मेनियाई और कोरियाई कवियों की कृतियों का अनुवाद किया और प्रतीकवादी लेखक अलेक्सांद्र ब्लोक, कलाकार अमेदियो मोदिगिलियाना, और एक्मिस्ट साथी ओसिप माँदेलश्ताम के संस्मरण लिखे हैं। उन्हें 1964 में एटना-ताओरमिना पुरस्कार और 1965 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। मृत्यु से दो वर्ष पूर्व 76 साल की उम्र में अख़्मातोवा को राइटर्स संघ का अध्यक्ष चुना गया था। उनकी मृत्यु 1966 में हुई थी।  

०००

कविताऍं



सच्ची कोमलता



सच्ची कोमलता चुप्पी है

और इसे कुछ और नहीं माना जा सकता है।

व्यर्थ ही उद्दाम इच्छा से तुम 

ढंक रहे हो मेरे कंधों को फर से;

व्यर्थ में तुम कोशिश करते हो 

पहले प्यार की खूबियों पर यकीन दिलाने की।

अर्थ जानती हूँ मगर मैं अच्छी तरह 

तुम्हारी निरंतर जलती निगाहों का।

०००


काले लिबास में विधवा


काले लिबास में एक विधवा – रोने लगती है

एक निराशाजनक बादल के साथ

ढांप देती है सब दिलों को एक निराशा के कोहरे से ...

जब याद किये जाते हैं उसके पति के शब्द साफ- साफ 

उसका ऊंचे स्वर में विलाप बंद नहीं होगा।

चलेगा यह रुदन तब तक, जब तक बर्फ के गोले 

दुखी और थके लोगों को सुकून नहीं देंगे।

पीड़ा और प्रेम की विस्मृति का मोल 

हालांकि जीवन देकर चुकाया गया। 


इससे ज्यादा क्या चाहा जा सकता था ?

०००



सब कुछ


सब कुछ लूटा गया, धोखा और सौदेबाजी थी 

काली मौत मंडरा रही है सिर पर।

सब कुछ डकार गयी है अतृप्त भूख 

फिर क्यों चमकती है एक प्रकाश किरण आगे?


दिन के वक्त, शहर के पास रहस्यमय जंगल, 

सांस से छोड़ता है चेरी, चेरी का इत्र।

रात के समय जुलाई के गहरे और पारदर्शी आसमान पर, 

नये तारामंडल को पटक दिया जाता है।


और कुछ चमत्कारपूर्ण प्रकट होगा

अंधेरे और बर्बादी जैसा 

कुछ ऐसा, कोई नहीं जानता जिसे 

हालांकि हमने इंतज़ार किया है उसका लडकपन से ।

०००



प्रस्थान



हालांकि यह धरती मेरी अपनी नहीं है,

मुझे याद रहेगा इसका अंतर्देशीय समुद्र 

और जल जो इतना शीतल है 

झक्क सफेद रेत

मानो पुरानी हड्डियां हों, हैरानी है देवदार के पेड़

वहां सूर्ख लाल होते हैं जहां सूरज नीचे आता है।


मैं नहीं बता सकती यह हमारा प्यार है

या दिन, जो खत्म हो रहा है।

०००



थेबिस में अलेक्जेंडर 


मुझे लगता है  राजा युवा मगर दुर्दांत था, 

जब उसने घोषणा की, 'तुम थेबिस को मिटटी में मिला दो।'

और बूढ़ा प्रमुख इस शहर को गौरवमय मानता था 

उसने देखा था वह वक्त जिसके बारे में कवि गाया करते थे।

सब कुछ जला डालो! राजा ने एक सूची और बनायी

मीनार, द्वार, मंदिर - संपन्न और पनपते हुए...

मगर  विचारों में खो गया, और चेहरे पर चमक लाकर कहा,

'तुम बस महाकवि के परिवार के जीवित लोगों के नाम दे दो।'

०००



इस शाम की रोशनी कुछ सुनहरी है


इस शाम की रोशनी कुछ सुनहरी है

अप्रैल की ठंडक कितनी कोमल है

हालांकि तुम आये हो बहुत बरसों की देरी से, 

आओ मैं फिर भी तुम्हारा स्वागत करती हूँ। 


क्यों नहीं बैठते तुम मेरी बगल में 

और खुश होकर देखो चारों ओर।

इस छोटी सी नोटबुक में 

मेरे बचपन में लिखी कविताएं हैं ।


मुझे माफ कर दो कि मैं जिन्दा रही और विलाप किया 

और सूरज की किरणों के लिए आभारी नहीं थी...

कृपया मुझे माफ कर दो, मुझे माफ कर दो क्योंकि 

मैंने तुम्हें कोई और समझ लिया ...

०००












बोरिस पास्तरनाक के लिए


बंद हो गयी अनूठी आवाज यहां,

झुरमुटों का साथी बिछुड़ गया हमसे हमेशा के लिए 

बन गया है वह शाश्वत श्रोता ...

बारिश में जिसने  कई बार गाया था।


और आकाश के नीचे उगने वाले सभी फूल,,

पनपने लगे –जाती हुई मौत से मिलने के लिए ...

मगर अचानक उसे शांत व्यक्ति मिल गया और दुखी हो गया -

वह ग्रह, जिसका  सादा सा नाम  पृथ्वी था।

०००


और पुश्किन का निर्वासन 


और पुश्किन का निर्वासन, यहीं शुरू हुआ था

और लेरमोंतोव का निष्कासन 'रद्द' कर दिया गया 

राजमार्ग पर आम घास की खुशबू फैली है।

झील के पास, जहां विमान और पेड़ों की छायायें मंडराती हैं 

उस कयामत की घड़ी में शाम होने से पूर्व 

बस एक बार मिला संयोग मुझे इसे देखने का

इच्छा से भरी आँखों की तेज रोशनी

तमारा के हमेशा जीवित रहने वाले प्रेमी की।

०००












पत्थर सा सफ़ेद 



कुंए की शांत गहराई में पड़े एक सफेद पत्थर सी,

मुझमें बसी है एक अद्भुत याद।

इसे भुला नहीं पा रही हूँ और न ही ऐसा करना चाहती हूँ:

मेरी यातना और अथाह ख़ुशी है यह।

मुझे लगता है, जिसकी भी नजरें झांकेंगी 

मेरी आँखों में, वह  देख लेगा इसे सम्पूर्णता में एकबारगी। 

सोच में डूब जायेगा और उदास हो 

किसी की जीविका भत्ते की कहानी सुनने से कहीं ज्यादा।


मैं जानती थी: ईश्वर ने एक बार पागलपन में बदल दिया था,

लोगों को वस्तुओं में, उनकी चेतना छीने बिना 

तुमने मुझे मेरे संस्मरण बना दिया है

अलौकिक उदासी को शाश्वत बनाने के लिए।

०००


मुझे फूल पसंद नहीं है 


मुझे फूल पसंद नहीं है - वे अक्सर मुझे याद दिलाते हैं

अंत्येष्टियों, शादियों और नृत्यों की;

मेज पर उनकी मौजूदगी रात्रि भोज के लिए बुलाती है।


मगर एक क्षणभंगुर गुलाब का शाश्वत सरल आकर्षण

जो मेरे लिए सांत्वना था बचपन में 

अनेक बीते बरसों  से 

बन गया है - मेरी विरासत 

सदा सुनाई देते मोजार्ट के संगीत की गुंजन की तरह।

०००


अनूवादिका का परिचय 

सरिता शर्मा (जन्म- 1964) ने अंग्रेजी और हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तथा अनुवाद, पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पांच वर्ष तक

नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सम्पादकीय सहायक के पद पर कार्य किया। बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में कार्य करने के बाद नवम्बर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति। कविता संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष, कहानी संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और पिताजी की जीवनी 'जीवन जो जिया' प्रकाशित। रस्किन बांड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज पीपल, स्ट्रेंज प्लेसिज’ और ‘क्राइम स्टोरीज’, 'लिटल प्रिंस', 'विश्व की श्रेष्ठ कविताएं', ‘महान लेखकों के दुर्लभ विचार’ और ‘विश्वविख्यात लेखकों की 11 कहानियां’  का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें, समीक्षाएं, यात्रा वृत्तान्त और विश्व साहित्य से कहानियों, कविताओं और साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साक्षात्कारों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। कहानी ‘वैक्यूम’  पर रेडियो नाटक प्रसारित किया गया और एफ. एम. गोल्ड के ‘तस्वीर’ कार्यक्रम के लिए दस स्क्रिप्ट्स तैयार की। 

संपर्क:  मकान नंबर 137, सेक्टर- 1, आई एम टी मानेसर, गुरुग्राम, हरियाणा- 122051. मोबाइल-9871948430.

