12 नवंबर, 2017

काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस:

आयो घोष बड़ो व्यापारी

शिव कुमार यादव


21वीं सदी प्रकृति के विनाश की सदी होगी। हमारे जल, जंगल, जमीन, नदी, झरने, पहाड़ सब उपभोक्तावादी भौतिकवाद की पूँजीवादी संस्कृति की जठराग्नि के आगोश में जल राख बनकर हमारे ही चेहरे को काला करेंगे।
असमय बाढ़, सूखा, सुनामी, भूकम्प लगातार हमें आगाह करते चले जा रहे हैं, पर हम हैं विकास के नाम पर अपनी जीवन दायिनी प्रकृति को ही खत्म करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। तापमान में लगातार वृद्धि, जलस्तर का लगातार घटना, वायु का प्रदूषित होना, ओजोन परत में छिद्रों का लगातार बढ़ना मानवता के लिए बेहद खतरनाक संकेत दे रहे हैं। जिसका प्रमुख कारण मॉल संस्कृति का लगातार विकसित होना है। मॉल संस्कृति एक ऐसी सर्वग्रासी अवधारणा है जो मनुष्य को क्षणिक सुख तथा चकाचौंध चमक-दमक दिखाकर एक तरफ उसके अर्थ का पान करती है तो दूसरी तरफ आग उगलकर (अपने वातानुकूलन के कारण) उसे उसमें जलने तथा कैंसर जैसी ख़तरनाक बीमारी की गोद में जाने पर मजबूर कर देती है। मॉल संस्कृति अर्थात् वह संस्कृति जहाँ प्रत्येक वस्तु को माल (वस्तु) समझा जाता हो, जहाँ माल, मनुष्य और मनुष्यता सबको एक ही (अर्थ के) तराजू पर तौलने का उपक्रम चलता हो। ‘प्रकृति के विनाश’ का अर्थ है मनुष्य के नैसर्गिक स्वभाव का विनाश। 21वीं सदी के प्रारम्भ से ही मनुष्य प्रकृति प्रदत्त मानवीय गुणों दया, माया, ममता, स्नेह, सौहार्द्र, भाई-चारा, समर्पण, विश्वास, प्रेम को पैरों तले रौंदते हुए रोबोट में परिवर्तित होता चला जा रहा है। घृणा, द्वेष, छल-कपट, नर-संहार, चीर-हरण, हैवानियत, साम्प्रदायिकता जैसे कुकृत्य के पथ पर लगातार पूरा विश्व बढ़ता चला जा रहा है, जहाँ मानवता के लिए कोई जगह नहीं है, फिर भी हम अपने आपको आधुनिकता की सबसे ऊँची श्रेणी में पाते हैं। यह मानवीय मूल्यों के विघटन की सदी है जहाँ साहित्य, कला, संगीत, विज्ञान इत्यादि ही वह माध्यम हैं जो समाज को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसमें भी साहित्य वह सर्वप्रमुख हथियार जो सत्ता तथा पूँजीवाद के नाभिनालबद्ध मत्सरी प्रवृत्तियों का प्रतिकार करते हुए मनुष्य को प्रकृति की ओर आकर्षित करने का मधुर बिगुल बजा सकता है। आज साहित्य की लगभग हर विधाओं में इस मानवता विरोधी प्रवृत्ति का प्रतिकार देखने को मिल रहा है जिसमें कहानी का स्थान प्रमुख है। आज जिन कहानीकारों की कहानियाँ अपने समय, समाज तथा सत्ता की जन-विरोधी नीतियों से दो-दो हाथ करते हुए मनुष्य को प्रकृति की ओर जाने के लिए प्रेरित कर रही हैं उसमें एक प्रमुख नाम सत्यनारायण पटेल का भी है।
शिव कुमार यादव
इनके अब तक कुल दो कहानी संग्रह- ‘भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान’ तथा ‘लाल छींट वाली लुगड़ी का सपना’ आ चुके हैं। अभी हाल ही में इनका तीसरा कहानी संग्रह ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें कुल छः कहानियाँ संग्रहीत हैं। यह संग्रह कई मायने में महत्वपूर्ण एवं अनोखा है। इसमें एक तरफ सत्ता तथा पूँजीवाद के गठजोड़ में पिसती साधारण जनता के चित्र्ा हैं तो दूसरी ओर इंसान के मरते हुए रूप का वीभत्स बिम्ब। इनकीे कहानियाँ आज के मनुष्य के जीवन संघर्ष, उनके शोषण और उनकी असहायता व निरीहता की करुण दास्तान हैं। ये कहानियाँ मनुष्य के क्रूर तथा निर्मम बनते चल्ो जाने के खिलाफ मनुष्यता का महा आख्यान रचते हुए आगे बढ़ती हैं, जिसमें पशुवत होते मनुष्य की हिंसक व अमानवीय अदाओं की गहरी शिनाख़्त की जा सकती है, जो धर्म के नाम पर पूरी की पूरी क़ौम को एक पल में जला कर राख़ कर देने का माद्दा रखती हैं।
आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ पूँजीवादी, बाजारवादी, उपभोक्तावादी, फाँसीवादी ताकतें लगातार आगे बढ़ रही हैं और जो हमारी सरकार से साँठ-गाँठ करके हमारे बीच बने मानवता, भाईचारा, प्रेम, सद्भाव के सारे पुलों पर जाति, धर्म, सम्प्रदाय का बुल्डोजर चला कर तोड़ रही हैं, जिससे कि हम संगठित होकर उसके खिलाफ कोई आवाज न उठा सकें और वह जब तक चाहें हम पर शासन करते रहें। सत्यनारायण पटेल सत्ता की इस निकृष्ट मानसिकता पर करारा प्रहार करते हुए हमारे बीच एक ऐसा पुल बनाने की जद्दोजहद करते हैं जिससे होकर मानवता आगे बढ़ती रहे और नदियाँ भी इसके नीचे से कल-कल, छल-छल की आवाज करते हुए आगे बढ़ती रहें। वे जानते हैं कि यदि नदियाँ बची रहेंगी तो हमारी सभ्यता और संस्कृति भी बची रहेंगी वर्ना न हमारी सभ्यता बचेगी, न संस्कृति और न ही हम। आज सत्ताएँ ऐसा पुल बना रही हैं कि इनके बनने की प्रक्रिया में ही हमारे जल, जगह, जमीन, पहाड़, हमारे गाँव, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता सब धूल की तरह उड़ती हुई प्रतीत हो रही है। यह धूल हमारे ही चेहरे को काला कर रही है, और हम कह रहे हैं कि ‘‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’’। दरअसल इनकी कहानियाँ सत्ता के उन हर नापाक इरादों को उजागर करते हुए अग्रसर होती हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में शोषण, दमन, अत्याचार निहित होता है।
