परितोष कुमार 'पीयूष'की कविताएँ
परितोष कुमार ,पीयूष |
तुम्हारी याद!
हमेशा तो नहीं
पर हाँ जब भी कभी
तुम्हारी याद आती है
टटोलकर अपनी आलमीरा से
निकालता हूँ
पुरानी बंद पड़ी एक घड़ी
बिना जिल्द वाली डायरी
छूटे हुए तुम्हारे एकाध वस्त्र
टूटे हुए तुम्हारे कुछ बाल
जिसे अपनी किसी अल्सायी सुबह
कमरे से उठा सहेज रखा था मैंने
मुठ्ठी भर वक्त जीता हूँ
उन निशानियों के साथ
बीते दिनों में
हर बार की तरह
फिर थोड़ा पत्थर होता हूँ
अपने आप से वायदे करता हूँ
कि लौटा दूँगा
ये तमाम निशानियाँ तुम्हें
इस उम्मीद के साथ
कि कभी न कभी
वक्त के किसी न किसी
सिरे पर तो तुम मिलोगी...
चूमना!
साल दो हजार सोलह के
अगस्त की
वह कोई अलसायी सी
शाम रही होगी
जब उसने पहली बार
मुझे चूमा था
ठीक उसी सन्नाटे के साथ
मैंने जाना था कि
प्रेम में चूमना, शायद
दुनिया का
सबसे सुखद एहसास है
पर मैं
गलत था
वक्त ने बताया मुझे
आँखों का तिलिस्म
होठों की राजनीति
प्रेम का अभिनय
शरीर की भूख
और शाम की साजिश.
..
अपने हिस्से की मानवता!
तुम जितनी गहरी नींद में
उतरती हो
हर रात मैं उतना ही
निश्चिंत हुआ जाता हूँ
अपने हिस्से की
मानवता के पक्ष में...
विदा लेते वक्त!
विदा लेते वक्त
हम लिखते हैं
होठों पर चुंबन
और रह जाती है
बोरी भर बातें
फिर, फिर अनकही...
उम्मीद!
तुम्हारी यादों को ओढ़ता हूँ
तुम्हारी यादों को बिछाता हूँ
अपनी लिहाफ में छोड़ रखता हूँ
तुम्हारे हिस्से की पूरी जगह
तुम्हारी चुप्पी टूटने की
टूटती उम्मीद में काट लेता हूँ मैं
इस सर्द मौसम में
अपने हिस्से की पूरी रात...
तुम्हें महसूसने के लिए!
तुम्हें महसूसने के लिए
यह जरुरी नहीं कि, मैं तुम्हें
लम्बे वक्त तक चूमता ही रहूँ
मुठ्ठी भर यादें बची रहती है
हमारे बचे रहने तक...
हमारी सुबह!
पक्षियों के कोलाहल
हमारी सुबह
कभी तय नहीं कर सकते
हमारी सुबह तय करती है
हमारे अपने हिस्से की रात...
इस कठिन समय में!
इस कठिन समय में
जब यहाँ समाज के शब्दकोश से
विश्वास, रिश्ते, संवेदनाएँ
और प्रेम नाम के तमाम शब्दों को
मिटा दिये जाने की मुहिम जोरों पर है
तुम्हारे प्रति मैं
बड़े संदेह की स्थिति में हूँ
कि आखिर तुम
अपनी हर बात अपना हर पक्ष
मेरे सामने इतनी सरलता
और सहजता के साथ कैसे रखती हो
हर रिश्ते को
निश्छलता के साथ जीती
इतनी संवेदनाएँ
कहाँ से लाती हो तुम०
बार-बार उठता है यह प्रश्न मन में
क्या तुम्हारे जैसे और भी लोग
अब भी शेष हैं इस दुनिया में
देखकर तुम्हें
थोड़ा आशान्वित होता हूँ
खिलाफ मौसम के बावजूद
तुम्हारे प्रेम में
कभी उदास नहीं होता हूँ...
परितोष कुमार 'पीयूष'
जमालपुर, बिहार
7870786842
गहरी संवेदनाओं से भरी कविताएँ हैं । प्रेम की अलग परिभाषा गढ़ती हुई । कवि को बधाई ��
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
हटाएंविदा लेते वक्त
जवाब देंहटाएंहम लिखते हैं
होठों पर चुंबन
और रह जाती है
बोरी भर बातें
फिर, फिर अनकही...गहन संवेदना और अनुभूति की तीव्रता से लबरेज़ पारितोष की कविताओं को पढ़ने और जज़्ब करने का अवसर देने के लिए बिजूका का शुक्रिया। भाई पारितोष को इन बेहतरीन कविताओं के लिए हार्दिक बधाई।
बहुत आभार भास्कर चौधुरी जी।
हटाएंमनमोहक कवितायेँ ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा और खूबसूरत कविताएं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंअद्भुत और अनुभूत कविताएँ संवेदनाओं के जंगल में खिले रजनीगंधा के फूल. शुक्रिया पढ़वाने के लिए
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सुमन जी
हटाएंआपकी आँखों में और आपकी कविताओं में समय के साथ बढ़ती हुई सी गहराई है। पढ़ कर अच्छा लगा ऐसा लगा की लिखते समय आप ये शब्द जी रहे थे सिर्फ लिख नहीं रहे थे। ईमानदारी रही लेखन में । शेयर करने के लिए धन्यवाद ।फेस बुक पर आपको जानना सार्थक लग रहा है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रज्ञा जी।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रेम कविताएँ...प्रेम छलक रहा और पाठक भीग जाए, ऐसी कविताएँ रचने के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रश्मि जी।
हटाएंगहरे भाव, शब्दों के बंडल से लिपटी अनुभूतियाँ, और आप का प्रस्तुतिकरण अद्भुत है परि।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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