16 अगस्त, 2018

मैं क्यों लिखता हूं

संजय कुंदन

मैं क्यों लिखता हूं? यह सवाल मुझे असमंजस में डाल देता है। इसका कोई सीधा जवाब देना मुश्किल है। यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कि मैं सांस क्यों लेता हूं? खाता-पीता क्यों हूं? असल में बहुत सी चीजें व्यक्ति को बीज रूप में उसके रक्त में ही मिलती हैं, फिर बाहर के माहौल से उसे खाद-पानी मिल जाता है। लिखना मेरे स्वभाव में शामिल है। यह शुरू से ही मेरे जीवन का अभिन्न अंग रहा है  जैसे मैं मझोले कद का हूं, मेरा रंग गेहुआं है। दूर की नजर कमजोर है। मीठा ज्यादा पसंद है। कम बोलता हूं। अपने-आप में रहना ज्यादा पसंद करता हूं। ऐसे ही साहित्य भी लिखता हूं। खुश होता हूं तो लिखता हूं, नाराज होता हूं तो लिखता हूं। घृणा करता हूं तो लिखता हूं ,प्रेम करता हूं तो लिखता हूं। कोई सवाल करना होता है तो लिखता हूं। लिखकर संतोष मिलता है। सच कहूं तो मुझे साहित्य लिखने की आदत हो गई है। न लिखूं तो बेचैन हो जाता हूं। कुछ खो गया सा लगता है।

संजय कुंदन


हमारी आदतें बचपन में ही विकसित होती हैं। मेरा जन्म पटना में हुआ। पिताजी मैथिली रंगमंच से जुड़े थे और उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। लेकिन इन सबसे ज्यादा वे एक जबर्दस्त पाठक थे। उस समय पटना सचिवालय की एक समृद्ध लाइब्रेरी थी, जिसका उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया। इसलिए मैंने किताबों के बीच ही आंखें खोलीं। घर में सारिका, धर्मयुग, कहानीकार जैसी पत्रिकाएं आती थीं। हिंदी की नई-पुरानी ढेरों किताबें घर में थीं। बाहर घूमने के नाम पर मुझे पिताजी साहित्यिक गोष्ठियों, संगीत समारोहों या नाटकों की रिहर्सल और प्रदर्शन में ले जाया करते थे। ऐसे माहौल में दो बातें मुमकिन थीं। या तो मैं साहित्य से एकदम दूर भागता या फिर उसमें आकंठ डूब जाता। मेरे साथ दूसरी स्थिति हुई। पांचवीं क्लास में पहुंचते-पहंचते मेरा लेखन शुरू हो गया जो किसी एक विधा तक सीमित नहीं था। उस समय नाटक से ज्यादा जुड़ाव था इसलिए नाटक लिखने की कोशिश करता था। पिताजी के मुंह से जो सुनता, उसे एक या दो पेज में दृश्यों में ढालता। उन्हीं दिनों हमारे शहर में सरकार के सौंग्स ऐंड ड्रामा डिवीजन का एक अद‌्भुत प्रदर्शन देखा-‘बढ़ते कदम’। यह दरअसल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर आधारित नाटक था, जिसका एक स्टेडियम में प्रदर्शन किया गया था। इसका मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा। अगले ही दिन मैंने इतिहास की पाठ्यपुस्तक के स्वतंत्रता संग्राम वाले अध्याय का नाट्य रूपांतरण कर डाला और अपने मोहल्ले के बच्चों के साथ उसके मंचन में जुट गया। यही हमारा खेल बन गया। रोज हम उसे दोहराते। यह सिलसिला काफी दिनों तक चला। फिर उसी दौरान एक कविता लिखी। मेरे एक रिश्तेदार के जरिए वह शहर के सबसे लोकप्रिय अखबार ‘आर्यावर्त’ में छपी। शीर्षक था-बादल। पर प्रूफ रीडर की मेहरबानी से उसका शीर्षक छपा-बाल। लेकिन उसके बाद बहुत दिनों तक मेरी कविताएं नहीं छपीं क्योंकि मेरी कविताएं न तो बच्चों के लायक होती थीं न बड़ों के लायक। बाल पत्रिकाएं यह कहकर उन्हें लौटा देती थीं कि ये बच्चों के स्तर की नहीं हैं, बड़ों की पत्रिकाएं उन्हें कच्चा समझकर लौटा देती थीं। बहुत से लोग आज मुझसे पूछते हैं कि एक लंबी अवधि तक कविताएं लिखने के बाद मैं अचानक कहानियां कैसे लिखने लगा। यह सही नहीं है। मैं तो शुरू से कहानियां भी लिखता रहा हूं। लेकिन शुरू के दौर में जहां कविताएं अधपकीं रह जाती थीं, वहीं कहानियां अधूरी रह जाती थीं। कहानी शुरू तो कर देता था, लेकिन खत्म नहीं कर पाता था। मेरी कितनी ही कहानियां अधूरी पड़ी हैं। यही हाल नाटकों का हुआ। मैंने कई नाटक लिखे, जिनमें से कुछेक का मंचन भी हुआ, लेकिन उन्हें निर्देशकों ने स्वीकार नहीं किया।  मैंने लघुकथाएं भी लिखीं, जो कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और मेरा आत्मविश्वास बढ़ा।

कॉलेज में पहुंचने के बाद मेरे लेखन को एक नया आयाम मिला। अब मुझे स्वतंत्रता मिली और एक अपेक्षाकृत बड़ी दुनिया में प्रवेश मिला। उस समय मेरा कॉलेज तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था। उस दौर में शहर में हिंदी के जाने-माने कवि और कविता के आलोचक सक्रिय थे। हिंदी के दो महत्वपूर्ण कवि अरुण कमल और आलोकधन्वा के अलावा हिंदी कविता के आलोचकों डॉ नंदकिशोर नवल, खगेंद्र ठाकुर और अपूर्वानंद से परिचय हुआ। इनके साथ रोज का उठना-बैठना शुरू हुआ। इनकी संगति में हिंदी की समकालीन कविता को नए सिरे से समझने और पढ़ने का अवसर मिला। मुझे पहली बार कविता के विस्तृत आकाश का पता चला और हिंदी कविता को लगभग पूरी तरह खंगाल लेने के बाद मुझे अपने लिए एक काव्यभाषा मिल गई। यही नहीं मुझे लिखने का एक उद्देश्य भी मिला और मेरा लेखन कर्म नए सिरे से परिभाषित-संगठित हुआ।

दरअसल उस समय पटना वामपंथी बुद्धिजीवियों की एक बड़ी कार्यस्थली था। उनके साथ रहते हुए मुझे अहसास हुआ कि लेखन सिर्फ लेखन के लिए नहीं हो सकता। इसका मकसद समाज में कुछ बेहतर मूल्यों की स्थापना और कमजोर वर्ग की आवाज को मजबूती देना है। लेकिन यह तो साहित्य की बाह्य जगत के लिए भूमिका हुई, लेकिन साहित्यकार सिर्फ यथार्थ की दुनिया में नहीं जीता। उसका एक मनोजगत भी होता है। इस आंतरिक संसार को भी साहित्य अपने तरीके से प्रभावित करता है। इसका पता मुझे दस-पंद्रह साल के लेखन के बाद चला, जब मैं छात्र जीवन पूरा कर दिल्ली में पत्रकारिता करने लगा,शादी हुई, एक बच्चे का पिता बना। इस बीच साहित्य का अध्ययन बढ़ा, साहित्य जगत में आवाजाही बढ़ी, पत्रकारिता की वजह से राजनीति को भी समझा-जाना। मुझे तब अचानक महसूस हुआ कि भले ही मैं समाज के लिए लिख रहा होऊं लेकिन सबसे पहले मेरा लेखन मेरे लिए बेहद जरूरी है, मेरे भीतर की दुनिया को बचाए रखने के लिए, मुझे सामान्य बनाए रखने के लिए। इस तरह लेखन जो खेल की तरह शुरू हुआ, फिर आदत में शामिल हुआ, बाद में सामाजिक सरोकार बना और आखिरकार मेरे लिए दवा की खुराक हो गया।

दरअसल मैं शिद्दत से महसूस करने लगा कि मैं एक मिसफिट आदमी हूं। मैं ऐसे शहर में रहता हूं जहां मैं नहीं रहना चाहता। मैं ज्यादातर ऐसे लोगों के बीच रहता हूं जिन्हें मैं पसंद नहीं करता। मैं जिस तरह की नौकरी करना चाहता था, वो मुझे मिली नहीं। और नौकरी में भी काम के अलावा मुझसे जो अपेक्षाएं की जाती हैं, वो मैं कर नहीं सकता। मैं जैसे जीवन और समाज की चाह रखता हूं, वो मेरे आसपास नहीं है। मेरे चारों ओर शोरगुल और प्रलाप से भरा एक कृत्रिम समाज है, जिसे मैं सख्त नापसंद करता हूं। यानी अकेलापन गहराता जा रहा है। ऐसे में लेखन मुझे जीवन के गहरे तनावों और दबावों से मुक्त होने का अवसर देता है। वह एक शैडो लाइफ है जहां मैं अपना गुस्सा, अपनी खीझ उतार सकता हूं। मैं ठठाकर हंस सकता हूं उन सब पर, जिन पर वास्तविक जीवन में नहीं हंस पाता, या खुद अपने आप पर। दरअसल यथार्थ जीवन से इतनी ज्यादा विरक्ति है कि मैं उसमेँ उपस्थित होकर भी हमेशा लेखन के एक प्रतिसंसार में जीना चाहता हूं।

मेरे भीतर धीरे-धीरे बहुत ज्यादा नफरत जमा होती गई, बहुत ज्यादा गुस्सा भरता गया। उन सबको लेखन में ही उतारता रहता हूं। अगर ऐसा न करूं तो मेरे भीतर की घृणा मुझे नष्ट कर डालेगी। इसलिए मैं हमेशा रचनारत रहना चाहता हूं। ईमानदार और सहज लोगों के प्रति मेरे मन में गहरा लगाव है। मैं वैसे चरित्रों की रचना कर, उनके संघर्ष की कथा कहकर एक संतोष पाता हूं। दरअसल इस तरह मैं अपनी जिंदगी को ही फिर से रचता हूं। यह पुनर्रचना मुझे एक संतोष देती है। यह बात कोई मनोवैज्ञानिक बेहतर बता सकता है कि हम अपनी जिंदगी को फिर से रच कर इतना सुकून क्यों महसूस करते हैं। दरअसल अपने यथार्थ को फिर से रचकर मैं उन शक्तियों (और प्रवृत्तियों) के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करता हूं जिनसे मेरा विरोध है। और मैं नकली किस्म का प्रतिरोध नहीं खड़ा करता। मैं जो जीवन में हूं वही रचनाओं में भी हूं। मैं जीवन में जितना लड़ता, खुश होता और पस्त होता हूं उतना ही अपनी रचनाओं में भी। मेरे जो सपने वहां हैं वही यहां भी हैं। कुछ भी अलग नहीं है। हां, जब चीजें फिर से कही जाएंगी तो उसका रूप तो बदल ही जाएगा। आखिर डायरी और कहानी में कोई तो अंतर रहेगा ही। कहानी में भाषा और कल्पना का खेल तो होगा ही।

दिल्ली आने के बाद कहानी लिखने का बंद सिलसिला फिर शुरू हो गया। इसका कारण यह था कि अब मेरे पास यथार्थ का एक नया चेहरा सामने था। नई जिंदगी के नए ब्यौरे थे, जिनका कविता में अंट सकना कठिन था, या फिर मेरी काव्य क्षमता की सीमा थी। मेरे सामने कई नए चरित्र थे, जिन्हें कहानी में रचना आसान था। एक और दिलचस्प अहसास हुआ कि कविता जहां समाज को लेकर मेरी टिप्पणी और विचार को व्यक्त कर रही है वहीं कहानी मेरे वास्तविक जीवन संघर्ष को सामने ला रही है। यानी कहानी में मेरा तन मौजूद है जबकि कविता में मन। मेरी रचनाएं दूसरों के जीवन पर कितना असर डालेंगी या उस यथार्थ को कितना बदलेंगी, जिसे मैं नापसंद करता हूं, मुझे नहीं मालूम। पर यह यकीन है कि जब उन्होंने मेरे जीवन को इतना बदला है उस पर प्रभाव डाला है तो दूसरों पर डालती ही होंगी। हालांकि इसे लेकर मैं बहुत ज्यादा चिंतित नहीं होता। मेरे लिए यह प्रश्न भी गौण है कि साहित्य जगत मुझे किस रूप में लेता है और उसमें मेरी क्या स्थिति है? लेखन से मेरा संबंध कुछ-कुछ भक्तियुगीन कवियों जैसा है। जैसे कबीर करघे पर काम करते हुए कोई दोहा रचते रहे होंगे, उसी तरह मैं जीवन के जरूरी काम निपटाते हुए लेखन कर रहा होता हूं। प्रख्यात कवि इब्बार रब्बी की यह बात मुझे सही लगती है कि लेखन एक गुप्त कार्रवाई है। मैं चुपचाप सबकी नजरों से बचकर अपने इस काम में लगा रहता हूं। फिर मैं अंधेरे से अपनी रचना को प्रकाश में लाता हूं और उससे बहुत हद तक तटस्थ हो जाता हूं। रचना को मैं अपनी यात्रा खुद करने देता हूं।
……

2 टिप्‍पणियां:

  1. संजय कुंंदन का ईमानदार आत्मकथ्य।
    सादगीभरी पारदर्शी भाषा।
    रचना प्रक्रिया को समझने के लिए आवश्यक।

    हृदय सराहत बचन न आवा।

    -बजरंग बिहारी।

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  2. यकीनन बहुत सरस अंदाज में सहज स्वीकारोक्ति।इसमें कवि ने अपना ही साक्षात्कार किया है,जो कि एक प्रामाणिक लेखक बनने के लिए शर्त जैसा है।

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