कहानी:
कैसी हो मम्मी ?
सपना सिंह
भाई का फोन था। मम्मी की तबियत खराब है। ज्यादा खराब है। हाई ब्लड प्रेशर और शुगर! मैं आश्चर्य में थी.... पर क्यों आष्चर्य में थी? मम्मी भी तो इंसान थीं। उनकी भी तो तबियत खराब हो सकती थी। पर मम्मी और बीमारी कितनी बिपरीत सी बात। याद नही पड़ता कभी बुखार, सिरदर्द या बदन दर्द की भी शिकायत की हो उन्होनें।
हम सब भाई-बहन तो हमेशा पापा और उनकी सेहत को लेकर ही चिन्तित रहते आए। विवाह के बाद भी मेरी ये चिन्ता छूटी नहीं। चिट्ठियों में, फोन पर सिर्फ पापा की पूछताछ। पापा कैसे हैं? उनका ब्लडप्रेशर नार्मल है न। सिगरेट कम किये या नहीं। पत्र पत्रिकाओं के स्वास्थ्य पेजों की कटिंग उन्हे भेजती मौसम। के अनुसार उनकी दिनचर्या तय करती। पापा के स्वास्थ्य की फिक्र में मैने अच्छी खासी जानकारी इक्कट्ठी कर ली थी। हेल्दी डाइट और एक्सरसाइज की। पापा चेन स्मोकर हैं इसलिए अपनी डाइट में विटामिन सी जरूर शामिल करें! पपा सब्जियाँ, सलाद नही खाते, दूध, मलाई, रबड़ी और खूब घी वाला हलुआ पसंद....है। इसके लिए पापा से कितनी बहसे हुई..... है। वैसे पापा उतना ही स्वास्थ्यवर्धक वस्तुएं भी खाते, दूध, फल, मैने उनकी रूटीन की डायट में शामिल थे।
मम्मी कितना भी रच-रच कर सब्जी बनाती वो भिनक कर ही खाते। दूध,दही से उनका खाना पूरा होता। उक्त रक्त चाप की वजह से उनके ब्रेन में क्लाटिंग हो गयी थी, जिसका दो ऑपरेशन वो झेल चुके थे। उसके बाद पूरा परिवार उनकी सेहत को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील हो गया था। पापा ने अगर थोड़ा भी सिर भन्नाने की शिकायत की तो हमारा दिल धुकपुकाने लगता था। पता नहीं चिंता की वजह पापा के ऊपर हमारी निर्भरता थी या उनके प्रति हमारा प्रेम। हमारी सारी चिंताओं के केन्द्र में वही थे। मम्मी की सोच के केन्द्र में तो वो थे ही। पापा को बिखरा घर नापसंद है तो उनके आने के पहले फटाफट बिखरा घर समेटना शुरू होता। जो चीज जहां होती वही पर उसे रक्खा जाता। मम्मी पापा के लिए जैसा सोचतीं जैसा करतीं हम भी अनजाने ही वही अनुषरण करने लगे थे। सुबह से लेकर रात तक सबकुछ पापा के हिसाब से संचालित होता।
पापा, मम्मी दोनो को खूब सुबह उठने की आदत थी। पापा तो उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हो बिस्तर पर ही अधलेटे होकर, पत्र पत्रिकायें खोल लेते, और रिटायरमेंट के बाद तो उनका एक शगल और हो गया था, सुबह पांच बजे से ही टी.वी. पर प्रवचन सुनना। हम बहने जब कभी मायके जातीं, सब पापा-मम्मी के कमरे में ही सोते जमीन पर बिस्तर लगाकर। एक तो ये कमरा और कमरों से बड़ा था उसपर ए.सी. भी कमरे में था। इधर के कुछ वर्षों में सबकी आदत खराब हो चुकी थी...... किसी को भी ए.सी. के बिना नींद नहीं आती थी।
मुझे आश्चर्य होता था, कभी कूलर में भी हमें ठण्ड लगती थी। सुबह-सुबह के इस अध्यात्मिक प्रोग्राम से देर तक सोने वाली बहनों को खूब परेशानी होती। छोटी वाली अरे पापा.......’’ कहकर झल्लाती पर पापा बेअसर रहते। वैसे भी पापा जी को करना होता करते। उन्हे कभी किसी की सुविधा असुविधा से खास सरोकार नहीं होता। अगर उन्हे रात में बारह बजे चाय पीने का मन होता तो चाय पीते ही। कई बार देर रात लौटने पर मम्मी उनसे पूछती ’खाना लगे न .....।’’
नाही..... थोड़ा रूकके लगईह , पहले चाय पीयब।
कहां मम्मी सोंचती कि खाना वाना खिलाकर चौका समेटें .... पर वो चाय का लस्तगा लगा देते। चाय और सिगरेट। दोपहर ग्यारह, बारह बजे तक पापा इसे में बिताते। रिटायरमेंट के बाद कई वर्षों तक यही चला। जबतक वो नाश्ता नहीं करते मम्मी भी बैठी रहतीं।
पापा के नौकरी में रहते मम्मी को खासा आराम था। कई चपरासी मिलते थे। उन दिनों के चपरासी घर के काम करने में अपनी हेकड़ी नही मानते थे। आटा, मसाला, सब्जी काटना, दाल, चावल धोकर चूल्हे पर चढ़ा देना ,वक्त बेवक्त की चाय बनाना ......सभी कुछ करते थे। मम्मी तो सिर्फ सब्जियां बनाती या रोटी सेंकती पर , मम्मी हमेशा पापा के अधीनस्थों की बहूजी ही बनी रहीं , मेमसाहब नहीं बन पाईं।
बैठे - बैठे स्वेटर बुनते या कोई पत्रिका हाथ में लिए वह चपरासियों से बतियाती भी जातीं। सबके घर, खानदान कामकाज, परिवार, बच्चों की जानकारी उन्हे होती। और भी कर्मचारी घर आते थे। उन्ही में एक दर्षन चाचाजी भी थे। हमारे गांव के तरफ के थे। इस पछाहीं कस्बे में अपनी तरफ और अपनी ही बिरादरी का कोई मिल गया तो आत्मीय बन ही गया। चाचाजी भी पापा को बड़े भाई जैसा आदर देते। अक्सर घर आते। कभी कोई फाइल लेने या और कुछ काम से । मम्मी से औपचारिक बातचीत करते हुए वो कब अनौपचारिक होकर घर के सदस्य सरीखे हो गये किसी को खबर नहीं हुई। कुछ घटनाएं इतनी चुपचाप घटती है कि पता भी नहीं चलता। चाचाजी अकेले ही रहते थे। उनका परिवार गांव में रहता था। मम्मी जब तब उनसे कहती इस बार परिवार लेकर आइयेगा। चाचाजी हंस कर टाल जाते। जमाने से इन्हे अकेले रहने की आदत थी। परिवार रखना झंझटिया लगता। पर मम्मी भी पीछे पड़ी रहतीं..... हार न मानतीं । मम्मी की बात रखने के लिए ही वो गर्मियों की छुट्टियों में परिवार साथ ले आये ।हम लोग तो छुट्टियों में कहीं जाते नहीं थे। हमारी सारी छुट्टियां वहीं बीततीं...... वर्ष में एक बार चार दिन के लिए गांव जाने का नियम था सपरिवार पापा का। मम्मी वर्षों तक मायके नहीं जा पाती सिवाय शादी ब्याह के अवसरों पर।
इस बार हमारे मजे थे। चाचाजी का परिवार जो आ गया था। चाचीजी को पहली बार देख कर हम सनाका खा गये थे। गॉंँव की शुद्ध देहातन चाचीजी , चाचाजी से अंगुल भर ऊँची थीं। दुबली काठी कुछ-कुछ मर्दाना शरीर वाली। चाचाजी एक कमरे में रहते थे वहीं ऑफिस के बगल में। वह मुहल्ला भी ठीक नहीं था अंत रोज सुबह ऑफिस जाने से पहले वो परिवार हमारे यहा छोड़ जाते.... और शाम को ले जाते। दिनभर चाचीजी और बच्चे हमारे यहां रहते। चाचाजी घूंघट काढ़ रहती। पापा से जेठ जैसा पर्दा करतीं। मम्मी के कई छोटे मोटे काम निपटा देंती। हम बच्चे आपस में मस्त रहते। छुट्टियां खत्म होने को आई पर अब मम्मी ने चाचीजी को तैयार कर रक्खा था। चाचाजी के के बदनामी के कई झूठे सच्चे किस्से जो उन्होने भी चपरासियों से सुने थे उन्हें सुना डाले। अब चाचीजी जाने का नहीं तैयार। चाचाजी बहुत कसमसाये पर चाचीजी की तरफ से मम्मी मोर्चा खोले थीं। आखिरकार चाचाजी ने एक दूसरा घर खोजा और वहां षिफ्ट हो गये, बच्चों का एडमिषन भी करा दिया। और इस तरह उनकी गृहस्थी की शुरूआत हुई। जिन्दगी भर मम्मी के लिए चाचीजी कृतज्ञ बनी रही वर्ना तो वह गॉंँव में ही सड़ती हुई बुढ़ा जाती।
एक और घर बसाने को मम्मी ने अपना योगदान दिया। हमारे ट्यूशन मास्टर आचार्य जी का। वो सरस्वती स्कूल के अध्यापक थे इसलिए हम उन्हे ’अचार जी’’ कहते थे। लम्बे ऊंचे धोती कुर्ता और बास्कट धारी ’अचार जी ’ बिल्कुल ’देष प्रेमी’ के अमिताभ बच्चन जैसा लगते। मुझे और भाई को अंग्रेजी और गणित पढ़ाते थे। अनके पढ़ाने के बीच में ही मम्मी चाय लेकर आतीं और दोनो कमरों को जोड़ने चाले दरवाजे के बीच खड़ी हो जाती। बातचीत की शुरूआत यकीनन हमारी पढ़ाई लिखाई की प्रगति जानने को लेकर ही हुई होगी पर फिर उसमें राजनीति, समाजषास्त्र और मेरी तेरी उनकी बात सब शामिल होते रहे। इंदिरा गांधी , संजय गांधी, मेनका गांधी, ये नाम हमारे कानों में पड़ते। उसी दौरान कभी भुट्टो को फांसी दी गयी थी। अचार जी ठहरे आर.एस.एस. वाले। पाकिस्तानियों और मुस्लिमों के घोर विरोधी। मम्मी थीं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान सारिका जैसी पत्रिकायें नियमित पढ़ने वाली समाजवादी विचारधारा की। लिहाजा दोनो में खूब बहस होती। ’अचार जी ’ की भी फैमली गांव में रहती थी। पत्नी और दो बेटे। मम्मी उनके भी पीछे पड़ी रहती... आखिर गांव में क्यों रक्खे हैं? यहां ले आइये, आपके खाने पीने की भी सुविधा रहेगी।..... बच्चे भी आपके ही स्कूल में पढ़ेगें । दूसरे के बच्चों को पढ़ाते हैं, अपने बच्चों को गांव में छोड़े हैं। ’अचार’ जी पर भी मम्मी की बातों का असर पड़ा और भी गांव से अपनी पत्नी को ले आये। मम्मी से मिलाने भी लाये थे। ये भी एक बेमेल जोड़ा था।
इस प्रकार के छोटे-मोटे परोपकार मम्मी के हाथों होते रहते । पापा जहां भी ट्रांस्फर होकर जाते। मातहत, कर्मचारियों , चपरासियों के परिवार जनों से मम्मी का आत्मीय नाता जुड़ जाता कभी किसी चपरासी या उनके बच्चों के लिए मम्मी स्वेटर बुनती रहती। कभी किसी पड़ोसिन के साथ मिलकर साड़ी पर बेल बूटे काट़ती तो कभी चादरों पर पेंट करतीं। हाथ का खुलापन उन्हें अपने मायके से मिला था। उनके बाबा मुख्तार थे और पिता जाने माने वकील। मम्मी की स्मृति में अभाव का नामोनिशान नहीं। उनकी स्मृति में तो देवरियां के न्यूकालोनी में बना सन् 51 का उनका मकान था। किसी शादी ब्याह में जब वो बिजली के लट्टुओं झालरों से सजता तो किताबों में देखे रोषनी से झिलमिलाते ’मैसूर महल’ की तस्वीर आंखो के आगे सजीव हो जाती। मम्मी अक्सर अपने पुराने दिनों को याद करतीं। कितने तो कपड़े थे उनके पास। जूते चप्पलों की तो भरमार थी।
बाबा की खांचांजी थीं वो । उनका रूपया पैसा नही सहेजतीं।
पापा का बचपन अलग था, मम्मी के समृद्धि शहराती यादों से अलग उनकी यादों में गांव था, गांव का मिडिल स्कूल जहां जाड़ो की रात को वो लोग रजाई भी लेकर जाते और लालटेन की रोशनी में पढ़ते। मास्साब लोग भी पाठ की तैयारी करवाने के लिए स्कूल में ही रहते। पापा बताते कि थककर सारे बच्चे और मास्सान वहीं पुआल के बिस्तर में सो जाते।
पापा और मम्मी दो बिल्कुल अलग ध्रुवों के व्यक्ति। दोनो की स्मृतियां भी अलग। हम पापा के इर्द गिर्द बैठे जब पापा की संघर्ष कथायें सुन रहे होते , वो पास बैठे कोई स्वेटर का पैर्टन बिन रही होतीं। हमारी आराम देह जिन्दगी में पापा की कथायें कौतूहल तो खूब पैदा करतीं पर हम उनसे जरा भी रिलेट न कर पाते।
कभी-कभी मम्मी भी अपने स्कूल के किस्सों की पिटारी खोलतीं। अपने स्कूल पर उन्हें बड़ा गर्व था। ’कस्तूरबा इन्टर कालेज’ उस जिले का नामी स्कूल था। अपने परिवार में सिर्फ मम्मी ही वहां पढ़ी। उनकी सारी बहनें , बड़ी बहनों की लड़कियां, भाइयो की लड़कियां तो घर के पास वाले मारवाड़ी स्कूल में पढ़ती थीं..... जो बस्स ऐसे ही था। उनके संगीत के मास्टर साहब थे। अंधे । जो उन्हें घर पर संगीत सिखाने आते और नियम से दो रसगुल्ले खाकर जाते। ये बातें मम्मी ने कई-कई बार हमें बताइंर् थीं। दरअसल ये उनकी सबसे सुन्दर स्मृतियां थीं ।
उनके हारमानियम और तबले की तो हमें भी स्मृति है। अक्सर पापा ही मौज में आकर तबले पर थाप देते और हम सब भाई बहन उनके इर्द गिर्द बैठ जाते। हममें से ही कोई हारमोनियम पर बेसुरे स्वर निकालने की कोषिष करता। बहुत बाद में हारमोनियम में चूहों ने अपना स्थायी निवास बना लिया और तबला भी, बार-बार का स्थानान्तरण और ठोक पीट व सह पाने के कारण फूट फाट गया। मम्मी का संगीत हम बहनों को दसवीं और बारहवीं में संगीत दिलाकर और पटिदारी के शादी मुण्डन, बरहों के गीत गाकर ही सतुंष्ट था।
आज मम्मी से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात याद आती ही चली जा रही है। मम्मी के लिए आज से पहले कभी इस तरह तो सोचा ही नहीं। इस तरह क्या, किसी तरह भी नहीं सोचा। मम्मी के बारे में किसी तरह सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी।। हां पापा के लिए सोचा। सोचते ही रहे। पापा न रहे तो? इस तरह कितनी ही बार तो सोचा। सोच सोच दहलते रहे। पर मम्मी न रहीं तो? ऐसा कभी न सोच पाये। पापा ही धूरी रहे परिवार के। बहुत पहले, किसी पत्रिका में सदाबहार अभिनेता अषोक कुमार ने अपने सक्षात्कार में अपने नाष्चे का जिक्र किया था। एक मुट्ठी अंकुरित मूंग, चार बादाम, एक चम्मच भिगोयी हुई मैथी और दो तीन छोटी इलायची। अशोक कुमार का कहना था कि इस नाश्ते को लेने के बाद दोपहर में लंच नहीं लेते। सीधे शाम को डिनर । पापा ने भी अपने नाश्ते
का मेन्यू वही बना लिया। मम्मी भुनभुनातीं इत्ते से कैसे होगा सारा दिन। पर, पापा को दादामुनि पर अटल विश्वास। आखिर नब्बे से ऊपर जीकर गये थे वो और अंत समय तक एक्टीव थे।
वैसी उम्र और सेहत कौन न पाना चाहे। उनका ये दादामुनि वाला नाष्ता तैयार करने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। मैं बड़े मनोयोग से ये काम करती। मूंग भिगोना और ये ध्यान रखना कि वो लसलसाने न पाये या बदबू न उठे। समय से उसका पानी निथार कर अंकुरित करना। जब कभी इसमें व्यवधान पड़ता, मन में अपराधबोध जागता। अरे, आज बादाम तो भिगोया ही नहीं, या मूंग में अंकुर नहीं निकला। कभी याद भी नहीं पड़ता मम्मी ने ये सब मुंह में धरा भी हो। दूध दही, फल मेवे उन्हे नही सुहाते थे। गद्दर अमरूद के अलावा कोई फल पसंद नहीं थे। अक्सर सरकारी मकानों को बगीचों में एक दो अमरूद के पेड़ होते ही थे।
हमेशा मस्त , व्यस्त रहने वाली मम्मी बीमार हैं। भाई ने जैसा बताया उस हिसाब से तो ज्यादा बीमार हैं। अभी डेढ़ वर्ष पहले ही तो मैं मिली थी। वैसी ही थीं, हमेशा की तरह! वही रूटीन उनका सुबह नहा धोकर पूजा पाठ से निवृति हो चौक में घुसना। खाना चाहे दो बजे खाया जाय पर उनकी सब्जी दाल नौ बजे तक बन जाते। शाम आठ से उनका सीरियल आता वह वहीं बेड़ पर पापा के सिरहाने बैठे उनके सिर पर तेल ठोकतीं और अपने सीरीयल देखती। हर पन्द्रहियन मम्मी पापा की एक झड़प अनिवार्य थी। रिटायरमेंट के बाद पापा भी अजीब से होते जा रहे थे। कुछ भी बात हो कहीं की भी बात हो। सारी भड़ास मम्मी पर उतरती। टची इतने हो गये थे कि अगर एक बार में उनकी बात नही सुनों तो फिर कहर ही बरपा देते थे। मिजाज वही शहाना। खुद रिटायर हो गये पर मम्मी को सोलह साल की ही समझते। दिनभर मम्मी दौड़ती कभी पानी लाओ कभी चाय दो। दवा दो और फिर ढेरों काम। खुद उठकर कुछ न करते। सिगरेट खत्म हो तो भरी दोपहर में नुक्कड़ की दुकान तक भी मम्मी ही जायें। मम्मी की भी उम्र हो गई है, पहले जैसा जांगर कहां से लाये? पर इस तरह से कोई सोचता ही नहीं था। खुद मम्मी भी तो कहां कुछ कहती। बीमारी या थकान का कोई जिक्र ही नहीं । उन्हे भी गृहस्थी स ेअब रिटायर हो जाना चाहिए, उन्हे भी आराम करना चाहिए, या उन्हे भी दूध ,फल कैल्शियम, विटामिन्स की जरूरत है, इस बात का ख्याल ही कभी किसी को नहीं आया। पापा अब भी घर के केन्द्र बिन्दु थे। भाई अभी भी पापा का ’बाबू’ ही था। न उसने केन्द्र में आने की कोशिश की और न शायद पापा ने उसे इसके लायक समझा। उसकी प्राइवेट जॉब एक तरह से उसका कवच ही बन गयी थी। घर की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखने वाली। सुबह नौ बजे का निकला वह रात देर में लौटता और बाकी का समय मोबाइल और लेपटॉप। पापा, भाई की नौकरी से हमेषा असंतुष्ट रहे। खुद सरकारी नौकरी में, दामाद सरकारी नौकरी में, भाई की प्रॉयवेट नौकरी उन्हे कुंठा से भर देती और इस कुंठा से उपजे उनके कुट वचनों का शिकार होतीं मम्मी।
अगर मम्मी को कुछ हो गया तब? तब क्या होगा..... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस ’तब’ के आगे मैं सोच भी नहीं पा रही थी। मम्मी के सम्बन्ध में कभी इस तरह सोचा भी ते नहीं। अगर पापा को कुछ हो गया तब? इस तरह बहुत बार सोच है अब तक सोचती ही रही हूँ। पापा को जरा सा कुछ हो जाता है तो सारा दिन , सारी रात यही सोचते बीत जाती है। हताषा, असुरक्षा तो है ही, इस सोच के पीछे... प्रेम भी है। तो क्या मम्मी से हमें प्रेम नहीं है। वो सिर्फ सुविधाजनक मषीन मात्र हैं हमारे लिए। नहीं ऐसा कैसे। दरअसल मम्मी हमारे जीवन में दूध, पानी जैसी धुली हुई है और ऐसी कि उनको कुछ हो भी सकता है, उनके बिना क्या कैसे.... हमने इसकी कल्पना भी नहीं की। मेरी आँंखें ऑंँसुओ से धुधली हुई जा रहीं है। भाई ने फोन पर बताया है मम्मी की स्थिति स्थिर है। मुझे हड़बड़ा कर आने ही जरूरत नहीं इतमिनान से आंँऊ। मम्मी घर आ गयीं हैं, लो मम्मी से बात करो।
’’हल़्लो’’। मम्मी की कमजोर कांपती आवाज। मेरे कान मम्मी की ऐसी आवाज सुनने के अभ्यस्त नहीं। हमेशा से मम्मी से फोन पर बात होती थी। अक्सर, जब पापा घर पर नहीं होते मम्मी खटाखट हम बहनों को फोन लगाकर बातें करती। दुनिया भर की बातें....... जो वो पापा के घर में रहते नहीं कर पाती थीं। पापा तो उनके फोन पर बतियाने से भी चिढ़ने लगे थे। उनकी बातों में....... भाई की नौकरी , भाभी का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, पापा का क्रोध, मौसियों के घरेलू मसले, पड़ोसियों की खोज, खबर सब शामिल रहता। हम भी सबके बारे में खोद खोद कर पूछते.... पर आज से पहले कभी तो आवाज रूआंसी होकर भर्राई नहीं थी।
आज से पहले कभी पूछा भी तो नहीं, ’’कैसी हो मम्मी!’’
००
सपना सिंह की एक रचना और नीचे लिंक पर पढ़िए
नींद की गोली है- लिखना
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_6.html?m=1
सपना सिहं
द्वारा- संजय सिंह परिहार,
म.न. 10/1259ए ’आला’ के
बगल में , अरूण मार्ग
अरूण नगर, रीवा (म.प्र.) 486001
मो. 9425533707
कैसी हो मम्मी ?
सपना सिंह
भाई का फोन था। मम्मी की तबियत खराब है। ज्यादा खराब है। हाई ब्लड प्रेशर और शुगर! मैं आश्चर्य में थी.... पर क्यों आष्चर्य में थी? मम्मी भी तो इंसान थीं। उनकी भी तो तबियत खराब हो सकती थी। पर मम्मी और बीमारी कितनी बिपरीत सी बात। याद नही पड़ता कभी बुखार, सिरदर्द या बदन दर्द की भी शिकायत की हो उन्होनें।
सपना सिंह |
हम सब भाई-बहन तो हमेशा पापा और उनकी सेहत को लेकर ही चिन्तित रहते आए। विवाह के बाद भी मेरी ये चिन्ता छूटी नहीं। चिट्ठियों में, फोन पर सिर्फ पापा की पूछताछ। पापा कैसे हैं? उनका ब्लडप्रेशर नार्मल है न। सिगरेट कम किये या नहीं। पत्र पत्रिकाओं के स्वास्थ्य पेजों की कटिंग उन्हे भेजती मौसम। के अनुसार उनकी दिनचर्या तय करती। पापा के स्वास्थ्य की फिक्र में मैने अच्छी खासी जानकारी इक्कट्ठी कर ली थी। हेल्दी डाइट और एक्सरसाइज की। पापा चेन स्मोकर हैं इसलिए अपनी डाइट में विटामिन सी जरूर शामिल करें! पपा सब्जियाँ, सलाद नही खाते, दूध, मलाई, रबड़ी और खूब घी वाला हलुआ पसंद....है। इसके लिए पापा से कितनी बहसे हुई..... है। वैसे पापा उतना ही स्वास्थ्यवर्धक वस्तुएं भी खाते, दूध, फल, मैने उनकी रूटीन की डायट में शामिल थे।
मम्मी कितना भी रच-रच कर सब्जी बनाती वो भिनक कर ही खाते। दूध,दही से उनका खाना पूरा होता। उक्त रक्त चाप की वजह से उनके ब्रेन में क्लाटिंग हो गयी थी, जिसका दो ऑपरेशन वो झेल चुके थे। उसके बाद पूरा परिवार उनकी सेहत को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील हो गया था। पापा ने अगर थोड़ा भी सिर भन्नाने की शिकायत की तो हमारा दिल धुकपुकाने लगता था। पता नहीं चिंता की वजह पापा के ऊपर हमारी निर्भरता थी या उनके प्रति हमारा प्रेम। हमारी सारी चिंताओं के केन्द्र में वही थे। मम्मी की सोच के केन्द्र में तो वो थे ही। पापा को बिखरा घर नापसंद है तो उनके आने के पहले फटाफट बिखरा घर समेटना शुरू होता। जो चीज जहां होती वही पर उसे रक्खा जाता। मम्मी पापा के लिए जैसा सोचतीं जैसा करतीं हम भी अनजाने ही वही अनुषरण करने लगे थे। सुबह से लेकर रात तक सबकुछ पापा के हिसाब से संचालित होता।
पापा, मम्मी दोनो को खूब सुबह उठने की आदत थी। पापा तो उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हो बिस्तर पर ही अधलेटे होकर, पत्र पत्रिकायें खोल लेते, और रिटायरमेंट के बाद तो उनका एक शगल और हो गया था, सुबह पांच बजे से ही टी.वी. पर प्रवचन सुनना। हम बहने जब कभी मायके जातीं, सब पापा-मम्मी के कमरे में ही सोते जमीन पर बिस्तर लगाकर। एक तो ये कमरा और कमरों से बड़ा था उसपर ए.सी. भी कमरे में था। इधर के कुछ वर्षों में सबकी आदत खराब हो चुकी थी...... किसी को भी ए.सी. के बिना नींद नहीं आती थी।
मुझे आश्चर्य होता था, कभी कूलर में भी हमें ठण्ड लगती थी। सुबह-सुबह के इस अध्यात्मिक प्रोग्राम से देर तक सोने वाली बहनों को खूब परेशानी होती। छोटी वाली अरे पापा.......’’ कहकर झल्लाती पर पापा बेअसर रहते। वैसे भी पापा जी को करना होता करते। उन्हे कभी किसी की सुविधा असुविधा से खास सरोकार नहीं होता। अगर उन्हे रात में बारह बजे चाय पीने का मन होता तो चाय पीते ही। कई बार देर रात लौटने पर मम्मी उनसे पूछती ’खाना लगे न .....।’’
नाही..... थोड़ा रूकके लगईह , पहले चाय पीयब।
कहां मम्मी सोंचती कि खाना वाना खिलाकर चौका समेटें .... पर वो चाय का लस्तगा लगा देते। चाय और सिगरेट। दोपहर ग्यारह, बारह बजे तक पापा इसे में बिताते। रिटायरमेंट के बाद कई वर्षों तक यही चला। जबतक वो नाश्ता नहीं करते मम्मी भी बैठी रहतीं।
पापा के नौकरी में रहते मम्मी को खासा आराम था। कई चपरासी मिलते थे। उन दिनों के चपरासी घर के काम करने में अपनी हेकड़ी नही मानते थे। आटा, मसाला, सब्जी काटना, दाल, चावल धोकर चूल्हे पर चढ़ा देना ,वक्त बेवक्त की चाय बनाना ......सभी कुछ करते थे। मम्मी तो सिर्फ सब्जियां बनाती या रोटी सेंकती पर , मम्मी हमेशा पापा के अधीनस्थों की बहूजी ही बनी रहीं , मेमसाहब नहीं बन पाईं।
बैठे - बैठे स्वेटर बुनते या कोई पत्रिका हाथ में लिए वह चपरासियों से बतियाती भी जातीं। सबके घर, खानदान कामकाज, परिवार, बच्चों की जानकारी उन्हे होती। और भी कर्मचारी घर आते थे। उन्ही में एक दर्षन चाचाजी भी थे। हमारे गांव के तरफ के थे। इस पछाहीं कस्बे में अपनी तरफ और अपनी ही बिरादरी का कोई मिल गया तो आत्मीय बन ही गया। चाचाजी भी पापा को बड़े भाई जैसा आदर देते। अक्सर घर आते। कभी कोई फाइल लेने या और कुछ काम से । मम्मी से औपचारिक बातचीत करते हुए वो कब अनौपचारिक होकर घर के सदस्य सरीखे हो गये किसी को खबर नहीं हुई। कुछ घटनाएं इतनी चुपचाप घटती है कि पता भी नहीं चलता। चाचाजी अकेले ही रहते थे। उनका परिवार गांव में रहता था। मम्मी जब तब उनसे कहती इस बार परिवार लेकर आइयेगा। चाचाजी हंस कर टाल जाते। जमाने से इन्हे अकेले रहने की आदत थी। परिवार रखना झंझटिया लगता। पर मम्मी भी पीछे पड़ी रहतीं..... हार न मानतीं । मम्मी की बात रखने के लिए ही वो गर्मियों की छुट्टियों में परिवार साथ ले आये ।हम लोग तो छुट्टियों में कहीं जाते नहीं थे। हमारी सारी छुट्टियां वहीं बीततीं...... वर्ष में एक बार चार दिन के लिए गांव जाने का नियम था सपरिवार पापा का। मम्मी वर्षों तक मायके नहीं जा पाती सिवाय शादी ब्याह के अवसरों पर।
इस बार हमारे मजे थे। चाचाजी का परिवार जो आ गया था। चाचीजी को पहली बार देख कर हम सनाका खा गये थे। गॉंँव की शुद्ध देहातन चाचीजी , चाचाजी से अंगुल भर ऊँची थीं। दुबली काठी कुछ-कुछ मर्दाना शरीर वाली। चाचाजी एक कमरे में रहते थे वहीं ऑफिस के बगल में। वह मुहल्ला भी ठीक नहीं था अंत रोज सुबह ऑफिस जाने से पहले वो परिवार हमारे यहा छोड़ जाते.... और शाम को ले जाते। दिनभर चाचीजी और बच्चे हमारे यहां रहते। चाचाजी घूंघट काढ़ रहती। पापा से जेठ जैसा पर्दा करतीं। मम्मी के कई छोटे मोटे काम निपटा देंती। हम बच्चे आपस में मस्त रहते। छुट्टियां खत्म होने को आई पर अब मम्मी ने चाचीजी को तैयार कर रक्खा था। चाचाजी के के बदनामी के कई झूठे सच्चे किस्से जो उन्होने भी चपरासियों से सुने थे उन्हें सुना डाले। अब चाचीजी जाने का नहीं तैयार। चाचाजी बहुत कसमसाये पर चाचीजी की तरफ से मम्मी मोर्चा खोले थीं। आखिरकार चाचाजी ने एक दूसरा घर खोजा और वहां षिफ्ट हो गये, बच्चों का एडमिषन भी करा दिया। और इस तरह उनकी गृहस्थी की शुरूआत हुई। जिन्दगी भर मम्मी के लिए चाचीजी कृतज्ञ बनी रही वर्ना तो वह गॉंँव में ही सड़ती हुई बुढ़ा जाती।
एक और घर बसाने को मम्मी ने अपना योगदान दिया। हमारे ट्यूशन मास्टर आचार्य जी का। वो सरस्वती स्कूल के अध्यापक थे इसलिए हम उन्हे ’अचार जी’’ कहते थे। लम्बे ऊंचे धोती कुर्ता और बास्कट धारी ’अचार जी ’ बिल्कुल ’देष प्रेमी’ के अमिताभ बच्चन जैसा लगते। मुझे और भाई को अंग्रेजी और गणित पढ़ाते थे। अनके पढ़ाने के बीच में ही मम्मी चाय लेकर आतीं और दोनो कमरों को जोड़ने चाले दरवाजे के बीच खड़ी हो जाती। बातचीत की शुरूआत यकीनन हमारी पढ़ाई लिखाई की प्रगति जानने को लेकर ही हुई होगी पर फिर उसमें राजनीति, समाजषास्त्र और मेरी तेरी उनकी बात सब शामिल होते रहे। इंदिरा गांधी , संजय गांधी, मेनका गांधी, ये नाम हमारे कानों में पड़ते। उसी दौरान कभी भुट्टो को फांसी दी गयी थी। अचार जी ठहरे आर.एस.एस. वाले। पाकिस्तानियों और मुस्लिमों के घोर विरोधी। मम्मी थीं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान सारिका जैसी पत्रिकायें नियमित पढ़ने वाली समाजवादी विचारधारा की। लिहाजा दोनो में खूब बहस होती। ’अचार जी ’ की भी फैमली गांव में रहती थी। पत्नी और दो बेटे। मम्मी उनके भी पीछे पड़ी रहती... आखिर गांव में क्यों रक्खे हैं? यहां ले आइये, आपके खाने पीने की भी सुविधा रहेगी।..... बच्चे भी आपके ही स्कूल में पढ़ेगें । दूसरे के बच्चों को पढ़ाते हैं, अपने बच्चों को गांव में छोड़े हैं। ’अचार’ जी पर भी मम्मी की बातों का असर पड़ा और भी गांव से अपनी पत्नी को ले आये। मम्मी से मिलाने भी लाये थे। ये भी एक बेमेल जोड़ा था।
इस प्रकार के छोटे-मोटे परोपकार मम्मी के हाथों होते रहते । पापा जहां भी ट्रांस्फर होकर जाते। मातहत, कर्मचारियों , चपरासियों के परिवार जनों से मम्मी का आत्मीय नाता जुड़ जाता कभी किसी चपरासी या उनके बच्चों के लिए मम्मी स्वेटर बुनती रहती। कभी किसी पड़ोसिन के साथ मिलकर साड़ी पर बेल बूटे काट़ती तो कभी चादरों पर पेंट करतीं। हाथ का खुलापन उन्हें अपने मायके से मिला था। उनके बाबा मुख्तार थे और पिता जाने माने वकील। मम्मी की स्मृति में अभाव का नामोनिशान नहीं। उनकी स्मृति में तो देवरियां के न्यूकालोनी में बना सन् 51 का उनका मकान था। किसी शादी ब्याह में जब वो बिजली के लट्टुओं झालरों से सजता तो किताबों में देखे रोषनी से झिलमिलाते ’मैसूर महल’ की तस्वीर आंखो के आगे सजीव हो जाती। मम्मी अक्सर अपने पुराने दिनों को याद करतीं। कितने तो कपड़े थे उनके पास। जूते चप्पलों की तो भरमार थी।
बाबा की खांचांजी थीं वो । उनका रूपया पैसा नही सहेजतीं।
पापा का बचपन अलग था, मम्मी के समृद्धि शहराती यादों से अलग उनकी यादों में गांव था, गांव का मिडिल स्कूल जहां जाड़ो की रात को वो लोग रजाई भी लेकर जाते और लालटेन की रोशनी में पढ़ते। मास्साब लोग भी पाठ की तैयारी करवाने के लिए स्कूल में ही रहते। पापा बताते कि थककर सारे बच्चे और मास्सान वहीं पुआल के बिस्तर में सो जाते।
पापा और मम्मी दो बिल्कुल अलग ध्रुवों के व्यक्ति। दोनो की स्मृतियां भी अलग। हम पापा के इर्द गिर्द बैठे जब पापा की संघर्ष कथायें सुन रहे होते , वो पास बैठे कोई स्वेटर का पैर्टन बिन रही होतीं। हमारी आराम देह जिन्दगी में पापा की कथायें कौतूहल तो खूब पैदा करतीं पर हम उनसे जरा भी रिलेट न कर पाते।
कभी-कभी मम्मी भी अपने स्कूल के किस्सों की पिटारी खोलतीं। अपने स्कूल पर उन्हें बड़ा गर्व था। ’कस्तूरबा इन्टर कालेज’ उस जिले का नामी स्कूल था। अपने परिवार में सिर्फ मम्मी ही वहां पढ़ी। उनकी सारी बहनें , बड़ी बहनों की लड़कियां, भाइयो की लड़कियां तो घर के पास वाले मारवाड़ी स्कूल में पढ़ती थीं..... जो बस्स ऐसे ही था। उनके संगीत के मास्टर साहब थे। अंधे । जो उन्हें घर पर संगीत सिखाने आते और नियम से दो रसगुल्ले खाकर जाते। ये बातें मम्मी ने कई-कई बार हमें बताइंर् थीं। दरअसल ये उनकी सबसे सुन्दर स्मृतियां थीं ।
उनके हारमानियम और तबले की तो हमें भी स्मृति है। अक्सर पापा ही मौज में आकर तबले पर थाप देते और हम सब भाई बहन उनके इर्द गिर्द बैठ जाते। हममें से ही कोई हारमोनियम पर बेसुरे स्वर निकालने की कोषिष करता। बहुत बाद में हारमोनियम में चूहों ने अपना स्थायी निवास बना लिया और तबला भी, बार-बार का स्थानान्तरण और ठोक पीट व सह पाने के कारण फूट फाट गया। मम्मी का संगीत हम बहनों को दसवीं और बारहवीं में संगीत दिलाकर और पटिदारी के शादी मुण्डन, बरहों के गीत गाकर ही सतुंष्ट था।
आज मम्मी से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात याद आती ही चली जा रही है। मम्मी के लिए आज से पहले कभी इस तरह तो सोचा ही नहीं। इस तरह क्या, किसी तरह भी नहीं सोचा। मम्मी के बारे में किसी तरह सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी।। हां पापा के लिए सोचा। सोचते ही रहे। पापा न रहे तो? इस तरह कितनी ही बार तो सोचा। सोच सोच दहलते रहे। पर मम्मी न रहीं तो? ऐसा कभी न सोच पाये। पापा ही धूरी रहे परिवार के। बहुत पहले, किसी पत्रिका में सदाबहार अभिनेता अषोक कुमार ने अपने सक्षात्कार में अपने नाष्चे का जिक्र किया था। एक मुट्ठी अंकुरित मूंग, चार बादाम, एक चम्मच भिगोयी हुई मैथी और दो तीन छोटी इलायची। अशोक कुमार का कहना था कि इस नाश्ते को लेने के बाद दोपहर में लंच नहीं लेते। सीधे शाम को डिनर । पापा ने भी अपने नाश्ते
का मेन्यू वही बना लिया। मम्मी भुनभुनातीं इत्ते से कैसे होगा सारा दिन। पर, पापा को दादामुनि पर अटल विश्वास। आखिर नब्बे से ऊपर जीकर गये थे वो और अंत समय तक एक्टीव थे।
वैसी उम्र और सेहत कौन न पाना चाहे। उनका ये दादामुनि वाला नाष्ता तैयार करने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। मैं बड़े मनोयोग से ये काम करती। मूंग भिगोना और ये ध्यान रखना कि वो लसलसाने न पाये या बदबू न उठे। समय से उसका पानी निथार कर अंकुरित करना। जब कभी इसमें व्यवधान पड़ता, मन में अपराधबोध जागता। अरे, आज बादाम तो भिगोया ही नहीं, या मूंग में अंकुर नहीं निकला। कभी याद भी नहीं पड़ता मम्मी ने ये सब मुंह में धरा भी हो। दूध दही, फल मेवे उन्हे नही सुहाते थे। गद्दर अमरूद के अलावा कोई फल पसंद नहीं थे। अक्सर सरकारी मकानों को बगीचों में एक दो अमरूद के पेड़ होते ही थे।
हमेशा मस्त , व्यस्त रहने वाली मम्मी बीमार हैं। भाई ने जैसा बताया उस हिसाब से तो ज्यादा बीमार हैं। अभी डेढ़ वर्ष पहले ही तो मैं मिली थी। वैसी ही थीं, हमेशा की तरह! वही रूटीन उनका सुबह नहा धोकर पूजा पाठ से निवृति हो चौक में घुसना। खाना चाहे दो बजे खाया जाय पर उनकी सब्जी दाल नौ बजे तक बन जाते। शाम आठ से उनका सीरियल आता वह वहीं बेड़ पर पापा के सिरहाने बैठे उनके सिर पर तेल ठोकतीं और अपने सीरीयल देखती। हर पन्द्रहियन मम्मी पापा की एक झड़प अनिवार्य थी। रिटायरमेंट के बाद पापा भी अजीब से होते जा रहे थे। कुछ भी बात हो कहीं की भी बात हो। सारी भड़ास मम्मी पर उतरती। टची इतने हो गये थे कि अगर एक बार में उनकी बात नही सुनों तो फिर कहर ही बरपा देते थे। मिजाज वही शहाना। खुद रिटायर हो गये पर मम्मी को सोलह साल की ही समझते। दिनभर मम्मी दौड़ती कभी पानी लाओ कभी चाय दो। दवा दो और फिर ढेरों काम। खुद उठकर कुछ न करते। सिगरेट खत्म हो तो भरी दोपहर में नुक्कड़ की दुकान तक भी मम्मी ही जायें। मम्मी की भी उम्र हो गई है, पहले जैसा जांगर कहां से लाये? पर इस तरह से कोई सोचता ही नहीं था। खुद मम्मी भी तो कहां कुछ कहती। बीमारी या थकान का कोई जिक्र ही नहीं । उन्हे भी गृहस्थी स ेअब रिटायर हो जाना चाहिए, उन्हे भी आराम करना चाहिए, या उन्हे भी दूध ,फल कैल्शियम, विटामिन्स की जरूरत है, इस बात का ख्याल ही कभी किसी को नहीं आया। पापा अब भी घर के केन्द्र बिन्दु थे। भाई अभी भी पापा का ’बाबू’ ही था। न उसने केन्द्र में आने की कोशिश की और न शायद पापा ने उसे इसके लायक समझा। उसकी प्राइवेट जॉब एक तरह से उसका कवच ही बन गयी थी। घर की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखने वाली। सुबह नौ बजे का निकला वह रात देर में लौटता और बाकी का समय मोबाइल और लेपटॉप। पापा, भाई की नौकरी से हमेषा असंतुष्ट रहे। खुद सरकारी नौकरी में, दामाद सरकारी नौकरी में, भाई की प्रॉयवेट नौकरी उन्हे कुंठा से भर देती और इस कुंठा से उपजे उनके कुट वचनों का शिकार होतीं मम्मी।
अगर मम्मी को कुछ हो गया तब? तब क्या होगा..... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस ’तब’ के आगे मैं सोच भी नहीं पा रही थी। मम्मी के सम्बन्ध में कभी इस तरह सोचा भी ते नहीं। अगर पापा को कुछ हो गया तब? इस तरह बहुत बार सोच है अब तक सोचती ही रही हूँ। पापा को जरा सा कुछ हो जाता है तो सारा दिन , सारी रात यही सोचते बीत जाती है। हताषा, असुरक्षा तो है ही, इस सोच के पीछे... प्रेम भी है। तो क्या मम्मी से हमें प्रेम नहीं है। वो सिर्फ सुविधाजनक मषीन मात्र हैं हमारे लिए। नहीं ऐसा कैसे। दरअसल मम्मी हमारे जीवन में दूध, पानी जैसी धुली हुई है और ऐसी कि उनको कुछ हो भी सकता है, उनके बिना क्या कैसे.... हमने इसकी कल्पना भी नहीं की। मेरी आँंखें ऑंँसुओ से धुधली हुई जा रहीं है। भाई ने फोन पर बताया है मम्मी की स्थिति स्थिर है। मुझे हड़बड़ा कर आने ही जरूरत नहीं इतमिनान से आंँऊ। मम्मी घर आ गयीं हैं, लो मम्मी से बात करो।
’’हल़्लो’’। मम्मी की कमजोर कांपती आवाज। मेरे कान मम्मी की ऐसी आवाज सुनने के अभ्यस्त नहीं। हमेशा से मम्मी से फोन पर बात होती थी। अक्सर, जब पापा घर पर नहीं होते मम्मी खटाखट हम बहनों को फोन लगाकर बातें करती। दुनिया भर की बातें....... जो वो पापा के घर में रहते नहीं कर पाती थीं। पापा तो उनके फोन पर बतियाने से भी चिढ़ने लगे थे। उनकी बातों में....... भाई की नौकरी , भाभी का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, पापा का क्रोध, मौसियों के घरेलू मसले, पड़ोसियों की खोज, खबर सब शामिल रहता। हम भी सबके बारे में खोद खोद कर पूछते.... पर आज से पहले कभी तो आवाज रूआंसी होकर भर्राई नहीं थी।
आज से पहले कभी पूछा भी तो नहीं, ’’कैसी हो मम्मी!’’
००
सपना सिंह की एक रचना और नीचे लिंक पर पढ़िए
नींद की गोली है- लिखना
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_6.html?m=1
सपना सिहं
द्वारा- संजय सिंह परिहार,
म.न. 10/1259ए ’आला’ के
बगल में , अरूण मार्ग
अरूण नगर, रीवा (म.प्र.) 486001
मो. 9425533707
हमारे समय में मम्मी पापा ऐसे ही होते थे।मेरे भी।
जवाब देंहटाएंसपना तुमने उनके जीवन का गतिशील दृश्य उपस्थित कर दिया।
मम्मी के बहाने पापा की कितनी सारी बातें बता गयी आप सपना जी ! मां कभी बीमार नहीं होती ! थोड़ा कुछ होता भी होगा तो जिम्मेदारियां उसे बीमार होने का अवकाश नहीं देती हैं। और पापा !!! वो तो लगता है हर घर मे प्रिंट कॉपी की तरह होते हैं।
जवाब देंहटाएंकथानक का बहुत सुंदर निर्वाह हुआ है। अच्छी कहानी वही है जो पाठक को साथ ले कर चले, जैसे बच्चा उंगली पकड़ कर चलता है माँ के साथ।
बधाई आपको ।
कहानी जैसे हम सबकी
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक कहानी अंत में आंखों में आंसू निकल आए जैसे लगा बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं या शिवानी जी का कथा साहित्य पढ़ रहा हूं वाकई बहुत ही भावभीनी कहानी लेखिका सपना सिंह जी को बहुत-बहुत बधाई शुभकामना एक अच्छी नवोदित कथाकार जिसमें किस्सागो और भाषा का प्रवाह मन को बांध लेता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, भावपूर्ण कहानी है सपना !
जवाब देंहटाएंअापकी इस कहानी ने सीधे दिल को छुअा है । हमारे जमाने में मम्मियाँ ऐसी ही तो होती थीं, और सच यही है कि परिवार में सब उन्हे प्यार करते हुए भी उनके प्रति अनजाने ही कितने असंवेदनशील बने रहते थे । और वो तो बस मानो सबके लिए ही जीती थीं
"खुद रिटायर हो गये पर मम्मी को सोलह साल की ही समझते। दिनभर मम्मी दौड़ती कभी पानी लाओ कभी चाय दो। दवा दो और फिर ढेरों काम। खुद उठकर कुछ न करते। सिगरेट खत्म हो तो भरी दोपहर में नुक्कड़ की दुकान तक भी मम्मी ही जायें। मम्मी की भी उम्र हो गई है, पहले जैसा जांगर कहां से लाये? पर इस तरह से कोई सोचता ही नहीं था।"
घर घर की यही कहानी .... अापकी कहानी पंक्ति दर पंक्ति अपने साथ साथ हमे हमारे अतीत मे घुमा लाई, अब तो मम्मी नहीं है, लेकिन जब तक रहीं ऐसी ही थीं।
एक बेहद सशक्त कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई