19 जनवरी, 2018

 महेश कटारे सुगम की ग़ज़लें 


महेश कटारे सुगन

एक
रात रखी काँधे पर दिन से लड़ने को तैयार किया
लम्हों को पैरों में बांधा वक्त का दरया पार किया
अश्कों को आँखों में रक्खा ज़ख्मों को भी प्यार किया
दर्दों में हंसना सीखा तब खुशियों का दीदार किया
छाँव उठा कौने में रक्खी वस्त्र धूप के पहन लिए
मेहनत की चादर को ओढ़ा रुकने से इंकार किया
बाँध लिए अनमोल तज़रबे अपने मन की गांठों में
दोनों हाथ मुहब्बत बांटी जीवन को गुलज़ार किया
गुरबत कहती रही झुको पर ana बहुत ज़िद्दी ठहरी
मिट जाने की शर्तों पर भी झुकने से इंकार किया



दो 
पाला गया हूँ ख़्वाबों ख्यालों के दरम्यां
पर जी रहा हूँ आज सवालों के दरम्यां
अपनी अजीब फ़िक्र का अंदाज़ देखिये
दारुल अमां बनाये बबालों के दरम्यां
मंज़िल करीब आते ही पूरा हुआ अहद
सिमटा हुआ है दर्द भी छालों के दरम्यां
हैरत हुई ज़नाब की करतूत देखकर
इनको रखा गया था मिसालों के दरम्यां
आके मिलोगे तुम कभी तन्हाई में सुगम
बैठा हूँ इसलिए मैं रिसालों के दरम्यां








 तीन
फूल में सोये हुए अंगार को मत छेड़िये
है बहुत नाज़ुक दिले खुद्दार को मत छेड़िये
खूबसूरत लग रही दीवार पर लटकी हुई
खून की प्यासी मुई तलवार को मत छेड़िये
अश्क गर बहने लगे तो डूब जायेगा ज़हां
आपको मेरी कसम लाचार को मत छेड़िये
आइना-ए-दिल हमारा टूट सकता है हुज़ूर
मुस्कुराते प्यार की मनुहार को मत छेड़िये
गम के दरिया में अभी तूफ़ान सा आ जायेगा
दर्द में डूबे हुए अशआर को मत छेड़िये
मत दिखाओ देश भक्ति का हमें तुम आइना
प्यार है जो मुल्क से उस प्यार को मत छेड़िये
जी रहा जैसे भी जीने दीजिये उसको सुगम
ज़ख्मे दिल पाले हुए फनकार को मत छेड़िये



चार
निभा रहे जो रिश्ते रोज़ पलायन के
उदहारण वो देते हैं रामायन के
गीत भला अब कैसे गाये जायेंगे
भूल चुके हैं सूत्र समर्पित गायन के
तैराकी करना तो बस की बात नहीं
सम्बल लिए फिर रहे हैं नौकायन के
सिद्धांतों पर चलना कहाँ ज़रूरी है
उनसे हैं सम्बन्ध सिर्फ पारायण के
भाग्यवाद का पाठ पढ़ेंगी अब नस्लें
काम करेंगे चमत्कार नारायन के




 पांच
रंग बिरंगी चादर हैं हम
बिछ जाने में माहिर हैं हम
खेल रहे हैं खेल ज़िंदगी
और खेल से बाहर हैं हम
बनते तो हैं बहुत बहादुर
लेकिन दिल से कायर हैं हम
हक की खातिर मुंह पर ताले
सहने में जग जाहिर हैं हम
पढ़ें कसीदे दरबारों में
कहते फिरते शाइर हैं हम










छः
बुरा लगे तो लगे हमारे ठेंगे से
कोई कुछ भी कहे हमारे ठेंगे से

नहीं मौत के आगे कोई मन्ज़िल है
बचता है जो बचे हमारे ठेंगे से

हम तो सीना तान खड़े हैं मरने को
डरता है जो डरे हमारे ठेंगे से

ज़ख्मों का हो गया जिस्म से याराना
सूखे हों या हरे हमारे ठेंगे से

उतरी हैं न उतरेंगी अच्छी बातें
कभी तुम्हारे गले  हमारे ठेंगे से

पागल हैं पागल ही रहना चाहेंगे
जँचे तुम्हें न जँचे हमारे ठेंगे से

खुशियों से खुद तोड़ लिया तुमने नाता
खूब रहो अनमने हमारे ठेंगे से

हम फक्कड़ अपनी मस्ती में रहते हैं
कोई हम पर हँसे हमारे ठेंगे से



सात
मिली प्रेम की पहली पाती अय,हय,हय
ख़ुशी बनी झरना बरसाती अय,हय,हय
खिली चांदनी चंदा दूल्हा लगता है
तारे लगते बने बराती अय,हय,हय
ठुमुक ठुमुक कर चलें बयारें बासंती
फूल खिले बगिया मुस्काती अय,हय,हय
सागर की छाती पर नाच रहीं लहरें
रेत बनी दुल्हन शर्माती अय,हय,हय
फूलों से श्रंगार किया है क्यारी ने
खुशबू वाले छंद सुनाती अय,हय,हय
फूट कोंपलें हंसती हैं बच्चों जैसी
लाल लाल पलकें झपकाती अय,हय,हय



