23 नवंबर, 2024

कहानी: एक गुम-सी चोट



सुशांत सुप्रिय

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कैसा समय है यह

जब बौने लोग डाल रहे हैं

लम्बी परछाइयाँ

( अपनी ही डायरी से )

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बचपन में मुझे ऊँचाई से , अँधेरे से , छिपकली से , तिलचट्टे से और आवारा कुत्तों से बहुत डर लगता था । उन्हें देखते ही मैं छिप जाता था । डर के मारे मुझे कई बार रात में नींद नहीं आती थी । सर्दियों की रात में भी पसीने से लथपथ मैं बिस्तर पर करवटें बदलता रहता था । यदि नींद आ भी जाती तो मेरे सपने दु:स्वप्नों


से भरे होते । माँ कहती-- " बेटा, रात में पैर धो कर सोया करो और सोते समय भगवान् से प्रार्थना कर लो ।" लेकिन ऐसा करने से भी कोई फ़ायदा नहीं होता ।

मुझे भीड़ और अजनबियों से भी डर लगता था । जब भी मैं बेहद डर जाता तो मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगतीं । तब कई गिलास पानी पीने के बाद भी हिचकियाँ नहीं रुकतीं । मैं बहुत घबरा जाता और तनाव में आ जाता । जब मैं डर के स्रोत से दूर चला जाता तब जा कर मुझे राहत मिलती ।

दरअसल पिता की गोद में जाकर ही मुझे सभी डरों से मुक्ति मिलती । वे मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते और मैं भयमुक्त हो जाता । तब मैं चाहता कि मैं सदा पिता की गोद में ही रहूँ । किंतु मेरे पास डर बहुत ज़्यादा थे और पिता के पास समय बहुत कम ।

घर के लोग मेरे बारे में ये बातें जानते थे । मेरे भाई-बहन अक्सर इसलिए मेरा मज़ाक़ उड़ाते थे ।

बचपन में मैं दुखी और उदास भी रहता था । मुझे मुकेश के दर्द भरे गीत बहुत अच्छे लगते थे । असल में मेरे पास आशंकाएँ बहुत ज़्यादा थीं , जबकि बड़े-बुज़ुर्गों के पास आश्वासन बहुत कम थे । माँ कहती-- " झूठ बोलना गंदी बात है ।" पर झूठ बोलने वाले अक्सर मज़े में जी रहे होते । पिता सिखाते -- " कभी किसी को सताओ मत। किसी का हक़ नहीं मारो ।" लेकिन मैं पाता कि दुनिया में ऐसे ही लोगों की चाँदी है ।

जब भी घर में मेहमान आते, वे मेरे भाई-बहनों की बहुत तारीफ़ करते ।

वे सब रट्टा मारने में तेज़ थे , जबकि मैं किसी भी नई चीज़ को ठीक से समझना चाहता था । नतीजा यह होता कि बहन सुभद्रा कुमारी चौहान की लंबी कविता

" सिंहासन हिल उठे / राजवंशों ने भृकुटी तानी थी / ... खूब लड़ी मर्दानी / वह तो झाँसी वाली रानी थी " कंठस्थ करके मेहमानों को सुना देती और उनसे वाहवाही पा जाती । भाई न्यूटन के सिद्धांत , डार्विन की थ्योरी या सोलर-सिस्टम के बारे बता कर मेहमानों को प्रभावित कर लेता । लेकिन मेरे ज़हन में इन सब के बारे में इतने प्रश्न कुलबुलाते रहते कि मैं मेहमानों के सामने दावे से कुछ नहीं कह पाता । इसलिए पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी माना जाता ।

" आपका छोटा बेटा स्लो है । पढ़ने-लिखने में कमज़ोर है । " मेहमान पिताजी से कहते । यह सुन कर मैं अपने ही खोल में घुसकर सबकी आँखों से ओझल हो जाना चाहता ।

मेरी कुंडली में लिखा था कि मुझे तेज धार वाले हथियारों से ख़तरा

है । ऐसा पिताजी कहते थे । पर मैं यह सब नहीं मानता था । मेरे दाएँ हाथ की 'लाइफ़-लाइन' भी कुछ जगहों से टूटी हुई थी । हालाँकि स्कूल में मैं ज़रूरत पड़ने पर सब बच्चों की मदद करता था , वे सब मुझसे मदद भी ले लेते थे और मुझे ' स्केलेटन ' कह कर छेड़ते भी थे क्योंकि मैं बेहद दुबला-पतला था ।

धीरे-धीरे मैं बड़ा हो रहा था । मैंने पाया कि मेरे शहर में बहुत सारे हिले हुए और खिसके हुए लोग थे । लेकिन वे मुझे बुरे नहीं लगते थे । पड़ोस में एक बूढ़े मास्टर जी रहते थे , जिन्हें सब पागल कहते थे । वे अक्सर हवा से बातें करते और शहर की दीवारों पर गणित के मुश्किल थ्योरम हल करते रहते । लोग उनके बारे में बताते थे कि अपनी जवानी में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति जी के हाथों ' सर्वश्रेष्ठ शिक्षक ' का पुरस्कार भी मिला था । बहुत ज़्यादा पढ़ने-लिखने की वजह से उनका दिमाग़ खिसक गया , ऐसा गली वाले कहते थे । मास्टरजी के घर वालों ने उनका इलाज कराने की बजाए उन्हें घर से निकाल दिया था । हालाँकि मुझे मास्टरजी ने कभी कुछ नहीं कहा , लेकिन गली के शैतान बच्चे जब उन्हें तंग करते या उन पर पत्थर फेंकते तो वे उन्हें गालियाँ देने लगते ।

दूसरी ओर इलाक़े का पंसारी, हलवाई और दूधवाला थे जिन्होंने खाने-पीने के सामान में मिलावट करके अपने-अपने तिमंज़िले मकान बनवा लिए थे । कोई सरकारी अधिकारी उन्हें कभी नहीं पकड़ पाया था क्योंकि वे सभी रिश्वत दे कर उन अधिकारियों को लौटा देते थे । ऐसे ही लोग दुनियावी और सफल माने जाते थे ।

अब मैं बड़ा हो गया था । चूँकि मुझे अकेले रहना अच्छा लगता था इसलिए मेरा कोई दोस्त नहीं था । दरअसल मैं समझ चुका था कि ज़्यादातर लोग आपसे अपने किसी स्वार्थ के लिए जुड़ना चाहते थे । ऐसे मतलबी और अवसरवादी लोगों से मेरी वैसे भी नहीं बनती थी । लोग अपने चेहरों पर कई मुखौटे लगाए घूम रहे होते । वे आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते । वे मुँह से कुछ कह रहे होते जबकि उनकी आँखें कुछ और ही बयाँ कर रही होतीं । इस युग में ऐसे ही दोगले लोग सफल माने जाते । वे हें-हें करते हुए दोपहर में आपसे गले मिलकर ख़ुद को आपका अच्छा दोस्त बता रहे होते , आपके साथ खाना खा रहे होते । पर कुछ ही समय बाद अपने फ़ायदे के लिए वही लोग आपके विरोधियों के पास बैठ कर आपकी जड़ काट रहे होते । ऐसे अवसरवादी युग में मेरा मन किसी सच्चे मित्र के लिए तड़पता रहता ।

मेरा बड़ा भाई आई.ए.एस. अधिकारी बनना चाहता था जबकि बहन एम. बी. ए. करके किसी मल्टी-नेशनल कम्पनी में जॉब ले कर लाखों रुपए का पैकेज लेना चाहती थी । मैं अब कविताएँ और कहानियाँ लिखने लगा था । सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अब मेरी अपनी राय थी । मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता था । लेकिन मुझे क्या बनना है , इसके बारे में मैंने अभी कुछ सोचा नहीं था । लिहाज़ा घर आए मेहमानों के पूछने पर उन्हें भी मैं यही बता देता । यह सुनकर वे मेरी ओर दया भरी नज़रों से देखते । फिर वे पिता से सहानुभूति जताते जैसे मुझसे कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो । मैं उनकी दया और सहानुभूति की नदी में डूब कर लगभग मर ही जाता ।

कुछ समय बाद मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आ कर रहने लगा । उस परिवार में मेरे ही उम्र की एक लड़की थी जिसे देख कर मेरे दिल में कुछ-कुछ होता था । शायद मैं जवान हो गया था ।

मेरी माँ की दोस्ती उस लड़की की माँ से हो गई थी । एक दिन माँ के घुटनों में दर्द था । उन्होंने मुझे उस लड़की की माँ से ' गृहशोभा ' का नया अंक लाने के लिए भेजा जिसमें कई नए व्यंजन बनाने की विधियाँ छपी हुई थीं ।

इत्तिफ़ाक़ से दरवाज़ा उसी लड़की ने खोला । उसके दरवाज़ा खोलते ही मेरे मन के भीतर भी जैसे आस की एक खिड़की खुल गई जिसमें से झाँक कर मैं उसे अपलक ताकने लगा । तितलियाँ उड़ने लगीं । आँखों के आगे इंद्रधनुष छा गया ।

अब अक्सर मेरी मुलाक़ात उस लड़की से मदर डेयरी के बूथ पर या सब्ज़ी वाले के यहाँ या मंदिर के बाहर हो जाती ।उसका नाम सुरभि था । उसकी बातें मुझे अच्छी लगतीं । उसके साथ मैं बिना पिये ही ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ जाता । सारा समय एक अदृश्य डोर मुझे उससे बाँधे रहती । मैं कहीं भी रहता , मेरा दिल करता कि मैं तैरते बादल के टुकड़े पर बैठ कर जल्दी से उसके पास पहुँच जाऊँ । जब मैं उसके साथ होता तो मुझे भीड़ में या अजनबियों के सामने भी हिचकियाँ नहीं आतीं । मैं जिन चीज़ों से डरता था वह उनसे बिलकुल नहीं डरती थी । हैरानी की बात थी कि उसकी संगत में अँधेरा, छिपकली, आदि से लगने वाला मेरा डर भी धीरे-धीरे ख़त्म हो गया । अब मैं ख़ुश रहने लगा था । अपने कपड़े इस्त्री करके पहनने लगा था । हर दूसरे-तीसरे दिन अपने बालों में शैम्पू करने लगा था । और अपना जेब-ख़र्च बचा कर महँगा वाला ' डीओ ' इस्तेमाल करने लगा था । सुरभि से बातें करते ही मेरे अंग-अंग में जैसे कोई अनजान रागिनी बज उठती ।

हालाँकि हममें कुछ रोमानी समानताएँ थीं लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जो मुझे सुरभि से अलग करता था । मैं संवेदनशील था जबकि वह बेहद व्यावहारिक और दुनियावी थी । मेरे पिता सरकारी दफ़्तर में मामूली क्लर्क थे जबकि उसके पिता के शहर में कई शो-रूम थे । मेरे पिता के पास केवल एक स्कूटर था जबकि उसके पिता के पास दो-दो लक्ज़री-गाड़ियाँ थीं । शोफ़र थे ।

फिर भी एक सूर्य-जले दिन मैंने हिम्मत करके उससे कह ही दिया कि मैं उससे प्यार करता था । यह सुन कर वह ज़ोर से हँसी और बोली -- " लगता है , तुम हिन्दी फ़िल्में ज़्यादा देखते हो ! " यह सुन कर मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगीं । हिचकियाँ लेते-लेते ही मैंने उससे कहा -- " भगवान की क़सम, मैं सच कह रहा हूँ ।" वह बोली -- " तुमने नीत्शे को नहीं पढ़ा? भगवान कब का मर चुका है ! "

मैंने फिर हिम्मत की--" मैं सच कह रहा हूँ । मैं तुम्हें हमेशा ख़ुश रखूँगा ।" उसने कहा --" मुझे रखोगे कहाँ ? खिलाओगे-पिलाओगे कैसे और क्या ? तुम्हारे पास तो कोई नौकरी ही नहीं ! "

यह सुनकर मैं जैसे काफ़ी ऊँचाई से धड़ाम् से ज़मीन पर आ गिरा । फिर भी मैंने एक अंतिम कोशिश की । मैं बोला-- " अगर तुम मेरे साथ होगी तो मैं हम दोनों का वर्तमान सुधार लूँगा । "

इस पर वह बोली-- " लल्लू लाल, तुम्हारे साथ न मेरा वर्तमान, न भविष्य ही सुरक्षित होगा । तुम्हारे आदर्शों से घर का चूल्हा नहीं जल सकता । तुम्हारी कविताओं-कहानियों से गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल सकती । तुम अपने सपनों में जीते हो । तुम अपनी कल्पना में जीते हो । तुम्हारा-मेरा कोई मेल नहीं । "

उसकी बातें सुनकर मैं मोमबत्ती की बुझती लौ-सा काँपने लगा । मैं जिसे कामेडी समझा था वह ट्रेजेडी निकली । मैंने अपने मन को उसकी यादों से छुड़ाया और भागा । मेरी पीठ पर कई बिच्छू रेंग रहे थे । मेरे ज़हन में कई मधुमक्खियाँ डंक मार रही थीं । मैं भरी भीड़ में ज़ोर से चिल्लाना चाहता था । मैं खम्भे से लिपट कर उसे अपना दुख-दर्द बताना चाहता था । मैं अपने बारूद में विस्फोट करके चिथड़े-चिथड़े उड़ जाना चाहता था । मैं सब कुछ भूल कर रिप-वैन-विंकल की तरह सदियों लम्बी गहरी नींद में सो जाना चाहता था । मैं दुनिया के अंतिम छोर पर जा कर कहीं छिप जाना चाहता था । मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हर परीक्षा में फ़ेल हो गया हूँ । मेरे भीतर की सभी नदियों का जल जैसे यकायक सूख गया था । झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेरे हुए थे । मैंने अपने मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पा कर बेहद डर गया ...

