30 नवंबर, 2011

यूरोप के एक विफल क्रांतिकारी से : वाल्ट व्हिटमन


अमेरिका में मुक्त छंद के पिता माने जाने वाले कवि वाल्ट व्हिटमन ( मई 31, 1819 – मार्च 26, 1892) कवि होने के साथ एक निबंधकार और पत्रकार भी थे. अपने समय के सर्वाधिक प्रभावशाली कवियों में से एक व्हिटमन अपनी रचनाओं के कारण विवादों में भी रहे. 'लीव्स ऑफ़ ग्रास' उनका सर्वाधिक चर्चित और विवादित कविता संग्रह है . प्रस्तुत है, इसी कविता संग्रह से उनकी एक कविता, ' यूरोप के एक विफल क्रांतिकारी से ' का हिंदी अनुवाद :


यूरोप के एक विफल क्रांतिकारी से

(वाल्ट व्हिटमन)


फिर भी साहस रखो, मेरे बन्धु या मेरी बहन !
लगे रहो – स्वाधीनता की सेवा करनी है, जो भी घटित हो;
कुछ भी नहीं है वह जो एक या दो विफलताओं से या कितनी ही विफलताओं से,
या जन की उदासीनता या कृतघ्नता से या किसी विश्वासघात से,
या शक्ति के लम्बे तेज़ दाँतों के प्रदर्शन से, सैनिकों से, तोपों से, दण्ड के विधानों से दब जाए।

हमारी जो आस्था है, वह सारे महाद्वीपों में सदा-सदा के लिए अप्रकट प्रतीक्षा करती है,
किसी को आमंत्रित नहीं करती, कोई वचन नहीं देती, शान्ति और प्रकाश में स्थित रहती है,
आश्वस्त और स्थिर-चित्त कोई निराशा नहीं जानती है,
धैर्य से प्रतीक्षा करती है, अपने समय की प्रतीक्षा करती है।
( ये केवल निष्ठा के ही गान नहीं, किन्तु विद्रोह के भी गान,
क्योंकि मैं सारी दुनिया में प्रत्येक निर्भीक विद्रोही का प्रतिश्रुत कवि हूँ,
और जो मेरे साथ चलता है, वह शान्ति और लीक अपने पीछे छोड़ देता है,
और किसी क्षण अपने जीवन को ख़ोने का ख़तरा मोल लेता है।

अनगिनत आवाहनों के बीच,
और बार-बार आगे बढ़ने और पीछे हटने के बीच
घमासान युद्ध चलता रहता है,
निष्ठाहीन विजयी होता है,
या मान लेता है कि वह विजयी है,
बंदीगृह, फाँसी का तख़्ता, फंदा, हथकड़ियाँ, लोहे के हार, सीने की गोलियाँ अपना काम करती है,
नामी और गुमनाम शूर दूसरे लोकों को चले जाते हैं,
जो महान वक्ता और लेखक थे, देश से निश्कासित होते हैं, दूर के देशों में वे रूग्ण पड़े होते हैं,
लक्ष्य सो जाता है, सबलतम कंठ को अपने ही रक्त से रुद्ध कर दिया जाता,
युवाजन मिलने पर अपनी पलकें भूमि पर नीचे झुका देते हैं,
किन्तु इस सबके बावजूद स्वाधीनता अपने स्थान से स्खलित नहीं होती
और निष्ठाहीन पूर्ण प्रभुता स्थापित नहीं कर पाता।

स्वाधीनता जब अपने स्थान से स्खलित होती है,
जाने वालों में वह पहली या दूसरी या तीसरी नहीं होती,
वह अन्य सबके चले जाने की प्रतीक्षा करती है, अंतिम वह होती है।

शूरों और शहीदों की यादें जब नहीं रह जाएँगी,
और जब सारा जीवन और पुरुष और स्त्रियों की सारी आत्माएँ
पृथ्वी के किसी भाग से विसर्जित हो जाएँगी,
तभी केवल स्वाधीनता या स्वाधीनता का विचार पृथ्वी के उस भाग से विसर्जित हो पायेगा।
इसलिए साहस रखो योरप के विद्रोही, विद्रोहिणी !
क्योंकि जब तक सबकुछ का अंत नहीं हो जाता, तुम्हारा भी अंत नहीं संभव है।

मुझे मालूम नहीं तुम क्या चाहते हो
( स्वयं मुझे, स्वयं नहीं मालूम मैं क्या चाहता हूँ या किसी भी अन्य चीज़ का लक्ष्य क्या है ? )
किन्तु मैं विफल होकर भी सावधानी से उसकी खोज करता जाऊँगा,
पराजय, दैन्य, क्रान्ति और क़ैद में भी करूँगा-क्योंकि वे भी महान हैं।

क्या हमने विजय को महान समझा..?
बेशक, वह है- किन्तु अब मुझे प्रतीत होता है कि जब अनिवार्य हो जाए,
पराजय भी महान होती है।
और यह कि मृत्यु और कातरता महान होती है।

(अनुवादः चन्द्रबली सिंह)

साभारः वाल्ट व्हिटमन की कविता संचयन ‘घास की पत्तियाँ’ से

31 अक्तूबर, 2011


संघ राम की अंगूठी नहीं पहचानता

प्रियदर्शन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता नहीं, अपने एक नेता, हरबंस लाल ओबेरॉय की अब याद होगी या नहीं। उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया था- उन्होंने दुनिया भर से रामकथाओं से जुड़ी तस्वीरों और पोस्टरों का संग्रह इकट्ठा किया था। वे उनकी प्रदर्शनी भी लगाया करते थे। इन्हीं प्रदर्शनियों की मार्फत हमें पहली बार यह बात समझ में आई कि रामकथा कोई एक कथा नहीं है, राम की कई कथाएं हैं जो एक-दूसरे से कहीं-कहीं नितांत भिन्न भी हैं। उन्हीं दिनों यह समझ भी बनी कि राम की स्मृति का वितान इस देश में बहुत बड़ा है। रामकथा सिर्फ वाल्मीकि या तुलसी ने नहीं लिखी है, और भी कई-कई लोगों ने कई-कई भाषाओं में लिखी है, और यह कहानी जितनी लिखी जाती रही है, उससे ज़्यादा कही जाती रही है। यही नहीं, यह कहानी जितनी बार लिखी और कही गई, उतनी बार बदलती भी रही। राम, लक्ष्मण और सीता के सिर्फ़ किरदार ही नहीं बदले हैं, उनके आपसी रिश्ते भी बदले हुए हैं। कुल मिलाकर रामकथा लोकस्मृतियों में कई रूपों में मौजूद है- बताती हुई कि ढाई हज़ार वर्षों के दौरान भारतीय मानस पर उसकी छाप कितनी गहरी पड़ी है- सबके अपने-अपने राम हैं, सबकी अपनी-अपनी रामकथा है।



हरबंसलाल ओबेरॉय की तस्वीरों का वह संग्रह, अब पता नहीं कहां है और किस हाल में है। एक बात साफ़ है कि संघ में दीक्षित होने के बावजूद हरबंस लाल ओबेरॉय के भीतर वह धार्मिक इकहरापन नहीं रहा होगा जो उन्हें राम के एक ही रूप की अभ्यर्थना के लिए मजबूर करता। यह भी संभव है कि हिंदुत्व के इकहरे प्रतिमानों में फंसा संघ ख़ुद भी उस मिथक संसार की जटिलता समझने में नाकाम रहा हो जिससे उसकी अपनी विचारधारा को चुनौती मिलती। शायद यह अस्सी के दशक में छेड़ा गया राम मंदिर आंदोलन था जिसने पहली बार संघ परिवारियों का ध्यान इस तरफ खींचा कि न हिंदुत्व के बहुत सारे संस्करण होने चाहिए और न ही राम की बहुत सारी छवियां होनी चाहिए- बस एक ही हिंदुत्व और एक ही राम चाहिए जिसे अपनी राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से युद्धभूमि में उतारा जा सके।



इत्तिफाक से 1987 में, जब संघ परिवारी राम की एक ऐसी योद्धा छवि बनाने और अपने इकलौते मंदिर के लिए रामनामी ईंटे जुटाने में लगे थे, तभी लेखक और विद्वान एके रामानुजन का लेख, ‘थ्री हंड्रेड रामायंस, फाइव एग्जैम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन’ पहली बार सामने आया। स्मृति, जनश्रुति, इतिहास, मिथक और चेतना को एक साथ समायोजित करता, रामकथा की लिखित और वाचिक परंपराओं को ‘टेलिंग’ यानी किस्सागोई की तरह देखता यह अनूठा लेख बताता है कि राम कितने बड़े हैं, कितनी तरह के हैं और कितने आयामों और युगों में फैले हैं। इस लेख को पहली बार पढ़ते हुए मुझे हरबंसलाल ओबेरॉय याद आए जिनके पास भी राम की कई छवियां थीं और एक छवि उस कथा की भी थी जिसमें राम-सीता भाई-बहन बताए गए थे।



इस लेख की खूबी यही नहीं है कि इससे हमें रामकथा के विविध रूपों की जानकारी मिलती है, बल्कि यह भी थी कि इससे इतिहास और परंपरा के बारे में हमारी दृष्टि कुछ साफ होती है। इसे उचित ही, दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए, इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लेकिन 2008 में संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने इस नितांत सहिष्णुतापूर्ण लेख पर भी एतराज और हंगामा किया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस लेख पर राय मांगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पर चार विशेषज्ञों की कमेटी बनाई जिनमें से तीन ने साफ तौर पर इस लेख को बेहद महत्त्वपूर्ण बताते हुए पाठ्यक्रम के लिहाज़ से भी ज़रूरी बताया। सिर्फ चौथे विद्वान की इस पर असहमति थी। कायदे से इस पर बहुमत से फ़ैसला होना चाहिए था, लेकिन हुआ नहीं। एकैडमिक काउंसिल ने लेख के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। एकैडमिक काउंसिल के सिर्फ नौ सदस्य इस लेख के पक्ष में खड़े हुए, बाकी या तो ख़िलाफ़ दिखे या फिर खामोश, इस मासूम से लगने वाले बहाने के साथ कि इस राजनीति में उन्हें नहीं पड़ना है। इस तरह एक बहुत ही समृद्ध, शोधपूर्ण, बहुलतावादी और अपनी प्रकृति में नितांत समन्वयकारी पाठ दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अस्पृश्य हो गया।



यह शर्मनाक है और डरावना भी। यह हमारे समय और समाज में बढ़ रही अपढ़ता और असहिष्णुता दोनों का सूचक है। इसमें शक नहीं कि रामानुजन के लेख का विरोध करने वाले ज्यादातर लोगों ने वह लेख पढ़ा ही नहीं होगा। वह सलमान रुश्दी की रचनाओं की तरह किसी मान्यता को चिढ़ाने वाला लेख नहीं है और न ही तसलीमा नसरीन के लेखों की तरह किसी आक्रोश से भरा हुआ, वह बस एक सुंदर और सहिष्णु लेख है जिसे बहुत मेहनत और शोध से तैयार किया गया और जिसे पढ़ते हुए रामकथा या रामकथाओं की विराटता के प्रति सम्मान ही पैदा होता है। लेकिन खुद को रामभक्त और संस्कृति का पहरेदार बताने वाली ताकतों को ऐसे राम नहीं चाहिए क्योंकि वे उनकी क्षुद्र राजनीति के दायरे में समाते नहीं। हरबंसलाल ओबेराय आज इस अगर इस संघ परिवार में बचे होते तो ख़ुद को एकाकी और कई तरह के हमलों के बीच असुरक्षित पाते।



यह रामानुजन प्रसंग इस बात की नए सिरे से पुष्टि है कि विचार और अभिव्यक्ति की जो बुनियादी स्वतंत्रता है, उस पर हमले तीखे हुए हैं। असहिष्णु ताकतें अपना दाय़रा लगातार बढ़ा रही हैं और इसकी जद में आकर वे सारे उदार-अनुदार, सायास-अनायास पाठ कुचले जा रहे हैं जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। रामानुजन का लेख इसकी ताज़ा कड़ी भर है। ऐसी ही ताकतों के दबाव में इसके पहले मुंबई विश्वविद्यालय से रोहिंटन मिस्त्री के उपन्यास ‘सच अ लांग जर्नी’ को हटाया गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने मक़बूल फिदा हुसेन जैसे गंगा-जमनी ही नहीं, कई और रंगों और परंपराओं की तूलिका साधने वाले कलाकार की पेंटिंग्स जलाईं और आखिरकार 90 पार की उम्र में उन्हें देश से बाहर रहने और वहीं मरने पर मजबूर किया। इन्हीं लोगों ने एक दौर में हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले किए। यही लोग कश्मीर पर अलग राय रखने की वजह से प्रशांत भूषण के साथ हाथापाई करते हैं और अंत में ऐसे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन का लेख हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकी भी देते हैं कि उनसे अपने ढंग से निबटा जाएगा।



यह एक ख़तरनाक चलन है जो पूरे समाज पर अपनी तरह का सतहीपन लादना चाहता है। कविता, कहानी, लेख, विचार और शोध में उसे वही मंज़ूर है जिससे सपाट, अप्राश्नेय और अतार्किक किस्म की दक्षिणपंथी मूल्य संहिता की पुष्टि होती हो। सौंदर्य, सरोकार और बहुलता जैसे इसके लिए अजनबी शब्द हैं।



एके रामानुजन का लेख हनुमान की कहानी से शुरू होता है जो राम की खोई हुई अंगूठी खोजने निकले हैं। पाताल का राजा एक थाली में ढेर सारी अंगूठियां लेकर आता है और कहता है कि हनुमान अपने राम की अंगूठी खोज लें। हनुमान यह देखकर हैरान हैं कि सारी अंगूठियां राम की हैं। पाताल लोक का राजा बताता है कि वाकई जितनी अंगुठियां हैं, उतने राम हुए हैं। जब वह अपना समय पूरा कर लेते हैं तो उनकी अंगूठी उनके हाथ से निकल कर पाताल में पहुंच जाती है जिसे वह संभाल कर रख लेता है। इसके बाद दूसरे राम आते हैं और दूसरी अंगूठी आती है।



लेकिन संघ परिवार को राम की यह न ख़त्म होने वाली परंपरा मंज़ूर नहीं। वह अपने एक राम के पीछे पड़ा है और उसकी अंगूठी भी ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। वह जैसे सारी अंगूठियां छीन कर छुपा लेना चाहता है। वह राम को लोकस्मृति और परंपरा की ज़मीन से उठाकर अपनी विचारधारा के दुर्ग में कैद करना चाहता है। लेकिन इससे राम दूर चले जाते हैं। डर बस इतना है कि वे इतने दूर न चले जाएं कि फिर लौट कर आ भी न सकें। अगर हम चाहते हैं कि राम लौटें तो हमें पहले रामानुजन को लौटाना होगा।

20 अक्तूबर, 2011

अन्धा युगः टूटे पहिए के साथ उलटा पड़ा समय का रथ

संगम पांडेय

फिरोजशाह कोटला के विस्तृत परिसर के मध्य मंच के पीछे पेड़ों के झुरमुट, भग्न दीवारें और एक विशाल दरवाज़ा दिखाई पड़ता है। युद्ध में घायल लोग कमर पकड़े, करहाते, लंगड़ाते किसी के कंधे पर लदे इस दीवार पर पीछे से चले आ रहे हैं। सत्रह दिन के युद्ध के बाद यह मंजर है कौरव नगरी का। अंधे धृतराष्ट्र छू-छूकर जान रहे हैं घायलों की पीड़ा। इस दीवार के पीछे से कुछ देर बाद युयुत्सु का प्रवेश होता है। अभागा युयुत्सु जिसने महाभारत युद्ध में सत्य का साथ देना चुना। आज वह अकेला बचा है। यह कौरव पुत्र अपनों की ही घृणा का शिकार है। इसी दीवार से सटे मुख्य मंच पर धृतराष्ट्र, गांधारी और विदुर दिखते हैं, लेकिन यह सिर्फ़ मंच का एक छोर है। दूसरा छोर ऊबड़खाबड़ पत्थरों के बीच एक गुफा है, जहाँ कुछ देर बाद नरपशु बन चुका अश्वत्थामा वृद्ध याचक की हत्या करेगा। इन दोनों छोरों के बीच रुके हुए समय का रथ अपने टूटे पहिए के साथ उलटा पड़ा है।
साढ़े छह सौ साल पुराने फिरोजशाह कोटला के भग्नावशेषों में इन दिनों खेले जा रहे नाटक ‘अन्धा युग’ में मूल आलेख की मुद्रा कुछ बदली हुई है। यह धर्मवीर भारती के आलेख से निकाला हुआ निर्देशक भानु भारती का पाठ है। आस्था और अनास्था के उप पाठों में जटिल होते आशय को भानु भारती ने उसी तरह सीधा किया है जैसे कभी मॉर्क्स ने हीगेल की ‘द्वंद्वात्मक आदर्शवाद’ की दार्शनिक अवधारणा को किया था, जिस तरह सुकरात के बारे में कहा जाता है कि उसके सवाल अपनी दुनिया में जी रहे लोगों को असमंजस में डाल देते थे। वैसा ही कुछ काम ‘ अन्धा युग ’ भी करता है। वह जीवन की तर्कहीनता पर अपने प्रतितर्कों के जरिए एक विलक्षण नाटकीयता पैदा करता है।
भानु भारती उसे पुनर्गठित करने के क्रम में इस नातकीयता को दरकिनार करने का जोखिम लेते हैं। फिर वे एक बड़े मंच के फैलाव में विषय के तनाव को सतत बनाए रखने का मुश्किल काम चुनते हैं। अपनी प्रश्नाकुलता में निरंतर व्यग्र पाठ को वे हमारी समकालीन दुनिया के वास्तविक सवालों के परिप्रेक्ष्य में स्थिर करने की कोशिश करते हैं। इस क्रम में नाटक के अंतिम दो अंक प्रस्तुति में नाममात्र के हैं और आस्था के विवादित केन्द्र कृष्ण एक गौण पात्र।
भानु भारती किसी पारलौकिक संदर्भ से ज्यादा तवज्जो वस्तुजगत को देते हैं। वे मनुष्यता की त्रासदी में विडंबनाओं के रहस्य से ज्याद स्वार्थ के अन्धेपन से उपजी व्यक्ति की हिंसा और प्रतिहिंसा को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति , जिसका इलहाम धृतराष्ट्र की तरह का है जिसे नहीं पता था कि वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी कोई सत्य हुआ करता है। तटस्थ दृष्टा संजय उनकी प्रस्तुति का केन्द्रीय किरदार है। लेकिन उसके चरित्र की अनाटकीयता मंच पर सबकुछ के बाद भी उसे बहुत प्रमुख नहीं बनने देती। इस भूमिका में जाकिर हुसैन अपने साफ़-सुथरे वाचिक के बाद भी दर्शकों का बहुत ध्यान नहीं खींच पाते हैं।
मंच और आसपास का परिवेश एक पूरी दुनिया बनाता है। मंच पर घटित हो रहे दृश्य धीरे-धीरे इस दुनिया का हिस्सा बनते जाते हैं। भीम के छल से युद्ध में पराजित दुर्योधन के शव को झाड़ी के पीछे कुछ पशु घसीट ले गए हैं। कृतवर्मा और कृपाचार्य उसे ढूँढ़ रहे हैं। पूरा दृश्य कुछ देर के लिए दर्शकों को एक स्तब्धता में डाल देता है। मानो सचमुच दुर्योधन वहाँ हो.., जिसे वहीं जाकर देखने की एक हठात उत्कंठा स्तब्धता के इस क्षण में कहीं से उठती है।
नाटक का अश्वत्थामा मंच पर शीद्दत के साथ दिखाई देता है। उसकी प्रतिहिंसा हो या गांधारी के संवादों की, लगता है भानु भारती अपनी प्रस्तुति में उनके चरित्रों के तनाव को एक ऊँचाई पर ले जाकर उनका या दर्शकों का भाव विरेचन करते हैं। हालाँकि गांधारी की भूमिका में उत्तरा बावकर के स्वर की तल्खी में उतार-चढ़ाव की किंचित कमी मालूम देती है। लेकिन कृष्ण द्वारा शाप को कबूल कर लिए जाने के बाद के विलाप में इसकी क्षतिपूर्ति करती हैं।
एक बड़े कैनवास पर और सामान्य से कहीं ज्यादा दूर घटित होते दृश्यों में आंगिक अभिनय वाचिक के सहयोग की कुछ जयादा दरकार रखता है। यहाँ ध्वनियाँ प्रोसिनियम से कुछ अलहदा प्रभाव लिए हैं। आधुनिक उपकरण उन्हें एक मेटेलिक रंगत दे देते हैं। धृतराष्ट्र की भूमिका में वरिष्ठ रंगकर्मी मोहन महर्षि स्वर का ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर पाए हैं। लेकिन जाहिर है आलेख के संपादन में धृतराष्ट्र की भूमिमा कुछ सीमित हो गई है। प्रस्तुति के बड़े स्पेस में संगीत, कोरस, प्रकाश योजना आदि के जरिए निरंतर एक ऎसी गति बनी रहती है, जो देखने वाले को बहुत मोहलत नहीं देती। इसके लिए प्रकाश परिकल्पक आर.के. धींगरा और संगीत डिजाइन करने वाले नवनीत वधवा ने निश्चित ही काफी मेहनत की है।
अश्वत्थामा की भूमिका में टीकम जोशी एक अच्छी ऊर्जा के साथ प्रस्तुति में हैं। उनके अलावा विदुर की भूमिका में रवि खानविलकर, वृद्ध याचक बने रवि झांकल, कृपाचार्य बने गोविंद पान्डे, कृतवर्मा की भूमिका में दानिश इकबाल भी ठीक ठाक हैं। गोविन्द और दानिश ज्यादा नजदीक से दर्शकों को दिखते हैं, जबकि प्रहरी बने अमिताभ श्रीवास्तव और कुलदीप सरीन दूर दीवार पर हैं। यह बात उनकी उपस्थिति के प्रभाव पर एक निश्चित असर डालती है। मूल आलेख के युधिष्ठिर , बलराम और कृष्ण हंता व्याध के चरित्र संपादन की वजह से प्रस्तुति का हिस्सा नहीं बन सके हैं। इसके अलावा ‘प्रभु’ हूँ या परात्पर, पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माँ हो, जैसे संवाद में ओमपुरी का स्वर भी कुछ भारी लगता है।
साभारःजनसत्ता

20 सितंबर, 2011

यस.., वी आर गिल्टी



‘यस.., वी आर गिल्टी’ नाटक का मंचन 18 सितम्बर को माई मंगेशकर सभागृह (इन्दौर) में हुआ। यह नाटक मूल रूप से मराठी भाषा में लिखा गया है। श्री अनिल सोनार द्वारा लिखित इस नाटक का हिन्दी में अनुवाद श्रीयुत श्रीकांत आप्टे ने किया है। नाटक का कथानक मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी (पति)- अलका नाडकर्णी (पत्नी) के दाम्पत्य जीवन के इर्द-इर्द बुना गया है। दिनेश और अलका ने आपस में प्रेम विवाह किया है।


दिनेश नाडकर्णी एक बड़ी कम्पनी में काम करता है। वह महीने में क़रीब अठराह-बीस दिन कम्पनी के काम से शहर से बाहर दौरे पर रहता है और ऎसा एक महीने या दो महीने नहीं होता है, बल्कि शादी के तीन साल बाद से ही शुरू हुआ यह सिलसिला सात साल तक हर महीने यूँ ही चलता रहता है। निःसन्तान पत्नी अलका अकेली फ्लैट पर रहती है। वह अकेली ऊबे नहीं..इसलिए पति दिनेश उसे शहर के एक क्लब की सदस्यता दिला देता है। अलका जब भी ऊब महसूस करे क्लब चली जाया करती। क्लब में सभी तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान होती है। उसकी जान-पहचान का दायरा बढ़ता रहता है। व्यावसायियों से… बड़े-बड़े अधिकारियों से…और समाज के ऎसे कई लोगों से उसकी पहचान होती है… जिनके ईशारों पर शहर चलता है। पहचान धीरे-धीरे उस रिश्ते में बदल जाती है…. जिसे समाज में खुले रूप से स्वीकार करने की ताक़त किसी में नहीं है। न मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी में और न ही अलका के साथ रिश्ता जोड़ लेने वाले किसी भी उच्च मध्यमवर्गीय में।
जब दिनेश कम्पनी के काम से बाहर दौरे पर जाता रहता है। तब अलका क्लब जाती है। क्लब में शराब पीती है। ….और जब दिनेश बाहर रहता है… अलका अपने पति की ग़ैर मौजूदगी में अपने ही फ्लैट में अलग-अलग पुरुषों के साथ संसर्ग भी करती है। शराब और संसर्ग की वह आदि हो जाती है।
दस साल के दाम्पत्य जीवन में कभी दिनेश को यह एहसास नहीं होता है कि अलका के संबन्ध किसी ग़ैर मर्द से भी है, बल्कि कई मर्दों से हैं। लेकिन जब एक बार उसका दौरा स्थिगत हो जाता है.. और वह फ्लैट पर जल्दी लौट आता है… तब अपने फ्लैट में किसी दूसरे पुरुष को देखता है और अलका के दुष्चरित्र के बारे में सबकुछ जान लेता है…. तब वह एक आम आदमी की तरह का ही व्यवहार करता है। पहले तो ग़ैर पुरुष के साथ उसकी धक्का-मुक्की होती है। ग़ैर पुरुष फ्लैट से अपनी जान बचा भागने में सफल हो जाता है.. तब अलका के साथ बातचीत शुरू होती है। अलका निर्लज्जता से बताती है कि वह यह सब पिछले सात साल से कर रही है। अलका का यह रूप दिनेश बर्दाश्त नहीं कर पाता है…और वह अपना आपा खो बैठता है। वह अलका को गला घोट कर ख़त्म कर देता है। कुल जमा घटनाक्रम इतना ही है।
इस नाटक में असाधारण कुछ भी नहीं है। इसमें पति-पत्नी के रिश्ते की असीम व्याख्या करने वाली बहस, द्वन्द, कल्पना, मूल्यों और मान्यताओं से टकराव बिल्कुल नहीं हैं। इसमें दुख और सुख की पराकाष्ठा भी नहीं है। फिर भी लेखक को इस साधारण-से और बहुत आम विषय पर नाटक लिखने की ज़रूरत महसूस हुई। लिखा भी। पर लिखते वक़्त लेखक के मन में साधारण को असाधारण बनाने की बात रही होगी। शायद इसीलिए लेखक ने नाटक में दिनेश नाडकर्णी (रत्नेश रूप) के दोस्त के रूप में मक़बूल शेख (राघवेन्द्र सिंह राजावत) को, अलका नाडकर्णी (ज्योति गोस्वामी) की परिचित के रूप में रत्नमाला विभांडिक (यामिनि सोनवणे), पुरुष (प्रेम उपाध्याय), गोरखा (चैतन्य शाह), टेक्सी ड्रायवर (पुनीत शर्मा), परिवार के डॉक्टर के रूप में डॉ. संचेती (जय पंजवानी), इंस्पेक्टर (रवि जोशी), चपरासी (रोमी सेन) को शामिल किया होगा। इसे विश्वसनीय बनाने का भरसक प्रयास करते हुए और गहरे रहस्यात्मक ढंग से लिखने की कोशिश की गयी। कहने का मतलब यह कि एक आसान से विषय को एक ख़ास अंदाज़ से नाट्य रूप में प्रस्तुत करने में कोई कसर न रहे….ऎसा प्रयास लेखक ने ईमानदारी से किया।

इस नाटक का निर्देशनः राजन देशमुख ने किया। पारखी दर्शकों के लिए निर्देशकीय कमजोरी खोजना टेढ़ी खीर था। मंच प्रबन्ध सतीश फालके और उनके साथियो ने किया था…जो नाटक की ज़रूरत के मुताबिक एकदम ठीक था। संगीत संयोजन, ध्वनि नियंत्रण, मंच सज्जा, रंगभूषा, वेशभूषा और प्रकाश व्यवस्था में भी कोई ज्यादा खोट नहीं निकाली जा सकती। इनमें छोटी-मोटी खोट गिनाने का कोई औचित्य भी नहीं है। इनमें छोटी-मोटी कमी रह जाने से भी नाटक की सेहत पर कोई ज्यादा ख़राब असर नहीं पड़ता है। हालाँकि इस नाटक में यह सभी पहलू उतकृष्ट थे।
मुझे लगता है किसी भी नाटक को कितने भी कम या ज्यादा संसाधनों के साथ खेला जाये। नाटक में दर्शक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात होती है, स्क्रिप्ट, अभिनय और निर्देशन। जब मंच पर स्क्रिप्ट में लिखी हर-एक चीज़ मौजूद होती है। वेशभूषा से लेकर.. संगीत, प्रकाश और सबकुछ ज़रूरत के मुताबिक होता है…. मंच पर जितनी ज्यादा चीज़े उपलब्ध होती है…..कलाकार को अभिनय करने का उतना ही कम अवसर मिलता है। कलाकार सिर्फ़ संवाद को भावनात्मक रूप से संप्रेषित करने का काम करता है।
मैं समझता हूँ कि किसी भी नाटक के सफल होने में दो चीज़ों का ख़ास योगदान होता है। पहली नाटक की स्क्रिप्ट ‘जो सामाजिक चेतना को विकास करने वाली होना चाहिए’ और दूसरी अभिनय। मैं महज ताली बटोरने और मुँह देखी वाह..वाही करने वाली स्क्रिप्ट की बात नहीं कर रहा हूँ। किसी नाटककार का यह मक़सद होता भी नहीं है। अगर यह मक़सद हो तो सबसे ज्यादा ताली और वाह..वाही मसखरों की प्रस्तुति से मिलेगी.. जो आसानी से किया जाने वाला काम है। नाटक करना एक गम्भीर काम है, इसलिए नाटककार का काम कोरी वाह..वाही और तालियों से नहीं चलता है। हाँ.. तालियों और वाह..वाही से उसका हौसला ज़रूर बढ़ता है।
लेकिन नाटककार चाहेगा कि उसका नाटक समाज की जड़ता, रूढी, कुन्ठा, कुप्रथा, छद्म, पुराने मूल्यों और मान्यताओं पर प्रहार करे। समाज में व्याप्त बुराइयों और ज्वलंत समस्याओं से टकराये। समाज में समस्याओं से जूझने की चेतना फूँके… उनसे बचाने का रास्ता खोजे। अन्ततः नाटक करना समाज को साँस्कृतिक दृष्टि से बेहतर बनाने का एक स्वप्न है, जिसे खुली आँखों से देखना है और इसे साकार करने के लिए बेहद ज़िम्मेदारी से सतत साँस्कृतिक कर्म करते रहना ज़रूरी है।
यह लेखक की ही ज़िम्मेदारी है कि नाटक में जो भी ज्वलंत समस्या उठायी गयी है… दर्शकों के सामने उसका हल भी प्रस्तुत करे। हल प्रस्तुत न करने की समाज की चेतना जहाँ रूक गयी है.. वहाँ से आगे के रास्ते पर रोशनी बिखेरे। अगर समस्या बहुत भयावह, जटिल और उलझाव भरी है। उसे सुलझाने की उक्ति नाटककार को भी सूझ-समझ नहीं आ रही है… वह कोई उत्कृष्ट हल प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है….ऎसी स्थिति में समस्या से लड़ने-भिड़ने का लाजवाब जज्बा पैदा करे। सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करने की असहनी बेचैनी समाज में पैदा करे। क्योंकि किसी भी स्थिति में नाटककार को समाज को गुमराह करने की जरा भी नैतिक छूट नहीं होती है।
नाटक में अगर कोई समस्या उठायी गयी है.. तो लेखक की ही नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह उस समस्या का हल खोजे। ध्यान रहे कि खोजा गया हल नयी समस्या नहीं हो। अगर समस्या का हल दूसरी समस्या है.. तो वह हल नहीं… नयी समस्या है और ऎसी स्थिति में समाज एक साथ पुरानी और नयी दोनों समस्याओं को झेलने को अभिशप्त होता है। समाज को ऎसी स्थिति में धकेलने के लिए नाटककार ज़िम्मेदार होता है। क्योंकि नाटक ऎसी विधा है.. ‘जो उत्कृष्ट अभिनय के मार्फत दर्शक के मन पर सीधा असर करती है। उसे उद्वेलित करती है। उसे समास्या से लड़ने के लिए उकसाती है।’ इसलिए लेखक को बहुत होश्यारी से अपनी ज़िम्मेदारी निभाना होती है।
यस, वी आर गिल्टी नाटक में दिनेश नाडकर्णी के सामने एक समस्या आती है कि उसकी पत्नी अलका दुष्चरित्र है। इस इक्सवीं सदी में पति-पत्नी का दुष्चरित्र होना आम बात बन गयी है, बल्कि समाज के एक ख़ास वर्ग के सिमित हिस्से में इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। वहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे से दुष्चरित्रता के विषय में लड़ने-झगड़ने को पिछड़ापन मानते हैं। उनके लड़ने-झगड़ने के मुद्दे और तरीक़े भी मध्यमवर्गीय समाज से भिन्न होते हैं। यस, वी आर गिल्टी नाटक समाज के मध्यमर्गीय पात्रों के इर्द-गिर्द बुना गया नाटक है। मध्यमर्गियों में आज भी स्त्री का चरित्रवान होना या न होना बहुत मायने रखता है। यहाँ आये दिन दुष्चरित्रा को लेकर आत्म ग्लानि होने पर आत्महत्या और ग़ुस्से पर नियंत्रण खोने पर हत्या भी की जाती है।
अलका और दिनेश पति-पत्नी तो है…पर वे दस साल के वैवाहिक जीवन में भी एक-दूसरे के भरोसेमंद नहीं बन सके। दिनेश अपने काम में मशरूफ रहा। और इस मुगालते में रहा कि अलका सिर्फ़ उसी से प्यार करती है और वह महीने में जितने भी दिन-रात उसके साथ बीताता है, उससे अलका संतुष्ठ रहती है। जबकि क्लब में जाने और विशेष वर्ग के लोगों के सम्पर्क में आने के बाद अलका की महत्त्वकाँक्षाओं और स्वभाव में बड़ा बदलाव आ चुका होता है।
दिनेश दस साल के बाद भी दस साल पहले वाली भावना से भरा रहता है और अलका मानिसक रूप से उस समाज में स्थानांतरित हो गयी.. जहाँ दूसरे पुरुष से सम्बन्ध बनाना कोई ग्लानिपूर्ण काम नहीं समझा जाता है। और अगर कुछ हद तक समझा भी जाता है तो.. हत्या करना ज़रूरी नहीं समझा जाता है। क्योंकि वहाँ पति भी उतना ही दुष्चरित्र होता है.. जितनी पत्नी। वे आपसी सहमति से कोई ऎसा रास्ता खोज लेते हैं.. जो दोनों के जीवन के लिए बेहतर होता है.. उनके लिए जीवन महत्त्वपूर्ण होता है… चरित्र भी होता है.. पर जीवन से ज्यादा नहीं।
शायद इसीलिए अलका को ग़ैर पुरुषों से अपने सम्बन्धों पर कोई लज्जा नहीं है। लेकिन दिनेश स्वीकार नहीं कर पाता है और आवेश में आकर पत्नी का क़त्ल कर देता है। लेकिन जैसा की मैंने कहा है कि क़त्ल समस्या का हल नहीं.. बल्कि नयी समस्या है। जबकि अलका और दिनेश दोनों को ही ज़रूरत थी समस्या के हल की। अन्ततः दोनों के जीवन ख़ुद उनके लिए और समाज के लिए भी महत्त्वपूर्ण थे।
इंसान का जीवन बहुत विराट और भेदभरा है। यह मान लेना आसान नहीं है कि वह जैसा भी है…उसकी मर्ज़ी से है। इंसान का जीवन कितना भेदभरा है…यह ख़ुद इंसान को नहीं मालूम है। वह ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में कब… कहाँ.. कैसे.. क्या और क्यों कर गुज़रेगा…. इसका उसे जरा भी भान नहीं होता है। एक इंसान जैसा भी स्वभाव, संस्कार और जीवन जीने का तरीक़ा पाता और अपनाता है.. वह पूरी तरह स्वयं का खोजा.. जाना..और अनुभवजन्य नहीं होता है, बल्कि सदियों से पारंपरिक रूप से चले आ रहे तमाम तरीक़ों में से ही कुछ अपने लिए चुन लेता है, और यह चुनाव भी परिस्थियों के मुताबिक ही होता है…।
लेकिन किसी भी समाज के विकास में भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास की ख़ास भूमिका होती है। यस, वी आर गिल्टी में जो भी परिस्थियाँ बनी वे भी उक्त वजहों से ही बनी थी। लेकिन लेखक ही वह सख़्श होता है जो अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास के ढाँचे से टकराता है। जकड़बंध ढाँचों को तोड़कर उसे नयी राह खोजनी होती है… जो या तो पहले से ही समाज में मौजूद होती है… और बस.. उन पर रोशनी डालने की ज़रूरत होती है… और अगर न हो तो परिस्थियों के विश्लेषण और कल्पना के जरिए नयी राहें इजाद की जाती है।
दिनेश पत्नी के क़त्ल के रास्ते को चुनने के लिए अभिशप्त नहीं था.. क्योंकि आज समाज में यह रास्ता उपलब्ध है कि अगर पति-पत्नी में वैमनस्य है। वे एक-दूसरे के जीवन जीने के तरीक़ों से… अच्छी-बुरी आदतों से सहमत-असहमत है.. तो वे अलग-अलग हो सकते हैं। अलग होना समाज में उतना निंदनिय नहीं है.. जितना की क़त्ल करना। क्योंकि समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह किसी को उसके जीवन जीने के अहम अधिकार से वंचित करे। नाटक में अलका की हत्या को एक रास्ता दिखाया गया है.. जो कि मेरी नज़र में ग़लत रास्ता है।
मैं लेखक द्वारा सुझाये इस रास्ते से असहमत हूँ। मैं नहीं समझता कि अलका के दुष्चरित्र होने पर उसके पति को यह अधिकार है कि वह अलका का क़त्ल कर दे। और मैं यह देखकर ख़ुद को दुखी होने से नहीं रोक पाता हूँ कि लेखक दिनेश के इस भर्त्सना योग्य कृत्य पर समाज सेविका रत्नमाला विभांडिक (यामिनी सोनवणे), पुलिस इंस्पेक्टर, डॉक्टर, गोरखा, टेक्सी ड्रायवर और उसके आॉफिस तक के लोगों को इसमें शामिल कर लेता है।
नाटक के सभी पात्र दिनेश नाडकर्णी द्वारा अनचाही मदद करते हैं। दिनेश बार-बार यह बात स्वीकार करता है कि उसने अपनी पत्नी अलका को उसका गला दबाकर मार दिया है। पुलिस को वह ख़ुद फ़ोन करके बुलाता है। लेकिन सब उसे यह समझाने में लगे रहते हैं कि उसने अलका का ख़ून नहीं किया है। पहले तो वे सबकुछ जानते हुए भी यक़ीन नहीं करते हैं कि दिनेश ने अलका का ख़ून कर दिया है। फिर जब वे इस बात का यक़ीन कर लेते हैं कि अलका मर चुकी है.. तो वे दिनेश को यह यक़ीन कराने में लगे रहते हैं कि वह ख़ून नहीं महज एक दुर्घटना है। वे हत्या के सबूत नष्ट करते हैं… घटना स्थल में हेर-फेर करते हैं, उसे बदलते हैं। यह काम किसी समाज सेवक या शरीफ़ इंसान का नहीं है। दुष्चरित्रता सिर्फ़ ग़ैर पुरुष या स्त्री से सम्बन्ध बनाना ही तो नहीं होता है… दुष्चरित्रता भी कई तरह की होती है और इस लिहाज से नाटक के सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र नज़र आते हैं। फिर उन सभी दुष्चरित्रों को क्या अधिकार की वे अलका के क़त्ल को दुर्घटना में बदले..?
और किसे पता कि जब दिनेश बीस-बीस दिन दौरे पर रहता है.. तो वह बाहर कोई ऎसा काम नहीं करता है, जो किसी भी चरित्रवान व्यक्ति के लिए निषेध है। दिनेश नाडकर्णी अपने दौरों के दौरान कैसे जीता है.. ? नाटक में नहीं बताया गया है। जबकि आजकल तो बड़ी कम्पनियों के अधिकारियों बीच किराये की औरतों का धंधा जोरों पर है। क्या उसे ऎसी किसी स्त्री के साथ संसर्ग करने का अवसर नहीं मिला या वह चरित्रवान होने के नाते ऎसे अवसरों को ठुकराता रहा..? किसे पता दिनेश नाडकर्णी उन बीस दिनों में बाहर गुलछर्रे उड़ाता था या नहीं। शराब और सिगरेट तो वह घर में भी पिता ही था…और यह सब किसी भले आदमी के लक्षण तो नहीं…!
लेखक पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भी प्रायवेट डॉक्टर के सहयोग से अपने अनुसार बनवाना बताते हैं…। नाटक में कई ऎसे पहलू है जो यह साबित करते हैं कि सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र हैं। और उस क्षण तो हद पार हो जाती है… जब समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक से लेकर इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सभी उनके किये दुष्कृत्य को जायज समझते हैं। इस बात पर गर्व करते हैं कि उन्होंने अलका के क़त्ल के सबूत नष्ट कर.. दिनेश नाडकर्णी को जेल जाने से बचाकर बहुत महान कार्य किया है। और तब दुष्चरित्रता की पराकाष्ठा हो जाती है…जब वे समाज में यह संदेश देतें हैं कि ऎसा करना समाज सेवा है।
यस, वी आर गिल्टी… मुझे एक ग़लत संदेश देने वाला नाटक लगा। लेकिन इस नाटक की प्रस्तुति बहुत ही रोचक थी और दो घन्टे तक दर्शक को अपने में उलझाये रखती है। लेकिन धोका अक्सर ख़ुबसूरत और आकर्षक होता है जैसे बाज़ार। उससे बचना चाहिए।
हँसी की फूलझड़ी यानी समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक को मंच पर देखते ही दर्शक के चेहरे पर हँसी की लहर उठने लगती। रत्नमाला की भूमिका यामिनी सोनवणे निभायी, और यक़ीन मानिये यामिनी ने इस भूमिका को जीवंत कर दिया। यस, वी आर गिल्टी में सबसे कठिन दो भूमिकाएँ थीं। पहली अलका (ज्योति गोस्वामी) की और दूसरी रत्नमाला (यामिनी) की। ज्योति ने भी अलका की भूमिका बहुत ही प्रभावी ढँग से निभायी। लेकिन यामिनी के सामने अलका की भूमिका उन्नीस ही रही। और इसकी वजह ज्योति का अभिनय नहीं लगती…बल्कि मुझे लगता है कि यह नाटककार की कमी रही है। नाटककार अलका का चरित्र उतनी मजबूती से नहीं उभार सके हैं.. जितनी उसमें सम्भावनाएँ थीं। अलका और दिनेश केन्द्रीय पात्र थे, लेकिन स्क्रिप्ट में दोनों की भूमिकाओं ने वह ऊँचायी हासिल नहीं की… जो रत्नमाला ने की।
यामिनी सोनवणे, ज्योति गोस्वामी के बाद क्रमशः चैतन्य शाह, रत्नेश रूप और रवि जोशी के अभिनय ने दर्शकों के मन पर छाप छोड़ी। हालाँकि रवि जोशी से दो-तीन बार संवाद छूटते नज़र आये। रत्नेश रूप का अभिनय उम्दा होने के बावजूद कहीं-कहीं अस्वाभाविक-सा लगा। चैतन्य शाह के पास ‘गोरखा’ की बहुत छोटी भूमिका थी। लेकिन चैतन्य ने अपनी आंगीक और शाब्दिक भाषा से गोरखा को जीवंत कर दिया। लेकिन एक जगह वे क्षण भर के लिए दर्शकों की हँसी में शामिल हो..मुस्करा देते हैं … । जबकि उसकी ज़रूरत नहीं थी वहाँ पर। चैतन्य एक गंभीर अभिनेता है…. अभी तक वे अच्छा काम करते आ रहे हैं… लेकिन यस, वी आर गिल्टी में उनकी वह ग़ैर ज़रूरी मुस्कान.. उन्हें अगम्भीर बनाती है। ऎसे मौक़ों से उन्हें बचना चाहिए। पुरुष की भूमिका में प्रेम उपाध्याह, ड्रायवर की भूमिका में पुनीत शर्मा और डॉक्टर की भूमिका में जय पंजवानी, चपरासी रोमी सेन की भूमिकाएँ बहुत छोटी-छोटी थी…और उन्होंने उन्हें ठीक-ठाक ही निभाया।
यस, वी आर गिल्टी अविरत और रंगरूपिया की नाट्य प्रस्तुति थी। मैं उन्हें सतत रंगकर्म करने के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ और उनसे यह अपेक्षा भी करता हूँ कि आगे वे प्रस्तुति के लिए जिस भी नाटक का चुनाव करे…. उसे सिर्फ़ रोचकता के आधार पर न चुने.. बल्कि उसे एक बेहतर संदेश देने वाली और समाज को जागृत करने वाली रचना के रूप में भी जाँचे-परखे। अगर उनके मन में ऎसा कोई विचार घर किये बैठा है कि मराठी, अँग्रेज़ी या किसी और भाषा से अनुदित नाट्य रचना ही उत्कृष्ट होती है.. तो अपने इस विचार की भी पुर्नसमीक्षा करे। हमेशा रेडीमेड नाट्य रचनाएँ उठाने की आदत अच्छी भी नहीं होती है। ख़ुद नये नाटक लिखने या नाट्य रूपांतर करने का भी सतत प्रयास करे। एक रंगकर्मी का काम सिर्फ़ अभिनय करने से नहीं चलता है। पुनः अविरत और रंगरूपिया के सभी साथियो को बधाई..शुभकामनाएँ।
सत्यनारायण पटेल
बिजूका लोक मंच, इन्दौर
19. 9. 2011

15 सितंबर, 2011

द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम.

4 सितम्बर 2011 को कई दिनों की बारिश के पश्चात धूप खिलखिला के निकली, और साथ में लाखों चेहरे भी। कुछ दिन से लगातार हो रही बारिश से आयोजन बिगड़ने का अंदेशा, लेकिन बादलों की महरबानी रही कि आयोजन के दिन वे शांत रहे, और बिजूका लोक मंच के साथी फ़िल्म प्रदर्शन की तैयारी करते रहे।



रविवार की दोपहर का समय एक कार्पोरेट शहर के हिसाब से बेहद उपयुक्त था। वरना शहर की भागादौड़ी में रविवार की शाम ऎसी फ़िल्म देखने में कौन तबाह करे…जो देश में कभी प्रदर्शित ही नहीं हुई।१२ बजे के पूर्व ही कुछ दर्शाकगण आना शुरू हो चुके थे, सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी सिवाय एक तैयारी के और वो था लैपटॉप से प्रोजेक्टर को कनेक्ट करना (सबसे महत्वपूर्ण तैयारी)चूँकि यह कार्य पूर्व में हम लोग कर चुके थे इसलिए चिंता किसे थी। लेकिन कहते हैं न समय सब पर भारी होता है, आपके अनुभवों पर भी, और वही हुआ कनेक्टिविटी का इतना प्रोब्लम आया की बड़े-बड़े तकनिकी विशेषज्ञ बैठे के बैठे ही रह गए। फिर कुछ १५-२० मिनिट की माथापच्ची के बाद गाडी पटरी पर आई, और मुझे कार्यक्रम प्रारंभ करने का मौका मिला। मैंने सभी का अभिनन्दन किया और थोड़ी जानकारी फ़िल्म के बारे में भी दी, तत्पश्चात ही फ़िल्म का मधुर संगीत प्रारंभ हुआ और फ़िल्म शुरू हो गई।

फिर तो जो समां बंधा कि फ़िल्म के समाप्त होने तक न किसी का मोबाइल बजा और न किसी को खाँसी आयी। एक बेहतरीन कलात्मक प्रस्तुति कि यही पहचान होती है कि वह सुनने-देखने वाले को मोहित कर लेती है। "द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम्." ने यह बात सिद्ध कर दी, फिल्म में एक फिल्म के हिसाब से सब कुछ था अच्छी कहानी, अच्छा निर्देशन, केमरा, इमोशन….आदि.. इत्यादि ।

कहानी में दिखाया गया की किस तरह से १९८८ में सोराया मानुचेहरी नमक एक ३४ वर्षीय शादीशुदा महिला को उसका पति साजिश के तहत संगसार करवाता है| संगसार याने की सामूहिक रूप से पत्थर मार-मार कर मृत्युदंड देने की सजा। यह सजा आज भी प्रचलन में है। इसे शादीशुदा होने पर भी किसी गैर मर्द से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर दंड के रूप में दिया जाता है। यह सजा मर्द और औरत के लिए सामान है। यह सजा और भी कई गुनाहों के लिए दी जाती है। ऎसी सज़ा अलग-अलग जाति, सम्प्रदाय या धर्म में अलग-अलग कुप्रथा या नियम-कायदों से दी जाती है।

फ़िल्म के कुछ अंतिम क्षणों में दर्शकों के मुंह से अफ़सोस भरी तथा दुःख भरी आवाजें भी आई, अंतिम दृश्यों में वीभत्स क्रूरता दिखाई गई है जिसमे सोराया को पत्थरों से मार दिया जाता है। हालाँकि सत्य की यहाँ भी जीत होती है - वो कैसे..? इसके लिए आप फिल्म देखकर ही जाने यह हमारी मंशा है।

फ़िल्म के पश्चात कहानी तथा इस्लामी क़ानून ‘जिसके तहत फ़िल्म में सोराया एम को सज़ा सुनायी गयी थी’ के बारे में चर्चा भी हुई। चर्चा में किसने क्या कहा… संक्षिप्त में प्रस्तुत है:-
कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने चर्चा की शुरुआत की, उन्होंने कहा- हमारा समाज स्त्री की तुलना में पुरुष ज्यादा ताक़तवर है। उसका घर और घर की आर्थिक व्यवस्था पर एकाधिकार है। सहज ही स्त्री को उसके अधीन माना लिया जाता है, जो कि ग़लत है। क़ानूनी रूप से समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार है.. लेकिन पुरुष हमेशा अपनी मनमानी करता है.. और स्त्री के अधिकारों की.. उसकी भावनाओं की उपेक्षा करता है… जबकि किसी भी घर की गृहस्थी को चलाने में उस घर की स्त्री ही पुरुष से ज्यादा काम करती है। यह फ़िल्म के स्त्री दुष्चरित्रता को केन्द्र में रखकर बनायी गयी है। फ़िल्म में दुष्चरित्र तो सोराया का पति, महापौर और मौलाना भी है.. लेकिन उनकी दुष्चरित्रा की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। बल्कि वे ही अनैतिक लोग सोराया के ख़िलाफ़ साजिश रचते हैं और उसे संगसार जैसी अमानवीय सज़ा भोगने के लिए बाध्य करते हैं। ऎसी सज़ा सिर्फ़ मुस्लिमों में दी जाती है.. ऎसा नहीं है। सीता को भी दुष्चरित्रता के आरोप के कारण ही अग्निपरिक्षा से गुज़रना पड़ा था। नाथ सम्प्रदाय में जिस स्त्री पर दुष्चरित्रता का लगाया जाता है.. उसके हथैलियों पर गर्म कुल्हाड़ी रखी जाती है.. इस कुप्रथा को कुल्हाड़ी ईमान कहा जाता है। बाँछड़ा जाति की महिला जिसका की पैसा ही देह व्यापार है.. उस पर कुछ अलग परिस्थियों में ऎसे आरोप लगते हैं और उसे खोलते तेल में हाथ डुबाकर अपने ईमान की जाँच कराना होती है। और भी कई तरीके हैं.. क़त्ल की ख़बरे तो आये दिन हम पड़ते ही रहते हैं…। सवाल यह है कि ऎसी सज़ा किसी भी जाति,सम्प्रदाय, धर्म या क़ानून में होना चाहिए…? क्या यह अमानवीय नहिं है..? ऎसी घटना ईरान, पाकीस्तान, भारत या धरती के किसी भी हिस्से पर घटे…पर क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है…?



चर्चा के आगे बढ़ते हुए डॉ. फ़हीम अंसार ने सजा के बारे में रोचक तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी। आपने व्याभिचार के उर्दू शब्द ज़िना से हमारा परिचय करवाया। आपने ज़िना को असामाजिक तथा अनैतिक बताया - आज के समाज की गति अतिभयावहतापूर्वक एक अश्लील समाज की और दौड़ती बताई, आपने आज के नवयुवकों तथा उनकी मानसिकता पर सवाल उठाए, तथा अभिविन्यास को लेकर भी बात की - आपके अनुसार समलैंगिक संबंध भी ठीक नहीं।
सजा के बारे में आपने जानकारी देते हुए कहा की - यह सजा औरत के इकरार पर ही निर्भर करती है अगर वह कहे कि मुझ पर इलज़ामात झूठे हैं तो उस स्थिति में उसके शौहर को ५ कसमे खानी होती है, और फिर उसे संगसार भी नहीं किया जाता। आगे उन्होंने कहा कि खुदा की चाह थी की समाज के लोगों को इस सजा में शामिल किया जाए ताकि इससे सबको इबरत (नसीहत) मिले और आगे से ऐसा गुनाह न हो। फिर आपने सब से बलात्कार के संबंध में प्रश्न किया की "क्या आप आपकी बहु-बेटियों के साथ ऐसा चाहेंगे चूँकि मर्दों के लिए भी क़ानून सामान है।
आपने फ़िल्म में दिखाए क़ानून को अमेरिका की साज़िश बताया जिससे दुनियाभर में मुस्लिम धर्म बदनाम होगा तथा फ़िल्मी क़ानून को झूठा भी ठहराया। आपने कहा फ़िल्म में सिर्फ दो गवाहों को गवाही देते दिखाया गया है जिनके आधार पर सोराया को सजा दी गई लेकिन असल में चार गवाहों की गवाही लगती है।

प्रो. इरफ़ान अज़ीज़ ने डॉ. फ़हीम अंसारी की बातों का समर्थन किया तथा फ़िल्म के विषय पर सवाल उठाते हुए कहा की - क्या आप ईरान तथा अमरीका के बीच की तनातनी नहीं जानते?" ऐसा इसलिए कहा गया चूँकि फ़िल्म हॉलीवुड की थी। आपने सभ्य समाज का पक्ष धरते हुए जंगली दुनिया बनाने देने से बचने का आग्रह किया।

कॉ.चुन्नीलाल वाधवानी ने ऎसे क़ानून को जहालत के वक़्त का क़ानून बताया। आपने पैगम्बर मोहम्मद को इंकलाबी माना। आपने सिंध प्रान्त में भी ऐसी ही सजा का ज़िक्र किया जिसे कारीकारो कहा जाता है। आपने मंसूर (शहीद-ए-आज़म) का भी ज़िक्र किया जन्हें संगसार किया गया था। उनके दोस्त ने उन्हें फल मारा था जिसे उन्होंने लोगों के पत्थर मारने से भी बुरा बताया था। आपने सरमत शहीद का भी ज़िक्र किया जिसे औरंगजेब ने क़त्ल करवाया था, उसपर तीन इलज़ाम लगाये गए थे:
१. एक तो की वो कलमा पूरा नहीं पढता था, अधुरा पढ़ा करता था- जिससे यह अर्थ प्रकट होता था कि ख़ुदा नहीं है।
२. सरमत का मानना था कि पैगम्बर खुदा से आसमान में मिलने नहीं गए थे.. बल्कि आसमान से खुदा पैगमबर के जेहन में उतरे थे…।
३. तथा सरमत नंगा घूमता था जो इस्लाम के खिलाफ था।
अपने कहा कि आज वैज्ञानिक तौर पर विकसित पीढ़ी के अनुसार इंसान को अपना अपना नजरिया रखना चाहिए, ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं है.. अगर है तो आज के हिसाब से तो ईश्वर को भी अपने आपको प्रमाणित करना होगा। आगे आपने कहा की जब कोई महापुरुष, संत, महात्मा पैदा होते हैं.. तो लोग उन्हें ईश्वर मान लेते हैं.. लेकिन असल में ईश्वर नहीं होते हैं.. हम-आप जैसे हाड़-माँस के इंसान ही होते हैं।



कवि आनंद पचौरी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं धर्म में अपनी समझ के अनुसार गौण मानता हूँ। उन्होंने धर्म की परिभाषा तथा उसके उदाहरण देते हुए कहा कि "धर्म वह जो निरंतर रूप से व्याप्त है - जैसे सूरज का उगना तथा अस्त होना, हवाओं का चलना, नदियों का बहना, पक्षियों का चहचहाना आदि। इसके अलावा जिसे हम धर्म कहते हैं वह सम्प्रदायवाद है।"
औरतों की स्थिति के बारे में आपने कहा कि हमारे समाज कई जगहों पर औरतों को ख़रीदा ओर बेचे जाता है। उन्होंने एक लड़की के १६ बार बेचे जाने के बारे में ज़िक्र किया, जिसे सत्रहवी बार उसके भाई के द्वारा ही बेची जानी थी।
उन्होंने कहा कि औरत की इस हालत के ज़िम्मेदार भी हम मर्द ही हैं। आपने कट्टरवाद के बारे में भी बात कही तथा भारतीय लोगों को सबसे अधर्मी बताया।
गिरीश भिलवारे:- युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए आपने कहा की - धर्म मतलब जीवन जीने का सही तरीका है। आपने फ़िल्म में दिखाए गए भीड़ तंत्र को सरासर गलत बताया तथा कहा की भीड़ का विवेक नहीं होता है।
जय पंजवानी ने कहा कि सड़ी मान्यताओं का आदर नहीं करना चाहिए। इंसान को इंसानियत तथा सत्य की राह पर चलना चाहिए।

अंत में प्रसिद्ध कहानीकार और चित्रकार प्रभु जोशी कहा कि शीत युद्ध के दौरान रशिया की बदनाम करने के लिए अमेरीका की तरफ़ से ऎसी कई फ़िल्में बनायी गयी.. जिसमें रशिया की छवि ख़राब दिखायी जाती थी। इस फ़िल्म को भी ऎसी किसी साजिश के तहत बनायी गयी हो ऎसा हो सकता है। लेकिन हर बार ऎसा हो यह ज़रूरी नहीं है। उन्होंने सेम्युअल हटिंगटन तथा जॉन परकिन्स्की की किताबों का भी उल्लेख किया जिनमें ईसा तथा मूसा के बीच की लड़ाई दिखाई गयी है। उन्होंने कहा कि सारे क़ानून धर्म की देन है। इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई ईश्वर, काल तथा मृत्यु से ही होती है। उन्होंने प्रश्न उठाया की पहले तत्व या पहले चेतना होनी चाहिए। आपने कट्टरवाद हर धर्म में बताया, आपने मार्क्सवाद, डायलेक्टिकल डबलिंग, नेनो तकनीक, विज्ञान तथा कई सारे ऐसे विषयों से फ़िल्म को जोड़ा। उन्होंने विवेकवादी तथा भाववादी चरित्र के बारे में भी बताया कि - पढ़े लिखे व्यक्ति का विवेकवादी मस्तिष्क कार्य करता है तथा कम पढ़े लिखे या अनपढ़ व्यक्ति का भाववादी मस्तिष्क कार्य करता है।



अंत में उन्होंने कहा कि फ़िल्म कलात्मक प्रस्तुति होती है और उसे देखने-समझने के कई तरीक़े होते हैं। फ़िल्म को समझने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। फ़िल्म देखना-दिखाना अपने आप में एक अच्छी पहल है और इसे जारी रहना चाहिए।
इस आयोजन में वरिष्ठ रंगकर्मी मिलिन देशपान्डे, शारद सबल, वरिष्ठ कवि ब्रजेश कानूनगो, सुरेश उपाध्याय, युवा रंगकर्मी राज बेन्द्रे, पल्लवी बेन्द्रे, यामिनि सोनवणे, रत्नेश, चैतन्य, युवा कवि बहादुर पटेल और कई युवा साथी छात्रों ने सक्रिय भागीदारी दर्ज की। कार्यक्रम का संचालन कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने किया।
प्रस्तुति - विनय मालवीय
बिजूका लोक मंच, इन्दौर

31 अगस्त, 2011

THE STONING OF SORAYA M.






In a world of secrecy, corruption and injustice, a single courageous voice can tell a true



story that changes everything.
This is what lies at the heart of the emotionally charged experience of THE STONING
OF SORAYA M. Based on an incredible true story, this powerful tale of a village’s persecution
of an innocent woman becomes both a daring act of witness and a compelling parable about
mob rule. Who will join forces with the plot against her, who will surrender to the mob, and
who will dare to stand up for what is right. It is both a classic fable of good and evil and an
inspiring tribute to the many fighting against injustice all around the world, THE STONING OF
SORAYA M. was a rousing runner-up to “Slumdog Millionaire” as the Audience Favorite at the
Toronto Film Festival.
Academy Award® nominee Shohreh Aghdashloo (“House of Sand and Fog”) stars in
the heroic role of Zahra, an Iranian woman with a burning secret. When a journalist (Jim
Caviezel, “The Passion Of The Christ,” “Déjà Vu”) is stranded in her remote village, she takes a
bold chance to reveal what the villagers will stop at nothing to keep hidden.




Thus begins the remarkable account of what happened to Soraya (Mozhan Marnò), a
kind, spirited woman whose bad marriage leads her cruel, divorce-seeking husband to conspire
against her, trumping up charges of infidelity, which carry an unimaginable penalty. Moving
through a minefield of scheming, lies and deceit, Soraya and Zahra will attempt to prove
Soraya’s innocence in a legal system stacked against her. But when all else fails, Zahra will risk
everything to use the only weapon she has left – her fearless, passionate voice that can share
Soraya’s story with a shocked world.
THE STONING OF SORAYA M. is inspired by Paris-based journalist Freidoune
Sahebjam’s acclaimed international best-seller of the same name which, rife with intrigue and
moral outrage, first brought global attention to the real Soraya, who in 1986 was buried to her
waist in her hometown square and stoned to death by her fellow villagers.
Director Cyrus Nowrasteh, along with his wife and fellow screenwriter Betsy Giffen
Nowrasteh, saw in Soraya one story that stands for thousands of untold tales around the world,
from Africa to Asia, from Europe to America, wherever people are battling prejudice and
injustice. Their screenplay takes the hard facts surrounding Soraya’s fate and carves from them
a lyrical, fable-like passion play that gets under the skin by posing a provocative question: who
among us would throw stones and who would take a stand against them?

08 अगस्त, 2011

नाज़िम हिकमत की लम्बी कविता

तुर्की कवि नाज़िम हिकमत का जन्म 1902 में सलोनिका, ओट्टोमान साम्राज्य ( वर्तमान में ग्रीस का एक राज्य ) में हुआ. घर में रचनात्मक माहौल होने के कारण उन पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा. कवि होने के साथ-साथ वे नाटककार और उपन्यासकार भी थे. उच्च शिक्षा के लिए नाज़िम मॉस्को गए, जहाँ रहते हुए वे दुनिया भर के कई लेखकों, कवियों और कलाकारों के संपर्क में आए. 1928 में रूस से तुर्की वापस आकर एक प्रूफरीडर, पत्रकार और अनुवादक के बतौर काम करते हुए नाज़िम के कई कविता संग्रह प्रकाशित हुए. अपनी वामपंथी विचारधारा और क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जीवन का एक लम्बा अरसा उन्हें जेल में ही बिताना पड़ा. 1951 में हमेशा के लिए तुर्की छोड़ कर वे तत्कालीन सोवियत संघ चले गए, कुछ समय के लिए यूरोप भी रहे और अंत तक अपनी विचारधारा के लिए काम करते रहे. 1963 में ह्रदयाघात के कारण मॉस्को में ही उनका निधन हुआ.
प्रस्तुत है, अपने जेल के दिनों में उनके द्वारा लिखी गयी एक लम्बी कविता :





जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

नाज़िम हिक़मत











जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है

अगर तुम पृथ्वी से पूछो,
वह कहेगी- यह जरा-सा वक़्त भी कोई चीज़ है भला !
अगर तुम मुझसे पूछो,
मैं कहूँगा- मेरी ज़िन्दगी के दस साल साफ़ !

जिस रोज मुझे क़ैद किया गया
एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास
जिसे मैंने हफ़्ते भर में घिस डाला।
अगर तुम पेन्सिल से पूछो,
वह कहेगी- मेरी पूरी ज़िन्दगी !
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा- ले भला, एक हफ़्ता ही तो चली !

जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया-
हत्या के जुर्म में सजा काटता हुआ उस्मान
साढ़े सात बरस बाद छूट गया।
बाहर कुछ अर्सा मौज़-मस्ती में गुज़ार
फिर तस्करी में धर लिया गया
और छः महीने बाद रिहा भी हो गया
कल किसी ने सुना-उसकी शादी हो गई है
आते बसन्त में वह बाप बनने वाला है।

अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे
जो उस दिन कोख में आए
जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
ठीक उसी दिन जनमे
अपनी लम्बी छरहरी टाँगों पर काँपते बछड़े अब तक
चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में तब्दील हो चुके होंगे।
लेकिन जैतून की युवा शाखें
अब भी बढ़ रही हैं।

वे मुझे बताते हैं
नयी-नयी इमारतें और चौक बन रहे हैं
मेरे शहर में जब से मैं यहाँ आया
और उस छोटे-से घर मेरा परिवार
अब ऎसी गली में रहता है,
जिसे मैं जानता नहीं,
किसी दूसरे घर में
जिसे मैं देख नहीं सकता।

अछूती कपास की तरह सफ़ेद थी रोटी
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
फिर उस पर राशन लग गया
यहाँ, इन कोठरियों में
काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए
लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएँ की,
अब हालात कुछ बेहतर हैं
लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,
उसमें कोई स्वाद नहीं।

जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
दूसरा विश्व युद्ध शुरू नहीं हुआ था,
दचाऊ के यातना शिविरों में
गैस भट्ठियाँ नहीं बनी थीं,
हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।

आह, समय कैसे बहता चला गया है
क़त्ल किए गये बच्चे के रक्त की तरह।
वह सब अब बीती हुई बात है।
लेकिन अमरीकी डालर
अभी से तीसरे विश्व युद्ध की बात कर रहा है
तिस पर भी,
दिन उस दिन से ज्यादा उलझे हैं
जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने ख़ुद को
कुहनियों के बल आधा उठा लिया है
पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द
चक्कर काट चुकी है………..

लेकिन मैं दोहराता हूँ
उसी उत्कट अभिलाषा के साथ
जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए
दस बरस पहले आज ही के दिन

तुम असंख्य हो
धरती में चीटियों की तरह
सागर में मछलियों की तरह
आकाश में चिड़ियों की तरह
कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,
लेकिन क्योंकि सारे कार्यों को
तुम्हीं बनाते या बर्बाद करते हो,
इसलिए सिर्फ़ तुम्हारी गाथाएँ
गीतों में गायी जाएँगी
बाक़ी सब कुछ
जैसे मेरी दस वर्षों की यातना
फालतू की बात है।

( अनुवाद: नीलाभ )



13 जुलाई, 2011

'दुविधा' : मणि कौल



पिछले दिनों भारत के प्रयोगधर्मी फिल्म निर्देशक मणि कौल हमारे बीच नहीं रहे. मणि कौल का नाम भारत के उन चुनिन्दा फिल्म निर्देशकों में शामिल है, जो दुनिया में अपनी विशिष्ट शैली के लिए जाने गए. फ़िल्म एंड टेलिविज़न इंस्टीटयूट ऑफ़ इंडिया ( FTII ) से स्नातक एवं बंगला सिनेमा के प्रसिद्ध निर्देशक ऋत्विक घटक के शिष्य रहे मणि कौल ने बाद में स्वयं फिल्म निर्माण के क्षेत्र में एक शिक्षक के बतौर भी काम किया. उनकी पहली ही फिल्म ' उसकी रोटी (1969)' को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड दिया गया था . अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित अपनी फिल्मों के कारण मणि २१ वें बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में जूरी मेम्बर भी रहे. साथ ही कुछ समय तक उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भी विजिटिंग लेक्चरर के रूप में सेवाएँ दीं. 'उसकी रोटी', 'आषाढ़ का एक दिन', ' ईडियट', ' दुविधा ' आदि उनकी कुछ प्रमुख फिल्में रहीं. विजयदान देथा की कहानी पर आधारित उनकी फिल्म 'दुविधा (1973)' को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिया गया. प्रस्तुत है फिल्म पर रघु यादव की टिप्पणी :



एक वो ज़माना था जब मोहल्ले के बच्चे....बेसब्री से.....इंतज़ार किया करते थे बिजली के गुल होने का....कोई चाचा, कोई दादा, कोई मौसी, कोई नाना....मिल जाते थे....हो जाता था.....थोड़ी काम, थोड़ी ज़्यादा, थोडा यथार्थ, थोड़ी फंतासी....जैसे तैसे....किस्सागोई का जादू....चल जाता था.....

' दुविधा ' देखने के बाद जो सबसे पहला सवाल मन में आया वो यह था की इसे किस श्रेणी की फिल्म माना जाए. क्या हम इसे surrealism मान सकते हैं ? नहीं. क्या यह पारंपरिक फिल्मों की श्रेणियों में फिट बैठती है ? यह भी नहीं. खैर, यह पहला सवाल आज आखिरी सवाल बन गया है और निर्दिशक मणि कौल की इस फिल्म को experimental film कहकर सस्ते में निपट लेना ही अभी उचित होगा.

फिल्म की शुरुआत एक बेहतरीन संगीत उद्घोषक, कुछ फालतू images और stylish titles के साथ होती है. फिर narration start होता है - " संयोग की बात है की बरगद के इस पेड़ के अन्दर एक भूत का निवास था....." . हाँ भई, ऐसी कहानियां संयोग पर ही आधारित होती हैं.

शादी निबटाकर बारात वापस आ गयी है. गाँव में गुड बांटा जा रहा है और रीति रिवाज...तीज पर दुल्हे को व्यापार के सिलसिले में दिसावर जाना है जहाँ वह पांच साल तक रहेगा. " दो दिन के लिए वासना को क्यों उभारा जाए ! पांच वर्ष तक दो दिन की रंगरलियाँ कष्ट पहुचायेंगी. और फिर समय गुज़रते क्या देर लगती है. आँख झपकने के साथ ही पांच साल बीत जाएंगे. "

उधर दूल्हा दिसावर की रह पकड़ता है और इधर प्रेत उसका रूप धर घर पर आ जाता है. पिता को बताता है कि रास्ते में उसे समाधी लगे एक महात्मा के दर्शन हुए. महात्मा ने खुश होकर वरदान दिया कि रोज़ सवेरे पलंग से उतरते ही उसे पांच स्वर्ण मोहरें हमेशा मिलती रहेंगी. दिसावर जाने से यह वरदान नहीं फलेगा.

पति के लौटने पर पत्नी खुश हो जाती है. " पहले पता तो कर लो कि मै कोई दूसरा तो नहीं हूँ. शायद तुम्हारे पति का रूप धरकर कोई और कहीं तुम्हे छलने तो नहीं आया है. " पत्नी कोई दोष नहीं देखती. भूत से रहा नहीं जाता, वह उसे सच्चाई बताता है कि उस बरगद के नीचे दुल्हन को देखकर वह कैसे मूर्छित हुआ. दिसावर जाते हुए पति से क्या बातचीत की. उसका रूप धरकर कैसे हवेली आने का साहस जुटाया, महात्मा का वरदान किस प्रकार रचाया.

भूत : अब जो भी तुम्हारी इच्छा सो बताओ, भूत होकर भी मैंने कोई बात नहीं छिपी.

दुल्हन : अब भी यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि यह भेद प्रकट करने से ठीक रहा या न प्रकट करने से ठीक रहता. कभी तो एक बात अच्छी लगती है, कभी दूसरी.

कुछ शांत camera movements चरित्रों और कमरे कि दीवारों पर. पत्नी का भूत के कंधे पर हाथ रखा जाना. नज़रों का ऊपर उठना, फिर झुक जाना. कुछ seconds का static shot. .

जैसे जैसे फिल्म आगे बढती है, identity theft , स्त्री स्वतंत्रता, और सामाजिक मापदंड जैसे मुद्दे सामने आते हैं जो कि रोचक हैं. पर आखिर में केवल एक बात मायने रखती है - किस्सागोई.

विजयदान देथा कि इसी कहानी पर आधारित ' पहेली ' भी एक मनोरंजक व्यावसायिक फिल्म है लेकिन राजस्थानी संस्कृति की जो raw qualities ( संगीत, वेशभूषा, तौर - तरीके आदि ) 'दुविधा' capture करती है, वो गहरे स्तर पर छूता है. जो बात इसे एक अलग किस्म कि फिल्म बनाती है वो यह है कि सामान्यतः हम फिल्मों में कहानियों को घटते हुए ऐसे देखते हैं जैसे वे वास्तव में घटित हो रही हैं. पर दुविधा को देखते वक्त कहानी देखने और सुनने के मिश्रित भाव को हम महसूस करते हैं जो कि इसकी फंतासी के स्तर को और ऊपर उठा देता है. आखिर में गडरिया प्रेत और पति के बीच भेद करने कि युक्ति सुझाता है.

१९७४ का Filmfare Critics Award for Best Movie जीतने वाली यह फिल्म ज़्यादातर लोगों को पसंद आएगी ऐसा कहना मुश्किल है. किस तरह के लोग इस फिल्म को देखें ? शायद वे लोग नहीं जो फिल्मों में गहरे अर्थ, उद्देश्य या special effects खोजते हों. शायद ये फिल्म उन लोगों को देखनी चाहिए जिनके पास फालतू ( ! ) वक्त हो फालतू चीज़ों के लिए. जो तंगहाल शहरी जीवन में रेगिस्तान के सपने देखते हों, जो दूर आकाशगंगाओं कि निरर्थकता पर मज़ा लेते हों, जो समंदर में कहीं अनजाने द्वीपों कि कल्पना करते हों, और जिन्हें कहानियां सुनने के लिए बहाने न खोजना पड़ते हों !

24 जून, 2011

समाज का चेहरा दिखाता गम्मत

विजय शर्मा


बहुत पहले रोहिंटन मिस्त्री का उपन्यास “सच ए लॉग जर्नी” पढ़ा था. उसमें इन्दिरा गाँधी की सभा की तैयारी, सभा और सभा के बाद का एक लम्बा दृश्य है. सत्यनारायण पटेल पाठकों को एक लम्बी यात्रा, “गम्मत” दिखाने ले चलते हैं. इस यात्रा में इतिहास, पुराण, मिथक, समाज और आज के समय की राजनीति, समाजशास्त्र, संस्कृति, रीति-रिवाज, शिक्षा, पर्यावरण के दर्शन होते हैं. इस यात्रा के दौरान दो फ़िल्में बन रही हैं. एक जो सब कुछ चैनल के मुताबिक बना कर बंशी को अपने चैनल देनी है. चैनल अपने मनमाफ़िक स्टोरी चाहते हैं. दूसरी ज्यादा स्वतंत्र जो बंशी के मन में बन रही है जिसे यदि मौका मिला तो वह उपयोग करेगा. बंसी की आँखें वह सब समेटती हैं जो उसका कैमर भी नहीं समेटता है. कहानी कहने के लिए कहानीकार पटेल ने दिमाग की स्क्रीन पर खिंची फ़िल्म और नजर से खींचे गए चित्रों का उपयोग किया है.

बंशी केवल कैमरे से ही फ़ोटोग्राफ़ी नहीं करता है, बल्कि जैसे कैमरा खामोशी से अपने भीतर, बाहर का शोरगुल समेटता रहता है, वैसे ही बंसी भी अपनी नजरों से बाहर का नजारा अपने भीतर समेटता रहता है. बंसी जन्म से है तो भील पर वह आम भीलों से थोड़ा अलग है. वह अलग सोचता भी है. असल में वह भिलाला यानि भील औरत तथा राजपूत पुरुष के संबंध से उत्पन्न संतान है. टिप्पणी है कि कभी सुना नहीं गया कि कोई राजपूत औरत और भील पुरुष की संतान हो. यहाँ संकेत है अत्याचार गरीब औरत पर होता है. बंसी प्रदेश के एक टीवी चैनल के लिए वीडिओग्राफ़ी करता है. इसी काम के लिए वह मुख्य मंत्री की प्रदेश बनाओ यात्रा पर काफ़िले के संग चल रहा है.

वीडियोग्राफ़र बंसी बहुत कल्पनाशील है. वह जीप में होकर भी जीप में नहीं है. उसके मगज की स्क्रीन पर समय-समय पर कई फ़िल्में चल रही हैं. कभी इतिहास साकार हो जाता है. कभी समाजशास्त्र, कभी वह राजनीति में उलझता है. कभी त्योहार की मस्ती में कुर्राटी भरने लगता है. इतिहास से निकल कर अलीया भील, बिरसा मुंडा, और चन्द्रशेखर आजाद उसके जोश को बढ़ा रहे हैं. सीधे-सादे भील विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं. बाँसुरियाँ बन्दूक बन जाती हैं और तीर धनुषों ने खूँटी पर टँगे रहने से इन्कार कर दिया है.

चन्द्रशेखर आजाद आते हैं क्योंकि सी एम जी ने भाबरा में आजाद द्वार, आजाद मंदिर और जिले का नाम चन्द्रशेखर आजाद नगर करने की घोषणा कर दी है. कहानीकार बताता है कि कैसे राजा आनन्द देव राठौर ने अलीया भील को हरा कर अम्बिकापुर का नाम आनन्दवाली रखा जो लोगों की जुबान पर चढ़कर आली हो गया. वही आज पालीराजपुर (यह कुछ जमा नहीं आली भला कैसे पाली में परिवर्तित हो सकता है?) है. और इसी तक मुख्य मंत्री की शोभा यात्रा है. मुख्य मंत्री प्रदेश बनाओ के तहत कई फ़लिए की यात्रा पर हैं, जिसमें यह तमाम गम्मत हो रही है. जब एक युवक चन्द्रशेखर के वेष में स्टेज पर चढ़ता है और मंत्री के चरण छूता है तो बंसी खुद से संवाद करता है,
“क्या आज असली चन्द्रशेखर आजाद होते तो वह सी एम जी के चरणों में सिर झुकाते?
नहीं वह ऐसा हरगिज नहीं करते.
- फ़िर ?
- शायद यह गम्मत देख कर उसका खून खौल उठता.
- फ़िर ?
- शायद तिरसठ साल से इस क्षेत्र को अनपढ़, पिछड़ा बनाए रखने की साजिश करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था के सी एम जी की फ़ालिए से गरदन उतार लेता.”
जीप में ड्राइवर सोमु भील और डामोर की बातचीत में अमेरिका की चौधराहट तथा नेताओं की खाली माली नौटंकी जिसमें करोड़ों का सत्यानाश होता है, पर व्यंग्य है. महुआ और ताड़ के रस के ड्रम के ड्रम भर कर भीलों के लिए रखे जाते हैं ताकि उन्हें गले गले तक रस में भर कर नेता की सभा में भीड़ दिखाने के लिए बैठाया जाए. यदि कोई भील कुछ पूछने का प्रयास करता है तो उसे नेता और पार्टी के कार्यकर्ता जबरदस्ती हाथ खींच कर बैठा देते हैं और कोई इसके बाद भी कुछ हिम्मत करता है तो इन्तजाम में लगे पुलिस वाले पिछवाड़े ले जा कर उसकी गत बना डालते हैं तो फ़िर वह कहीं नजर नहीं आता है. आखीर पुलिस को शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए रखा गया है.

