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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 अगस्त, 2018

डायरी:

आसाम


रंजना मिश्र

यात्राएँ अक्सर मुझे खुद से परे ले जाती हैं. दिन प्रति दिन की घनीभूत कटु सच्चाइयाँ यात्राओं में विरल होने लगती हैं, कई बार हमेशा के लिए पिघल जाती हैं और उन्हीं से जन्मी नई सच्चाइयाँ मेरे भीतर आकार लेने लगती हैं.

रंजना मिश्र

लोकप्रिय गोपीनाथ बोर्दोलोइ हवाई अड्डे के ऊपर से गुवाहाटी एक सुंदर शहर नज़र आता है, दूर तक फैला हुआ, ब्रह्मपुत्र की गोद में पसरा, हरीतिमा की चादर ओढ़े. हवाई अड्डे से निकलते ही मानब मिलता है, — मानब बोर्दोलोइ. मुस्कुराता हुआ, नीचे सरकती पैंट संभलता! उसके कपड़ों और हाव भाव में एक भोलापन है, कोशिश पूरी करता है गुवाहाटी शहर के फैशन के मापदंडों पर खरा उतरने की, पर उसकी हँसी में उत्तर गुवाहाटी में बसे उसके गाँव की नमी है और उसकी आँखों में सहज ग्रामीण सरलता!

हमारे स्वागत में किसी अतिरिक्त उत्साह का प्रदर्शन नहीं करता, थोड़ी देर तक चुप रहता है, बस टॅक्सी का ऑडियो ऑन कर देता है और कोई मीठी असमिया धुन आस पास बिखरने लगती है. जल्दी ही किसी बात का जवाब देने के लिए मुंह में भरी रजनीगंधा थूकता है तो मुझे उसकी चुप्पी का राज़ समझ आता है! मानब नई पीढ़ी का असमिया युवक है,जिसने परंपरागत तामुल (पान) के बदले रजनीगंधा चुना है और इसके साथ खुश है! मानब की टॅक्सी में सरसों के तेल और मछली की महक रची बसी है, फ्रेशनर की कोई ज़रूरत नहीं, एक घरेलूपन से सराबोर है टॅक्सी.

मानब से ये मेरी पहली मुलाकात है, वह टॅक्सी चलाता है और गुवाहाटी के बाहर जाना उसे पसंद नहीं. मेरे किसी मित्र की सिफारिश पर मुझे रिसीव करने आया है और मुझे ‘पुणे दीदी’ पुकारता है. उसके लफ़्ज़ों में असमिया उच्चारण स्पष्ट है और हिन्दी के लिंगभेद से उसे कोई मतलब नहीं, चुनांचे ‘पुणे दीदी आता है’ इसलिए मानब उसे रिसीव करने एयर पोर्ट ‘जाती है’! बताने पर हंस पड़ता है. रास्ते में बातों के दौरान उसे दीदी पसंद आ जाती है और अब उसकी ज़िद है कि दीदी उसके घर चलकर भात खाए! मना करने पर कहता है हम ग़रीब है इसलिए तुम नही आता मेरा घर! अब मेरे सामने कोई चारा नहीं, तो हमलोग मानब के गाँव के रास्ते हैं!
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शहर धूल से अटा पड़ा है, ट्रॅफिक तमाम अस्त व्यस्त तरीके से चल रहा है एक सुस्त बेतरतीबी पूरे वातावरण में फैली हुई लगती है. बुरी तरह खिन्न हो जाता है मन. पर खिड़की का शीशा नीचे करते ही, हरियाली की महक और नमी मेरे फेफड़ों में भरने लगती हैं, नदी के किनारे बसे शहरों में ऐसी ही महक होती है. मन को थोड़ा आराम मिलता है और टॅक्सी के भीतर बजते असमिया गाने की धुन आहिस्ता से भीतर जगह बनाने लगती है.


मानब का गाँव गुवाहाटी के उत्तर, लोअर आसाम में बसा एक समृद्ध गाँव है, शहर से लगे इस गाँव का एक सिरा आई आई टी गुवाहाटी को छूता है और दूसरे सिरे की गलियाँ ब्रह्मपुत्र की किनारों पर उतरती हैं. गाँव के घरों की दीवारें बाँस की हैं और छत पर टीन की रंग बिरंगी चादरें हैं. घर दूर दूर बने हैं और घरों के पीछे नज़र दौड़ाने पर घने जंगल और पहाड़ नज़र आते हैं. गाँव की सड़कें पक्की और साफ़ हैं. हर परिवार अपने घर के आस पास सफाई करता है, ऐसा लगता है.
घर के ठीक सामने एक छोटा सा मंदिर है जिसकी छत टीन की है, हरे और लाल रंग से रंगी हुई और सामने एक विशाल चबूतरा है, जिसकी सीढ़ी के बगल कुत्ते सोए हैं, छोटी छोटी बकरियाँ घूम रही हैं, दो एक मुर्गियाँ भी.

ईश्वर पूरी सहजता से अपनी सृष्टि के साथ मंदिर में ध्यानरत हैं और उनकी सम्यक दृष्टि पूरे वातावरण को छू रही है
मानब की माँ हिन्दी नहीं जानतीं , बांग्ला भी न के बराबर, अँग्रेज़ी का तो सवाल ही नहीं उठता, तो हमारा संवाद टूटी फूटी लंगड़ाती हिन्दी और बांग्ला में होता है. हाँ, वे मुस्कुराती खूब हैं, और इसी से हमारा काम चल जाता है. दुबली पतली सतर काया, गोरा रंग, माँग में सिंदूर और होंठ पान से रंगे हुए. उन्होने हल्के भूरे रंग की सूती मेखला पहन रखी है जिसे देखकर साड़ी का आभास होता है, ध्यान से देखने पर समझ आता है यह आसाम की पारंपरिक मेखला है जिसे साड़ी की तरह पहना जाता है और जिसे दो टुकड़े होते हैं, एक टुकड़े को कमर में लपेटते हैं और और दूसरा साड़ी के आँचल की तरह शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकता है.

हर दो मिनिट बाद चाय के लिए पूछती हैं और खाने की तैयारियों में व्यस्त हैं. जैसे ही हम एक दूसरे के साथ थोड़ा सहज होते हैं, मुझसे पूछती हैं — तुम मेखला नहीं पहनती? मैं मुस्कुरा कर सफाई देती हूँ — हाँ पहनती हूँ पर यात्रा में साथ लेकर नहीं चलती. घर बुरी तरह ठंडा है, और पता नहीं क्यों मुझे अपने बचपन में देखे हुआ किसी बंगाली दोस्त का घर याद आता है.

बंगाल और आसाम दो जुड़वाँ बहने हैं जो अलग अलग घरों में ब्याह दी गईं ! दोनो ने अपने बचपन की यादें अपने संगीत, खानपान की आदतों और सामान्य जीवन शैली में सहेज रखी हैं
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मानब के पिता भीतर आते हैं और पहले मुझसे थोड़ी दूरी बरतते हैं, पर धीरे धीरे खुल जाते हैं और बतियाने लगते हैं. उन्हें घूमना पसंद है और वे दिल्ली तक हो आए हैं. पुणे की ट्रेन और किराया पूछते हैं और कहते हैं वे पुणे ज़रूर आएँगे. मैं कहती हूँ पूरे परिवार को लाइए तो कहते हैं, इनको घूमना पसंद नहीं, मानब आज तक गौहाटी के बाहर नहीं गया, अलबत्ता शिलॉंग तक हो आया है. घर का सारा काम उनके ज़िम्मे है, और उनके बिना घर के लोग किसी काम के नहीं! मानब सिर्फ़ टैक्सी चलाता है और उसकी माँ घर संभालती है, बाकी सारा काम मेरे ही ज़िम्मे!
उनके घर बकरियाँ और मुर्गियाँ भी हैं जिनकी देखभाल करनी होती है!

मैं रसोई में घुसकर बैंगन भाजा बनाती हूँ और थोडा जला भी देती हूँ, खाना स्वादिष्ट है जिसमें आलू गोभी की सब्ज़ी में मछली के टुकड़े तैर रहे हैं, बैंगन भाजा है और असमिया तरीके से पकी हुई दाल है चावल के साथ.

दूसरे कमरे में टीवी में न्यूज़ चल रहा है. मानब के पिता पूरे तीन बार बकरियों को गेट के अंदर खदेड़ चुके हैं और खाने की थाली में थोड़ा खाना छोड़कर हाथ धोकर उठ जाते हैं. मानब की माँ उनके खाने के बाद ही भोजन करेंगी.

खाने के बाद फिर से तामुल (पान) और चाय के लिए पूछती हैं, मेरे मना करने पर बुरा नहीं मानतीं. अपनी हिन्दी बांग्ला असमिया के मिले जुले वाक्यों और छिटपुट मुस्कुराहटो के साथ हम अपना संवाद जारी रखते हुए उनकी आलमारी का जायज़ा लेते हैं. तमाम तरह की खूबसूरत कढ़ाई वाली रेशमी और सूती मेखला चादरों से भारी उनकी आलमारी . रंग इतने खूबसूरत की देखती ही रह जाती हूँ. चटख पीले और लाल, हल्के नीले और भूरे रंग. सभी में चटख और हल्के रंगों का अद्भुत सम्मिश्रण.

मेरे सामने आसाम का सांस्कृतिक वैभव मेखला चादरों के रूप में बिखरा पड़ा है और उनकी स्वामिनी की सहज गरिमा मयी उपस्थिति उसे और सुंदर बना रही है.

तब तक वनिता उनकी बेटी अपनी सिलाई क्लास से आ जाती है. उसे भी सिर्फ़ असमिया बोलनी आती है, इसी वजह से वह थोड़ा झिझकती है, ऐसा दीपिका (मानब की माँ) बताती हैं. वनिता हाथ से सिलकर सुंदर कपड़े बनाती हैं, हालाँकि घर पर सिलाई मशीन है. सुंदर रंगों और डिज़ाइनों के कुर्ते और ब्लाऊज़ हमारे आस पास बिखरे पड़े हैं और सहसा मुझे विश्वास नहीं होता इनकी सिलाई बिना मशीन की मदद से हुई है. उनका पता लिखकर ले लेती हूँ, वापस आने पर वनिता को लेस और जरी की किनारियाँ भेजूँगी जो गुजरात से खरीद लाई थी.

गुवाहाटी की धूल और अटपटा सा शहरी पन कहीं पीछे छूट रहा है और आसाम की संस्कृति के रंग धीरे धीरे मेरे चारो ओर बिखरते जा रहे हैं.

उनके पारिवारिक अलबम को देखते देखते जाने का समय हो जाता है और साथ चाय पीकर हम तेज़पुर के लिए विदा लेते हैं. शाम के चार बजे हैं, सूरज बस डूबने ही वाला है और धूप अब न के बराबर रह गई है. वातावरण में ठंड बढ़ गई है और मैं स्वेटर के ऊपर जैकेट चढ़ा लेती हूँ. मानव के पिता फिर से बकरियों को गेट के अंदर कर रहे हैं और माँ मुझसे वापस आने का वादा ले रही हैं.
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बचपन में पढ़ा था आसाम में काला जादू है. गुवाहाटी से तेज़पुर जानेवाली सड़क किसी अनोखे जादू से मेरा परिचय करवाती है, जो न काला है न सफेद, वह बस जादू है और मुझे पता है यह देर तक सर चढ़कर बोलेगा.

मानब के गाँव से तेज़पुर की दूरी करीब 174 किलो मीटर की है, हम मुख्य सड़क छोड़कर जंगल के किनारे वाली सड़क लेते हैं. उस सड़क पर छिटपुट आपराधिक घटनाएँ होती रहती है, ऐसा मानब कहता है, पर मुख्य सड़क से जाएँ तो समय ज़्यादा लगेगा इसलिए जंगलों के बीच से हम निकल चलते हैं. टॅक्सी में कोई असमिया गीत बजता है, जिसका एक भी शब्द मेरी समझ नहीं आता पर उसकी धुन पहले मुझे बेचैन करती है फिर पता नहीं कैसा सुकून देती मेरे दिल दिमाग़ पर हावी होती जा रही है. मानब से गीत का अर्थ पूछती हूँ पर उसके मूँह में रजनीगंधा है और संगीत की उसकी समझ संगीत को महसूस करने तक है, शब्दाडंबर और कला की बारीकियों से उसे कोई लेना देना नहीं. बहरहाल इतना ज़रूर समझ पाती हूँ कि इस गीत में किसी असमिया लोकगीत की छाया है और है खूब सारी मिठास. चुनांचे वह रजनीगंधा के साथ और मैं हवा में उड़ते गीत के अबूझ शब्दों के साथ जो मन की अनजानी परतों को छूकर फिसलते जा रहे हैं, के साथ खुश हैं, और तेज़पुर अभी दूर है.

शाम के सिर्फ़ पाँच बजे हैं, खेतों और जंगलों के ऊपर धुन्ध की एक झीनी परत फैली है, तेज़ी से भागते सुपारी, नारियल, साल ,केले के जंगल, टीन की छतों वाले सुंदर रंगीन घर, घरों के बीच बिछी पतली भूरी पगडंडीयाँ जो गाँव के भीतर जाकर कहीं गुम हो जाती हैं, शाम के झुटपुटे में खामोश खड़े घर और धान के खेत , सड़क किनारे हाथ में टॉर्च लिए धीरे धीरे चलता वह बूढ़ा ग्रामीण, किनारे दुबक गए कुत्ते, सायकिल से जाती छोटी लड़की, सड़क के किनारे पड़ी शायद विसर्जन के लिए रखी गले में अनगिनत मालाएँ पहने नग्न, रौद्र काली की मूर्तियाँ — सभी कुछ जैसे रहस्य के एक झीने आवरण में लिपटा है और बेसुध कर रहा है. सभी एक दूसरे से एकात्म लगते हैं, सब कुछ लयबद्ध है. मेरे भीतर पता नहीं अतीत और वर्तमान के कितने बिंब एक दूसरे से लिपटकर घुलते मिलते जा रहे हैं. कोई तलाश नहीं मुझे, सुख भी नहीं दुख भी नहीं, सिर्फ़ “मैं “हूँ — इन घने जंगलों और पहाड़ों के बीच, खेतों और घरों के बीच, इस खुले आसमान के नीचे बस मैं हूँ, अतीत कहीं पीछे छूट गया है, भविष्य कभी नहीं होगा, बस वर्तमान है और मैं हूँ. यह क्षण अपने आप में पूर्ण है, मुझे किसी मोक्ष की तलाश नहीं.

अभी शाम के सिर्फ़ पाँच बजे हैं और अधिकतर दुकाने बंद हैं, घरों के दरवाज़े भी बंद ही दिखते हैं, कहीं टिमटिमाती हुई कोई रोशनी फिर अंधेरा ही अंधेरा और उन अंधेरों के पीछे घने ऊँचे जंगल! हरियाली की महक का अपना अलग ही स्वाद है और जैसे ही शहरी वातावरण नज़र आता है मुझे कोफ़्त होने लगती है! बोडो लैंड की माँग के नारे दीवारों पर लिखे हुए हैं. लोग कम ही हैं सड़कों पर, पुणे की शामें याद आती हैं, चहलपहल से भरी ! आसाम के किसी सूदूर जंगल में वे शामें कितनी अविश्वसनीय और बेमानी सी लगती हैं. एक पुराना गीत याद आता है, धर्मवीर भारती की ये पंक्तियाँ  —‘  ये शामें.. सब की सब शामें ..क्या इनका कोई अर्थ नहीं ’ —  मेरे भीतर बजती हैं , लगता है बस इन्हीं शामों का कोई अर्थ है, ये शामें, ये दिन जो खुद को खुद के सामने अनावृत करते हैं , भीतर जो कुछ भी उलझा हुआ है उसे सुलझा जाते हैं..ये शामें सब की सब शामें.. धुन देर तक बजती रहती है मेरे भीतर..

देर रात गए हम तेज़पुर पहुँचते है. तेज़पुर आसाम का सांस्कृतिक केंद्र कहलाता है. यहाँ हमें तेज़पुर विश्वविद्यालय में किसी से मिलना है सो सुबह विश्वविद्यालय के लिए निकलने की तैयारी है जो मुख्य शहर से करीब 15 किलो मीटर दूर नापाम में स्थित है. निकलने से पहले शहर की ओर निकलती हूँ और वहाँ मुझे मिलते हैं — अब्दुल करीम. अब्दुल रिक्शा चलाते हैं और इनके चेहरे पर बच्चों जैसा भोलापन है. वह मुझे पूरा शहर दिखाना चाहते हैं, पर समय कम है इसलिए यह संभव नही हो पाता. इनसे काफ़ी बातें होती हैं. आसाम के मुस्लिम और हिंदू करीब एक जैसे ही हैं बस थोड़ा ख़ान पान का फ़र्क है ऐसा कहते हैं. मुस्लिम भी यहाँ पोर्क खाते हैं क्योंकि यह सस्ता है. जो बात केरला के हिंदुओं के बारे सच है यहाँ के मुसलमानों के बारे भी वही सच है. ख़ान पान की आदतों को देश की राजधानी अपनी मर्ज़ी के रंग देती है और वही राजनीति अपने गंदले रंग अब्दुर रहीम और मानब जैसे लोगों पर तयशुदा समय पर सबसे पहले उंड़ेल देती है और फिर पूरा माहौल खून की बू से भर जाता है ! एक घिनौना वृत्त है जो सबको अपनी ओर खींच लेता है, किसी को तटस्थ नहीं रहने देता, हम इसे राजनीति कहते हैं !

जिस तरह भाषाओं का प्रादुर्भाव और विकास कई चीज़ों से प्रभावित होता है,  वे कालक्रम में अपना ली जाती हैं, उनके रूप बदलकर नए हो जाते हैं, कमोबेश यही बात धर्म, खानपान और जीवन शैली के बारे भी सच है. अफ़सोस हम इन चीज़ों को निस्पृह भाव से देखना नहीं सीख पाते. इतिहास को समझना सभ्यताओं के उत्थान पतन और विकास क्रम को जानना है. पूरी समग्रता से चीज़ों को देखना उन्हें सरल और ग़ूढ दोनो बना देता है, सरल इसलिए क्योंकि चीज़ों को समग्रता से देखने के बाद बहुत सारी चीज़ें बस छू कर निकल जाती हैं, कहीं गहरे रजिस्टर नहीं होतीं और आप उस भीड़ से अलग थलग पड़ जाते हैं, वह भीड़ जो राष्ट्र, जाति, धर्म, भाषा और परिवार के मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष का रूप धारण करती है और वर्तमान को ही अंतिम सत्य मानती है. ग़ूढ इसलिए क्योंकि आप जानते हैं आप पसंद करें या न करें इतिहास खुद को खुद को दोहराता है अगर हम उससे कोई सबक न सीखें, भीतर से भी न बदलें. बदलाव एकांगी प्रक्रिया नहीं, बाहर वही आएगा जो भीतर है और जो बाहर है वह भीतर के संसार का भी निर्माण करेगा. यह निस्संदेह ही जटिल प्रक्रिया है और चीज़ों को ग़ूढ बनाती है .

मुझे अंदेशा है अब्दुल करीम शायद बांग्लादेशी हैं. आसाम में बांग्लादेशी शरणार्थियों की बड़ी संख्या है और धीरे धीरे यह मुद्दा राजनीतिक रंग पकड़ चुका है. खुद को रोकते रोकते पूछ ही लेती हूँ घुमा फिरा कर. वे बताते हैं सोनितपुर के पास किसी गाँव में उनकी पैतृक खेती थी, जिसे भाइयों की आपसी कलह और ग़रीबी ने बिकने पर मज़बूर कर दिया. अपनी पत्नी की मदद से, जो कि आँगनबाड़ी सेविका हैं, उन्होने यह रिक्शा खरीदा है और इसी से उनकी गुज़र बसर होती है. अब्दुल करीम, बहरहाल अपनी ग़रीबी से परेशान हैं और इनके पास बी पी एल कार्ड भी नहीं इसलिए इन्हें ई रिक्शा के लिए कोई बैंक क़र्ज़ नहीं देती. उनसे वादा करती हूँ जाने के बाद उन्हें फोन करके.बताऊँगी, क्या करना है.

गुवाहाटी से सोनितपुर के बीच एक मस्ज़िद दिखी थी कल शाम, वह मुस्लिम बहुल इलाक़ा है. न उसके पहले न उसके बाद रास्ते में कोई मंदिर या मस्जिद दिखी हमें. इंसान ईश्वर की सत्ता के बिना ज़्यादा सुकून से रह रहा है, ऐसा मालूम पड़ता है!
यहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से चाय की खेती पर निर्भर है. अगर हम मुख्य सड़क से आए होते तो हमें चाय बागान मिले होते पर चूँकि हमने मुख्य सड़क से न आने का निर्णय लिया तो इससे वंचित हो गए. पर उसके बदले उन जंगलों में जो अनुभव मिला वह अद्वितीय रहा!

तेज़पुर शहर सोनितपुर जिले का मुख्यालय है, जो कि पहले दरांग जिले का हिस्सा था. १९८३ में सोनित पुर अलग जिला बना और तेज़पुर उसका मुख्यालय. लेकिन, तेज़पुर इसके काफ़ी पहले से आहोम राजाओं के साम्राज्य का महत्वपूर्ण हिस्सा था और कहते हैं, शिवभक्त बाणासुर और कृष्ण की सेनाओं में युद्ध के बाद यहाँ की मिट्टी रक्त से लाल हो गई थी और इसी से इस स्थान को यह नाम मिला. संस्कृत में तेज़ और शोणित दोनो का अर्थ रक्त होता है.

शहर में सुरक्षा बलों की उपस्थिति 1962 में चीन से युद्ध के बाद से स्थाई हो गई है, तेज़पुर ही वह जगह है चीनी सेनाएँ अरुणाचल प्रदेश के तवांग से घुसपैठ कर जहाँ तक चली आई थीं. सामरिक दृष्टि से अब भी इसे महत्वपूर्ण माना जाता है इसलिए सेना की अत्यंत महत्वपूर्ण छावनियों में से एक है. यह एक छोटा सा शांत शहर है और लंबे समय से सैन्य उपस्थिति के बावजूद सेना की उपस्थिति से ख़ासा अप्रभावित सा दिखता है.

अब हम तेज़पुर से नापाम वाली सड़क पर हैं और अभी सुबह के करीब ११ बजे हैं. मानब कुछ नाराज़ सा दिखता है. कारण पूछने पर कहता है उसके सोने की व्यवस्था ठीक नहीं थी और मच्छर भी काट रहे थे. मैं कहती हूँ मुझे गाड़ी चलाने दे पर वह पीछे मुड़कर हंसता है और वापस कोई असमिया गाना बजने लगता है और मानब के मुँह में रजनीगंधा है!

विश्व विद्यालय को ओर जाने वाली सड़क खेतों और जंगलों के बीच से गुज़रती है और खेतों में फिर से भूरे, मटमैले और हरे रंग बिखरे हुए हैं. रास्ते में सुरक्षा दलों की आमद खूब दिखती है पर जन जीवन सामान्य लगता है. कोई भय का वातावरण नहीं दिखता . मुख्य सड़क से गाँव की तरफ जाने वाली गलियाँ धूल से भरी हैं. किसी गली के कोने पर मछलीवालों को घेर कर खड़े सुरक्षा दल के सिपाही मछलियाँ खरीदने में व्यस्त हैं.
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जंगलों से घिरा तेज़पुर केंद्रीय विश्वविद्यालय एक सुखद आश्चर्य की तरह हमारे सामने खड़ा है और मानब गेट पर सेक्यूरिटी चेकिंग की औपचारिकताएं पूरी कर रहा है. इस गेट के भीतर की दुनिया का बाहर की दुनिया से कोई रिश्ता नहीं, ऐसा तुरंत समझ आता है, खुले विशाल बागीचो से घिरी इमारतों का झुंड जैसे गहन चिंतन में लीन है. छात्र न के बराबर हैं, क्योंकि कल से क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी हैं, हॉस्टिल खाली हैं, कॅंटीन में इक्का दुक्का छात्र नज़र आते हैं और वे मटरगश्ती कर रहे हैं. मेरा साथी यूनिवर्सिटी के ऑफीस में किसी से मिलने गया है और मैं बाहर बाग़ीचे में मानब से गप्पें मार रही हूँ. सामने से एक लड़की आती दिखाई देती है , साइकल स्टैंड पर आकर अपनी सायकिल में अपना बैग रखती है, मैं तुरंत उसके पास जाती हूँ और उससे अँग्रेज़ी में बात करने की कोशिश करती हूँ, वह झिझकती है और एक दो सवालों का जवाब देकर अपना पीछा छुड़ाना चाहती है. अब मैं हिन्दी में कुछ कहती हूँ और वह रुक जाती है, मैं सुखद आश्चर्य से भर उठती हूँ. आसाम में असमिया के बाद हिन्दी ही सबसे ज़्यादा बोली और समझी जाती है अँग्रेज़ी नहीं यह बात अचानक मुझे समझ आई. आते समय जितने भी लोगों से हमारी बातें हुईं सभी अच्छी ख़ासी हिन्दी बोल और समझ रहे थे. मुझे आदित्य की बातें याद आ जाती हैं. आदित्य भाषा विज्ञान का छात्र है और उसका कहना है भाषा के सारे झगड़े भाषा के कला पक्ष को लेकर हैं, क्योंकि हम यहाँ सही ग़लत के पैमाने, व्याकरण, नया पुराना और सबसे महत्वपूर्ण — राजनीति घुसेड देते हैं. भाषा का विज्ञान पक्ष तो कहता है जैसे इंसान एक जैसे नहीं उनकी भाषा भी एक जैसी नहीं. जिस देश में बोलियाँ हर बारह कोस में बदल जाती हैं वहाँ भाषा के झगड़े की पूरी संभावना है, पर भाषा का झगड़ा तो आज़ादी के बाद का झगड़ा है, क्या उसके पहले भी हम भाषा को लेकर लड़ रहे थे? नहीं, क्योंकि तब इस देश के सामने बड़ी लड़ाइयाँ थीं, अब जब हम आज़ाद हैं, हमें लड़ने की भी उतनी ही आज़ादी है !

झिलमिल सेतिया, हां यहीं नाम है उनका. झिलमिल पर्यावरण विज्ञान में पोस्ट ग्रॅजुयेशन कर रहीं हैं और अपनी पढ़ाई के बोझ से ख़ासी परेशान लगती हैं. अभी वे पाँचवे सेमिस्टर में हैं और उन्हें कुल मिलकर ५८ पेपर्स की पढ़ाई करनी पड़ती है, ऐसा बताती हैं. वे आसाम की बोडो जनजाति से संबंधित हैं और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आसाम से बाहर जाना चाहती हैं. उत्तर पूर्व के छात्रों से बदसलूकी से संबंधित कई किस्से भी उन्हें मालूम हैं. मैं पूछती हूँ ये सब सुनने के बावजूद आप आसाम से बाहर जाएँगी? वे कहती हैं — यहाँ पी एच डी करने के बाद मैं क्या करूँगी ? मैं खामोश हो जाती हूँ. हम बातें करते हुए चलने लगते हैं और वे मुझे यूनिवर्सिटी से जुड़ी कई बाते बतलाती हैं. उनके कई दोस्त बिहार और पंजाब से हैं और इनकी दोस्ती में क्षेत्रीयता कोई बाधा नहीं, मुझे महाराष्ट्र के कुछ टूटपूंजिया राजनीतिक दल याद आ जाते हैं, गंदी राजनीति से बड़ा कोई अभिशाप नहीं किसी समाज और राष्ट्र के लिए! झिलमिल से विदा लेकर मैं यूनिवर्सिटी के मास कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट की तरफ बढ़ जाती हूँ. इस इमारत में हॉस्टिल और क्लास रूम दोनो ही हैं पर सभी कमरे खाली पड़े हैं. अचानक मुझे एक कमरा खुला नज़र आता है और मैं उस ओर बढ़ जाती हूँ. कमरे के बाहर लिखा है — ’ प्लीज़ कीप साइलेन्स, ए जीनियस इज़ इन मेकिंग!’ मैं मुस्कुराती हूँ और परदा उठाकर उस प्यारी लड़की को हाय कहती हूँ. वे काकोली हैं और कुछ पढ़ने में व्यस्त हैं. मैं उनके पास बैठ जाती हूँ और हम बतियाने लगते हैं, वे मुझे यूनिवर्सिटी के इतिहास के बारे जानकारी देती हैं, असमिया लेखकों, नाटककारों और संगीत की बातें करते हैं हम. वे कुछ नाम भी सुझाती हैं जिनका अँग्रेज़ी में अनुवाद हो चुका है. वे गुवाहाटी की हैं पर तेज़पुर और यूनिवर्सिटी कैम्पस उन्हें ज़्यादा पसंद है. कुछ समय बॅंगलोर में बिता आई हैं पर आसाम उनके भीतर बखूबी जिंदा है. आसाम का युवावर्ग अब भी अपनी संस्कृति और समाज से जुड़ा हुआ है, पश्चिमी अंधानुकरण ने इतना प्रभावित नहीं किया है, हालाँकि उत्तर पूर्व के दूसरे राज्यों के साथ यह बात नहीं. ये छात्र मुझे संतुलित और ज़मीन से जुड़े नज़र आते हैं , स्वतंत्रता की एकांगी परिभाषाएं नहीं बना रखी इन्होने. हम साथ कैंटीन की तरफ निकल चलते हैं. सरसो के तेल में बने आलू पराठे हमारा इंतज़ार कर रहे हैं !
यूनिवर्सिटी में हमने मुश्किल से दो घंटे का समय बिताया और अब मैं इस यूनिवर्सिटी के गहरे प्यार में हूँ!
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गुवाहाटी फिर से वापस आना जैसे मीठी नींद के बाद उठकर रोज़मर्रा की सच्चाइयों का सामना! इस शहर को मेट्रो ऑफ ईस्ट कहते हैं, और यहाँ कई लोगों से बात करते उनके चहरे पर इस बात का गर्व छलक ही जाता है, पर वे नहीं जानते कि सफलता की इस अंधी दौड़ ने उन्हें कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है! कहते हैं कि यह एशिया का प्राचीनतम शहर है पर आज के दिन यह सबसे अधिक तेज़ी से बढ़ने वाला शहर है, जो अपनी चमक दमक के पीछे दौड़ता हुआ यह भूलता जा रहा है कि इस शहर में रहना अगले आने वाले ५० सालों में मुश्किल हो जाएगा. विकास की ग़लत अवधारणा का जीता जागता उदाहरण है ये शहर, जहाँ सड़कों पर चलना मुश्किल है. आप शाम के समय किसी भी सड़क पर निकल जाइए, हर सड़क वाहनों से अँटी पड़ी हैं, पार्किंग की कोई व्यवस्था नहीं, हर बड़ी ब्रांड की दुकानें और मॉल पर सब कुछ अस्त व्यस्त! पल्टन बाज़ार, पान बाज़ार, फॅन्सी बाज़ार, उज़ान बाज़ार, पर सारे के सारे बाज़ार खुद से बेज़ार! यह भीड़ भाड़, गहमा गहमी, ट्रॅफिक, शोर गुल और ज़्यादा तब खटकता है जब आप अपना मन सुदूर आसाम की किन्हीं छोटे शहरों, जंगलों और पहाड़ों में छोड़ आएँ हों. जहाँ लोगों की सरलता और भोलापन आपको अभी अभी छूकर निकले हों और उसकी मीठी खुश्बू ने अभी आपका साथ न छोड़ा हो. पर मुश्किल यह है, कि गुवाहाटी जाए बिना आप सुदूर उत्तर पूर्व की यात्रा नहीं कर सकते .
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कामाख्या मंदिर के ऊँचे घुमावदार रास्तों पर टॅक्सी चली जा रही है, हवा फिर से ठंडी और साफ़ है. सड़क के किनारे सीढ़ीदार रास्तों पर कुछ दुकानें हैं खाने पीने की, प्रसाद और फूल मालाओं की, हर मंदिर के पास कमोबेश एक जैसा ही माहौल होता है.

ईश्वर के लिए मनुष्य ने कुछ निश्चित नियम बना रखे हैं, ईश्वर इन्हीं के अधीन रहता है.

जूते किसी दुकान पर रखकर हम चल रहे हैं, पैरों में गर्म पत्थर का स्पर्श भला लगता है और दूर कहीं कुछ गाने की आवाज़ें हवा में घुली हुई हैं. मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक पहले कोने वाले चबूतरे में वे दिख पड़ते हैं मुझे. वे तीन हैं, दो गाते हैं और तीसरा ताल देता है और गाने में सिर्फ़ साथ देता है. उनकें हाथों में डफली है ताल देने के लिए और वे असमिया में कोई भक्ति गीत गा रहे हैं. चुपके से उनकी बगल बैठ जाती हूँ और सुनने लगती हूँ. उन्हें अहसास होता है उनकी बगल कोई बैठ गया और गीत ख़त्म होते ही वे मेरी दिशा में सिर घुमाते हैं.
उनमें से दो देख नहीं सकते और तीसरे के पैर घुटनों के ऊपर से कटे हुए हैं.

मैं पूछती हूँ आप क्या गा रहे हैं, मैं इसे रेकॉर्ड कर लूँ? उन्हें कोई आपत्ति नहीं. वे फिर से गाने लगते हैं, गाने के सुर ऊँचे हैं और वे अपनी पूरी ताक़त से गा रहे हैं, कोई आर्त धुन है, शब्द थोड़े से समझ आते हैं और भाव पूरे. मंदिर के मुख्य द्वार पर कोने में ज़मीन पर आते जाते लोगों के पैरों के करीब बैठे वे महामाया की आराधना के गीत गा रहे है, और महामाया उनसे चन्द सीढ़ियाँ ऊपर बैठीं अपनी तंत्र साधना में लींन हैं.
लोग मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, हाथ जोड़े, श्रद्धा विनत, आँखें मंदिर की ओर . जैसे अंदर कुछ ऐसा मिल जाएगा जो उनकी ज़िंदगियों का नक्शा बदल देगा. क्या पता, शायद बदल भी देता हो. कितनी तो कहानियाँ सुनी हैं पढ़ी हैं, बड़ा सिद्ध मंदिर है. महिलाओं की संख्या अधिक है, उनकें होठ लाल है, माँग में ढेर सारा सिंदूर है, चूड़ी मालाओं और झूमकों का बाज़ार है उनके शरीर में ! कोई ‘अति विशिष्ट’ श्रद्धालु है जिसने टाई भी लगा रखी है और आस पास बंदूकधारी चल रहे हैं, लाल लूँगी नुमा धोती पहने पुजारी आ जा रहे हैं, दुकानों में खड़े लोगों को देख रहे हैं. लोग जैसी किसी उतावली में हैं.

मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते लोगों के चेहरे पर किसी गहन अनुभव से गुज़रे होने जैसा भाव है, ख़ासकर महिलाओं के चेहरे पर. कोई तिलिस्म सा लगता है…मैं क्यों नहीं ऐसा कुछ महसूस कर रही. मंदिर के दरवाज़े से लगकर छोटी छोटी दुकानें सजी हैं, ग्राहक को आवाज़ देते दुकान दार — मंदिर के ठीक दरवाज़े पर . फूल पत्तों की, प्रसाद की, मालाओं की, चंदन की, सिंदूर की, देवमूर्तियों की, श्रद्धा की, आस्था की, भोली उम्मीदों की, दुख तकलीफ़ों की, भय की, बलि की, तंत्र साधना की, लोगों की दुकानें ! व्यापार व्यापार व्यापार..
ये कौन लोग हैं जो मेरी अगल बगल से निकले जा रहे हैं, ये घर गृहस्थी, बच्चों और ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते लोग, जिनका आधा अस्तित्व दूर किन्ही और शहरों में बसी हुई गृहस्थियों में और बचा हुआ अस्तित्व किसी मंदिर में सहजता से जगह बदलता है. ये जो यहाँ से वापस जाकर उसी गृहस्थी, महत्वकांक्षा की उसी दौड़ में वापस गले तक डूब जाएँगे ! मुझे अपने उन सभी दोस्तों की याद आती है जो श्रद्धा में गले गले तक डूबे हुए हैं पर किसी का अहित करने में उनकी अंतरात्मा एक पल को नहीं हिचकेगी ! नहीं मुझे यह नहीं चाहिए, मैं इस तरह आधी नहीं बँट सकती. मुझे मेरी आशंकाएँ, असुरक्षाएं, नकार से ऊपजी चुनौतियाँ और पल पल बदलने वाला भीतरी संसार पसंद है, यह संसार ठहरा हुआ नहीं कम से कम..
कोई दो छोटे मेमने लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहा है, मेमने मिमिया रहे हैं और जल्दी जल्दी चढ़ रहे हैं. अपनी आँखें फेर लेती हूँ और गाने पर ध्यान लगाती हूँ. मंदिर के भीतर जाने की इच्छा नहीं हो रही… मैं बैठी गीत सुनती हूँ और एक हद तक उसमें डूब भी जाती हूँ. उनसे बातें करती हूँ और बिहू के प्रकार समझती हूँ. चूँकि वे मंदिर में बैठे हैं इसलिए बिहू नहीं गा सकते क्योंकि बिहू खुशी का गीत है और इस मंदिर का खुशी से कोई लेना देना नहीं, यहाँ की देवी बलि और त्याग की भाषा समझती हैं.
काफ़ी देर उनका गाना सुनने के बाद भरे मन से उठती हूँ और मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगती हूँ, मन ही मन चाहती हूँ कोई वीभत्स दृश्य न दिख जाए, मंदिर की बनावट देखती आँगन में जाकर खड़ी हो जाती हूँ, लोग दर्शन के लिए पंक्तिबद्ध हैं, हाथों में प्रसाद फूल मालाएँ लिए. छोटे छोटे कमरे बने हैं, चारो ओर, लोहे के ग्रिल लगे हैं कुछ कमरों में और कुछ कमरों में अंधेरा है. ग़ूढ तंत्र मंत्र की देवी अंधेरे कमरों में रहती है, और कोई गहरा काला ज्ञान देती हैं, जो सिंदूर से शुरू होकर बलि पर ख़त्म हो जाता है और इस बीच कई विकार फलते फूलते और जीवन पाते हैं. अचानक दाहिनी तरफ के किसी अंधेरे कमरे से मेमने के बड़े करुण स्वर में मिमियाने की आवाज़ आती है और लगातार आती रहती है, मैं चौंक जाती हूँ और समझ जाती हूँ उस कमरे में क्या घटा! थोड़ी देर बाद आवाज़ आनी बंद हो जाती है और मुझे गहरी वितृष्णा होती है. पास खड़े पुजारी से पूछती हूँ बलि वाला कमरा किधर है, वह सिर के इशारे से उसी कमरे की तरफ इशारा करता है. जो भी हैं इस मंदिर के भगवान उन्हें मैं पूरे मन से नकारती हूँ. भाड़ में जाए ऐसा मंदिर और ऐसी पूजा!

मंदिर के आँगन के दूसरी तरफ से बाहर जाने का रास्ता है, मेरा साथी ऊपर कुछ तस्वीरें ले रहा है और में उसी पल मंदिर से बाहर निकल जाना चाहती हूँ. बाहर निकलने के ठीक पहले बाईं तरह सीढ़ियों के पास एक पुजारी खड़ा है, कोई तीसेक की उम्र होगी, लाल धोती और कंधे पर अंगोछा रखे, चेहरे पर दाढ़ी, कुछ विचित्र सा जान पड़ता है उसके चेहरे पर, आँखें कहीं टिकती नहीं है, चौकन्ना सा है और उसकी हाथ और गर्दन बेतरह हिल रहे हैं. उसके बगल से निकलती हूँ तो अपना हाथ भीख मागने की मुद्रा में मेरी तरफ बढ़ाता है, और जल्दी से हटा लेता है, थोड़ा अचरज होता है, पुजारी को भीख माँगते पहली बार देखा. मैं उसकी आँखों में सीधा देखती हूँ और वह नज़र चुरा कर दूसरी तरफ देखने लगता है. मैं आगे बढ़ जाती हूँ और दूर खड़ी उसे देखती हूँ. ऐसी ही हरकत वह आनेजाने वाली करीब करीब सभी महिलाओं के साथ कर रहा है. मैं वापस उसके पास जाती हूँ मुझे आता देख वह दूर जाने लगता है, तेज़ी से उसके करीब जाकर कहती हूँ — मुझे आपसे बात करनी है. ‘बात नेई कॉरेगा’ वह हंसता हुआ जल्दी जल्दी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है और विचित्र तरीके से मुझे मुड़कर देख रहा है.

मेमने की बलि लेने वाली देवी ने विक्षिप्त दूत पाल रखे हैं और इनके रोज़गार का भी पूरा ध्यान रखा है.
मेरी बगल से एक नौजवान पुजारी मेमने के गले में पड़ी रस्सी से उसे घसीटता हुआ लिए जा रहा है, मेमना बुरी तरह चीख रहा है और पूरी ताक़त से आगेबढ़ने से इनकार कर रहा है, पर पुजारी के पास दैवीय शक्ति है और मेमना बेचारा नन्हा और कमज़ोर है!

सहसा मुझे मानब के गाँव के मंदिर की याद आ जाती है जहाँ सीढ़ियों के बगल कुत्ते सोए हुए थे और मुर्गियाँ मज़े से इधर उधर घूम रहीं थीं.

मनुष्य मृत्यु को अगर इतनी भयावह और अशुभ मानता है तो फिर इसे बाँटता क्यों फिरता है? जो कमज़ोर हैं उन्हें श्रद्धा की वेदी पर समर्पित करता मनुष्य क्या खुद अपने से अधिक ताकतवर के लिए किसी और वेदी पर बलि नहीं चढ़ जाता? शेरों के बलि की कोई प्रथा थी कभी? जंगलों में घूमने वाले आदि मानव के ईश्वर की अवधारणा और वर्तमान समय में ईश्वर की अवधारणा में क्या कोई मूलभूत परिवर्तन आया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने अवचेतन में इंसान अब भी उसी आदिमानव की तरह है जो प्रकृति के नियमों और घटनाओं में किसी दैवीय शक्ति का हाथ देखता था इससे बचने के लिए बहुत से प्रयत्न करता था? और अगर ऐसा नहीं है तो वह उन प्रतीकों, विचारों, संस्कारों, आदतों अंधविश्वासों को ढोता हुआ क्यों चलता है?मिथक कहते हैं, द्रोणाचार्य ने जब यज्ञ में आहुति के लिए शिष्यों को जानवरों का शिकार कर लाने की आज्ञा दी तो सभी शिष्यों ने हिरणों का शिकार किया सिवा कर्ण के. कर्ण ने शेर का शिकार किया पर गुरु द्रोण ने उनकी आहुति दो कारणों से अस्वीकार कर दी, पहला — शेरों की बलि नहीं दी जाती, दूसरा कर्ण सूतपुत्र थे. कैसी विडंबना, वही कर्ण कालांतर में अंगदेश (आसाम) के राजा बने!
***


मेरा मन खिन्न है, मानब से कहती हूँ अब किसी और मंदिर न ले चले हमें, आते समय रास्ते में भूपेन हाजोरिका की स्मारक दिखी थी और मन ही मन सोचा था यहाँ ज़रूर आऊँगी ! टैक्सी बिना पूछे भूपेन हाज़ोरिका स्मारक की तरह दौड़ी चली जा रही है. भूपेन हाज़ोरिका — जी हाँ , हज़ारिका नहीं, मानब मुझे समझाता है और मैं सर हिलाती हूँ.

आसाम की सबसे बड़ी सांस्कृतिक हस्ती, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, हृदय और आत्मा से आसाम से प्रेम करने वाला एक कलाकार जिनकी हर असामिया पूजा करता है. जिनकी आवाज़ में ऊँचे पहाड़ों पर घिर आए बादलों का गुरु गर्जन और विशाल ब्रह्मपुत्र की जीवनदायिनी तरलता दोनो एक साथ प्रतिध्वनित होती है, जिनकी — दिल हूँ हूँ करे और गंगा बहती हो क्यों की पीड़ा और पुकार हमेशा से मुझे आंदोलित करती आई है. हम दोपहर के समय स्मारक पहुँचते हैं. स्मारक का निर्माण कार्य अभी चल ही रहा है और उसके ठीक बीचोबीच एक माइक, और एक क़लम के म्यूरल बने हुए हैं. भूपेन हज़ोरिका ने असमिया साहित्य,कला, फिल्मों और संगीत को जो दिया है उसका वर्णन शब्दों से परे है. एक इंसान जो सफलता की ऊँची सीढ़िया चढ़ने के लिए आसाम के बाहर नहीं गया, और अगर कभी गया भी तो हमेशा वापस आने के लिए!

मिट्टी से बने लोग — उसी मिट्टी से जन्म कर उसी मिट्टी में वापस लौट जाना चाहते हैं!
मैं इस विश्वास के साथ आई थी कि यहाँ उनकी किताबों का अनुवाद या असमिया लोक संगीत की कोई सी डी मुझे मिल जाएगी, पर यहाँ मुझे मिलते हैं धनंजय, धनंजय पाठक! थककर हम स्मारक के सामने बनी छोटी पुलिया पर बैठे हैं और हमारे ठीक सामने एक युवक बैठा है, उसने अपने कानों में ईयरफोन लगा रखी है और कहीं दूर देखता चुप सा बैठा है. पता नहीं क्यों मुझे लगता है, मुझे इनसे बात करनी है, और हम उठकर उनके पास जाते हैं. पहले वे थोड़ा झिझकते पर फिर हमारी बातें होने लगती हैं. वे अभी अभी किसी म्यूज़िक रियालिटी शो के आडिशन मे दूसरे राउन्ड से बाहर होकर लौटे हैं और भूपेन हाज़ोरिका स्मारक में थोड़ा समय बिता रहे हैं, —‘ अपनी हार को स्वीकार करने और वापस जीत में बदलने बीच शांति के पल तलाशने के लिए ‘ इससे बेहतर विकल्प उन्हें और कुछ समझ नहीं आया, ऐसा कहते हैं. हम असमिया संगीत की बातें करते हैं, भूपेन हाज़ोरिका की बातें करते हैं और वे मुझे उस जगह का पता देते हैं जहाँ उनकी किताबें या सी डी मिल जाएँगी. वे किसी स्कूल में पढ़ाते हैं और संगीत उनका पहला प्यार है, नौकरी इसलिए कर रहे हैं ताकि वे अपनी संगीत शिक्षा का खर्च वहन कर सकें. मैं बस चुप हो जाती हूँ, कितने लोग ऐसे होंगे जो अपनी जिंदगी के पन्ने अनजान लोगों के सामने पलटने को तैयार हो जाएँ, अपनी जिजीविषा, संघर्ष और सपनों की बातें करें. इंसान होना और सपने पालना कितनी खूबसूरत चीज़ है, क्या सफलता इस सुंदरता की बराबरी कर सकती है? मुझे ख़लील गिब्रान की ये पंक्तियाँ याद आती हैं —
पराजय, ओ मेरे पराजय
मेरे आत्मज्ञान और इनकार
तुम मुझे बताते हो
कि मैं अब भी जीवित हूँ
मेरे पैर अब भी चपल हैं
और हम क़ैद नहीं हैं
कुम्हलाते जीत की तुमुल ध्वनियों के!
वे हमारे लिए भूपेन हज़ोरिका का लिखा, लिपिबद्ध किया और गाया एक असमिया गीत गाते हैं, उनकी आवाज़ में दर्द है और गीत में संबंधों से उतार चढ़ाव और उससे उपजी निराशा और संत्रास का वर्णन है. यह गीत भूपेन ने अपनी पत्नी के लिए लिखा था.
 मैं वह गीत रिकॉर्ड कर लेती हूँ
००

क्रमशः

रंजना मिश्र की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए


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