26 जून, 2015

कविता : सुनील गंगोपाध्याय : बांग्ला से हिंदी अनुवाद : उत्पल बनर्जी

1.पर्दा हट जाता है

पर्दा हट जाता है
देखता हूँ दूर अँधेरी स्मृति के उस पार हैं
सैकड़ों कारागार, कालिख, जाले और धुएँ से भरे
या फिर पूजा के घण्टे अथवा मदिर लास्य गीतों से,
ये ऐसे कारागार कि जहाँ प्रहरीवृन्द बड़े मज़ाकिया हैं
शब्दों के आह्लाद में वे लाते हैं लोहे के बदले सोने की बेड़ियाँ।
पर्दा हट जाता है
देखता हूँ, एक झूठे समाज में
झूठे कुनाट्य-रंग में विह्वल है पूर्व और पश्चिम बंगाल
जूठन खाने वाले जुटे हैं लालच की प्रतियोगिताओं में
विज्ञ और भाण्ड व्याकुल हो भूमिकाएँ बदल लेते हैं।
पर्दा हट जाता है
देखता हूँ, समस्त दृश्यों को पार कर एक अलग-सी रोशनी...
डर और रोना छोड़कर ग़रीब लोग निकल पड़े हैं राजपथ पर
ख़ून के प्यासों के ही वंश से उठ आया है कोई असली महान रक्तदाता...
सप्तरथियों से घिरा किन्तु घोर युद्ध में फिर भी शामिल
बौना अकेला ब्राह्मण,
एक-एक कर दीवारें गिर रही हैं
हू-हू कर घुस रही है स्वच्छ हवा
कुछ ग्लानि पोंछकर...
उन्नीसवीं सदी करवट बदलकर सो जाती है।

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2.ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य

ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हूँ

चंचल सुख और समृद्धि की,
तुम अपने जीवन और जीवनयापन में
अलमस्त बने रहना
तुम लाना आसमान से मुक्ति-फल --
जिसका रंग सुनहरा हो,
लाना -- ख़ून से धुली हुई फ़सलें
पैरों-तले की ज़मीन से,
तुम लोग नदियों को रखना स्रोतस्विनी
कुल-प्लाविनी रखना नारियों को,
तुम्हारी संगिनियाँ हमारी नारियों की तरह
प्यार को पहचानने में भूल न करें,
उपद्रवों से मुक्त, खुले रहें तुम्हारे छापेख़ाने
तुम्हारे समय के लोग मात्र बेहतर स्वास्थ्य के लिए
उपवास किया करें माह में एक दिन,
तुम लोग पोंछ देना संख्याओं को
ताकि तुम्हें नहीं रखना पड़े बिजली का हिसाब
कोयले-जैसी काले रंग की चीज़
तुम सोने के कमरे में चर्चा में मत लाना
तुम्हारे घर में आए गुलाब-गंधमय शान्ति,
तुम लोग सारी रात घर के बाहर घूमो-फिरो।
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
आत्म-प्रताड़नाहीन भाषा में पवित्र हों
तुम्हारे हृदय,
तुम लोग निष्पाप हवा में आचमन कर रमे रहो
कुंठाहीन सहवास में।
तुम लोग पाताल-ट्रेन में बैठकर
नियमित रूप से
स्वर्ग आया-जाया करो।
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3.इसी तरह
हमारे बड़े विस्मयकारी दुःख हैं
हमारे जीवन में हैं कई कड़वी ख़ुशियाँ
माह में दो-एक बार है हमारी मौत
हम लोग थोड़ा-सा मरकर फिर जी उठते हैं
हम लोग अगोचर प्रेम के लिए कंगाल होकर
प्रत्यक्ष प्रेम को अस्वीकार कर देते हैं
हम सार्थकता के नाम पर एक व्यर्थता के पीछे-पीछे
ख़रीद लेते हैं दुःख भरे सुख,
हम लोग धरती को छोड़कर उठ जाते हैं दसवीं मंज़िल पर
फिर धरती के लिए हाहाकार करते हैं
हम लोग प्रतिवाद में दाँत पीसकर अगले ही क्षण
दिखाते हैं मुस्कराते चेहरों के मुखौटे
प्रताड़ित मनुष्यों के लिए हम लोग गहरी साँस छोड़कर
दिन-प्रतिदिन प्रताड़ितों की संख्या और बढ़ा लेते हैं
हम जागरण के भीतर सोते हैं और
जागे रहते हैं स्वप्न में
हम हारते-हारते बचे रहते हैं और जयी को धिक्कारते हैं
हर पल लगता है कि इस तरह नहीं, इस तरह नहीं
कुछ और, जीवित रहना किसी और तरह से
फिर भी इसी तरह

असमाप्त नदी की भाँति
डोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन ....!!
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4.नीरा के लिए

नीरा! तुम लो दोपहर की स्वच्छता
लो रात की दूरियाँ
तुम लो चन्दन-समीर
लो नदी किनारे की कुँआरी मिट्टी की स्निग्ध सरलता
हथेलियों पर नींबू के पत्तों की गंध
नीरा, तुम घुमाओ अपना चेहरा
तुम्हारे लिए मैंने रख रखा है
वर्ष का श्रेष्ठवर्णी सूर्यास्त
तुम लो राह के भिखारी-बच्चे की मुस्कराहट
लो देवदारु के पत्तों की पहली हरीतिमा
कांच-कीड़े[1] की आँखों का विस्मय
लो एकाकी शाम का बवण्डर
जंगल के बीच भैंसों के गले की टुन-टुन
लो नीरव आँसू
लो आधी रात में टूटी नींद का एकाकीपन
नीरा, तुम्हारे माथे पर झर जाए
कुहासा-लिपटी शेफालिका
तुम्हारे लिए सीटी बजाए रात का एक पक्षी
धरती से अगर बिला जाए सारी सुन्दरता
तब भी, ओ मेरी बच्ची
तेरे लिए
मैं यह सब रख जाना चाहता हूँ ।
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5.देखता हूँ मृत्यु

मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी
फिर भी वह क्यों छद्मवेश में
बार-बार दिखाई देती है!
क्या यह निमन्त्रण है.... क्या यह सामाजिक लघु-आवागमन!
अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है
अहंकार विनम्र हो जाता है
जैसे देखता हूँ नदी किनारे एक स्त्री
बाल बिखरा कर खड़ी है
पहचान लिए जाते हैं शरीरी संकेत
वैसे ही हवा में उड़ती है नश्वरता
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा
जब भी कुछ सुन्दर देखता हूँ
जैसे कि भोर की बारिश
अथवा बरामदे के लघु-पाप
अथवा स्नेह की तरह शब्दहीन फूल खिले रहते हैं
देखता हूँ मृत्यु, देखता हूँ वही चिट्ठी का लेखक है
अहंकार विनम्र हो जाता है
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!

000 सुनील गंगोपाध्याय
000 बांग्ला से हिन्दी अनुवादः उत्पल बनर्जी
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अलकनंदा साने:-
सुनील गंगोपाध्याय जी की कविताएं हमेशा की तरह कुछ सोचने को मजबूर करती ।

उत्पल जी का अनुवाद उन्हें और शानदार बनाता है ।

बलविंदर:-
तमाम ही कवितायें बहुत ख़ूब हैं..इन कविताओं की तर्जुमानी के लिए उत्पल भाई का बहुत बहुत शुक्रिया.

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