ईमेल: sarita12aug@hotmail.com

निरंजन श्रोत्रिय की कविताऍं

 

तब्दीली

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मैं

मनुष्य से नागरिक

नागरिक से मतदाता

मतदाता से एक खाली कनस्तर में

तब्दील हो रहा हूँ

जिसमें शुभकामना, हताशा, 

जीवन, मृत्यु और उम्मीद जैसे शब्द 

कंकड़ की तरह बज रहे हैं।

०००











वाट्स एप संदेश

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आपने संदेश भेजा

एक टिक हुआ

संदेश उसे/उन्हें मिल गया

दो टिक हुए

संदेश पढ़ लिया गया

दोनों टिक नीले हुए। 


नीले टिक आपकी संतुष्टि होते हैं। 


फिर जन्म लेती है चतुराई

जिसे कहते प्राइवेसी सैटिंग


उसके बाद पढ़ लिए जाने के बावजूद

दोनों टिक नीले नहीं होते

यह सैटिंग नीले को अपहृत कर लेती है। 


क्या पता पढ़ा या नहीं?

उत्तर की बाध्यता से मुक्त यह सैटिंग

किसी की मजबूरी 

किसी की सुविधा

किसी का निज


कोई मुझे समझाए कि यह

धूर्तता नहीं है।

०००


जंतर-मंतर

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जंतर-मंतर एक जगह होती है

जहाँ से आप खगोलीय पिंडों का अध्ययन कर सकते हैं


नई दिल्ली, जयपुर, मथुरा, वाराणसी

एक हमारे उज्जैन में भी है जयसिंह पुरे में

धूपघड़ी, सीढियाँ, कुछ गोलाकार आकृतियाँ

बचपन में इन्हें हम देखते कौतूहल से

एक नासमझ रोमांच के साथ।


इतिहास कहता बनवाया इन्हें महाराजा जयसिंह द्वितीय ने

अठारहवीं सदी की शुरुआत में

बनवाया होगा

रुचि रही होगी उनकी खगोलशास्त्र में

इसे वेधशाला, यंत्रमहल 

और अंग्रेजी में 'ऑब्ज़र्वेटरी' भी कहा जाता है। 


इस आज़ाद देश में 

फिर एक और उपयोग हुआ इस जंतर-मंतर का

दिल्ली में लोग जुटने लगे

लगाने लगे नारे प्रतिरोध में

देने लगे धरना 

गरजने लगे भाषण

बनने लगी मानव-श्रृंखला


सरकारें थीं परेशान

एक दर्शनीय स्थल पर हो रहे प्रदर्शनों से

नींद में पड़ता था ख़लल

आसपास के रिहायशियोँ की

शायद सरकार की भी


सो, एक निर्बाध नींद की खातिर

प्रतिबंधित हुए प्रदर्शन जंतर-मंतर पर

सूना हुआ जंतर-मंतर

सन्नाटे से प्रतिस्थापित हुए नारे


सुनते हैं, बावज़ूद इस प्रतिबंध के

सो नहीं पाते थे जंतर-मंतर के 

आसपास रहने वाले लोग


धूपघड़ी सिसकती थी जोर-जोर से रात को

सीढियाँ करती थीं विलाप भयावह स्वर में

गोलाकार यंत्रों से निकलती थी एक मातमी धुन


होकर परेशान उन अदृश्य रुदालियों से

जारी होता है नया फ़रमान

इस कानाफूसी के बाद कि

'जंतर-मंतर एक सेफ़्टी वॉल्व है

प्रतिरोध की भाप के लिए

चिल्लाने दो, क्या फ़र्क पड़ता है!'


और खोल दिया जाता है जंतर-मंतर फिर से

भिंची मुट्ठियों, चीखते गलों और गुस्सैल आँखों के लिए


लोकतंत्र के शव में फिर से लौटती हैं साँसें

०००


                         

मेरी आवाज़ आप तक पहुँच रही है ?

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इस कोरोना काल में लॉक डाउन से ऊबे

जब हम सभी 'लाइव' पेल रहे हैं

आचार्य/कवि/कथाकार/आलोचक इत्यादि...

