14 अप्रैल, 2015

संजय कुंदन जी की नौकरी पर कविता

नौकरी तंत्र
संजय कुंदन

एक
बात पानी बचाने को लेकर हो रही थी/ 
हंसी बचाने को लेकर हो रही थी/ 
प्रेम बचाने को लेकर हो रही थी पर असल में सब अपनी नौकरी बचाने पर लगे हुए थे/ 
नौकरी से बेदखल किए जाने के कई किस्से हवा में उड़ रहे थे/
किसी को भी एक गुलाबी पर्ची थमाई जा सकती थी 
और बड़े प्यार से कहा जा सकता था 
कि अब आप हमारे काम के लायक नहीं रहे 
या आपका व्यवहार आपत्तिजनक पाया गया।
एक आदमी को नौकरी से विदा करते हुए कहा गया 
कि आप बेहतर इंसान तो हैं पर इस नौकरी के योग्य नहीं/ 
वह आदमी बहुत पछताया 
कि आज तक वह बेहतर इंसान बनने पर क्यों लगा हुआ था/ 
उसने नौकरी के योग्य बनने की कोशिश क्यों नहीं की/ 
समस्या यह थी कि बेहतर इंसान होने के दावे पर 
वह अगली कोई नौकरी कैसे पाता।


दो
नौकरी जाने से डरा हुआ एक आदमी दफ्तर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था/ 
वह खुद को दफ्तर में छोडक़र घर आता था। 
नौकरी में सफल होने के लिए एक आदमी छोटा बनना चाहता था/ 
वह इस कवायद में लगा था कि अपने को इतना सिकोड़ ले 
कि एक पेपरवेट बन जाए या फिर कम्प्यूटर माउस जैसा नजर आए/ 
हालांकि उसका सपना था आलपिन बनना 
ताकि अपने अधिकारी के पिन कुशन में अलग से चमकता दिखे।


तीन
एक आदमी अपनी पत्नी से यह छुपाना चाहता था 
कि उसकी नौकरी जाने वाली है/ 
इसलिए यह जरूरी था कि वह उदास न दिखे/ 
उसने उसके लिए एक साड़ी खरीदी 
और शादी के शुरुआती दिनों के बारे में खूब बातें की और बात-बेबात हंसा/ 
उसने आज नहीं कहा कि वह बेहद थका हुआ है 
और उसका सिर घूम रहा है/ 
बच्चों को टीवी की आवाज कम करने के लिए भी उसने नहीं कहा 
और रोज की तरह नहीं बड़बड़ाया कि पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो मेरी तरह बन जाओगे/
उलटे वह उनके साथ कैरम खेलने बैठ गया/ 
उसे अपने इस अभिनय पर हैरत हुई/ 
फिर उसने सोचा 
कि अगर इसी तरह थोड़ा अभिनय उसने दफ्तर में रोज किया होता 
तो नौकरी जाने की नौबत ही नहीं आती।



चार
एक भूतपूर्व क्रांतिकारी मिमियाकर बात कर रहा था 
एक विदूषक के सामने और दासता के पक्ष में कुछ सुंदर वाक्य रचता था/ 
एक दिन भूतपूर्व क्रांतिकारी ने विदूषक को मेज पर रेंगकर दिखाया/ 
फिर बाहर निकलकर उसने अपने दोस्तों से कहा- भाई क्या करूं नौकरी का सवाल है। 
कुछ विदूषक शाम में जमा होते 
और जाम टकराते हुए जोर-जोर से हंसते हुए कहते -हा, हा इस बुरे दौर में भी हम अधिकारी हैं/ 
हा हा, हम बर्बाद नहीं हुए/ 
हमारी अब भी ऊंची तनख्वाह है/ 
हा हा हम चाहें तो किसी को मुर्गा बना दें/
किसी को भी नौकरी से निकाल दें/ 
कोई हमें विदूषक कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा।   
सचमुच विदूषकों को कोई विदूषक नहीं कह रहा था/ 
दलाल को कोई दलाल नहीं कहता था/ 
यह विदूषक और दलाल तय कर रहे थे कि उन्हें क्या कहा जाए/ 
विदूषकों और दलालों के पास इतने कर्मचारी थे 
कि वे जोर-जोर से चिल्लाकर उन्हें कभी कुछ तो कभी कुछ साबित करते रहते/ 
उनके शोर में दब जाती थीं दूसरी आवाजें।