आज हम ऐसे क्रूर समय में जी रहे हैं जहाँ व्यक्ति जितना अपने दुःख से परेशान नहीं है, उससे कहीं ज्यादा दूसरे के सुख से परेशान है। ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट इत्यादि अमानवीय मूल्य लगातार मनुष्य को घ्ोरते चल्ो जा रहे हैं। ‘घट्टी वाली माई की पुलिया’ नामक कहानी इन अमानवीय मूल्यों का गहरा प्रतिकार करते हुए एक ऐसी पुलिया बनाने की जद्दोजहद करती है, कि जिससे होकर मनुष्य समता, समानता व बन्धुत्व के उर्वर प्रदेश में पहुँच सके। यह कहानी ‘देखन में छोटे लगै, घाव करै गंभीर’ को साकार करते हुए प्रकृति दोहन के अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर करती है तथा मनुष्य को ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को साकार करते हुए आगे बढ़ने की पक्षधरता करती है। विवेकहीन सत्ता व्यवस्था के अन्तर्गत पनपने वाल्ो अन्याय, अत्याचार, भेद-भाव, शोषण तथा प्रत्येक प्रकार की अमानवीयता पर सीधा प्रहार इस कहानी का प्रमुख प्रतिपाद्य है। कहानी की नैरेटर ‘मनकामना’ का अपने घर में हुई चोरी की शिकायत को राजा तक पहुँचाना कुछ उसी तरह महंगा पड़ा जैसे आज सत्ता के खिलाफ बोलना देशद्रोह माना जा रहा है। राजा के मंत्रियों के दल ने मनकामना को झूठा भी साबित किया और उसे हड़काते हुए कहा- ‘भविष्य में शिकायत करने आयी तो राजद्रोह के मामल्ो में फाँसी पर लटकवा देंगे। अभी हिदायत देकर छोड़ रहे हैं.......आगे ऐसी ग़लती मत करना।’’ गौरतलब है कि आज हम ऐसे त्र्ािशंकु समय में जी रहे हैं जहाँ ‘केदारनाथ सिंह’ के शब्दों में कहें तो ‘चीजें एक ऐसे दौर से गुजर रही हैं/कि सामने की मेज को/सीधे मेज कहना/उसे वहांॅ से उठाकर/अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है।’’ यह कहानी सत्ता की इस निर्मम निरंकुशता पर गहरा प्रतिघात करती है तथा अभिव्यक्ति की आजादी की पक्षधरता करती है।

अवधेश वाजपेई
सत्यनारायण पटेल अद्भुत किस्सागो हैं। उनकी कहानियाँ किसी एक मूल्य को ल्ोकर आगे नहीं बढ़ती हैं। उनमें कई मूल्य एक साथ गुंफित होकर आते हैं और पाठक की चेतना को झनझनाते हुए सोचने पर विवश कर देते हैं। यह उनकी कहानियों की प्रमुख विश्ोषता है। आज की सुविधाभोगी, तानाशाही और अवसरवादी क्रूर सत्ताएँ मनुष्य-मनुष्य को जोड़ने वाल्ो सारे पुलों को तोड़कर उनके बीच ऐसी खाईयाँ बनाते हुए आगे बढ़ रही है, जिससे कि साधारण जनता, किसान, दलित, मजदूर, अल्पसंख्यक, आदिवासी आपस मंे मिल न पाएँ और वह, जो चाहे वो फरमान जारी करते रहे और जब तक चाहे हम पर शासन करते रहें। बुजुर्ग ‘घट्टी वाली माई’ ज़िन्दगी-भर की जोड़ी पाई-पाई खर्च करके एक ऐसी पुलिया का निर्माण करती है, जिससे कि नदी बिना रोक-टोक कल-कल, छल-छल की आवाज करते हुए आगे बढ़ती रहे तथा ‘सुरसरि सम सबकर हित होई’ का सपना साकार करती रहे। यह कहानी विकास रूपी उस ‘बहरूपिये दानव’ का कड़ा विरोध करती है जो विकास के नाम पर हमारे नदी, पहाड़, झरना, जल, जंगल, जमीन इत्यादि प्राकृतिक संसाधनों को निगलने के बावजूद भी प्यासा और भूखा है। प्राकृतिक आपदायें बाढ़, सूखा, सुनामी, भूकम्प के झटके आदि इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों के दुपयोग के ही प्रतिफल हैं। स्वयं सत्यनारायण पटेल इस कहानी में कहते हैं- ‘समय की नदी भी बहती रही दिन-रात। देश की नदियों पर दानवी क़ब्जा बढ़ता रहा रात-दिन। अब तक जीवनदान देने वाली नदी। जीवन हरने बढ़ने लगी क़दम दर क़दम। घट्टी वाली माई के गाँवों की माँएँ, बेटियाँ, बहनें और भाई जल-सत्याग्रह करने लगे। देश-प्रदेश के राजा-महाराजा और मंत्र्ाियों की देश-विदेश में यात्र्ााएँ जारी रहीं। जंगल, ज़मीन और नदी के पानी के सौदे जारी रहे। रियाया के काम का ही नहीं, जान तक का सौदा जारी रहा। आज अनीतियों की सुरंगों के मुँह बंद करने की ज़रूरत है। घट्टी वाली माई की तलाश है।’’ ‘कहानी: नई कहानी’ में नामवर सिंह ने कहानी विधा की सोद्देश्यता को लक्ष्य करके लिखा है- ‘कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज ल्ोती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।’’ ‘घट्टी वाली माई की पुलिया’ कुछ इसी तरह की कहानी है जो छोटी होने के बावजूद जीवन के अनेक रंगों को अर्थवत्ता प्रदान करती है।