आप इनके आगे 'कथित' लगाने को स्वतंत्र हैं

बाकी चार तो ठीक लेकिन 'कथित इत्यादि' वाकई मज़ेदार होगा!


अपने पूरे कथित अवदान के बावज़ूद 

पहला वाक्य (संशय) सभी का एक-सा होता....

क्या आपको मेरी आवाज़ सुनाई दे रही है ???

एक जवाब है जो कभी दिया नहीं गया

'आपकी आवाज़ हमें कब सुनाई दी महामहिम?'

यह केवल इंटरनेट की समस्या नहीं थी

बहुत अवरोध थे 

आपकी आवाज़ तो सबसे बड़ा...

जो किसी आत्मीय पुकार से नहीं 

ज्ञान के अजीर्ण से अफरा रही थी

हमेशा की तरह हम पर सवारी के लिए!


तो, लाइव महोदय,

हमें बख़्श दें इस लॉक डाउन में

अपनी अपान वायु से

हमारी छोड़ें फ़िक्र... इस बन्द में भी रोज़ उग आती है भूख।


अब हम इस सैटिंगनुमा प्रपंच को 

मारकर लात 

निकल जाएँगे बाहर अद्भुत फ़िल्म 'अ वेंस्डे' के नसीर की तरह 

एक मुम्बईया भेल भाषा बोलते कि

"बख्शों, विद्वानों बख्शो!"

आई एम जस्ट अ स्टुपिड कॉमन मेन...

कान्ट अफोर्ड योर .....!

०००



मंशा

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 उन्होंने कहा फूल!

फूल मुरझा गए


उन्होंने कहा नदी!

नदी सूख गई


उन्होंने कहा आग!

आग बुझ गई


उन्होंने कहा मनुष्य!

मनुष्य मर गए


उनकी मंशा अंततः 

उनके शब्दों में उतर चुकी थी।

०००



मोह भंग

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 खूब पढ़ने के बाद 

मैंने उच्च शिक्षा की नौकरी की

नौकरी क्या वो एक मिशन थी तब


धीरे-धीरे मोह भंग होता गया

स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली।


देश के लोकतंत्र पर अटूट भरोसा था

ता उम्र निर्वाचन का प्रशिक्षण दिया

हर एक वोट ज़रूरी समझाया।


फिर हुआ मोह भंग। 

हँसी आती है अब मतदान केंद्र पर लगी कतार देख।


जीवन भी खूब जिया

लिया खूब तो दिया भी

लेकिन एक दिन देखा कि

देश के साथ मैं भी मर रहा हूँ 

जीवन के प्रति यह मोह भंग देख

आप बेफ़िक्र न हों राजन!


मैं आत्म हत्या नहीं करने वाला

इन सारे मोह भंग की जड़ अब पता है।

वहीं पर अब डलेगी छाछ। 

संभल कर रहना!

०००



चित्र फेसबुक से साभार 









मैं मरा यूँ

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मैं मरा इसलिए

क्योंकि

सामने दंगाइयों की वहशी भीड़ थी

और मैं निहत्था था विचारों के साथ


क्योंकि इस पाचन-तंत्र में

था मैं कुछ अपच जैसा

जो अन्ततः वमन के साथ

बाहर कर दिया जाता है


क्योंकि इस यंत्र का

मैं था वह पुर्जा

जो तमाम चिकनाइयाँ लपेट देने के बावजूद

खर्र-खर्र करता है


क्योंकि था मैं उस बच्चे-सा अबोध

जो वस्त्रों की तारीफ करते जुलूस में

बाप द्वारा लगातार चुप कराए जाने के बावजूद

कहता रहा कि राजा नंगा है


मैं हृदयाघात, रक्तचाप और मधुमेह जैसे

जानलेवा रोगों से भी नहीं मरा

मैं लड़ रहा था अरसे से इन रोगों के ख़िलाफ़

और जीत रहा था।

०००



 वारंट

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बादशाह को कविता से घृणा, संगीत से चिढ़ और चित्रों से एलर्जी थी।


