16 अगस्त, 2018

डायरी


गाँवः कुछ दृश्य   

 कैलास बनवासी


कैलाश बनवासी 



बनिहारिनें

सुबह का समय है,नौ-साढ़े नौ के बीच।
वे काम पर जा रही हैं।नहर के पार पर चलती आ रही हैं।उन्हें इधर के खेतों में धान लूने जाना है।वे दूर से ही नजर आ रही हैं।एकदम चटख हरी,पीली,गुलाबी,लाल,नीली साड़ियों में। अपने जीवन की सब स्याह-धूसर उदासियों को ये जैसे इन खिले रंगों से ही दूर खदेड़ देना चाहती हों।जैसे जीवन की उत्फुल्लता ही इन्हें प्रिय हो...।सुबह के घने कोहरे को चीरकर वे आ रही हैं,सूरज को साथ लिए हुए।

वे आपस में जोर-जोर से बतियाती आ रही हैं।हँसतीं-खिलखिलाती आ रही हैं।निर्द्वंद्व!जिन्हें टपोरी भाषा में कहें तो एकदम बिंदास!सुबह का ताजापन उनके खिले चेहरों में भी देखा जा सकता है,भरपूर।उनकी हँसी की खनक इधर के सूनेपन में दूर तक सुनी जा सकती है,फूलकांस के बर्तनों-सी गूँजती हुई।ये अपने काम भी ऐसे ही करती हैं,हँसती-खिलखिलातीं।घर-परिवार की तमाम चिंता-परेशानियों के बावजूद इनके पास जैसे इसका कोई खजाना है,जो कभी खत्म नहीं होता।ये छŸासगढ़ की सुगढ़ कमैलिन हैं,और अपने ऐसे होने को लेकर इनके मन में कोई विशेष भाव नहीं हैं।ये मानो जन्म-जात ऐसी ही हैं।इस समय ये बिल्कुल स्वतंत्र हैं,बात-बात में हँसी फव्वारे की तरह फूट पड़ती है।पर शायद घर के भीतर घुसते ही जैसे कोई संदेही अदृश्य शक्ति इनकी खिलखिलाहटों पर साँकल चढ़ा देती है। वे घर के भीतर ऐसी नहीं होतीं,कोई और ही हो जाती हैं,हमारे बनाए नेम-धरम मानने वालीं।

नहर के पास हवा में नहर के पानी की गंध है,कुछ हरे तरबूज की खुशबू-सी लिए हुए।नहर का पानी गंदला नहीं है,साफ है।नहर के दोनों ओर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर वृक्षों की एक श्रृंखला चली गई है।ज्यादातर पेड़ कउहा के,चिकने सफेद छाल वाले।नहर के गहरे साँवले जल में पार के पेड़ों की छाया काँप रही है,और उससे आगे के जल पर सूरज की आभा झिलमिला रही है-पारे की तरह चमकती हुई।

 पहले नहर के पानी में उनके रंग-बिरंगे साड़ियों की परछाईं दिखाई देती है,इसके बाद वे सचमुच।
इनमें से कोई लड़की कहती है,‘‘वा,केंवरा दीदी ल तो बढ़िया-बढ़िया ‘सायरी आथे।’’
केंवरा झट-से प्रतिवाद करती है,‘‘अइ टार दइ।नइ आवय हमला।हम काहीं पढ़े-लिखे हाबन?तोला आत होही।तुमन आज के टुरी हरो।रंग-रंग के गोठ-बात जानथो।एक से एक सलीमा के गाना।ले न, गा ना दशोदा...काए कजरारे-कजरारे’ कहिके गाथस तेला...।’’
उसकी बात पर फिर सब हँस पड़ती हैं।
कोई कहती है,‘‘इही करा अगोर लो फूलेसरी मन ल...आतेच होही...तहं ले संगे-संग जाबो।’’
वे नहर पर बने पुल पर आकर अपने साथियों का इंतजार कर रही हैं।उनके हाथों में हँसिया है,धान के बोझे बाँधनेके लिए पैरे की बनी डोरी है,सिर पर रखे टुकने में में स्टील के खाने के डिब्बे हैं।कुछ के डिब्बे पोटली की तरह कपड़े से बँधे हैं,वहीं कोल्ड ड्रिंक के प्लास्टिक बोतलों में पानी है।वे सब युवा नहीं हैं। इनमें सभी आयु की औरतें है,किशोर,युवती,अधेड़ और कुछ बूढ़ीं...लेकिन हँसने-खिलखिलाने का जिम्मा मानो किशोरियों और युवतियों का है।उनका घर से यों एक साथ बाहर होना उनके आजाद होने की इच्छा की तरह दिखता है।और दिखता है सूरज के जैसा दमकता  आत्मविश्वास।

  एक दूर देखती हुई बताती है,‘‘वो दे,भैरी आवथे।’’
 ‘‘ कहाँ हे?’’ किसी ने पूछा।
  ‘‘अरे वो दे अँधरी...वो दे।’’

 पूछने वाली कोई अधेड़ है,‘‘अइ कहाँ हे, मोला तो नई दिखऽथे।’’
तो कोई उसे प्यार से झिड़क देती है,‘‘अइ निच्चट अँधरी हस का?..वो दे...वो पीला रंग के लुगरा पहिने हे तेने ताय...दिखिस?’’
‘‘नइ दिखथे मोर आँखीं म। कोन जनी काय टोनहा दे हे रोगहा हा।’’
सब हँसती हैं।किसी लड़की ने फिर छेड़ा है अधेड़ को,‘‘तोला चश्मा लगही वो काकी। चश्मा। तब बने बग्ग ले दिखही तोला। इस्कूल के मेडम असन दिन भर पहिरे रहिबे।’’
वे सब आपस में एक-दूसरे को प्यार से अँधी,बहरी,कानी, कांदी,पगली या लेड़गी आदि कहती रहती हैं,कोई बुरा नहीं मानता।इनमें एक सहज अपनापा है एक गाँव के होने का...जैसे एक घर-परिवार के हों। ये गाँव की महिलाएँ हैं जो इस समय किसी के खेत में काम करने जाते हुए ‘बनिहारिन’ हैं।ये लुवाई को जा रही हैं-ठेके पर। इस समय अक्सर गाँव का कोई पुरूष भी इनके साथ होता है,मेट या सुपवाइजर नुमा,जो इनका सहज साथी होता है।सहकर्मी।इसके साथ ये खुलकर हँसी-मजाक कर सकती हैं और मौका आए तो दो बात सुना भी सकती हैं।
जैसे अभी,इनके साथ जो गहरे काले रंग का लड़का है,बोलता है‘‘अरे वाह,रेखा डारलिंग भी आ रही है आज तो!’’ उसके कहते ही सब बेतहाशा खिलखिला पड़ी है,क्योंकि यह बात उसने उन आती महिलाओं में से  किसी बुढ़िया के लिए कहा है।

आगे धान के सुनहले खेत हैं,और दूर तक यही रंग है-पकी बालियों का सुनहला रंग।दिसम्बर के साफ,खूब नीले आसमान के नीचे दिन चढ़ते जाने के साथ चमकते हुए।वे उधर ही जा रही हैं,पैरों में प्लास्टिक की सस्ती चप्पलें पहनें। वे बस अभी कुछ देर में खेत पहुँचेंगी,अपनी चप्पलें मेड़ पर छोड़ धान लूने उतरेंगी,सिर पर गमछा या कोई कपड़ा बाँधकर। अपना हँसया चलाना शुरू करने से पहले वे धान की बालियों को झुककर प्रणाम करेंगी-‘जै हो अन्न माता!’’

 ‘‘अइसने हमर भंडार सदा दिन भरे-पूरे रहय माता!’’ बरबस किसी के मुँह से फूट पड़ेगा।
अब धारदार हँसिया पौधों को काट रहे हैं-छक्छक छक्छक छक्छक....।
काम के साथ-साथ इनकी आपस की बात चलते रहेगी और बीच-बीच में इनके हँसी-मजाक भी चलता रहेगा,जो शरीर  को थकने नहीं देता।ये अभी घर का सारा काम निपटाकर आई हैं।ढेर सारा काम!अलस्सुबह गइया-कोठा सहित पूरा घर झाड़ना-बुहारना,घर-आँगन-चूल्हा गोबर से लीपना, कुएँ अथवा बोरिंग से पानी भरना,बर्तन मांजना,चूल्हा जलाकर सबेरे की चाय-रोटी बनाना,बचचों को स्कूल भेजना, दोपहर के लिए दार-भात-साग बनाकर रखना,और इसी के बीच काम पे जाने के लिए नहा-धोकर खुद को तैयार करना...जाने कितने सारे काम!और यही नहीं, इधर से लौटते बखत ये खेतों से सूखी लकड़ियाँ,झीटी-झाटी बटोर लेती हैं घर के चूल्हे की खातिर,और इसका बोझा अपने सिर पर लिए ऐसे आराम से गोठियाते-बतियाते चलती हैं मानो सर में कोई बोझा हो ही नहीं! अभी घर जाके ये फिर चूल्हे में राँधने-पकाने में जुट जाएंगी।सबको खिलाने के बाद आखिरी में ये खाएँगीं। इसके बाद थककर सो जाना है।गहरी नींद।

धान-मिंजाई के दिन होने के कारण पूरे गाँव में-क्या खेत-खलिहान, क्या घर-आँगन और क्या चौक-बाजार,सभी जगह दिन-भर धान-भूसे की गर्द छायी रहती है,और सब जगह इसी की गंध-कुछ चुभती-सी, अजीब खसखसी गंध।इन दिनों गाँव के लोग इसी गर्दीली हवा में सांस लेते हैं।बल्कि इसकी आदत हो जाती है और इससे इनको कोई परेशानी नहीं होती।क्योंकि ये अन्न की गंध है। लक्ष्मी की!
 इन दिनों जो दृश्य सबसे आम है,वह है बैलगाड़ी या ट्रेक्टर-ट्राली में भर कटे धान के गट्ठर लाना,या बियारा में धान मिंजाई। कहीं ट्रेक्टर से मिंजाई हो रही है तो नौजवान ड्राइवर भड़-भड़ फुल स्पीड में जोश से गाड़ी चला रहा है।मशीन की ताकत का जोर!इसके उलट वहाँ देखो जहाँ धान की मिंजाई बैलगाड़ी से हो रही है। बैल धान मींजने में लगे हैं और घर के छोटे बच्चे बैलगाड़ी में बैठे हुए घूमने का मजा ले रहे है,ं जिन्हें बीच-बीच में गाड़ीवान जो उनका पिता या दादा है,बीड़ी पीते हुए जोर से बरज देता है-‘‘सीधा बइठे रहो ब्बे!जादा मस्ती झन मारो नहीं त दूहूँ साले दू थपरा!’’
पर बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता ।वे अपने खेल में लगे रहते हैं ऐसे ही।







डोकरी दाई

 घर के सामने बड़ा-सा आँगन है,जो मिंजाई के दिनों में ‘बियारा’बन जाता है,इसके पीछे गइया कोठा है,जिसे पार करने के बाद दो खोली है-यही डोकरी दाई का घर है। दाई की दो बेटियाँ हैं,अपने-अपने ससुराल में।दूर के अलग-अलग गाँवों में। बड़ी बेटी के तीनों बच्चे-दो लड़के और एक लड़की-यहीं रहकर पढ़ रहे हैं।दाई की उम्र साठ से अधिक ह,पर हरदम काम में डटे रहती है। गजब की जीवट है डोकरी दाई!

अभी सुबह-सुबह वह में ‘बाहर’से आई है। बाहर’ का डिब्बा दीवाल में बने आले में धरकर वह आँगन के एक कोने में रखे बाल्टी के पानी से हाथ घो रही है-राख से हाथ मांजकर।घर के सामने गड़े खूँटे से बंधी गाय बोंबियाती है-बोंऽऽऽऽ!बोंओऽऽऽऽअं!

गाय का रम्भाना सुनकर उसका चार महीने का बछड़ा,जो पास ही  दूसरे खूँटे से बंधा है,चिल्लाता है-बोंऽऽऽ!
ठषर दाई अंगना में घुस आए पड़ोस के बछरू को हंकालने में लगी है-ये कइसे रोज रोज इहें खाए बर खुसर जाथे!भाग! भाग रे!
पड़ोस का बछरू भाग गया।

इधर उनकी सफेद गइया दाई को देखकर फिर बोंम्बियाती है-बोंऽऽऽअं!बोंऽऽऽ!
यानी मुझको खोल दो,बछड़े को दूध पिलाना है।

‘‘सुन डरेंव सुन डरेंव!’’ तोर चिल्लाए ले का फायदा? अभी पहटिया(चरवाहा) त आए नइहे! दाई गइया से कहती है मानो गइया सब सुन-समझ रही हो।

वह अब गाय कोठे से गाय-बैलों को बाहर लाकर खूँटे से बाँधने में लगी है।अभी वह एक भूरी गाय को आँगन में ला रही है,‘‘चल खोरी!(यानी जो एक पैर लंगड़ाके चलती हो) तोला ए डाहर बाँधहूँ!’’
एक चिजकबरा बैल वह ला रही है बाँधने। खूँटे से बाँधते हुए वह उससे बात कर रही है-देख-देख...बने सीण खड़े रह!मोर गोड़ ल खूँद देबे का?’’उसे बाँधने के बाद वह जिस गाय को ला रही है उसने रस्सी को जाने कैसे अपने पैर में फँसा लिया है।तो दाई उससे कहती है,‘‘अउ ते कइसे रस्सी ल चार चक्कर गोड़ में फँसो डारे हस
दाई का इनसे संवाद उनको दाना-भूसा देने तक यों ही चलता रहता है।

इधर पूरबी कोने के मुनगे पेड़ पर चिड़ियों की चिंव-चिंव है।एक कुत्ता आँगन में रखे पुआल के ढेर पर एक किनारे सो रहा है,एकदम निश्चिंत!सुबह की गुनगुनी धूप मजे से सेंकता हुआ।उसके भूरे रोंएं सुबह की कोमल सुनहली धूप में चमक रहे हैं। 
पहटिया यानी चरवाहा आ गया।अधेड़ उम्र का सांवला आदमी।आँखें छोटी और धँसी-धँसी-सी।बाल लम्बे और घुँघराले।वह अपनी सूती कमीज पर जाने कब का पुराना मटमैला स्वेटर डाले है।
‘‘पहटिया,’’ दाई वहीं बैठकर उसे जानवरों की तकलीफ बताती है,‘‘जाड़(ठंड) के मारे गरूवा मन पानी नइ पीयत हे।’’

टपने काम में लगा पहटिया दाई को झिड़क देता है-अतेक जाड़ में कहाँ ले पीही? तेंहा पीथस का बतेक बिहनिया ले पानी?’’फिर उसे आश्वस्त करता है,‘‘मंझनियाकुन(दोपहर में)पी ही। ते फोकट चिंता झन करे कर!’’
दाई कहती है,‘‘ए रोगहा जाड़ कब भागही? संकराइत(मकर संक्रांति) के बाद भागही कहूँ!पहटिया,कतेक दिन बाँचे हे संकराइत हा?’’
पहटिया अपनी उंगलियों में गिनकर बताता है-‘‘अभी हफ्ता भर हे दाई।’’
पहटिया अब गाय को दूहने के लिए खूँटे से खोल रहा है,बहुत फूर्ति से।
दाई पहटिया से उस बछड़े की शिकायत करती है जो रोज यहाँ घुस जाता है और आँगन में रखा पानी पी जाता है।

पहटिया अब दाई से मजाक करता है-‘‘तुंहर इहां के पानी में तुमन सक्कर मिलात होहू...ओला मीठ लागत होही इहां के पानी!ते पायके आत होही!’’
दाई उसके मजाक पर हँस पड़ती है-तहूँ अच्छा बताथस गा पहटिया! कांही आय,हम पानी म सक्कर मिलाबो? इहां चाय बर त सक्कर नइये अउ ते हा गोठ गोठियाथस!’’
दाई गाय-गरू का गोबर अपने झउहां(टोकरी) में उठाती है।  गोबर में धान का भूसा मिलाके सान रही है। इसका वह छेना(उपले) बनाएगी।
जब गाय भीतर दुहा गई,गाय के पीछे-पीछे थन में मुँह लगाए उसका बछड़ा भी आ गया है...बछड़े के मुँह में दूध का झाग है।








 ठंड का मुकाबला 

नए साल का शोर यहाँ सिर्फ मीडिया -यानी टीवी यानी दूरदर्शन और समाचार-पत्र-तक ही सीमित है।वही रह-रहकर हमें बताता है कि ये नया साल है या नई सदी है।और जैसा शोर टीवी में नजर आता है,वैसा कुछ नहीं है गाँवों में।हद से हद स्कूली लड़कों में इसका उत्साह देखा जा सकता है,जो वे इकतीस दिसम्बर की रात को सड़क पर जहाँ-तहाँ चूने से बड़े-बड़े अक्षरों में‘हैप्पी न्यू इयर’के साथ‘चाँदनी चाँद से होती है सितारों से नहीं,प्यार एक से होता है हजारों से नही! या किसी लड़की का नाम लिखके ‘आइ लव यू!’लिख मारते हैं।बाकी लोग अपने काम में जैसे कल लगे थे वैसे ही आज लगे रहेंगे।नया साल या नई सदी इनके लिए किसी काम का नहीं। हाँ,उनके काम का हो जिनके पास करने को कोई और काम न हो,और खाने-पीने का लम्बा इंतजाम हो,जिन्हें बढ़ती महंगाई से कुछ लेना-देना न हो।वही नये साल की खुशी में नाच-गा सकते हैं और पार्टी मना सकते हैं।इन अपढ़ देहातियों को इस उत्सव से क्या लेना-देना,जबकि ये ठीक से इसे जानते भी नहीं।

इधर सर्दी कड़ाके की पड़ रही है। आज कुछ कम है।पिछला पूरा सप्ताह ठंड से ठिठुरता बीता है।सूरज का लाल गोला साढ़े छह बजे के आस-पास क्षितिज से ऊपर उठता नजर आता है।सुबह की बहुत हल्की धूप लालिमा के साथ सड़क पर उतरती है।तब सड़क के किनारे लोग भुर्री यानी अलाव जलाकर तापते बैठे रहते हैं।ये ज्यादातर सूखा पैरा यानी पुआल जलाकर आग तापते हैं। आग के चारों ओर लोग बैठे होते है,बच्चे,बूढ़े जवान।वे देर तक आग तापते बैठे बतियाते रहते हैं,हँसी-मजाक करते हैं।जबकि घर की औरतें अपने काम में जुटी रहकर ही ठंड से मुकाबला कर लेती हैं। उनका कहना है जितना डरोगे,ये जाड़ उतना ही डराएगा।

पर आरतीराम गुरूजी की पत्नी तो गजब की हिम्मती है! वह रोज सबेरे साढ़े पाँच के आस-पास नहाने नहर जाती है। नियमपूर्वक।बिला नागा।जबकि इतनी सुबह तो नहर का पानी जैसे बर्फ ही होता है-भीषण ठंडा!कि एक उंगली भी डुबाओ तो पूरा शरीर इस ठंड से सिहर उठता है।लेकिन गुरूजी की पत्नी को यह ठंड भी नहीं रोक पाती।वह अलस्सुबह घने कोहरे और ठिठुरती सर्दी में भी नहर के ऐसे मानसरोवरी ठंडे पानी में नहाने आती है!वह नहाने में ही नहीं, काम में भी बहुत हिम्मती है। अभी कुछ महीने पहले जब उनका नया मकान बन रहा था,वह एक रेजा के समान काम में डटी ही रहती थी।इतना कि गाँव की बहुत मेहनती स्त्रियाँ भी उसको मान गई!

अभी फसल कटाई के बाद किसानों को कोई खास काम नहीं है। तो वे खेत के मेड़ के पेड़ों से सूखी लकड़ियां काटकर घर ला रहे है-आने वाली गरमी और बरसात के लिए ईंधन का पूर्व-इंतजाम। 


कैलाश बनवासी
41,मुखर्जी नगर,सिकोला भाठा,
दुर्ग(छ.ग.) मो. 98279 93920



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