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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 अगस्त, 2018

हूबनाथ की कविताएं



हूबनाथ


1.

राघव:  करुणो रस:


मूल्यों के मरने पर
जनमती हैं मूर्तियां
अबकी बारी आपकी
प्रभु!
सरयू तट स्थापित होंगे
रुपए दो सौ करोड़ में
दुनिया भर में खड़ी
गगनचुंबी प्रतिमाओं की
नींव में दफ़्न हैं
सिद्धांत महापुरुषों के
पढ़ा है
आपके महल में भी थीं
प्रतिमाएं पूर्वजों की
पर इतनी भव्य तो नहीं
रघुवंशियों को प्रिय थी प्रजा
प्रतिमा नहीं
किंतु प्रजातंत्र में
प्रजा सिर्फ मतदाता
निर्णायक है सत्ता
और दंश सत्ता का
कौन जानेगा आपसे अधिक
किशोरावस्था में
ऋषियों की रक्षा
राक्षसों के संहार को
पठाए गए वन
राज्याभिषेक की जगह
चौदह वर्ष का वनवास
लौटने पर
सत्ता तो मिली
सीता चली गई
छली सत्ता के समक्ष
कितने असहाय थे आप
कि अंततः शरण ली
सरयू मैया की गोद में
उसी के तट
फिर उभारेंगे
गगनचुंबी प्रतिमा आपकी
शायद उतनी ऊंचाई से
देख पाओगे
दवाओं के अभाव में मरते
दुधमुंहे बच्चों को
शिक्षकों सुविधाओं के अभाव
भटकते लव कुशों को
धरती में प्रतिदिन समाती
सीताओं को
और रामनामी ओढ़े
रावणों को
मैं सोच सकता हूं
कितने असहाय होंगे
इस बार आप
अब तो
डूबने भर को
पानी भी नहीं होगा सरयू में
फिर भी
मैं रहूंगा आपके साथ
हर हाल में
भीतर की श्रद्धा मर जाती है
तब बाहर बनती हैं
मूर्तियां
विशालकाय



2.

पृथ्वी


पृथ्वी बचनी चाहिए
जिससे बन सकें
ख़ूब चौड़ी सड़कें
भव्य फ़्लाइओवर
अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे
मेट्रो की सुरंगें
नदियों पर बांध
समंदर पर पुल
पहाड़ों पर पवनचक्की
जंगलों में खदानें
और भी बहुत कुछ के लिए
बचनी ही चाहिए पृथ्वी
और बचने चाहिए वे सभी
जिनसे ख़तरा है पृथ्वी को
बचनी चाहिए मिसाइलें
बारूद के ढेर
अत्याधुनिक हथियारों के जखीरे
मूर्ख तानाशाह
कमीने सत्ताधारी
अनपढ़ वैज्ञानिक
अपराधी बुद्धिजीवी
इन सबके व्यभिचार के लिए
बचनी ही चाहिए पृथ्वी
महिलाओं से बलात्कार पर फांसी
पृथ्वी से बलात्कार पर पुरस्कार
पृथ्वी की नीच संतानें
करतीं रहें धरतीमाता पर
घिनौने बलात्कार
और एफ़आईआर भी दर्ज न हो
इसलिए
बची रहनी चाहिए पृथ्वी
कि हम मना सकें
पृथ्वी दिवस
पर्यावरण महोत्सव
पर असल सवाल
पृथ्वी बचाने का है ही नहीं
इन्सानों को बचाने का है
पृथ्वी को वैसे भी
कुछ होने से रहा
पृथ्वी इन भोगियों के
अबाध भोग के लिए
बची रहनी चाहिए
वीरभोग्या वसुन्धरा
आओ वीरों के भोग के लिए
हम सब बचाएं पृथ्वी
बचाएं बेटियां
बचाएं नदियां
बचाएं ख़ुद को
वीरों के इस्तेमाल के लिए
वीर वह होता है
जिसकी जांघ के नीचे
सत्ता सोती है
चलो कमीनों
बचाते हैं पृथ्वी

3.

