02 सितंबर, 2018

परख पन्द्रह



चाय और कविता!

गणेश गनी



गणेश गनी
अभी बाहर निकलना ठीक नहीं होगा। कल ही तो 7 दिनों बाद रूठी बिजली घर लौट आई है। अभी तो दो ही बजे हैं ! यूं भी आज की रात साल 2014 की सब से लम्बी रात है। मैं देख रहा हूँ कि दीवार पर टंगी घड़ी की सुइयों ने अपनी गति बढ़ा दी है। यह मेरा भ्रम भी हो सकता है। भोर का तारा आज कुछ और देरी से दिखेगा। मैं पढ़ना नहीं चाहता अभी इसलिए फेसबुक पर टाइमपास करने की कोशिश कर रहा हूँ. यहाँ भी दो मुद्दे ज़्यादा दिख रहे हैं – एक पाकिस्तान में तालिबान द्वारा स्कूली बच्चों की सामूहिक हत्या पर रोष और दूसरा इधर रटांग़ [रोहतांग] में भारी हिमपात के कारण अब तक फंसे पर्यटकों के वाहनों की चिंता। वैसे भोटी बोली में रटांग का अर्थ भी शवों का घर ही होता है। गूगल बता रहा है कि कुल्लू में और दो दिन मौसम ख़राब रहेगा, जिसकी पुष्टि खिड़की के शीशों को चुपके से पार कर अंदर आता जाड़ा कर रहा है। अभी भी नींद आँखों से कोसों दूर है। कुछ कविताएं पढ़ी जा सकती हैं। पत्रिकाएं बेशक पुरानी हैं, परन्तु कविताएँ तो वर्तमान जैसी नई ही लगती हैं। पाकिस्तान के जीशान साहिल की कविता जैसे इसी क्षण के लिए लिखी गई है–

औरतें घर में रहेंगी
लड़कियां छिप जाएंगी
फूल शाखों पर खिलेंगे
और वहीँ मुरझाएंगे
चाँद सूरज और सितारे
धुंध में खो जाएंगे
दूर तक उड़ते परिंदे
गीत गाना भूलकर
अपने अपने आशियाँ में
खौफ़ से मर जाएंगे
ख़्वाब जैसी ज़िन्दगी के
ख़्वाब देखेंगे मगर
सुबह जब फैलेगी घर में
रेडियो खोलेंगे लोग
और खिड़की से अचानक
तालिबान आ जाएंगे।

अब तो जैसे नींद उड़कर जा बैठी है दूर सफेद बर्फ से भरे जंगल में हरे देवदार के पेड़ पर। मैं अपने ही घर में चोरों जैसे दबे पांव क्यों चल रहा हूँ ? चाय के लिए चूल्हे पर रखा पानी उबल रहा है। मैंने अल्मारी से कुछ और पत्रिकाएँ उठा ली हैं। चाय और कविता का कोई नाता नहीं रहा होगा। सोच रहा हूँ क्या कबीर चाय पीते थे ?चाय भी क्या गज़ब की चीज़ है, पिला दो एकबार तो आदमी भूलता नहीं पिलाने वाले को, पर एक शर्त है चाय में चीनी के साथ पिलाने वाले का सच्चा प्रेम घुलामिला होना चाहिए। मैं हर शाम चाय पीता हूँ, भले ही दिन में भी कई बार क्यों न पी हो। उन दिनों एक स्कूल में प्रिंसिपल के तौर पर काम कर रहा था, घुटन हुई, मन उचाट हुआ, छोड़कर चला गया। फिर तुरन्त एक और स्कूल ने कुर्सी दी, उधर का आदमी एक अजूबा था, अजीब घटना घटी, तीन महीनों में ही वो कुर्सी वापिस मांगने लगा तो मैंने दे दी। छोड़कर जाने लगा तो उधर अचानक बादल घिर आए, शाम भर बरसते रहे, फिर छंट गए, चाँद की कांसे जैसी चमक धरती के एक हिस्से को रौशन कर रही थी। मैं उदास था और मेरे चारों ओर एक घेरा बन रहा था निराशा का। तभी देखा तो दूर से एक छाया चली आ रही थी मेरी ओर। करीब पहुंचने पर देखा तो यह चाँद से उतरकर आया कोई लड़का था, जो हूबहू हम इंसानों जैसा दिखता था। वह मेरी भाषा ही नहीं, बल्कि मुझे भी पूरी तरह से समझता था। हम दोनों ने बहुत बातें कीं। इस बीच उसने यह भी बताया कि न तो इधर बादल छाए थे और न ही बारिश हुई। उस दिन के बाद वो हमेशा मेरे साथ रहा। रोज़ शाम को मुझे चाय पिलाता। हालांकि मैंने चाय कम कर दी थी उन दिनों, संगीत सुनना  छोड़ दिया था, कविता तो कब का भूल चुका था। अब मैं उसके लिए चाय पीता। मैंने दो मग खरीदे, एक हल्के नीले रंग का उसके लिए और पीले रंग का अपने लिए। वो चाय नहीं पीता था। आज भी मेरे पास दो मग हैं। मैं उसके लिए खरीदे गए मग में चाय पीता हूँ, अपने वाला पीला उसके लिए रखा है मेज़ पर। फ़ेसबुक पर देखता हूँ तो कवि राकेश रोहित {Rakesh Rohit} ने आज ही एक बात लिखी है, गज़ब है, गज़ब ,गज़ब है-

राकेश रोहित


"एक कप चाय लीजिए। उसका आधा दूसरे कप में ढाल दीजिए। बाकी चाय आप धीरे- धीरे पीजिए। आप देखेंगे कोई आपके पास आकर चुपचाप बैठ गया है और आपको धीरे- धीरे चाय पीते एकटक देख रहा है। कमाल यह होगा आपकी चाय खत्म हो जाएगी पर सामने वाली चाय गर्म ही रहेगी। जैसे वह किसी के इंतजार में है।

धत् झूठ बात! ऐसा कुछ नहीं होता है।

हाँ, नहीं होता है! पर हो सकता है! करके देखिए! शायद कोई आधी कप चाय के इंतजार में है। शायद आपको किसी का इंतजार है!"

राकेश रोहित प्रेम कविता ऐसी भाषा में लिखते हैं, जैसी भाषा प्रेम के लिए होनी भी चाहिए। इन दिनों न प्रेम रहा, न प्रेम की भाषा और न ही प्रेम कविता लिखने वाले कवि-

यह कोरा क्षण है
खाली सफों पर
तुम्हारा नाम लिखना है
और जुल्म यह
कि कोई पढ़ ले
इससे पहले उसे मिटाना है।

कवि का अपना एक दृष्टिकोण है प्रेम के लिए, जिसे साफ़ और स्वस्थ बनाए रखना होता है। बस यही हम कर नहीं पाते और प्रेम में मिलावट का होना तय हो जाता है, तो कविता का उदास होना लाज़िमी है-

शमा पर सौ पर्दे लगे हैं
और कविता के रास्ते में
आतिशबाजियां हैं।
प्रेम हमेशा पीछे रह जाता है
बस चमकता है
कविता का उदास चेहरा।

राकेश रोहित की कविता मन में हलचल पैदा करती हैं। आसपास कस्तूरी मृग उछलकूद मचाते हैं, रंग बिरंगी तितलियाँ उड़ने लगती हैं, अचानक फूल खिलने लगते हैं, हृदय में बसंत आ जाता है-

कभी- कभी मैं सोचता हूँ
इस धरती को वैसा बना दूँ
जैसी यह रही होगी
मेरे और तुम्हारे मिलने से पहले!

इस निर्जन धरा पर
एक छोर से तुम आओ
एक छोर से मैं आऊं।

मैं पहाड़ को समेट लूँ
अपने कंधों पर
तुम आँचल में भर लो नदियाँ
फिर छुप जाएं
खिलखिलाते झरनों के पीछे।
००


परख कीकी चौदहवीं कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/8-5-7-1992-3-6.html


3 टिप्‍पणियां:

  1. साहित्य की दृष्टि से उत्कृष्ट। आज पहली बार देखा। बहुत खूब।
    सच ही तो है
    आँचल में नदी भरकर
    उम्मीद की फसल को
    हरा-भरा रखना है।

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