उस रात मैं घर नहीं गया । आकाश के क़ब्रिस्तान में चाँद-सितारों की लाशें दफ़्न थीं । मैं पास के तालाब में रात भर पत्थर फेंकता रहा । मैं उस हिलते हुए जल में चाँद की खंडित छवि को रात भर देखता रहा । सुबह तक चाँद की अनगिनत नुकीली किरचें मेरी आँखों में चुभ गई थीं । दिशाओं में धोखे की गंध

थी । जीवन के ख़ाली गिलास में मैंने जो जल उड़ेला था उसमें समय ने ज़हर घोल दिया था । वह एक अशक्त-सी सुबह थी । मेरे भीतर एक गुम-सी चोट बंद थी । नरक-सा यह जो लम्बा जीवन मेरे सामने पड़ा था , उसे अकेले ही जीना मेरी नियति थी । बीच समुद्र में भटकता नाविक जिसे तट समझा था , वह एक छलावा था । स्मृति की कौंधती बिजली के पार केवल एक रिक्त सन्नाटे का न्योता था ...

जब मैं अपने भीतर गुज़र गए चक्रवात से उबरा तो मैंने कहीं नौकरी पाने की क़वायद शुरू की । हालाँकि मेरे पास प्रथम श्रेणी में पास होने की अंक-तालिकाएँ और डिग्रियाँ थीं, किंतु मेरे पास न कोई ' पुश ' था न ही मुझे ' जुगाड़ ' आता था । मैं सही जगह पर ' चढ़ावा ' चढ़ा पाने में भी असमर्थ था । लिहाज़ा नौकरी मेरे लिए आकाश-कुसुम बनी रही ।

इन्हीं दिनों शहर में दंगा हो गया । दो समुदायों के बच्चों में पतंग काटने को ले कर हुए झगड़े से बात शुरू हुई । देखते-ही-देखते पथराव, आगज़नी और छुरेबाज़ी शुरू हो गई । कट्टों और देसी बमों का भी प्रयोग किया गया । पुलिस मूकदर्शक बन कर बहुसंख्यक समुदाय के गुंडों का अल्पसंख्यकों पर उत्पात देखती रही । जब मेरे पड़ोसी लियाक़त मियाँ की दुकान पर दंगाइयों ने हमला किया उस समय मैं उन्हीं की दुकान पर था । मैंने उन्हें पिछले रास्ते से भगा कर बचा लिया पर मैं दंगाइयों के क्रोध का भाजन बन गया । मुझ पर लाठियों और धारदार हथियारों से हमला हुआ और मैं बुरी तरह घायल हो गया ।

डेढ़-दो महीने मैं अस्पताल में पड़ा रहा । घर वालों पर बोझ बन गया । जान-पहचान वाले कहते --" हीरो बनने की क्या ज़रूरत थी ? जान है तो जहान है । " रिश्तेदार कहते--" जब तुम्हारी कुंडली में लिखा है कि तुम्हें धारदार हथियारों से ख़तरा है तो दंगे-फ़साद के चक्करों में पड़ने की क्या ज़रूरत थी ? " कोई कहता -- " जो आदमी अपना बुरा-भला भी ना समझ पाए , वह आदमी किस काम का? " यदि आज गाँधीजी जीवित होते तो ये लोग उन्हें भी ऐसी ही सलाह देते !

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा-पड़ा मैं सोचता -- " कैसे युग में जी रहे हैं हम! व्यावहारिक और दुनियावी बनने के चक्कर में हमने इंसानियत ही खो दी थी । जो जितना बड़ा कमीना था , उतना ही ज़्यादा सफल था । लोग मुझे 'सीधा' कहते थे । उनके लिए आज के युग में 'सीधा' होने का मतलब था , 'बेवक़ूफ़' होना । दरअसल गिद्धों और लकड़बग्घों के बीच मैं और मेरे जैसे लोग ' मिसफ़िट ' थे । हम जिस युग में जी रहे थे, उसमें न मूल्य बचे थे, न आदर्श । अपने फ़ायदे के लिए लोग थूक कर चाट रहे थे । गधे को बाप और बाप को गधा बता रहे थे । वे दोगलेपन , स्वार्थ और अवसरवाद से पनपी महत्वाकांक्षा का झुनझुना बजा रहे थे और नोटों के सूटकेसों के पीछे हाँफ़ते हुए भागे जा रहे थे । जीवन के गला-काट खेल में कोई नियम नहीं था । दूसरों की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ जाना ही इस युग में सफल होने का मूल-मंत्र था । जो मुट्ठी भर लोग यह सब नहीं कर पाते थे वे उपहास का पात्र बन जाते थे । जैसे वे किसी गुज़रे ज़माने के पुरावशेष हों जिनकी प्रासंगिकता अब केवल किसी संग्रहालय में बची हो ।

मेरे बाहरी घाव धीरे-धीरे भर रहे थे किंतु बचपन से ही युग और परिस्थितियों ने जो गुम-सी चोट मुझे दी थी , वह हर पल टभकती रहती । मेरे मन पर, मेरी आत्मा पर समय के भारी पैरों के निशान थे ।

अस्पताल से इलाज करवा कर जब मैं घर लौटा तो पता चला कि सुरभि का विवाह किसी आई. ए. एस. अधिकारी से तय हो गया है ।

फिर काफ़ी एड़ियाँ रगड़ने के बाद मेरी नियुक्ति शहर के एक प्राइवेट कालेज में अस्थायी शिक्षक के रूप में इस शर्त पर हो गई कि मुझे केवल आधी तनख़्वाह दी जाएगी । कुछ महीने वहाँ छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के बाद मुझे पता चला कि कई अन्य शिक्षकों से भी जितने वेतन पर हस्ताक्षर करवाए जाते थे, उन्हें उसका आधा वेतन ही दिया जाता था । जो भी शिक्षक इस शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाता था उसे तत्काल नौकरी से निकाल दिया जाता था । चारों ओर अँधेरगर्दी मची हुई थी ।

कुछ महीने बाद एक शाम मैं कालेज से घर की ओर लौट रहा था । तभी मैंने रास्ते में कुछ गुंडों को एक बुज़ुर्ग आदमी को बुरी तरह पीटते हुए देखा । पास जाने पर मैंने पाया कि पिटने वाला व्यक्ति सुरभि का पिता था । आस-पास बहुत से लोग खड़े थे पर कोई उस बुज़ुर्ग को बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा था । पूछने पर पता चला कि ये गुंडे दरअसल एक राजनीतिक दल की युवा इकाई के सदस्य थे । उस राजनीतिक दल के स्थानीय माफ़िया से घनिष्ठ सम्बन्ध थे । मैंने मोबाइल फ़ोन से सौ नंबर डायर करके पुलिस बुलाने की कोशिश की । पर बार-बार उधर से केवल एक ही आवाज़ सुनाई देती थी-- " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं... ।"

मेरे लिए यह दृश्य असहनीय होता जा रहा था । यदि उस बुज़ुर्ग को नहीं बचाया जाता तो वह मर भी सकता था । मैंने आस-पास खड़े लोगों की ओर देखा । मुझे लगा जैसे मैं बिना टिकट का तमाशा देख रही किसी भीड़ में खड़ा हूँ ।

अंत में मैंने अकेले ही उस बुज़ुर्ग को बचाने की कोशिश की । गुंडों से हाथापाई के बीच ही किसी ने मेरे सिर पर लोहे का सरिया दे मारा । और उसी समय किसी ने मेरे पेट में छुरा घोंप दिया ...

जब मेरी आँख खुली तो मैं अस्पताल में पड़ा था । एक बार फिर मुझे नसीहतें मिलने लगीं-- " क्या ज़रूरत थी तुम्हें दूसरों के मामले में टाँग अड़ाने की...?"

-- क्या ज़रूरत थी लाला लाजपत राय को देश के लिए लाठियाँ खाने

की ...

-- क्या ज़रूरत थी भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव को हमारी

स्वाधीनता के लिए फाँसी पर चढ़ जाने की ...

-- क्या ज़रूरत थी गाँधीजी को पराधीन भारतवासियों के लिए

बार-बार जेल जाने की ...

-- क्या ज़रूरत थी सुभाष चंद्र बोस को ...

-- क्या ज़रूरत थी जयप्रकाश नारायण को ...

-- क्या ज़रूरत थी अन्ना हज़ारे को ....


ढाई महीने अस्पताल में रहने के बाद मैं एक बार फिर घर लौट आया हूँ । मेरे बाहरी घाव भर चुके हैं । डाक्टरों ने मुझे स्वस्थ घोषित कर दिया है । किंतु कालेज प्रशासन ने मुझे लंबे समय तक कालेज से ग़ैर-हाज़िर रहने के कारण नौकरी से निकाल दिया है ।

एक हफ़्ता पहले सुरभि मुझसे मिलने आई थी । उस मुलाक़ात में उसने मुझसे केवल एक बात कही -- उसके पिता को गुंडों से बचा कर यदि मैं यह सोच रहा हूँ कि वह मुझसे शादी कर लेगी तो यह मेरी ग़लतफ़हमी है ... ऐसा कभी नहीं होगा ! उसने यह बात बल दे कर कही थी । वह अपनी शादी का कार्ड भी मेरे मुँह पर मार गई थी । अगले रविवार की रात उसकी शादी है ।

आजकल सुबह के अख़बार भ्रष्टाचार , घोटालों और मासूम बच्चियों से बलात्कार की भयावह ख़बरों से भरे होते हैं । किसी पन्ने पर भ्रष्टाचार उजागर करने वाले की हत्या की ख़बर छपी होती है, किसी पर RTI के लिए संघर्ष करने वाले किसी एक्टिविस्ट को मार दिए जाने का समाचार होता है , तो किसी पन्ने पर किसी धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति के क़त्ल की खबर होती है । रोज़ सुबह ऐसे समाचार पढ़ कर मेरी आत्मा कराहने लगती है और मेरे दिलो-दिमाग़ पर मुर्दनी छा जाती है । ज़माने की हालत देखकर लगता है जैसे भरी दुपहरी में अँधेरा छाया हुआ हो ।

इधर कुछ दिनों से मुझे शरीर में असहनीय दर्द रहने लगा है । कभी कहीं, कभी कहीं । जैसे मुझे गहरी चोट लगी हुई हो । मैंने अपनी देह के कई अंगों की एम.आर.आइ. और सी.टी. स्कैनिंग भी करवा ली है । पर रिपोर्ट में सब कुछ ठीक है । डाक्टर कहते हैं कि मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ । लेकिन अकसर मैं असहनीय दर्द से छटपटाने लगता हूँ । क्या आपके पास मेरी इस गुम-सी चोट का इलाज है ?


