11 नवंबर, 2017

विवेक चतुर्वेदी की कविताएं

कवि का आत्मकथन: कविता और सभी ललित कलाएँ मेरे देखे बेहतर आदमी की खोज हैं। कविता भोगे हुए यथार्थ की भाव परक व्यंजना हैं और कल्पना के जरिए मनुष्य की आत्यंतिक सम्भावनाओं की पड़ताल भी है।
विवेक चतुर्वेदी
मुझे लगता है जो कुछ भी मेरे भीतर बेहतर होता है तो कविता की शक्ल में रिस जाता है। कई बार बहुत करीब होते-होते किसी कोने में कविता एकदम अपरिचित होकर मुझे आइना दिखा देती है। वो रोज मुझे चुनौती देती है कि चेतना के किसी ज्वार में तूने मुझे रच तो दिया पर मुझे जी कर दिखा, प्रेम कविताओं का मेरा चाँद अचानक किसी गरीब बस्ती में रोशनी करने के लिए चल पड़ता है। मैं निरे प्रेम की कविताएँ, नहीं  रच पाता, जीवन के खाँटी स्वाद के साथ सरोकार हो ही जाता है।



कविताएं


दुनिया के लिए जरूरी है

बहुत सी खूबसूरत बातें
मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया
जैसे कुनकुनी धूप
जैसे बचपन
जैसे तारे
और जैसे एक आदमी, जो केवल आदमियत की जायदाद
के साथ जिंदा है।
और कुछ गैरजरूरी लोग न्योत लिए गए हैं
जीवन के ज्योनार में
जो बिछ गई पंगतों को कुचलते
पत्तलों को खींचते
भूख भूख चीखते
पूरी धरती को जीम रहे हैं।
सुनो ... दुनिया के लिए जरूरी नहीं है मिसाइल
जरूरी नहीं है अंतरिक्ष की खूंटी पर
अपने अहम को टांगने के लिए भेजे गए उपग्रह
जरूरी नहीं हैं दानवों से चीखती मशीनें
हां ... क्यों जरूरी है मंगल पर पानी की खोज ?
जरूरी है तो आदमी .... नंगा और आदिम
हाड़-मांस का
रोने-धोने का
योग-वियोग का
शोक-अशोक का
एक निरा आदमी
जो धरती के नक्शे से गायब होता
जा रहा है
उसकी जगह उपज आई हैं
बहुत सी दूसरी प्रजातियां उसके जैसी
पर उनमें आदमी के बीज तो बिलकुल नहीं हैं।
इस दुनिया के लिए जरूरी हैं
पानी, पहाड़ और जंगल
जरूरी है हवा और उसमें नमी
कुनकुनी धूप, बचपन और
तारे ... बहुत सारे ...।।
००


रोज

दिन एक पहाड़ है
सूरज है सुबह की चाय
सांझ पहाड़ के पार एक झील है
रात है उसमें डूब के मर जाना...।।
००
अवधेश वाजपेई


माँ

बहुत बरस  पहले
हम बच्चे आँगन में
माँ को घेर के बैठ जाते
माँ सिंदूरी आम की
फाँके काटती
हम देखते रहते
कोई फाँक छोटी तो नहीं
पर न जाने कैसे
बिल्कुल बराबर काटती माँ
हमें बाँट देती
खुद गुही लेती
जिसमें जरा सा ही आम होता
छोटा रोता -मेरी फाँक छोटी है
माँ उसे अपनी गुही भी दे देती
छोटा खुश हो जाता
आँख बंद कर गुही चूसता
उस सिंदूरी आम की फाँक
आज की रात चाँद हो गई है
पर अब माँ नहीं है
वो चाँद में बहुत दूर
स्याह रेख सी
दिखाई पड़ती है
माँ चाँद के आँगन में बैठी है
अब वो दुनिया भर के
बच्चों के लिए
आम की फाँक काट रही है।।
००
                             


