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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अगस्त, 2018

डायरी पांचः

ली ची

कबीर संजय

लीची कहां से आई है। चीन से। ली ची। इसके बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूं। अगर ली ची चीन से आई भी होगी तो भी मेरे इस दुनिया में आने से बहुत पहले ही वह भारत में आ चुकी होगी। कब। पता नहीं। हो सकता है कि कई सौ साल पहले। खैर, इसके बारे में मैं क्या कहूं। मैं तो कुछ और ही कह सकता हूं।
कबीर संजय

ली ची, मुझे बचपन में बहुत पसंद थी। आज भी है। पर शायद उतनी नहीं। बड़े होने पर जैसे हर चीज की कलई उतर जाती है। स्वादों और रंगों की भी। वैसे ही मेरे ऊपर से भी ली ची की कलई उतर चुकी है। उसके वे गुलाबी पन लिए हुए लाल छिलके। खुरदुरे। जैसे कटहल के छिलके के खुरदुरे कांटे। बस उनसे थोड़े छोटे और मासूम से। छिलके उतार दो तो उसके नीचे से निकलने वाला वह सफेद रसीला गूदा। मुंह में डालते ही जैसे उसके रस से मुंह में घुल जाते। नीचे से निकल आती वो बड़ी सी गुठली। गुठली को भी कुछ देर मुंह में चुंभलाते रहने का अपना मजा था। वाह। वो बात भी क्या बात थी।
दरअसल, ली ची के गुच्छे ही बड़े प्यारे होते हैं। लंबी-लंबी सीकियों जैसी छोटी शाखाओं में फले रहते हैं कई सारे फल। ली ची के गुच्छे। तोड़ने वाले उसे उन सीकियों के साथ ही तोड़ लेते हैं। उसके बाद न जाने किन-किन रास्तों से होते हुए वह पहुंच जाती है हमारे पास। उसे देखते ही हमारे मन में भी घुल जाता है उसका स्वाद। कभी ठेले पर देखा तो उसके गुच्छे सजे हुए। ऊपर से उसके ऊपर पानी के छिटकारे मारे जा रहे हैं। पानी के जग से अपने चुल्लू में पानी भर-भर कर किसी छिड़काव जैसे पानी को ली ची के एक-एक फल पर डाल दिया जाता है। शायद इससे ली ची कुछ और रसीली हो जाती हो। या फिर उसका स्वाद कुछ फीका हो जाता हो। या फिर उसके छिलके पानी की मार से हल्के से सड़ने लगते हों। रंग छोड़ते हुए। लेकिन, फल वाले को इसकी क्या परवाह। उसे तो अभी अपनी लीचियों की चमक बरकरार रखनी है। अभी उसके दाम लगवाने हैं। अभी मोल-भाव में जीत हासिल करनी है। उसके पास इतना धैर्य कहां।


कई सारे पेड़ों और झाड़ियों के बीच मेरा घर था। खपरैल का। खूब बड़े से आंगन में नीम के तीन ऊंचे-ऊंचे पेड़। एक जामुन का। एक अनार का। एक जंगल जलेबी। एक शरीफा। किनारे घूर के पास एक करौंदे का घना झाड़ भी मौजूद था। मौसम आता और इस पर सफेद-ललछौर करौंदे के गुच्छे खिल जाते थे। कंडैल के कई सारे पेड़। अमरूद के। अनार के। पेड़ों की कमी नहीं थी। न ही उनकी उन डालियों की, जिन पर बैठकर गर्मी की दोपहरें यूं ही बीत जाया करतीं थी। फिर भी कुछ कमी थी। वहां पर आम का कोई पेड़ नहीं था। कहते थे कि आम की जड़ को दीमक खा जाता है। कई बार आम का पेड़ लगाने की कोशिश तो हो चुकी थी। लेकिन कामयाबी नहीं मिली। पेड़ कुछ दिनों तक लगा रहता। कई बार तो उसमें नई कोंपलें भी आ जातीं। लगता कि हां भाई इस बार तो आम का पेड़ लग ही जाएगा। पर कुछ ही दिनों बाद पत्तियों के किनारे सूखने लगते। फिर कोंपलें भी मुरझा जातीं। पेड़ सूख जाता। उसकी मौत हो जाती। चाहे जितना पानी डालो, फिर उसमें जान नहीं पड़ती। गमकसीन पाउडर डालकर दीमकों को मारने का प्रयास होता। कि शायद इसी से पौधे में जान पड़ जाए। लेकिन मरे हुए में दोबारा जीवन कैसे आ सकता है। हालांकि, ये पेड़ ही हैं जिन्हें मरकर पुनर्जीवित होने की कला सबसे ज्यादा अच्छी तरह से आती है। इस तरह से एक के बाद आम के कई पेड़ों को मरते देख चुका था मैं भी।

गर्मियों का सीजन समाप्त होते न होते, घर में आम का ढेर लग जाता। जाहिर है, खरीद कर ही। खूब जमकर आम खाए जाते और उसकी गुठलियां घूरे पर फेंक दी जातीं। फिर बरसात आती। उनमें से बहुत सी गुठलियां जैसे सोते हुए से जाग उठतीं। आम के नए-नए बच्चे जन्म लेने लगते। गुठली में सोते ये बच्चे नींद से जाग पड़ते। अंगड़ाई लेने लगते। अपने हाथों को ऊपर उठाकर दुनिया को दिखाने लगते कि हां भई, हम भी हैं इस दुनिया में।
पर सारी गुठलियों में से ये जिन्न बाहर नहीं निकल पाते। कई गुठलियों को एक सिरे से घिसकर एक खास किस्म का बाजा भी बना लिया जाता। इस घिसे हुए हिस्से में फूंक मारने से एक खास किस्म की भों-भों आवाज निकलती। बचपन के उन दिनों में यह बाजा भी किसी बड़े वाद्य से कम नहीं था।
खैर, पहले बात ली ची की। आम के लगभग साथ ही बाजार में ली ची भी आती है। उस साल भी घर में ली ची के ढेर सारे गुच्छे घर में आए थे। लीची खाने के बाद उनकी सीकियों, छिलकों के साथ ही गुठलियों को भी घूरे के हवाले कर दिया गया। इनमें से बहुत सारी गुठलियां गोबर के सड़ने से निकलने वाली गैसों के चलते हो सकता हो मर गई हों। पर ये भी हो सकता है कि उनमें से कई के अंदर जीवन जनम लेने को तड़फड़ाता हो। उसी में से कुछ गुठलियों को मैंने अपने लिए बचा लिया था। शरीफे के नीचे कुछ छोटे पत्थरों को जोड़कर एक पक्की जगह सी बनाई गई थी। यहीं पर नल भी लगा हुआ था। यहां पर काफी नमी थी। पत्थर पर बर्तन मंजते थे। कपड़े धुलते थे। नहाया भी जाता था। यहां से निकलने वाला पानी कच्ची नालियों से होते हुए बाहर की तरफ से जाता था। इस नाली के किनारे-किनारे पुदीने की क्यारियां लगी हुई थीं। यहां पर पुदीने के पत्ते हमेशा हरे रहते और बेहद रहस्यमयी आकर्षण से भरी खुशबुओं को अपने में समेटे रहते। इन्हें अलग से पानी देने की जरूरत ही नहीं थी। वैसे भी हम किसी पेड़ को दे क्या सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा पानी। बाकी सबकुछ तो वे ही हमें देते हैं। अगर पानी तक पहुंचने के स्रोत को हमने बांधा नहीं होता तो शायद वे हमसे पानी भी नहीं मांगते। बस चुपचाप हमें देते जाते। हम उनकी मुंडी काट लेते। फिर वे हमें अपना साग देते। हम उनके बच्चे उनसे छीन लेते। हम उनके अंडे उनसे छीन लेते। पर वे चुपचाप संतोष कर लेते। चलो, ठीक है, हम और पैदा कर लेंगे। कोई बात नहीं। ये कैसा धैर्य है। एक जगह चुपचाप खड़े रहने से आया होगा यह धैर्य। सिर्फ चुपचाप।
ली ची के तीन बीजों को मैंने शरीफे के नीचे, पुदीने के पास वाली क्यारी में एक सीध में जमीन के नीचे दबा दिए। यहां पर पानी देने की जरूत नहीं थी। फिर भी मैं यहां पर रोज पानी डालने लगा। सुबह पेड़ लगाने के बाद मैं दोपहर में वहां चला चला गया। जहां मैंने ली ची के बीज दबाए थे। वहां की मिट्टी सूखी लग रही थी। आसपास से थोड़ी उभरी हुई। इस सूखी मिट्टी को मैंने फिर से गीला कर दिया। शाम को देखा। फिर गीला कर दिया। नमी बनी रहे तो बीज में से अंकुए फूट सकते हैं।
रात बीत गई। सुबह हुई तो सबसे पहले मैं पुदीने की उसी क्यारी के पास पहुंचा। लेकिन, रात भर गिरी ओस से धरती गीली थी। पानी देने की जरूरत नहीं थी। लेकिन अंकुए भी नहीं फूटे थे। फिर दोपहर को देखा। फिर शाम को। फिर अगली सुबह हुई। फिर सुबह भागा। लेकिन, ली ची के बीजों ने अभी आंखे नहीं खोली थीं। फिर दोपहर हुई। फिर शाम हुई। फिर रात बीती। फिर अगली सुबह हुई। पर बीज ने आंखे नहीं खोली।
मैंने जमीन को हल्के से कुरेदना शुरू किया। देखूं तो जरा। अंकुए फूट रहे हैं कि नहीं। एक-एक कर तीनों बीज निकाल लिए। बीज मिट्टी के साथ सने हुए थे। लेकिन उनमें जीवन का कोई चिह्न नहीं था। हालांकि पानी से वे नम लग रहे थे।


मैंने फिर से उन्हें मिट्टी के नीचे दबा दिया। इस बार ज्यादा सावधानी से। कहीं नीचे कोई पत्थर तो नहीं आ रहा। खपरैल का कोई टुकड़ा। अगर कोई सख्त चीज आ गई तो फिर वो अंकुए कैसे फोड़ेगा। उसकी जड़ें जमीन में कैसे जगह बनाएंगी। पर मिट्टी भुरभुरी थी। उसमें सख्त कंकड़ भी नहीं थे। तीनों बीजों को फिर से मिट्टी में दबा दिया। फिर पानी डाल दिया।
फिर दोपहर हुई। शाम हुई। रात आई। सुबह हुई। पर अंकुर नहीं फूटा। पानी डाला। दोपहर हुई। शाम हुई। रात हुई। फिर सुबह हुई। लेकिन, अंकुर नहीं फूटा। कब निकलेगा बीज से पेड़। एक दिन इंतजार। दूसरे दिन इंतजार। आखिर तीसरे दिन फिर से मिट्टी को हटाकर देखने का मन किया। क्या पता बीज में से अंकुए निकलने लगे हों। एक एक करके तीनों बीज निकाल लिए। बीजों में मिट्टी सनी हुई थी। लेकिन, नवजीवन के निशान नहीं थे।
फिर उन्हें मिट्टी से दबा दिया। फिर पानी दिया। फिर दोपहर हुई। शाम आई। रात हुई। सुबह हो गई। दो दिन के इंतजार के बाद फिर धैर्य खतम हो गया। एक बार फिर जमीन खोदी। लेकिन निराशा ही हाथ लगी। इन बीजों में नवजीवन के चिह्न फिर नहीं थे।
इस तरह से कई बार करता रहा। बीजों को जमीन में दबाता। पानी देता। फिर जब इंतजार लंबा होने लगता तो जमीन को हटाकर थोड़ा सा देख लेता। शायद उसमें से अंकुर फूटने लगा हो। कई-कई बार ऐसा किया। पर पता नहीं क्यों उसमें से अंकुर फूटे ही नहीं। पानी भी दिया। देखभाल भी की। पर उनमें से पेड़ों का जन्म नहीं हुआ।
पता नहीं क्यों।
००
(जीवन को बार-बार कुरेदने से जीवन जनम नहीं लेता बल्कि मर जाता है।)

कबीर संजय की चौथी कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

जनमदिन
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