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 परिचय


जन्म : 28 मार्च , 1968

शिक्षा : अमृतसर , ( पंजाब ) तथा दिल्ली में ।

हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार , कवि तथा साहित्यिक अनुवादक । इनके नौ कथा-संग्रह , पाँच काव्य-संग्रह तथा विश्व की अनूदित कहानियों के नौ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इनकी कहानियाँ और कविताएँ पुरस्कृत हैं और कई राज्यों के स्कूल-कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में बच्चों को पढ़ाई जाती हैं । कई भाषाओं में अनूदित इनकी रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध-कार्य कर रहे हैं । इनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन हुए हैं तथा इनकी एक कहानी “ दुमदार जी की दुम “ पर फ़िल्म भी बन रही है । हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व रचनाओं का प्रकाशन । साहित्य व संगीत के प्रति जुनून ।सुशांत सरकारी संस्थान , नई दिल्ली में अधिकारी हैं और इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं ।

मो : 8512070086

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

पता : A-5001 ,

Gaur Green City,

Vaibhav Khand ,

Indirapuram,

Ghaziabad-201014

UP.

19 नवंबर, 2024

पेर लागरकविस्त की कविताऍं

 

अनुवाद: सरिता शर्मा 

स्वीडन के प्रसिद्ध कवि उपन्यासकार और नाटककार पेर लागरकविस्त का जन्म 1891 में हुआ था। उनके उपन्यास दि डार्फ, बराब्बस और हैंगमैन हैं। उनके नाटक लैट मैन लिव और


सीक्रेट ऑफ़ हैवन हैं। कविता संग्रह ए सॉंग ऑफ़ दि हार्ट और मैन्स वे हैं। उनकी कवितायें और गद्य उत्कृष्ट हैं। उनके अधिकांश लेखन में दुख और तृष्णा है। उन्होंने अक्सर अपरोक्ष, कच्ची भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। उनकी कुछ कविताओं में समान पंक्तियां देखने को मिलती हैं। उन्हें 1951 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी मृत्यु 1974 में हुई थी।  

कविताऍं 


गोधूलि की यह हवा सबसे खूबसूरत है 


गोधूलि की हवा में यह सबसे खूबसूरत है।

स्वर्ग जो सारा प्यार लुटाते हैं

एक धुँधले प्रकाश में एकत्र हो जाता है।

पृथ्वी के ऊपर,

शहर के प्रकाश से ऊपर।












सब प्यार है, हाथों से सहलाया गया।

प्रभु खुद दूर किनारों पर गायब हो जायेगा।

सब कुछ पास है, सब बहुत दूर है।

सब कुछ दिया जाता है

आदमी को आज के लिए।


सब मेरा है, और सब मुझसे ले लिया,

क्षण भर में सब कुछ मुझसे छीन लिया ।

पेड़, बादल, पृथ्वी जिन्हें मैं देखता हूँ।

मैं भटकता फिरूँगा

अकेला, नामोनिशान के बिना।

०००


पृथ्वी सबसे सुंदर होती है ...


पृथ्वी सबसे सुंदर होती है जब रोशनी बुझने लगती है।

आकाश में जितना भी प्रेम है, 

धुंधली रोशनी में समाहित है।

खेतों और 

नजर आने वाले घरों के ऊपर।


सब शुद्ध स्नेह है, सब सुखदायक है। 

दूर किनारे पर खुद प्रभु आसान बना रहे हैं, 

सब करीब है, फिर भी सब दूर है अज्ञात,  

सब कुछ दिया जाता है

मानव जाति को उधार पर।


सब मेरा है, और मुझसे ले लिया जायेगा,

सब कुछ जल्दी ही मुझसे छीन लिया जायेगा।

पेड़ और बादल, खेत जिनमें मैं टहलता हूँ।

मैं यात्रा करूंगा -

अकेला, नामो- निशान के बिना।

०००


मेरी छाया को तुममें खो जाने दो 


मेरी छाया को तुममें खो जाने दो 

मुझे खुद को खोने दो  

ऊंचे पेड़ों के तले,

जो गोधूलि में अपनी पूर्णता खो देते हैं,

आकाश और रात के सामने आत्मसमर्पण कर लेते हैं।

०००


मेरा दोस्त अजनबी है जिसे मैं नहीं जानता हूँ


मेरा दोस्त अजनबी है जिसे मैं नहीं जानता हूँ।

दूर बहुत दूर एक अजनबी,

उसके लिए मेरा दिल बेचैनी से भरा है

क्योंकि वह मेरे साथ नहीं है।

क्योंकि शायद, उसका अस्तित्व ही नहीं है ।

तुम कौन हो जो अपनी अनुपस्थिति से मेरा दिल भर देते हो?

जो पूरी दुनिया को अपनी अनुपस्थिति से भर देते हो?

तुम जो मौजूद थे, पहाड़ों और बादलों से पहले, 

समुद्र और हवाओं से पहले।

तुम जिसकी शुरुआत सब चीजों की शुरुआत से पहले है,

और जिसकी खुशी और गम सितारों से ज्यादा पुराने हैं।

तुम जो अनंत काल से सितारों की आकाशगंगा

और उनके बीच के घोर अंधेरे से होते हुए 

घूमे हो।

तुम जो अकेलेपन से पहले अकेले थे,

और कोई मानव हृदय मुझे भुलाये, 

उससे पहले से जिसका दिल बेचैनी से भरा था।

पर तुम मुझे कैसे याद कर सकते हो?

भला समुद्र भी सीप को याद करता है? 

एक बार उमड़ जाने के बाद।

०००


अनूवादिका का परिचय 

सरिता शर्मा (जन्म- 1964) ने अंग्रेजी और हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तथा अनुवाद, पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पांच वर्ष तक

नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सम्पादकीय सहायक के पद पर कार्य किया। बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में कार्य करने के बाद नवम्बर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति। कविता संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष, कहानी संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और पिताजी की जीवनी 'जीवन जो जिया' प्रकाशित। रस्किन बांड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज पीपल, स्ट्रेंज प्लेसिज’ और ‘क्राइम स्टोरीज’, 'लिटल प्रिंस', 'विश्व की श्रेष्ठ कविताएं', ‘महान लेखकों के दुर्लभ विचार’ और ‘विश्वविख्यात लेखकों की 11 कहानियां’  का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें, समीक्षाएं, यात्रा वृत्तान्त और विश्व साहित्य से कहानियों, कविताओं और साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साक्षात्कारों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। कहानी ‘वैक्यूम’  पर रेडियो नाटक प्रसारित किया गया और एफ. एम. गोल्ड के ‘तस्वीर’ कार्यक्रम के लिए दस स्क्रिप्ट्स तैयार की। 

संपर्क:  मकान नंबर 137, सेक्टर- 1, आई एम टी मानेसर, गुरुग्राम, हरियाणा- 122051. मोबाइल-9871948430.

ईमेल: sarita12aug@hotmail.com

हेमंत देवलेकर की कविताऍं



युवा कवि व रंगकर्मी

हेमंत देवलेकर की दो कविता संग्रह प्रकाशित है।

हेमंत विहान ड्रामा वर्क्स भोपाल में रंगकर्म में निरंतर सक्रिय है।

हेमंत की यहॉं छः कविताऍं दी जा रही है।



हिन्दी 


सितंबर लगते ही

कार्यालयों के धूल खाते कोनों से

निकाला गया हिन्दी को

साफ़ किये गये उसके जाले

और स्थापित करने की तरह रख दिया गया

मुख्य द्वार के सामने


बांधे गये उसकी जय के नारे

सजा दी गयी रंगीन पताका 

उसके निस्तेज चेहरे पर टांग दी गई थोड़ी रोशनी

और बुलाये गये लेखक - कवि

अचानक हिंदी - हिन्दी से भर गये कार्यालय


कवियों को सुनते हुए गला भर आया हिन्दी का

और एकदम से बढ़ गया उसका रक्तचाप 

आवाज़ों के चक्रवात में

उसे याद आया केवल

पन्द्रह अगस्त सन् सैंतालीस

और हिन्दी मूर्छित होकर गिर पड़ी।

०००



मटर की फली


मटर छीलता हूँ

दानों के बीच एक इल्ली है

गहरे इत्मिनान में सोई

जैसे मटर के दाने में शामिल हो उसका भी बीज


आँखों में भर आती है ममता

मैं भूल ही जाता हूँ कि वह एक फली है मटर की


मेरी हथेली में अब एक गर्भाशय है

उसने खोली हैं झपझपाते आंखें

भय रहित, संपूर्ण अधिकार भरी आँखें


हर कोई कुछ न कुछ लेकर यहाँ आता है

जैसे यह इल्ली आई है दाना लेकर

क्या हक़ है मुझे

उसे दानों से अलग कर देने का?


मटर की फली मैं वहीं रख देता हूँ

और गर्भाशय बदल जाता है एक घर में।

०००



बच्चे


मेरे देश के बच्चे जब 

रंगों, फूलों, रोशनियों से

सजा रहे थे घर आँगन

ग़ज़ा के बच्चे 

साफ़ कर रहे थे चारों तरफ़ फैला खून, 

और ध्वस्त जीवन का मलबा


मेरे देश के बच्चे 

जब चला रहे थे पिचकारी, 

लगा रहे थे गालों पर गुलाल

ग़ज़ा के बच्चे 

पोंछ रहे थे एक दूसरे के आँसू


मेरे देश के बच्चों पर जब 

निछावार हो रहे थे ईदी के तोहफ़े 

ग़ज़ा के बच्चों पर 

बरस रहा था बमों और मिसाईलों का कहर


मेरे देश के बच्चे 

जब लहराते तिरंगे तले 

शान से खड़े होते हैं सावधान

ग़ज़ा के बच्चे

बौखलाई हालत में भागते हैं

ढूंढते हैं अपनी आज़ादी, 

अपना राष्ट्र गान

०००



अहं खुशास्मि



बड़ी गंभीर हालत में पहुंचा मैं

डॉक्टर के पास

और कहा -

हर छोटी छोटी बात पर दुखता है मेरा अहं

ऊँचाई से गिरने पर जिस तरह टूट टूट जाती 

पसली - हड्डी

बिना गिरे भी ठेस लगती रहती अहं को


कुछ कीजिये डॉक्टर 

बाहर से घाव मत टटोलिये

मैं भीतर से हूँ आहत, खून से लथपथ

हो सके तो किसी मज़बूत अहं का ट्रांसप्लांट कर दीजिये 


डॉक्टर मेरी आँखों में टॉर्च की तरह झाँका

और ज़ुबाँ को परखते हुए हौले से मुस्कुराया

"तुम पहले व्यक्ति हो जिसने माना कि

यह भी एक गंभीर बीमारी है"


लेकिन देर बहुत हो चुकी है

तुम्हारी नस नस मे फैल चुका है अहं 

तुम्हारी परछाई भी ग्रस्त है 

अब तो वायरस की तरह फैलने लगा है यह


बचने का अब केवल एक उपाय है - 

चुन चुन कर खींच निकालना होगा अहं तुम्हारे शरीर से 

तुम बच पाओगे इसकी कोई गारंटी भी नहीं

कहो, तो कर डालूँ ऑपरेशन ? 


कैसी भयानक बात थी

इससे बड़ी विकलांगता क्या होगी

मृत्यु से भी बड़ा एक डर देखा पहली बार

(कौन राज़ी होता?) 


अपने आहत अहं को सहलाते- पुचकारते 

मैं लौट आया वापस.