कुर्सी


कुर्सी
सिर्फ बैठने के लिए
नहीं होती
होती है
बहुत लोगों को
हाथ बंधवाए
बाहर खड़े रखने को भी
बैठा आदमी
अमूमन लड़ नहीं सकता
पर लड़कर बैठा आदमी
कुर्सी पर
अक्सर बैठा नहीं रह सकता
कुर्सी की मुख़्तसर सी
चार टांगें होती हैं
आदमी से कुल दो ज़्यादा
पर हज़ारों टांगें मिलकर भी
हिला नहीं सकतीं
ये टांगें चार
बुद्धिमान कहते हैं
रावण के दरबार में
अंगद ने अपनी नहीं
कुर्सी की चार टांगें
रोपीं थी
जिसे आज तक
न कोई रावण
न राम ही
हिला पाया
००



4.

छोटे किसान


वे ज़मीन में धंसकर
तलाशते हैं रोटी
जैसे
दुधमुंहा शिशु
टटोलता है
मां के स्तन
धधकती धूप में
जलाते हैं हड्डियां
घुटनो तक फंसे कीच में
सड़ाते हैं त्वचा
फाड़ते हैं बिवाइयां
कड़कडाती ठंड में
ऋतुएं उन्हें सहलाती नहीं
दहलाती गुज़रती हैं
जीवन के इस दुष्चक्र में
वे अभिमन्यु की तरह
जानबूझकर नहीं घुसे
ग़लती से फंस गए
और क्रूरता से बधे गए
सत्ताधारी कौरवों के हाथों
उनके हाथ में हल थे
पर वे नहीं थे बलराम
उनकी बैलगाड़ी का पहिया
धंस गया था
राजमार्ग के बीचोंबीच
वे कर्ण भी नहीं थे
पर छलनी हुए
योद्धा अर्जुन के तीरों से
उनकी महाभारत में
न कोई व्यास था
न कृष्ण
उन्हें  नहीं चाहिए था
कोई राज्य
वे वनवास को भी थे राज़ी
पर उन्हें
न गांव मिला
न वन, न जीवन
न स्वर्ग, न नर्क
सिर्फ
क्रूर यातना
कभी न थमने वाली
क्योंकि
वे ज़मीन में धंसकर
तलाश रहे थे रोटी
पूरी क़ायनात के लिए
और उनके हाथों लग रहा था
मरी हुई मां का
सूखा स्तन

5.

मुक्ति  बोध



अपने फेफड़ों की भांथी बना
जलाया है
हड्डियों का कोयला
तब पिघला है
श्रम का लोहा
जिससे बनाईं दरांतियां
बनैले पशुओं
विषधरों से बचने
गढ़ी कुल्हाड़ियाँ और फरसे
काटने छांटने
झाड़ झंखाड़
बनाई मशीनें
जीवन बने सुविधाजनक
और एक दिन
सौंप दिया सब कुछ
कुछ लोगों को
क्योंकि बहुत काम थे
हमारे पास
अपने औज़ार ही नहीं
अपनी धरती
अपना जीवन
अपने बच्चे
अपनी नदियाँ
अपने पहाड़
कुछ भी तो नहीं रखा
पास अपने
बड़े भरोसे
सौंपा था उन लोगों को
जिन्होंने खाई कसमें
किये वादे
बने मुहाफ़िज़
और पलट गए
सांप काटने के बाद पलटता है
इन्होंने पलटने के बाद काटा
अब फेफड़ों में बची नहीं हवा
हड्डियों में आग
राख की ढेर में दबी
चिनगारियों
आओ
थोड़ा और करीब आ जाओ
बदन से राख को झटको
धरती पर बची हवाओं को
आवाज़ दो
चलो फिर एक बार
पिघलाते हैं
श्रम का लोहा
इस बार सिर्फ अपने लिए
अपनी धरती के लिए
अपनी संतानों के लिए
लड़ते हैं
बनैले पशुओं
विषधरों से
जिनपर भूल से
भरोसा कर लिया था
हमारी ही भूल ग़लतियाँ
बैठ गई हैं
तख़्त पर दिल के
अब कोई नहीं आएगा
हमारी हार का बदला चुकाने
मुक्तिबोध भी नहीं
यदि हमें ही बोध न हो
अपनी मुक्ति का
००




6.

