14 अप्रैल, 2015

हालीना जी की कवितायेँ


आधुनिक पोलिश कविता  की एक सशक्त हस्ताक्षर हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) के जीवन और कविताओं से गुजरते हुए बार - बार  निराला की पंक्ति याद आती  है -' दु:ख ही जीवन की कथा रही.' । वह  इधर के एकाध दशकों से  पोलिश साहित्य के अध्येताओं  की निगाह की निगाह में आई है और विश्व की बहुत - सी भाषाओं में उनके अनुवाद हुए हैं। हिन्दी  में हालीना की  कविताओं की उपस्थिति बहुत विरल है। 'कर्मनाशा' और 'कबाड़ख़ाना' पर उनके बहुत से अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ अनुवाद पत्रिकाओं में भी आए है / आने वाले हैं। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है पोलिश कविता की समृद्ध और गौरवमयी परम्परा  की एक महत्वपूर्ण कड़ी  के रूप में विद्यमान  हालीना पोस्वियातोव्सका  की
दो कवितायें :
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-  लालसायें

मुझे लुभाती हैं लालसायें
अच्छा लगता है
ध्वनि और रंगो के कठघरों पर सतत आरोहण
और जमी हुई सुवास को
अपने खुले मुख में कैद करना।

मुझे भाता है
किसी पुल से भी अधिक तना हुआ एकांत
मानो अपनी बाहों में
आकाश को आलिंगनबद्ध करने को तल्लीन।

और दिखाई देता है
बर्फ़ पर नंगे पाँव चलता हुआ
मेरा प्रेम।



०२- अकेलेपन में
यह जो एक विपुला पृथ्वी है अकेलेपन की
इस पर
एक अकेले ढेले की मानिन्द रखा है तुम्हारा प्रेम।

यह जो एक समूचा समुद्र है अकेलेपन का
इसके ऊपर
एक भटके हुए पक्षी की तरह
मँडराती रहती है तुम्हारी कोमलता।

यह जो एक संपूर्ण स्वर्ग है अकेलेपन का
इसमें वास करता है
एक अकेला देवदूत
....और भारविहीन हैं उसके पंख
तुम्हारे शब्दों  के मानिन्द।



03 शब्दों का होना
इन तमाम शब्दों का अस्तित्व था
हमेशा से
वे थे सूरजमुखी की खुली मुस्कान में
वे थे
कौवे के काले पंखों में
और वे थे
अधखुले दरवाजे के चौखट पर भी सतत विद्यमान।
   
यहाँ तक कि जब नहीं था कोई भी दरवाजा
तब भी उनका अस्तित्व था
एक मामूली -से  पेड़ की अनगिन शाखाओं में।
  
और तुम चाहते हो कि वे मेरे हो जायें
तुम चाहते हो कि रूपायित हो जाऊँ मैं
कौवे की पाँख में, भोजपत्र के वृक्ष में और ग्रीष्म की सुहानी ऋतु में
तुम चाहते हो कि
मैं भिनभिनाऊँ
धूप के वृत्त में उभरते मधुमक्खियों छत्ते की मानिन्द।
  
अरे पागल !
मैं नहीं हूँ इन शब्दों की स्वामिनी
मैंने तो उन्हें बस उधार लिया है
हवा से , मधुमक्खियों से और सूरज से।

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टिप्पणी:-


वागीश जी:-
आह, कितना सहज, कितना तरल और कितना गहरा! अकेलेपन का ढेले से उड़ाते पंछियों और देवदूत बन जाना साथ ही शब्दों की स्वामिनी नहीं होने की आत्मीय स्वीकृति जैसे कोई जिसे कब से खोज रहा था वो चुपके से घर के आँगन की शर्मीली घूप में सुस्ताता मिल जाये, सहसा। मणि मोहन की जय हो।
हाँ, और अनुवाद ऐसा की भाषा, समय और समाज निर्बाध हवा की तरह पूरी पृथ्वी पर एक सी व्याप्त हो।


अरुण आदित्य:-
'बर्फ पर नंगे पांव चलता हुआ मेरा प्रेम...एक अकेले ढेले की मानिंद रखा है तुम्हारा प्रेम।'
हवा मधुमक्खियों और सूरज से उधार लिए शब्दों से ही ऐसी पंक्तियां लिखी जा सकती हैं।
हालीना तो हालीना हैं पर सिद्धेश्वर जी के अनुवाद का भी क्या कहना !
ऊपर वीरेन दा की ताली गूंज रही है। उसमें मैं अपनी तालियों की गूंज भी मिलाता हूं।

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