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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अगस्त, 2018

परखः- चौदह


चिट्ठी की यात्रा में मौसम बदल जाते थे!

गणेश गनी



गणेश गनी


मेरे गांव शौर में दो कच्चे कमरों की एक प्राथमिक पाठशाला थी, जिसकी मिट्टी से बनी छत बाद के दिनों में धूप और बारिश को रोक पाने में असमर्थ होने लगी थी। पांचवीं कक्षा के इम्तहान चार मील दूर पूर्थी गांव के मिडल स्कूल में होने थे। बोर्ड की परीक्षा का खौफ़ अभिभावकों के साथ बच्चों को भी बुरी तरह से सताता है। यह सरकार क्यों करती है , आज तक समझ नहीं पाया। मुझे बर्फ़ के बीच माँ ने परिवार के एक बुज़ुर्ग के साथ राशन पानी देकर भेज दिया ताकि परीक्षा समाप्त होने तक मैं वहीं एक रिश्तेदार के घर पर ही ठहर सकूँ। बर्फ़ के बीच से बनी गहरी पगडण्डी में चलते हुए धीरे धीरे घण्टों बाद गन्तव्य तक पहुंचे। पांचवीं पास करने के बाद मुझे चार मील दूर इसी पुरथी गांव में मिडल स्कूल जाना पड़ा । यह चार मील का रास्ता देवदार के घने जंगल में से हो कर गुजरता था। कहीँ कहीं तो सूरज की किरण भी अंदर नहीँ घुस पाती थी । हम बच्चों को 8 मील रोज पैदल चलना पड़ता था।
आठवीं कक्षा में आते ही मुझे अपने ज़िला मुख्यालय चम्बा भेजा गया। यह सफर तीन दिन का था । दो दिन पैदल और एक दिन बस यात्रा । घाटी से बाहर निकलने के चार दरवाज़े हैं जिन्हें जोत( दर्रे ) कहते हैं। तीन जोत पैदल लांघने पड़ते थे और एक रटांग जोत पर ही गाड़ियां चलती थीं।
शहर में दिन भर स्कूल और सुबह शाम शहर की काली सड़कें, बिजली की तारें, कतारबद्ध दुकानें, गाड़ियों की आवाज़ें, डीजल, पेट्रोल की गंध, सजे धजे लोग, खाने पीने की दुकानें, ख़ासकर मुँह में पानी लाने वाली कचालू की रेहड़ियां आदि आदि देखते देखते यूं लगता जैसे मेला चल रहा होता। रात को माँ, घर, गांव और खेत बहुत याद आते-

मुझे याद नहीं
रात का वो कौन सा पहर था
जब एक झोंके के साथ
मौसम बदल गया और
सर्द तन्हाइयों में
चटखने लगे माज़ी के अलाव।

सिद्धार्थ वल्लभ ने यह मेरे लिए लिखा, मेरी अनुभूति को अपने अंदर किसी नरम कोने में महसूस किया। देखो तो भला जब हम अनजान थे, मन जानते थे तब भी।
हमारे गांव में बिजली, टेलीफोन, टीवी कुछ नही था । केवल रेडियो ही एक मात्र मनोरंजन का साधन था । हम शहर से पत्राचार करते । ये पत्र दस्ती तथा डाक द्वारा भेजे जाते थे ।  चिट्ठी का इन्तजार दोनों ओर बेसब्री से होता था। डाकिया जिसे हरकारा कहा जाता था, चार मील दूर गांव से पैदल चल कर पत्र लाता था । दस्ती पत्र 5 ,7 दिनों में मिल भी जाता था मगर डाक द्वारा भेजा पत्र महीने दो महीने बाद ही पहुँचता था । इस दौरान तो मौसम भी बदल जाते थे। परंतु चिट्ठी ताजगी का एहसास वैसे ही देती जैसे कल ही लिखी गई हो । कई बार पिता जी घर पर नहीं होते तो माँ किसी स्कूली बच्चे से चिट्ठी पढ़वा कर सुन लेती । चिट्ठी कई कई बार पढ़ी जाती थी और हर बार नई अनुभूति देती । चिठ्ठी विस्तार से लिखी जाती। मसलन पढाई लिखाई , इम्तहान , मौसम , सुख-दुःख आदि आदि । वैसे ही गांव से पत्र आने का अर्थ होता कि घर और गांव का पूरा हाल- चाल।  जैसे माल- मवेशी , खेत- खलिहान, अड़ोसी- पडोसी - रिश्ते- नाते , जीना- मरना आदि। इसके अलावा सबकी ओर से दुआएं, सुखसांत, प्यार आदि भी चिट्ठी में भरा रहता था । मेरे गांव में डाकघर तब भी नहीं था और आज भी नहीँ है -

कुछ ख़त
कच्चे पक्के वादों में लिपटे
ख़तों के सिरहानें
सुर्ख सूखे फूलों की हया
आड़े तिरछे हर्फ़
और लफ्जों की तड़प।

1992 में मैं 3 दिन की यात्रा के बाद गांव पंहुचा तो रास्ते में ग्रामीणों ने बताया कि उन्हें अफ़सोस है । मैंने पूछा कि किस बात पर । उन्होंने बताया कि दादी का देहांत कुछ दिन पहले हो गया है ।
मैं हक्का बक्का और उदास हो गया । यह सब इतनी जल्दी हुआ कि आसुंओं को आँखों से बाहर निकलने का भी समय नही मिला। घर पर पिता जी ने बताया कि पत्र भेजते तो महीनों लग जाते, संदेशवाहक भेजते तो 6 दिन आने जाने में लग जाते। इसलिए सोचा कि तुम्हारी छुट्टियां पास ही हैं। इंतज़ार ही एक रास्ता है।
 हम गर्मियों की छुट्टियों में लगभग दो महीनों के लिए साल में एक ही बार घर आ पाते थे। इस दौरान गाँव में अपने दोस्तों से खूब मिलना जुलना , खेलना कूदना होता। खूब शहर की बातें होतीं। कई किस्से सुने और सुनाए जाते।
गाँव में गर्मियों के दिनों में लोग खेतीबाड़ी करते और सर्दियों में जब हिमपात होता तो छह माह तक जैसे नजरबंदी का दौर चलता । इन दिनों में मेले त्यौहार जम कर मनाए जाते । यही मनोरंजन के साधन भी थे और एक दूजे के घरों में आने जाने के बहाने भी। ये यादें हैं, आती हैं जाती ही नहीं-

तू न ...पागल की पागल रही!
कहा किसने तुझे कि मिट्टी है बिखर जाएगी?
इत्र है वो तो, हर दौर को महकाएगी...
न तड़पेगी, न जलेगी, न जलकर ख़ाक होगी...
आंखों की तरी, देखना सब कुछ नम कर जाएगी...
हां, दीवार बड़ी कच्ची है...
प्रीत है न शोना... प्यार से रखना।

सिद्धार्थ वल्लभ गंभीरता से लिख रहा है, वो एक बेहतरीन कवि होने के साथ साथ भविष्य का बड़ा आलोचक बनने की सोलह आने सम्भावना रखता है। इतना अध्ययन सबके बूते की बात नहीं है। वल्लभ किसी भी विषय पर लम्बी बहस कर सकता है । कविता की बहुत गहरी समझ है । कविता दिमाग से नही बनती । कविता समाज से और व्यवस्था से बनती है । कविता आमजन के लिए होनी चाहिए न कि राजा और व्यवस्था के लिए । दरबारी कविता श्रृंगार रस से भरी होती थी । उस कैदखाने से जब कविता बाहर आई तो फिर जनकवि पैदा हुए । कविता एक चिंगारी है । व्यवस्था इससे डरती है । इसलिए लोर्का और पाश जैसों को मारा गया । पढ़ पढ़ कर कविता लिखना अलग बात है और भोगे हुए यथार्थ पर लिखना अलग । संघर्ष से उपजी कविता में आग होती है और व्यवस्था के खिलाफ चिंगारी ।
वल्लभ की कविता कमाल की हैं । कोहरा कविता के बिम्ब एकदम ताजे लगते हैं । कविता पढ़ते हुए आनंद की अनुभूति होती है -

शदीद सर्द मौसम में
कोहरे की शक़्ल लिए
आसमान पर छाये हैं
गुज़रे दिन

अहसाओं के अलाव में
जल रही है तन्हाई शिद्दत से
सहमा-सहमा धुंआ
सुलग रहा है हाथ पसारे

ओस से गीली रात
नींद की आवारगी में
बार बार जम्हाई लेती है

कौन है जो बुझती अलाव के
मज़लूम गंध के बीच
कर जाता है
पुराने दर्द के तलुए गर्म
कि सो जाती हैं यादें
चुपचाप पहलू में सिमट कर !!

सहमा सहमा धुआं , पुराने दर्द के तलवे, नींद की आवारगी जैसे मुहावरे सिद्धार्थ ही गढ़ सकता है ।
आदिवासिन सूरज अपनी आँखों में लिए फिरती है । वो आईना नही रखती । क्या कमाल कहा है । यह वही समझ सकता है जो आदिवासी हो या वहां का अनुभव हो । दरअसल मैं स्वयं हिमाचल के आदिवासी इलाके पांगी से सम्बद्ध हूँ । आधा साल बर्फ से ढका रहने वाला क्षेत्र कैसा होगा। न बिजली, न पानी, न सड़कें, न टेलीफोन । कितनी तकलीफें! पर वो लोग हंस गा कर समय काट लेते हैं और अपनी समस्याएं किसी से नही कहते । सिद्धार्थ ने ठीक कहा शहर उनके जंगल में घुस आया है । उसने तो शहर देखा भी नही था । नाकबाली पहने आदिवासिन सच में आईना नही रखती । उसकी आँखों में सूरज रहता है -

 नाकबाली पहने आदिवासिन
आईना नहीं रखतीं,
सूरज को आँखों में लिए फिरती हैं ।

ब्रश नहीं होने के बावजूद
अपनी हंसी के बीच
अपने दाँतों को छुपाती नहीं हैं
उनके पास वर्जित/ संकटग्रस्त
ठिकाने भी नहीं हैं
जिनको किताबों में कमरा कहा जाता है
टैप खुला छोड़ने की
गवाँरु आदतों से दूर
दुधमुँहे छौने को पीठ पर टाँगे
सिर्फ जिजीविषा की चौकसी करती हैं।

उनके पास
भविष्य की भंगिमाएं नहीं होती
ना ही विमर्श का पट्टा
उनके गले में होता है
उनके पास
वैसा कुछ भी नहीं होता
कि सिग्नल की लालबत्तियों पर
उनको घूरा जाय
वो तो शहर में आयीं भी नहीं थीं
शहर उनके जंगलों में
कुश्ता दलीलों से घुस गया था
अब शहर के सभागार में
वही औरतें छिप छिप कर झाँकती हैं
मानों शहर की हथेलियों पर
थूक दिया हो किसी ने।
         

वल्लभ ने प्रेम कविताएं भी जमकर लिखी हैं। प्रेम से अधिक अद्भुत इस जहान में कोई चीज़ नहीं। प्रेम देह से पार की अनुभूति है, यह धरती पर सबसे नाज़ुक और विरल है जिसे केवल हृदय से ही महसूस किया जा सकता है। यह सब भेदों, सम्बन्धों और बन्धनों से मुक्त है। वल्लभ कहते हैं , सुनो शोना-

पुरानी क्यारियों के पौधे
बूँद बूँद सींचता रहा।

प्रेम में व्यक्ति ईर्ष्या नहीं करता और निश्छल तथा निष्कपट हो जाता है। प्रेम में होने पर सब कुछ सुंदर लगता है। यह पृथ्वी, आकाश, चाँद, तारे ....सब कुछ खूबसूरत लगता है, यानि हमें वास्तविकता में जीना आने लगता है। हम वास्तविक होने लगते हैं। सुनो शोना-

रात गहराते ही मैं
आकाश पर चढ़ जाता हूँ
और वहीं से निहारता हूँ
तमाम नदियों को।

सिद्धार्थ वल्लभ

प्लेटो ने कहा है कि प्रेम के स्पर्श से हर व्यक्ति कवि बन जाता है। सिद्धार्थ जैसा एक बहुत ही संवेदनशील कवि प्रेम के बारे सोचता नहीं, बल्कि प्रेम को हृदय के तल पर जाकर महसूस करता है। यह किताब युवाओं को बहुत आकर्षित करेगी। प्रेम कविताएं वैसे तो उम्र की सीमा से भी मुक्त होती हैं। भले ही पाठक इस किताब को आंखों से पढ़ रहा होगा, परंतु वो कानों से सुन भी रहा होगा और उसकी तरल  जीभ पर अब तक का अनकहा तैर रहा होगा ! सुनो शोना-

इन सनोबर के दरख़्तों पर
टांग कर बेबसी अपनी
माजी की ओट से
वस्ल के अफ़साने
चलो कोहसारों को सुनाया जाए।

एक साथ ढेर सारी प्रेम कविताएँ लिखना बहुत मुश्किल है। कवि स्वयं को दोहराने लगता है। वल्लभ ने हर बार नया और दिल छू लेने वाला ही लिखा है-

ये जो पोशीदा -से
गिले- शिकवे हैं तेरी निगाहों के
चोट बहुत लगती है इनसे शोना !
जुबां से फैंक दो तो चुनकर रख लूँ
बुझती नज़्मों को मुवावजा दे दूं।

वल्लभ ने एक से बढ़कर एक बेहद शानदार प्रेम कविताएं हैं। हिंदी साहित्य में अमृता प्रीतम की परंपरा को वल्लभ ने विस्तार दिया है। वल्लभ की प्रेम कविता में अश्लीलता ज़रा भी नहीं है। ये देह से परे ऐसे प्रेम की बात करती हुई कविताएं हैं जहां प्रेम बंधनमुक्त है-

इश्क के धागे
जो दरगाहों पर बांधे हमने,
उतार लाया...
उन धागों से लिपटी है
वस्ल की खुशबू
वो तेरे इश्क़ की ज़ात
वो मेरे इश्क की रमज़...
वही मज़हब है मेरा, वही हयात है।

कवि वल्लभ नई पीढ़ी के कवियों में अत्यंत संभावनापूर्ण और सम्वेदनशील कवि हैं, वल्लभ की कविताओं में प्रेम है, तल्ख़ी है, उम्मीद है और लोक है। इनसे गुजरना एक नई अनुभूति है।
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परखः तेरह नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_44.html?m=1
     
गणेश गनी
कुल्लू , 9817200069

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