मनु स्मृति


गर्भधारण से जनमने तक
जनमने से घिसटने तक
कभी पेट में
कभी गोद में
कभी पीठ पर
कभी पेट पर
मां ढोती है उसका बोझ
और बोझ नहीं समझती
बाल्यावस्था में
सौभाग्यशाली रहा तो बहन
वरना आस पड़ोस की लड़कियां
ढोती हैं  लोभ-क्रोध का बोझ
पाठशाला में सहपाठिने ढोती हैं
उसके अहंकार का बोझ
प्रेमिका मिली
तो ढोती है कुंठाओं का बोझ
सबसे ज़्यादा ढोतीं हैं पत्नियां
उसकी मूर्खता,जड़ता,सनक
और दंभ का बोझ
बीमार पड़ा तो ढोती हैं
परिचारिकाएं
बुढ़ापे में ढोती हैं बेटियां
(अगर अभागा न हुआ तो)
और मरने के बाद भी
पीछे बची औरतें ही ढोती हैं
उसकी अच्छी बुरी स्मृतियां
पुरुष!
धरती पर ऐसा बोझ है
जो बिना स्त्री के सहारे
बिलकुल अपने दम पर
एक पल भी टिक नहीं सकता
चाहे वह जितना महान हो
वह जितना महान होगा
उतना ही कठिन बोझ होगा
 औरतों के लिए
(अपवाद से इन्कार नहीं)
वैसे महानता ख़ुद में
एक बड़ा बोझ ही होती है
पुरुषों की तरह
००

7.

जेल


चटककर जूही
अंगड़ाई ले जाग उठती है
खिलखिलाती सोनचंपा
की गोद में
नीम के चंपई फूल
नहलाते हैं
लहलहाती घास को
ललछौंहे बैंगनी आम्रपल्लव
चिढ़ाते गुलमोहर को
आषाढ़ में उतरा है बसंत
खारघर पहाड़ियों की वादी में
तलोजा जेल की
चारदीवारी के भीतर
क़त्ल की सज़ा पाया
खूंख्वार क़ैदी
मधुमालती की जड़ों से
अलगाता है खरपतवार
बड़े करीने से
कनेर के झरे फूलों को
चुनकर गूंथेंगा
डकैती का मुजरिम
पीपल की छांह में
साथियों को पढ़कर सुना रहा
गांधी की आत्मकथा
कई दफ़ाओं का
आरोपी है
चोरी और हत्या का अपराधी
सुंदर तस्वीरें बनाता
महापुरुषों की
और उनके संदेश लिख
टांकता है जेल की दीवारों पर
एक नौजवान
बना रहा ख़ूबसूरत
ग्रीटिंग कार्ड्स
जिसे उम्रकैद मिली है
बीमार साथी को
पीठ पर लादे
एक भागा जा रहा
हेल्थ सेंटर की ओर
तो कुछ सुस्ताते
बीड़ी पीते
बारी के इंतज़ार में हैं
आज तारीख़ पर जाना है
इन सबके बीच
बिना किसी गुनाह के
उतरता है बसंत
गुनाह और बेगुनाही की
अभिशप्त छाया में
सारे ख़ौफ़नाक अपराधी
क़ैद हैं
ऊंची चारदीवारी के बीच
हमें ख़ुश होना चाहिए
कि अब हम हैं
पूरी तरह महफ़ूज़
और भूल जाएं
कि हमारी ख़ूबसूरत दुनिया में
एक जेल भी है
००

8.

कवि केदार


लोग कह रहे हैं
तुम अचानक चले गए
लोग कह रहे हैं
तुम तिरासी बरस के थे
लोग कह रहे हैं
बड़ा दुखद है तुम्हारा जाना
तुम्हीं ने कहा था
जाना
सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है
अभी कल ही
तुम कह रहे थे
यहां से देखो
ज़मीन पक रही है
अकाल में सारस
उड़ रहे हैं
हम तो अभी भी घिरें हैं
बाढ़ के पानी में
और कगार अररा कर
गिर रहे हैं
बाघ अभी भी
शहर में भेस बदले
घूम रहा है
दाने नहीं लौटे हैं हाट से
बुनाई का गीत
अभी थमा नहीं है
इतना कुछ बीच में छोड़ कर
कैसे जा सकते हो तुम
दरअसल
लोग झूठ बोल रहे हैं
अफ़वाह फैला रहे हैं
तुम तो अक्सर जाते ही रहते हो
पतझड़ की तरह
और पीपल के नए टूंसों में
फिर अंखुआने लगते हो
तुम जाते रहते हो
जैसे जाती है नवेली दुलहिन
पहली पहली बार अपने मायके
तुम जाते रहते हो
जैसे जाते हैं बच्चे स्कूल
मवेशी जाते हैं चरने
मनिहारिन निकलती हैं गांव में
बंबई के डिब्बे वाले
निकलते हैं काम पर
जाते रहना
फ़ितरत है तुम्हारी
और तुम्हारी उम्र नहीं है
तिरासी साल
जब से जनमी है भाषा
तब से आए हो तुम
और तभी जाओगे
जब चली जाएगी भाषा
बुझ जाएगा सूरज
नहीं रहेगी पृथ्वी
तब नहीं रहोगे तुम भी
जब तक चट्टानों पर
थरथराती है दूब
बांस की पत्तियों पर
चमकती है ओस
हल की फाल से
खिलखिलाते हैं खेत
मटर की छीमियों में
किलकते हैं दानें
गेहूं की बालियों में
बरसता है दूध
मां के स्तनों से लगा
ऊंघता है शिशु
आंगन लीपती है बहुरिया
गाती है गीत नइहर के
और भीमसेन जोशी अलापते हैं
पद कबीर के
तब तक रहोगे तुम
हमारे बीच
लोग झूठ कहते हैं
भला कैसे जा सकते हो तुम
जबकि
जाना
सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है
००

केदारनाथ सिंह


9.

डरो


डरो
डर ईश्वर है
ईश्वर से डरो
जन्म से डरो
मृत्यु से डरो
पिता से डरो
पुत्र से डरो
भाइयों से डरो
बहनों से डरो
बेटी के जन्मने से डरो
उसके बचपन
एडमिशन और पढ़ाई
और बढ़ाई से डरो
शादी और दहेज से डरो
दामाद से डरो
उसके मां-बाप से डरो
गली के गुंडे से डरो
नेता से डरो
नेता के चमचों से डरो
नेता बोले तब डरो
चुप रहे तब डरो
पादे तब भी डरो
डरो
मंहगाई से बेकारी से
बीमारी से डाक्टर से
अस्पताल से श्मशान से
मेहमान से यजमान से
नौकरी मिली तो बाॅस से
बीवी मिली तो सास से
चोर से तो डरो ही
पुलिस से भी डरो
कानून से डरो
कानून के रखवालों से डरो
घर में डरो
सड़क पर डरो
बस में चढ़ते डरो
ट्रेन से उतरते डरो
जंगल में डरो
गांव में डरो
शहर में डरो
सहरा में डरो
पुण्य से डरो
पाप से डरो
कुत्ते से डरो
सांप से डरो
ठंड से डरो
बारिश से डरो
गर्म से डरो
धर्म से डरो
धर्म के ठेकेदारों से डरो
वैसे ठेकेदार कहीं का भी हो
उससे ज़रूर डरो
डरते डरते जिओ
जीते जीते डरो
डर ईश्वर है
ईश्वर से डरो

10.

लुकाछिपी ‌


पचास
दो बरस पहले ही तो
कर गया पार
किंतु
डर कल ही लगा
अचानक अनायास
वे मित्र याद आने लगे
जो मेरी ही उम्र के थे
पर
दो पांच साल पहले
दुनिया छोड़ गए
रामकलप सिंह
हृदय के पक्षाघात से
विद्याधर
रक्तपित्त के प्रकोप से
तो.....
फिर डर गया
अपनी उम्र के साथी
जब जाने लगें
बढ़ने लगता है
डर
ऐसे में याद करता हूं
विवेकानंद
उम्र ३९साल
भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव
बाघा जतिन
चंद्रशेखर आजाद
इन विभूतियों से
अधिक जीने का संतोष
हल्का कर देता है
डर
मुक्तिबोध तो
४७ भी पूरे नहीं कर पाए
अब
इनकी उपलब्धियां
इनका शौर्य,महानता
फिर गहराने लगता
डर
अपनी क्षुद्र तुच्छता
नकारेपन की गलीज़ में
धंसने लगता हूं
छटपटाता हूं
समझाता हूं ख़ुद को
उम्र लंबी नहीं
गहरी होनी चाहिए
जीवन संपन्न नहीं
सार्थक होना चाहिए
स्वस्थ होना चाहिए
याद आ जाती है
थाइराइड की टिकिया
हर रोज़ सुबह लेता हूं
और सोचता हूं
कल सुबह से
ज़रूर शुरू करूंगा
मार्निंग वाक
हल्का व्यायाम
सात्त्विक भोजन
नियमित दिनचर्या
डर हल्का होने लगता
याद करता हूं उन्हें
जो मेरी ही उम्र के हैं
अनेक बीमारियों से ग्रस्त
पल रहे दवाओं पर
कई बार जा चुके अस्पताल
डर मिटने लगता है
सोचता हूं
जो हाथ में नहीं है
उसपर रोने से बेहतर
अच्छा करने की बची संभावना
चाहे जैसी
कर दूं शुरुआत
रंग लूं
सफ़ेद बाल
स्मार्ट बनूं
पछाड़ दूं इस पचास को
अमिताभ तो
पचहत्तर में भी पाठा है
दिलीप साहब
मार ही लेंगे सेंचुरी
धर्मेंद्र भी तो स्वस्थ हैं
और ये तमाम ख़ान
अक्षय कुमार
मेरी ही उम्र के
आसपास तो हैं
इसी बहलाने फुसलाने में
उम्र, बीमारी और मौत
तीनों से एक साथ
शुरू करता हूं
लुकाछिपी
आओ
मुझे ढूंढो!

11.

खुशनसीब

जलगाँव के किसान
न्यायालय से
आत्महत्या की
अनुमति चाहते हैं
सेंसेक्स
तीस हज़ार
पार जाता है.
अभिनेता का
भीमकाय पोस्टर
दूध से धोया जाता है
भूखे बच्चे
सड़क पर बहता
दूध नहीं
अभिनेता का
चेहरा देखते हैं
चंद्रमौली
हफ़्तेभर की
 आमदनी लुटाकर
बीवी बच्चों सहित
बाहुबली का
नया अवतार देखता है
महीने के बाक़ी दिन
घर में सब्ज़ी नहीं बनेगी
चार साल की बेटी
माँड पर
पति पत्नी
नमक भात पर
कुछ किसान
राजधानी में
अरण्यरोदन
कुछ को रुलाएगा
दो रुपये किलो प्याज
लागत भी नहीं पाएँगे
गर्मी आ रही है
ईश्वर की करुणा
लू बनकर
सरकार की
मुआवज़ा बन
बरसेगी भरपूर
हम ख़ुशनसीब हैं
ऐसे बेशर्म दौर में
पूरे कपड़े पहनकत
बाज़ार में निकले हैं
००




2 टिप्‍पणियां:



  1. हुबनाथ सर जब लिखते है तो लिखते नही कड़वा सच कहते है। रामराज्य से लेकर अटल की जीवनपटल से विदाई तक सारी सच्चाईयों को छीलकर सत्व पेश करनेवाली कलम जिनके हाथ में है वे भला रावण कंस या शकुनि से क्या डरेंगे। एक एक कविता यहां पढ़कर लग रहा है कि ये सब हम देखते है जानते है पर शायद मानते नही।
    हमने जो हालात सृष्टि की कर दी है उसे देख कर हम ही बौखला गए है कि क्या क्या बचना चाहिए।
    पृथ्वी को बचानेवाले कई अवतारों के बावजूद, पृथ्वी वराहो की नाक पर झूल रही है।
    कुर्सियों के नशे मे धुत नेतागिरी के पीछे भागनेवाले लोगों पर करारा व्यंग्य, प्रवृत्तियों की असहज परिवर्तनीयता पर टिप्पणी और सामाजिकता की आड़ में पनपते स्वार्थान्ध तरीको पर चमाट लगाने का साहस केवल कवि ही कर सकता है। आज के चाटूकारिता के दौर में साहसी कवि भी न रहे कवि रहे पर साहसी न रहे इसलिए बहुत खुशी होती है पढ़कर की हुबनाथ सर की कलम आज के सारे अस्वीकारणीय स्थितियों पर तंज कसने में समर्थ है । इनकी स्पष्टता प्रशंसा से ज्यादा समर्थन आमंत्रित करती है।
    मनु स्मृति भी स्पष्टवक्ता कवि की धार धार टिप्पणी है और ऐसा सत्य भी जो समाज झुठलाता ही रहा।
    पुरुष के अहंकार का महान और कठिन बोझ
    औरतों के त्याग की और बोझ उठाने की क्षमता से बड़ा नही हो सकता (अपवाद से इन्कार नहीं)
    पुरुषों की तरह बोझ बन कर जीता हुआ समाज का दम्भ, मनुस्मृति की ही तो देन माना गया है। जेल में उतरा हुआ वसंत और कैदियों के रूप में अभिशप्त जीवन को संवारता हुआ सहज इंसान, व्यवस्था का शिकार हो कर अपनी बेगुनाही के गुनाहगार भी तारीख का ही इंन्तज़ार करते है।
    बहुत ही विदारक सत्य का दर्पण है हुबनाथ जी की कविताएं। इनके व्यापक दृष्टिक्षेप में कलम डर भी नांप सकती है और डर को इस तरह उजागर कर सकती है कि डर का भी डर न रहे!😊 इंसान से कहो कि
    ईश्वर से डरो पर असल में ईश्वर इंसान से इतना डर बैठा है कि सामने नही आता।

    जीवन की लुकाछिपी मौत से होती है या अपने आप से...या बदलती हुई उम्र से, या वक़्त से, बहुत भीषण है ये सादा सच जिसमें साधारण इंसान अभिनेता भी है और एक एक अभिनेता साधारण इंसान भी। उम्र ख़यालो पर पलती है और ख़याल उम्र पर। हुबनाथ जी की कलम जानती है कि सच कह देना ही सच से लड़ाई का हथियार है। हीरो की तरह न दिख पानेवाला भी नही जानता कि वो स्वयं पर्दे पर दिखनेवाले हीरो से ज्यादा बहादुर है।

    भयावह स्थितियों का दर्पण है वो पंक्तियां जिसमें कोई मनोरंजन के भ्रम से लूट लेता है गरीबो की अमीरी, तो कोई लुटा देता है कुछ क्षणों के बदले अपनी मेहनत की ज़िंदगी ...
    हम ख़ुशनसीब हैं
    ऐसे बेशर्म दौर में...

    शब्द भी ताक़त है इसका प्रमाण और लाज को लजाती हुई कलम के परिमाण इन काव्य पंक्तियों से मिलते है। हुबनाथ सर का बहुत बहुत अभिनंदन। आप ऐसे ही लिखते रहिये, शायद इसीसे कुछ लोग कुछ रिवाज़ कुछ प्रवृतियां बदल जाये।

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  2. बेहद बेसाख्ता लिखते हैं
    उन कड़वी सच्चाईयों को लिखते हैं
    जिन्हें हम सोचकर छोड़ देते हैं
    हमारे उन कृत्यों को लिखते हैं
    जिन्हें हम करने से नहीं छोड़ रहे हैं

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