आठ 
मुद्दआ जीत,हार,का है अब
मुआमला आर पर का है अब

ज़ख्म देकर लगा रहे मिर्ची
ये सिला किस प्रकार का है अब

वक्त ने हौसलों को तोडा है
हादसा ये शुमार का है अब

वो जो चाहेंगे तुम खरीदोगे
ये समय इश्तहार का है अब

मैं तुम्हें भूल कैसे सकता हूँ
आसरा मुझको प्यार का है अब









 नौ
लोकतंत्र में तानाशाही की जय हो
नेता,अफसर,चोर,सिपाही की जय हो

सत्ता के सुख लूट रहे हैं वर्षों से
खूब चल रही भर्राशाही की जय हो

मुंह से निकले शब्द बने क़ानून सभी
ज़बरन की जा रही उगाही की जय हो

परदे के पीछे से छुपकर आती जो
दंगों से हर बार तबाही की जय हो

सच बोलोगे तो अंजाम बुरा होगा
सुगम अघोषित हुई मनाही की जय हो





 दस
पेट भर रोटी नहीं है काम की दरकार है
चैन की वंशी बजाती मुल्क की सरकार है

रीढ़ तोड़ी है सियासत ने अपाहिज कर दिया
लग रहा है मुल्क अपना आजकल बीमार है

खाने पीने बोलने पर लग रहीं पाबंदियां
खौफ में सहमा हुआ जीता हर इक फनकार है

है बहुत आसान सब कुछ बेईमानों के लिए
बस उसे ही कुछ नहीं है जो सही हकदार है

बन गयी सारी व्यवस्था इक तपेदिक की तरह
खांसता फिरता हुआ हर आदमी लाचार है

ये सुखन का कारवाँ रुकता नहीं झुकता नहीं
मुख्तलिफ होकर खड़ी भरती कलम हुंकार है





ग्यारह
नयन में अश्रु की चौपाइयां हैं
रुदन में पीर की अंगड़ाइयां हैं
चलोगे तो वहीं आ जाओगे फिर
हमारे शहर में गोलाइयाँ हैं
विरासत में बहुत गड्ढे मिले हैं
मेरे हिस्से में अब भरपाइयां हैं
हमारी भूख पर भारी पड़ीं हैं
तुम्हारी दी हुई मेंहगाइयां हैं
तुम्हारी नाक कटवाकर रहेंगी
जो सीखी स्वार्थ की चतुराइयों हैं




 परिचय 

महेश कटारे "सुगम"
जन्म -२४ जनवरी १९५४
जन्म स्थान -पिपरई ,जिला -ललितपुर [उ ,प्र]

प्रकाशन -प्रमुख हिंदी पत्र ,पत्रिकाओं में कहानियों ,कविताओं का प्रकाशन

प्रसारण -आकाशवाणी ग्वालियर एवं दूरदर्शन भोपाल से रचनाओं का प्रसारण

प्रकाशित कृतियाँ -प्यास [ कहानी संग्रह ],गांव के गेंवड़े [बुंदेली ग़ज़ल संग्रह ,]हरदम हँसता जाता नीम [बाल गीत संग्रह ]तुम कुछ ऐसा कहो [नवगीत संग्रह ], वैदेही विषाद [लम्बी कविता ],आवाज़ का चेहरा [ग़ज़ल संग्रह ],अब जीवे कौ एकई चारौ (बुन्देली ग़ज़ल संग्रह ),महेश कटारे सुगम का रचना संसार [डॉ .संध्या टिकेकर ] द्वारा संपादित


पुरस्कार -स्वदेश कथा पुरस्कार ,स्व .बिजू शिंदे कथा पुरस्कार ,कमलेश्वर कथा पुरस्कार [मुंबई ] पत्र पखवाड़ा पुरस्कार [दूर दर्शन ]जय शंकर कथा पुरस्कार झाँसी , [उ,प्र ] डॉ .राकेश गुप्त कविता पुरस्कार .

सम्मान- हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा सहभाषा सम्मान (बुन्देली) २०१६-१७ के लिए सम्मानित,जन कवि नागार्जुन आलोक सम्मान गया [बिहार ]२०१६--२०१७ , जन कवि मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान २०१६--२०१७  ,आर्य स्मृति साहित्य सम्मान [किताब घर ]स्पेनिन साहित्य सम्मान [रांची ]

विशेष -रत्न सागर दिल्ली द्वारा प्रकाशित माध्यमिक पाठ्यक्रम के छठे भाग में बंजारे नामक कविता संग्रहित
हिंदी साहित्य की नवीन विधा बुंदेली ग़ज़ल के प्रथम रचनाकार

स्वास्थ्य विभाग में प्रयोगशाला  तकनीशियन के पद से स्वेच्छिक सेवा निवृति

सम्पर्क -काव्या,चन्द्र शेखर वार्ड बीना,जिला -सागर [म प्र ]-४७०११३ 
  मोब .-09713024380


चित्र: गूगल से साभार 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें