मै क्यों लिखती हूँ:
लिखना, अपने भीतर की ज़मीन पर बीज छिड़कने जैसा है
विपिन चौधरी
दुनियादारी के तमाम काम, जिस तयशुदा नियम-कायदे की गांठ बाँध कर और समय-सारिणी निर्धारित कर सोच-विचार के साथ नत्थी करके अंजाम दिए जाते हैं, लिखना उस श्रेणी में तो कदापि नहीं आता. शुद्ध साहित्यिक लेखन, आपके मन के मानचित्र की प्रतिलिपि है.
रचनाकार के परिपक्व होने के साथ-साथ भीतर का 'स्पेस' अधिक विस्तृत होता जाता है जिसके दायरे-भीतर उसका देखा-भोगा संसार पनाह लेता है. जीवन की ढ़ेरों अनुभूतियाँ कोरे कागज़ पर अपनी गति को प्राप्त होती हैं. मुझे लगता है कोई लेखक सोच समझ कर लेखन शुरू नहीं करता, भीतरी दबाव ही रचनाकार का परिचय, कागज़ -कलम-दवात से करवाता है और जैसे आसमान में वायुमण्डलीय दबाव के चलते, बादल धरती पर बरसने के लिए इकट्टे हो जाते हैं ठीक उसी तरह मन के भीतर की चीज़े बवण्डर की तरह चक्कर लगाती रहती हैं फिर एक दिन मौका पा कागज़ पर बरस जाती हैं. .
स्कूली दिनों में स्लेबस की किताबों में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन दूसरी किताबों के प्रति आकर्षण जुनून की हद तक था. कॉलेज के समय में स्लेबस की किताबों के लिए भी थोड़ा प्रेम जगा. उस समय जब मैं प्राणी विज्ञान की छात्रा थी तब शल्य-चिकित्सा के प्रति मेरी अत्यधिक दिलचस्पी हुआ करती थी, उन दिनों दूरदर्शन पर देर रात सर्जरी पर आधारित एक कार्यक्रम आया करता था, आँखों में नींद उतरने के बावजूद उस कार्यक्रम की सभी क़िस्त देखना और सपनों में एक शल्य चिकित्सक के रूप में खुद को देखने का एक लंबा सिलसिला चला फिर कॉलेज के दिनों में सिविल सर्विस का प्रोफेशन दिलचस्पी जगाने लगा
लेकिन जब एक बार कलम से दोस्ती हुयी तो लगा कि एक फुल टाइम लेखक का जीवन मेरे लिए मुफ़ीद है. मेरी माँ लगातार अपनी यूनिवर्सिटी से साहित्यिक किताबें लाती और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' तो हमेशा से ही घर आता था जिसने साहित्यिक अभिरुचि विकसित करने में खूब मदद की. उस समय पता नहीं चलता था कि किताबों का चयन कैसे किया जाए बस किताबें पढ़ने की ललक ही जो हमेशा साथ चलती और दिलचस्प बात यह है कि इसी क्रम में हस्तरेखा विज्ञान, तंत्र-मंत्र-यंत्र से लेकर, घरेलू देशी नुस्खें सब पढ़ डाले। मुझे याद है एक बार मौसी के सुसराल में एक अलमारी में कई धूल भरी किताबें मिली थी जिसमें खेती-बाड़ी के रख-रखाव से जुडी सलाहें थी तब वह सब भी बड़े इत्मीनान से पढ़ा और उन सबको पढ़ने में भी अलग ही सुख पाया. तब क्या पता था कभी अपनी पसंद का एक शब्द भी लिख पाऊँगी और उसमें शामिल होगा मेरे मर्म का हिस्सा भी.
एक संवेदनशील इंसान, लेखन के जरिये अपने भीतर का कायाकल्प भी करता जाता है. यदि लेखक सजग है तो उसे अपना यह रूपांतरण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा। मुझे याद है बचपन से होश आने तक मेरे भीतर कई तरह की बेचैनियां, कई संशय मुझे बेतरह परेशान करते रहते थे, पर उस समय उनको परिभाषित करना और उन्हें परे धकेलने के जुगत से परिचय नहीं था. दुनिया का अजीबो-गरीब व्यवहार, जीवन के अनेक ढके-छुपे रहस्य और अपने आस-पड़ोस की स्त्रियों के संघर्षमयी जीवन हमेशा ही मुझे आकर्षित करते रहे. शायद इन सबने भीतर एक ऐसी दुनिया बना ली थी जिसकी मंज़िल कोरा कागज़ ही थी. न जाने कितने ही किरदारों ने मन के भीतर पनाह ली और यह भी सच है कि भीतर किरदारों की यह भीड़ आज भी छटने का नाम नहीं ले रही.
लेखन कभी खत्म न होने वाली बेचैनी का नाम है.
घर में आध्यात्मिक वातावरण होने का प्रभाव इतना था कि लेखन भी उससे अछूता नहीं रहा हमेशा यही लगा कि एक समृद्ध जीवन जीने के लिए अपने मन भीतर की सफाई जरूरी है, जितनी भी नकारात्मक ऊर्जा है उसे खत्म करने की कोशिश करने के उपक्रम और संसार से जुडी अनुभूतियाँ एक साथ कविता में आयी। उसके बाद अपनी पसंद के कवि, लेखकों, कलाकारों से पत्र-व्यवहार ने भी लेखकीय समृद्धता में इज़ाफ़ा किया। कविता जहाँ अनायास प्रकट होती और स्वभाव के अनुकूल बैठती मगर कहानी लिखने में जिस तरह के धैर्य की जरुरत होती है उस धैर्य को अपने भीतर समेटने में काफी समय लगा . मैंने हरियाणा की जिस जाट समुदाय में जन्म लिया उसमें पितृसत्ता की पैठ काफी गहरी होते हुए भी कई स्त्रियों ने अपने जीवन को इस तरह ढाल लिया जो मेरी कहानियों का प्रेरणा स्रोत बना, इन जुझारू महिलाओं के जीवन को करीब से देखने और महसूस करने से जिस सकारात्मक ऊर्जा ने भीतर स्थान बनाया वही मेरे लेखन में सहायक बनी।
जीवन का एक बड़ा हिस्सा, स्मृतियों के नाम
प्रत्येक इंसान, ताउम्र अपने अतीत को ही ओढ़ता-बिछाता है, अतीत जितना पुराना होता जाता है उतना ही मूल्यवान भी. हम अपने भूतकाल के जीवन के अनुभवों से उपजे सबक अपने आगामी जीवन में खर्च करते हैं. हमारे भारतीय परिवेश में या यूँ कहिये विश्व भर में स्त्री का जीवन ही ऐसा होता है जिसे अपने जीवन को पलट कर देखने की अघोषित मनाही है. मगर वह चोर दरवाज़ों से कभी-कभार प्रवेश कर उनमें विचरण कर आती है क्योंकि उसे अब नया जीवन जीना है और पुराने जीवन की सड़ी-गली मान्यताओं को रौंद कर जीना है. मैं अपने जीवन का लेखा-जोखा करने बैठती हूँ तो पाती हूँ कि स्त्री के लिए निश्चित परिपाटी से अलग, मैं अतीत को अपने बगल में लिए चलती रही हूँ और लेखन के लिए खुद का ही इम्तिहान लेती हूँ
ज्यों-ज्यों मैं बड़ी हो रही थी, चेतना के स्तर पर कई चीज़ें पुख्ता हो रही थी, मन पर जो- जो छाप पड़ती वहीं संवेदना का जल भर जाता और शायद उसी जल ने मेरी आत्मा को आर्द रखा . जीवन खूबसूरत नहीं होता उसे खूबसूरत बनाया जाता है यह अपने जीवन को गढ़ते हुए ही जाना. मेरे छोटे मामा की 32 वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई तब लगा जीवन तो ताश का महल है जिसे ढहने में देर नहीं लगती। साक्षात् मौत से तभी सामना हुआ. महीनों मन बहुत व्यथित रहा, उन्हीं दिनों में से एक दिन टेलीविज़न पर मैंने एक लाश को जलते हुए देखा, मन पर काले बादल घुमड़ने लगे अचानक से उठी और चार पंक्तियाँ लिखी उसी दिन के बाद लिखना जैसे जीवन का एक अटूट हिस्सा हो गया.
हरियाणा के छोटे से शहर हिसार से दिल्ली इस शहर रिश्तों की नयी परिभाषा दिल्ली महानगर में देखने को मिली आज तक मैं जिस 'स्कूल ऑफ़ थॉट' से संबंध रखती आयी थी वह यहाँ पर अप्रासंगिक हो चुका था पर अपनी कुछ निजी मान्यताओं पर की हूँ. यही पर नई पीढ़ी के नए समीकरणों को देखा और लगा एक युग मेरे भीतर से खिसकता जा रहा है.
लगातार कई साल तक किताबों और बौद्धिक लोगों के साथ ने खुद को तैयार करने में काफी मदद की. मैंने जाना कि लेखन आपके व्यक्तित्व को संवारने में काफी मदद करता है मैंने बार बार अपने माँ के जीवन और अपने समाज की स्त्रियों को याद किया और अपने अनुभवों को कविता में उकेरा। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लेखन की खाद है स्मृतियाँ.
ज़रा गौर करें तो हर घटना के पदचिन्ह हमारे मन पर जरूर पड़ते हैं, उसी तरह हम अपनी रचना में हम स्वयं का लघु अंश छोड़ते जाते हैं, हमारे जीवन का निचुड़ा
हुआ अतीत, हमारी रुचियों की लपटें, हमारे प्रेम की अनगिनत तहें, हमारी कुलबुलाती महत्वकाक्षाएं जिनसे हमारा अवचेतन मन का काफी बड़ा हिस्सा घिरा रहता हैं धीरे-धीरे ये चीजें इक्कठा होकर कविता में रंगीन मेला सजाया करती हैं.
मुझे हमेशा से लगता है कि कविता की गहन गुफा में बैठ कर हम खुद से गुफ्तगू करने की तमीज़ सीखते हैं. सारी दुनियादारी से फारिग हो कर जब हम कविता के पायताने बैठते हैं. तब कविता से उसी जीवन की बातें करते हैं जिसका पानी रिस-रिस कर हमारे मन के भीतर की बावडी में इकट्ठा होता आया हैं क्योंकि उसे कहीं बाहर का रास्ता नहीं मिल सका है . इसमे हमारी अनगिनत बेबसियाँ भी शामिल है जो सिर्फ कविता में अपनी जुबान खोलती है.
अपनी कल्पना शक्ति से हम अतीत के घटना क्रम, वर्तमान के संकल्प और भविष्य के मंसूबों पर पानी चढाते हैं. विडम्बना ही है कि हमारे जीवन में इतनी जटिलताये हैं की जीवन शक्ती उसी में खप जाती है.
क्लास रूम में विज्ञान की बारीकियों को समझने में मदद मिली और घर में माँ और उनकी सहेलियों के जीवन संघर्ष से जीवन तंतु का ताना-बाना समझा. माँ -पिता के बीच अलगाव, अपने प्रिय मामा का युवा अवस्था में देहांत, प्रिय लेखक का गुमशुदा हो जाना इन घटनाक्रमों ने मस्तिष्क भीतर के सीधे -सरल प्रवाह में अवरोध उत्पन्न कर दिया और फिर उसी अवरोध की धार को कुंद करने को शायद कविता अस्तित्व में आयी.
उसी चिर परिचत दुनिया से लड़ते हुए ही बड़ी हुयी. उसी प्रेम में लगातार गोता खाया जिसमे जरुरत से कहीं ज्यादा फिसलन थी. जीवन की यही मोटा मोटी व्याधियां रही जो पाँव में आज भी उलझी हुयी हैं.
