26 जून, 2016

कविताएँ : नितीश मिश्र

प्रिय साथियो...
     आज आपके लिए प्रस्तुत हैं समूह के साथी नितीश मिश्र की तीन कविताएँ।
अन्य कविताएँ व कवि परिचय कल प्रकाशित किया जाएगा,  जिससे आज आप कविताओं पर निष्पक्ष प्रतिक्रियाएँ रख सकें...

कविता :

1. मुझे केवल भिखारी पहचानता है
____________________________

इस शहर में
मैं सुबह -शाम की तरह जिन्दा हूँ
इसके बावजूद भी
तुम्हारे शहर में
मुझे केवल भिखारी पहचानते हैं…
कभी -कभी तुम्हारे शहर के
कुछ कुत्तों ने भी पहचानने की कोशिश की
इस कोशिश में कुत्ते
अपनी बहुत सारी ऊर्जा भी ख़त्म कर चुके हैं
लेकिन कुत्ते नहीं पहचान सके मुझे
कुत्तों ने मुझे उतना ही पहचाना
जिससे उनको मुझसे नुकसान न हो !
कभी -कभी सोचता हूँ
यदि मैं यहाँ नहीं आया होता
तो क्या तेरा शहर दूसरो के साथ ऐसा ही व्यवहार करता ?
तुम्हारे शहर के देवता भी
नहीं सुनते मेरी प्रार्थना
और न ही हवा भी
इस तरह मैं तुम्हारे शहर में
एक लोटे की तरह किसी अँधेरे में डूबा हुआ हूँ ....
कभी -कभी मैंने यह जानना चाहा कि
क्या मैं तुम्हारे शहर में खुद को कितना पहचानता हूँ
 मेरे धरातल से एक ही आवाज उठती है..
"यह समय खुद को पहचानने का नहीं हैं
यह समय अँधेरे का है"
और मुझे बचाना है अपने समय को
जिससे मेरा समय बच सके तुम्हारे रंग से
कभी कभी सोचता हूँ
लौट जाऊं अपने शहर
लेकिन वहां भी तो कोई नहीं हैं जो मुझे पहचान सके
मेरे समय के सभी दोस्त
अपने -अपने समय के रंग को नाले में छोड़कर
अपनी भूख पर कलई करने में लगे हुए हैं
मेरे शहर में
न तो अब वह हवा है
और न ही वह धूप
और न ही वह पेड़ जो मुझे कभी पहचानते थे
मैं तुम्हारे शहर में जिन्दा हूँ
एक मशीन की तरह
और एक समय के बाद
मशीन की तरह कबाड़ख़ाने का विषय हो जाऊंगा
यह समय 
शायद! कबाड़ख़ाने होने का हैं ॥
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2. वे मेरे रंग की हत्या कर रहे है

मैं बहुत खुश था
जितना आसमान अपने नीले रंग के साथ
उतना ही खुश मैं अपने हरे रंग के साथ था
मैंने, कभी आसमान से उसका हरा रंग नहीं मांगा
और न ही कभी ललक हुई कि 
अासमान से मैं कुछ रंग चुरा लूं
क्योंकि मुझे यह सिखाया गया था
हर व्यक्ति अपने- अपने रंग के साथ खुश रहता है
और अपने रंग में ही खोज लेता है
अपनी मुक्ति
लेकिन मेरा विश्वास टूट गया
जब उन्होंने मेरे सामने खड़ी हरे रंग की इमारत को
लाल रंग से रंग दिया
यह कहते हुए कि तुम अभी देश का इतिहास नहीं जानते हो
उसी दिन से मैं अपने रंग के साथ आसमान से दूर
और धरती के किसी कोने में सिमटा हुआ हूं
क्योंकि मेरे चारों ओर एक ही हवा बहती है
जिसमें सुनता रहता हूं
कि वे लोग कभी भी मेरे जिस्म के हरे रंग को
लाल रंग से रंग देंगे।
क्योंकि उनके पास लाखों हाथ हैं
और रंग बनाने वाली कई सारी मशीनें हैं
जबकि मेरे पास एक ही रंग है हरा
वह भी तबका, जब मैं पैदा हुआ था।
मुझे डर लग रहा है कि वे कभी भी मुझसे मेरा हरा रंग छीन लेंगे
और घोषित कर देंगे --
देखो मैंने हरे रंग को डर में मिलाकर गाढ़ा लाल रंग तैयार किया है।
क्योंकि अब धरती और पानी भी लाल रंग का होता जा रहा है।
मै अपने जिस्म पर पड़े हरे रंग से हर रोज माफी मांगता हूं
क्योंकि मैं इस रंग को अब बचा नहीं पा रहा हूं
क्योंकि आज की दिल्ली रंगों को बदलने वाली हो चुकी है।।

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3.  मैं आज सुन्दर इसलिए हूँ

अब मैं सपना बहुत खूबसूरत देखता हूँ .... 
जंगलों में भी एक नया रास्ता बना लेता हूँ
अजनबी शहरों में भी
अपना कोई न कोई परिचय निकाल  लेता हूँ.... 
हामिद और मकालू में भी
अपना चेहरा ढूंढ लेता हूँ
मंदिर / मस्जिद से अलग होकर
अपना एक मकान  बना लेता हूँ …
क्योकि मेरी माँ बुड्ढी हो गई है ।
मैं अब गहरे पानी में तैर लेता हूँ
क्योकि माँ के चेहरे पर अब पसीने नहीं आते
अब मैंने हँसना भी सीख लिया है
अब मुझे कोई बीमारी भी नहीं होती
क्योंकि माँ के शरीर में
जगह -जगह जख्मों ने सुरक्षित स्थान बना लिया हैं
मेरी माँ उम्र के अंतिम सीढ़ियों पर खड़ी हैं
और मैं सुन्दर हो गया हूँ …… 

एक दिन शहर के बीचोंबीच
मुझे एक डॉक्टर ने रोक लिया
और धिक्कारते हुए मुझसे कहा --
तुम होशियार और सुन्दर इसलिए बने हो
क्योंकि कहीं बहुत दूर खटिये पर तुम्हारी माँ खांस रही हैं ॥

4.  बाप डाकिए का देखता रहता है रास्ता
    ______________________________

जब आसमान में सूर्योदय होता है
घर में बाप के साथ झाड़ू भी जागती है
बाप आसमान को पकड़कर
चौखट पर बैठ जाता है
और डाकिए का रास्ता देखता है
जबसे बेटी गई है शहर
बाप उदास होकर खड़ा है
बेटी की चिठ्ठी आती हैं
बाप बेटी की परेशानियाँ जानकर मौन है
फिर भी बेटी बाप की उम्मीद है
इसलिए बाप खुश है
यह सोचकर कि एक दिन बेटी की ऐसी चिठ्ठी आएगी
जिसमें लिखा रहेगा
पिताजी आज आपकी बेटी बहुत खुश है
यही पंक्ति पढ़ने के लिए
बाप इंतजार कर रहा है
और बेटी शहर में दौड़ रही किसी रेलगाड़ी की तरह ।।

5.  आईना ही बताएगा आगे का रास्ता
      ___________________________

जब हम नहीं होंगे
कहीं नहीं होंगे घर
न तो कविताओं में और न ही कहानियों में
जब कहीं कुछ नहीं बचा होगा
तब धरती पर जीवाश्म की तरह
आईने बचे होंगे
तब हमारे समय का सबसे बड़ा ग्रन्थ
आईना होगा
और लोग आईनों से पूछ कर
हरेक जख्मों का इतिहास लिखेंगे
उस समय का सबसे बड़ा धर्म आईना होगा
आईना जो बोलेगा
लोग वही लिखेंगे
आईना बोलेगा इंसान और देवता में कोई फासला नहीं होता
आईना बताएगा उजाले और अँधेरे में कोई अंतर नहीं होता
आईना बताएगा गरीब के पेट की सुंदरता कैसी होती हैं
आईना बताएगा एक औरत की आँख में कितने आंसू हैं
आईना बताएगा दिल्ली में यमराज रहता हैं
आईना ही तय करेगा कि
इस सदी में कौन ताजमहल बनवायेगा
आईना ही बताएगा कि किन लोगों ने भ्रूणों की हत्या की है
आईना यह भी बताएगा की रात में चीटियाँ कैसे गाती हैं
आईना ही बताएगा
नदी कितनी भूखी कर्जदार हैं
तुम क्या सोचते हो
हमेशा तुम ही रहोगे?
नहीं। धरती पर दो ही लोग जीवित रहेंगे
एक आईना
दूसरा पेड़
दोनों तुम्हारे साथ चलते नहीं हैं
इसलिए हम उन्हें कमजोर मानकर दरकिनार कर देते हैं
लेकिन यह चलते तो नहीं हैं पर इनकी नज़र बहुत दूर तक रहती है
यह बैठे -बैठे ही देख लेते हैं
कब किसकी हत्या होने वाली हैं
कब किसका रंग बदलने वाला हैं
आईनों को यह भी मालूम रहता हैं
चन्द्रमा आज कितना उदास हैं
आईना ही इस सदी का संत हैं
जो सब जानता है मगर चुप रहता है ॥
अब आईना ही बताएगा आगे का क्या रास्ता है

6. पतंग के पास एक कहानी है
     ______________________

जब भी किसी पंतग को हवा से लड़ते हुए देखता हूँ
मुझे लगता है
अभी जमाने में लड़ाई जारी है
भले इंसान हाथ पर हाथ रख कर बैठ गया हो
लेकिन पंतग अभी भी लड़ रही है
बिजली के तारों से, तो कभी लोगों की निगाहों से
पंतग ने सबसे बड़ा सफर तय किया है
लेकिन क्या किसी को इस बारे में कुछ मालूम है
कि झूलती हुई पंतग के पास भी एक
कहानी है।
बिजली के तारों में जो पंतग उलझी है
वह आसमान की और धरती की सबसे खूबसूरत पंतग है
क्योंकि इस पंतग में
अभी तक सुरक्षित है
जमाने की सबसे मुलायम एक प्रेम कहानी
पंतग और उसमें लिपटी प्रेम कहानी
एक साथ हवा के खिलाफ और आसमान के खिलाफ
आवाज उठाती है।
जबकि इस कहानी के सूत्रधार जमाने में नहीं हैं
लेकिन उनकी प्रेम कहानी जमाने से बाते कर रही है।
जब पूरी दुनिया इतिहास के खाते में
अपना नाम दर्ज कराने के लिए मशगूल थी
उस वक्त केशवनगर गली का एक लड़का,
रेहानपुरी मोहल्ले की लड़की
इतिहास को छोड़कर अपने समय का एक ओर
अपने देह राग के इतिहास की खातिर
तोड़ रहे थे परंपराएँ
और लिख रहे थे हवा में अपनी प्रेम कहानी
उस दौरान पंतग इस कहानी को एक रंग दे रही थी।
जब इतिहास को वे लिए दिए अपने रंग से
और जमाना एक बार फिर देखना चाह रहा था कि धरती पर अभी कहां दाग रह गया है जो साफ नहीं हुआ है
तभी किसी ने बताया कि जमाने के इतिहास पर एक नया दाग लगने वाला है
उसी के बाद इतिहास को रंगने वालों ने
मार दिया केशवनगर को, रेहानपुरी मोहल्ले को
उसी दिन से पंतग जमाने के खिलाफ जिंदगी लड़ रही है।
जब भी इस पंतग को हवा के खिलाफ लड़ते हुए देखता हूँ
मुझे यह दुनिया की सबसे बेहतर कृति दिखाई देती है।
____________________________

कवि परिचय :

नाम -  नीतीश मिश्र 
जन्मतिथि - 01.3.1982
शिक्षा - इलाहाबाद विश्वविद्यालय
संप्रति - पत्रकार
निवास - इंदौर ( म. प्र.)
सम्पर्क - nitishmishra101@gmail.com
दूरभाष - 8889151029

(प्रस्तुति: बिजूका)

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टिप्पणियाँ:-

रेणुका:-

पहली कविता समझ नहीं पाई। दूसरी और तीसरी लेख जैसी प्रतीत हुईं। सीधे सीधे अपनी बात कहती हुईं। कविता की गहराई नहीं महसूस हुई।

कविता : किरण येले

आज की पोस्ट में आपके लिए किरण येले जी की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं, जो हमारे बिजूका एक के साथी हैं।

कवि और कहानीकार किरण येले मराठी के युवा और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के प्रमुख अख़बारों में नियमित स्तम्भ लेखन किया है। नाटक और प्रसिद्द धारावाहिकों की पटकथाएं लिखी हैं। पहले ही काव्य संग्रह ''चौथ्यांच्या कविता'' के लिए पुरस्कृत और कवितायेँ हिंदी,पंजाबी,मलयालम ,अंग्रेजी में अनुवादित हुई हैं। मुंबई में  निवास और न्यू इण्डिया इन्शुरन्स कंपनी में प्रशासकीय पद पर कार्यरत। प्रस्तुत कविताएँ उनके संग्रह ''बाई च्या कविता'' (स्त्री की कविताएँ) से ली गई हैं। ये इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि  औरत के विभिन्न रूप और अवस्थाओं का एक पुरुष द्वारा लिखा गया अत्यंत सूक्ष्म लेखा-जोखा है।

तो पढ़िए किरण जी की कविताएँ और अपने निष्पक्ष विचार यहां साझा करें ।

1 . 
औरत 
साँझ ढले 
ठाकुर घर में 
दिया जलाती  है 
हाथ जोड़ती है 
और बुदबुदाती है 
कोई दोहा,चौपाई या आरती 
धकेल देती है 
अपने होठों से 
बाहर के अँधेरे को 
अपने भीतर. . .

2 .

पता नहीं कैसे 
औरत जाग जाती है
बड़े सबेरे, सबसे पहले 
वह उठती है
रसोई में  जाती है
और जलाती है
चूल्हा,स्टोव या गैस
पकाती रहती है कुछ कुछ 
अंदर ही अंदर 
और सूरज माथे पर आ जाता है 
तब परोसती है सबको

दोपहर में जब 
सो जाते हैं सब
औरत भी सोती है घड़ी भर 
तब भी वही जागती है सबसे पहले 
फिर जाती है रसोई में 
जलाती है
चूल्हा,स्टोव या गैस
और सूरज के डूबने तक 
पकाती रहती है कुछ अंदर 
परोसती है सबको
शाम ढलने पर

मैं यह सोचकर 
अक्सर चौंक जाता हूँ 
कि औरत 
अंदर ही अंदर क्या जलाती है 
और क्या परोसती है सबकी थाली में ......

3.

औरत 
घर के अंदर 
छीलती है
काटती है
उबालती है
पकाती है
तलती है कुछ कुछ
दिनभर काम करती है 
बिना किसी सावधानी के 
चाकू,छुरी,आग और भाप के साथ
उसे खरोंच तक नहीं आती

शाम ढले 
आदमी लौटते हैं 
घरों की ओर
तब वह चौकन्नी हो जाती है 
और जख्मी भी होने लगती है .....

4.

औरत
जिन्दा रहती है 
तब तक करती रहती है 
कुछ न कुछ
घर के लिए,घरवालों के लिए 
खाना खिलाने से 
थपकियाँ देने तक
सुबह टिफिन भरने से 
रात शरीर को खाली करने तक
पर उसकी ओर  ध्यान नहीं देता 
कोई भी,कभी भी

जिस दिन मरती है वह 
सब देखते हैं उसी की तरफ 
उसे नहलाते-धुलाते हैं
बड़े अदब से बिठाते हैं
चरण स्पर्श करते हैं

और ऐसे में 
यदि उसका आदमी जीवित हो 
तो  आदर असीम  हो जाता है 
उस औरत के लिए ....

5.

औरत 
चौंक जाती है 
मेनापॉज का शक़ होते ही 
ठीक वैसे ही 
जैसे चौंकी थी
पहली बार रजस्वला होने पर 
स्त्रीत्व की समाप्ति का डर नहीं 
फिर भी एक अँधियारा घिर आता है 
उसके भीतर 
दर्पण में अपने आप को 
निहारते समय 
अहसास जागता है 
कि वह कभी भी 
एक बार भी 
बह नहीं पाई 
अपनी पसंदीदा दिशा की ओर

अंदर ही अंदर बहती रही 
अशुद्ध रक्त की तरह
'व्हिस्पर' में 
सहेलियों के साथ
या सिर्फ स्वच्छ,चमकदार जाँघों के बीच

एकमात्र यही नमी बची थी 
जिसपर किसी का नियंत्रण नहीं था 
इसे लेकर अपने आप को कोसती रही 
बीजांड पर घिर आई 
झुर्रियों के बावजूद
फिर भी एक गीली आशा बची रही
कि शायद वह कभी समझ पाए
शरीर की गोलाइयों के साथ 
मन की गहराइयों को भी 
कि उसके भीतर पनपेगा 
कोई तरल पल 
और वह बन जाएगी 
बिलकुल असली औरत

इसी दुर्दम्य आशा के साथ 
उठती है वह 
और  अलमारी में
ढूंढने लगती है 
खत्म होते जा रहे 
कुछ अंतिम सेनेटरी नैपकिंस.....

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(प्रस्तुति-बिजूका)

टिप्पणी:-

पूनम:-

बहुत ही कडवे सत्य मे
किरण जी
पगी हुई है ।आपकी
सभी कविताएँ ।

सहसा
कवि
नरेश मेहता
याद आ गये ।

वो कहते है कि
सिर से पैर तक
विवश देवत्व का नाम
स्री

और सिर से पैर तक
आक्रामक  पशुता का नाम
पुरुष ।"

और
भवानी प्रसाद मिश्र भी
स्मरण हो आये।
जिस तरह हम बोलते है
उस तरह तू लिख।
और इसके बाद भी
हमसे  बडा
तू दिख ।
आदरणीय
किरण  जी
आपने औरत
और उसके
सरोकार
को
अपनी कविताओ  मे
साकार कर दिया

कविता : चंद्रशेखर गोखले

आइये आज आपके लिए प्रस्तुत है चतुष्पदी  यानी की चार चार पंक्तियों की (मराठी)कविताएँ
जिनके मूल कवि चंद्रशेखर गोखले है और अनुवाद (हिन्दी)किया है अशोक बिंदल जी ने ।
आज इन चतुष्पदी को पढ़कर अपने विचार अवश्य रखें।
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सर्वस्व तुम्हें समर्पित किया 
  अंजुरी मेरी फिर भी भरी थी
चौंक कर देखा तब जाना
     तुम्हारी अंजुरी, मेरी अंजुरी पर धरी थी ।
                          ***
बीती यादों के झरोखें, मैं
     तुम्हें छूने नहीं देता हूँ
कैसे कहूँ खुद ही डरता हूँ
     जब पास से गुजरता हूँ ।
                            ***
स्पर्शों का अर्थ होता है
       जानते ही, बालपन मुझे छोड़ गया
और जाते जाते वह,  नये
       सपनों से नाता मेरा जोड़ गया ।
                            ***
फिर फिर तेरे 
     नाजुक स्पर्श का आभास
और एक ही पल में
     कितने गुजरे वर्षो का प्रवास ।
                              ***
सच बोलने में 
     मुझे किसका है डर
यह वाक्य मन ही मन
     दोहराता हूँ रात भर ।
                               ***
अकेले में खुद को आईने में देखना
     ये अनुभव सहज नहीं होता
वैसे हम सब सीधे होते है
     पर मन का चोर सरल नहीं होता ।
                              ***
राह भूला कोई ख़त
     कभी मेरे द्वार भी आये
और पढ़ते पढ़ते, मुझे
     सुख के घर ले जाये ।
                                 ***
एक बारिश होती है प्यासी
     जो आकाश से नहीं बरसती है
उस वक्त और कुछ नहीं होता
     बस आँखें ही छलकती है ।
                                 ***
बाहर आँगन में 
     द्वार पर ठहरी रात
उस वक्त कैनवस पर रंग रहा था
     सूर्य की लालिमा बिखेरता प्रभात ।
                                 ***
पोंछने वाला कोई हो तो 
     आँसूओं का अर्थ है
किसी की आँखें ही न भरे
     तो मरना भी व्यर्थ है ।
                                ***
तालाब अपनी पोथी में 
     भेदभाव नहीं लिखता
जो झाँकता है,  उसमें उसे
      खुद का चेहरा ही दिखता ।
                                   ***
उमर भर जलने पर भी
     अंत में जलना है
इंसान को तो लकड़ी की ही
     नियती पर चलना है ।
                                  ***
पेड़ की हर डाल पर
     कुल्हाड़ी का घाव हैं 
बात इतनी सी,  हाट में
     लकड़ी का भाव है ।
                                ***
मकान बनने में नहीं 
    घर बनने में समय लगता है
घर के निर्माण में
     दो मनों का अपार संयम लगता है ।
                              ***
जल के आचरण की भी
     अजब विसंगती है
जिंदों को डूबोती है
     मुर्दो का तैराती है ।
                           ***
इक अंतहीन हसीन रात
     जिसकी सुबह न हो
है असंभव सी बात, पर
     सपनों की कमी न हो ।
                    ****