मुल्क के सभी कवि, संगीतज्ञ और चित्रकार या तो मारे जा चुके थे

या थे कारावास में। 


शब्दों, सुरों और रंगों से विहीन यह समय बहुत मुफ़ीद था बादशाहत के लिए


फिर एक दिन एक परदेसी आया उस देश

जैसा कि ऐसी कथाओं में आता ही है


उसने बादशाह को दिखाया गुलमोहर का सुर्ख़ पेड़ और ज़मीन पर गिरे कुछ फूल और कहा-- यह एक प्रेम कविता है। 


उसने सुनाई अमराई में कूकती कोयल की कूक और कहा-- यह राग मल्हार है।


उसने दिखाया बारिश से धुले आसमान में उभर आया इंद्रधनुष और कहा--ये धरती के बादलों के प्रति आभार के रंग हैं। 


बादशाह बेचैन हुआ


फिर मुल्क में जारी हुआ गुलमोहर, कोयल और इंद्रधनुष की गिरफ़्तारी का वारंट।

०००


 टॅावेल भूलना

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यदि यह विवाह के

एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता

तो जान-बूझकर की गई ‘बदमाशी’ की संज्ञा पाता


लेकिन यह स्मृति पर

बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है

कि आपाधपी में भूल जाता हूँ टॉवेल

बाथरूम जाते वक्त 


यदि यह

हनीमून के समय हुआ होता

तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का

जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद

एक खीझ भरी शर्म में 


‘सुनो, जरा टॉवेल देना !’

की गुहार बंद बाथरूम से निकल

बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक

बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते


भरोसे की थाप पर

खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत

और झिरी से प्रविष्ट होता

चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टावेल

‘कुछ भी ख्याल नहीं रहता’ की झिड़की के साथ .


थामता हूँ टॉवेल

पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन

बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को

जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक

थामता हूँ झिड़की भी

जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को


बीस बरस से ठसे कोहरे को

भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !

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कोरोना कब जाएगा ?

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आपने कभी किसी बच्चे को 

ज़ार-ज़ार रोते हुए देखा है ?

नवजात नहीं थोड़ा बड़ा...

(रोना तो नवजात का शगल है)


वह बच्चा जो समझता हो 

मार, डाँट, प्रताड़ना और उपेक्षा का दंश

तो याद करें उस बच्चे का अविराम रुदन

वह थक जाता है रोते-रोते

किसी दंश की वजह से

और सो जाता है।


गहरी नींद में भी वह लेता है सिसकियाँ देर तक 

ये सिसकियाँ पीड़ा का निस्यंद हैं

अधिक विचलित करती उसके रोने से भी


जब उस बच्चे की नींद में अटकी ये सिसकियाँ थमेंगीं

कोरोना तभी जाएगा।

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 सौंदर्य

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आज मैंने मोर के बदसूरत पैर देखे

और ख़ुश हुआ

इन्हीं पैरों पर सवार हो आएगी बरसात


आज मैंने मज़दूर के खुरदुरे हाथ देखे

और ख़ुश हुआ

इन्हीं हाथों से बनेगी इमारत


आज मैंने माँ की फटी बिवाइयाँ देखीं

और ख़ुश हुआ

इन्हीं दरारों में सुरक्षित रहेंगे हम


आज मैंने बच्चे को कंचों के लिए रोते देखा

और ख़ुश हुआ

दुनिया ठीक-ठाक चल रही है

 

आज मैंने सौंदर्य को

उलट-पलट कर देखा

और ख़ुश हुआ!

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परिचय 

जन्म: 17 नवम्बर 1960, उज्जैन में एक शिक्षक परिवार में।शिक्षा:  विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में पी-एच.डी.सृजन: तीन कविता-संग्रह *जहाँ से जन्म लेते हैं पंख*,


*जुगलबंदी*, *न्यूटन भौंचक्का था*, दो कथा-संग्रह *उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ* और *धुआँ* , एक निबंध-संग्रह *आगदार तीली* प्रकाशित। 17 वर्षों तक साहित्य-संस्कृति की पत्रिका *समावर्तन* का संपादन। युवा कवियों के बारह *युवा द्वादश* का संचयन। कई रचनाओं का अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद। बच्चों के लिए भी लेखन। 

संप्रति: एक सरकारी कॉलेज में अध्यापन। 

संपर्क: 302, ड्रीम लक्जूरिया, जाटखेड़ी, होशंगाबाद रोड, भोपाल- 462 026

मोबाइल: 9827007736

ई-मेल: niranjanshrotriya@gmail.com