कहाँ हो तुम

बरस गया है
आसाढ़ का पहला बादल
हरी पत्तियाँ जो पेड़ में ही
गुम हो गई थीं
फिर निकल आई हैं
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोट कर
खेलने लगे हैं
दरकने लगा है
आँगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से
अँकुए फूटने लगे हैं
कहाँ हो तुम  ...    
००


आम का पेड़

कितना चुप है आज
उदास आम का पेड़
आसाढ़ की बारिश से ठीक पहले,
जो था रंग रस गंध
सब दे चुका बैसाख में
अब कितना खाली है
कितना चुप ।
बस अब दे सकेगा जरा सी छाया
सोचता है आम का पेड़
सोचता है कुछ और फल
जने होते मैंने
तो अंधड़ में झूमता लहराता
अमिया ढूंढते बच्चों की
झोली में झर  जाता
जब देने को कुछ नहीं होता
कैसा छाल सा खुरदुरा और सख्त
हो जाताहै समय ।
चुप रहकर अगले बरस के
फागुन को सोचता है
आम का पेड़
जब कोयल कूक के मांगेगी
अपना दाय
तब उजास भरी बौर सा
बरस जाएगा
और  पत्तों सा हरा
 हो जाएगा समय।।    
००


अवधेश वाजपेई

रावण

रावण... शताब्दियों से गूंजता है
जिसका खल
रावण... जो छल से चुरा लाया है
एक स्त्री के दिन... पर रातें नहीं..
पर क्या
रावण
हमसे अधिक नहीं जानता
स्त्री देह का राग?
जानता है रावण!
तुम बलात नहीं कर सकते
एक स्त्री को सितार
स्त्री जब चाहेगी
सच में तुमसे संगीत...
तब  कसेगी
अपनी देह के तार
वो अपने हाथ में थाम लेगी
तुम्हारा मिजराब
और खुद तुम्हें
देह की रहस्यमयी गोलाइयों
और गहराइयों तक ले जाएगी
जब स्त्री खोलेगी
अबूझ गुफाओं के द्वार
और दीप्त हो जाएगा देहराग...
असीम धैर्य... असीम प्रतीक्षा...
जानता है रावण
चाहता है अशोक रहे वाटिका
जानता है एक दुर्ग है स्त्री देह
जीता गया है जो छल से
पर बल से चढ़ी नहीं जा सकती उसकी प्राचीर
जब तक सीढ़ी न हो जाए स्त्री
चाहता है रावण
एक स्त्री कुटिया तक  होना चाहिए
एक लाल मुरम की राह
पर लाल मुरम तो उस स्त्री  के पास है
सुनो! इस सदी में
कितने कितने पुरूषों ने
देखी है लाल मुरम बिछने की राह...
ये जो स्त्री सो रही है तुम्हारे बगल में
तुम्हारे तप्त चुम्बन से घुट रही है
जिसकी साँस
क्या लाए थे इसे तुम इसे
लाल मुरम की सड़क से
नहीं.. तुम लाए थे इसे
धन, प्रतिष्ठा, पद, बल या छल से...
तुम इस स्त्री के बंद दुर्ग में
प्रवेश कर गए
तुमने खटखटाकर देखी न राह
अब तुम साभिमान रहते हो इस दुर्ग में
जिसके द्वार शिलाओं  से बंद हैं
तुमको पता नहीं
तुम दुर्ग की दीवारों और देहरी
पर रहते हो
कल दशहरे की रात
आग और धुँए के बीच
इन शताब्दियों में
रावण  पहली बार मेरे साथ बैठा...
तब उसके कंधे पर हाथ रख
जानी मैंने स्त्री संवेदना...
राम की शताब्दियों... मुझे क्षमा करना ।।
 ००


माँ को खत

माँ! अक्टूबर के कटोरे में
रखी धूप की खीर पर
पंजा मारने लगी है सुबह
ठंड की बिल्ली...
अपना ख्याल रखना माँ!
००