प्रस्तुति-बिजूका      

परिचय :

मूल कवि  :  श्री चंद्रशेखर गोखले ,  मुंबई

चार चार पंक्तियों की कविता के लिये बहुत ही प्रसिध्द नाम ।

६-६ कविता संग्रह,  मनोगत तथा मर्म,  संस्मरण संग्रह । धारावाहिकों में लेखन ।
                           ***
भावानुवाद   :  अशोक बिंदल  ,  मुंबई

डाँ.  भवान महाजन की संस्मरणों की पुस्तक "मैञ जिवाचे " का भावानुवाद,  "अंतस के परिजन" ।

महानगर की प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था के सक्रिय सदस्य ।
इन चतुष्पदियों का भावानुवाद ।

प्रस्तुति : बिजूका
------------------------------------टिप्पणियाँ:-

पाखी:-
सचमुच कमाल है, चार-चार पंक्तियों की ये कविताएँ हमारे मन के भीतर गहरे झांकती दीखाई पड़ती हैं.. 'वैसे हम सब सीधे हाेते हैं / पर मन का चाेर सरल नहीं होता' .. बेहतरीन अनुवाद.. हार्दिक बधाई कवि एवं अनुवादक को...

सुषमा सिन्हा:-
सभी कविताएँ अच्छी लगीं।छोटी-छोटी पंक्तियों में बड़े-बड़े कथ्य को बहुत बेहतर साधा गया है। अनुवाद बेशक बहुत खूब है। मेरे लिए तो यही मूल है। बहुत बधाई कवि और अनुवादक दोनों को।

कल किरण येले जी की कविताएँ भी बहुत बढ़िया लगी थीं और उससे पहले पूनम शुक्ला की की कविताएँ भी बहुत अच्छी लगी थीं। 
दोनों की कविताएँ पूर्व में भी किसी समूह में पढ़ी थी और अपनी टिप्पणी भी दी थी। अफ़सोस कि इस बार समय नहीं मिला।
बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आप दोनों को।

ब्रजेश कानूनगो:-
गोखले जी की कविताओं का बहुत बढ़िया अनुवाद किया बिंदल जी ने।जैसे हिंदी में ही मूल रूप से कही गई हों।बधाई।

तिथि:-
अनुवाद बेहतरीन है अशोक जी का। ये चतुष्पदियां कहीं -कहीं  सामान्य तो कहीं बेहद प्रभावशाली हैं  जैसे - बाहर आंगन में द्वार पर खड़ी रही रात,तालाब अपनी पोथी में भेदभाव नहीं लिखता।

ममता सिंह:-
बहुत बढ़िया प्रभावशाली हैं चतुष्पदियाँ.....चंद्रशेखर गोखले और अशोक बिंदल जी को बहुत बधाई

ममता सिंह:-
मकान बनने में नहीं
घर बनने में समय लगता है
घर के निर्माण में
दो मनों का अपार संयम लगता है ....बिलकुल सही और सटीक पंक्तियाँ

लघुकथाएँ : खलील जिब्रान

आज आपके लिए बिजूका पर प्रस्तुत हैं विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार और कलाप्रेमी ख़लील ज़िब्रान की तीन अनुवादित लघुकथाएँ,  जिनका अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल द्वारा किया गया है।
     आप सभी से अनुरोध है पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें ।

लघुकथाएँ :

1.     "आदमी की परतें"