इसी समाज से कविता के लिये कच्चा माल लेकर, अपने भीतर की भट्टी में उसे पका कर थोडे से चतुर-सुजान शब्दों में सजाना भर ही कविता नहीं है कविता इससे आगे की चीज़ हैं. कविता का प्रभाव ही इतना प्रबल है कि धीरे-धीरे कविता हमारे मस्तिष्क की महीन मासपेशियों की खुराक बनती जाती हैं. वह हमारे ध्यान के समय में उतरी हुई दुर्लभ चीज़ है, जिसे हमने दुनियादारी से छान कर अपने बगल में रख लिया है. हम दिन भर मक्कारी करते घूमें और फिर अपने भीतर को झाड- पोंछ कर कविता लिखने बैठ जाएँ यह संभव नहीं हो सकता क्योंकि अंततः कविता एक आईना है जिसमें हमें अपनी ही शक्ल देखनी है.
कविता से बाहर की जो दुनिया है वह आज भी एक तरह से अपरिचित ही है देश दुनिया की घटनाएँ, राजनीतिक दाव-पेंच आदि को खुली आँखों से देखने के बाद मन भीतर की तरफ ही मुड़ता है जहाँ कविता का रूप लेने के लिए बेचैन, कई स्मृतियाँ कच्चे माल की तरह बिखरी हुई हैं.
मेरे लिये लिखना हमेशा खुद से खुद की यात्रा ही रही. तमाम एशो-आराम की चीज़े जुटने के बाद भी जीवन सिगरेट का जला हुआ वह हिस्सा है, जो अब गिरा तब गिरा की अनिश्चित स्थिति में है फिलहाल. एक मनुष्य होने के नाते मेरी नियती भी उन पुरानी धारणाओं के पाठ्यक्रम को लगातार दोहराते जाना है और जीवन के हर पड़ाव में इन्ही के दरकने, टूटने से बचाने में ही जीवन की अधिकाँश ऊर्जा नष्ट हो जाती हैं. ऐसे वक़्त में कविता की रोशनी ही ऐसी है जो हमारे दायें कंधे से आकर हमारी आँखों में प्रतिध्वनित होती है और हमें इस रोशनी की महत्वता पर नज़र रखनी होगी. तब मुझे हमेशा विज्ञान में पढे ब्राउनियन गति (उस स्थिति को कहते हैं जब गैस या तरलता में तैरते निलंबित अणु या परमाणु बमबारी करते हैं और उनसे द्रव्य में गति उत्पन्न होती है ) की याद रहती है और मैं अक्सर उनकी तुलना समाज से करती हूँ जिसमे जीवन के उतार-चढ़ाव से ही मेरे लेखन को गति मिलती हैं.
कविता में डूबने के बाद कवि, कविता को इतनी करीब से महसूस करता है कि शरीर की त्वचा की तरह ही कविता को भी सर्दी-गर्मी लगनी शुरू हो जाती हैं. कविता के गुरुत्वाकर्षण के अधीन होकर हम अगर छपवाने, प्रशंसा बटोरने की जद्दो -जहद में मशगूल हैं तो यह कविता में ही हमारी हार है.क्योंकि कविता स्वयं एक मुकम्मल साधना है जिसे साधने के साथ- साथ हमारे भीतर का हरेक कोने को सफ़ेद चादर हो जाना चाहिये जिसमे हमारी आत्मा का एक छोटा धब्बा भी उजागर हो सके.
००
विपिन चौधरी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/2.html?m=1
लिखना, अपने भीतर की ज़मीन पर बीज छिड़कने जैसा है
विपिन चौधरी
विपिन चौधरी |
दुनियादारी के तमाम काम, जिस तयशुदा नियम-कायदे की गांठ बाँध कर और समय-सारिणी निर्धारित कर सोच-विचार के साथ नत्थी करके अंजाम दिए जाते हैं, लिखना उस श्रेणी में तो कदापि नहीं आता. शुद्ध साहित्यिक लेखन, आपके मन के मानचित्र की प्रतिलिपि है.
रचनाकार के परिपक्व होने के साथ-साथ भीतर का 'स्पेस' अधिक विस्तृत होता जाता है जिसके दायरे-भीतर उसका देखा-भोगा संसार पनाह लेता है. जीवन की ढ़ेरों अनुभूतियाँ कोरे कागज़ पर अपनी गति को प्राप्त होती हैं. मुझे लगता है कोई लेखक सोच समझ कर लेखन शुरू नहीं करता, भीतरी दबाव ही रचनाकार का परिचय, कागज़ -कलम-दवात से करवाता है और जैसे आसमान में वायुमण्डलीय दबाव के चलते, बादल धरती पर बरसने के लिए इकट्टे हो जाते हैं ठीक उसी तरह मन के भीतर की चीज़े बवण्डर की तरह चक्कर लगाती रहती हैं फिर एक दिन मौका पा कागज़ पर बरस जाती हैं. .
स्कूली दिनों में स्लेबस की किताबों में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन दूसरी किताबों के प्रति आकर्षण जुनून की हद तक था. कॉलेज के समय में स्लेबस की किताबों के लिए भी थोड़ा प्रेम जगा. उस समय जब मैं प्राणी विज्ञान की छात्रा थी तब शल्य-चिकित्सा के प्रति मेरी अत्यधिक दिलचस्पी हुआ करती थी, उन दिनों दूरदर्शन पर देर रात सर्जरी पर आधारित एक कार्यक्रम आया करता था, आँखों में नींद उतरने के बावजूद उस कार्यक्रम की सभी क़िस्त देखना और सपनों में एक शल्य चिकित्सक के रूप में खुद को देखने का एक लंबा सिलसिला चला फिर कॉलेज के दिनों में सिविल सर्विस का प्रोफेशन दिलचस्पी जगाने लगा
लेकिन जब एक बार कलम से दोस्ती हुयी तो लगा कि एक फुल टाइम लेखक का जीवन मेरे लिए मुफ़ीद है. मेरी माँ लगातार अपनी यूनिवर्सिटी से साहित्यिक किताबें लाती और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' तो हमेशा से ही घर आता था जिसने साहित्यिक अभिरुचि विकसित करने में खूब मदद की. उस समय पता नहीं चलता था कि किताबों का चयन कैसे किया जाए बस किताबें पढ़ने की ललक ही जो हमेशा साथ चलती और दिलचस्प बात यह है कि इसी क्रम में हस्तरेखा विज्ञान, तंत्र-मंत्र-यंत्र से लेकर, घरेलू देशी नुस्खें सब पढ़ डाले। मुझे याद है एक बार मौसी के सुसराल में एक अलमारी में कई धूल भरी किताबें मिली थी जिसमें खेती-बाड़ी के रख-रखाव से जुडी सलाहें थी तब वह सब भी बड़े इत्मीनान से पढ़ा और उन सबको पढ़ने में भी अलग ही सुख पाया. तब क्या पता था कभी अपनी पसंद का एक शब्द भी लिख पाऊँगी और उसमें शामिल होगा मेरे मर्म का हिस्सा भी.
एक संवेदनशील इंसान, लेखन के जरिये अपने भीतर का कायाकल्प भी करता जाता है. यदि लेखक सजग है तो उसे अपना यह रूपांतरण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा। मुझे याद है बचपन से होश आने तक मेरे भीतर कई तरह की बेचैनियां, कई संशय मुझे बेतरह परेशान करते रहते थे, पर उस समय उनको परिभाषित करना और उन्हें परे धकेलने के जुगत से परिचय नहीं था. दुनिया का अजीबो-गरीब व्यवहार, जीवन के अनेक ढके-छुपे रहस्य और अपने आस-पड़ोस की स्त्रियों के संघर्षमयी जीवन हमेशा ही मुझे आकर्षित करते रहे. शायद इन सबने भीतर एक ऐसी दुनिया बना ली थी जिसकी मंज़िल कोरा कागज़ ही थी. न जाने कितने ही किरदारों ने मन के भीतर पनाह ली और यह भी सच है कि भीतर किरदारों की यह भीड़ आज भी छटने का नाम नहीं ले रही.
लेखन कभी खत्म न होने वाली बेचैनी का नाम है.
घर में आध्यात्मिक वातावरण होने का प्रभाव इतना था कि लेखन भी उससे अछूता नहीं रहा हमेशा यही लगा कि एक समृद्ध जीवन जीने के लिए अपने मन भीतर की सफाई जरूरी है, जितनी भी नकारात्मक ऊर्जा है उसे खत्म करने की कोशिश करने के उपक्रम और संसार से जुडी अनुभूतियाँ एक साथ कविता में आयी। उसके बाद अपनी पसंद के कवि, लेखकों, कलाकारों से पत्र-व्यवहार ने भी लेखकीय समृद्धता में इज़ाफ़ा किया। कविता जहाँ अनायास प्रकट होती और स्वभाव के अनुकूल बैठती मगर कहानी लिखने में जिस तरह के धैर्य की जरुरत होती है उस धैर्य को अपने भीतर समेटने में काफी समय लगा . मैंने हरियाणा की जिस जाट समुदाय में जन्म लिया उसमें पितृसत्ता की पैठ काफी गहरी होते हुए भी कई स्त्रियों ने अपने जीवन को इस तरह ढाल लिया जो मेरी कहानियों का प्रेरणा स्रोत बना, इन जुझारू महिलाओं के जीवन को करीब से देखने और महसूस करने से जिस सकारात्मक ऊर्जा ने भीतर स्थान बनाया वही मेरे लेखन में सहायक बनी।
जीवन का एक बड़ा हिस्सा, स्मृतियों के नाम
प्रत्येक इंसान, ताउम्र अपने अतीत को ही ओढ़ता-बिछाता है, अतीत जितना पुराना होता जाता है उतना ही मूल्यवान भी. हम अपने भूतकाल के जीवन के अनुभवों से उपजे सबक अपने आगामी जीवन में खर्च करते हैं. हमारे भारतीय परिवेश में या यूँ कहिये विश्व भर में स्त्री का जीवन ही ऐसा होता है जिसे अपने जीवन को पलट कर देखने की अघोषित मनाही है. मगर वह चोर दरवाज़ों से कभी-कभार प्रवेश कर उनमें विचरण कर आती है क्योंकि उसे अब नया जीवन जीना है और पुराने जीवन की सड़ी-गली मान्यताओं को रौंद कर जीना है. मैं अपने जीवन का लेखा-जोखा करने बैठती हूँ तो पाती हूँ कि स्त्री के लिए निश्चित परिपाटी से अलग, मैं अतीत को अपने बगल में लिए चलती रही हूँ और लेखन के लिए खुद का ही इम्तिहान लेती हूँ
ज्यों-ज्यों मैं बड़ी हो रही थी, चेतना के स्तर पर कई चीज़ें पुख्ता हो रही थी, मन पर जो- जो छाप पड़ती वहीं संवेदना का जल भर जाता और शायद उसी जल ने मेरी आत्मा को आर्द रखा . जीवन खूबसूरत नहीं होता उसे खूबसूरत बनाया जाता है यह अपने जीवन को गढ़ते हुए ही जाना. मेरे छोटे मामा की 32 वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई तब लगा जीवन तो ताश का महल है जिसे ढहने में देर नहीं लगती। साक्षात् मौत से तभी सामना हुआ. महीनों मन बहुत व्यथित रहा, उन्हीं दिनों में से एक दिन टेलीविज़न पर मैंने एक लाश को जलते हुए देखा, मन पर काले बादल घुमड़ने लगे अचानक से उठी और चार पंक्तियाँ लिखी उसी दिन के बाद लिखना जैसे जीवन का एक अटूट हिस्सा हो गया.
हरियाणा के छोटे से शहर हिसार से दिल्ली इस शहर रिश्तों की नयी परिभाषा दिल्ली महानगर में देखने को मिली आज तक मैं जिस 'स्कूल ऑफ़ थॉट' से संबंध रखती आयी थी वह यहाँ पर अप्रासंगिक हो चुका था पर अपनी कुछ निजी मान्यताओं पर की हूँ. यही पर नई पीढ़ी के नए समीकरणों को देखा और लगा एक युग मेरे भीतर से खिसकता जा रहा है.
लगातार कई साल तक किताबों और बौद्धिक लोगों के साथ ने खुद को तैयार करने में काफी मदद की. मैंने जाना कि लेखन आपके व्यक्तित्व को संवारने में काफी मदद करता है मैंने बार बार अपने माँ के जीवन और अपने समाज की स्त्रियों को याद किया और अपने अनुभवों को कविता में उकेरा। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लेखन की खाद है स्मृतियाँ.
यादवेन्द्र |
ज़रा गौर करें तो हर घटना के पदचिन्ह हमारे मन पर जरूर पड़ते हैं, उसी तरह हम अपनी रचना में हम स्वयं का लघु अंश छोड़ते जाते हैं, हमारे जीवन का निचुड़ा
हुआ अतीत, हमारी रुचियों की लपटें, हमारे प्रेम की अनगिनत तहें, हमारी कुलबुलाती महत्वकाक्षाएं जिनसे हमारा अवचेतन मन का काफी बड़ा हिस्सा घिरा रहता हैं धीरे-धीरे ये चीजें इक्कठा होकर कविता में रंगीन मेला सजाया करती हैं.
मुझे हमेशा से लगता है कि कविता की गहन गुफा में बैठ कर हम खुद से गुफ्तगू करने की तमीज़ सीखते हैं. सारी दुनियादारी से फारिग हो कर जब हम कविता के पायताने बैठते हैं. तब कविता से उसी जीवन की बातें करते हैं जिसका पानी रिस-रिस कर हमारे मन के भीतर की बावडी में इकट्ठा होता आया हैं क्योंकि उसे कहीं बाहर का रास्ता नहीं मिल सका है . इसमे हमारी अनगिनत बेबसियाँ भी शामिल है जो सिर्फ कविता में अपनी जुबान खोलती है.
अपनी कल्पना शक्ति से हम अतीत के घटना क्रम, वर्तमान के संकल्प और भविष्य के मंसूबों पर पानी चढाते हैं. विडम्बना ही है कि हमारे जीवन में इतनी जटिलताये हैं की जीवन शक्ती उसी में खप जाती है.
क्लास रूम में विज्ञान की बारीकियों को समझने में मदद मिली और घर में माँ और उनकी सहेलियों के जीवन संघर्ष से जीवन तंतु का ताना-बाना समझा. माँ -पिता के बीच अलगाव, अपने प्रिय मामा का युवा अवस्था में देहांत, प्रिय लेखक का गुमशुदा हो जाना इन घटनाक्रमों ने मस्तिष्क भीतर के सीधे -सरल प्रवाह में अवरोध उत्पन्न कर दिया और फिर उसी अवरोध की धार को कुंद करने को शायद कविता अस्तित्व में आयी.
उसी चिर परिचत दुनिया से लड़ते हुए ही बड़ी हुयी. उसी प्रेम में लगातार गोता खाया जिसमे जरुरत से कहीं ज्यादा फिसलन थी. जीवन की यही मोटा मोटी व्याधियां रही जो पाँव में आज भी उलझी हुयी हैं.
इसी समाज से कविता के लिये कच्चा माल लेकर, अपने भीतर की भट्टी में उसे पका कर थोडे से चतुर-सुजान शब्दों में सजाना भर ही कविता नहीं है कविता इससे आगे की चीज़ हैं. कविता का प्रभाव ही इतना प्रबल है कि धीरे-धीरे कविता हमारे मस्तिष्क की महीन मासपेशियों की खुराक बनती जाती हैं. वह हमारे ध्यान के समय में उतरी हुई दुर्लभ चीज़ है, जिसे हमने दुनियादारी से छान कर अपने बगल में रख लिया है. हम दिन भर मक्कारी करते घूमें और फिर अपने भीतर को झाड- पोंछ कर कविता लिखने बैठ जाएँ यह संभव नहीं हो सकता क्योंकि अंततः कविता एक आईना है जिसमें हमें अपनी ही शक्ल देखनी है.
कविता से बाहर की जो दुनिया है वह आज भी एक तरह से अपरिचित ही है देश दुनिया की घटनाएँ, राजनीतिक दाव-पेंच आदि को खुली आँखों से देखने के बाद मन भीतर की तरफ ही मुड़ता है जहाँ कविता का रूप लेने के लिए बेचैन, कई स्मृतियाँ कच्चे माल की तरह बिखरी हुई हैं.
मेरे लिये लिखना हमेशा खुद से खुद की यात्रा ही रही. तमाम एशो-आराम की चीज़े जुटने के बाद भी जीवन सिगरेट का जला हुआ वह हिस्सा है, जो अब गिरा तब गिरा की अनिश्चित स्थिति में है फिलहाल. एक मनुष्य होने के नाते मेरी नियती भी उन पुरानी धारणाओं के पाठ्यक्रम को लगातार दोहराते जाना है और जीवन के हर पड़ाव में इन्ही के दरकने, टूटने से बचाने में ही जीवन की अधिकाँश ऊर्जा नष्ट हो जाती हैं. ऐसे वक़्त में कविता की रोशनी ही ऐसी है जो हमारे दायें कंधे से आकर हमारी आँखों में प्रतिध्वनित होती है और हमें इस रोशनी की महत्वता पर नज़र रखनी होगी. तब मुझे हमेशा विज्ञान में पढे ब्राउनियन गति (उस स्थिति को कहते हैं जब गैस या तरलता में तैरते निलंबित अणु या परमाणु बमबारी करते हैं और उनसे द्रव्य में गति उत्पन्न होती है ) की याद रहती है और मैं अक्सर उनकी तुलना समाज से करती हूँ जिसमे जीवन के उतार-चढ़ाव से ही मेरे लेखन को गति मिलती हैं.
कविता में डूबने के बाद कवि, कविता को इतनी करीब से महसूस करता है कि शरीर की त्वचा की तरह ही कविता को भी सर्दी-गर्मी लगनी शुरू हो जाती हैं. कविता के गुरुत्वाकर्षण के अधीन होकर हम अगर छपवाने, प्रशंसा बटोरने की जद्दो -जहद में मशगूल हैं तो यह कविता में ही हमारी हार है.क्योंकि कविता स्वयं एक मुकम्मल साधना है जिसे साधने के साथ- साथ हमारे भीतर का हरेक कोने को सफ़ेद चादर हो जाना चाहिये जिसमे हमारी आत्मा का एक छोटा धब्बा भी उजागर हो सके.
००
विपिन चौधरी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/2.html?m=1
हम दिन भर मक्कारी करते घूमें और फिर अपने भीतर को झाड- पोंछ कर कविता लिखने बैठ जाएँ यह संभव नहीं हो सकता क्योंकि अंततः कविता एक आईना है जिसमें हमें अपनी ही शक्ल देखनी है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा विपिन जी आपने...इस टीप के बहाने अपने आपको को टटोलने और समझने का अवसर मिला।आपकी कविताएँ इस वक्तव्य का प्रतिबिंब हैं।
मेरी खींची फोटो का सत्या भाई ने बड़ा सटीक उपयोग किया है।
यादवेन्द्र
अच्छा लिखा है विपिन जी ने।कई मर्मस्पर्शी बातें हैं।
जवाब देंहटाएंA very well written piece. Bipin,You should go far.
जवाब देंहटाएंbahut khoob
जवाब देंहटाएं