पांच
एक दलाल को अहिंसा का सबसे बड़ा पुजारी बताने वाला 
एक चर्चित समाजशास्त्री था और एक विदूषक को नायक घोषित करने वाला 
एक उदीयमान कलाकार/ 
पर चूंकि उन्होंने नौकरी करते हुए ये घोषणाएं की थीं 
इसलिए वे इसके लिए शर्मिंदा नहीं थे/ 
बल्कि उन्होंने इस बात को गर्व से कहा 
कि वे अपने पेशेवर जीवन को अपने निजी जीवन से अलग रखते हैं। 
अपने निजी जीवन में दलालों और विदूषकों के बारे में उन्होंने क्या राय व्यक्त की, 
यह किसी को पता नहीं चल सका।

छह
बुजुर्ग कह रहे थे- जमाना खराब है, 
मीठा बोलो सबसे बनाकर रहो/ 
जाओ एक उठाईगीर को नमस्ते करके आओ/ 
एक हत्यारे की तारीफ का कोई बहाना खोजो/ 
कोई भी बन सकता है तुम्हारा नियंता/ 
कल किसी से भी मांगनी पड़ सकती है नौकरी। 
सरकार बार-बार घोषणा कर रही थी कि घबराओ मत/ 
नौकरियां हैं/ करोड़ों नौकरियां आने वाली हैं/ 
सरकार खुद भी दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह की नौकरी करती थी 
और कई बार एक टांग पर खड़ी हो जाती थी तानाशाह के कहने पर।
लेकिन उनके लिए जिंदगी ही नौकरी थी  

7
एक स्त्री अपने को पत्नी मान रही थी 
पर एक दिन उसे बताया गया कि वह तो एक कर्मचारी है/ प
ति उसे जो खाना-कपड़ा लत्ता वगैरह दे रहा है 
उसे वह अपनी तनख्वाह समझे/ 
हद तो तब हो गई जब एक दिन उसके बेटे ने भी यही कहा
कि वह अपने को एक वेतनभोगी से ज्यादा कुछ न समझे/ 
यह भी अजीब नौकरी थी, जिसमें इस्तीफा देने तक की इजाजत नहीं थी 
और सेवानिवृत्ति मौत के बाद ही संभव थी। 

बहुत से लोग पुरखों की नौकरी कर रहे थे/ 
वे अपने कंधों पर खड़ाऊं लादे हुए कुछ सूक्तियों को दोहराते हुए चले जा रहे थे/ 
वे इतने योग्य कर्मचारी थे कि उन्होंने कभी यह सवाल ही नहीं किया 
कि उनसे यह क्या काम लिया जा रहा है/ 
उन्होंने तो अपने वेतन और तरक्की के बारे में भी कभी कुछ नहीं पूछा।

प्रस्तुति:- अरुण आदित्य।
अगर आप को लगे कि ये आपके भी दफ्तर की कविताएं हैं तो स्माइली, थम्स अप,  क्लैप साइन  वगैरह के बजाय कम से कम इतना तो कह ही सकते हैं कि हाँ यह हमारे दफ्तर/ समय का भी सच है।
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टिप्पणी:-

कुमार अनुपम:-
संजय कुंदन जी की यह कविता शृंखला हमने नया ज्ञानोदय में प्रकाशित की थी। इस कविता का मैंने ज्ञानपीठ के सभी कर्मचारियों को इकठ्ठा करके पाठ किया तो इसके अंतिम अंश को सुनते सुनते कुछ वयोवृद्ध लोग चिहुँक कर यह कहते वहाँ से चले गए थे कि नए कवि क्या क्या लिखते हैं आजकल, कहाँ महादेवी जी... और कुणाल और मैं संतुष्टि की हँसी में यह आनन्द पा रहे थे कि तीर सही लगा है।
संजय कुंदन की यह कविता नौकरी-तंत्र की आंतरिक पड़ताल भर नहीं करती बल्कि उसमें त्रस्त मानुष जीवन के क्रियाकलापों को एक मार्मिक व्यंग्य में समेट कर हमारे समय में मजबूरी के करुण आख्यान में तब्दील कर देती है। और हम पाते हैं कि यह स्थितियाँ रोजमर्रा के हमारे जीवन में भी चली आई हैं, अब यह नौकरी-तंत्र किसी ऑफिस-मात्र में महदूद न होकर जैसे हमारे प्रतिदिन को आक्रान्त कर रहा है और हम अनचाहे जूझने को अभिशप्त।


