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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2018

निर्बंध: छः


गाय के मरण नहीं जीवन की बात करिए

यादवेन्द्र


यादवेन्द्र


राजनैतिक नजरिये से देखें तो गाय को लेकर कुछ साल पहले प्रकाश सिंह बादल ने मृत गाय की आत्मा की शांति के लिए विधान सभा में शोक प्रस्ताव रखने और गाय के भव्य स्मारक के निर्माण के लिए करोड़ों रु.स्वीकृत करने जैसे अप्रत्याशित कारनामे  पंजाब  में किये थे। उसी समय अमेरिका के कई राज्यों में पशुओं के प्रति क्रूर बर्ताव का विरोध करने वाले कुछ संगठन सड़क किनारे उन गायों का स्मारक बनाने की माँग कर रहे थे जो गाड़ियों की ठोकर से असमय जान गँवा बैठती हैं।उसके बाद गंगा में बहुत पानी बह गया है और गायें हमारे राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में आकर पालथी मार कर बैठ गयी हैं और राज्यों में उनके नाम पर एक से बढ़ कर एक न भूतो न भविष्यति योजना शुरू करने की अंधी दौड़ चालू हो गयी है - ज्यादातर योजनायें जमीनी हकीकत से दूर आसमानी हैं पर पैसों के हाथ बदलने की संभावना से गर्भित।कोई सप्ताह ऐसा नहीं बीतता जब किसी न किसी राज्य में स्वघोषित गोरक्षक पीट पीट कर किसी को न मारा जाता हो - यह बताने की जरुरत नहीं कि मरने वाले कौन होते हैं। यह देश की कानूनी प्रक्रिया को खुले आम चुनौती देना है जिसमे स्थानीय नेता से लेकर विधायक सांसद और मंत्री तक शामिल होते हैं। इन सबके बीच अखबारों में आये दिन सरकारी सहायता से चलने वाली गुजरात मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ राजस्थान और हरियाणा के गौशालाओं में बड़ी संख्या में गायों के भूख से मरने की ख़बरें भी आती रहती हैं - गौरक्षा के नाम पर नए टैक्स वसूले जा रहे हैं , सरकारी सहायता में घपलेबाजी को लेकर गौशाला वाले हजारों गायों को सड़कों पर खुला छोड़ कर आने जाने वालों के लिए संकट पैदा कर रहे हैं और इसको नाम दे रहे हैं "गऊगिरी",गौशालाओं के लिए पंजाब में करोड़ों रु का बिजली का बकाया माफ़ करने और भविष्य में मुफ़्त बिजली देने का आंदोलन चलाया जा रहा है।इस पूरे नाटक का विद्रूप हाल में कंगना रनौत ने बताया - सभी पशुओं (सिर्फ़ गाय नहीं)को बचाने का मेरा भी मन होता है पर जब गाय के नाम पर इंसानों को झुंड बना कर पीट पीट कर मार डालने की बातें सुनती हूँ तो लगता है कहीं मैं ईडियट तो नहीं।जिस फ़िल्म 'मणिकर्णिका' की शूटिंग वे आजकल कर रही हैं उसमें एक बछड़े को बचाने का दृश्य है पर पूरी फ़िल्म टीम ने गहन विचार विमर्श के साथ बछड़े की जगह मेमने से काम चलाने का फ़ैसला किया - ध्यान देने की बात है कि हिन्दू बहुल फ़िल्म टीम गोभक्ति के इस उन्मादी दौर में गोभक्त दिखने से परहेज करना चाहती है।

ईरानी फ़िल्म द काऊ की एक तस्वीर

पशुओं की जान के लिए हर पल चिंतित रहने वाली केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक गोरक्षा मैनुअल बनाया है और उसमें गौशालाओं में प्रति महीने दस फीसदी गायों के मरने की बात कहती हैं।