दीवाली

शहर के बीच वंचित मानुषों की उस बस्ती को
आज दीवाली पर कुछ उपराम देव घेर रहे हैं।
कांतिमय त्वचा वाले, कुंडल मुकुट वाले,
सज्जित वस्त्र वाले, सुगंधित देह वाले देव
अपने भोगों से ऊबे, मृत्यु भय से आक्रांत ये देव
वर्ष में एक दिन-एक पहर
गरीबी, भूख और अभाव की प्रदर्शनी देखने को उत्सुक हैं।
वो इस दीवाली इस बस्ती के बच्चों के लिए
रंगीन कागजों में लिपटे वरदान ला रहे हैं।
ये वरदान, दीवाली की अमावस रात में
जुगनू-से दीप्त होंगे और बुझ जायेंगे
इनकी कोई सुबह नहीं,
जैसी कि इस बस्ती की भी नहीं।
एक उपदेव बस्ती की पथरीली सड़क पर
सन्नद्ध चलता हुआ हर कच्चे घर में पूछताछ करता
वरदान के लिए नियत बच्चों के नाम
दर्ज करता चल रहा है।
अपनी ढीली चड्डियाँ सम्भाले, अधनंगे सूखे मुंह झगड़ते,
चिल्लाते उत्तेजित बच्चों की भीड़
उसके पीछे दौड़ रही है
इस ठहरी हुई बस्ती में एक उत्तेजना,
एक उन्माद आवारा कुत्तों सा फैल गया है।
देवों की सभा बस्ती के मुहाने पर
एक कच्चे मकान की दहलान मंे होनी है
कसा जा रहा है वहाँ रंगीन झालरों वाला शामियाना।
इस दहलान में काॅलेज का एक लड़का
रोज शाम बस्ती के बच्चों को पढ़ाने आता है।
टूटे श्यामपट्ट पर उसने कल शाम ही लिखा था
‘विकास’ और ‘स्वाभिमान’
आज इसे वरदान सभा के दमकते
फ्लैक्स से ढांक दिया गया है।
फोटो जर्नलिस्टों की चमकती फ्लैश लाइटों के बीच
ये देव चमचमाते एसयूवी रथों से बस्ती में उतर रहे हैं।
फैल गई है यहाँ से उनके दर्प की चकाचैंध
उनके अहं की ध्वनि बहुत दूर तक गूँज रही है।
चिकनी चमड़ी वाले ताड़ से ऊँचे और गोरे ये देव
ऊँचाई से देखते हैं और बस्ती के मानुष
घिटकर और बौने होते जा रहे हैं।
बस्ती में पुराने स्कूल के अहाते,
पड़ा रहने वाला बावला
आज बांधा गया है,
जो कभी अच्छे दिनों में रहा है नाटकों में अभिनेता,
न बांधा जाये तो पत्थर लेकर दौड़ायेगा देवों को,
कहेगा - देवों! बदलो भूमिकायें,
तुम बनो इस बस्ती के नागरिक
खड़े हो जाओ हाथ जोड़े, मैं बनूंगा देव।
इस देव दल का अधिपति
एक राजनेता काला चश्मा चढ़ा,
चुनचुनाते तेल वाले, रंगे बाल वाला
तुंदियल देवेन्द,्र वरदान सभा में भाषण दे रहा है
सहमकर दहलान में सिमट आई है बस्ती।
कहता है देवेन्द्र-बच्चों! तुम्हारे लिये हम खुशियाँ लाए हैं
ढेर सारी अनगिनत खुशियाँ
हम देव हैं वरदान लाए हैं।
सामने टेबल पर सजी हैं
रंगीन कागजों में लिपटी
कुछ आतिशी कुछ मिठाइयाँ।
सहमी और चमत्कृत इस भीड़ में हैं सैंकड़ों जोड़ी हाथ,
जो मजदूरी की भट्टी में तपकर सख्त हो चुके हैं।
इन्हीं हाथों से निकला सम्मोहित तालियों का एक शोर है
जो देवों को लुभाता है।
उपराम देवों की इस वरदान सभा में
आया एक युवा देव बार-बार खड़ा होकर
खिन्न प्रश्न जैसा दिख रहा है
कुछ बलशाली देव उसे जबरिया बिठा रहे हैं।
जय हो-जय हो के कोलाहल में ‘रतन’
जिसकी दहलान में यह सभा है,
भूल गया है कि रात उसके खाने के पहले
ही घट गया था बटुलिया में भात,
घट गया था उसकी टूटी बाल्टी में चूना
वो नहीं पोत पाया है पूरा अपना डेढ़ कमरे का घर।
भीड़ पर अब आशा का उन्माद तारी है
निकट ही है वरदान मिलने का मुहूर्त।
विद्रूप हंसी हंस रहे हैं देव,
दिख रहे हैं उनके दांत
एक-एक कर पुकारे जा रहे हैं नाम
दोनों हाथ उठाए अधनंगे नाम,
दौड़कर आगे आ रहे हैं
दिए जा रहे हैं वरदान।
खींचे जा रहे हैं चित्र, उनमें जगह बनाने देवों में ठेलमपेल है।
अब बांट दिये गये हैं वरदान,
अपने अहं को पोषित कर
रथों में सवार होकर जा रहे हैं देव,
यहाँ से सीधे अखबार की इमारतों में घुसेंगे
और कुल सुबेरे के अखबार में प्रकट होंगे।
देवों के जाते ही उखाड़ा जा रहा है शामियाना
चैंधियाते रोशनी वाले हेलोजन बल्ब उतार लिये गये हैं
देवों के लिए बिछे सिंहासन समेटे जा रहे हैं
शहर के बीच इस बस्ती में
आज दीवाली है।।
००
अवधेश वाजपेई