कैसी विडम्बना है, इधर कार्यकर्ताओं द्वारा भीलों को शराब के नशे में धुत रखा जाता है, उधर नेता मंच से शराबबन्दी की अपील कर रहा है. पिछली पार्टी के नेता ने शराब बाँटी थी इसके उलट नेता को बोलना ही है. मगर जब उनको याद दिलाया जाता है कि शराबबन्दी से उनका नुकसान होगा जनता नशे में नहीं होगी तो अपने अधिकार माँगने लगेगी. भीलड़े अगर विद्रोही हो उठेंगे तो उन्हें सम्भालना मुश्किल होगा. दो ढ़ाई सौ जिलों में उन्होंने पहले ही नाक में दम कर रखा है. तो नेता सम्भल कर दूसरी बातों पर जोर देने लगते हैं. बड़ी लम्बी गम्मत है, सी एम कई जिलों का दौरा करने निकले हैं. आम जनता का दु:ख दर्द जानने पहचानने और बाँटने. जनता से मिलकर प्रश्न पूछते हैं मगर उत्तर सुनने के पहले आगे बढ़ जाते हैं. जनता का आशीर्वाद लेते, नहीं छीनते हुए नेता और उनके चमचों में से कोई नहीं देखता है कि डोकरी की पचास रुपए की बहुत मुश्किल से खरीदी गई दाल बिखर गई. उसका कोई गवाह नहीं है. उसे हर्जाना दिलाने की बात कोई नहीं सोचता है. ठीक वैसे ही जैसे तिरसठ सालों से गुड़कती विकास की गाड़ी के पहियों को सोमलाओं की गर्दन पर से गुजरते किसी ने नहीं देखा. कोई गवाह नहीं.

गाँव की गरीब, अनपढ़ आदिवासी जनता का उपयोग भीड़ जुटाने और मनोरंजन के लिए होता है. उनकी संस्कृति और वे खुद मात्र प्रदर्शन की वस्तु हैं. परम्परा को जीवित रखने के नाम पर जिन्दगी पर खतरा मंडरा रहा है. सी एम प्रदर्शनी देखते हैं. कला की तारीफ़ करते हैं, बाँसुरी बजाने का नाटक करते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं. उनकी लाड़ी (पत्नी) साथ हैं. वे भी प्रदर्शनी में रखे जंगली फ़ल कुतरती हैं. ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है सी एम की सभा और उसमें कही उनकी बातों की लम्बाई कम होती जाती है. वे भ्रष्टाचार पर लगाम कसने, विकास दर ऊँची करने, बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्ता करने, लोगों से उन्हें योगदान करने की अपील करते हैं. हर सभा में जनता से प्रतिज्ञा कराते हैं, जिसका उनके कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी भेष में बैठाए गैर-आदिवासी जोर-शोर से अनुमोदन करते हैं और नारों के शोर से धरती आसमान गूँज उठते हैं, नेता का काफ़िला आगे बढ जाता है. जनता उसी बदहाल हालत में पीछे रह जाती है.

कैसी सज-धज से सी एम जी का काफ़िला चल रहा है. उनकी कार के आगे पीछे सुरक्षा के लिए पाँच छ: गाड़ियाँ चल रही हैं. उसके पीछे करीब सौ सवा सौ कारों का काफ़िला दौड़ता आ रह है. वार्नर गाड़ी के आगे जन संपर्क कार्यालय की गाड़ी प्रदेश के विकास का गीत बजाती चल रही है. इन गाड़ियों से करीब एक किलोमीटर दूर कार्यकर्ताओं की गाड़ियाँ हैं जो आगे तमाशा जमाने का इन्तजाम करने, व्यवस्था जमाने जा रहे हैं. जब मत्री पर फ़ूलों की वर्षा की जाती है तो बंसी को माखनलाल चतुर्वेदी की कविता याद आती है, उसे फ़ूलों की अभिलाषा और उनकी दुर्दशा पर दु:ख होता है. उसे उनका सिसकना सुनाई देता है. कुछ दूरी मंत्री हेलीकोप्टर से पूरी करते हैं. तबका दृश्य बहुत विस्तार और सूक्ष्मता से चित्रित किया है सत्यनारायण पटेल ने. खूब भीड़ जुटी है. मगर ज्यादातर भील मंत्री नहीं उड़नखटोला देखने आए हैं. पूरी कहानी में मीडिया और मीडियाकर्मी की भी खासी खिंचाई की गई है. गौरतलब है कि पटेल साहित्यकार होने के साथ-साथ खुद एक मीडियाकर्मी हैं. वे मीडियाकर्मी को आज का नारद कहते हैं जो सत्ता के टुकड़ों पर पलता है. पूरे रास्ते डमोर सी एम का गुणगान करता रहता है, कारण है उसे सी एम के जीवन की डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई थी. आज के नेता मीडिया का भरपूर उपयोग करना जानते हैं.

गम्मत में भीलों की उत्पत्ति और इतिहास, संस्कृति को उकेरा गया है. महादेव शिव के दो बेटों में से एक गरम मिजाज बेटे की संतति हैं. एक दिन गुस्से में वह पर तीर चला देता है और पिता महादेव उसे गुस्से में आकर अपने आश्रम से भगा देते हैं. बंसी सोचता है कि वह महादेव नहीं कोई ढ़ोंगी साधु या फ़रारी काटने वाला रहा होगा जिसने किसी सुन्दरी को अपने जल में फ़ंसाया होगा. बाल्मीकि जिसका नाम वालिया भील मान जाता है वह भी बंसी यानि भीलों के एक वंशज के रूप में चित्रित हैं. कृष्ण ने यादवों के साथ मिल कर गुजरात की ओर से भीलों पर हमला किया जिसके बदले में भीलों ने कृष्ण की जीवनलीला समाप्त कर दी. राम काल में वे निषाद के रूप में उपस्थित हैं. राम ने राजा बनने पर भील को सम्मान दिया और आज क्या होता है ? उन्हें ट्रक, बस या ट्रेन में भर कर हर समारोह में नचाने के लिए बुला लिया जाता है. राजनेता जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप कहते हैं और काम निकल जाने पर लात मार कर भगा देते हैं. आस्ल में नेताओं से ज्यादा उनके कार्यकर्ता दमन, शोषण और बेईमानी करते हैं. वे जनता को मंत्री तक पहुँचने नहीं देते हैं उसे अपनी सुरक्षा के घेरे में लिए रहते हैं. वही दिखाते करते हैं जिसमें उनका अपना स्वार्थ सधता है. वे चारण हैं. चापलूसी करके अपना स्वार्थ साधते हैं. गम्मत की पंक्ति है, इक्केसवीं सदी का/ देखो ठाठ/ खड़ी सोमला की खाट/ फ़ले फ़ूले चारण भाट. प्रजातंत्र चारण भाटों का राज्य बन कर रह गया है.

कहानी आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी दृष्टि रखे हुए है. बंसी की बीबी और उसका दोस्त गोसेन कौन से अपने मनमाफ़िक पढ़ाते हैं...जो पिंजरा मैकाले ने बन दिया है... उसी में चक्कर काटते हैं...जो सिलेबस शिक्ष माफ़िया ने थोप दिया है...उसी का रट्टा लगवाते हैं... बंसी खुद ग्यारहवीं पास है उसने वीडियोग्राफ़ी का कोर्स किया हुआ है. इसीलिए उसने अपने दोस्तों की तरह गुलाल लगा कर लाड़ी नहीं चुनी बल्कि एक निमाड़न फ़ूलमती मास्टरनी से कोर्ट में शादी की है मगर अभी उसमें भीलों का काफ़ी कुछ बाकी है. उसका दोस्त सोमला भील स्कूल नहीं जाता है. सोमला अशिक्षित भीलों का प्रतीक है जिसे किसी भी दिशा में हाँका जा सकता है, जिनकी भूखी बीमार आवाज में मजबूत घेरे को भेदकर सी एम के कानों तक जाने की कूबत नहीं है. हिन्दी में बोली पूछी गई बातें उनके भीतर प्रवेश नहीं करती हैं. इसी कारण उनका यह हश्र है, कोई भी उन्हें रोंदता कुचलता हुआ आगे जा सकता है. ताड़ और महुए का रस देकर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है. उनकी नशाखोरी का नेता फ़ायदा उठाते हैं. भीलों को घोषणाओं से कोई लेना देना भी नहीं है. वे तो नशे में धुत्त हैं और जैसे वे नाचने, ढोल, माँदल, बाँसुरी बजाने और कुर्राटी भरने को ही धरती पर पैदा हुए हैं. कहानीकार को चिन्ता है, सोमला की तन्द्रा कब टूटेगी? अशिक्षा का अंधेरा कब छँटेगा? जब बंसी मंत्री से प्रश्न और तर्क करने की हिम्मत करता है तो उसे इशारे से रोका जाता है और इस पर भी जब वह बाज नहीं अता है तो धमकी और भय दिखाया जाता है.

महाभारत के संजय की तरह बंसी और बंसी के माध्यम से कहानीकार सब समेटता, देखता दिखाता चलता है. उसे बचपन के खेल, किशोरावस्था में लड़के लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षण, नाच गाना, तीज त्योहार, मेले, खेत-खलिहान, किस्से-कहानी, लोकगीत, लोक नृत्य, रीति रिवाज, राजनीतिज्ञों की चालबाजियाँ, देश की दुर्दशा, नेताओं का भ्रष्टाचार, स्त्रियों पर उनकी कुदृष्टि, मंच से किए गए उनके झूठे वायदे, सब चलचित्र की भाँति नजर आते हैं और वह इन रंग बिरंगे दृश्यों को पाठक को अपनी विशिष्ट बोली-बानी में दिखाता चलता है.

पटेल अपनी कहानियों में विद्रोह का मंत्र अवश्य देते हैं. एक और विशेषता है उनकी वे प्रतिरोध में स्त्री पुरुष दोनों को शामिल करते हैं. गम्मत इस मामले में थोड़ी अलग है. गम्मत कहानी का अंत भी क्रांति के दृश्य से होता है जहाँ निराला का मतवालापन है, शिव की मस्ती है और क्रांतिकारियों का बाना है. बंसी अपने भीतर देख रहा है, खुद के पैरों में भी घुँघरू बंधे हैं, बदन पर कपड़ों के नाम पर फ़ाटली चड्डी और बुशर्ट है. भीतर रोशनी का झरना झर रहा है....कुछ आदिवासियों ने अपने हाथ या फ़िर पैर के अँगूठे को तीर से चीर लिया है और केसरा भील, छीतू भील, भुवान तड़वी के वंशजों के भाल सुर्ख खून से तिलक कर रहे हैं. यह गद्दी पर बैठने की तौयारी है. पढ़कर फ़्रांस की क्रांति की याद हो आई जहाँ भूखी नंगी जनता ने तख्ता पलट डाला. यहाँ भी भील गद्दी पर बैठने की तैयारी में हैं. देखना है कब आएगा यह दिन. देश, समाज और दुनिया का जो हाल है उसमें किसी दिन ऐसा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. जाने क्यों इस प्रतिरोध की गम्मत में उन्होंने भीलनियों को अंत में शामिल नहीं किया है. शुरु और मध्य में वे हैं, मगर अंत में नदारत हैं.
सत्यनारायण पटेल यहाँ अपनी पूरी धज में उपस्थित हैं. हिन्दी कहानी में आदिवासी समाज बहुत कम देखने को मिलता है जबकि भारत में उनकी खासी बड़ी संख्या है. मुझे यह कहानी इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि कई वर्षों से मेरे घर में “भील भारत” पर शोधकार्य चल रहा है. भील भारत व्यास रचित महाभारत से बहुत भिन्न मौखिक परम्परा का अंग है. भीलों का अपना रचा महाभारत है जहाँ सब वर्तमानकाल में चलता है. उसके नायक-नायिकाएँ मूल महाभारत से बहुत भिन्न हैं. जीवन्त हैं. गम्मत भी बहुत जीवन्त कहानी है. भीलों के जीवन से परिचित करा कर हिन्दी साहित्य को आगे बढ़ाने वाली उसे समृद्ध करने वाली. अपने समय और समाज पर अँगुली धरने वाली. कथन रस से सराबोर हाशिए पर पड़े लोगों को संवेदनशीलता के साथ कथा साहित्य के केन्द्र में लाती हुई. इसमें भीलों के इतिहास का रचनात्मक मूल्यांकन है. व्यवस्था का चेहरा नंगा करती गम्मत आजादी के इतने दशक बाद भी यहाँ की जनता का असली हाल वर्णित करती है. यह न केवल प्रतिकूलताओं की तस्वीर खींचती है वरन प्रतिरोध का स्वर और स्वप्न भी प्रस्तुत करती है.

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sabhar vijay sharma ji ke blog- http://veechika.blogspot.com/2011/05/blog-post_27.html se

01 जून, 2011

CRUSHING SICKNESS


Sano, 20, of Undli village has been reduced to a skeleton in barely a year. She contracted silicosis working in a quartz-crushing factory in Balasinore, Gujarat.

Alirajpur (Madhya Pradesh): “Slowly, but surely, every one of us who has been to the factories in Gujarat will die, and there is nothing we can do to change that,” Buddha (45) of Undli village says bitterly.

Buddha lost his 18-year-old-son Mohan to acute silicosis a year ago. His 16-year-old daughter Ghamma is still suffering from the disease.

Silicosis, the deadly scourge unleashed upon migrant labourers of Alirajpur, Dhar and Jhabua districts of Madhya Pradesh by quartz crushing factories in neighbouring Gujarat, is an incurable and irreversible respiratory disease most commonly caused by inhaling free crystalline silica or silica dust.

The labourers who work in these factories inhale it for about 8-12 hours everyday for a period of three months to a year.

According to the National Institute of Occupational Health (NIOH), “quartz grinding is one of the deadliest occupations causing exposure to almost 100% free silica leading to silicosis in a matter of few months.”
Silicosis is a strange disease that may take from a few months to a few years to manifest itself.

In Madhya Pradesh, it has assumed a class character: that of a disease almost exclusively affecting migrant labourers. Further, it's a disease that kills not just individuals, but entire families.

According to Shipi Kendra, an organisation working to spread awareness about silicosis in the region, the disease has orphaned at least 105 children in just 10 villages of Alirajpur and Dhar districts.

The organisation puts the total number of silicosis deaths in Alirajpur, Jhabua and Dhar for the year 2010 at 386 dead and 724 affected, while investigations by various government agencies put the number at 238 and 304 respectively.
Interestingly, the Alirajpur District Collector office puts the number of deaths in Alirajpur alone at 277.

Lure of the lean season

Every year during the agricultural lean season, thousands of Bhil and Bhilala tribals from Alirajpur and neighbouring districts migrate to Gujarat's Godhra and Kheda districts.

The migration started in the beginning of the last decade when labourers from Gujarat refused to work in the hazardous factories.

The labour gap led contractors from Gujarat to Alirajpur in Madhya Pradesh where the prospect of making ends meet during the lean season lured droves of tribals to the quartz-crushing factories in Godhra and Balasinore.

The trend of migrating to silicosis factories has continued over the last decade and has taken Jhabua, Dhar and even Barwani districts in its grip.

But why do people continue to migrate knowing that working in the factories is fatal?
The situation in Alirajpur is not very different from other districts of the State where tribals, having lost their traditional means of livelihood, have been reduced to migrant labourers.

“It is an easy job,” says Gopal (20), a migrant labourer. “All we have to do is fill up gunny sacks with white stone powder. We manage to fill about 600-700 sacks a day.”
The workers get paid Rs.1.50 to Rs. 2 a sack for their labour and compared to other “hard” jobs such as those in construction industry, filling up gunny sacks does come across as less strenuous.

However, the killing nature of this “easy job” reveals itself much later in symptoms that include short breath, severe weight loss, coughing and difficulty in performing the simplest of physical exercises, even walking.

The realisation

The villagers of Undli realised that the sudden decline in health and the eventual death of healthy young men and women were fallouts of their stints in quartz factories only after the funeral of the first few casualties.

“The entire body would burn except for the lungs. It was shocking,” says Kesar Singh, husband of the village sarpanch Sharmila.

The Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee scheme has failed to curb migration effectively. The most common reason for workers to prefer the “factories of doom” over the MGNREGA is timely wage payment.

“The total number of deaths in Alirajpur district is 277. It is the lure of earning easy money in a short duration that makes them migrate to Gujarat,” says Ashok Deswal, District Collector Alirajpur.

“Besides various awareness campaigns, we have organised 24 medical camps. We have also provided assistance to affected persons under several government schemes like the Deendayal Antyodaya health insurance card, and regular pension. Ten beneficiaries have also been provided over Rs. 2 lakh under a self-employment scheme,” he says.
For all the tall claims, the government's efforts seem half-hearted at best. While any signs of awareness campaigns — posters, wall paintings or hoardings — were hard to come by even at the district headquarters, the health insurance card in question does not even cover silicosis.

Health Commissioner of Madhya Pradesh Dr. Manohar Agnani agrees that the problem is acute.
“We have asked district authorities from Alirajpur, Jhabua and Dhar to send us a detailed proposal addressing this issue. We have also involved NGOs active in this area for more inputs. As soon as we receive the proposal, we will plan our next course of action,” says Dr. Agnani.

In November last, the National Human Rights Commission issued a show cause notice asking the Gujarat government why it should not be held responsible for compensation to the families of 238 silicosis victims belonging to Madhya Pradesh.

However, the compensation process seems to have become stuck in red tape. Wrangles have broken out among the NHRC, and the Gujarat and Madhya Pradesh governments.
“Right now the government is in correspondence with authorities at various levels on the issue of compensation. Nothing has been finalised yet,” Dr. Varesh Sinha, Additional Chief Secretary (Labour), Gujarat told The Hindu.

NHRC member P.C. Sharma told The Hindu: “The authorities concerned — be it the labour, health or social welfare department — need to take this matter very seriously as silicosis is a fatal disease and the labourers who get affected have nobody to turn to even as we keep doling out crores to cricketers. The working conditions of the factories are pathetic and it is the State's responsibility to protect the workers from this exploitative industry.

(Courtesy: The Hindu)

07 मई, 2011

Il postino ( The Postman )


इल पोस्तिनो ( द पोस्टमैन )
अमेय कान्त


मोस्सिमो त्रोसी की फिल्म इल पोस्तिनो ( द पोस्टमैन ) गाँव में रहने वाले एक सीधे - सादे आदमी और एक बड़े जनकवि के बीच के महीन रिश्ते पर आधारित है . एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति के भीतर धीरे- धीरे कैसे एक कवि जन्म लेने लगता है और उसकी समूची दुनिया बदल देता है , यह इतालवी फिल्म इस बात को बड़ी सुन्दरता से कहती है . इटली का एक छोटा और ख़ूबसूरत सा द्वीप है जहाँ मारिओ अपने पिता के साथ रहता है . मारिओ एक बेहद सीधा सादा युवक है जिसके पास फिलहाल कोई रोज़गार नहीं है और न ही वो अपने मछुआरे पिता की तरह पुश्तैनी पेशा अपनाना चाहता है.
इसी बीच मारिओ को एक थिएटर में दिखाई जाने वाली डॉक्युमेंट्री फिल्म में पता चलता है की चिली के जाने - माने कवि पाब्लो नेरुदा अपने देश से निष्कासन की अवधि पूरी होने तक उन्ही के द्वीप पर आकर रहने वाले हैं . नेरुदा के कम्युनिस्ट विचारों के कारण कई लोग उनसे प्रभावित हैं और इस जनकवि के अपने यहाँ आने से खुश भी . लेकिन मारिओ जिस बात से सबसे ज़्यादा प्रभावित है वो ये कि नेरुदा महिलाओं और लड़कियों में खासे लोकप्रिय हैं और अब उसके गाँव में आने वाले हैं .
इस सबके बीच नौकरी के एक इश्तेहार पर मारिओ की नज़र पड़ती है जिसमें लिखा है की पोस्ट ऑफिस में एक अस्थाई डाकिये की ज़रुरत है . पोस्टमास्टर से मिलने पर मारिओ को यह पता चलता है की यह पोस्टमैन उन्हें खासतौर पर नेरुदा के लिए आने वाली ढेर सारी डाक उन तक पहुचाने के लिए चाहिए .
पोस्टमास्टर मारिओ के कहने पर उसे काम पर रख तो लेता है लेकिन उसके घोंचूपन को देखते हुए उसे हिदायत भी देता है की वह रोज़ चुपचाप नेरुदा को उनकी डाक सौपकर वापस आ जाया करे और फ़िज़ूल बातें कर के उनका वक़्त जाया न किया करे . नेरुदा को लेकर पोस्टमास्टर और मारियो की राय अलग है क्योकि पोस्टमास्टर नेरुदा को एक महान जनकवि के रूप में देखता है जबकि मारियो के मन में उनकी छवि एक रोमांटिक कवि की है . बहरहाल, मारिओ बहुत खुश है क्योंकि अब वह रोज़ नेरुदा से मिल सकेगा .
इसी गाँव की एक लड़की बीट्रिस से मारिओ प्रेम करने लगता है . बीट्रिस अपनी आंटी की होटल में काम करती है . मारिओ उसे प्रभावित करने के लिए ये दिखाना चाहता है कि नेरुदा से उसका कितना मेलजोल है, लेकिन शुरुआत में बात कुछ बन नहीं पाती . जाने अनजाने में मारिओ पर नेरुदा कि कविताओं का असर होने लगता है , हालाँकि ज़्यादातर बातें उसकी समझ से बाहर हैं . नेरुदा जब उसे मेटाफर (रूपक ) का उदाहरण देते हुए उसका अर्थ समझाते हैं तो निहायती भोलेपन से वह पूछता है कि इसके लिए मेटाफर जैसे भारी -भरकम शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है .
वह नेरुदा को बताता है कि उसे भी बहुत सी चीज़ें महसूस होती हैं पर वह नहीं जानता कि उन्हें व्यक्त कैसे करे . गाँव के इस भोले भले शख्स के मन में कविताओं के प्रति इस तरह का लगाव और संवेदनशीलता देखकर नेरुदा भी अचंभित हैं . वह नेरुदा को बताता है कि जिस तरह से उन्हें नाइयों कि दुकानों से उठने वाली गंध उदास करती है , उसकी कुछ वैसी ही स्थिति मछुआरों के जाल देखकर होती है .
नेरुदा एक दिन वे मारिओ को एक टेप -रेकॉर्डर दिखाते हैं जो उन्हें भेंट में मिला है. उसकी आवाज़ रिकॉर्ड करने के लिए वे उसे कहते हैं कि वह अपने द्वीप की खूबसूरत चीज़ों के बारे में कुछ बताए. बहुत सोचने के बाद मारिओ सिर्फ एक नाम बोल पता है - बीट्रिस . मारिओ के इस पागलपन को देखते हुए नेरुदा उसके प्रेम को हासिल करने में उसकी मदद करते हैं और अंततः मारिओ और बीट्रिस का विवाह हो जाता है. इन दोनों कि शादी में नेरुदा बेस्ट मैन बनते है . पार्टी के दौरान ही उन्हें एक पत्र मिलता है , जिसमें उन्हें पता चलता है कि उनका निष्कासन समाप्त हो चुका है और वे अब अपने देश चिली लौट सकते हैं .
नेरुदा के इस तरह से अचानक वापस जाने से मारिओ कुछ असहज भी है और उदास भी . एक तरफ तो उसे नेरुदा के देश लौटने कि ख़ुशी है वहीं दूसरी तरफ एक मित्र के जाने का दुःख . नेरुदा के चले जाने के बाद मारिओ उन्हें कई पत्र लिखता है , लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिलता. वह खुद को समझाता है कि हो सकता है, अपनी व्यस्तता के चलते नेरुदा उसके पत्रों का जवाब न दे पा रहे हों. एक दिन उसे नेरुदा की ओर से एक पत्र मिलता है लेकिन दुर्भाग्यवश वह उनकी सेक्रेटरी का पत्र है जिसमें लिखा कि है कि वह नेरुदा की महत्वपूर्ण चीज़ों को चिली वापस पहुँचा दे. इस सबके बीच वह नेरुदा के टेप - रिकॉर्डर से द्वीप पर कई तरह की आवाजें रिकॉर्ड करता है, यहाँ तक कि पत्नी के पेट में पल रहे अपने बच्चे के दिल की धड़कन भी.
कई साल बाद जब नेरुदा अपनी पत्नी के साथ द्वीप पर लौटते हैं तो मारिओ की पत्नी और उसके बेटे पाब्लितो से मिलते हैं, जिसका नाम पाब्लो नेरुदा के नाम पर ही रखा गया है . लेकिन मारिओ उन्हें कही दिखाई नहीं देता. वे स्तब्ध रह जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि मारिओ अपने बच्चे के पैदा होने से कुछ दिन पहले ही मारा जा चुका था. नेपल्स में होने वाले एक कम्युनिस्ट प्रदर्शन के दौरान वह खुद की लिखी हुई एक कविता सुनाने वाला था लेकिन पुलिस द्वारा की गई हिंसा के दौरान अन्य कई लोगों के साथ वह भी मारा गया. बीट्रिस उन्हें मारिओ द्वारा रिकॉर्ड किया गया टेप सौंप देती है.
यह फिल्म इतालवी लेखक अंतोनियो स्कार्मेता के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी. मोस्सिमो त्रोसी जो असल में एक हास्य अभिनेता थे, पाब्लो नेरुदा की कविताओं से काफी प्रभावित थे और इसलिए लम्बे समय से नेरुदा पर फिल्म बनाना चाह रहे थे. लेकिन फिल्म की सारी तैयारियाँ हो जाने के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उन्हें हिदायत दी गई कि वे जल्दी ही ह्रदय का ऑपरेशन करवा लें. फिर भी त्रोसी ने अपने दोस्त और फिल्म के निर्देशक माइकल रेडफोर्ड की सलाह के विपरीत फिल्म में मुख्य भूमिका ही निभाई , परिणामस्वरूप अत्यधिक शारीरिक श्रम हो जाने के कारण फिल्म की रिलीज़ के पहले ही हृदयाघात से उनका निधन हो गया . इसे त्रोसी की अपने प्रिय कवि के प्रति अगाध श्रद्धा कहें या संयोग, कि बिल्कुल फिल्म के मुख्य पात्र मारिओ की तरह त्रोसी भी क्लाइमेक्स के पहले ही परदे से जा चुके थे , हमेशा के लिए.
फिल्म में अपनी जानदार भूमिका के लिए त्रोसी कि विश्व भर में जमकर तारीफ हुई . फिल्म में नेरुदा की भूमिका फिलिप नोइरे ने निभाई. 1994 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को सर्वश्रेष्ट अभिनेता सहित 5 अकादमी पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया जिनमे से इसे सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए अकादमी पुरस्कार मिला. बाफ्टा पुरस्कारों के अलावा इसे और भी कई पुरस्कार मिले. इस फिल्म को न सिर्फ एक महान कवि के साथ आम आदमी के रिश्ते के लिए बल्कि एक महान फ़िल्मकार और अभिनेता के फिल्म निर्माण के प्रति अपने जुनून के लिए भी याद रखा जाना चाहिए.

24 फ़रवरी, 2011

POLICE ATROCITY ON TRIBAL WOMAN

RAHUL BAINARJEE



Recently the salesman of the public distribution outlet in village Chapria some forty kilometers from Alirajpur district in Madhya Pradesh took out all the wheat, rice and sugar meant for subsidised distribution to the villagers during the night on 2nd February, 2011 and then lodged a complaint with the Police outpost in Phoolmal village nearby that some unidentified thieves had stolen the foodgrains and sugar. The policemen from the outpost then made a visit to Chapria village on 9th February in search of a person named Kalia and not finding him caught hold of his wife Vechli and gave her a solid caning on her buttocks and thighs and left her writhing on the ground. When her cries brought the other villagers to her house the policemen threatened them with dire consequences if they did not bring Kalia to the outpost and returned.

The villagers next day instead of visiting the police outpost took a circuitous route to Alirajpur and came to the office of the Khedut Mazdoor Chetna Sangath. Shankar, the secretary of KMCS immediately had an application prepared and went with them to complain to the Collector and the Superintendent of Police. The SP, a woman, was aghast at the purple weal marks of the beating on Vechli's body shown in the picture below and immediately ordered her to be taken to hospital and also ordered that the two policemen on duty in Phoolmal Chowki be called for explanations.




The media too were given the story and the next day the papers were full of it. While all this was happening the people came back to the KMCS office from the hospital with the woman saying that the doctor had said that the wounds were superficial and needed only first aid and no hospitalisation. Shankar had to rush back to the hospital and give the doctor a dressing down to get the woman admitted.
The huge negative publicity in the press forced the administration to suspend the PDS salesman and also announce that special efforts would be made to see that the foodgrains, sugar and kerosene did indeed reach the people and were not siphoned off. The official enquiry regarding the culpable police personnel is still going on. It remains to be seen what the Police action is against their own culprits.
What all this underlines is the impunity of the government functionaries which allows them to indulge in corruption and oppression due to the lack of exemplary punitive action by higher authorities who are in turn bound less by rules and more by the interests of scammers. There are only a few areas in this country where there are organisations like the KMCS that can challenge this impunity in any effective manner. That the KMCS now has the power to do so is because its members have fought for many years and borne much suffering to build up this power. Even so this power is tenuous because if the state decides it can, at anytime crush, the organisation. So democracy is not something that can be easily established when there is a huge centralisation of economic and political power and needs much greater people's mobilisation than there is at present.

15 फ़रवरी, 2011

लाइफ इज़ ब्यूटीफुल ( La vita e bella )

अमय कांत






रोबर्टो बेनिनी की फिल्म ‘लाइफ इज़ ब्यूटीफुल (1997) ’ एक इतालवी फिल्म है जो जीवन के कड़वे यथार्थों से संघर्ष की कहानी है . यह जीवन से लबरेज़ एक ऐसे आदमी की कहानी है , जो हमेशा ज़िन्दगी के सकारात्मक पक्ष को देखता है.

फिल्म की कहानी द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है जो एक यहूदी इतालियन व्यक्ति और उसके परिवार के इर्द -गिर्द घूमती है . फिल्म के पहले भाग में एक निहायती फक्कड़ और खुशमिजाज़ आदमी , ग्विडो इटली के अरेज़्जो शहर में आता है और बुक स्टोर खोलना चाहता है . अस्थायी तौर पर वह एक रेस्टोरेंट में काम करने लगता है . शहर में उसकी मुलाकात बड़े ही मज़ेदार तरीके से वहीँ के एक स्कूल में पढ़ाने वाली युवती डोरा से होती है , जो असल में काफी धनवान परिवार से सम्बन्ध रखती है . डोरा के परिवार वाले चाहते हैं की उसकी शादी किसी बड़े पद पर काम करने वाले व्यक्ति से हो . लेकिन डोरा खुद भी ग्विडो को चाहने लगती है और उसी से शादी करना चाहती है . बड़े ही नाटकीय तरीके से ग्विडो डोरा को उसकी सगाई की पार्टी से भगाकर अपने घर ले आता है . दोनों शादी करके ख़ुशी - ख़ुशी साथ रहने लगते हैं , कई साल बीतते हैं . अब घर में तीन लोग हैं ग्विडो, डोरा और उनका बच्चा - जोशुआ . धीरे धीरे डोरा की माँ भी पुरानी बातें भूलकर डोरा को माफ़ कर देती है . एक दिन जब जोशुआ के जन्मदिन पर डोरा अपनी माँ को लेकर घर आती है तो पाती है की घर का सारा सामान बिखरा पड़ा है . घर में न तो ग्विडो है न जोशुआ . मोहल्ले के दूसरे यहूदियों के साथ उन्हें भी यातना शिविर में ले जाया जा चुका है .

यहाँ से फिल्म का दूसरा भाग शुरू होता है . डोरा भी तय कर लेती है की उसे हर हाल में अपने पति और बच्चे के साथ ही रहना है . वह भी उस ट्रेन में जाने की अनुमति ले लेती है, जिसमें ग्विडो और जोशुआ के साथ वे सब लोग हैं जिन्हें यातना शिविर में ले जाया जा रहा है . अपनी पत्नी को साथ चलता देखकर ग्विडो खुश भी होता है और दुखी भी . शिविर में पहुचने के बाद महिलाओं और पुरुषों को अलग कर दिया जाता है . जोशुआ के पूछने पर ग्विडो उसे समझाता है कि वे सब लोग एक खेल खेल रहे हैं जिसमें उन्हें कुछ दिन घर से दूर रहना पड़ेगा और खेल के नियमों के हिसाब से चलना पड़ेगा . जो भी व्यक्ति सबसे पहले 1000 पॉइंट्स बटोर लेगा वो जीत जाएगा . और जीतने वाले को इनाम में एक टैंक दिया जाएगा , असली टैंक ! ग्विडो नहीं चाहता कि जोशुआ को इस कड़वी सचाई का पता चले कि वे लोग एक ऐसी जगह आ चुके हैं , जहाँ से जीवित वापस लौटना शायद कभी संभव न हो . इस तरह जोशुआ के हर सवाल के जवाब में ग्विडो उसे आश्वस्त करता है कि बाकी लोग उसे कुछ भी कहें , उसे उनकी बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योकि वो लोग नहीं चाहते कि जोशुआ जीते . यातना शिविर में जहाँ बूढों और बच्चों को काम के लिए निरर्थक मानकर मार दिया जाता है , ग्विडो जोशुआ को अपने कमरे में जर्मन सैनिकों से छुपा कर रखता है , जहाँ उसके साथ और भी कई लोग हैं . यातना शिविरों में यह एक आम तरीका हुआ करता था जिसमें काम के लिए निरर्थक समझे जाने वाले लोगों को बाथरूम जैसे कक्षों में शावर लेने को कहा जाता था और पानी की जगह ज़हरीली गैस छोड़कर मार दिया जाता था.


जोशुआ को अंत तक ग्विडो महसूस नहीं होने देता की वास्तविकता क्या है . जब युद्ध समाप्त होने लगता है और जर्मन सेना वापसी की तैयारी करने लगती है , भगदड़ में ग्विडो जोशुआ को एक बॉक्स में यह कह के छुपने को कहता है कि यह खेल का अंतिम पड़ाव है , वे लोग बस खेल जीत ही चुके हैं और जीतने के लिए जोशुआ को किसी भी कीमत पर तब तक डिब्बे से बाहर नहीं निकलना है, जब तक कि सब लोग वहाँ से चले नहीं जाते. ग्विडो डोरा को खोजने निकल जाता है , लेकिन बीच में ही एक सैनिक द्वारा पकड़ लिया जाता है . सैनिक ग्विडो को गोली मार देता है .


ग्विडो के कहे अनुसार जोशुआ सुबह तभी बाहर निकलता है , जब चारों तरफ शांति छा चुकी है , बचे खुचे यहूदी भी धीरे - धीरे बाहर आते हैं . जोशुआ सड़क पर अकेला खड़ा है , तभी सामने से अमेरिकन आर्मी का एक टैंक आता है . जोशुआ खुश है कि वह खेल जीत चुका है और यह टैंक उसकी जीत का इनाम है . टैंक पर सवार अमरीकी सैनिक सड़क पर खड़े अकेले बच्चे को देखकर अपने साथ टैंक पर बिठा लेता है . जोशुआ जीत कि ख़ुशी में फूला नहीं समां रहा है कि जो उसके पिता ने कहा था , बिलकुल वैसा हुआ . रास्ते में जोशुआ को उसकी माँ भी मिल जाती है . जोशुआ माँ को सुना रहा है कि कैसे उसने सारे नियमों पर चलकर सबसे ज़्यादा अंक बटोरे और इनाम में टैंक जीत लिया . जोशुआ नहीं जानता कि उसके और इस क्रूर यथार्थ के बीच ढाल बनकर खड़ा उसका पिता ग्विडो उससे हमेशा के लिए दूर जा चुका है. वह इस खेल से मुक्त हो चुका है लेकिन उसे सिखा गया है कि जीवन बहुत सुन्दर है .

फिल्म का पहला भाग कुछ अधिक लम्बा लगता है लेकिन यह ग्विडो के व्यक्तित्व को स्थापित भी करता है . जिस तरह का जीवट ग्विडो यातना शिविर में रहकर दिखाता है, उसे जस्टिफाई करने के लिए पहले भाग में उसका खिलंदडपन दिखाना ज़रूरी भी लगता है . हिटलर के यातना शिविरों की सच्चाई को स्पिलबर्ग की ' शिंडलर्स लिस्ट ' फिल्म भी ज़बर्दस्त तरीके से दिखाती है पर यह एक अलग जानर की फिल्म है . कई आलोचक इसे चार्ली की ' द ग्रेट डिक्टेटर' की श्रेणी में रखते हैं . फिल्म में ग्विडो का किरदार खुद रोबर्टो बेनिनी ने ही निभाया था . फिल्म को विभिन्न श्रेणियों में 3 ऑस्कर मिले जिसमें बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी शामिल था . कान्स फिल्म समारोह समेत अन्य कई समारोहों में भी इस फिल्म को काफी सराहा गया , पुरस्कृत भी किया गया .

02 फ़रवरी, 2011

ये कौन सी दयार है

प्रदीप मिश्र

किसी नक्षत्र का थोड़ा-सा उजाला
मुझे मेरी राह सुझाता है
और वह थोड़ा-सा उजाला ही है
जो मुझे नष्ट कर सकता है
या बचा सकता है ।''

अदम जगाजेयेव्स्की की कविता की इन पंक्तियों को उदय प्रकाश के ब्लाग पर पढ़ा और हमारे समय की गुत्थियों को ठीक से समझने की एक नई रोशनी मिल गयी। यह हमारे समय का भयानक सच है कि हम एक तरह के उजाले से संचालित हो रहे हैं। यह उजाला हमारे समय में हो रहे विकास और उपलब्धियों का उजाला है। इस अंधाधूंध दौर में ऊपर से सबकुछ अच्छा-अच्छा होता दिख रहा है। लेकिन यहाँ पर इस बात को ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि यह उजाला हमें नष्ट भी कर सकता है और बचा भी सकता है। चौंधियाहट हमेशा ही उजाले में पैदा होती है। लेकिन इस इस चिन्तन परम्परा में शामिल होने के लिए हमें हमें थोड़ा अवकाश चाहिए और इस दौड़ से बाहर निकल कर देखना होगा कि यह कहाँ समाप्त हो रही है। क्या ये लगातार आत्महत्या कर रहे, किसानों के कब्रिस्तान में समाप्त हो रही है या मानवीय मूल्यों के कारागार में। क्योंकि यह तो तय है कि दौड़ में जीतनेवाला एक ही होगा, बाकी सब भीड़ हैं। विडम्बना यह है कि इस दौड़ की भीड़ में पूरा का पूरा देश भी, अपने मुखिया सहित शामिल है। अगुवा वे सारे विकसित देश हैं जो बड़ी मछली और छोटी मछली के भोजन परम्परा में विश्वाश रखते हैं। यानि कभी भी कोई भी दौड़ता हुआ देश अपने देश की ध्वजा को रूमाल की तरह जेब में ठूंस लेगा और अगुवा देशों की इस समझाईश को मान लेगा ध्वजा की क्या उपयोगिता यह तो सिर्फ फहरता रहता और एक आदमी रोज इसे उतारने और चढ़ाने में खर्च होता है। जबकि रूमाल साफ-सफाई, दुर्घटना में जीवन रक्षक और जरूरत पढ़ने पर गला कस के आत्महत्या करने में उपयोगी है। यह तर्क सर्वसम्मति से अपने देश की जनता से स्वीकार भी करवा लेगा । भविष्य में आत्मस्वाभिमान, अस्तित्व और हक की बात करनेवाले लोगों को मनोरोगी कहा जाएगा और विकसित देशों में वैज्ञानिक इस शोध में लगें हैं, कि इन भयानक रोगियों का क्या इलाज हो सकता है। अब आप अवकाश लेकर कोई चिन्तन नहीं कर सकते हैं। यदि ऐसा किया तो इस विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट जाऐंगे। जहाँ अंधकार ही अंधकार होगा और ईमानदारी,निष्ठा, बंधुत्व, प्रेम जैसे कुछ मूल्य होंगें। इसलिए बिना सोचे समझें दौड़ें और कमसे कम विश्व विश्वग्राम तक पहुँचकर वैश्विक नागरिकता प्राप्त कर लें।

मुझे मालूम है कि इतनी गम्भीर बातों को सुनने के कान और पचाने के पेट अब नहीं रहे। लेकिन मैं भी क्या करूँ आजकल इन्दौर में घनघोर साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन हो रहे हैं। हम जैसे आवारागर्दों के तो ये ठिये हैं। सो पहुँच ही जाते हैं और बुद्ध की तरह ज्ञान प्राप्त करके ही निकलते हैं। उसी ज्ञान की बघार ऊपर दे डाली। लेकिन कभी- कभी इन साहित्यिक कार्यक्रमों कुछ जादूई हादसे हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ शरद पगारे जी के सम्मान के अवसर पर हुआ। आयोजन स्थल था मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति में था। सम्मान देने के लिए हमारे समय के एक लोकप्रिय नेता जी पधारे। उनके साथ कुछ एकसपाइरी डेटवाले नेता जी लोग और एक साहित्यकार प्रभू जोशी मंच पर विराजमान थे। इस कार्यक्रम के बारे में पहले ही साहित्यिक मित्रों की प्रतिक्रिया मिल चुकी थी कि क्या जाना वहाँ तो सारे नेता आ रहे हैं। खैर हमने तो खतरा मोल ले ही लिया था, और नेता जी के चिन्तन परक भाषण से रूबरू हुए और पहली बार जाना कि नेता जी संस्कारों की भी बात करते हैं और अपने शहर में होनेवाली धटनाओं के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। यहाँ पर मुझे चन ्द्रकांत देवताले की पंक्तियां याद आयीं -

दिखाई दे रही है कई कई चीजें
देख रहा हूँ बेशुमार चीजों के बीच एक चाकू
अदृश्य हो गई अकस्मात तमाम चीजें
दिखाई पड़रहा सिर्फ चमकता चाकू

प्रभू जोशी जी हमारे बीच में लाईट हाउस की तरह हैं। उनकी चेतना हमारे समय के समग्र वैज्ञानिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसलिए वे जब हिन्दी भाषा की दुर्गति और उसके कारकों पर बात करतें हैं तो सचमुच हमारी आंखें खुल जातीं हैं और साफ दिखाई देता है कि यह षडयंत्र हमें बिना लड़े किस तरह से पराजित कर देगा और हम अपने विकास का जयगान करते-करते कब अपनी गुलामी का जय गान करने लगेंगे पता भी नहीं चलेगा।

इसी कड़ी में उन्होंने फिल्मी दुनिया की कुटिलता और हेकड़ी पर बात करते हुए बताया कि किस तरह से वहाँ पर लेखकों का शोषण होता है। जब कमलेश्वर जैसे सूस्थापित और रसूख वाले लेखक को फिल्मी दुनियावालों ने नहीं छोड़ा तो शरद पगारे और सत्यानारायण किस खेत के मूली हैं। यहाँ पर मुझे हाल ही का एक प्रकरण याद आया। कोई नीतू हैं जो मुम्बईया फिल्मी बाजार की खुदरा विक्रेता हैं। उनको अचानक स्वप्न आया कि मालवी का फिल्मी बाजार एकदम खाली है। यहाँ पर धन्धा अच्छा चलेगा सो वे अचानक प्रकट हो गयीं और सुप्रसिद्ध कथाकार सतीश दुबे जी के उपन्यास पर फिल्म बना डाला। इस उपन्यास को पटकथा में बदलते समय उनको मालवी बोली के जानकार की जरूरत पड़ी सो युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल से मालवी में संवाद भी लिखवा लिया। जैसा कि हमेशा होता है, अब वे सत्यनाराण पटेल का नाम फिल्म में देने से मना कर रहीं हैं। सत्यनाराण ने उनके खिलाफ हाथ-पॉव पटक रहे है। सत्यनारायण ने फिल्म में मालवी संवाद लिखा है इसका पूख्ता प्रमाण मेरे पास भी है। अभी इन सब विचारों में हम उलझे ही हुए थे कि सामने से आते हुए विचारसिंह जी घुड़चढ़े दिखाई दिए। अपनी साईकिल का अगला पहिया मेरे दोनों पावों के बीच में लगभग घुसाते हुए, बोले - "घोर अन्याय हो गया और तुम सब चुप बैठे हो ? जाहिल हो जाहिल"

"क्या हो गया ? " मैंने सकपकाते हुए पूछा।

"वो देखो सामने।" उन्होने कसमसाते हुए आदेश दिया। मुड़कर देखा तो उसी मालवी फिल्म भुनसारा का कद्दावर बैनर लगा था। कुछ छण गौर से देखने के बाद भी मुझे कुछ भी नहीं मिला तो वे झुंझला ते हुए बोले - "यही बात है जो गलत चीजों को बड़ावा देती है। तुम लोग सोते ही रहोगे और चोर सब लूट ले जाऐंगे।" और अपने जेब से एक अपील की पर्ची मुझे थमाते हुए आगे निकल गए। पर्ची पढ़कर जब पुनः उस मालवी की फिल्मी का बैनर को देखा तो उसपर बम्बइया चेहरों की धूम थी और सिर्फ दो नाम छपे थे एक निर्देशक का और दूसरा निर्मात्री का। इन दोनों का मालवा की संस्कृति और बोली से कोई लेना देना नहीं है और इनको आज से पहले मालवा की बोली के उत्थान में कार्यशील कभी नहीं पाया। निर्माण के दौरान स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने की खबरें इस फिल्म के प्रेसकान्फ्रेंसो से खूब आयीं थीं। इस पर न तो लेखक सतीश दुबे का नाम था, न सत्यनारायण पटेल का और नहीं उन स्थानीय कालाकारों के नाम या चित्र जिनको यह फिल्म एक्टिंग का अवसर दे रही थी। यहाँ पर विचारसिंह जी घुड़चढ़े के पर्चे में छपी अपील सार्थक लगने लगी कि - "अगर सच्चे मालवी हो तो भुनसारा फिल्म मत देखना। इसने तुम्हारी बोली के लेखकों और कलाकारों का अपमान किया है। उनका नाम कहीं भी बैनर पर नहीं है। तो सोचो फिल्म बनाने और उसके क्रेडिट में कितना घपला होगा। ये तुम्हारे जेब से पैसा निकाल कर मुम्बई ले जाऐंगे और तुमको ठेंगा दिखा जाऐंगे। बहिस्कार करो, भुनसारा फिल्म का बहिस्कार करो। और बता दो सबको कि मालव भूमी के लोग अपने लेखकों, कलाकारों और संस्कृति से कितना प्रेम करते हैं।" नीचे नोट लिखा था मैं इस अपील को पूरे मालवा में फैला दूँगा फिर देखता हूँ। मुम्बईया दाँव कैसे सीधे सच्चे मालवी जनता को मुर्ख बनाती है। काश विचारसिंह जी घुड़चढ़े का विचार सारे मालवा के निवासियों में प्रवेश कर जाता। मैं अपनी बात मखमूर सईदी के इस शेर के साथ पूरा कर रहा हूँ।

चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा

ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा

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