रात के ठीक बारह बजे, जब मैं अर्द्धनिद्रा में लेटा हुआ था, मेरे सात व्यक्तित्व एक जगह आ बैठे और आपस में बतियाने लगे :
पहला बोला - "इस पागल आदमी में रहते हुए इन वर्षों में मैंने इसके दिन दु:खभरे और रातें विषादभरी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। मैं यह सब और ज्यादा नहीं कर सकता। अब मैं इसे छोड़ रहा हूँ।"
दूसरे ने कहा - "तुम्हारा भाग्य मेरे से कहीं अच्छा है मेरे भाई! मुझे इस पागल की आनन्द-अनुभूति बनाया गया है। मैं इसकी हँसी में हँसता और खुशी में गाता हूँ। इसके ग़ज़ब चिंतन में मैं बल्लियों उछलता-नाचता हूँ। इस ऊब से मैं अब बाहर निकलना चाहता हूँ।"
तीसरा बोला - "और मुझ प्रेम से लबालब व्यक्तित्व के बारे में क्या खयाल है? घनीभूत उत्तेजनाओं और उच्च-आकांक्षाओं का लपलपाता रूप हूँ मैं। मैं इस पागल के साथ अब-और नहीं रह सकता।"
चौथा बोला - "तुम सब से ज्यादा मजबूर मैं हूँ। घृणा और विध्वंस जबरन मुझे सौंपे गए हैं। मेरा तो जैसे जन्म ही नरक की अँधेरी गुफाओं में हुआ है। मैं इस काम के खिलाफ जरूर बोलूँगा।"
पाँचवें ने कहा - "मैं चिंतक व्यक्तित्व हूँ। चमक-दमक, भूख और प्यास वाला व्यक्तित्व। अनजानी चीजों और उन चीजों की खोज में जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं है, दर-दर भटकने वाला व्यक्तित्व। तुम क्या खाकर करोगे, विद्रोह तो मैं करूँगा।"
छठे ने कहा - "और मैं - श्रमशील व्यक्तित्व। दूरदर्शिता से मैं धैर्यपूर्वक समय को सँवारता हूँ। मैं अस्तित्वहीन वस्तुओं को नया और अमर रूप प्रदान करता हूँ, उन्हें पहचान देता हूँ। हमेशा बेचैन रहने वाले इस पागल से मुझे विद्रोह करना ही होगा।"
सातवाँ बोला - "कितने अचरज की बात है कि तुम सब इस आदमी के खिलाफ विद्रोह की बात कर रहे हो। तुममें से हर-एक का काम तय है। आह! काश मैं भी तुम जैसा होता जिसका काम निर्धारित है। मेरे पास कोई काम नहीं है। मैं कुछ-भी न करने वाला व्यक्तित्व हूँ। जब तुम सब अपने-अपने काम में लगे होते हो, मैं कुछ-भी न करता हुआ पता नहीं कहाँ रहता हूँ। अब बताओ, विद्रोह किसे करना चाहिए?"
सातवें व्यक्तित्व से ऐसा सुनकर वे छ्हों व्यक्तित्व बेचारगी से उसे देखने लगे और कुछ भी न बोल पाए। रात के गहराने के साथ ही वे एक-एक करके नए सिरे से काम करने की सोचते हुए खुशी-खुशी सोने को चले गए।
लेकिन सातवाँ व्यक्तित्व खालीपन, जो हर वस्तु के पीछे है, को ताकता-निहारता वहीं खड़ा रह गया।

2.     "ओछे लोग"

बेशारे नगर में एक सुन्दर राजकुमार रहता था। सभी लोग उसे बहुत प्यार और सम्मान देते थे।
लेकिन एक बहुत ही गरीब आदमी था जो राजकुमार को बिल्कुल भी नही चाहता था। वह उसके खिलाफ हमेशा ज़हर ही उगलता रहता था।
राजकुमार को यह बात पता थी, लेकिन वह चुप रहा।
उसने इस पर गहराई से विचार किया। एक ठिठुरती रात में उसके दरवाज़े पर उसका एक सेवक एक बोरी आटा, साबुन और शक्कर लेकर जा पहुँचा। उसने उस आदमी से कहा, "राजकुमार ने ये चीजें तोहफे में भेजी हैं।"
आदमी बकबक करने लगा। उसने सोचा कि ये उपहार राजकुमार ने उसे खुश करने के लिए भेजे हैं। इस अभिमान में वह बिशप के पास गया और राजकुमार की सारी करतूत उसे बताते हुए बोला, "देख रहे हो न, राजकुमार किस तरीके से मेरा दिल जीतना चाहता है?"
बिशप ने कहा, "ओह, राजकुमार कितना चतुर है और तुम कितनी ओछी बुद्धि के आदमी हो। उसने इशारों में तुमसे बात की है। आटा तुम्हारे खाली पेट के वास्ते है। साबुन तुम्हारे भीतर छिपी बैठी गन्दगी को साफ करने के लिए। और चीनी, तुम्हारी कड़वी जुबान में मिठास लाने के लिए।"
उस दिन के बाद वह आदमी अपने-आप से भी लज्जित रहने लगा। राजकुमार के बारे में उसकी घृणा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई। उससे भी अधिक घृणा उसे बिशप से हो गई, जिसने राजकुमार की प्रशंसा उसके सामने की थी।
लेकिन उस दिन के बाद उसने मौन धारण कर लिया।

3.    "आनन्द और पीड़ा"

मई माह में एक दिन आनन्द और पीड़ा एक झील के किनारे मिले। उन्होंने एक-दूसरे का अभिवादन किया और ठहरे हुए जल के किनारे बैठकर बातें करने लगे।
आनन्द ने धरती पर स्थित सुन्दरता के बारे में बात शुरू की। उसने वनों और पहाड़ों में रोजमर्रा होने वाली अद्भुत घटनाओं की चर्चा की। ज्वार-भाटे से उत्पन्न होते गीत-संगीत की बात की।
पीड़ा भी बोली। उसने आनन्द की सभी बातों से सहमति जताई। काल के जादू और उसकी सुन्दरता की बात की। खेतों और पहाड़ों की मई के दौरान हालत पर बात करते हुए उसने हताशा महसूस की।
दोनों देर तक बातें करते रहे। दोनों जो कुछ भी जानते थे, उससे सहमत थे।
तभी, झील के उस पार दो शिकारी वहाँ से गुजरे। जैसे ही उन्होंने इस पार निगाह दौड़ाई, उनमें से एक बोला, "बड़े ताज्जुब की बात है, उस पार कौन दो लोग बैठे है?"
"तुम दो कह रहे हो? मुझे तो केवल एक ही नजर आ रहा है!"
"लेकिन वहाँ दो ही हैं।" पहले शिकारी ने कहा।
"मैं साफ देख रहा हूँ। वहाँ एक ही है।" दूसरे ने कहा, "झील में परछाई भी एक ही है।"
"नहीं। दो हैं।" पहला बोला, "और ठहरे हुए पानी में परछाइयाँ भी दो लोगों की ही हैं।"
लेकिन दूसरे ने पुन: कहा, "मुझे तो एक ही दीख रहा है।"
"मैं तो साफ-साफ दो देख रहा हूँ।" पहले ने पुन: कहा।
और आज तक भी, एक शिकारी कहता है कि उसको दो दिखाई देते हैं। जबकि दूसरा कहता है, "मेरा दोस्त थोड़ा अन्धा हो चला है।"
(प्रस्तुति-बिजूका टीम)
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टिप्पणियाँ:-

आर्ची:-
पहली लघुकथा समझ में आई, दूसरी का उद्देश्य और तीसरी का मतलब बिलकुल समझ में नहीं आया, दूसरी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहते हैं? राजकुमार के प्रतीकात्मक उपहार का उस आदमी पर कुछ भी असर नहीं हुआ? कृपया ज्ञानी जन इन लघुकथाओं के मंतव्य को स्पष्ट करने की कृपा करें

प्रदीप मिश्रा:-
बिजूका नए साहित्य का केंद्र रहा है।आजकल बिजूका पर समकालीन साहित्य कम ही दिखता है।
राहुल चौहान:-
ख़लील को पढना मन-आत्म-हृदय-दिमाग का बंद कपाट खोलने जैसा है, ख़लील ठेठ गुण-अवगुण-भाव-भावना को 'पात्र' 'पात्रों' के किस्से में ढाल , बेहद सम्प्रेषणीय और आसानी से पाठक के अंतर में पैठ बना लेते है।
मैं ख़लील जिब्रान को लेखनी का एक सर्वकालिक चमत्कार कहूँगा।

इस महान दार्शनिक,चिंतक,लेखक,कवि
को प्रेम भरा अभिवादन