‘......पर पाज़ेब न भीगे’ शीर्षक कहानी में एक तरफ प्रेम के सूफियाना स्वरूप को रेखांकित करती है तो दूसरी तरफ आज के बाज़ारवादी तथा अवसरवादी प्रेम पर कड़ा प्रहार करती है, जहाँ मनुष्य प्रेम को भी अर्थ के तराजू पर तौल कर आगे बढ़ रहा है। ‘बंजारन’ का अपने सहृदय प्रेमी ‘बंजारे’ से यह शर्त लगाना कि यदि तुम मुझसे शादी करना चाहते हो तो तुम्हें सबसे पहल्ो नदी पर बाँध बनाना होगा, क्योंकि मैं नदी के इस पार रहती हूँ और तुम उस पार। मैं उस नदी को भींगते हुए पार नहीं करना चाहती। अपनी प्रेमिका की शर्त को पूर्ण करके बंजारे का शादी करना, उसके प्रेम के निश्छल स्वरूप को रेखांकित करता है। इससे न केवल बंजारे को अपना प्रेम मिला बल्कि दो गाँवों के बीच प्रेम, व्यापार, भाईचारा और नजदीकियों में इज़ाफा हुआ। आज हम ऐसे परिवेश में जीवन जीने को अभिशप्त हैं जहाँ विकास के नाम पर मनुष्य को उसकी बुनियादी जरूरतों से बेदखल व वंचित किया जा रहा है। पूँजीवादी प्रेत अपनी दोनों बाँहें फैलाए आगे बढ़ रहा है, जो हमारे जल, जंगल, ज़मीन, नदी, पहाड़, झरने आदि प्राकृतिक संसाधनों को निस्तनाबूद कर हमें अपनी ही जड़ों से बेदखल कर रहा है। कहानीकार इसका गहरा प्रतिकार करते हुए कहता है- ‘‘बाँध तो दुनिया भर की नदियों पर अब भी ख़ूब बन रहे हैं, पर उन्हें प्रेमी बंजारे नहीं, कम्पनियाँ बना रही हैं। अब पाज़ेब और उसकी घूँघरी के न भींगने की बात छोड़ो, घर-खेत और गाँव तक बचाना मुश्किल हो रहा है। वाक़ई समय बदल रहा। विकास की गंगा बह रही दिन-रात। डूब रहा सुख-चैन।’’ कहना न होगा कि प्रस्तुत पंक्तियाँ पढ़ते हुए, वर्तमान हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की ‘नागनथ्ौया’ कविता का स्मरण होना लाजमी है, जिसमें वे काशी के लक्खी मेला के बहाने पूँजीवाद के लीलामय स्वरूप को अभिव्यंजित करते हुए कहते हैं- गेंद की लीला में गेंद का यथार्थ कहीं खो गया/गंगा गंगा नहीं रह गई/कृष्ण कृष्ण नहीं रहे/श्रीदामा श्रीदामा नहीं रहे/सब कुछ लीलामय था/आदमी आदमी नहीं रहा/लीला आवरण की एक डोर भर बचा था/जिसे उमस भरी भीड़ में/अंत अंत तक टूटने से बचना था।’’
‘एक था चिका एक थी चिकी’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने दो नर- मादा पक्षियों चिका व चिकी के प्रेम के माध्यम से आज के आधुनिक स्त्र्ाी, पुरुष के प्रेम के मनोविज्ञान को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। यह कहानी आज की मध्यवर्गीय स्त्र्ाी की करुण दास्तान है जो अपने पति के नागपाश में फँसी हुई, उड़ने के लिए फड़फड़ा रही है, पर जो कुछ कर नहीं सकती क्योंकि वह उस पुरुष की पत्नी है। एक ऐसा पुरुष जो शहरी होने पर उसके (अपनी पत्नी के) सारे त्याग, स्नेह, प्रेम, सद्भाव, समर्पण को भुलाकर अपने तो ऑफिस के नाम पर शहर के खुल्ो गगन में स्वच्छन्द होकर उड़ता है पर अपनी पत्नी को एक कमरे में कैद कर उसकी समस्त इच्छाओं का गला घोंट देता है। सारा आकाश तथा जमीन अपना होने के बावज़ूद आज उसका न तो कोई आकाश है और न ही जमीन है। वह शहर के तीसरे माले पर दो कमरों में क़ैद होकर जीवन जीने पर अभिशप्त है- ‘‘अब चिकी का न आसमान है न ज़मीन। वह तीसरे माले पर दो कमरों में क़ैद है, जो चिका के आने पर थर-थर धूजने लगती है। चिका बाहर खड़ा बेल बजा रहा है।’’ कहना न होगा कि यह कहानी पढ़ते हुए जैनेन्द्र की कहानी ‘पत्नी’ का स्मरण सहज ही हो जाता है जिसकी प्रमुख पात्र ‘सुनन्दा’ का घर की चौखट से लगकर खड़ी रहना ताकि कालिन्दी (उसके पति) कुछ माँगें, तो जल्दी से वह दे सके तथा इस कहानी की नैरेटर ‘रूपा’ का अपने पति के लिए पौने बारह बजे तक जागना तथा उनका इन्तज़ार करना और आते ही दरवाज़ा खोलने के लिए काँपते हुए दौड़ना इस बात का प्रमाण है कि तमाम विमर्शों के बावज़ूद आज भी स्त्रियों की स्थिति लगभग वही है जो पहले हुआ करती थी। केवल उसका स्वरूप बदल गया है। पहले शोषण शारीरिक होता था अब मानसिक। अब वह घर से निकलकर दिमाग में पहुंच गया है- अवचेतन में है- अभ्यास में है। शायद इसी लिए कवि मदन कश्यप की चिंता जायज लगती है जिसे वे ‘बड़ी होती बेटी’ शीर्षक कविता में अभिव्यक्त करते हैं। ‘‘कम होने लगी है/चिड़ियों के कलरव की मिठास/चुभने लगे हैं/फूलों के तेज़ रंग/डराने लगी हैं/दरख़्तों की काली छायाएं/बड़ी हो रही है बेटी/बड़े हो रहे हैं भेड़िये/बड़े हो रहे हैं सियार/माँ की करुणा के भीतर फूट रही है बेचैनी/पिता की चट्टानी छाती में/दिखने लगे हैं दरकने के निशान/बड़ी हो रही है बेटी!’’ कभी ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ ने ‘लोभ और प्रीति’ शीर्षक निबंध में कहा था- ‘‘हम उस प्रेम का अधिक मान करते हैं जो संजीवन रस के रूप में प्रेमी के सारे जीवन-पथ को रमणीय और सुन्दर कर देता है, उसके सारे कर््मक्षषेत्र  को अपनी ज्योति से जगमगा देता है। जो प्रेम जीवन की नीरवता हटाकर उसमें सरलता ला दे, वह प्रेम धन्य है।’’ क्या आज का प्रेम ऐसा है? क्या चिका-चिकी का प्रेम ऐसा है?, जिसे जायसी ‘मानुष प्रेम भयो बैकुंठी’ कहते हैं यह एक विचारणीय प्रश्न है जिसकी ओर यह कहानी संकेत करती है। डॉ0 नामवर सिंह ने ‘कहानी: नयी कहानी’ में ‘प्रभावान्विति’ को कहानी का बुनियादी सिद्धान्त, वातावरण को कहानी का अलंकरण नहीं, ‘अन्तःकरण’ तथा कहानीपन को कहानी का लय माना है। प्रभावान्विति, वातावरण और कहानीपन- तीनों दृष्टियों से ‘एक था चिका एक थी चिकी’ कहानी अकेल्ो दम पर ल्ोखक की कहानी-कला का लोहा मनवाने में सक्षम है।
अवधेश वाजपेई
ठग किसी भी व्यक्ति, समाज, संस्था, देश को बर्बाद कर सकते हैं। भारत सदियों से ठगों की ब्ल्ोडमार उँगलियों का शिकार रहा है। अंग्रेज भी एक प्रकार के ठग ही थ्ो जो भारत को ठगने के साथ-साथ अपनी ब्ल्ोडमार उँगलियों से पूरे भारत को दो भागों में चीर दिये। चीर ही नहीं दिये बल्कि चीरकर दोनों के जिस्मों में वैमनस्य का ज़हर भी घोल दिये ताकि भविष्य में कभी भी मिल न सकें। ये वे ठग नहीं हैं जिसे संत कवि कबीरदास जी रेखांकित करते हुए कहते हैं- ‘‘कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ। आप ठग्याँ सुख ऊपजै, और ठग्याँ दुख होइ।।’’ बल्कि ये ठग अपने टुच्चे स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। मुनाफा कमाना इनका प्रथम एवं अंतिम लक्ष्य होता है। भारतीय साहित्य में ठगों की एक विस्तृत परम्परा रही है। भक्तिकालीन कवि सूरदास का ‘भ्रमरगीत सार’ मनुष्य की ठगी के खिलाफ मनुष्यता का महाआख्यान है। यहाँ उद्धव एक ऐसे ठग के रूप में सामने आते हैं जो अपने योग के कच्चे माल को बेंचकर गोपियों के पके पकाये माल को सहज ही ल्ो ल्ोना चाहते हैं। ‘आयो घोष बड़ो व्योपारी।’, ‘ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।’, ‘आए जोग सिखावन पॉड़े।’, जैसी इत्यादि पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं। रीतिकालीन कवियों में भी ठगी की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सकता है। यूँ ही नहीं घनानंद जी कहते हैं- ‘तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन ल्ोहु पै देहु छटाँक नहीं।’’ आधुनिक काल में यह प्रवृत्ति और भी गुंफित और सघन रूप में देखी जा सकती है। चाहे वह कविता हो या कहानी हो, उपन्यास हो, या नाटक हो साहित्य की लगभग हर विधाओं में यह प्रवृत्ति सहज ही उद्घाटित की जा सकती है। हाँ समय के साथ-साथ ठगों का स्वरूप बदलता गया। आज के उत्तर आधुनिक ठग किस प्रकार के हैं इसका चित्र्ाण कथाकर सत्यनारायण पटेल ने ‘ठग’ शीर्षक कहानी में प्रस्तुत किया है। यह कहानी आज के, एक से बढ़कर एक लालची ठगों की कहानी है जो अपने निजी स्वार्थों के वशीभूत होकर दूसरे मनुष्य को ठगने में कोई कसर नहीं छोड़ते। कहानी में दो ठगों का एक दूसरे को ठगना तथा बाद में मिलकर तीसरे को ठगने की साजिश करना और तीसरे का उन दोनों के साथ कइयों को ठगने की क्रिया आज के ठगों के चरित्र्ा की गहरी शिनाख़्त प्रस्तुत करती है। यह कहानी ठगी के साथ-साथ मनुष्य के लालचीपन का गहरा प्रतिकार करती है जो व्यक्ति को किसी समय, किसी भी खाई में गिरा सकती है। धोबी तथा दो व्यापारियों की लालची प्रकृति ने कैसे उन्हें कहानी के नैरेटर ‘होशियार’ के आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है यह देखना काफी दिलचस्प है। दरअसल यह कहानी बेहिसाब मुनाफाखोरी के खिलाफ उचित मूल्य पर व्यापार करने की पक्षधरता करती है जिससे कि समाज के अंतिम पायदान पर बैठा हुआ व्यक्ति भी ससम्मान जीवन जी सके। कहानी का नैरेटर होशियार एक ऐसे ‘महाठग’ के रूप में सामने आता है कि वह बड़े-बड़े ठगों व व्यापारियों को ठग कर उनकी घोर मुनाफाखोरी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए कहता है- ‘आप नफे़ के लालच में किसानों के घर-बार, खेती-बाड़ी बिकवा दो। लकड़ी, कोयला, पानी, नदी, जंगल और हवा बेचने लगो तो सेठ, यह लालच कहाँ जाकर रुकेगा- बोलो तो जरा।’’ कहना न होगा कि जिस ठगी प्रवृत्ति का प्रतिकार होशियार करता है, फाँसीवादी ताकतें उन्हीं मूल्यों का विकास कर रही हैं। आज पूँजीवादी ताकतें सत्ता से साँठ-गाँठ करके उन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को खरीद कर घोर मुनाफा कमा रही हैं या कमाने का प्रयास कर रही हैं और आम आदमी, किसान, दलित, मजदूर अपना मूत्र्ा पीने पर अभिशप्त होता चला जा रहा है। पूँजीवादी ताकतें धीरे-धीरे लगभग सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अपना कब्जा जमाते हुए आगे बढ़ रही हैं। यह कहानी इसका प्रतीकधर्मी रचाव है। सेठ के मन में आया विचार कि- ‘अगर राजा के साथ साँठ-गाँठ कर नदी ख़रीद लूँ, तो फिर गाँव के गाँव पानी ख़रीद कर पियेंगे, पानी तो सभी की ज़रूरत है। मुनाफ़ा ही मुनाफा।’’ गौरतलब है कि सेठ का यह विचार ठगों के डी0एन0ए0 में निहित मुद्रामोचन की आग को अभिव्यंजित करता है जो मानवता के किसी भी बंधन को जला कर राख कर देने में सक्षम है। कविता तथा कहानी कैसे एक बिन्दु पर आकर मिल जाते हैं यह सत्यनारायण पटेल की कहानी ‘ठग’ तथा मदन कश्यप की कविता ‘नये युग के सौदागर’ पढ़ने पर पता चलता है, जहाँ सत्यनारायण पटेल एक व्यापारी के माध्यम से कहते हैं- ‘‘मैं किसानों से ज़मीन ख़रीदूँगा। पर जब किसानों की ज़मीन कम पड़ने लगेगी तब तक जंगलों के कटने से ख़ाली हुई ज़मीन ख़रीदने लगूँगा। जनसंख्या तो लगातार बढ़ना ही है। लोगों को रहने के लिए घर भी लगेंगे ही। मैं तब सोने के भाव ज़मीन और घर बेचूँगा।’’ वहीं मदन कश्यप कहते हैं- ‘‘ये नये युग के सौदागर हैं/हम खेर काटते रहे/इन्होंने पूरा जंगल काट डाला/हम बृंगा (खर-पतवार) जलाते रहे/इन्होंने समूचा गांव जला दिया।’’ कहना न होगा कि यहाँ मदन कश्यप तथा सत्यनारायण पटेल विकास की उस हर अवधारणा का गहरा प्रतिकार करते हैं जो हमारे प्राकृतिक संसाधनों या समाज के निम्न तबके के लोकगंज को रौंदते हुए आगे बढ़ती है। उनके यहाँ मनुष्य एवं मनुष्यता दोनों प्रधान हैं। सत्यनारायण पटेल इस कहानी के माध्यम से विकास के उस हर रथ का विरोध करते हैं जिसका पहिया देश की गर्दन पर होते हुए गुजरता है। वे भारतीय विकास की अवधारणा और शासन पद्धति पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहते हैं- ‘राजा बदला/राज करने का ढँग बदला/व्यापार में भी बहुत कुछ अदला-बदला। पर नहीं बदला तरक्क़ी का रास्ता कभी। दिन सौ गुनी रात हज़ार गुनी तरक़्क़ी होने लगी/हो रही है। और जाने कब तक तरक़्क़ी का पहिया यूँ ही देश की गर्दन पर से गुज़रता रहेगा?’’ इस प्रकार यह कहानी एक तरफ उत्तर आधुनिक ठगों (व्यापारियों) के मूल चरित्र्ा को उद्घाटित करती हुई भारतीय विकास पद्धति पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है तो दूसरी तरफ कबीर के लोक व प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की पक्षधरता भी करती है, जिससे कि मनुष्य और मनुष्यता के साथ-साथ यह जीवनदायिनी प्रकृति व पृथ्वी दोनों बची रहें।
‘न्याय’ शीर्षक कहानी भारतीय कार्य प्रणाली, न्याय प्रणाली, संसद और प्रेस की ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने वाली बेहद मार्मिक कहानी है। इस कहानी का कथानक भारत से ल्ोकर पाकिस्तान तक फैला हुआ है। वैमनस्य की आग जब भड़कती है तो नीचता का अथाह सागर भी छोटा पड़ने लगता है और मनुष्यता कहाँ विलीन हो जाती है इसका पता करना मुश्किल हो जाता है। यह एक ऐसे निर्दोष व ईमानदार व्यक्ति ‘आमिर’ की कहानी है जिसे जबरदस्ती ‘बम धमाके’ करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है और कुबूल न करने पर ऐसी सजा दी जाती है कि मुर्दे तो मुर्दे, भूत-पिशाच भी हँस-हँस के सारे राज़ उगलने लगें फिर आमिर तो जीवित इंसान था, भला वह कैसे न क़बूल करता, आमिर ने वह सब कुछ सहर्ष क़बूल किया जो रक्षकों ने चाहा, जो उन्होंने पूछा था। उसने सीखा- अपराध क़बूल करने के लिए अपराध करना ज़रुरी नहीं होता। आजादी के पैंसठ साल बाद भी हमारा लोकतंत्र कितना कराह रहा है, यह कहानी इसका ज्वलंत दस्तावेज है, जहाँ किसी भी आतंकी घटना को एक धर्म विशेष से जोड़कर देखने की घोर साजिश रची जाती है और आरोपित मनुष्य के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया जाता है। भारत तथा पाकिस्तान में रहने वाले लोगों की अपने सगे-संबंधियों से की गई साधारण बात-चीत, भाई-चारा व आवागमन को कैसे हमारे रक्षक तथा मीडिया साजिश घोषित कर देती है, यह आमिर तथा फहीम की मित्रता से देखा जा सकता है। आमिर का अपने सगे संबंधियों से मिलने पाकिस्तान जाना तथा फहीम का भारत आना कितना घातक सिद्ध होता है यह आमिर की मृत्यु तथा फहीम की यातना से समझा जा सकता है। यह कहानी देश के प्रशासनतन्त्र्ा के खोखल्ोपन को उजागर करती है। देश में कहीं बम ब्लास्ट होता है, आतंकवादी हमल्ो होते हैं, चोरी होती है, बलात्कार होते हैं, पत्थरबाजी होती है या नक्सली हमला मुजरिम को मुजरिम करार देने में प्रशासन के हाथ-पाँव फूल जाते हैं और साधारण व्यक्ति जो अपनी दो जून की रोटी जुटाने में ही परेशान हैं, उसे कितनी आसानी से मुजरिम करार कर देते हैं। यह देखना काफी दिलचस्प है। आमिर और फ़हीम जिसका बम ब्लास्ट से कोई ल्ोना-देना न था पर उन्हें जबरन आतंकवादी साबित कर दिया जाता है। आमिर और फ़हीम के साथ पुलिस ऐसा अमानवीय सलूक करती है कि उनसे जो कहलवाना चाहती है, वह कहलवा लेती है। आमिर और फ़हीम आतंकवादी घोषित कर दिये जाते हैं और उन्हें जेल भी हो जाती है। एक के बाद एक दिन बितने लगते हैं। धीरे-धीरे चौदह साल हो जाते हैं। इस बीच आमिर के खिलौनों का व्यवसाय नष्ट हो जाता है। माँ (ख़दीजा), बाप (असद खाँ) को मुकदमा लड़ने के लिए वकील को भारी भरकम रकम चुकानी पड़ती है जिससे, वे अपना घर तक बेच देते हैं। उनके