23 सितंबर, 2018

परख अठारह:


प्रजा माओट कर रही है !

गणेश गनी


गणेश गनी


यह भयंकर बर्फबारी का मौसम है। चनाब नदी पर हिमस्खलन ( avalanche ) के कारण जगह जगह बर्फ के बांध बन गए हैं। घाटी के लोग अपने अपने दड़बों( गारे-मिट्टी और पत्थर के घर, जिनकी छत भी मिट्टी से बनी होती हैं ) में भय और आशंका से दुबके बैठे हैं। आज आठवें दिन भी हिमपात नहीं रुक रहा है। क्या दिन, क्या रात। बूढ़े कह रहे हैं कि आज से पहले ऐसी  दिन रात बर्फ़बारी कभी नहीं हुई।
उन्नासी में 2 मार्च से 10 मार्च तक दिन रात बर्फ़बारी होने पर चनाब घाटी के आसपास के गांव लगभग बर्फ़ की मोटी चादर में दफ़न हैं। चनाब सूख गई है। शौर गांव में प्रजा की माओट तब होगी जब बर्फ़बारी रुकेगी। अभी तो छतों से बर्फ़ हटाने का काम लगातार चल रहा है। रात अधिक डरावनी है। सुबह दरवाज़े नहीं खुल पाते। आधे दरवाजे तक बर्फ़ की मोटी तह जमी होती है। एक अजीब सन्नाटा परिवेश में छाया है। बिल्ली के पैरों पर आई बर्फ़ या तो उन बचे हुए इक्का दुक्का पक्षियों को भी निगल गई या फिर ये कहीं पेड़ों के कोठरों में और जड़ों में दुबके सूरज का इंतजार कर रहे होंगे। भले ही रात अधिक काली है, पर दिन भी कुछ ढलती सांझ जैसे हुए हैं। उन्नासी का नौ हाथ बर्फ़ भी प्रजा को आकण्ठ डुबोने में अक्षम रही है। पैरों को यह बर्फ़ जला देती है, इसकी आंच आग से भी तेज़ होती है, यह बात बर्फ़ के लोग जानते हैं।
इन्हीं कठिन दिनों की एक घटना कभी नहीं भूलती। दोपहर का समय था। बाहर भारी हिमपात होने के कारण दोपहर भी ढलती सांझ लग रही थी।  उन्नासी (79) का हिमपात याद करते हुए आज भी पांगी और लाहुल के लोग सिहर उठते हैं, एक दहशत सी आंखों में तैरने लगती है। कहते हैं कि वो बर्फबारी सबसे भयंकर और भारी थी।
मैं और मेरा बड़ा भाई हरी अपने माता पिता के साथ देवदार के घने जंगल के एकदम किनारे पर बने वन विभाग के गार्ड क्वार्टर के एक कमरे में लोहे के तंदूर के आसपास बैठे आग ताप रहे थे। उन दिनों पिता जी लाहुल के ऊंचाई पर बसे एक छोटे से सीमांत गांव भुजून्ड में वनरक्षक के पद पर तैनात थे। मैं बहुत छोटा था और वहीं गांव में एक ही अध्यापक द्वारा संचालित एक कमरे की निजी घर मे बनी सरकारी प्राथमिक पाठशाला में जाया करता। उन्हीं दिनों पिता जी ने मुझे रोमर कंपनी की एक घड़ी दी थी। स्टील चैन वाली लाल रंग की चाबी से चलने वाली यह घड़ी मैंने अपनी कलाई पर सजा रखी होती और कभी भी चाबी भरना नहीं भूलता। हर दिन चाबी भरने का भी समय तय होता। उन दिनों कलाई घड़ी भी स्टेटस सिंबल होता था।
उस दिन पिताजी दोपहर के बाद बैठे बैठे मांस काट रहे थे, शायद रात के भोजन के लिए। मुझे समय तो ठीक से याद नहीं है, सच कहूं तो समय देखना भी ठीक से नहीं आता था। बाहर बर्फ़ के बड़े बड़े फाहे गिर रहे थे और वातावरण में घने बादलों के कारण हल्का अंधेरा फैला था। हवा देवदार के पेड़ों से टकराकर अजीब सी डरावनी आवाज वातावरण में उत्पन्न कर रही थी। अचानक पिताजी ने मुझसे टाइम पूछा। मैंने जल्दी में घबरा कर घड़ी देखी और समय बता दिया। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मैंने गलती से एक घंटा आगे का समय बता दिया था।
पिताजी अक्सर सिको या रिको की घड़ियां ही पहना करते और जब भी कोई काम, जैसे तंदूर के लिये लकड़ियां फाड़ना, मांस काटना या बर्फ़ हटाना आदि, करते तो घड़ी उतार देते। वो हमेशा नेपाल के लोगों से जापान की बनी घड़ियां खरीदते जोकि नई तो नहीं होती थीं परंतु चलती बरसों। आज भी 75 वर्ष के पिता के पास एक सिको घड़ी है।
खैर ! समय गलत बताने के अहसास ने ही मुझे अंदर तक डरा दिया। हम सभी पिताजी से बहुत डरते। मैं घबराकर चुपके से बाहर बरामदे में खिसक गया। भयंकर हिमपात तथा ठंडी हवा की सीटी जैसी आवाज से उतना नहीं कांपा जितना कि डर से। मैं उस वक्त तक बाहर ही रहा जब तक कि घड़ी की सूइयां मेरे गलत बताए समय तक न पहुंच गईं। शायद वो तीन बजे के आसपास का समय था। ऐसा लगा जैसे एक घण्टा बीतने में पूरा दिन लग गया हो। उस दिन मैंने देवदार के पेड़ों से बातें कीं, हवा से शांत रहने की गुजारिश की, बर्फ़ से बिल्ली जैसे दबे पांव चले आने का तरीका पूछा। बर्फ़ के गिरते फाहों से कहा कि दुआ करो कि पिता को गुस्सा न आए। सब मुझसे बातें कर रहे थे। देवदार की बर्फ़ से लकदक टहनियां हवा में झूले झूल रही थीं। इस बीच पिता ने मुझे अंदर आकर आग सेंकने का आदेश दिया।

एक दिन बर्फ़ के ये कच्चे बांध टूट जाते हैं और हरहराती चनाब अपने रौद्र रूप में बहते हुए लगातार ऊंचा उठ रही है। शौर में चनाब पर आदिवासियों ने रहु की टहनियों को गूंथ कर अद्भुत तकनीक से जो झूलापुल बनाया है, उसे चनाब एक हल्के झटके से ले गई अपने साथ बहा कर और जब पानी उतरा तो पुल के थूहों से दोनों किनारों पर लटके पुल के अवशेष बता रहे हैं कि जीवन और कठिन हो जाएगा यदि पुल को दोबारा न बनाया गया तो। आज प्रजा की माओट जारी है। शेष दुनिया से कटी इस प्रजा की बैठक में 60 घरों के प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। प्रजा में फिर भी कोई असंतोष नहीं है। यह प्रजा ही तो है जो असंतोष में भी सन्तोष ढूंढ लेती है। देखें कि कैसे एक कवि दूर परदेस में भी कविता लिख रहा है-

प्रेम कविता लिखता हुआ कवि लिख देता है दुःख
जैसे घर सोचता हुआ आदमी सोचता है दीवार।

कवि रवींद्र कुमार दास यह  सोचते हैं कि प्रजा की पड़ताल की जाए क्योंकि कठिन समय मे भी प्रजा कैसे व्यवहार करती है और पृथ्वी के किसी और भाग में प्रजा की बात तो हो ही रही है-

अभी लौट कर आया है जो गुप्तचर
उसने अपनी उपपत्नी से कहा
मगध की प्रजा में
कोई असंतोष ही नहीं है।


रवीन्द्र कुमार दास


दरअसल रवींद्र कुमार दास वो बात भी सोचते हैं, जो किसी को भी आम बात लग सकती है। यह केवल दृष्टिकोण का मामला है-

उस सड़क के किनारे पर
वे ऐसे ही आश्वस्त थे
जैसे मैं घर आ कर होता हूँ
क्या कोई घर होता है बिना मकान के।

कवि के पास अगर कोई और काम ऐसा नहीं है जो जरूरी है, तो भी कम से कम कविता कहने का काम तो है ही। यह आश्वस्ति है इस बात की कि कविता भी उन बेहद आवश्यक कार्यों में शुमार है-

जब नही बचा मेरे पास कोई रास्ता
मैं ज़रूरी काम का बहाना कर
सरक लिया वहां से
बेअसर भाषण देने से बेहतर था कि लिखूं
अपनी पसंद की कोई कविता।

यह भी कवि जानता है कि जैसे हिमपात अचानक नहीं होता, जैसे ग्लेशियर अचानक नहीं पिघलते, वैसे ही अचानक नहीं होता कुछ भी-

अचानक नहीं होता कुछ भी
जन्म मृत्यु तो बड़ी बात है
प्यार तकरार भी बड़े मरहले हैं
छोटी सी दुर्घटना या छींक भी
बोलना बतियाना मुस्कुराना भी...कुछ भी
नहीं होता है अचानक, अनायास।

ऐसा लगता है, जैसे रवींद्र बहुत कुछ पढ़ते हैं, उनकी पड़ताल कमाल की है-

पुरुष हो कर पुरुष बने रहना
और स्त्री होकर स्त्री
सिर्फ व्याकरण में सम्भव है।
स्त्री रो नहीं पाई
स्त्री का दुःख
पुरुष जी नहीं पाया
पुरुष का दम्भ।

प्रेम तो वो बला है, जिसपर हर कवि हाथ आजमाता है और बहुतों को हम पढ़ते हैं तो पाते हैं, कचरा बहुत किया। कवि रवींद्र कुमार दास उनमें हैं जो प्रेम को प्रेम की तरह कबूलते हैं-

कहीं से लाओ उदासियाँ
और मुझे लिपटा दो उनसे
कि मैं उदास होना चाहता हूं
और मेरी
ये बेवज़ह सी मुस्कुराहटें
पहुंचा दो उन तक
जो कहीं अंधेरों में खमोश और उदास बैठे हैं।

नदी को केवल ताप ही नहीं सुखाता, बल्कि बर्फ़ के फाहे भी सोखने की क्षमता रखते हैं, भले ही कुछ पलों के लिए ही क्यों न हो, पर प्यास तो बुझ जाती होगी बर्फ़ की भी। नदी की एक और तकलीफ भी है-

नदी में घूमते हुए उसने सुना था कई बार
नदी का रोना
उसने यह भी सुना
कि नदी की तो बार बार रोने की आदत होती है
सो नहीं लिया जाता
गम्भीरता से उसके रोने को।

अक्सर हम अकेले ही अपना अपना भार ढोते हैं, अपने अपने राग, अपनी अपनी डफली के लिए अक्सर हम बचकर निकलना चाहते हैं। रवींद्र के दास की अपनी भाषा है, अपने बिम्ब हैं और अपनी शैली-

उसके पास कई गठरियां हैं

खड़ा है
किसी कोने में अकेला
सारी गठरियां सम्हाले
गा रहा है अपना मनपसंद गीत।

आदमी कविता में कवि रवीन्द्र के दास ने कुछ सुंदर बिम्ब उकेरे हैं। एक और कविता बच निकले थे बेदाग़ में ये पंक्तियां बरबस पाठक को अपनी ओर खींचती हैं-

पहचान लेने के बाद भी
धड़कने लगा था कलेजा ज़ोर से
कि पहचान न ले।
उसने मेरा डर पढ़ लिया
या उसे भी दबोचे था वही डर।
०००

 परख सत्रह नीचे लिंक पर पढ़िए

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1 टिप्पणी:

  1. अच्‍छा प्रयोग है। कविता जीवन का ि‍हिस्‍सा है, यह कहने की जगह अगर हम उसे जीवन में कहीं ि‍किसी खास जगह रखकर सोचते हैं तथा उसे ि‍लिखते हैं तो कविता का जीवंत होना प्रत्‍यक्ष हो जाता है। तब उसे किसी अतिरिक्‍त टिप्‍पणी या प्रमाण की आवश्‍यकता नहीं रहती। साधुवाद टीकाकार और कवि दोनों के प्रति।

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