अंजू शर्मा:-
संजय जी हमारे समय के सजग और महत्वपूर्ण कवि हैं।  उनकी कविताओं से गुजरना अपने समय का आइना देखने जैसा है। संजय जी की कई कविताओं में निहित व्यंजना और कटाक्ष की भरपूर क्षमता उन्हें मेरे प्रिय कवियों की सूचि में रखती है। उपरोक्त कविताएँ भी मंदी के दौर का प्रमाणिक दस्तावेज है। इन कविताओं में से 2 और अंतिम कविता सबसे अधिक पसंद आई। आदमी के आलपिन में बदलने का बिम्ब गज़ब है। वहीं घरेलू स्त्री की सेवानिवृति का सवाल दुखती रग पर हाथ रख देने जैसा लगा। संजय जी को हार्दिक बधाई और अरुण जी का आभार सुबह को मानीखेज बनाने के लिए। अनुपम का अशेष स्वागत


राजनी शर्मा:-
संजय कुंदन जी की कविताएं मल्टिनैशनल कंपनियों का सच दिखाती है। नौकरी के तमाम डर के बीच फंसा आदमी। वाकई बहुत अच्छी कविताएं।


राजेश झरपुरे:-
बेहतर इंसान होना और एक सफल कारकुन होना कारपोरेटेट जगत के लिए ये दोनों अलग-अलग बातें है । एक अच्छा कारकुन होने के लिए अधिकारी के पिन कुशन का आलपिन हो जाने की योग्यता रखने की इच्छा और प्रतियोगिता...कार्य
कुशलता और दक्षता की अपेक्षा एक विशेष प्रकार का आचरण जो अच्छा अभिनव भी हो कारकुन होने की एक आर्दश व्यवस्था में शामिल हो चुका है ... यह है हमारे समय और समाज की सच्चाई जहां सरकार खुद नौकरी पर है ।
संजय कुंदन जी की अद्भुत  कवितायें।

कारपोरेटेट जगत के अलावा " लेकिन उनके लिए जिन्दगी ही नौकरी थी  "  हमारे घरों की स्त्रियों की दशा  को व्यक्त करती सच्ची व्यथा है । 
भाई अरूण आदित्यजी को बेहतर चयन के लिए बधाई ।
अन्जूशर्माजी और भाई कुमार अनुपम का हार्दिक अभिनन्दन । स्वागत ।


दिनेश कर्नाटक:-
संजय कुंदन की कविताएं पढ़कर बड़ा सुकून मिला। लगा साहित्य ने अपना काम किया। डांवाडोल नौकरी हमारे समय का क्रूर सच है। निजी क्षेत्र की फैक्ट्रियां शोषण का सबसे बड़ा अड्डा बन चुकी हैं। उनमें नब्बे फीसदी लोगों को ठेके में रखा जा रहा है। वेतन के नाम पर इतना दिया जा रहा है कि एक आदमी की गुजर होना भी मुश्किल है।

हमारे आका कह रहे हैं फैक्ट्री लगाएंगे, रोजगार देंगे। लोगों को बताने की जरूरत है कि उद्योग लोगों के रोजगार के लिए नहीं उद्योगपति के फायदे के लिए लगाये जाते हैं। इससे लोगों का नहीं उद्योगपति तथा उनके दलालों का भला होता है।

परमेश्वर फुंकवाल:-
ये कविताएँ प्रथम दृष्टि में नौकरी की परिस्थितियों को बयान करती लगती हैं किन्तु इनका कैनवास बड़ा है। समय के विस्तार में हम इनके कथ्य को दूर तक फैला देखते हैं। बिना चीख पुकार के बहुत सफलतापूर्वक अपना मंतव्य पहुंचाने में कामयाब है। अरूण जी का शुक्रिया इन्हें पढवाने के लिए।

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