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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 अगस्त, 2018

उपन्यास अंश: 


यह अच्छी बात है कि इधर युवा रचनाकार उपन्यास लेखन कर रहे हैं। उपन्यास पढ़ने और लिखने के लिए एक इत्मीनान की ज़रूरत होती है। धैर्य की ज़रूरत होती है, जो इधर कुछ बरसों से कम होता गया है। अभी युवा रचनाकार साथियों के उपन्यास देख लग रहा है कि धैर्य लौट रहा है। यहां प्रस्तुत है विनोद विश्वकर्मा के उपन्यास- ठहरा हुआ देश का अंश

ठहरा हुआ देश

विनोद विश्वकर्मा

 बिसाखू काकू पागल नहीं हुए हैं, सदमा लगा है इनको......हाँ भई ज़माना है, समय है, जब जिसका लौटता है........!!!!
       
विनोद विश्वकर्मा

बिसाखूलाल इन दिनों लंगड़ा के चलता था ।
कोई पूछे कि क्या यह जन्म से ही ऐसा था । तो उत्तर ‘न’ में मिलेगा ।

बात आज से करीब पांच-छह महीने पहले की होगी । उस रात बिसाखू आराम से सो रहा था.सुबह ही उसकी झोपड़ी  पर कुछ लोगों ने आवाज दी ।
“सुन रे बिसखुआ सरपंच जी का भैंसा मर गया है, जा ले जा उसको गाँव बाहर ले जा ।”
बिसाखू कहना चाहता था – “अब मैं यह काम नहीं करता हूँ,किसी और से करवा लो ।” पर कह नहीं पाया.मन का लोभी था । कभी-कभार सरपंच के यहाँ चला जाता था, और उनके सामने दास की तरह बैठकर,बचे कुचे दो चार पैग ले लेता था । बस इतने की ही यारी थी उसकी और कुछ नहीं । कभी कोई कर्जा नहीं लिया था वह सरपंच से ।
    सरपंच का भैंसा क्षेत्र प्रसिद्ध था । उससे उनकी सालाना सात-आठ लाख की आमदनी हो जाती थी लेकिन कुछ दिनों से वह बीमार रहने लगा था, उसकी बहुत दवा कराई गई लेकिन वह बच नहीं पाया । लोग कहते थे कि अगर यह ठण्ड वह बच गया तो वह बच जायेगा लेकिन नवम्बर के मध्य वह मर गया, ठण्ड के दिन थे ।
    लोग बिसाखू को तो कह कर चले गए लेकिन वह चार घंटे तक जा नहीं पाया । कुछ देर बाद सरपंच तनतनाता हुआ आया ।
   “करे बिसखुआ,भाव बढ़ गए हैं तेरे आया क्यों नहीं ।” सरपंच गुस्सा था ।
बिसाखू ने कुछ हिमम्त जुटाते हुए कहा -“मालिक उमर  हो गई है मेरी,मेरे तो हाथ कांपते हैं, चमरौड़ी में अब यह काम कोई नहीं करता है, तिनसुखिया करता था पर वह भी नहीं है, मुझ से हो नहीं पायेगा ।”
   सरपंच जानते थे कि बिसाखू किस तरह मानेगा । बोले -“अरे बिसाखू कभी-कभार तो तू भी कर लेता था । लेकिन आज मना कर रहा है, बुढ़ा गया तो क्या हुआ....हुनर तो नहीं भूला ....चल यह काम कर दे........अंगरेजी वाली रम की व्यवस्था कर दूंगा, दो हजार रुपये भी ले लेना ।”
बिसाखू अपना सर खुजला रहा था । बोला -“वह तो ठीक है मलिकार लेकिन उतना बड़ा भैसा मैं उठाकर ले कैसे जाऊँगा गाँव बाहर, मेरे तो चलते हुए भी पैर कांपते हैं, बूढ़ा जो हो गया हूँ ।”
   सरपंच सबकुछ पहले से ही सोच कर आया था.बोला -“कुछ नहीं तू बस मेरे साथ चल, मैं मजदूरों से कहकर उसे ट्रेक्टर की टाली में लदवाकर गाँव बाहर करवा दूंगा । तू वहीँ पर अपना काम कर लेना और खाल मुझे दे देना बस ।”
     असल में सरपंच ने भैसे पर खर्च तो बहुत किया था पर भैसा बच नहीं पाया था.उनका कोई मित्र कह रहा था कि खाल के पांच हजार रुपये दिलवा देगा, इलाहाबाद की किसी फैक्ट्री में मांग है, वहां से माल कानपुर चला जायेगा ।इसलिए उन्होंने सोचा की लगे हांथ जो मिलता है उसे ही निकाल लूँ । इस कारण वह बिसाखू से यह काम करवाना चाहते थे ।गाँव में यह काम अब हरिजन बस्ती के दो चार लोग ही करते थे । बिसाखू उनमें से एक था । अन्य या तो गाँव में थे ही नहीं या बहुत चतुर थे । कोई भी इनको खाल न देता । थोड़ी समझाइस के बाद बिसाखू मान गया था ।
     और फिर वही हुआ जो तय हुआ था । ठण्ड के दिन थे कांपते हाथों से बिसाखू ने खाल निकाल दी । और जैसा कि सरपंच ने कहा था उस व्यक्ति को दे दी । और उससे दो हजार रुपये ले लिए ।
     पहले तो बिसाखू ने मना कर दिया था । लेकिन अब पैसा और विदेशी रम मिल जाने से बहुत खुश था । और सरपंच को दुआ दे रहा था । गाँव के सभी लोग उसको यह काम करने से मना करते थे । लेकिन वह चोरी छुपे बेटे के न होने पर यह काम कर ही लेता था । लोग यह कहते कि बेटा अब तो सरकारी नौकरी में है तू फिर भी यह काम करता है, तो कह देता कि थोड़ी आमदनी ही हो जाती है । पर सही बात यह थी की वह बिज्जू से जलता था । और फिर दारू की लत थी जो - जो न करवा दे । जब वह यह काम करता था तो नशे में धुत रहता था । तभी कर पाता था । सामान्य अवस्था में यह काम हो भी नहीं सकता था ।
     शाम के चार बज चुके थे । वह नदी से नहाकर आ रहा था । और उसने देखा कि गाँव के शिव मंदिर में आज बहुत भीड़ है । उसने सोचा कि थोड़ा बहुत प्रसाद में कुछ खाने को मिल जायेगा.वह उसी ओर चल पड़ा था ।
     काकादीन सरपंच के बड़े बेटे का पहला लड़का हुआ था । अर्थात सरपंच बाबा बना था । मंदिर में अभी उन्हीं के घर की महिलाओं का समूह था । बिसाखू को कुछ दारू का नशा था । वह दनदनाता हुआ मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ गया, सात-आठ सीढ़ियाँ थीं चढ़ते-चढ़ते हाफ गया और सरपंचाइन को देखकर कुछ मांगने लगा - “बस कुछ खाने का प्रसाद दई देई भगेसर भगवान् तोहार भला करिहीं ....!” इस प्रक्रिया में वह ध्यान नहीं दे पाया उसका एक  हाथ सरपंचाइन के बाएँ कंधे से ‘छू’ गया ।
   पूजा चल रही थी सरपंचाइन नाराज हो गई । गुस्से में बोली  - “मंदिर में क्यों आया ....अपवित्र कर दिया । पूजा भंग कर दिया । नीच कहीं का भाग यहाँ से । अब मुझे कपड़ा बदलना पड़ेगा .....!!!” आदि - आदि....कहते हुए उन्होंने अपने छोटे देवर को आवाज दी ... - “ ‘कुशल डी’ कहाँ हो इसने तो धर्म ही भ्रष्ट कर दिया...दारूखोर कहीं का, मुँह से दारू  की बस आ रही है और यह मंदिर में चला आया....!”

      कुशल डी मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था । उसने देखा और बिसाखू को धक्का दे दिया । बिसाखू मंदिर के नीचे जा गिरा । बूढ़ा शरीर था गिरने के बाद कराहने लगा । कुशल डी नीचे उतरकर उसे लातों से मारने लगा । उसके दो-चार साथी और आ गए और वह भी बिसाखू को मारने लगे । एक ने तेज से मार दिया और बिसाखू के बाएं पैर की हड्डी टूट गई । सरपंच यह सब देख रहे थे । नाराज तो वह भी हुए थे लेकिन बोले कुछ नहीं थे । उन्होंने जोर की डपट लगाई –“डी अब क्या उसकी जान ही ले लेगा.छोड़ दे उसे नहीं तो मर जायेगा । करीब अस्सी की उमर का बूढ़ा है ।”
   बेचारा बिसाखू मंदिर के पीछे पड़ा रहा और चीखता रहा । उधर सरपंचाइन घर जाकर अपना कपड़ा  बदल आई । और मन्त्रों का उच्चारण फिर शुरू हुआ । इधर, मन्त्र उधर बिसाखू की चीख दोनों ही चलते रहे साथ-साथ, इधर मन्त्र धीमें पड़े और उधर बिसाखू की चीख । अर्थात बिसाखू बेहोश हो गया । किसी ने ध्यान नहीं दिया बिसाखू बेहोश पड़ा रहा । इस वर्ष ठण्ड कुछ कम पड़ रही थी लेकिन नवम्बर का मध्य था । बिसाखू आधी रात तक अकड़ गया । घर में कोई और नहीं था । सिसिया किसी काम से भाई के पास दिल्ली चली गई थी, पत्नी थी छोटकई । वह उसके पास आई बोल नहीं पाती थी, वह भी हल्का लंगड़ा कर चलती थी ‘गों-गों’ करती रही पर उसका साथ देने कोई नहीं आया । इत्तिफाक ऐसा था कि जो साथ दे सकते थे वे उस दिन गाँव में ही नहीं थे । दूसरी बात यह भी थी कि सभी बिसाखू से घृणा करते थे कि पशुओं की खाल निकालने का धंधा क्यों करता है,वह सब सोच रहे थे कि मर जाए तो टंटा हटे.बिसाखू के बचने की उम्मीद इसलिए बढ़ गई थी कि उसका मुँह बोला बेटा अगली सुबह दिल्ली से आ गया था । हालाँकि उसे किसी ने इस बात की सूचना नहीं दी थी वह अपनें आप ही आया था । और इत्तिफाक से बिसाखू की जान बच गई थी । लेकिन इस घटना ने बिसाखू को लंगड़ा बना दिया था । उसका वह पैर काम नहीं करता था ।
   इस घटना से बिसाखू लाल का मन बहुत दुखी हुआ था । उसे बहुत आशा थी कि काकादीन उसके पक्ष में कुछ बोलेगा । अब वह किसी अपने के गले लगकर रोना चाहता था और वही हुआ ।
   विजयकुमार कहने को तो उसका बेटा था बस कहने भर को । लेकिन बिसाखू लाल ने विजय को हमेशा ही घृणा की नजर से ही देखा था । यही कारण था कि विजय की किसी भी बात को वह नहीं मानता था । पर आज उसे सच का पता चला था कि बात कोई भी हो विजय ही उसका अपना है, छोटकई ही उसकी अपनी है गाँव में उसका और कोई नहीं है, आज वह हास्पिटल में रोते हुए विजय के पैरों में गिर पड़ा । उसके मुख से आवाज निकल रही थी – “बेटबा गलती हो गई मैं पूरे गाँव को अपना मानता रहा लेकिन तू ही अपना निकला । वह काकादीन तो मीठी छूरी निकला, जब तक अपना काम था तो ‘दादा बिसाखू लाल’ और काम निकलते ही मैं ‘बिसखुआ’ हो गया.उसका भाई मुझे मारता रहा लेकिन उ एकउ शब्द नहीं बोला,पूरा का पूरा करिया नाग निकला । अरे मंदिर का ओके बाप का है मंदिर तो पूरे गाँव का है, अउर देउता सभी के हैं, लेकिन मंदिर अउर देउता दोनों में अपना हक़ जमाए बइठा है;का मजाल जो हम लोग मंदिर के अन्दर जाई पाई ......!”
     बिसाखू कुछ और कहना चाहता था लेकिन शब्द ही नहीं निकल पाए.विजय ने उसके झुकते ही उसे अपने गले से लगा लिया था । और उसे बेड पर बिठा दिया था । विजय के मन में भी कहने को बहुत कुछ था पर वह कहना नहीं चाहता था । पिछले दिनों उसने क्या चोट खाई है और बड़ी मुश्किल से उसकी तबियत ठीक हुई है । वह लड़ना चाहता था और इसके लिए न्यायिक स्तर पर प्रयास भी कर रहा था । वह इस कारण दुखी था कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया की चाल बहुत धीमी है । उमर बीत जाती है लेकिन न्याय नहीं मिलता । बिसाखू को रोते हुए देखकर अस्पताल के कई अन्य लोग भी जुट आये थे ।
    इस घटना की रिपोर्ट स्थानीय थाने में लिखा दी गई थी, बिसाखू धीरे-धीरे ठीक हो रहा था । लेकिन कुशल डी के आस - पास किसी तरह की कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं गुजरी थी । वह पूरे गाँव में उसी तरह घूमता और गाँव में बिसाखू को सरेराह गाली देता था.कहता था - “उमर बीतने वाली है लेकिन अभी सहूर नहीं आया,कब किससे मिलना है इसकी भी समझ नहीं है ।”
  मंदिर से बिसाखू का गहरा और पुराना रिश्ता था, उसने इस जगह को तब देखा था जब यह मंदिर नहीं था, इसके आस-पास पेड़ पंछी और जानवर भी गुजर जाते थे, साथ ही मंदिर बनते समय ईटें, गारे और अन्य सामग्री उठाने और बाकी के कामों को किया था । यह कहें उसने भी अपनी भूमिका इस मंदिर के निर्माण में निभाई थी, अब वह देखता कि जिस मंदिर को बनाने में उसने अपना सहयोग दिया था उसी में उसे अब जाने नहीं दिया जाता था, मंदिर के आस पास अब ज्यादा पेड़ तो नहीं रह गए थे लेकिन उसके बगल में एक पीपल का पेड़ था । जिसमें गौरैया, गिलहरी, फुद्कोइली, कोयल और कौआ आदि यदा - कदा दिखाई दे जाते थे । वह इसी पेड़ के नीचे कुछ दूरी पर खड़ा था । और एक गिलहरी को ऊपर - नीचे चढ़ते -उतरते देख रहा था । उसकी निगाह उसी पर टिकी थी । उसे बचपन के दिन याद आ रहे थे जब नदी का पानी यहाँ तक आ जाता तो उसी पीपल के पेड़ पर बिसाखू और अन्य लड़के गिलहरी की तरह पेड़ पर चढ़ते-उतरते थे ।
  वह वहीँ खड़ा रोने लगा था । रोते-रोते उसकी आवाज इतनी तेज हो गई थी कि लोग जुट आये । कुछ ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी कि बिसखुआ रविदास पगला गया है । इसका कारण यह था कि वह पास पड़े हुए पत्थरों को उठाकर इकठ्ठा कर एक मंदिर नुमा आकृति बनाता और उसमे एक छोटा सा पत्थर बीच में रखता, ऐसा करने से यह लगता कि वह अपना नया मंदिर बना रहा है, फिर उसे स्वयं ही गिरा देता, जैसे कि मंदिर मन का बना ही न हो । उस दिन शाम घिर आई थी.ठण्ड कुछ कम हो गई थी । आसमान साफ़ था । सूरज के डूबने में अभी कुछ समय था ।
 वहीँ खड़ा एक व्यक्ति कह रहा था ।
   “बिसाखू काकू पागल नहीं हुए हैं, सदमा लगा है इनको,कबहूँ सोचा भी नहीं होगा कि इस मंदिर में ही उनका पैर टूटेगा । लेकिन जबसे काकादीन ने इस मंदिर को सुधरवा दिया । बढ़िया मंदिर बनवा दिया तबसे ऐसा लगता है कि  उनके परिवार का पुस्तैनी मंदिर हो गया है यह । वह मंदिर जो कभी गाँव में सामाजिक सौहार्द भाईचारा बनाता था अब इन लोगों ने एकाधिकार कर लिया है उसमें......बिसाखू का दर्द है इस समय जो इनकी आँखों से बह रहा है ।”
“हाँ भई ज़माना है, समय है, जब जिसका लौटता है तब उसी की चलती है ।”
“सही कहा तुमने तिनसिखुआ नहीं त लड़िका के सरकारी नौकरी मा रहते का ई काम करने जाते,इनको मानता है, जानता है, खर्चा पानी भी देता है, लेकिन नहीं जो करमें म लिखा है ओका त  भोगै क परी ।”
“बिसाखू काकू रोबा न, चला घर छोड़के आइत हमन तोंहका....ई समय का दोहाई दे...हमारौ पचेन के समय लौटी...चला.....देखे ...लगवाए न......”
और फिर बिसाखू चल पड़ा धीरे-धीरे । उसके घर पहूँचने से पहले उसके यह सब करने की खबर विजय कुमार तक पहुँच गई थी । विजयकुमार उदास मुद्रा में बैठे थे । उन्हें भी इस दर्द का कोई स्थाई ईलाज चाहिए था । इस तरह की यह पहली घटना न थी जो गाँव में घटी थी । कुशल डी ने न जाने कितनों को भगाया था मंदिर से । कहता था - “तुम लोग गंदे हो, तुम गन्दा काम करते हो, तुम कौन सी पूजा पाठ करते हो जो तुम्हें मंदिर में आना चाहिए ।”
  उसको कौन कहता कि - “तुम काहे को जाते हो मंदिर में जो शाम होते ही न जाने कौन-कौन सी दारू पीते हो ...कौन - कौन के घर मुँह मारते हो और अँधेरे में सब छिपा लेते हो....कहने भर को पवित्र बने रहते हो ।” लेकिन कोई क्या करे, राजा को अपने घर में ही गाली देने का सुख मिलता है, बाहर  नहीं, बाहर वह टेटुआ दबा देगा । इसीलिए उसे कोई कुछ नहीं कहता है । छिनरा और छुट्टा सांड का रास्ता कौन  रोकता है ।
     किले के बगल से शिव मंदिर के उत्तर में नदी के किनारे कुछ दिनों पहले विजयकुमार ने दो  बीघा जमीन खरीदी थी । उसी में कुछ फल सब्जी लगाते थे और किसी के यहाँ फ़ालतू जाने और बात - चीत करने से अच्छा था उसमें और अपने ‘लोक-आवास’ में लोगों से मिलकर रहना, लोगों की सेवा करना । वह उसी में व्यस्त रहते थे ।
 माघ का महीना ठंडी चढ़ रही थी और बिसाखू कई महीनो से शांत थे अब उनके मन में कोई विचार चढ़ रहा था । विजय की ओर मुखातिब होकर बिसाखू ने कहा – “बिज्जू एगो बात कहनी थी बिटवा । ”
इन कुछ महीनों में इन दोनो जनो के बीच प्रगाढ़ता बढ़ गई थी ।
बिज्जू काम में लगे थे टमाटर गोड़िया रहे थे.उन्होंने कहा – “जी कहिये.”
“देखो मना मत करना ।”
“बात कहेंगे तब मुझे पता चलेगी...और उसके बाद पता चलेगा मुझे कि  मैं वह कार्य कर पाऊंगा कि नहीं । पहले आप बोलिए तो सही ।”
बिसाखू अन्दर ही अन्दर किसी विचार के उबाल से परेशान था । वह कोई बात कहने से पहले कोई भूमिका बनाना चाहता था । क्योंकि वह अपनी बात कह नहीं पा रहा था ।
“अच्छा ये बताओ कि सिसिया दिल्ली मा का कर रही है, तुम अपनी नौकरी कब ज्वाइन कर रहे हो....उ का कहते हैं एल डबलू पी की छुट्टी  कब तक की  ली है ।”
  “सिसिया दिल्ली में आई. पी. एस. की तैयारी के लिए कह रही थी, वह वही करती है और वहां विनी के घर में रहती है, विनी बता रही थी कि उसकी पढ़ाई ठीक चल रही है । मैंने अभी यूनिवर्सिटी में छुट्टी बढ़ाने की बात नहीं की है, सुजाता बता रही थी कि कोई दिक्कत नहीं होगी.आप अपनी बात करिए तो सही ।”
“तो का यूनिवर्सिटी मा तुम्हारे जगह कोई और पढ़ाता  है ।”
“मैंने कहा न कोई बात नहीं है मेरी नौकरी सुरक्षित है । आप अपनी बात कहिये ।”
“देख्यो बिज्जू मेरी बात के लिए मना मत करना मय  तोहरे इन दिनन के प्यार के कारन ही कहि रहा हूँ ।”
“ हाँ ठीक है,कहिए तो सही ।”
“हम चाहित हमन तुम मेरे लिए एक मंदिर बनवा दो, और मैं उसी में रहा करूँ । उसी में पूजा किया  करूँ ”
इतना कह बिसाखू बिज्जू का मुँह देखने लगे । इन कुछ पलों में न जाने कितने विचार उनके मन में आये और गए ।
“आप तो जानते हैं कि मैं आज तक कभी भी किसी भी मंदिर नहीं गया, जब से संज्ञान हुआ, नफरत है मुझे किसी मंदिर वगैरह में जाने से, फिर आप कैसे कह रहे हैं कि मैं आप के लिए एक मंदिर बनवा दूँ, और अपना धन इस कार्य में खर्चा करूँ, मुझे ऐसी कोई आशा भी नहीं थी कि आप ऐसी कोई बात करेंगे ।आप यह बात भूल जाइए । लोक - आवास में रहा करिए और उसी में अपना मन लगाया करिए।”
 “बिटवा का कही हम तोहसे हम जानित हमन कि तू मंदिर नहीं जाते पर हम त जाई चाहित हमन,तू का हमका नहीं चहते हवा, हमरे खातिर एगो मंदिर, मंदिर बनवाई दअ....!”
“नहीं - नहीं मैं आप से नफरत नहीं करता,आपको चाहने न चाहने की बात इसमें नहीं है, इसमें बात मेरी मान्यता की है । जो काम मुझे पसंद नहीं वह मैं क्यों करूँ । पहले की कोई बात आपके दिल में हो तो आप उसे अपने दिल से निकाल दीजिये । मैं आपसे प्यार करता हूँ ।”
“ऊ त ठीकै आय बेटबा,तू जब हमका चाहत हवा ता हमरे लाने हमरी बात मान ले, तनि मरै से पाहिले हमरौ ई इच्छा पूरी होइजई ।”
  बिज्जू कुछ देर तक सोचता रहा । अपने काम में लगा रहा । बिसाखू से उसके सम्बन्ध मधुर नहीं थे फिर वह किसी के लिए अपने उसूल नहीं बदलता था । वह सोचता रहा की जिंदगी से बड़े उसूल नहीं होते । इनकी भी बात मान लेता हूँ लगभग अस्सी बरस के होने वाले हैं । इनका नाम मेरे नाम से जुड़ा  तो ही कुछ मैं कर पाया हूँ । उसने बिसाखू को पास बुलाया । ऐसे देखता रहा जैसे पहली बार देख रहा हो ।
“ठीक है बाबूजी मैं देखता हूँ,मंदिर नहीं तो कुछ और मंदिर जैसा बनाने की कोशिश करता हूँ ।”
   बचपन के कुछ दिनों को छोड़ दें तो कई वर्षों के बाद बिसाखू ने अपने लिए बाबूजी सुना था विजय के मुख से । बिसाखू भाव विभोर हो गया ।
  विज्जू कुछ देर तक सोचता रहा फिर पता नहीं क्यों उसका मन किया, जा के बिसाखू को गले से लगा लिया.दोनों ही लोग द्रवित हो गए आँखें गीली हो गईं ।


  बिसाखू का बाप कचरुआ निरंजन के यहाँ बंधुआ मजदूर था । पूरी जिनगी उसने अपने माँ - बाप को निरंजन और उसके घर वालों से गाली खाते, मार खाते देखा था । और इसी कारण उसका मन भी छोटा हो गया था । विरासत में उसे बंधुआ मजदूरी ही मिली, और मिली अपमान की एक वृहद् परम्परा । जिस दिन उसके माँ - बाप मरे बिसाखू ने ईश्वर को धन्यवाद दिया । सोचा कि चलो जलालत भरी जिंदगी से मुक्ति मिली, न उसके माँ की कोई इज्जत थी न बाप की । एक दिन उसने कुछ ऐसी हालात में निरंजन को अपनी माँ के साथ देख लिया था, और उसका विरोध कर बैठा था...निरंजन अपनी परदनी बांधते हुए अपने घर से बाहर निकले थे, घर उन्हीं का था, गोंड़ा जिसमें गाय भैंस रहते थे । विरोध में उसने निरंजन के मुँह पर ‘गोबर’ फेंक दिया था । उस समय उसकी उम्र दस या बारह बरस की रही होगी, इसके उत्तर में निरंजन ने अपने तिवारियान इलाके में उसे गोबर के घूरे पर फिकवा दिया था । दो दिन वह उसी में पड़ा रहा, निकलता तो तिवारी का लठैत फिर से उसी में डाल देता । कचरुआ रोता रहा और कहता रहा कि  मुझे छोड़ दीजिये, पर कुछ नहीं हुआ । दो दिन बाद ही उसे वहां से निकाला गया । इसके बाद वह कुछ नहीं बोलता । बस देखता रहता । वह गांधी जी का एक बन्दर हो गया, वह बुरा देखता था, कहता कुछ नहीं था ।
  कचरुआ कुछ कहता तो उस पर कर्ज का, बंधुआ होने का, गुलाम होने का, धर्मं का ऐसा पाठ  पढ़ाया जाता कि वह कुछ बोल ही नहीं पाता । निरंजन ने तो साफ़-साफ़ कह दिया था ।
“कचरुआ तेरी पत्नी मेरी रखैल है, समझे, तू इस जनम में मेरे कर्ज और मेरी बंधुआ मजदूरी से मुक्त नहीं हो सकता है, ई तोहार पूरा मोहल्ला मेरा ही बसाया हुआ है । मैं ही इसका नियंता हूँ । मेरा तिवारियान इलाका ही महत्वपूर्ण है समझे....!”
  इज्जत तो सबकी इज्जत ही होती है, छुपे में किसके यहाँ क्या नहीं होता लेकिन बाहर आने पर आत्मा का दर्द बाहर आ जाता है । इसके कुछ दिनों बाद बिसाखू की माँ नें आत्महत्या कर ली थी । कचरुआ कहीं चला गया था । फिर वह नहीं लौटा था । उसी दिन से बिसाखू ने उसे मरा हुआ मान लिया था ।
   तब देश को आजाद हुए कुछ ही समय हुआ था । उसी महीने गांधी जी की हत्या कर दी गई थी । देश में कई जगह दंगे हुए थे । देश किसी व्यापक बदलाव की ओर जा रहा था । बिसाखू भी अपने को बदलना चाहता था ।यह कोई अपराध नहीं था । लेकिन वह इसमें सफल नहीं हुआ ।
  इसी गम में बिसाखू ने दारू पीना शुरू कर दिया । बचपन से ही उसे दारू की लत लग गई । वह दिन भर दारू पी के मस्त रहता । किसी के यहाँ कोई काम नहीं करता । रास्ते चलते किसी के यहाँ जो भी भीख में मिल जाता उसे ही खा लेता । सबकी गाली सुनना, मार खाना, और रात में जा के शिव जी के पास सो जाना, तब यह मंदिर नहीं बना था, लोग शिव के रूप में एक पत्थर को शिवलिंग के नाम से बुलाते थे, और पूजा करते थे, बिसखुआ वहीँ रात बिताता, कई दिनों वह अकेला नहीं होता कुछ कुत्ते भी उसके साथ होते थे । उसके इस रवैए के कारण एक दिन निरंजन जी ने उसे बंधुआपन से मुक्त कर दिया था । अब वह मन का मालिक था । और अपनी तरह से जीता था । लोग अक्सर उसका फायदा उठा लेते थे । काम करवाते लेकिन मजदूरी नहीं देते । वह यही सब सोचते हुए बैठा था । तभी उसने सुना ।
“बाबूजी जी आपके मंदिर का आपसे ही उद्घाटन करवाऊंगा ।”
  बिसाखू उद्घाटन शब्द का अर्थ नहीं जानता था ।लेकिन समझ गया था कि यह कोई अच्छा काम है, इस कारण खुश था । अपने कुछ मित्रों से मिलने और उन्हें यह खबर सुनाने गाँव की ओर चला गया था ।
  अप्रैल के उस दिन बादल आसमान में घिर आये थे । कुछ बूंदा-बांदी भी हो रही थी । पक्षियों के झुण्ड अपने - अपने घोंसलों की ओर जा रहे थे । तेज हवा और धूल के कारण इसमें उन्हें कुछ परेशानी हो रही थी । नित्य की तरह सूरज डूब रहा था । और बिज्जू सोच रहे थे कि कैसे वह ‘बाबूजी’ को दिए गए वचन को पूरा करेंगे ।
००


'ठहरा हुआ देश', (उपन्यास)
लेखक : विनोद विश्वकर्मा,
प्रकाशक :
हिन्द युग्म, 201 बी, पॉकेट ए, मयूर विहार फ़ेस - 2, दिल्ली - 110091,
पहला संस्करण -2018,
पृष्ठ संख्या-208,
मूल्य - 150,
ISBN : 9789384419950









 परिचय-
             
जब खूब धूप हो और छाया कहीं भी नजर न आती हो तो अपनी ही छाया में ठंडी का एहसास कर ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाना ठीक समझता हूँ,जहाँ कहीं भी जीवन को जड़ बनाने की साजिशें मिलीं,उनके खिलाफ लड़ना ही मेरा काम है।गाँव की माटी में चलना सीखा है,उन्नीस सौ अस्सी में पांच जुलाई को मध्यप्रदेश के रीवा जिले की त्योंथर तहसील के एक गाँव,कोटरा खुर्द की धरती पर,महुए के फूल की तरह टपका हूँ और पलाश की तरह खिला हूँ,गुलाब की कभी चाहत नहीं रही,बबूल की तरह खड़ा हूँ और सत्य के लिए लड़ा हूँ।मनुष्य को मनुष्य मानने के अलावा कोई विचारधारा नहीं,शिक्षा - पी-एच.डी. - हिन्दी,मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग  में लोकसेवा आयोग से चयनित सहायक प्राध्यापक,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति निवास,शिमला में,सह-अध्येता।'राम का पितृ शोक',लंबी कविता,'तिरंगे के तले' 2016,(बोधि प्रकाशन,जयपुर)',ठहरा हुआ देश' 2018,(हिन्द युग्म प्रकाशन,दिल्ली)उपन्यास और 'उत्तर - आधुनिकता और लोकमंगल' आलोचना पुस्तक (लोकोदय प्रकाशन लखनऊ) लिखित  और 'हिन्दी उपन्यास और आदिवासी चिंतन:सपने संघर्ष और चुनौतियां एवं इक्कीसवीं सदी"(अनंग प्रकाशन,दिल्ली) संपादित,रचनाएँ चर्चित।
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संपर्कःईमेल:dr.vinod.vishwakarma@gmail.com,मो.:09424733246,
फेसबुक पर : www.facebook/dr.vinod.vishwakarma

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