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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अगस्त, 2018

 अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएं




अखिलेश श्रीवास्तव 




 पिता

पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखने
एक बार गये भी तो चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन कर
अंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थे  लिहाजा खुद पिक्चर हो गये
कई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा की
और नही माना आदमी
पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तक
जो खैनी हमेशा साथ रही
जिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थें
पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब में
माॅल के दुआरें पर ही छींन ली गई
माया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।

फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम था
माटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थे
कि तलाशने लगें कोई टेक
अजीब जगह है यह
दूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखता
फिर खिखिआयें कि
माॅल में बाढ़ नही आती जो
हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।

रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं  पर
रोहूं, मांगुर नही कर पाये
ठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूप
हर पांच मिनट में  पोंछ ही लेते गमछे से मुंह
पसीना कही नही था पूरे देह में
पर उसकी आदत हर जगह थी ।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता
ऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थे
भुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी को
वरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।

माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट था
खेत के दृश्य से
कि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पिता
मैंने  रोकने की कोशिश की
पर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सो
नहीं रूके ।

पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहे
माॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।



महावीर वर्मा 



 ऐ जी सुनते हो ..

कभी तोडो न अपनी भी
एकाध हड्डियां
जीवन चक्र बढाने में
जैसे मै तोड देती हूं
206 की 206
हर दूसरे साल प्रसव वेदना में ।

कभी पहनो न
पांच मीटर का वस्त्र
और बैठ जाओ
स्टोप या सिकडी से
एक कोस की दूरी पर
फिर देखो जादू
आंचल का लौ पकड लेना
और मेरा बदल जाना रोशनी में ।

कभी कहो न
अपनी मां से
घूमे मेरे आगे पीछे
पूरे एक दिन
जैसे मेरी मां नांच जाती है
अंगूठे पर
धरती की तरह
पाहुन पाहुन की रट लगाये
तुम्हार आने पर ।

कभी धारो न
एक दिन का
निराजल व्रत
मांगो हर क्षण दुआ
खुद के तुमसे पहले चले जाने का
और जब मिलूं तुमसे सांझ को
प्रेम के दो चार शब्द बूंद के लिए
तो तुम थमा दो
एक लोटा पानी ।

ये सब न होगा तुमसे
यूं करो
ले लो मेरे सारे जेवर
क्रीम ,पाउडर,काजल
सुन्दर बन के
चेहरा फूल बना कर दिखाओ मुझे
तब भी
जब दो घंटे पहले ही मैने
खाये हो झापड
और अभी तक
आंसुओं से भीगा हो मेरा मन ।

ऐ जी सुनते हो..।




किसानी रोटी 

तुम्हें बालू का स्वाद पता है
यूँ करना
बेटे का दुख दायें कांख में दबा लेना
माँ  का दुख बाये कांख में
कर्जे का दुख रखना छाती पर
फसल का दुख कांधे पर
और फिर खाना रोटी !

ये जो किनकिना रहा है रह रह कर
बैलों का दुख हैं जिसे चबाया नही जा सकता
अंधड में झर गये टिकोरों का दुख इतना सस्ता नही कि
खैनी रगड़ने के बाद बचे फाकें की तरह उड़ा दिया जाये !

मजदूर हो जाने का दुख
किसान बने रहने के दुख पर भारी है
तसला थाम लेने का दुख ज्यादा टीसता है
हल की मूठ छोड़ देने के दुख से !

गर अब भी बचा है रोटी का स्वाद तो
ब्याही बिटिया की पनिआई आंख देख लेना
जिसे पाहुन छोड गये है दुआरे
तिलक का परात हल्लुक होने का उलाहन धर के
और यूँ बनाना रोटी को बालू !





महावीर वर्मा 


स्त्रियाँ गायें नही होती 

चौराहों पर जुगाली करते हुए
किसी बुजुर्ग गाय को देखकर
झट पल्लू सर पर डाल उठना नही होता
नही पड़ने होते पांव
वो सांडो को हिकारत से देख सकती हैं
पूंछ फटकारते हुए कह सकती है
अपना रास्ता नापो,ये हमारा चौराहा है ।

सुबह दुही जाने के बाद
चरती है घूमती है स्वछ॔द
लौटती है तो तैयार मिलना चाहिए सानी
आप तीनों पहर नही दुह सकते गाय को
उसने निश्चित अंतराल तय किया है खुद के लिए
जबरदस्ती की तो दुल्लती तय माने ।

उन्हें साथी चुनने की स्वतंत्रता है
गाभिन हो जाये तो नही कटता कोई हल्ला
किसी ग्रंथ में नही है
उनके अपवित्र  होने की कहानी
बूढ़ी गायें चअ चअ ...नही करती
साथिन गायें बायकाॅट नही करती
मोड़ पर घूमते हुँए सांड़ नहीं उडाते मजाक
नही कैद की जाती घर के चिन्नी में

बेखौफ पैदा करती है बछिया
कभी नमक की डली चटा कर मारी गई हो
या दूध में डुबोया गया हो
सुनाई नही पड़ा ।

पूजी जाती है गाय
स्त्रीयों के भाग्य में नही है गाय हो जाना ।




 गौरैंया

कौवों ने सारा
तन्दुल चुग लिया है
मटके के तली तक का पानी
हथिया लिया है पत्थरबाज़ी करके !

चिड़ियों ने निराशा में
घोसलों से निकलना छोड़ दिया है
खोहों के मुहांने पर
तिनके की ओट डाल पर्दादारी की प्रथा
ज़ोर पकड़ रही है  !

आकाश को चीलों का बताया जा रहा है
और उनके लिये नियत है उतना ही आकाश
जितना दो पत्तियों के बीच
दरख्त के एक शाख़ से दिखता है !

नई बात यह है कि
कांव कांव को
जंगल ने अपना राष्ट्रीय गीत मान लिया है
कोयल की कूँक को माना गया है
एक डायन की आवाज़ !

और अब दरख्तों की कहानी सुनिए
एक गौरैया की ग़रदन
अपनी ही शाख के
एक धारदार पत्ती ने रेत दी है !




तुम 

मेरे गांधी बनने में  तमाम अडचने हैं
फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ
मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे
बाँध  कर रखना चाहता हूँ
और इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्र
घूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !

जबतक तुम बंधी हो
मैं उन्मुक्त हूँ
गर कभी आजाद हो
झंड़ा बन फहराने लगी
तो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !

चरखे का चलना
समय का अतीत हो जाना है
अपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुम
टूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो
सभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती हो
और उसे बदल देती हो संस्कृति में
जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है
पत्थर को फूल में !

इस खादी के झिर्री से देखो तो
तो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैं
वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से
बंदर के हाथ अदरक है
चखता है और  थूक देता है ।




महावीर वर्मा 




इन दिनों 

तुमनें पलकें खोली
हथेलियां भी हटा ली चेहरे से
खिड़की से निहारा आकाश भी
पर भोर नहीं हुई
सूरज नहीं उगा ।

तुमनें आबनूस से केश बिखेरें
तो भी नहीं उमड़े कुंतल मेघ
बादल के फोहों ने झुक कर
पेड़ के फुनगियों की कोई खबर नहीं ली
सीपो के मुंह खुले रह गये
कोई स्वाति बूंद उन तक नहीं पहुंची ।

तुमनें छनकाई पायल
पर नदी ने जल तंरग नहीं छेडा़
गौरैया ने फुदक फुदक कर
ताल से ताल नहीं मिलाया
न कोयल ने कूक भरी
न कबूतर ने कहा गुंटर गूँ ।

मेरा प्रेम तुम्हारी क्रियाओं का कंठ है
वही पहुँचाता है तुम्हारी सारी बातें ख़ुदाई तक
तुम फिर से आ जाओ मेरे पास
ईश्वर सुन नहीं रहा हैं तुम्हारी कुछ भी
इन दिनों ।




भ्रूण हत्या 

रात्रि के तीसरे पहर में
उसके लटों से खेलना
मेरे लिये आग तापनें जैसा है
उसके लिये है राख हो जाने जैसा ।

उसका प्रेम उर्ध्वाकार होकर
यज्ञ की अग्नि बनना चाहता है
जबकि मेरा प्रेम चाहता है
क्षैतिज हो जाना।

वह माँ हो जाना चाहती है
पर कुंती होना नहीं ।
मै आमादा हूँ सूर्य बन जाने को
पर पिता होना नहीं चाहता ।

माँ और पिता का संबध
एक प्रयोग है कई बार
जिसमें पीठ सहलाते हुए दी जाती है
लड़कीयों को माँ बन जाने की सलाह
जबकि पिता होने व बन जाने के बीच
एक स्वीकृत जरूरी है
फिर यह सुश्रुत का देश है
रूह व अजन्मे मांस को यूं अलग करता है
कि माँ तक को खबर नहीं होती ।

शल्य चिकित्सा
कोख में अवैध खनन जैसा है
घोषणा पत्र पर पिता के हस्ताक्षर  है
किसी ठेकेदार के हस्ताक्षर जैसे
अजन्मा शिशु बालू जैसा है ।

दुनिया मेंं
स्त्री के मां बन जाने की संख्या
पुरूष के पिता बन जाने की संख्या से
कई गुना ज्यादा है ।




 जीवन 

क्षण भंगुर है जीवन तो
शाश्वत क्या है
मृत्यु ?

जिसकी एक भी स्मृति अपने पास नही !

माटी,अम्बर,जल,वायु,अग्नि
जिससे मिलकर बना है यह घट
जीवन उसी के विराट हो जाने की कहानी है !

माटी उपजाने लगे अन्न
और भरने लगे कई पेट
तुम्हारे भीतर के आकाश में उड़ान लेने लगे कुछ आश्रित पंछी
विष इतना चख लिया हो कि जल बदल जाये खारे समंदर में
उच्छवास से किसी की मद्धिम लौ सी कोई उम्मींद
देखते ही देखते अग्नि शिखा हो जाये
तो अपनी पीठ ठोक लेना !

अपने शव से कहना कि
तू एक जिंदा आदमी की लाश है ।
तुझमें जीवन और मृत्यु साथ साथ नहीं रहे
तेरे लिये जीवन एक युग था और
मृत्यु एक क्षण ।

ऐसा हुआ तो
तेरे भीतर की अग्नि को अग्नि बन जाने के लिए
घी की कोई जरूरत नही
तू लौटा सकेगा अम्बर को अम्बर
माटी को माटी !

बाकी ईश्वर पर छोड़ दे
वो रच सके तो रच ले फिर से
तुझ जैसा जीवन !


महावीर वर्मा 


त्याग पत्र 

मैं हर उस जगह से अनुपस्थित होना चाहता हूँ
जहाँ बंद खिड़कीयाँ चाहती है कि
मैं हवा हो जाऊँ !

तनि हुई भवों के बीच बहूँ
गर्म माथे से गुजरते हुए उसे ठंडा रखूँ
उनके नाक से गुजरते हुए उन्हें जीवन दूँ
पर जब उच्छवास से बाहर निकलूँ तो
खुद को कोयले के राख में बदला हुआ पाऊँ !

जब पूँछू
खुद के राख हो जाने की कहानी
तो कहा जाये कि
तुम शुरू से ही कोयला थे
बहुत होगा तो फानूस रहे होगें !

मैं फिर फिर छानता हूँ खुद को
बहुत मुश्किल से बन पाता हूँ इतनी सी हवा
कि खुद सांस ले सकूँ !
पर कोई अनुभवी व घाघ हो चुकी नाक
पहचान ही लेती है मुझे
मैं घाघ नाकों के जीभ पर रखा हुआ भोजन हूँ !

हवा से राख बनते बनते इतना आजिज आ चुका हूँ
कि सोचता हूँ त्यागपत्र दे कर पानी बन जाऊँ
सिर्फ एक बार पिया जा सकूँ
और गटर कर दिया जाऊँ




 परिचय : 
अखिलेश श्रीवास्तव 
संप्रति : प्रतिष्ठित भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी में मुख्य प्रबंधक 
निवास : भरूच,गुजरात

2 टिप्‍पणियां:

  1. सभी बेहतरीन कविताएं। गहरी संवेदना से उपजी पिता कविता मुझे बहुत पसंद आई।

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  2. All are too good...filled with deep compassion...good wishes to you..

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