घर से कोई किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता। आमिर के अम्मी और अब्बु के पास अब पाँचों वक्त के नमाज में अल्ला से दुआ के अलावा कुछ न रहा। वे अल्लाह से दुआ करते रहे कि मेरा बच्चा निर्दोष है अल्लाह उसकी रक्षा करना। अल्लाह से दुआ करते-करते उसके अब्बु तो चल बसे और उसकी अम्मी को ऐसा गहरा सदमा लगा कि उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया। चीख-पुकार सुनकर मुहल्ल्ो के लोग आए और उसकी अम्मी को अस्पताल पहुँचाया गया और अब्बु को सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। यह समाचार मुहल्ल्ो के चचा ने आमिर को पेशी के दौरान अदालत में दी, जिसकी वजह से उनसे भी पूछताछ शुरू कर दी गई, उन्हें भी एक दिन बैठाए रखा गया और हिदायत दी गई कि आमिर के क्या लगते हो? रमजान चचा का सीधा सा जवाब था एक मुहल्ल्ो वाल्ो का, मुहल्ल्ो वाल्ो से जो सम्बन्ध होता है जी वही। बस इतना कहना क्या, कि पुलिस वाल्ो उनके भी पीछे पड़ गए। किसी तरह उन्होंने पुलिस वालों से अपनी जान छुड़ायी। चचा जी फिर कभी आमिर से मिलने का ख्वाब भी नहीं देखे। अगर कोई भी इंसान आमिर के बारे में सच बताने की कोशिश करता, पुलिस वाल्ो उसे भी उसी में घसीट ल्ोते। धीरे-धीरे चौदह वर्ष बीतने को है। फैसल्ो की अन्तिम सुनवाई होने वाली है। आमिर के मन में जीवन की आशा श्ोष है। वह फ़हीम से कहता है माँ बचपन में रामायण की कथा सुनाती थी कि राम को चौदह वर्ष का बनवास हो गया था। चौदह वर्ष पूरे होने के बाद राम अयोध्या आयें, लगता है मैं भी चौदह वर्ष बाद अपने घर अयोध्या को जाऊँगा। चौदह वर्ष जेल में रहते हुए उनके मन में तमाम भाव आते यथा- कि समाज में वे कैसे रहेंगे? आमिर अब भी अपनी माँ और प्रेमिका के सहारे फिर से घर बसाने के सुनहरे ख़्वाब देखता है। उसकी प्रमिका ‘गुलबानो’ उसके ख़्वाबों में अक्सर आया करती और वह मन ही मन उससे बातें करता और भविष्य के सपने संजोता। अन्तिम सुनवाई के लिए आमिर और फ़हीम की पेशी होती है। फैसला सुनने से पहल्ो आमिर अपने वकील से अपनी माँ के बारे में जानना चाहता है। वकील, आमिर की इस बात को कई बार टालता है, ल्ोकिन आमिर के यह कहने पर कि वह फैसला सुनने से पहल्ो अपनी अम्मी का हाल जानना चाहता है। वकील बताता है- कि तुम्हारी अम्मी इस जहालत भरी जिन्दगी से मुक्त हो जन्नत में जा चुकी है। यह सुनते ही आमिर का शरीर निष्प्राण हो जाता है। फैसला सुनाया जाता है कि आमिर और फ़हीम निर्दोष हैं। फैसला सुनने से पहल्ो ही आमिर का इस क्रूर व निर्मम दुनिया को छोड़कर चल्ो जाना इस बात का प्रमाण है कि आज भी हमारी न्याय की देवी निर्दोष व ईमानदार व्यक्ति को मौत के घाट उतार सकती है। आमिर इसका प्रतीकधर्मी रचाव है। यूँ ही नहीं इस देश की न्याय व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए श्रीलाल शुक्ल कहते हैं- ‘‘पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफसोस को ल्ोकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुकदमे का फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।’’
अवधेश वाजपेई
आज के नव पूँजीवादी, बाजारवादी, नव साम्राज्यवादी, उपभोक्तवादी विकास के माडल का यथार्थ इतना जटिल एवं गुम्फित किस्म का हो चुका है, कि उसे समग्रता में समझने के लिए और कथा साहित्य को और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए ऐसी कहानियों की दरकार है जो सत्ता के सभी कुटिल चालों का पर्दाफाश करते हुए मनुष्य को सोचने पर मजबूर कर दें। सत्यनारायण पटेल ‘आम जनजीवन’ के कथाकार हैं। आम आदमी की दैनन्दिन समस्याओं यहाँ तक की अख़बारों में निकलने वाली घटनाओं की उन्हें गहरी समझ है, अमेरिका की तानाशाही, स्त्री शोषण के अनछुए पहलुओं पर विचार-विश्लेषण करने के लिए उनके पास तीखे औजार हैं जो यथार्थ की अति सूक्ष्म परतों को उघाड़कर रख देते हैं और पाठक रचना में डूबता चला जाता है। उनके भीतर एक ऐसा कथाकर मौजूद है जो समय की बारीक परतों को पकड़कर उसे कहानी के शिल्प में ढ़ाल देने का हुनर रखता है। भाषा की लहरों में कहीं व्यंग्यात्मकता है तो कहीं-कहीं गम्भीरतम कथ्य को भी बेहद सरल ढ़ंग से अभिव्यक्ति देने का हुनर। किस्सागोई से लबरेज कहानियाँ आद्योपांत पठनीय बनी रहती हैं और पाठक को जिज्ञासा भी बनी रहती है कि इस कहानी में आगे क्या होगा? एक अद्वितीय और संग्रहणीय कहानी संग्रह, जिसका कथ्य अपने बीच से लिए जाने के कारण हमें भीतर तक झकझोरता है, कि क्या हम सचमुच में आदिमता और क्रूरता की ओर बढ़ते जा रहे हैं। यह संग्रह पाठक को अपने आस-पास की चीजों के साथ-साथ विश्व-पटल पर आये दिन घटने वाली घटनाओं को देखने का नया नजरिया प्रदान करता है।
‘काफ़िर बिजूबा उर्फ़ इब्लीस’ संग्रह की अंतिम एवं सबसे लम्बी कहानी है। यह कहानी संवेदना के कई परतों को आत्मसात करते हुए अग्रसर होती है, जिसके केन्द्र में धर्म की चक्की में पिसती हुई स्त्री है। यह कहानी धर्म के वृहत्तर स्वरूप को नहीं, धर्म के कट्टर स्वरूप को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। चाहे हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो या ईसाई हो या कोई अन्य हो लगभग सभी धर्मों ने स्त्र्ाी के प्रति लगभग एक ही नजरिया अपनाया है। स्त्र्ाी जहाँ भी उनकी चेतना के चौखटे को लांघती है या तो मारी जाती है या जला दी जाती है लव जेहाद तथा खाप पंचायतें आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। यह कहानी ग्लोबल गाँव के उन इब्लीसों (श्ौतानों के सरदार) की कहानी है जो धर्म की आड़ में अपने तो सब कुछ वही करते हैं जिसे वे दूसरों को मना करते हैं। यह कहानी संवैधानिक क़ानूनों के समानान्तर चलने वाले धार्मिक क़ानूनों का कड़ा प्रतिकार करती है जो धर्म, इज्जत, शोहरत, व ईश्वर के नाम पर स्त्र्ाी की स्वतंत्रता और अपनी इच्छा व गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार को छीन लेता है। आखिर यह कैसा धार्मिक कानून है जो केवल स्त्र्ाियों पर लागू होता है पुरुषों पर नहीं। पुरुष चाहे जितनी औरतों के साथ जिना करे, सब कुछ माफ है। पर कोई लड़की किसी अविवाहित व्यक्ति से प्रेम कर ल्ो तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। कुछ इन्हीं ज्वलंत प्रश्नों से रूबरू कराती यह कहानी केवल भारत की ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में हो रहे स्त्र्ाी शोषण, बलात्कार व हत्याओं से गूँजती आवाजों का पिटारा है। जहाँ एक तरफ ऑनर किलिंग का दंश झेलती स्त्र्ाियों का करुण क्रन्दन है तो दूसरी ओर धार्मिक उन्माद में मारी गई स्त्र्ाियों की भटकती हुई आत्माएँ। यह कहानी धार्मिक पोथियों के साथ-साथ ईश्वर की अवधारणा को खारिज भी करती है। कहानी के प्रमुख पात्र्ा, घोर धार्मिक कट्टरपंथी ‘प्रोफ़ेसर’ हमज़ा क़ुरेशी’ तथा नास्तिक एवं आधुनिक ‘बिजूका’ के आपसी संवाद से कहानी धर्म के ऐसे पहलुओं को रेखांकित करती है जिसे हमें आये-दिन झेलना पड़ता है। दरअसल कहानी का प्रमुख नैरेटर ‘बिजूका’, ‘स्टोनिंग’ नामक फिल्म जो धार्मिक कट्टरता पर केन्द्रित थी, को समाज में दिखा-दिखाकर लोगों में जागरूकता फैलाने का प्रयास करता है तथा धर्म पर तार्किक ढ़ंग से सोचने समझे एवं विचार करने की जद्दोजहद करता है। कहानी के अन्य पात्र्ा प्रोफ़ेसर हमज़ा कु़रैशी, डॉक्टर अब्दुल्लाह, यूनुस आदि संरक्षणवादी एवं घोर धार्मिक कट्टरवादी मूल्यों को कायम रखने की पक्षधरता करते हैं जिससे कि उनकी स्वार्थ सिद्धि होती रहे। प्रकृति, बिजूका तथा बेताल कहानी के ऐसे पात्र्ा हैं जो धर्मांधता और कठमुल्लापन के खिलाफ समाज में एक ऐसी चेतना फैलाने की वकालत करते हैं जिससे कि समाज समता, समानता व बंधुत्व के आगोश में फूलता-फलता रहे। यह कहानी भारतीय समाज के साथ-साथ पूरे विश्व में विद्यमान जातिवाद, धार्मिक कट्टरता व साम्प्रदायिकता, ग्रामीण जीवन के छल-छù, उनके मनोविज्ञान एवं उनके शोषण की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। कहानी में फ़ातिमा का निकाह से पहले इंगेज होने तथा चाँदनी का अपने अब्बू से, अपने प्रेमी ‘चन्द्रमोहन’ से निकाह करने की इज़ाजत माँगने की हिम्मत कैसे उन्हें मौत के घाट उतार देती है, यह मरती हुई संवेदनाओं का ज्वलंत दस्तावेज है जिसके केन्द्र में धर्म की सुलगती हुई कट्टरता ही है। आखिर यह किस देश के संविधान में लिखा गया है कि, शादी से पहले प्रेम करना गुनाह है। सारे धर्म तो प्रेम का ही पाठ पढ़ाते हैं, तो वह कौन सी संस्था है जो इस पर बैन लगाती है। कहना न होगा कि यह धार्मिक व कुंठित सत्ताएँ ही हैं जो इज्जत, शोहरत, वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर मनुष्यता की हत्या कर अपना अलग शासन चलाती हैं। आखिर यह ऑनर किलिंग है या नहीं, यह कहानी इसकी गहरी समीक्षा प्रस्तुत कर पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती है। यह कहानी न केवल धार्मिक नीतियों पर बल्कि हमारे धार्मिक ईश्वरों पर भी करारा प्रहार करती है जिनके पुजारी उनका हवाला देकर काली करतूतें करते रहते हैं। कहानीकार सत्यनारायण पटेल हत्यारी धार्मिकता का गहरा प्रतिकार करते हुए वरिष्ठ आईपीएस के माध्यम से कहते हैं- ‘‘पाँच हज़ार साल में धरती पर लगभग साढ़े तीन हज़ार युद्ध लड़े गये, उन सभी की जड़ें आदमी द्वारा बनाये गये तथाकथित धर्मों में मिलती हैं। हम ऐसे धर्म को क्यों महत्व दें, जिसके इतिहास का एक-एक पन्ना ख़़ून से रंगा है।’’ यह कहानी काफ़िर (नास्तिक), बिजूका (पूतला, मानवता के पुजारी साधारण लोग) और इब्लीसों (इब्लीस अर्थात् श्ौतानों का सरदार) के त्र्ािकोणीय संघर्षों की बेहतरीन दास्तान है जिसके केन्द्र में धर्म की दहकती हुई ज्वाला है जो हजारों वर्षों से मानवता रूपी संजीवनीबूटी को जलाती हुई आ रही है। आज वह और भी तीव्र गति से धधकते हुए आगे बढ़ रही है जो न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को नेस्तनाबूद करने पर आमादा है। इस कहानी में बिजूका द्वारा जगह-जगह दिखाई जाने वाली फिल्म ‘स्टोनिंग’ लोगों को एकत्र्ा करने का मात्र्ा एक साधन है, साध्य है, धर्म तथा साम्राज्यवाद के वास्तविक स्वरूप से लोगों को अवगत कराना। फिल्म पर चर्चा करते हुए बिजूका का कथन कि- ‘पर वह धर्म को टॉरगेट करने वाली फिल्म नहीं थी। वह फिल्म देखने से समझ में आता है कि अमेरिका का मुख्य उद्देश्य सद्दाम या फिर ओसामा को मारना नहीं था। पर इनको मारे बगैर तेल के व्यवसाय पर क़ब्ज़े की कल्पना नहीं की जा सकती थी।’’ इस अवधारणा को और भी पुष्ट करता है। यह कहानी उसी तरह कई खण्डों में बँटी हुई है, जिस तरह आज का आधुनिक मानव बँटा एवं बिखरा हुआ है। कहानी का प्रवाह जिस तरह रूक-रूक कर आगे बढ़ता है, वह समाज के धागे से बुने हुए एक ऐसे शिल्प का अहसास कराता है, जिसमें एक सिद्धहस्त कथाकार की झलक मिलती है। असल में यह कहानी तेजी से आगे बढ़ते अंधेरे समय का आख्यान है, जिसमें विश्व राजनीति के अलावा धर्म की चक्की में पिसते मनुष्य का व्यापक विश्लेषण किया गया है। यह व्यक्ति से ल्ोकर समाज को, समाज से ल्ोकर देश को, देश से ल्ोकर विश्व को संवेदनशील एवं मनुष्य बनने की पक्षधरता करती है।
अवधेश वाजपेई
यह देखना काफी दिलचस्प है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ पढ़ते हुए वही अनुभूति होती है जो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, यशपाल, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध, कमल्ोश्वर, मारकण्डेय, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, उदयप्रकाश, अखिलेश आदि की कहानियों को पढ़ने से होती है। विषयवस्तु, शिल्प और भाषा का ऐसा रचाव जो पाठक को संवेदना के उस धरातल तक उतार देता है, जहाँ यह महसूस होने लगता है कि अरे यह तो अपनी ही या अपने ही आस-पास के परिवेश की आँखों देखी घटना की कहानी है। यह इनकी कहानी कला की प्रमुख विश्ोषता है। इनकी कहानियाँ मात्र्ा पढ़ने के लिए नहीं, गुनने, धुनने व परिवर्तन की अलख जगाने तथा नागरिक दायित्वों के आलोक में अपनी भूमिका को जांचने-परखने के लिए भी है कि हम इब्लीसों की ज़मात से कितने भिन्न एवं अलग हैं।
सत्यनारायण पटेल की किस्सागोई में कहन का भाव इतना गहरा रहता है कि पढ़ने वाला उसमें डूबता चला जाता है। वाक्यों का गठन, संवादों और विवरणों की रस भरी चुस्ती की कलात्मक ऊँचाई कथ्य के उस स्तर तक ल्ो जाती है कि कथा में धड़कन महसूस होने लगती है। श्रव्य दृश्य बन जाता है और दृश्य श्रव्य। उनकी कहानियाँ लिजलिजी व कोरी भावुकता से पूरी तरह मुक्त हैं। उनकी भाषा एक ऐसे तेज व धारदार बसूल्ो की तरह है जो रगों-रेशों को काटता-छीलता अग्रसर होता है और इससे स्रावित रक्त की धारा तथा होने वाली वेदना, आत्मज्ञान के प्रकाश की तरह हमारे भाव-जगत को जगमगा देती है। भाषा में कहावतें, मुहावरें एवं लोकोक्तियों के सार्थक प्रयोग भाषा की व्यंजकता को नया आयाम देते हैं। उनकी भाषा हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं से आए शब्दों का ऐसा कोलाज बनाती है जिससे कि भाषा में जीवन धड़कने लगता है। प्रसिद्ध जनवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र कहते हैं कि- ‘‘वक्र रेखा तो सभी खींच ल्ोते हैं, एक सीधी-सरल रेखा खींचनी पड़े तो अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है। यह बात प्रेमचन्द की भाषा पर जितनी सटीक बैठती है उतनी ही सत्यनारायण पटेल की आडंबर विहीन साफ सुथरी कथा भाषा पर भी। भाषा की अद्भुत सर्जनात्मकता और किस्सागोई की लाजवाब श्ौली पाठक को अपने बाजुओं में कस कर जकड़े रहती है, जिससे वह कहानी को खत्म करने के बाद ही रूकता है।
इस प्रकार इतिहास और विचारधाराओं के अन्त की घोषणाओं के बावजूद यह कहानी संग्रह अन्त की नहीं, मनुष्य के निर्णयों के वैकल्पिक मार्गों के नवीन आरम्भ और नयी सुबह की पहली किरण का व्यापक वितान रचता है। यह पिछल्ो तीन-चार दशकों में सम्पूर्ण विश्व में आए बदलावों का जायजा ल्ोते हुए, हमारे समय और समाज की अनेक घटनाओं और उनकी जटिलताओं के सभी पहलुओं को परत दर परत उद्घाटित करता है तथा मनुष्य को प्रकृति की ओर लौटने की प्रेरणा देता ।
००

पुस्तक: काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस
सत्यनारायण पटेल (कहानी संग्रह)
आधार प्रकाशन: पंचकूला, हरियाणा।
मूल्य: 200/-

संपर्क:
शिव कुमार यादव, शोध छात्र्ा, हिन्दी विभाग-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005, मो0- 09454653490

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें