23 सितंबर, 2018

निर्बंध आठ:

भाषाएँ अकारण चुप या मुखर नहीं होतीं   
यादवेन्द्र


यादवेन्द्र

पिछले हफ़्ते की बात है मैं हरियाणा के एक शहर में था - मौसम ख़तम होने के बाद जब फलों की मंडी में खूब बड़े बड़े आम दिखे तो मैंने पूछा कौन सा आम है - चौसा ,जवाब मिला। मुझे उत्तर भारत के आमों की प्रमुख प्रजातियों के बारे में इतना तो मालूम था कि दूकानदार सही नहीं बता रहा मुझे बहला रहा है।चार पाँच दूकानों पर घूमते हुए मैंने नाम पूछा - सब ने यही जवाब दिया जैसे उन्हें एक ही बात बोलने की हिदायत दी गयी हो। मेरी स्मृति में लगभग चार साल पहले की हरियाणा के ही एक शहर की घटना सजीव थी जब  दुकानदार ने इसी मौसम में ऐसे ही रंग रूप और आकार के आम को बड़े गर्व से पाकिस्तानी आम कह कर बेचा था। इस बार मेरे मन में उन आमों के पाकिस्तानी आम होने को लेकर कोई संशय नहीं था पर देश और प्रदेश की दिनों दिन बहुसंख्यक भीड़तंत्र के हवाले होती जा  रही राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों ने "पाकिस्तानी" संबोधन से परहेज करना सिखा दिया। हरियाणा में मेट्रो स्टेशनों के नए नामकरण जो कुछ ऊपर से दीखता है उससे ज्यादा बहुत कुछ बयान  कर देते हैं। राजस्थान में तमाम गाँवों के नाम दनादन बदले जा रहे हैं - उनके पीछे की मंशा और संदेश कोई अनपढ़ भी आसानी से समझ सकता है।   

अभी कुछ दिन ही बीते हैं किसी ने फ़ेसबुक पर लिखा कि संस्कृत भाषा में भारत के परिश्रमी समुदायों के काम से जुड़े शब्द बहुत कम मिलेंगे जबकि भिक्षाटन जैसे ब्राह्मणों की वृत्ति से जुड़े अनेक शब्द हैं - जाहिर है भाषा गढ़ने वालों का पक्ष बेहतर तरीके से प्रस्तुत हुआ और ज्ञानार्जन से दूर रखे गये समुदायों की उपस्थिति भाषा और साहित्य में बेहद कम दर्ज हुई।आज कल "दलित" शब्द को लेकर चल रहा विवाद सीधे सीधे सत्ता संतुलन से जुड़ा हुआ है। दूसरी तरफ़ शारीरिक व दिमागी अक्षमताओं से ग्रस्त लोगों को अधिकार संपन्न बनाने का दावा करने वाली सत्ता आज तक यह नहीं तय कर  पाई कि उनके लिए हिंदी में उपयुक्त शब्द क्या होगा - विकलांग और  दिव्यांग के बीच में भ्रमित हिंदी समाज को "डिफरेंटली एबल्ड" के लिए न उपयुक्त शब्द मिला न ही यह आज की हमारी चिंता में शामिल है। 


सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों के चलते शब्दों का स्वरूप कैसे बदलता है इसके उदाहरण हमारे आसपास दिखाई देते हैं - कश्मीर से विस्थापित हिन्दू पंडितों और तिब्बत से भाग कर भारत के विभिन्न प्रांतों में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों के बीच संवाद के लिए प्रयुक्त भाषा और शब्द वैसे नहीं रहेंगे जो पिछली पीढ़ी के समय थे। विशेष तौर पर तिब्बतियों को ही लें तो देहरादून में रहने वाले युवा हिमाचल के किन्नौर इलाके में रहने वाले तिब्बती युवाओं से सामान्य शब्दावली में कुछ संवाद कर भी लेते होंगे ,कर्नाटक में रह रहे तिब्बती युवाओं के साथ संवाद में उनकी मुश्किल जरूर बढ़ जाती होगी। यदि राजनैतिक मजबूरियों को छोड़ भी दें तो बिहार से निकल कर दूसरे प्रांतों में रोजगार के लिए जा बसे बिहारी युवाओं की शब्दावली वह बिलकुल नहीं रहती जो विस्थापन से पहले थी - इस  लेखक का पंजाब में जाकर बस गए बिहारी युवाओं के साथ पंजाब आने जाने वाली ट्रेनों की यात्रा के दौरान अच्छा ख़ासा संवाद रहा है और कुछ पंजाबी मित्रों के फ़ील्ड इनपुट भी इसकी पुष्टि करते हैं। तीस बत्तीस साल पहले की एक घटना याद आती है जब हम पणजी ,गोवा से रात की बस से पुणे जा रहे थे। आधी रात में अचानक शोर शराबे से नींद खुली तो बीच जंगल में कुछ युवकों को बस यात्रियों के साथ छीना झपटी करते देखा - ख़ास बात यह थी कि ऐसा करने वाले यात्रियों से और आपस में हिंदी बोल रहे थे। उनके उतर जाने के बाद मराठी और कोंकणी यात्रियों के बीच जो बातचीत हो रही थी उससे समझ आया कि वे हिंदी भाषा नहीं हिंदी समाज को गालियाँ दे रहे थे ,अपराधी जाति कह रहे थे। उस दिन मुझे भाषा का समाजशास्त्र वास्तविक अर्थों में समझ आया था और  बाद के दिनों में बार बार उससे सामना होता रहा। 

म्यांमार के रोहिंग्या आज की दुनिया में सबसे ज्यादा अवांछित समाज है जिसे म्यांमार ने अपने यहॉँ से खदेड़ दिया और कोई अन्य देश अपनाने को तैयार नहीं है -  बांग्लादेश की भूमि पर (चटगाँव के आसपास )दस लाख  से ज्यादा रोहिंग्या शरणार्थी बन कर रह रहे हैं और विभिन्न देशों के कार्यकर्त्ता उनके बीच सहायता का काम कर रहे हैं। अनेक समाजशास्त्री और भाषाशास्त्री रोहिंग्या संकट को भाषाओँ के सम्मिश्रण की एक प्रयोगशाला के रूप में परिभाषित करते हैं जहाँ विदेशी मूल के सहायताकर्मी बांग्ला भाषा की भूमि पर रह रहे रोहिंग्या और बर्मी भाषा बोलने वाली लगभग अनपढ़ आबादी के साथ रिश्ता जोड़ रही है। इन रिपोर्टों में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ स्त्रियों के स्वास्थ्य से जुड़े शब्दों को अलग अलग समाजों में एकदम अलग ढंग से बोलते की बात सामने आती है - ख़ास तौर पर "माहवारी" के लिए बांगला शब्द "मासिक" है पर रोहिंग्या में इसके लिए कोई स्पष्ट और पारदर्शी शब्द नहीं प्रयुक्त होता है - आम तौर पर इसके लिए "गोसल" या "गुसल" (गुसलखाना जिस से बना है) का प्रयोग किया जाता है जो परोक्ष रूप से एक रूपक की तरह बर्ताव करता है।इसी तरह गर्भनिरोधक उपायों के बारे में रोहिंग्या स्त्री "डीपू" के अलावा  कोई शब्द प्रयोग नहीं करती - डेपो प्रोवेरा नामक गर्भ निरोधक सुई के नाम पर। यहाँ तक कि चटगाँव निवासी सहायताकर्मी स्त्रियों को भी शुरू शुरू में इसको समझने में दिक्कत हुई।यह खबर पढ़ते हुए मुझे अपनी दादी याद आयीं जो रात के वक्त कभी किसी चर्चा में या किस्से कहानी में भूल के भी "साँप" शब्द का प्रयोग नहीं करती थीं ,उसको रस्सी या सुतली कहती थीं। दिन में साँप साँप होता था पर रात में रस्सी - यह भी भाषा का एक विशिष्ट समाजशास्त्र है। पचास साठ साल पहले फिलिस्तीनी शरणार्थियों के साथ भी यही मुश्किल पेश आई थी पर आसपास के अरब  देशों की सामान्य अरबी भाषा के चलते इस संकट की भयावहता इतनी प्रबल नहीं थी। 




शिक्षा के समाजशास्त्र पर प्रचुर काम करने वाले अधिकारी विद्वान प्रो कृष्ण कुमार जो एनसीआरटी के निदेशक भी रहे हैंने 21 सितंबर के "इंडियन एक्सप्रेस" में एक बेहद दिलचस्प लेख लिखा है : "व्हेन ए लैंग्वेजेज़ साइलेंस स्पीक्स" - इस लेख में उन्होंने लगभग बीस साल पहले के अपने तजुर्बों के हवाले से उन कारणों की पड़ताल की है जिनके चलते  ऐक्टिविस्ट और ऐक्टिविज्म जैसे सामाजिक विमर्श में बार बार आने वाले शब्दों के हिंदी समानार्थी शब्द नहीं ढूँढ़े या गढ़े गए। उनका कहना है कि तत्कालीन पत्रिकाओं और अख़बारों में उन्हे  सामाजिक कार्यकर्ता या समाजकर्मी लिखा गया था -कुछ मौकों पर उनके आंदोलन छेड़ने पर उन्हें आंदोलनकारी कहा गया। वे हमें 1930 के दांडी नमक सत्याग्रह तक यह कहते हुए ले जाते हैं कि यह सोशल एक्टिविज्म का एक ज्वलंत उदाहरण है पर उसके प्रणेता महात्मा गांधी को भी तब सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी ही कहा गयाऐक्टिविस्ट नहीं। इमर्जेंसी के बाद  भारत में  पहली बार ऐक्टिविस्ट शब्द हमारे विमर्श में प्रकट हुआ पर जल्दी ही सत्ता के साथ जुड़ कर सुविधाओं का लाभ उठाने वाले और जनता के बीच जा कर आंदोलन का रास्ता अख्तियार करने वाली  दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ अस्तित्व में आयीं - पहली को एनजीओ के नाम से जाना जाने लगा और दूसरे वैकल्पिक रास्ते पर चलने वालों को ऐक्टिविस्ट कहा जाने लगा हालाँकि दोनों प्रकट रूप से राजनीति से परहेज करते रहे।बाद के दिनों में  यह व्यावहारिक  व क्रियात्मक अंतर और तीव्र हुआ और सत्ता समीकरण से दूर रहने वालों को देसज व्यवहार में नकारात्मकता से जोड़ते हुए दैनिक विमर्श से दूर ही रखा गया।



यादवेन्द्र

www.livelingua.com ब्लॉग पर कुछ दिनों पहले मेलिसा बेली की लिखी  एक बहुत दिलचस्प पोस्ट पढ़ने को मिली जिसमें उन्होंने अपनी शादी की वर्षगाँठ पर पति के प्रेम का आभार प्रकट करने के लिए कुछ लिखने में आने वाली मुश्किल का ब्यान किया है - उन्होंने कहा मैं जैसे चॉकलेट या हैम्बर्गर को प्रेम करती हूँ ,सैर सपाटे को प्रेम करती हूँ अपने पति को उससे अलग ढंग से प्रेम करती हूँ पर बहुत ढूँढ़ने पर भी मुझे इस अलग प्रेम के लिए "लव" शब्द से अलग कोई अन्य शब्द नहीं मिला। मेलिसा लिखती हैं कि तब उन्हें कॉलेज के शुरूआती दिनों में पढ़ी प्राचीन ग्रीक भाषा याद आयी जिसमें अलग अलग प्रेम के लिए चार अलग अलग शब्द थे। इसी प्रकार हम अक्सर भाषाविदों से सुनते हैं कि संस्कृत में किसी भाव या सन्दर्भ को अभिव्यक्त करने के लिए हिंदी की तुलना में ज्यादा शब्द हैं .... लुप्त होती हुई विभिन्न समाजों की आदिवासी बोलियों ( लिपि और व्याकरण न होने के कारण इन्हें भाषा कहने से लोग परहेज करते हैं) में भावों के बारीक से बारीक अंतर को अभिव्यक्त करने के लिए अलग अलग शब्द रहे हैं। थोड़ा ठहर कर हम सोचेंगे तो एहसास होगा कि भाषाएँ अकारण चुप या मुखर नहीं होतीं।    
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निर्बंध सात नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_2.html?m=1



यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294 




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