परखः ग्यारह
वहां तट तो था पर नदी न थी!
गणेश गनी
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि न तो साहसी, निडर, बेबाक और ईमानदार आलोचक बचे हैं और न ही धैर्यवान और सच्ची आलोचना सहने वाले कवि कहीं दिखते हैं। जो इक्का दुक्का हैं भी तो उनका रचनाकार भी पता नहीं कब तक बच पाएगा! पुस्तक समीक्षा और कठोर आलोचना से रचनाकार लाभान्वित होता है। उसे अपनी रचनाओं के लिए नई जमीन तलाशने का अवसर मिलता है। जो बढ़िया रचना नहीं लिख सकता, वह बढ़िया आलोचना भी नहीं लिख सकता। साहित्यिक आलोचना के लिए जरूरी है- रचना के मर्म की पहचान। रचना की संवेदना, भाषा-शिल्प, अंतर्वस्तु, बिम्ब, शैली आदि से एक रचना को कसौटी पर कसा जा सकता है। आज जब हम लोग पत्र पत्रिकाओं में प्रशस्तिगान पढ़ते हैं तो लगता है कि उस कवि की कविता भी पढ़ी जाए। लेकिन जब कविता के पास जाते हैं तो कविता के नाम पर मात्र शब्दों के ढेर होते हैं, कविता कहीं दूर दूर तक नहीं होती। कवि दीपक मंजुल की ये पंक्तियां इस बात को खूबसूरत अंदाज़ में बयां करती हैं-
नदी से बतियाने निकला था
लेकिन तट पर पहुंचा जब मैं
तो हैरान रह गया
वहां तट तो था, नदी थी ही नहीं।
कुछ कवि ऐसे भी हैं जिनका नोटिस नहीं लिया गया। ऐसे में दीपक मंजुल की कविताएं पढ़ना सुखद है। आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में हजारों की तदाद में रचनाएं आ रही हैं। अब सोशल मीडिया में भी साहित्यिक रचनाएं लगातार आ रही हैं। लेखक अब किसी भी संपादक, प्रकाशक, पत्र-पत्रिका आदि का मोहताज नहीं रहा। उसके पास सोशल मीडिया जैसा सशक्त मंच है।
सवाल यह भी उठता है कि वर्तमान समय में लिखी जा रही कविताएं स्तरीय हैं, क्या उनकी पड़ताल हो भी रही है या नहीं। क्योंकि जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसकी महत्ता और औचित्य का निरीक्षण करना भी आवश्यक है तथा मूल्यांकन और समीक्षा होना जरूरी है। दीपक ने कुछ कविताओं को बड़ी मेहनत से लिखा है-
गली कूचों में चुनती थी जो
अल्हड़ नवयुवती लोहे की कीलें
और अगड़ बगड़ लौह वस्तुएं
डॉक्टरी जांच में यह रपट आई थी
उसके बारे में-
युवती की देह में लोहा बहुत कम है।
यह सच है कि हिंदी में कविता और आलोचना दो विधाओं की सर्वाधिक दुर्गति हुई है। कवि प्रकाशक और आलोचक के चक्कर काटता रहता है। पुस्तक समीक्षा तथा कविता लिखने व छपवाने का एक जुगाड़तन्त्र चल रहा है। पत्र-पत्रिकाओं के संपादक अपने अपने किले तैयार कर रहे है। हिंदी साहित्य के विद्वान भी मानते हैं कि आलोचना व समीक्षा अब सीखने-सिखाने के लिए नहीं, बल्कि किसी को उठाने-गिराने के लिए की जाती है। कहा जा सकता है कि पुस्तक समीक्षा अब शायद ही कोई पढ़ता है, सिवाय उनके जो लिखते हैं और जिन पर लिखा जाता है। कवि दीपक मंजुल ने सही कहा है-
ये सारी कवायदें क्यों
जबकि सीधे सरल रास्तों से भी
गुजर सकती है जिंदगी।
फिर भी निराशा के इस दौर में जब कहीं किसी छोटी जगह से कोई राजू मस्ताना निकल कर आता है और मासूमियत से कहता है कि वो साहित्य की किताब इस लिए पढ़ना चाहता है क्योंकि उसे समीक्षाएं अच्छी लगती हैं, तो एक उम्मीद की किरण नज़र आती है। यह बात इसलिए भी उम्मीद जगाती है क्योंकि राजू कोई साहित्यकार नहीं बल्कि रोज़ी रोटी के लिए एक ऑटो रिक्शा चलाता है। यह बात भी सब जानते हैं कि ले देकर किताबें छापी जा रही हैं। ऐसे में क्या लिखा गया है, क्यों लिखा गया है, कैसे लिखा गया है, किसके लिए लिखा गया है आदि पर न तो कोई सोचता है और न ही कोई इसकी जांच करने वाला है। दीपक मंजुल की कुछ कविताओं पर आलोचकों की नज़र जाना आवश्यक है। कवि अपने आसपास के परिवेश तथा जीवन के संघर्ष को अपनी रचना में उकेरता है तो लगता है कि ईमानदारी अभी ज़िन्दा है-
बाज़ार-
जो पहले बाज़ार में था
अब अनचाहा मेहमान बनकर
पसरा बैठा है हमारे घरों में
घुसते घुसते हमारी अस्थि मांस मज़्ज़ा तक में
घुस आया है बाज़ार
हमारे दिलों में आसन जमा दिमाग को भी जकड़ बैठा है।
आज लेखक इंतजार नहीं करना चाहता, बस छप जाना चाहता है। जिस आनन-फानन में छपता है उसी जल्दबाजी में पुस्तक लोकार्पण कराना भी चाहता है। किताब व रचना का मूल्यांकन कौन करेगा, यहां भी बड़ा झोल है। अपने परिचितों से समीक्षा करा कर किसी पत्रिका में भेज देना भी उसका लक्ष्य होता है। अब ऐसी रचनाएँ जो चलते फिरते लिखी गई हों या कार्यक्रम में आती बार बस में लिखी गई हों या कार्यक्रम में अपनी बारी का इंतज़ार करते करते ही टिका दी गई हो तो फिर उन पर क्या लिखा जा सकता है। ऐसी साहित्यिक दुनिया में ईमानदारी नहीं चलती। दीपक मंजुल सही कह रहे हैं-
दिल्ली में न गांव, न गंगा
मन करता है
भाग जाऊं दरभंगा।
दिल्ली में यमुना
यमुना न चंगा
मन करता है
भाग जाऊं दरभंगा।
जब साहित्य काम का नहीं रहता तो समाचार पत्रों में बहुत तेजी से साहित्यिक पन्ने सिमटते चले जाते हैं। कुछ अख़बारों ने हाल ही में साहित्यिक पृष्ठ बन्द कर दिए। इस दृष्टि से हिन्दी के समाचार पत्रों में सूखा नजर आता है। हालांकि ई पत्रिकाओं के अलावा कुछ वेब ब्लाॅग भी काफी सक्रिय हैं, यह भी सुखद है।
दीपक मंजुल ने अपनी जड़ों का महत्व समझ लिया है। कवि को पता है कि अपने समाज, अपने परिवेश और अपने गांव के बिना बात अधूरी लगेगी-
दिल्ली में न छत, न छांव
मन करता है
भाग जाऊं गांव।
वर्तमान साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि हमारी पत्रिकाओं में किस तरह का साहित्य छप रहा है। लेकिन चुनौती यही है कि आज की तारीख में पढ़ने की आदत लगभग जाती रही, तो पाठक जो पत्रिकाओं की आलोचना करने का दम रखते थे, वो कम ही बचे हैं। लेखक स्वयं के लिखे को छोड़ औरों का पढ़ते नहीं। यहां तक कि बड़े बड़े सम्पादक भी एक दूसरे की पत्रिकाओं से बराबर दूरी बनाए रखने में अपना बड़प्पन समझते हैं। हमारे आसपास ऐसे कवि हैं जो अच्छा लिख रहे हैं, पर छपे नहीं कहीं या उदासीन रहे। बड़े लेखक नए लेकिन बेहतरीन लिखने वालों के प्रति एक पंक्ति नहीं कहते। उन्हें लगता है कि उनका एक ब्रह्मवाक्य कहीं इन्हें स्थापित न कर दे। यही सोच उन बड़े लेखकों को छोटा बना देती है। दीपक मंजुल ने हर विषय पर कविता लिखी है, प्रेम पर भी-
हम क्यों किसी से
करने लग जाते हैं प्रेम
यह जानते हुए
कि हमें आहत होना है?
दीपक की एक और प्रेम कविता पढ़ने से पता चलता है कि कवि का हृदय कितना कोमल है। प्रेम कविता को अधिकतर कवि अश्लील और दैहिक बना डालते हैं-
शाम का धुंधलका है
और मौसम नम सा है
ऐसे में मन की मिट्टी में
कविता सा कुछ कुलबुला रहा है।
आओ हे प्रिय, बैठो संग संग
न तुम बोलो, न मैं कुछ बोलूं
देखो अपलक मेरी ओर और मैं तुम्हें।
मौन के इन्हीं पलों में
सृजित होती है कदाचित
दुनिया की सर्वोत्तम प्रेम कविता।
कवि की एक कविता की ये पंक्तियां पढ़ें जो कि मां के लिए लिखी हैं और देखें कि कैसे मांएं त्याग और बलिदान की मिसाल होती हैं-
लेकिन मेरी माँ इस घर में
सबसे कम जगह घेरती है
एक चौकी भर जगह ही घेरती है
मेरी माँ बहुत कम खाती है
बहुत कम बोलती है
कम देखती है
कम ही सुनती है
हरदम जाने क्या क्या मन ही मन गुनती है
मेरी माँ घर में
सबसे कम जगह घेरती है।
दीपक का कविता संसार अपने सीमित क्षेत्र में ही बसा है। कवि कल्पनाओं में उड़ान नहीं भरता, इसलिए काल्पनिक रचनाओं का सृजन नहीं करता। वह अपनी मिट्टी से जुड़े रहता है। उसे पता है कि यदि एक बार अपनी जड़ों से कट जाए तो फिर उसका कोई भविष्य नहीं-
कटी पतंगों का केवल वर्तमान होता है
क्षणिक वर्तमान।
कटी पतंगों का कोई भविष्य नहीं होता
न ही आंसू बहाने वाली दो आंखें।
कवि अपनी मिट्टी की खुश्बू जानता है, वो यह भी चाहता है कि उसकी पहचान पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहे। इसके लिए अहम त्यागना पड़ता है, बलिदान देना पड़ता है आने वाली पीढ़ी के लिए, उस का मार्गदर्शन करके जीवन के सही मार्ग पर लाकर उसका हाथ थामे रखना पड़ता है। तभी कविता की नई पीढ़ी तैयार होगी और फिर कवि उसके नाम से जाना जाएगा-
मोहल्ले में अब मैं
अपने बेटे के नाम से
जाना जाने लगा हूँ।
पड़ोस का किरानेवाला
मेरा उधार खाता
मेरे बेटे के नाम से लिखता है।
दीपक मंजुल की कविताएं साधरण भाषा, शिल्प और शैली में लिखी गई सुंदर रचनाएं हैं। ये कविताएं बहुतों की कविताओं से कहीं बेहतर हैं और कवि में आने वाले समय में कुछ और बेहतर रचने की तमाम सम्भावनाएं हैं। काश! बड़े कवि अपनी कविताएं बार बार पढ़ते ! 90% स्थापित व पुरस्कृत बड़े कवियों की छपी हुई 90% कविताएं औसत या औसत से भी नीचे हैं। यदि ये कवि अपनी कविताओं को दोबारा पढ़ेंगे तो इन्हें स्वयं आत्मग्लानि होगी और अपनी ऐसी ख़राब रचनाओं को स्वयं ख़ारिज करेंगे। यही काम स्वर्गीय केदारनाथ सिंह ने भी किया। वो तो एक कदम और आगे बढ़े और कहा कि उनकी केवल बनारस कविता ही बेहतरीन है, बाकी तो कुछ पंक्तियों को छोड़कर सब व्यर्थ है।
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परखः दस को नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/2012-2014-1990.html?m=1
वहां तट तो था पर नदी न थी!
गणेश गनी
गणेश गनी |
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि न तो साहसी, निडर, बेबाक और ईमानदार आलोचक बचे हैं और न ही धैर्यवान और सच्ची आलोचना सहने वाले कवि कहीं दिखते हैं। जो इक्का दुक्का हैं भी तो उनका रचनाकार भी पता नहीं कब तक बच पाएगा! पुस्तक समीक्षा और कठोर आलोचना से रचनाकार लाभान्वित होता है। उसे अपनी रचनाओं के लिए नई जमीन तलाशने का अवसर मिलता है। जो बढ़िया रचना नहीं लिख सकता, वह बढ़िया आलोचना भी नहीं लिख सकता। साहित्यिक आलोचना के लिए जरूरी है- रचना के मर्म की पहचान। रचना की संवेदना, भाषा-शिल्प, अंतर्वस्तु, बिम्ब, शैली आदि से एक रचना को कसौटी पर कसा जा सकता है। आज जब हम लोग पत्र पत्रिकाओं में प्रशस्तिगान पढ़ते हैं तो लगता है कि उस कवि की कविता भी पढ़ी जाए। लेकिन जब कविता के पास जाते हैं तो कविता के नाम पर मात्र शब्दों के ढेर होते हैं, कविता कहीं दूर दूर तक नहीं होती। कवि दीपक मंजुल की ये पंक्तियां इस बात को खूबसूरत अंदाज़ में बयां करती हैं-
नदी से बतियाने निकला था
लेकिन तट पर पहुंचा जब मैं
तो हैरान रह गया
वहां तट तो था, नदी थी ही नहीं।
कुछ कवि ऐसे भी हैं जिनका नोटिस नहीं लिया गया। ऐसे में दीपक मंजुल की कविताएं पढ़ना सुखद है। आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में हजारों की तदाद में रचनाएं आ रही हैं। अब सोशल मीडिया में भी साहित्यिक रचनाएं लगातार आ रही हैं। लेखक अब किसी भी संपादक, प्रकाशक, पत्र-पत्रिका आदि का मोहताज नहीं रहा। उसके पास सोशल मीडिया जैसा सशक्त मंच है।
सवाल यह भी उठता है कि वर्तमान समय में लिखी जा रही कविताएं स्तरीय हैं, क्या उनकी पड़ताल हो भी रही है या नहीं। क्योंकि जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसकी महत्ता और औचित्य का निरीक्षण करना भी आवश्यक है तथा मूल्यांकन और समीक्षा होना जरूरी है। दीपक ने कुछ कविताओं को बड़ी मेहनत से लिखा है-
गली कूचों में चुनती थी जो
अल्हड़ नवयुवती लोहे की कीलें
और अगड़ बगड़ लौह वस्तुएं
डॉक्टरी जांच में यह रपट आई थी
उसके बारे में-
युवती की देह में लोहा बहुत कम है।
यह सच है कि हिंदी में कविता और आलोचना दो विधाओं की सर्वाधिक दुर्गति हुई है। कवि प्रकाशक और आलोचक के चक्कर काटता रहता है। पुस्तक समीक्षा तथा कविता लिखने व छपवाने का एक जुगाड़तन्त्र चल रहा है। पत्र-पत्रिकाओं के संपादक अपने अपने किले तैयार कर रहे है। हिंदी साहित्य के विद्वान भी मानते हैं कि आलोचना व समीक्षा अब सीखने-सिखाने के लिए नहीं, बल्कि किसी को उठाने-गिराने के लिए की जाती है। कहा जा सकता है कि पुस्तक समीक्षा अब शायद ही कोई पढ़ता है, सिवाय उनके जो लिखते हैं और जिन पर लिखा जाता है। कवि दीपक मंजुल ने सही कहा है-
ये सारी कवायदें क्यों
जबकि सीधे सरल रास्तों से भी
गुजर सकती है जिंदगी।
फिर भी निराशा के इस दौर में जब कहीं किसी छोटी जगह से कोई राजू मस्ताना निकल कर आता है और मासूमियत से कहता है कि वो साहित्य की किताब इस लिए पढ़ना चाहता है क्योंकि उसे समीक्षाएं अच्छी लगती हैं, तो एक उम्मीद की किरण नज़र आती है। यह बात इसलिए भी उम्मीद जगाती है क्योंकि राजू कोई साहित्यकार नहीं बल्कि रोज़ी रोटी के लिए एक ऑटो रिक्शा चलाता है। यह बात भी सब जानते हैं कि ले देकर किताबें छापी जा रही हैं। ऐसे में क्या लिखा गया है, क्यों लिखा गया है, कैसे लिखा गया है, किसके लिए लिखा गया है आदि पर न तो कोई सोचता है और न ही कोई इसकी जांच करने वाला है। दीपक मंजुल की कुछ कविताओं पर आलोचकों की नज़र जाना आवश्यक है। कवि अपने आसपास के परिवेश तथा जीवन के संघर्ष को अपनी रचना में उकेरता है तो लगता है कि ईमानदारी अभी ज़िन्दा है-
बाज़ार-
जो पहले बाज़ार में था
अब अनचाहा मेहमान बनकर
पसरा बैठा है हमारे घरों में
घुसते घुसते हमारी अस्थि मांस मज़्ज़ा तक में
घुस आया है बाज़ार
हमारे दिलों में आसन जमा दिमाग को भी जकड़ बैठा है।
आज लेखक इंतजार नहीं करना चाहता, बस छप जाना चाहता है। जिस आनन-फानन में छपता है उसी जल्दबाजी में पुस्तक लोकार्पण कराना भी चाहता है। किताब व रचना का मूल्यांकन कौन करेगा, यहां भी बड़ा झोल है। अपने परिचितों से समीक्षा करा कर किसी पत्रिका में भेज देना भी उसका लक्ष्य होता है। अब ऐसी रचनाएँ जो चलते फिरते लिखी गई हों या कार्यक्रम में आती बार बस में लिखी गई हों या कार्यक्रम में अपनी बारी का इंतज़ार करते करते ही टिका दी गई हो तो फिर उन पर क्या लिखा जा सकता है। ऐसी साहित्यिक दुनिया में ईमानदारी नहीं चलती। दीपक मंजुल सही कह रहे हैं-
दिल्ली में न गांव, न गंगा
मन करता है
भाग जाऊं दरभंगा।
दिल्ली में यमुना
यमुना न चंगा
मन करता है
भाग जाऊं दरभंगा।
जब साहित्य काम का नहीं रहता तो समाचार पत्रों में बहुत तेजी से साहित्यिक पन्ने सिमटते चले जाते हैं। कुछ अख़बारों ने हाल ही में साहित्यिक पृष्ठ बन्द कर दिए। इस दृष्टि से हिन्दी के समाचार पत्रों में सूखा नजर आता है। हालांकि ई पत्रिकाओं के अलावा कुछ वेब ब्लाॅग भी काफी सक्रिय हैं, यह भी सुखद है।
दीपक मंजुल ने अपनी जड़ों का महत्व समझ लिया है। कवि को पता है कि अपने समाज, अपने परिवेश और अपने गांव के बिना बात अधूरी लगेगी-
दिल्ली में न छत, न छांव
मन करता है
भाग जाऊं गांव।
वर्तमान साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि हमारी पत्रिकाओं में किस तरह का साहित्य छप रहा है। लेकिन चुनौती यही है कि आज की तारीख में पढ़ने की आदत लगभग जाती रही, तो पाठक जो पत्रिकाओं की आलोचना करने का दम रखते थे, वो कम ही बचे हैं। लेखक स्वयं के लिखे को छोड़ औरों का पढ़ते नहीं। यहां तक कि बड़े बड़े सम्पादक भी एक दूसरे की पत्रिकाओं से बराबर दूरी बनाए रखने में अपना बड़प्पन समझते हैं। हमारे आसपास ऐसे कवि हैं जो अच्छा लिख रहे हैं, पर छपे नहीं कहीं या उदासीन रहे। बड़े लेखक नए लेकिन बेहतरीन लिखने वालों के प्रति एक पंक्ति नहीं कहते। उन्हें लगता है कि उनका एक ब्रह्मवाक्य कहीं इन्हें स्थापित न कर दे। यही सोच उन बड़े लेखकों को छोटा बना देती है। दीपक मंजुल ने हर विषय पर कविता लिखी है, प्रेम पर भी-
हम क्यों किसी से
करने लग जाते हैं प्रेम
यह जानते हुए
कि हमें आहत होना है?
दीपक की एक और प्रेम कविता पढ़ने से पता चलता है कि कवि का हृदय कितना कोमल है। प्रेम कविता को अधिकतर कवि अश्लील और दैहिक बना डालते हैं-
शाम का धुंधलका है
और मौसम नम सा है
ऐसे में मन की मिट्टी में
कविता सा कुछ कुलबुला रहा है।
आओ हे प्रिय, बैठो संग संग
न तुम बोलो, न मैं कुछ बोलूं
देखो अपलक मेरी ओर और मैं तुम्हें।
मौन के इन्हीं पलों में
सृजित होती है कदाचित
दुनिया की सर्वोत्तम प्रेम कविता।
कवि की एक कविता की ये पंक्तियां पढ़ें जो कि मां के लिए लिखी हैं और देखें कि कैसे मांएं त्याग और बलिदान की मिसाल होती हैं-
लेकिन मेरी माँ इस घर में
सबसे कम जगह घेरती है
एक चौकी भर जगह ही घेरती है
मेरी माँ बहुत कम खाती है
बहुत कम बोलती है
कम देखती है
कम ही सुनती है
हरदम जाने क्या क्या मन ही मन गुनती है
मेरी माँ घर में
सबसे कम जगह घेरती है।
दीपक का कविता संसार अपने सीमित क्षेत्र में ही बसा है। कवि कल्पनाओं में उड़ान नहीं भरता, इसलिए काल्पनिक रचनाओं का सृजन नहीं करता। वह अपनी मिट्टी से जुड़े रहता है। उसे पता है कि यदि एक बार अपनी जड़ों से कट जाए तो फिर उसका कोई भविष्य नहीं-
कटी पतंगों का केवल वर्तमान होता है
क्षणिक वर्तमान।
कटी पतंगों का कोई भविष्य नहीं होता
न ही आंसू बहाने वाली दो आंखें।
कवि अपनी मिट्टी की खुश्बू जानता है, वो यह भी चाहता है कि उसकी पहचान पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहे। इसके लिए अहम त्यागना पड़ता है, बलिदान देना पड़ता है आने वाली पीढ़ी के लिए, उस का मार्गदर्शन करके जीवन के सही मार्ग पर लाकर उसका हाथ थामे रखना पड़ता है। तभी कविता की नई पीढ़ी तैयार होगी और फिर कवि उसके नाम से जाना जाएगा-
मोहल्ले में अब मैं
अपने बेटे के नाम से
जाना जाने लगा हूँ।
पड़ोस का किरानेवाला
मेरा उधार खाता
मेरे बेटे के नाम से लिखता है।
दीपक मंजुल |
दीपक मंजुल की कविताएं साधरण भाषा, शिल्प और शैली में लिखी गई सुंदर रचनाएं हैं। ये कविताएं बहुतों की कविताओं से कहीं बेहतर हैं और कवि में आने वाले समय में कुछ और बेहतर रचने की तमाम सम्भावनाएं हैं। काश! बड़े कवि अपनी कविताएं बार बार पढ़ते ! 90% स्थापित व पुरस्कृत बड़े कवियों की छपी हुई 90% कविताएं औसत या औसत से भी नीचे हैं। यदि ये कवि अपनी कविताओं को दोबारा पढ़ेंगे तो इन्हें स्वयं आत्मग्लानि होगी और अपनी ऐसी ख़राब रचनाओं को स्वयं ख़ारिज करेंगे। यही काम स्वर्गीय केदारनाथ सिंह ने भी किया। वो तो एक कदम और आगे बढ़े और कहा कि उनकी केवल बनारस कविता ही बेहतरीन है, बाकी तो कुछ पंक्तियों को छोड़कर सब व्यर्थ है।
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कविताएँ तो अच्छी हैंं ही,आलोचना की शैली अधिक प्रभावशाली है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा सार्थक लेख और दीपक मंजुल जी से परिचय। हार्दिक आभार🙏🙏
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