21 जनवरी, 2018

अनिल गंगल की कविताएं



अनिल गंगल 



पतंगें

अपनी-अपनी छतें हैं
अपनी-अपनी पतंगें

पतंगों के साथ अपनी-अपनी डोर हैं
अपनी-अपनी चर्खियाँ
अपने-अपने रंग

पतंगों की दूरियाँ दरअसल छतों की दूरियाँ हैं
और छतों की दूरियाँ हैं हाथों की दूरियों के साथ-साथ
दिलों की दूरियाँ

भूरे रंग की पतंग का मुक़ाबला
पीले रंग की पतंग से है
और पीले रंग की पतंग का मुक़ाबला
नीले रंग की पतंग के साथ

दो-एक पतंगें आसमान में ऊँचाई नापते हुए
ऐसी भी हैं
जो किसी दूसरी पतंग के मुका़बले में नहीं हैं
हो सकता है
शायद उनका मुक़ाबला अपने आप
या फिर आकाश की ऊँचाई से हो

इस तरह पतंगों का मुक़ाबला
बदल जाता है रंगों के मुक़ाबले में
और इसी क्रम में यह मुक़ाबला
डोर और हाथों से गुज़रता
दिलों के मुक़ाबले पर आ टिकता है

ओट में छिपे कुछ हाथ ऐसे भी हैं
जिनके हाथों में पतंगों की डोर नहीं
सिर्फ़ पिसे काँच में पिरोए माँझे में बँधे लंगड़ हैं

यह समय
रंगबिरंगी पतंगों के आकाश में मुस्कराने से ज़्यादा
लंगड़धारी हाथों के अट्टहास का समय है।








रहस्य

(1)

पटरी से गाड़ी उतर चुकी है

इंजन के पहिये पटरी से उतर चुके हैं
इंजन के पीछे लगी बोगियाँ
एक के ऊपर एक चढ़ी
गाड़ी के पटरी से उतरने का शोक मना रही हैं

चारों ओर एक रहस्यमय गाढ़ी धुंध तारी है
जिसके बीच कोई नहीं जानता
अपने सिवा किसी और का पता

इतना सांद्र है रहस्य
कि बोगियों में फँसे लोग अभी भी इस सोच में मुब्तिला हैं
कि यह दुर्घटना है भी या नहीं

न कहीं कोई कोहराम
न कोई चीख़-चिल्लाहट
न कोई आर्त्त पुकार
न बहते कहीं लहू के परनाले
न मदद माँगने झाँकता कहीं कोई हाथ।

(2)

ज़िदगी का एक बेहतरीन तमाशा देखने में जुटे हैं तमाशाई
बहस का विषय यह नहीं
कि कैसे पटरी से उतरी गाड़ी को वापस लाया जाए
बल्कि यह है
कि पहले तय किया जाए किसका है क़सूर दुर्घटना में
इंजन के ड्राइवर का
जो नहीं भाँप सका दूर से ही दुर्घटना की वजह
या फिर यात्रियों के भाग्य का
जो ऐसी गाड़ी पर सफ़र ही क्यों करते थे
जिसके ड्राइवर की आँखों में उतर आया हो मोतियाबिंद

टीवी के सारे चैनल व्यस्त हैं आरोप-प्रत्यारोप में
हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह
एक बहस छिड़ी है अंतहीन
जिससे नदारद है उन पीड़ितों का मौन हाहाकार
जो जानते तक नहीं किसी दुर्घटना का होना
न होना

इस बीच
धुंध गाढ़ी से और गाढ़ी होते
और और भयानक होती जा रही है।



संपुट

वे
जो आँखें बंद किए बैठे हैं
कथित आध्यात्मिक सुख में जिनके समृद्धि से भरे सिर
मुसलसल दोलन की स्थिति में हैं
उनके दिलों में फ़िलहाल एक सन्नाटा पसरा है
जहाँ दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती ईश्वर की उपस्थिति
उनके युद्धरत विचार पूजास्थल में गूँजते मंत्रों को धता बताते
सांसारिक विश्व में चलते रक्तपात में लथपथ हो रहे हैं

उनकी जु़बान पर सिर्फ़ बँधे-बँधाए संपुट हैं
जिन्हें वे हर शुरूआत के अंत में
स्वरयंत्रों के उच्चतम शिखर पर खड़े सप्तम सुर में लगाते हैं

गणतंत्र की एक गोल इमारत
जय-जयकार, अहो-अहो और दुर-दुर के संपुट से गूँज रही है
और इमारत के पिछवाड़े
वर्तमान में बेकार और अनुपयोगी हो चुके
संपुटों का कचरा जमा है

हरेक छंद ख़त्म होता है
इसी तरह ऐसे ही किसी नया दिखाई देते संपुट पर
एक संपुट की छाया
खग्रास की मानिन्द ढाँप् चुकी है
अब तक की तमाम इतिहास-कथा का महात्म्य

यह संपुट ही है
जो निद्रालु श्रोताओं की नींद में हर बार सेंध लगाता है
जिससे बाहर आते ही वे फिर से टिका लेते हैं अपने सिर
नींद की गोद में।











गांधीजी का चश्मा

न तो गांधीजी रहे अब
न गांधीजी का चश्मा

शायद गांधीजी की ज़रूरत 2013 में न रही
यह बात और है
कि कुछ लोगों को 1947 से पहले भी
गांधीजी की ज़रूरत न थी

जब गांधीजी ही न रहे
तो उनके चश्मे की ज़रूरत भी अब किसे थी ?

जैसे नहीं रही ज़रूरत उनकी लंगोटी की
जैसे नहीं रही ज़रूरत उनकी लाठी की
जैसे नहीं रही ज़रूरत उनके चरखे की
वैसे ही नहीं रही हो ज़रूरत शायद उनके चश्मे की भी

दुनिया जैसी दिखाई देती थी गांधीजी के चश्मे से
वैसी दुनिया चलन से बाहर हो चुकी थी
और दुनिया जो देखना चाहती थी गांधीजी के चश्मे से
वह उनके फ्रे़म में अँटता नहीं था

तो फिर कहाँ गया गांधीजी का चश्मा ?

फ़िलहाल
गांधीजी की ज़रूरत हमें हा,े न हो
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत बाज़ार को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत उठाईगीरों को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत चोर-बाज़ार को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत फ़ासिस्टों को थी

बहरहाल हुआ यह
कि देश के एक नामचीन पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित
गांधीजी का चश्मा ग़ायब पाया गया
जो चोर-बाज़ार से होता हुआ एक दिन
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ की आँखों पर देखा गया।





मंत्र

अब किसी नीति-अनीति, सुनीति या दुनीति से
काम चलने वाला नहीं
धुरी से स्खलित होती पृथ्वी को
बचा सकते हैं तो सिर्फ़ यज्ञ
और उच्चारित किए जाने वाले मंत्र

यज्ञों में आहूत समिधाएँ ही दे सकेंगी
हमें अमोघ शक्तियाँ
बारिश बरसा कर वही बचाएंगी हमारे खेतों को
उजाड़ होने से

भूल चुके हैं कलियुग में लोग
ऋषियों के दिए मंत्रों की शक्तियाँ
जो बना सकते थे मनुष्य को अजर और अमर
हर सकते थे उसके तमाम रोग-शोक
एक सूक्त का जाप करा सकता उसे समुद्र पार
एक मंत्र के उच्चाटन भर से कर सकता था वह अपनी देह का
तीन अंगुल से लेकर कई योजन तक का विस्तार
एक मंत्र का जाप भर सकता था उसे
असीम बल और शौर्य से

यज्ञों के पवित्र धूम्र का उन तक पहुँचने का
इंतज़ार करते थे निठल्ले बैठे देवगण
ताकि कर सकें वे ऋषियों पर पुष्पवर्षा
यज्ञ और मंत्रों की दैवीय शक्ति के बगै़र
असुरों से युद्ध के दौरान
इंद्र का वज्र तक हो जाता था निर्वीर्य

पिछले सैकड़ों बरसों में किए गये यज्ञों की अग्नि की
शपथ लेकर कहता हूँ मैं-
नहीं हैं ये सिर्फ़ कपोल कल्पनाएँ पुराणों की
कलियुग में खो चुके हैं हम यज्ञों और मंत्रों की शक्तियाँ
भूल गये हैं
कि पुराण और कुछ नहीं
इतिहास का ही है छद्म नाम

आओ-
वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान की उपलब्धियों को धरती में दफ़न कर
समय-चक्र को उल्टी दिशा में घुमाते हुए
लौट चलें आदिम युग में वापस
पुराणों की ओर।


प्रवेश सोनी 




लाचार बूढ़े आदमी को रोते देख कर

एक समूची पृथ्वी रो रही है
अपनी नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों, सागरों और महासागरों सहित
उस बूढ़े लाचार आदमी के विलाप में

बालिग हो चुके बेटों द्वारा किए गये अपने अपमान से भी
नहीं हुआ था वह इतना आहत
जितनी लाचारगी बरस रही है उसकी आँखों से धारासार
अभी इस वक़्त

राह चलते अजनबियों को रोक कर
वह सुनाना चाहता है सबको अपनी करुणगाथा
मगर किसके पास है इतना वक़्त पानी की तरह बहती भीड़ में
जो ठहर कर सुन सके आँसुओं में भीगी आपबीती

बिना ब्रेक की गाड़ी के पहियों की मानिंद
तेज़ी से भागती-दौड़ती दुनिया के बीच
रोते हुए बूढ़े आदमी का चेहरा
गहरे समुद्र के बीच ठहरे एक निर्जन द्वीप की तरह है

सबको दिखाता है वह मैले कुर्ते की जेब से निकाल कर
चलन से बाहर किए जा चुके पाँच सौ और हज़ार के नोट
जो भले ही वित्तमंत्री और रिज़र्व बैंक के लिए
क़ाग़ज़ के बेकार टुकड़ों में बदल चुके हों
मगर बूढ़े आदमी के लिए अभी भी हैं वे कारूँ का ख़ज़ाना

क्या करे वह
कहाँ किस कुबेर के पास जाए वह
जो दिला सके उसे इस बिन बुलाई आफ़त से निजात
जो बदल सके रद्दी हो चुकी ज़िंदगी भर की बचत को
नये करारे चमकदार नोटों में

विलाप करता कह रहा है वह अस्फुट शब्दों में :
आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था मैंने भी
बदले में कुछ पाने की आशा के बगै़र
फ़िरंगियों की लाठी के प्रहार से बहा था
मेरे भी सिर से ख़ून का पनाला
मैंने भी जी है एक क़ैदी की तरह
जेल की जानवरनुमा ज़िंदगी

मैं नहीं हूँ कोई मुनाफ़ाखोर या कालाबाज़ारिया
ये देखो मेरी डिग्रियाँ
यह देखो मेरे शिक्षक होने का सबूत
यह रहा मेरी सेवानिवृत्ति का प्रमाणपत्र
खर्च किए हैं मैंने भी ज़िंदगी के बेहतरीन चालीस बरस
अगली पीढ़ी का भविष्य बनाने में

जिन्हें बतला रहे हैं माननीय वित्तमंत्री जी कालाधन
वह बूँद-बूँद जोड़ कर जमा मेरी ज़िंदगी भर की बचत है
जिसे सरकार रद्दी के टुकड़े बता कूड़ेदान में डाल चुकी है

अब मैं क्या करूँ ?
कहाँ जाऊँ ?
किसी भी दिशा में देखने पर नहीं दिखाई देती
रोशनी की कोई किरन

हिलग-हिलग कर रो रहा है बूढ़ा आदमी
जिसके चेहरे की झुर्रियों में धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं
बेबसी और लाचारगी के आँसू।





दस्तक

वह आ रहा है
जब सुनाई देने लगी थी दूर से उसकी पदचाप
तुम निश्चिंत थे कि यह महज़ एक अफ़वाह है
और अफ़वाहों के न सिर होता है, न पाँव
इसलिए नहीं किया जाना चाहिए उसके आने पर यक़ीन

जब पहली-पहली बार दिखाई दिया था
उपजाऊ ज़मीन पर पड़ा उसका बीज
तुमने देखते हुए भी किया उसे अनदेखा

इतने से तो हो तुम,
एक बिंदी से भी छोटे
चाहो
तो भी क्या बिगाड़ लोगे मेरा‘-
उपेक्षा से तुमने कहा था

एक दिन संकेत कर किया गया था तुम्हें सावधान
कि देखो
जिसे तुम समझते आए अभी तक नाचीज़-
फूट आया है अब वह अँखुआ बन धरती से बाहर

सावधान करने वाली उंगली को तुमने बताया था
किसी सिरफिरे की उंगली

तुमने कहा था-
यहाँ की मिट्टी नहीं है इटली, जर्मनी, जापान या स्पेन की
मिट्टी की तरह मुफ़ीद
इस तरह के किसी भी ज़हरीले अँखुए के फूटने के लिए

मगर दूसरी तरफ़ तुम सींचते रहे अँखुए को
क़िस्म-क़िस्म के खाद-पानी से
तुम्हें लगता था
कि एक दिन जब अँखुआ बदल जाएगा पूर्णवृक्ष में
तो इंद्रधनुषी फूलों और मीठे फलों की शक्ल में
दमकेंगे उस पर वसन्त के वस्त्र

अब अँखुआ नहीं रहा अँखुआ
रंगबिरंगी झंडियों, टोपियों और अंगवस्त्रों के बीच
वह बदलता जा रहा है कंटीले वृक्ष में
जिससे झड़ने लगे हैं यहाँ-वहाँ ज़हरबुझे फल

नहीं बची उसके आने की अब सिर्फ़ आहट भर
वह आ चुका है आपके चौमहलों की दहलीज़ पर
दरवाज़े पर सुनाई देने लगी है साफ़-साफ़ उसकी दस्तक
जिसे सुनने के लिए तुम्हारे कान अभी भी तैयार नहीं।









क़ागज़ी शेर
भले ही आप मानते रहें इसे क़ागज़ी शेर
मगर क्रोधित होने पर यह भृकुटि भी चढ़ाता है
दहाड़ता है
और ज़रूरत पड़ने पर मुँह से आग भी उगलता है

यह अलग बात है
कि इसके आँखें दिखाने से एक बच्चा भी नहीं डरता
हाँ, दहाड़ने पर कुछ चूजे भाग कर
इधर-उधर दड़बों में ज़रूर दुबक जाते हैं
और मुँह से नकली आग उगलने पर
आसपास के मौसम का तापमान
एक-आध डिग्री सैल्शियस बढ़ जाता है

बहरहाल,
यह जंज़ीर से बँधा हुआ शाकाहारी शेर है
जिससे फ़िलहाल किसी को कोई ख़तरा नहीं
यह ज़रूर है
कि इसके होने से मुहल्ले के कुत्ते
घर की दहलीज़ पर मुँह मारने से थोड़ा डरते हैं
और रात भर हम लिहाफ़ से मुँह ढँक बेफ़िक्र सोते हैं।


संपर्क :
130, रामकिशन कॉलोनी
काला कुआँ
अलवर-301001
(राजस्थान)

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक से बढ़कर एक प्रभावपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुति हेतु धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी कविताये अच्छी है लेकिन गांधी जी का चश्मा ,मन्त्र लाचार बूढ़े को रोता देख कर ,दस्तक बेहद उम्दा कविताये है ।

    जवाब देंहटाएं