****




हार्मनी


सफ़ेद और काला अलग रहेंगे

तो नस्ल कहायेंगे

मिलकर रहेंगे तो संगीत


हारमोनियम

साहचर्य की एक मिसाल है


उंगलियों के बीच की ख़ाली जगह

उंगलियों से भर देने के लिए है

****


लोरी



बहुत चुपके से एक रात

लोरी के गायब होने का अंदेशा हुआ

हैरान था चंदा मामा कि बच्चों के पर्यावरण में

अचानक ये कैसा बदलाव आया कि

पलकों पर मंडराने वाली एक तितली खत्म हो गयी

मेरे बहुत ढूंढने पर एक सुराग मिला आख़िरकार

लोरी ज़िंदा ज़रूर थी

पर हुलिया और आत्मा सब कुछ बदल चुका था


उसमें अब कोई संगीत नहीं था बाक़ी

थपकी नहीं थी, नींद का बुलावा नहीं था

जितने भी शब्द थे, सब

गुड टच - बेड टच  को समझा रहे थे

हिफाज़त अपनी कैसे करना, बता रहे थे


ये कैसी रातें हैं कि दादी - नानी

बच्चियों को सुलाते सुलाते

जगाने लगी हैं

०००


15 नवंबर, 2024

स्मरण: अकेली औरत की श्रृंखला की कविताओं के पीछे का सच...

  

मन्नू जी को सबसे ज़्यादा लगाव अपनी कलम से था पर कहानी और उपन्यास के अलावा किसी दूसरी विधा में - वह आलेख हो या कविता - लिखना उन्हें वक्त की बरबादी लगता। कविता विधा में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। इसके बावजूद मेरे कविता लिखने की शुरुआत मन्नू जी के घर पर रहते हुए हुई - उनकी आत्मकथा एक कहानी यह भी की पांडुलिपि पढ़ने के बाद। सारी रात उनकी

पांडुलिपि को बहुत ध्यान से पढ़ती रही और जाने क्यों कविता के खोल में लिपटी प्रतिक्रिया अलस्सुबह कागज़ पर लिख ली गई -- "जिन्हें वे संजो कर रख नहीं पाईं" कविता उन्हें जब सुनाई तो उन्होंने मेरी हथेली को अपनी हथेली से ढंक लिया था – हां]  बस ऐसा ही कुछ हुआ है सुधा मेरे साथ। जिन हादसों को भूलना चाहती थी] उन्हें झाड़-बुहार कर फेंकने के बाद भी] वे तो फिर आस पास आकर सज गए और इस झाड़ने-बुहारने में न जाने कितना कुछ सुंदर और सहेज कर रखने लायक धुल-पुंछ गया । अपने सृजन की ताकत को ही बुहार डाला। यह भूलने की बीमारी वहीं से जान को लगी है.....! 

अपने लिखने में ही मन्नू जी हमेशा अपनी राहत, अपना सुकून, अपना इलाज, अपनी दवा तलाशती रहीं।......न लिखा गया उनसे, न टीस कम हुई। 

०००

उन्हें जल्दी उठने की आदत थी और मैं कुछ देर से उठती थी। एक दिन मैं जल्दी उठ गई और देखा कि वे उठ तो गई हैं पर लगातार छत पर घूमते हुए पंखे की ओर देख रही हैं । 

मैंने पूछा - क्या हुआ मन्नू दी  

कुछ नहीं रे ! कभी कभी ऐसे ही नींद नहीं आती, तो नहीं ही आती और फिर पुरानी यादों की जो रील दिमाग़ में चलनी शुरू होती है तो ओर छोर पकड़ में नहीं आता । 

मैं भी ठहरी नींद की पुरानी मरीज़। रात को मुश्किल से ही निद्रा देवी के दर्शन होते हैं। मुझे लगा - उन्होंने मेरी बात कह दी। दरअसल वे अपने को बहुत कम खोलना चाहती थीं पर उनका अपना आप कभी कभी उनके हाथ से छूट जाता था। तभी यह "गिरे हुए फंदे" और "उसका अपना आप" कविता लिखी गई, जिसमें उनके साथ साथ थोड़ी सी मैं भी हूं। 

बस, हम दोनों के साझा अनुभवों ने अकेली औरत की श्रृंखला की दस बारह कविताओं की डोर हाथ में थमा दी जिसमें पहली कविता थी - "अकेली औरत का हंसना" और इसकी पहली पंक्तियां हम दोनों के जीवन का सच थीं - "अकेली औरत ख़ुद से ख़ुद को छिपाती है......" चाहे वे खुद अकेली हुई हो या अकेले होना उनका अपना चुनाव हो पर अपने हमसफ़र के प्रेम में रसी पगी एक औरत को अपने साथी का संग-साथ न मिल पाना, वाकई एक टीस है जो ताउम्र सालती है।....... बाकी तो रचे हुए शब्द खुद बोलते हैं, अलग से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती !इन पंक्तियों के पीछे का सच यही है!

सुधा अरोड़ा 


कविताऍं


जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं .....

सुधा अरोड़ा


वे रह रह कर भूल जाती हैं 

अभी अभी किसका फोन आया था 

किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता 

कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी 

याद नहीं आ रहीं . . . .


दस साल हो गये 

अजीब सी बीमारी लगी है जान को 

रोग की तरह.... भूलने की 

बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता 

सब भूल - भूल जाता है 


वह फोन मिलाती हैं 

एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए 

और उधर से 'हलो` की आवाज़ आने तक में 

भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था 

वह हृ शर्मिन्दा होकर पूछती हैं, 

'बताएंगे , यह नंबर किसका हैं?` 

'पर फोन तो आपने किया है !` 

सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं 


क्या हो गया है याददाश्त को 

बार-बार बेमौके शर्मिन्दा करती है ! 


किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा 

इतराकर खिलते हुए फूल का नाम 

नौ बजे वाले सीरियल की कहानी का 

छूटा हुआ सिरा, 

कुछ भी तो याद नहीं आता 

और याद दिलाने की कोशिश करो 

तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं 

जैसे कहती हों, चैन से रहने दो, 

मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें ! 

बस, यूं ही छोड़ दो जस का तस ! 

वर्ना नसों में दर्द उठ जाएगा 

और फिर जीना हलकान कर देगा, 

सुन्न कर देगा हर चलता फिरता अंग 

साँस लेना कर देगा दूभर 

याददाश्त का क्या है 

वह तो अब दगाबाज़ दोस्त हो गयी है । 

कुरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक 

दूधवाले से लिए खुदरा पैसे 

कहाँ रख दिए, मिल नहीं रहे 

चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं 

पगलायी सी ढूँढती फिरती है घर भर में 

एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत़ का 

जवाब देना था 

जाने कहाँ कागजों में इधर उधर हो गया 

सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में 

जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो गये हों ...


नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि 

बीस साल पहले उस दिन 

जब वह अपनी 

शादी की बारहवीं साल गिरह पर 

रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए 

उछाह भरी लौटी थीं 

पति रात को कोरा चेहरा लिए 

देर से घर आये थे 

औरतें ही भला अपनी शादी की 

सालगिरह क्यों नहीं भूल पातीं ?


बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल, 

सब बेशुमार दोस्तों के नाम,

उनके लिए तो बस बंद दराज़ों का साथ 

और अंतहीन चुप्पी 

और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े 

करवटें बदलती रहतीं रात भर !


पति की जेब से निकले 

प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें 

शब्द दर शब्द रटी पड़ी हैं उन्हें - 

चश्मे के केस में रखी चाभी से 

खुलती खुफिया संदूकची के ताले से निकली - 

सूखी पतियों वाले खुरदरे रूमानी कागज़ों पर 

मोतियों सी लिखावट में प्रेम से सराबोर 

लिखी गयी रसपगी शृंखला शब्दों की 

जिन्हें उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए 

और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं ज़िन्दगी भर ! 

सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी 

उस 'मीता` के नाम 

जिन्हें वह भूलना चाहती हैं 

रोज़ सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से 

कूड़ेदान में फेंक आती हैं - 

पर वे हैं 

कि कूड़ेदान से उचक उचक कर 

फिर से उनके ईद - गिर्द सज जाती हैं 

जैसे उन्हें मुँह बिरा - बिरा कर चिढ़ा रही हों। 


और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है 

बहुत सारा वह सब कुछ भी 

याददाश्त से बाहर 

जिन्हें वह संजोकर रखना चाहती थीं, 

और रख नहीं पायीं ........   

०००



गिरे हुए फंदे


अलस्सुबह 

अकेली औरत के कमरे में 

कबूतरों और चिडि़यों 

की आवाज़ें इधर उधर 

उड़ रही हैं  

आसमान से झरने लगी है रोशनी

आंख है कि खुल तो गई है

पर न खुली सी 

कुछ भी देख नहीं पा रही. 


छत की सीलिंग पर 

घूम रहा है पंखा

खुली आंखें ताक रही हैं सीलिंग 

पर पंखा नहीं दिखता 

उस औरत को 

पंखे की उस घुमौरी की जगह 

अटक कर बैठ गई हैं कुछ यादें !


पिछले सोलह सालों से

एक रूटीन हो गया है

यह दृश्य !

बेवजह लेटे ताका करती है ,

उन यादों को लपेट लपेट कर 

उनके गोले बुनती है !

धागे बार बार उलझ जाते हैं 

ओर छोर पकड़ में नहीं आता !


बार बार उठती है 

पानी के घूंट हलक से 

नीचे उतारती है !

सलाइयों में फंदे डालती है

और एक एक घर 

करीने से बुनती है !


धागों के ताने बाने गूंथकर 

बुना हुआ स्वेटर 

अपने सामने फैलाती है !

देखती है भीगी आंखों से

आह ! कुछ फंदे तो बीच रस्ते 

गिर गए सलाइयों से

फिर उधेड़ डालती है !


सारे धागे उसके इर्द गिर्द

फैल जाते हैं !

चिडि़यों और कबूतरों की 

आवाजों के बीच फड़फड़ाते हैं. 


कल फिर से गोला बनाएगी

फिर बुनेगी 

फिर उधेड़ेगी 

नये सिरे से 

अकेली औरत!

०००

सुधा अरोड़ा सातवें दशक में सामने आईं कथाकार और कवयित्री सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ

उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की, फिर बतौर प्राध्यापक कार्यरत हुईं। बाद में स्वयंसेवी संस्था ‘हेल्प’ के साथ संबद्धता रही और फिर स्वतंत्र लेखन की ओर उन्मुख हुईं।

‘रचेंगे हम साझा इतिहास’ और ‘कम से कम एक दरवाज़ा’ उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने कथा-लेखन अधिक किया है जिस क्रम में उनके एक दर्जन से अधिक कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें ‘महानगर की मैथिली’, ‘काला शुक्रवार’, ‘रहोगी तुम वही’ आदि चर्चित रहे हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘आम औरत ज़िंदा सवाल’ और ‘एक औरत की नोटबुक’ में उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों का संकलन हुआ है। ‘औरत की कहानी’, ‘मन्नू भंडारी सृजन के शिखर’, ‘मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान’ आदि उनके संपादन में प्रकाशित कृतियाँ हैं। उनके संपादन में तैयार ‘दहलीज को लाँघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’ कृतियों में भारतीय महिला कलाकारों के आत्म-कथ्यों का संकलन किया गया है। 

उनकी कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। 

उन्होंने स्तंभ-लेखन भी किया है और इस क्रम में सारिका में 'आम आदमीः ज़िंदा सवाल', जनसत्ता में 'वामा' कथादेश में ‘औरत की दुनिया’ और फिर ‘राख में दबी चिनगारी’ चर्चित स्तंभ रहे हैं।

उनका योगदान रेडियो नाटक, टी.वी। धारावाहिक तथा फ़िल्म पटकथाओं में भी रहा है जिनमें भँवरी देवी के जीवन पर आधारित 'बवंडर' फ़िल्म का पटकथा-लेखन उल्लेखनीय है। इसके साथ ही वह विभिन्न महिला संगठनों और महिला सलाहकार केंद्रों के सामाजिक कार्यों से जुड़ी रही हैं। 

उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के विशेष पुरस्कार, भारत निर्माण सम्मान, प्रियदर्शिनी पुरस्कार, वीमेन्स अचीवर अवॉर्ड, महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी सम्मान, वाग्मणि सम्मान आदि से सम्मानित किया गया है।



लेख: - इंसानियत के दायरे से बाहर होता आदमी

  

‘गोपाल को किसने मारा’


जनार्दन


मन्नू भंडारी हमारे समय की वरिष्ठतम लेखिका हैं। उन्होंने कहानी, उपन्यास और नाटक जैसी तमाम साहित्य विधाओं के साथ साहित्य के अतिरिक्त दूसरे कला माध्यमों, जैसे सिनेमा और

टेलीविजन के लिए भी खूब काम किया है। नई कहानी आंदोलन की प्रमुख हस्ताक्षर रहीं मन्नू जी दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन में भी बहुत सफल रहीं। प्रयोगधर्मिता और प्रयोजनियता लेखक की थाती होती है। मन्नू जी का लेखकीय व्यक्तित्व इन दोनों गुणों का साकार रूप है। एक ‘इंच मुस्कान’ जैसे उपन्यास में उनके सह लेखक राजेंद्र यादव थे। विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्साय ‘आपका बंटी’ आज एक मुहावरा बन चुका है। ‘महाभोज’ जैसे उपन्यास में भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरशाही के बीच आम आदमी की पीड़ा और दर्द और दलित समुदाय के शोषण को जिस कौशल से बुना गया है वह दुर्लभ है। इस रचना में व्यंग्य और यथार्थ जिस कौशल से पिरोया गया है, उसका उदाहरण हिंदी साहित्य में बहुत कम बार देखने को मिलता है। 


मन्नू जी की कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ सीमांत किसान की त्रासदी पर आधारित है, जिसका एक सिरा किसान आंदोलन और दूसरा विकास के बुलडोजर से जुड़ता है। व्यवस्था और विकास के पाटों के बीच पिसते किसान जीवन की त्रासदी के कारण यह एक राजनीतिक कहानी है। मन्नू जी इस तरह का लेखन पहले भी करती रही हैं। उनकी पूर्ववर्ती कहानी ‘नमक’ और नाटक ‘उजली नगरी चतुर राजा’ इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। 

 

हिंदी की नई कहानी आंदोलन सर्जनात्मक ऑच का आंदोलन रहा है। नई काहानी आंदोलन के समय में मन्नू जी ने जो लिखा उन सबमें पितृसत्ता का विद्रोह और नारीवाद का पक्ष मौजूद है।  दरअसल उनका लेखन वंचितों और शोषितों के पक्ष का लेखन है, जो उनकी ताजी कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ में भी पूरी ठसक के साथ मौजूद है। इस कहानी के केंद्र में शहर की ओर धकेले जाते गॉव की दशा-दिशा और युवा मन का मनोविज्ञान है।  


‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी की शुरूआती पंक्तियॉ विकास के बुलडोजर के पहियों तले रौदे जाने की गवाही देती हैं। फिल्म के प्रथम दृश्य की तरह कहानी की पहली पंक्ति भी महत्वपूर्ण हुआ करती है। कहानी की पहली पंक्ति से ही मन्नू जी कहानी के नब्ज़ पर हॉथ रख देती हैं। पहली पंक्ति में बदलाव की ओर बढ़ रहे गॉव का वर्णन है – “बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए इस गॉव ने भी आखिर कस्बे की दहलिज पर पॉव रख दिए।” 


हम जानते हैं कि हर पंक्ति या दृश्य अपने में आख्यान या वृत्तांत हुआ करते हैं। कहानी की पहली पंक्ति भी कस्बे बनें गॉवों की करुण आख्यान की ओर इशारा करती है। चतुर कथाकार, चतुर कलाकार-मूर्तिकार की तरह एक-एक रंग और टॉकी-छेनी का सोच समझकर उपयोग करता है। मूर्तिकार के हर प्रहार में उसकी करुणा और मूर्ति के आकार के प्रति चिंता समाई हुई होती है। मूर्तिकार की यह सजगता कथाकार के द्वारा उपयोग में आए शब्दों के चयन में दिखाई पड़ती है। पहली पंक्ति पूरी कहानी की बीज पंक्ति है। पूरी कहानी इसी एक पंक्ति का विस्तार है। इतनी वरिष्ठ और उम्र के इस पड़ाव पर भी मन्नू जी पूरी संचेतना के साथ कथा का निर्वहन करती हैं।  


हम सब जानते हैं कि बाजार और उपभोक्तावाद ने पैसों की अहमियत भले बढ़ा दिया हो मगर रिश्तों की गर्माहट को पूरी तरह से सोख लिया है। बाजार और रुपयों की ताकत ने मानवीय संबंधों को दुब्बर और मृतपाय कर दिया है। मैदानी क्षेत्रों में पॉव पसारते बाजार के नूर ने हर घर को बेनूर सा कर दिया है। यह कहानी ऐसे ही बेनूर होते एक गॉव की कहानी है। 

मन्नू जी की यह कहानी गॉव और शहर के मुहाने पर खड़े दो पीढ़ियों की टकराहट की कहानी है। मेमनों की तरह गॉव के गॉव अजगर रूपी शहर के पेट में समाते जा रहे हैं। जिस तरह अजगर द्वारा निगलते समय मेमने प्राण की भीख मॉगते हैं, उसी तरह अजगर रूपी शहर के फेटे में फँसे गॉव भी छटपटा रहे हैं। रामसिझावन की छटपटाहट हलाल होते गॉव की छटपटाहट है। इस महादेश के तमाम गॉवों के दलित-आदिवासी गॉव विकास (विनाश) के चंगुल में फँसकर इसी तरह छटपटा रहे हैं। आदिवासी इलाकों में तो गॉव को गॉव बनाए-बचाए रखने के लिए आंदोलन तक चल रहे हैं। देखने में आया है कि सैकड़ों गॉव अंतिम सॉस तक बचने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, जैसे सॉप के जबड़ों में फँसा मेढक! 


कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ में एक जिंदा आदमी मृत रूप में संबोधित है, तो सिर्फ इसलिए कि उसके अंदर की मनुष्ता मर चुकी है। कहानी के आंतरिक लय में यह सवाल पंक्ति दर पंक्ति गूँजती रहती है कि आखिर वह कौन सी परिस्थितियॉ हैं, जो जिंदा आदमी की जिंदादिली छिनकर उसे मुर्दा बनाती जा रही हैं। इस कहानी में गोपाल का पिता रामसिझावन कलपते गॉव का प्रतीक है और गोपाल जिंदा रहने की जिद पर अमादा एक ऐसे युवा का प्रतीक है, जिसे किसी भी प्रकार की स्मृतियों से कोई सरोकार नहीं। कहानी में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि क्या स्मृति शून्य होकर जिया जा सकता है? साथ यह भी कि क्या विकास का पूरा इलाका स्मृतियों के इलाके के मलबे पर ही खड़ा होगा? इस तरह की स्मृति शून्यता से किसी बड़ी साजिश की बू आती है। इसीलिए ‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी दो पीढ़ियों की टकराहट के बावजूद उन्माद नहीं बल्कि करुणा पैदा करती है। कहानी का प्रधान रस करुणा ही है। अपने अनुभव से हम सभी जानते हैं कि विकासरूपी अजगर गॉव की जमीन ही नहीं वहॉ की मनुष्यता तक को लील रहा है। जिस तरह अजगर के पेट में जाने के बाद शिकार का दम घूटने लगता है, उसका जिस्म टुकड़े-टुकड़े होने लगता है, उसी तरह शहर असंख्य लोगों को बर्बाद करके (उनके वजूद को टुकड़े-टुकड़े करके) कुछ लोगों को आबाद करने में लगे हैं। यही कारण है कि चंद लोगों द्वारा शहर विकास के मानक माने जाते हैं। बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल देने शहर डरावने लगे हैं। शहरीकरण द्वारा बने बेडौल नक्शे और फूहड़ जिस्म वाले शहरों के हॉथ किसानों की जमीन और उनकी अरमानों के खून से रंगे हुए हैं। विकास का मतलब मनुष्य की गरिमा सरंक्षण न होकर पूँजी का निर्माण हो गया है (पहले भी यही था)। मन्नू जी की यह कहानी घटते-गॉव और बढ़ते शहरों के के बीच फँसे इंसान की त्रासदी सामने लाती है। 


इस कहानी के माध्यम से पूँजी का प्रलयकारी प्रवाह और असंरक्षित मानवीय मूल्यों की ट्रेजडी उजागर होती है। ‘गोपाल को किसने मारा’ के कुछ किरदारों की बे-मुरौवत परेशानियों को देखकर शहरयार की ये पंक्तियॉ कोनों में बजने लगती हैं – 

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है

इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है


भारत खेती-किसानी का देश है। इस महादेश के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक संबंधों का निर्माण और निर्वहन खेती-किसानी से होता आया है। देश के मैदानी हिस्से, जहॉ सदानीरा नदियॉ प्रवाहित होती हैं (होती थीं), वहॉ के त्यौहार,गीत और किस्से भी पानीदार हुआ करते हैं (थे)। खेती के कारण ही ग्रामगीतों और किस्सों-कहानियों से खलिहान आबाद रहा करते थे (कहीं-कहीं हैं)। इतना ही नहीं खेती-किसानी ने स्वदेशी आंदोलनों को ताकतवर बनाकर ब्रिटिश सरकार को बाहर निकालने में भी मदद किया। चंपारण सत्याग्रह में भाग लेने से  गॉधी का मान पूरे देश में बढ़ा। जिस तरह से इस आंदोलन से अखिल भारतीय स्तर पर गॉधी की स्वीकार्यता कायम हुई, उसी तरह इस आंदोलन के के कुछ महीने पहले सरदार पटेल के नेतृत्व में गुजरात के खेड़ा और बरदोली में किसानों का भी सत्याग्रह आंदोलन हुआ। इसी आंदोलन के दौरान वल्लभ भाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि प्राप्त हुई। यही कारण है कि इसे प्रथम असहयोग आंदोलन भी कहा जाता है। किसान आंदोलनों के इतिहास और उसके प्रभाव पर नज़र रखने वाले इतिहासकार मानते हैं कि किसानों ने गॉधी और इंकलाबियों, दोनों का साथ दिया। उन्होंने गॉधी और भगत सिंह, दोनों को चाहा और दोनों के लिए कुर्बानियॉ दीं। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने जमीन हथियाने पर आमादा अंग्रेजों के खिलाफ ‘पगड़ी सँभाल जट्टा’ जैसा सशक्त किसान आंदोलन छेड़ा था, जिसकी ऑच से अंग्रेजी सरकार कॉप गई और मजबूर भूमि सुधार कानून को पास करना पड़ा। 


मन्नू जी इस कहानी में भूमियुक्त से भूमिहीन होते किसान और भविष्यहीन होती मनुष्यता के प्रश्न, केंद्रीय प्रश्न हैं। यद्यपि कहीं संकेत नहीं है लेकिन किरदारों के नाम और माली हालात के आधार पर यह कहानी भारतीय समाज व्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़ी पिछड़ी जमात की कहानी है। बाप और बेटे के बीच का मनमुटाव है, दरअसल दो पीढ़ियों के मानवीय धरातल का टकराव तो है ही। साथ ही साथ दो संस्कृतियों की भी टकराहट है। गॉव और शहर की यह टकराहट होरी और गोबर के बीच भी दिखाई पड़ती है। चूंकि बेटा अपने बड़े भाई गोविंद की स्मृति में बने प्याऊ को उजाड़कर वहॉ एक दुकान खड़ी करना चाहता है। इसलिए कहानी में प्याऊ को भी केंद्रीय महत्व प्राप्त है। पूरी कहानी यहीं सिमटी हुई है और यहीं खुलती भी है। हालॉकि प्याऊ के साथ-साथ बेरोजगारी और बेरोजगारी का साइड इफेक्ट गराबी भी इस कहानी की मूलात्मा को खाद-पानी देती है। कहानी को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि गोपाल को अमानुष होने की नकारात्मक ऊर्जा मँहगी होती शिक्षा और बेरोजगारी से हासिल होती है। गोपाल अपने बड़े भाई गोविंद की स्मृति में बने प्याऊ, जिसका सामुदायिक महत्व है, को उजाड़कर उसका इस्तेमाल व्यक्तिगत हीत में करना चाहता है। कथा का प्लॉट आत्मकेंद्रीत होती दुनिया की एक आम परिघटना से उठाया गया है। भारत का मध्यवर्ग अब इस तरह की घटनाओं से अछूता और अप्रभावित होकर जीने का हुनर हासिल कर चुका है। हमारे आसपास घट रही इस तरह की आम घटनाओं पर अब हमारी नज़र नहीं ठहरती। हमें सर्दी में सड़क पर सोते किसानों का दुख दिखना बंद हो चुका है। सीवर में प्राण गँवाते सफाईकर्मी और खेत-खिलहान,जंगल-पहाड़ के लिए लड़ते आदिवासियों की लड़ाई हमारी ऑखों की परिधि में नहीं आती। संवेदनात्मक रूप ठूठ होते हम लोगों को इस तरह आम घटनाएं इसलिए दिखाई नहीं देतीं, क्योंकि इनसे हमारे आनंद की तीव्रता बाधित होती है। मध्यवर्ग अब इतना हुनमरंद हो चुका है कि उसे हजारों रामसिझावनों की चित्कार और गोविंदों की लाशें दिखाई नहीं पड़तीं। यही कारण है कि इस देश में किसानों की लाशों की घटनाएं चाहे अखबार में जगह पाएँ न पाएँ लेकिन पटाखों के बाजार की खबरें जगह ज़रूर पाती हैं।  


इसलिए संवेदनात्मक रूप से बंजर होते समाज के लिए इस कहानी का पाठ होना आवश्यक है। क्योंकि बहुत ही खामोशी से यह कहानी सामुदायिक क्षरण की परिस्थितियों का प्रकाशन करती है। इस अर्थ में यह कहानी गरीबी और लाचारी के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए जरूरी किरदार और असबाब मुहैया कराती है। साथ-साथ ही असहाय होते लोकतंत्र के लिए आवाज़ बनती नज़र आती है। प्याऊ का नष्ट लोक कल्याण की सुविधाओं का नष्ट होना है। गरीब होते इस महादेश में प्याऊ उजाड़े नहीं बल्कि बनाए जाने चाहिए।    


प्याऊ इस कहानी सबसे अहम किरदार है। कहानी का तानाबाना इसी के इर्द-गिर्द बुना गया है। ‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी रामसिझावन के बेटों के बिखरने की कथा है। उसके दोनों बेटे शहर की भेंट चढ़ गए हैं। बड़ा बेटा गोविंदा अपने मामा महेश के साथ शहर में जाकर बिजली विभाग में अस्थाई आधार पर काम कर रहा था, जहॉ एक हादसे में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के मुआवजे से प्राप्त धन को रामसिझावन का ज़मीर स्वीकार नहीं करता है। महेश और सरपंच के सुझाव पर गोविंदा के नाम पर शहर में एक प्याऊ बनवाने की बात पर रजामंदी बनती है। प्याऊ बनने के बीस-पच्चीस सालों में शहर धीरे-धीरे गॉव में धँसने लगता है और रामसिझावन के छोटे बेटे गोपाल के नौजवान होते-होते गॉव के मानवीय मूल्य काफी बदल चुके होते हैं। गोपाल का मस्तिष्क गॉव और शहर के द्वंद्व से बुना हुआ मस्तिष्क है (जिसमें शहर का आग्रह भरा हुआ है), जबकि रामसिझावन की पूरी उम्र खेती-किसानी में बीत गई है। वह आम किसान की तरह जमीन से प्यार करने वाला सीमांत किसान है। वह अब भी चाहता है कि गोपाल उसी की तरह खेती करके परिवार का पेट भरे मगर गोपाल चौखट के बाहर खड़े बाजार की आरती करने के लिए लालायित है। लालसाओं-कामनाओं और आम बुराइयों का संक्रमण अक्सर बड़े घरानों से होते हुए छोटे घरों तक पहुँचता है। कहानी की शुरूआत में इस दिशा में संकेत है – “गॉव में तो चाहे युवा हों या बुजुर्ग, सबकी ऩजरें और पॉव गॉव की जमीन में ही गड़े रहते थे…।। पर कस्बों की हवा लगते ही युवा वर्ग के पॉव वहॉ  से उखड़ने के लिए छटपटाने लगे और ललचाई ऩजरें शहर पर जाकर टिक गईं, पर दो-चार रईस परिवारों के बच्चे जरूर लोटपोट कर जैसे-तैसे शहर- पहुँच गए…रईसों के ये  बच्चे जब कभी गॉव का चक्कर लगाते तो ज़रूर अपने साथ थोड़ा सा शहर भी बांध ही लाते और उन्ही के बलबूते पर गॉव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते। उनका रहन-सहन बोलचाल देख-सुनकर गॉव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने कुलबुलाने लगते।” गोपाल की ऑखों में केवल सपने ही नहीं मन में कुछ बुनियादी सवाल भी हैं। जमीन की ऊपज की मामूली कीमत से वह निराश है। वह अपने पिता को डपटते हुए कहता है - ‘‘क्या रखा है इस पुश्तैनी धंधे में। हाड़-तोड़ मेहनत करो तो दो जून की रोट मिल जाय बस। जिस साल आसमान से पानी न बरसे तो बैठे-बैठे ऑखों से पानी बहाते रहो. कोई धांधा है साला यह भी?’’


गोपाल के इस तर्क का कोई जवाब न रामसिझावन के पास है न इस महादेश को चलाने वाली व्यवस्था के पास। यहॉ गोपाल का मनोविज्ञान जमीन बेचकर शहर में समाने वाले निराश और हिंसक भीड़ से जुड़ता नज़र आता है। तमाम समस्याओं से ग्रस्त होने के बाद नगरों और महानगरों का मोह युवाओं में कम नहीं हुआ है। इसीलिए गोपाल शहर को एक सुविधा के रूप में देखता है। शहर उसके लिए पैसा बनाने की सुविधा का नाम है भी। किसी भी कीमत पर वह उस सुविधा के घेरे में शामिल होना चाहता है। इसके लिए उसे पिता की संवेदनात्मक अनुभूति बाधक जान पड़ती है। विदित है कि पूँजी नींव ही संवेदना की शहादत पर पड़ती है। दरअसल रामसिझावन और गोपाल के बीच जो अंतर है, वह एक संवेदनशील और एक असंवेदनशील व्यक्ति के अंत:करण का अंतर है।


पिता और पुत्र के कुछ संवादों से दोनों के बेमेल होने का वास्तविक उद्घाटन होता है। बतौर बानगी दो-एक संवाद इस प्रकार है – 

रामसिझावन – “ई प्याऊ ना ह रे, इ तो निसानी है हमार बेटवा के....तोहार बड़का भाई के...अऊर तूं है कि...” 

गोपाल – “अरे जब था, तब था, अब क्या है सार में। पच्चीस बरस बीत गए उसे मरे खपे, क्या उसी को छाती चिपकाए रहूँगा?”

रामसिझावन -‘‘बेटा, ई प्याऊ न तोहर कमाई से बनी, न हमर कमाई से। ई तो गोविंदा की मौत की कमाई से बनी। तू सोच ई पर कइसे ह़क जमा सकत हैं हम?” 

गोपाल गरजता है -‘‘धरम-करम मुझे नहीं चाहिए। यह सब सईसों के चोचले हैं। मुझे इससे कुछ नहीं लेना। मुझे बस दुकान के लिए प्याऊ चाहिए।’’  


गोपाल प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का हामिद नहीं है, जिसे अपनी दादी अमीना के लिए चिमटा खरीदने की फिक्र है, ताकि रोटी सेंकते हुए उसकी दादी के हॉथ न जलें। हामिद और गोपाल में लगभग सौ साल का अंतर है। और साल में बहुत कुछ बदल गया है। यह कहानी उसी बदले वाले आदमी को सामने लाती है। मन्नू जी की यह कहानी कैलाश बनवाशी की कहानी ‘बाजार में रामधन’ के समान है। जिस तरह बाजार की ताकत के सामने रामधन को एक दिन हारना पड़ता है और अपने प्यारे बैलों को उसके (बाजार के) हवाले करना  पड़ता है, उसी तरह एक मन्नू जी की इस कहानी का अंत प्याऊ के तोड़े जाने के दृढ़ संकल्प के साथ होता है। कहानी की सार्थकता इसी में है कि वह प्याऊ के तोड़े जाने के खिलाफ करूणा पैदा करती है। करुणा ही इस कहानी की ताकत है। 


मन्नू जी की यह कहानी कई मायनों में महत्वपूर्ण है। मन्नू जी हमारे समय की वरिष्ठतम कथाकार हैं। वह कई साल से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही हैं। इतने के बाद भी वह देश में हो रही घटनाओं, खासकर किसान आंदोलन को लेकर न केवल सजग हैं, बल्कि रचनात्मक हस्तक्षेप भी करती हैं। इसलिए यह कहानी स्वयं में ऐतिहासिक दस्तावेज है। यह कहानी को मन्नू जी की ही एक दूसरी कहानी ‘नमक’ के साथ पढ़े जाने की मॉग करती नज़र आती है। यह कहानी हमें उस किरदार के पास ले जाती है, जिसका मस्तिष्क के निर्माण गॉव व शहर के द्वंद्व से हुआ है! 

                              


 

- जनार्दन

सहायक प्राध्यापक

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ.प्र.

ई-मेल : jnrdngnd@gmil.com

कहानी : गोपाल को किसने मारा ?

  

मन्नू भंडारी


आज मन्नू भंडारी जी का पुण्यतिथि है। आज उन्हें याद करते हुए मन्नू जी और बिजूका के पाठक, मित्र, व साथियो के लिए मन्नू भंडारी जी की आख़िरी कहानी प्रस्तुत है। 

बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए इस गांव ने भी आ़िखर कस्बे की दहली़ज पर पांव रख ही दिये. सदियों से उस गांव में समय चलता नहीं बस, रेंगता था. पांच साल बाद आप जाओ तो उस समय गोदी में लटके या उंगली पकड़कर घिसटते बच्चे आज गलियों में गिल्ली-डंडा या वांचे खेलते मिलते और तबके वांचे खेलते बच्चों की मसें भीगती दिखायी देती. पर बस, जो भी परिवर्तन दिखायी देता शरीर के स्तर पर ही.. बा़की दिल-दिमा़ग और सोच-समझ तो जस की तस. पर जैसे ही उस गांव ने देहती चोला उतार कर कस्बाई धज धारण की, वहां समय रेंगने की जगह चलने लगा. 

गांव में तो चाहे युवा हों या बुजुर्ग, सबकी ऩजरें और पांव गांव की

जमीन में ही गड़े रहते थे और अपने से संतुष्ट मन गांव की चौहद्दी के बीच ही घूमता-टहलता रहता. पर कस्बे की हवा लगते ही युवा वर्ग के पांव वहां से उखड़ने के लिए छटपटाने लगे और ललचाई ऩजरें शहर पर जाकर टिक गयीं, पर जायें तो जायें वैसे? हां, दो-चार रईस परिवारों के बच्चे जरूर लोटपोट कर जैसे-तैसे शहर पहुंच गये पर उनके अलावा उस समय न तो शहर ़कस्बे को अपने में समेट रहा था और न ही पैल पसर कर खुद उसमें समा रहा था. हां, रईसों के ये बच्चे जब कभी गांव का चक्कर लगाते तो जरूर अपने साथ थोड़ा सा शहर भी बांध ही लाते और उन्हीं के बलबूते पर गांव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते. उनका रहन-सहन बोली-बाली देख सुनकर गांव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने बुलबुलाने लगते... पर न साधन, न सुविधा न ही जोड़-तोड़ की ऐसी कोई जुगत जो उन्हें वहां ले जाती. 

यों कस्बा बनते ही गांव का प्राइमरी स्कूल डल स्कूल तो बन ही गया था और बिल्डिंग उसकी चाहे टूटी-फूटी ही रही हो पर कक्षाएं तो लगनी ही थीं. मास्टर लोग भी जबान की जगह छड़ी का प्रयोग ज्यादा करने के बावजूद कुछ तो पढ़ाते ही थे कि बच्चे जैसे-तैसे पास हो ही जाया करते थे. पर मिडिल पास करने के बाद रास्ते बंद. अब करें तो क्या करें?