एक तरफ़ आज सत्ता पर काबिज़ लोगों का गऊ प्रेम उमड़ रहा है तो दूसरी तरफ़ गायों के लिए बनाये गए अभयारण्य अपना काम काज धीरे धीरे समेट रहे हैं और भारतीय सेना अपने पच्चीस हजार उम्दा नस्ल की दुधारू गायों  को आने पौने दामों पर बेच रही है। अभी अभी दिल्ली में दिन के उजाले में राजधानी एक्सप्रेस से कट कर बीस बाईस गायें मर गयीं...रेलवे आधिकारिक तौर पर साल में सौ से डेढ़ सौ गायों के रेल से कटकर मर जाने की बात कहता है।

इस नयी प्रवृत्ति पर कोई कहता है कि आज भारत में मुस्लिमों की तुलना में गायें ज्यादा सुरक्षित हैं तो कोई स्त्रियों की असुरक्षा के सन्दर्भ में गायों का नाम लेता है। उत्तर प्रदेश ने एक हास्यास्पद नया रास्ता निकाला - हर जेल में बूढी गायों की देखरेख के लिए गौशाला खोली जायेगी। यहाँ ध्यान देने की बात है कि जेलों में क्षमता से ज्यादा ठूँस कर रखे गए कैदियों के लिए आवश्यक स्थान नहीं है और अब उस भीड़भाड़ की शोभा बढ़ाने के लिए हजारों की संख्या में गायें बीच में शामिल हो जायेंगी।   

पर गाय क्या आज के समय में सचमुच दो सम्प्रदायों के बीच इस पाले से उस पाले में धकेली जाने वाली राजनैतिक गेंद नहीं रह गयी है?देश के अधिकांश भू भाग में दैनिक जीवन में दूध की बात जब की जाती है तो वह दूध गाय का नहीं बल्कि भैंस का या डेरी का मिश्रित दूध होता है.अब यह अलग बात है कि स्वामी रामदेव जब जन स्वास्थ्य को सँवारने के नाम पर अपने व्यवसाय की बात करते हैं तो उनमें गाय का घी और गोमूत्र के उत्पादों का नाम तो प्रमुखता से लिया जाता है पर गाय के दूध का सेवन बढ़ाने की बात कम सुनाई देती है.कुछ साल पहले ओलम्पिक में देश का मान ऊँचा उठाने वाले पहलवानों सुशील  और योगेश्वर का जब दिल्ली के चाँदनी चौक में पारंपरिक शैली में स्वागत किया गया तो उन्हें रोहतक से अच्छी खासी कीमत में खरीदी गयी भैंसें(गाय नहीं) थमाई गयीं...तस्वीरों में आज के युग के दोनों पहलवान उनके रस्से थामते हुए संकोच करते हुए दिखाई दे रहे थे। .
जब मेरी पीढ़ी के लोगों ने स्कूल में हिंदी में निबंध लिखना शुरू किया था तो सबसे पहले विषय के रूप में गाय ने ही पदार्पण किया था और इसके चौपाये होने जैसे परिचय के साथ इसका श्रीगणेश हुआ करता था.बाद में स्व.रघुवीर सहाय ने दिनमान में एकबार गाय पर लिखे लेख आमंत्रित करके अभिजात पाठकों को चौंका दिया था.बदलते हुए भारत के आदर्शवादी व्याख्याकार प्रेमचंद के गोदान का पूरा ताना बाना ही एक दुधारू गाय और उस से होने वाले अल्प आय से भविष्य सँवर जाने के स्वप्न के इर्द गिर्द बुना गया है..पर देश के नवनिर्माण के स्वप्न सरीखे इस स्वप्न के बिखरने में समय नहीं लगा.लोकमानस में गाय की छवियाँ बदलती सामाजिक सचाइयों और अर्थव्यवस्था के साथ धूमिल जरुर पड़ रहीं हैं और गाय को लेकर अब सारा मामला इसके वध और मांस बेचने /निर्यात करने तक सिमट कर रह गया है.स्व.करतार सिंह दुग्गल की एक गाय और उसके बछड़े को लेकर लिखी गयी अद्भुत कहानी अब इतिहास की बात रह गयी.


सांप्रदायिक चश्मे से समाज को देखने वाले गोवध की बात करते हुए हमेशा मुसलमानों की ओर ऊँगली उठाते हैं पर पिछले दिनों जेएनयू और हैदराबाद जैसे कुछ विश्वविद्यालयों में छात्रों के मेस में विभिन्न जीवन शैलियों को बराबरी का दर्जा देने के साथ गोमांस का प्रयोग करने की माँग तक हुई है.दलित विमर्श में भी गोमांस के निषेध के ब्राह्मणवादी डंडे को नकारने के स्वर उठते रहे हैं.पर दारुल उलूम की हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए मुसलमानों से गोवध से परहेज करने की और गोहत्या के सम्बन्ध में देश के नियम का सम्मान और पालन करने की गुजारिश(फतवे की शक्ल में) का पूरा पन्ना ही  दैनिक विमर्श की किताब से फाड़ लेने का षड्यंत्र जोर शोर से जारी है.
 ईरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ(1969 )  दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले ईरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी निःसंतान व्यक्ति  को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी की  यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना  के प्रति सहिष्णु बनाया. फिल्म के नायक हसन का अधिकांश समय गाय(पूरे गाँव में इकलौती गाय) को नहलाने धुलाने,खिलने पिलाने,बतियाने और हिफाजत करने में ही जाता है...यहाँ तक कि साबुन से मलमल कर नहलाने  के बाद वो उसको अपने  कोट से पोंछता है .अपनी गाय की वजह से उसकी गाँव में बहुत इज्जत है और जब उसको पता चलता है कि वो गर्भवती है तो हसन को एक से दो गायों का स्वामी हो जाने का गुमान भी होने लगता है.एकदिन किसी काम से जब हसन को बाहर जाना पड़ता है तो उसी बीच में उसकी गर्भवती गाय की मृत्यु हो जाती है.उसकी पत्नी और सभी गाँव वाले गाय को एक गड्ढे में दफना तो देते हैं पर मिलकर यह फैसला करते हैं कि हसन के लौटने पर उसकी कोमल भावनाओं का ख्याल रखते हुए गाय के अपने  आप कहीं चले जाने की  बात कहेंगे.हसन को लोगों की बात पर भरोसा नहीं होता पर गाय से बिछुड़ जाने की बात उसके लिए ग्राह्य नहीं होती.उसकी याद में वह इतना तल्लीन और एकाकार हो जाता है कि खुद को हसन नहीं हसन की गाय मानने लगता है. अपना कमरा छोड़ कर वो गाय के झोंपड़े में रहने लगता है,पुआल खाने  लगता है और गाय की आवाज में बोलने भी लगता है.फिल्म का सबसे मार्मिक व् धारदार वह दृष्य है जब उसकी यह दशा देख कर गाँव वाले गाय के लौट आने का झूठा दिलासा देते हैं तो गाय बना हसन चारों दिशाओं में असली हसन को ढूँढने लगता है.उसको जबरदस्ती जब लोग अस्पताल ले जाने की कोशिश करते हैं तो वह बिलकुल अड़ियल जानवर जैसा सलूक करता है...फिर उसकी डंडे से जानवरों जैसी पिटाई की जाती है और अंततः तंग आकर बारिश में खुले आकाश के नीचे छोड़ कर लोग चले जाते हैं.अंत में हसन एक पहाड़ी से फिसल कर गिर जाता है और अपना दम तोड़ देता है.

भारत में आगरा के पास रेल से कटी गायों की तस्वीर

हसन रूपी गाय को ईरानी फिल्म व्याख्याकारों ने सीधी सादी जनता के रूप में देखा और लोकतान्त्रिक आजादी के खात्मे के बाद होने वाली दुर्दशा का सशक्त प्रतीक बताया...क्या भारत में भी गाय विनाश न करने वाली उत्पादन पद्धति ,सामाजिक भाईचारे और सहिष्णुता का प्रतीक बनेगी?
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 निर्बंध की पांचवीं कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

     
घोड़े भी इंसान को कुछ सिखा सकते हैं
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Y.Pandey     
Chief Scientist
Central Building Research Institute 
Roorkee( Uttarakhand)
INDIA
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