बच्चा सोचता है

बच्चा सोचता है ...
फूली हुई रोटी से हों दिन
या फिर दिन हों नरम भात से
सेमल की रुई से हों हल्के
रसीले हों संतरें की गोली से
क्यों न हों लड्डू से गोल
दिन हों नई बुश्शर्ट से रंगीन
बच्चा सोचता है
आऐंगे ये दिन ...
जब परदेस से बाबू आऐंगे
पर क्या .... बाबू आऐंगे ?
००


किसी दिन कोई बरस

किसी दिन कोई बरस बरसती किसी रात में
तुम खटखटाओगी द्वार एक आकुल वेग से
जैसे कोई खटखटाता हो अपने ही घर का द्वार।
द्वार मैं खोलूँगा और एक निशब्द
विस्मय भर लेगा तुमको, बुला लेगा
उस रात मैं ढूंढ़ूगा तह कर रखे गए कुर्ते और
बिना उनके बड़े-छोटे की बात हुए तुम पहन लोगी उन्हें।
उबालूँगा दाल-चावल तुम्हे खिलाऊँगा
दोनों नहीं पूछेंगे देर रात तक कुछ भी ...
एक निशब्द समय की गोद में बैठे रहेंगे
बीच में जली होगी आग
फिर तुम्हें सुलाऊँगा मूँज की खाट में
और अपने घुटनों में रखे सिर रातभर तुम्हें सोता हुआ देखूँगा
एक ऐसा दिन यकीनन मेरी डायरी में दर्ज है।।  
००

 परिचय
नाम  - विवेक चतुर्वेदी
पिता का नाम - स्व. श्री मनोहर लाल चतुर्वेदी
जन्मतिथि - 03-11-1969
शिक्षा - स्नातकोत्तर (ललित कला)
प्रकाशन/प्रसारण - विविध पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
व्यवसाय - प्रशिक्षण समन्वयक, लर्निंग रिसोर्स डेवलपमेंट सेंटर, कलानिकेतन पाॅलिटेक्निक महाविद्यालय, जबलपुर
पता  - 1254, एच.बी. महाविद्यालय के पास, विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.) 482002
फोन - 0761-2623055 7697460750


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