यह महज एक संयोग ही था कि इसी कस्बे के एक बेहद मामूली-सी हैसियत वाले किसान रामनिझावन के बड़े बेटे गोविंदा ने जैसे ही मिडिल पास किया तो शहर से उसके मामा आ गये और प्रस्ताव रखा कि यदि जीजा चाहें और गोविंदा राजी हो तो वे उसे शहर ले जाकर बिजली के कारखाने में नौकरी दिलवा सकते हैं. वे खुद वहां नौकरी ही नहीं करते बल्कि थोड़ी बहुत पहुंच भी है उनकी उधर. एक बार सरकारी नौकरी मिल जाय तो समझो बादशाही मिल गयी. पर बादशाही को परे सरकाते हुए बिफर गया रामनिझावन...

‘‘अरे अइसा जुलुम न करो महेसवा... अभी तो ई हमार हाथ बटावे लायक हुआ अउर तुम हो कि... न न, हम नाही भेजी रहे सहर-वहर. हम खेती-बाड़ी कर वाले म़जूर ठहरे... हम का करिहें सरकारी नौकरी की बादसाहत लइके?’’

पर गोविंदा, एक तो शहरी मामा का अपना चुंबकीय आकर्षण दूसरे उससे बड़ा आकर्षण शहर जाकर नौकरी करने का... फिर थाली में परोस कर सामने आये इस मौ़के को वैसे छोड़ दे भला? छोटे भाई-बहनों के साथ मिलकर मोर्चा बनाकर अड़ गया गोविंदा! 

रामनिझावन रोता-कलपता ही रह गाय कि दो-दो बेटियों के हाथ पीले करने हैं... छोटे बेटे को भी पढ़ाना है, अब ई सारा बोझ मैं इकल्ला कइसे ढोऊंगा? अरे बड़ा बेटा ही तो सहारा हुई है बाप का... पर गोविंदा को तो जाना था वो वह चला गया. हां, इतना हौसला जरूर बंधा गया कि खेती में चाहे मैं तुम्हारी मदद न कर सवूं दद्दा पर पैसे में तुम्हारी मदद जरूर करता रहूंगा. मुझे भी अपने छोटे भाई-बहिनों का ख्याल है. उनके लिए जो हो सकेगा करूंगा. 

बात का पक्का निकला गोविंदा. उसे अपने दद्दा की ... भाई-बहिनों की ज़िम्मेदारी का पूरा ख्याल था सो वह अपने खर्चे लायक पैसे रखकर तऩख्वाह के सारे रुपये दद्दा के पास भेज दिया करता. साल में दो बार जब सबसे मिलने घर आया तो सबके लिए कुछ-न-कुछ लेकर भी आता. अब राम निझावन ने भी संतोष कर लिया कि चलो बेटा राजी-़खुशी है, अपना कमा-खा रहा है... घर में मदद भी कर रहा है और सबसे बड़ी बात कि खूब खुश है. अब बच्चों के सुख से तो बड़ा और कोई सुख होता नहीं मां-बाप के लिए.

पर यह सुख भी ज्यादा दिन के लिए नहीं लिखा था रामनिझावन की त़कदीर में. पूरा पहाड़ टूटकर गिर जाता तब भी शायद वह इस तरह चकनाचूर नहीं होता, जितना इस घटना ने कर दिया. कोई हारी-बीमारी की खबर नहीं,... दुख-त़कली़फ की सूचना नहीं, सीधे गोविंदा की लाश लेकर ही चला आया महेसवा तो. रामनिझावन भरोसा करे तो वैसे करे कि सामने लेटा यह आदमी ज़िंदा नहीं, लाश है. 

गोविंदा के पूरे घर में ही नहीं बल्कि सारे ़कस्बे में कोहराम मच गया. देखने वालों की भीड़ टूट पड़ी. क्या हो गया... वैसे हो गया...कब हो गया... किसने कर दिया...? एक ओर देखने वालों के प्रश्नों की बौछार तो दूसरी ओर रामनिझावन और उसकी पत्नी का छाती फोड़ व्रंदन. ‘‘अरे महेसवा, ई कउन जनम का बैर निकाला रे हमसे... तू नौकरी दिलावे की खातिर ले गवा रहा कि जान लेवे की खातिर... तुमका जान ही लेवे का रहा तो हमरी लेइ लेते...’’ माथा ठोक-ठोक कर वह अपने को ही कोसने लगा, ‘‘का बताई, ई तो मत मारी गयी ती हमरी ही जो तुम्हरे साथ भेजे रहे न. हमार बीस बरस का जवान जहान बेटा... हमरे बुढ़ापे की लाठी छीनिके का मिलि गवा रे...’’ दुख, आरोप, असहायता, पश्चाताप की आंच में सुलगता रामनिझावन का प्रलाप और अपराध-बोध से ग्रस्त, सारे आरोपों को चुपचाप झेलते जाने की महेश की म़जबूरी. 

आंसुओं में डूबा, टुकड़ों-टुकड़ों में जो बता पाया महेश उसका सार इतना ही था कि ऊपर तार पर काम रहा था गोविंदा और नीचे किसी ने गलती से स्विच ऑन कर दिया. करेंट दौड़ा और तार से ही चिपक कर रह गया गोविंदा. रामनिझावन को कारण से कुछ लेना-देना नहीं... उसे तो बस परिणाम ने चकनाचूर करके रख दिया था. तीन दिन बाद प्रलाप का पहला दौर जरा ठंडा पड़ा तो हिम्मत करके मलहम की पुड़िया निकाली महेश ने इस उम्मीद से कि इसका लेप लगते ही धीरे-धीरे घाव भरने शुरु होंगे. बहुत हिम्मत करके बोला, ‘‘देखो जीजा, गोविंदा अपनी मौत तो मरा नहीं... एक अ़फसर की गलती से मरा है सो सरकार मुआव़जा तो देगी ही... कम नहीं पूरे पच्चीस ह़जार मिलेंगे... कोशिश तो करूंगा कि कुछ और भी मिल जाये और जल्दी से जल्दी ही वसूली करने में भी जान झोंक दूंगा मैं.’’

‘‘चोऽऽप कर’’, ऐसे दहाड़ा रामनिझावन कि सबके सब सन्न रह गये.

‘‘पहिले तो हमार बेटवा की जान लै ली अउर अब वहिकी कीमत चुकाना चाहता. अरे बाप हूं गोविंदा को, कौनो कसाई नहीं जो अपन बेटवा की मौत की कीमत वसूलूंगा. ई सब कमीनी बातें न कर हमरे सामने... तू दूर जा हमरी आखन के आगे से.’’ और वह फूट-फूट कर रोने लगा. महेश ने जिस बात को मलहम समझ कर सामने रखा था, वह तो नश्तर साबित हुई, जिसके लगते ही घाव फिर रिसने लगा और आंखों से आंसू की जगह खून मवाद के रेले बह चले. रोती–कलपती पत्नी अपने भाई को भीतर ले गयी और तसल्ली देकर वहीं से बिदा भी कर दिया.

महेश अपमानित और आहत चाहे जितना हुआ हो पर जीजा के प्रति अपनी जिम्मेदारी जम्मेदारी नहीं भूला. तीन महीने की भाग-दौड़ के बाद वह मुआवा़जे के पच्चीस ह़जार रुपये लेकर जीजा के यहां पहुंचा पर हिम्मत नहीं हुई पहले रामनिझावन के पास जाने की. सो सीधे सरपंच के पास पहुंचा और सारी बात समझायी. जीजा की माली हालत जैसी है, उसमें कितनी मदद मिलेगी इन रुपयों से. दोनों बेटियों के ब्याह निपट जायेंगे... छोटा बेटा पढ़ जायेगा और भी छोटी-मोटी जरूरतें पूरी होंगी. इतना रुपया तो न जाने कितने साल नौकरी करके भी नहीं भेज सकता था गोविंदा. जीजा का दुख समझता हूं पर दुख अपनी जगह और जरूरतें अपनी जगह. गोविंदा तो अब आ नहीं सकता पर इन रुपयों में बहुत-सी परेशानियां तो दूर की ही जा सकती हैं. पहले आप जाकर आगा-पीछा सब समझा दीजिए, जब मान जायेंगे तो मैं जाकर उनके रुपये उन्हें थमा दूंगा.

वैसे तो सरपंच अपने वहां भी बुला सकता था रामनिझावन को पर मौ़के की ऩजाकत देखकर अपने साथ और दो-चार बु़जुुर्गों को लेकर वह खुद ही पहुंचा रामनिझावन के घर. ठेठ दुनियादारी की बातों में लपेट कर वह सारी ऊंच-नीच समझायी. आगा-पीछा सुझाया. उसकी माली हालत का.... ज़िम्मेदारियों का हवाला देकर सरपंच ने जब वह प्रस्ताव रखा उसके सामने तो उसकी झुकी हुई गरदन और झुक गयी और हाथ जोड़कर वह इतना ही कह पाया, ‘‘हमौ गरीबै सही माई-बाप, पर बाप हौं गोविंदा को... अब ़कसाई न बनाओ.’’ और उसकी बा़की बात आंसुओं में ही डूब गयी. इसके बाद तो बिना बोले आंसुओं में ही वह सरपंच के सारे तर्वâ काटता रहा. सरपंच और बु़जुर्गों का सारा समझाना-बुझाना बेकार — मुआव़जे के रुपये लेने के लिए रामनिझावन नहीं माना तो नहीं ही माना. हां, इर्द-गिर्द घिर आये तीनों बच्चों के मन में ़जरूर कुछ इच्छाएं... कुछ सपने बुलबुलाने लगे थे पर बाप के हिचकियों में बदलते रोने के आगे वे भी चुप हो गये. 


आख़िर तीन दिन तक बु़जुर्गोंं में ही सलाह-मशवरा चलता रहा और फिर पानी की किल्लत को ध्यान में रखकर यह प्रस्ताव रखा गया कि इन रुपयों से गांव में गोविंदा के नाम से एक प्याऊ खुलवा दी जाये. हर प्यासा राहगीर पानी सच्चे मन से जो दुगाएं देगा, वह सीधे गोविंदा की आत्मा को ही सहलाएंगी. रामनिझावन ने जब इस प्रस्ताव की बात सुनी. गदगद हो गया. मेरे बेटे के नाम की प्याऊ... प्यासे लोग पानी पियेंगे और मेरे बेटे को दुआएं देंगे... इससे बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है मेरे बेटे के लिए. बाप होकर भी इतना पुण्य कमा सकता था क्या मैं अपने बेटे के लिए? 

देखते ही देखते प्याऊ बन गयी और गोविंदा के नाम का बोर्ड भी लग गया उस पर. पहले दिन तो राम निझावन ने ़खुद बैठकर सबको पानी पिलाया और उसे लगा जैसे उसका दुख सबके सुख में बदल गया. फिर तो खेत से आते-जाते कुछ देर खड़े रहकर उसी को निहारता... गोविंदा के नाम का बोर्ड देखकर पानी पीने वालों से ज्यादा उसका अपना मन जुड़ा जाता. सरपंच कभी मिलते तो कहते, ‘‘देख रे रामनिझावन. कितै प्यासों की दुआएं मिल रही हैं तेरे गोविंदा को’. तो वह गदगद भाव से सिर झुका लेता. 

पता नहीं, पानी पीने वालों की दुआएं गोविंदा तक पहुंचती या नहीं पर रामनिझावन के परिवार तक तो जरूर ही पहुंची रहीं. तभी तो इन पच्चीस सालों में उसकी दोनों बेटियां अच्छे घरों में ब्याहकर आज अपने फलते-फूलते परिवार के साथ प्रसन्न है. उसका छोटा बेटा गोपाल भी दो बच्चों का बाप है जो रामनिझावन अपने बच्चों को दूध-दही खिलाने के लिए कभी एक भैंस नहीं खरीद सका उसने अपने पोतों के लिए एक भैंस भी खरीद ली. अपने घर के एक हिस्से को पक्का करवा दिया, जिससे गोपाल का परिवार आराम से रह सके. उसे तो अपने कच्चे घर में रहने की आदत, सो वह तो उसी में आराम से रहता. इससे ज्यादा सुख की तो वह अपने लिए कल्पना ही नहीं कर सकता था और यह सब वह उस पुण्य का प्रताप ही समझ रहा था, जो पानी पिलाकर उसके खाते में जमा हो रहा था.

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अब इन पच्चीस सालों में उस कस्बे का क्या हाल हुआ, वह भी देखिए. शहर और कस्बे के बीच बस क्या चलने लगी कि उसमें लदकर सवारियों के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में शहर भी कस्बे में आने लगा. कस्बे के हाट-बा़जार शहरी सामानों से भरने लगे तो वहां के लोगों के मन उन्हें पाने की उमंग भरी ललक से. किशोरों और युवाओं ने अपनी टांगों से प़जामें उतारकर जीन्स चढ़ा लीं और उनकी कलाइयों में घड़ियां चमचमाने लगीं. धूप होने पर वे भी काले चश्मे पहन कर घूमते. लड़कियां भी होंठों पर गहरे रंग की लिपस्टिक पोते, माथे पर चमकीली बिदिया चिपकाये... रंगबिरंगे कपड़ों में अपने को मिस इंडिया से कम नहीं समझतीं. जैसे-जैसे बा़जार नये-नये सामानों से भरता जाता उन्हें खरीदने के लिए पैसे की जरूरत बढ़ती जाती. और सामान और पैसा... और सामान और ज्यादा पैसा.

दस साल की उम्र से रामनिझावन के साथ खेती-बाड़ी करने वाले उसके छोटे बेटे गोपाल के मन में भी शहर कब और कैसे फैल-पसर गया. रामनिझावन को इसका पता ही नहीं लगा. लगता भी वैâसे? अंटो में संतोष धन की पूंजी बांधे उसकी दुनिया तो आज भी खेत और घर तक ही सिमटी हुई थी. पर गोपाल को अब संतोषधन — असली धन चाहिए था और इसलिए उसने धीरे-धीरे खेती का काम बाप के कंधों पर डाल शहर के चक्कर लगाने शुरू किये. जब-जब वह शहर जाये... वहां की चकाचौंध उसके मन में नित नयी हवस जगाये. पर वह हवस पूरी हो तो कैसे? बिना पढ़ाई के अच्छी नौकरी मिलने से रही... रहा कोई धंधा सो उसके लिए पैसा चाहिए. जिस भी धंधे की बात सोचता, बात पैसे पर आकर अटक जाती. हर असफलता से हताशा जनमती और हताशा से जनमता गुस्सा और ़गुस्सा जाकर टिकता रामनिझावन पर. और एक दिन आ़िखर वह खम ठोककर बाप के सामने खड़ा हो ही गया.

‘‘दद्दा मुझे तो न पढ़ाया न लिखाया. बैलों की पूंछ मरोड़ते-मरोड़ते आधी ़िजंदगी तो बर्बाद हो गयी मेरी... पर अब बची ़िजंदगी में कुछ बनना चाहता हूं... पैसा कमाना चाहता हूं सो समझ लो कि अब नहीं करना मुझे तुम्हारी यह खेती-बाड़ी!’’ और बड़ी हि़कारत से उसने अपना मुंह झटक दिया.

रामनिझावन ने जो सुना, जो देखा तो अवाक!

‘‘कइसो बात करे रे बेटा तू? अरे ई तो हमार पुश्तैनी धंधा है. ई नाही करिहें तो का करिहें?’’

‘‘क्या रखा है इस पुश्तैशी धंधे में. हाड़-तोड़ मेहनत करो तो दो जून की रोटी मिल जाय बस. जिस साल आसमान से पानी न बरसे तो बैठे-बैठे आंखों से पानी बहाते रहो. कोई धंधा है साला यह भी?’’

दो साल से गोपाल के बदले मि़जा़ज तो देख रहा था रामनिझावन और उसने खेती का ज्यादा काम अपने कंधों पर ले भी लिया था पर बात इतनी बढ़ गयी है, यह नहीं समझ पाया था. उसका सुर और तेवर देखकर बड़े ठंडे मन से उसने कहा — ‘‘तोर मन नहीं लागत अब खेती मा तो तू कौनो अउर काम देख ले आपन मन का. साठ का भवा तो का भवा... अबहुं हाड़-गोड़ में इत्ता जोर तो हइहं कि अकेले ही आपन खेती कर सकत हूं.’’

‘‘हां, अब तुम्हीं करो अपनी खेती... मैंने तो अपने लिए दूसरा काम देख भी लिया है. अब दिखाता हूं कि कैसे किया जाता है काम और कैसे कमाया जाता है पैसा. पर मुझे अपने काम के लिए पचास ह़जार रुपये चाहिए और यह रुपये तुम्हें देने होंगे.’’

सुना तो रामनिझावन तो जैसे आसमान से गिर पड़ा. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था... ये क्या कह रहा है गोपाल? इत्ते रुपये तो उसने अपनी ज़िजंदगी में कभी देखे ही नहीं. इसे कहां से लाकर दे? गुमसुम-सा वह गोपाल का मुंह ही देखता रहा.

‘‘मेरा मुंह क्या ताक रहे हो... सुना नहीं क्या कि मुझे रुपये चाहिए पचास ह़जार. तय कर लिया है मैंने. मुझे बीच बा़जार में दुकान


खोलनी है एक. शहर के एक-दो लोगों से बात भी कर ली है. वह तीन महीने की उधारी पर सामान देने को तैयार हैं... पर बेचने के लिए दुकान तो चाहिए. आज बड़े बा़जार में एक छोटी-सी दुकान भी खरीदो तो पचास ह़जार से कम में नहीं मिलेगी.’’

‘‘गोपाल!’’ राम निझावन कुछ ऐसे बोला मानो विश्वास करना चाह रहा हो कि सामने बैठा यह आदमी उसी का बेटा है. फिर धीरे से बोला, ‘‘बेटा, पांच सात बरस में पइसा-कौड़ी का हिसाब तोहार हाथन में ही तो रहा. अनाज तू बेचत रहा. खाद-बीज तू खरीदन रहा... अउर घरौ तू ही ते चलावत रहा. अइसे में हमरे पास पइसा कहां...’’

‘‘जानता हूं... जानता हूं. तुम्हारे पास पचास रुपये क्या पचास पैसे भी नहीं मिलेंगे और हिसाब-किताब रखने से क्या होता है? इस बित्ते भर की खेती से तो पेट भर लेते थे सो ही बड़ी बात. कोई काम है यह भी. पर मुझे तो पैसा चाहिए ही चाहिए. बस, यह कह दिया मैंने.’’

क्षण भर को दोनों चुप और फिर गोपाल ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘रुपये नहीं हैं तो बस फिर एक ही उपाय है. बीच बा़जार में बनो उस प्याऊ को हटाकर मैं दुकान खोल लेता हूं उस जगह. दुकान के लिए इससे अच्छी जगह तो और कोई हो ही नहीं सकती.’’

‘‘गोपाऽऽल!’’ अपनी सारी ताकत लगा कर ची़ख पड़ा रामनिझावन.

‘‘ई प्याऊ नही रे! इ तो निसानी है हमार बेटवा की... हमार गोविंदा की... तोहार बड़ा भाइयां तो रहा ऊ... अउर तू है कि...’’ और आवा़ज भरभरा कर टूट गयी उसकी.

‘‘अरे जब था तब था. पच्चीस बरस हो गये उसे मरे खपे. अब क्या सारी ज़िंदगी उसे छाती से चिपकाये ही बैठा रहूंगा?’’

‘‘ई का कहत है रे तू... अइसी बात न बोल...न...’’

बात बीच में ही काटकर गोपाल बोला, ‘‘तुम्हारा बस चले तो तुम तो उस मरे बेटे के लिए अपने इस ज़िंदा बेटे को मार दो.’’ 

दोनों हाथों से बरजता हुआ, अंसुवाई आंखों से गिड़गिड़ाते हुए राम निझावन ऐसे बोला मानो याचना कर रहा हो. 

‘‘न बोल अइसी बात... न बोल रे अइसी बात. आज तू ही तो हमार सब कुछ है... तू अउर तोर बेटवा हो तो जिनगी है हमार... ई तू काहे समझत नाहीं रे!’’

‘‘अच्छा. ़िजंदगी हूं तुम्हारी तो बस प्याऊ सुपुर्द कर दो मेरे.’’

रामनिझावन बोले तो क्या बोले? उस बेचारे से तो न बोलते बने, न प्याऊ देते बने! हाथ जोड़कर किसी तरह इतना ही कह पाया, ‘‘बेटा, ई प्याऊ न तोहरी कमाई से बनी, न हमरी कमाई से. ई तो गोविंदा की मौत की कमाई से बनी. तू ही सोच ई पर कइसे ह़क जमा सकित हैं हम?’’

इस बार भन्ना गया गोपाल. सोच रहा था कि उसकी बात, उसकी ़जरूरत सुन-समझ कर राजी हो जायेगा. दद्दा पर ये तो उस मरे बेटे को ही छाती से चिपकाये बैठा है. धिक्कार भरे स्वर में बोला, ‘‘अरे, बरसों हो गये उसकी मौत को और मौत की कमाई को. आज तो वह सब किसी को याद भी नहीं होगा, आज तो हमीं मालिक हैं उस प्याऊ के. हम जो चाहे करें.’’

‘‘बेटे की बात छोड़... यही समझ कि प्यासन को पानी पिलाई के तो धरम होत है... पुन्न मिलत है तू काहे...’’

बात बीच में ही काटकर बड़े व्यंग्य से बोला गोपाल, ‘‘धरम... पुन्न... ये सब रईसों के चोंचले हैं... मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा ये धरम-पुन्न! मुझे तो अपनी दुकान के लिए बस प्याऊ चाहिए.’’

‘‘आपन खातिर ज़िंदा तो सबै रहत हैं बेटा पर मानुस जनम लेकर दूसरन की खातिर भी कछु करैका चाही के ना?’’

‘‘अपना ठौर-ठिकाना नहीं और दूसरे की खातिर करने चले हैं. बहुत कर लिया दूसरों के लिए. अब तो जो कुछ करना है मुझे अपने लिए करना है. सोचा था मेरी जरूरत समझ कर तुम खुशी-़खुशी दे दोगे प्याऊ. पर तुम नहीं देने वाले तो इतना समझ लो कि लेना मुझे भी आता है. देखता हूं कौन रोकता है मुझे और कैसे रोकता है?’’ और गुस्से से दनदनाता हुआ गोपाल बाहर निकल गया.

रामनिझावन को जैसा सदमा गोविंद की लाश को देखकर लगा था, वैसा ही सदमा गोपाल की बातें सुनकर लगा. उसे तो बिजली के तार ने मार दिया था, पर उसे? गोविंद की दैहिक मौत थी! गोपाल की आत्मा मर चुकी है ! यह सवाल बड़ा है कि गोविंद को तो बिजली के तार ने मार दिया था पर गोपाल को किसने मारा? उसकी चुनौती से सिहर कर बेहद लाचार, बेबस रामनिझावन ने घुटनों में सिर छिपा लिया.

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बाहर निकल कर गोपाल सीधा अपने उन दो दोस्तों के पास गया, जिन्होंने कमीशन पर उधारी में सामान दिलवाने का जुगाड़ कर रखा था. वे उसी का इंत़जार कर रहे थे. उसे देखते ही पूछा — ‘‘क्या हुआ, मिल जायेगी प्याऊ?’’

गुस्से से भन्नाये हुए गोपाल ने गरदन झटक कर कहा — ‘‘बहुत कहा, समझाया, अपनी ़जरूरत बतायी पर मानता ही नहीं बुढ़ऊ. बैठा रहने दो उसे अपने मरे बेटे और धरम-पुन्न को छाती से चिपकाये-चिपकाये. चलो मेरे साथ... मैं ठिकाने लगाता हूं... उसका पुन्न प्रताप! आ़िखर क्या बिगाड़ लेगा वह मेरा...’' और अपने दोनों दोस्तों को लेकर एक दृढ़ संकल्प के साथ वह प्याऊ की ओर बढ़ गया!  

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