वैभव की कविताएँ
एक
दोनो अलग
हो ही गये
दूर हो गए
एक दूसरे से
दोनो के पास
वक़्त नही था
एक दूसरे के लिए
और अब दोनों
एक दूसरे के पास
अपना - अपना
वक़्त बिता रहे हैं
दो
इंतज़ार में
जिसके
चिराग़
जलते हैं
रौशनी
उसके
आने पर
ही होती है
तीन
तुम से मुलाकात के बाद
कई बातें
मुट्ठी में बंद कर ले आता था
और अपनी किताब में रखे
मोरपंख के साथ रख देता
भरोसा यही होता था
की ये बातें मोरपंख के
साथ बढ़ कर
कहानी में बदल जाएगी
अफ़सोस यही रहा
पंख नही बढ़ पाया
और न ही अनकहा,
कहानी बन पाया
चार
खुला दरवाज़ा
हमेशा किसी के आने
की उम्मीद नही होता
कुछ लोग जाते हुए
उसे बंद नही करते
पांच
ठहरा पानी ,
सीधी जलती लौ
और
तुम्हारा चुप
रह कर
एकटक
देखना
किसी तूफान से
कम है क्या......?
छ:
दिन भर की धूल मिट्टी से सना
लौटता हूं
मेरे पैर ज़मी छू नही
पाते अब
उसके और मेरे बीच
दूरी आ गई है
ऐसा सिर्फ मैं सोचता हूं
वो नही....
#earthday
सात
सिर्फ ख्याल .....?
ये हक़ीक़त कौन सी किताब में
दर्ज़ है ....?
अब नहीं होता .......
अंदर ही अंदर याद करना
आँखे बंद कर याद करना
रास्तों को एकटक देखते रहना
नोटबुक के पन्ने भरना
फिर उन्हें फाड़ कर डस्टबीन भरना
किसी बगीचे में बैठे,बच्चों को खेलते हुए देखना
टेबल पर बैठे बैठे पेन की स्याही खत्म करते जाना
चाय -सिगरेट पर पूरा दिन गुज़ार देना
वगैरह - वगैरह ...
एक किताब बना कर सब दर्ज़ कर दिया है
हक़ीक़त होती
पीछे मुड़ कर देखने का इंतज़ार
नहीं होता
हाथ पकड़ कर खींच ले आना
और कहना
ये दोनों का फैसला
अकेले नहीं होता
आठ
छोटा एक.....
आसमान बना रखा है
उसमे ......
कभी सितारे जड़ देता हूं
बादल बना लेता हूं
बूंदे बना देता हूँ
पंछी बना उन्हें उड़ा देता हूं
कभी सूरज के रंगों से रंग लेता हूं
बस.....
मैं अपने बनाए आसमान में भी
उड़ नही पाता
वैसे ही जैसे
ज़मी पर खड़े हो कर
अपने ऊपर के
आसमान को निहारता हूं
उसमे उड़ नही पाता
नौ
कुछ रास्ते
भूल जाने को
कुछ पन्ने
याद रखने को
मोड़ दिए हैं मैंने
दस
आओ ........
एक ही बार में तसल्ली कर लो
हर बार
यूं बेधड़क से मुझ में चले आना
सिर्फ मुझ में खुद को देखने ....?
माफ़ करना .......
ये तसल्ली इतनी सस्ती नहीं
ग्यारह
एक ही किताब है मेरे पास
खाली पन्नो से भरी
जिस में सब कुछ लिखा था
कोई अपने हिस्से का लिखा
सब कुछ मिटा कर चला गया
ये भूल कर कि ........
उसके हिस्से में
मैं भी था
बारह
कुछ रास्ते
कई कदम
कुछ पेड़
कई पत्ते
कुछ साज़
कई गीत
कुछ किताबें
कई पन्ने
कुछ मौसम
कई खुशबुएं
कुछ आहटें
कई आवाज़ें
कुछ लफ्ज़
कई बातें
कुछ साल
कई दिन
कुछ लड़ाई
कई दोस्तियां
कुछ किस्से
कई मुलाकातें
कुछ पूरा
कितना अधूरा
कुछ " मैं "
कई " तुम "
कुछ " तुम "
कई यादें
एक कहानी
एक " मैं "
सिर्फ " मैं "
तुम नहीं ........
तेरह
सुबह नींद से जागते ही
अपने तकिये के पास
टटोलते हुए अपनी
नंबरों वाली ऐनक
ढूंढता हूँ
रात के ख्वाब
हमेशा
धुंधले रह जाते हैं
चौदह
आज ये सोच रहा था
ये कोई ज़रूरी नहीं था
कि मै चल कर तुम तक पहुंचू
तुम्हे सोच कर तुम तक आना
बस .... सोच यहीं खत्म हो गई
लौट कर आने का तो सोचा ही नहीं
और रही तुम्हारी बात
तुम्हारा ये सोचना कोई ज़रूरी नहीं
की तुम
मुझे सोच कर मुझ तक आ जाओ
तुम ना
सोचना बंद करो
तुम मुझ तक चल कर ही आ जाओ .......
पंद्रह
धूल साफ़ करने का मौसम है
कुछ पुराना सामान लॉफ्ट से नीचे उतारा
पुरानी रद्दी के बीच से
कागज़ो के कुछ पन्नो का
फोल्डर नीचे आ गिरा
छुपाये हुए से लगे
वही निकले आखिर
बेहिसाब सा लिखा हुआ है
इन पन्नों में
कितना लिख देता था
तेरा
मेरा
हमारा
कई बातें थी इन पन्नों में
सोचा इन बातों को
कुछ हवा दूँ
इन पर
कुछ रौशनी डालूं
वो जो सामने फुटपाथ के
किनारे जो पेड़ है ना
उसे
हवा और रौशनी
में बढ़ते देखा है
सौलह
पीठ पर उँगलियों से लिखना
एक बचपन का खेल। ......
बड़े होते होते खेल के
नियम
उँगलियों की
छुअन,
लिखावट ,
उनका लिखने का तरीका
लिखे जाने वाले नाम
और लिखने वाली उँगलियाँ भी
सब बदलने लगी
उन की चुभन
तीखी लगने लगी खंजर बन
घाव बनाने लगी
ये क्या फिर से .....?
फिर उलटे लेट जाना
घावों को सहलाना
खेल फिर नए नियम
नई छुअन
नई लिखावट
नई उँगलियों
और अलग तरीके से
से शुरू हो गया
पता है न .....?
गोली पीठ पर मारी
खंजर भी पीठ में लगा
सारा खेल तो
पीठ पीछे ही हुआ था
सत्रह
वीरान से हो चुके मोहल्ले में
उन दो घरों के बीच का आँगन
आबाद दिख रहा था ........
कई कहानियां बनी थी कभी यहाँ
बढ़ कर देखा
खुद को भी वहीँ पाया
ऐनक लगाए आँखों में
एक डेस्क पर मुँह झुकाये बैठा
मैं ही था ........
पुराने से हो चुके पन्नो पर
धुंधली लिखावट में किरदारों
को फिर से समेट रहा था .....
कहानिया मुकम्मल कर रहा था। .....
अँधेरा हो आया था
गुलाबी ठण्ड में एक चिमनी की रौशनी
ने पास आ कर कंधे पर शॉल रख दी .....
और धीरे से कहा " अब बस "
आखिरी पन्ने पर आखिरी लाइन
लिख दी थी मैंने .........
अठारह
हवा इस कदर तेज़ थी उस दिन
की पन्नो पर रखा कांच का
पेपरवेट टेबल से गिरा
और चूर हो गया
पन्ने भी ऐसे बिखरे
की समेटते - समेटते
कब दीवारों का रंग बदला
कब खिड़कियों ने दिशा बदली
देखा तो ........
कमरे में रखी बुकशेल्फ
की दूसरी कतार में
दांए से सातवें नंबर
से झाँक रही थी
कहानी की किताब
हवाओं के रुख से बे-असर
कुछ गुम हुआ था कहानी में
तो वो थी पन्नों सी उड़ने की
आज़ादी ........
धूल जमती किताबों में
बंद कहानियां .....
लिखने वाले की गुलाम
से ज्यादा कुछ नहीं
उन्नीस
बड़ी है , छोटी है
गहरी है , ऊँची है
पूरी होती , टूटती , गिरती
फिर खड़ी हो जाती
इस छोटे मन की बड़े पैरों वाली हसरतें
" एक छोटा सा मन रोज़ बना कर रोज़ तोड़ देता है
हसरतों की बड़ी बड़ी इमारतें "
वैभव
जन्म इंदौर में हुआ है
शिक्षा राजस्थान में हुई ,
पेशे से इंटीरियर डिजाइनर/आर्केटेक्ट ,
अभी इंदौर ही में है।
वैभव |
एक
दोनो अलग
हो ही गये
दूर हो गए
एक दूसरे से
दोनो के पास
वक़्त नही था
एक दूसरे के लिए
और अब दोनों
एक दूसरे के पास
अपना - अपना
वक़्त बिता रहे हैं
दो
इंतज़ार में
जिसके
चिराग़
जलते हैं
रौशनी
उसके
आने पर
ही होती है
तीन
तुम से मुलाकात के बाद
कई बातें
मुट्ठी में बंद कर ले आता था
और अपनी किताब में रखे
मोरपंख के साथ रख देता
भरोसा यही होता था
की ये बातें मोरपंख के
साथ बढ़ कर
कहानी में बदल जाएगी
अफ़सोस यही रहा
पंख नही बढ़ पाया
और न ही अनकहा,
कहानी बन पाया
चार
खुला दरवाज़ा
हमेशा किसी के आने
की उम्मीद नही होता
कुछ लोग जाते हुए
उसे बंद नही करते
पांच
ठहरा पानी ,
सीधी जलती लौ
और
तुम्हारा चुप
रह कर
एकटक
देखना
किसी तूफान से
कम है क्या......?
छ:
दिन भर की धूल मिट्टी से सना
लौटता हूं
मेरे पैर ज़मी छू नही
पाते अब
उसके और मेरे बीच
दूरी आ गई है
ऐसा सिर्फ मैं सोचता हूं
वो नही....
#earthday
सात
सिर्फ ख्याल .....?
ये हक़ीक़त कौन सी किताब में
दर्ज़ है ....?
अब नहीं होता .......
अंदर ही अंदर याद करना
आँखे बंद कर याद करना
रास्तों को एकटक देखते रहना
नोटबुक के पन्ने भरना
फिर उन्हें फाड़ कर डस्टबीन भरना
किसी बगीचे में बैठे,बच्चों को खेलते हुए देखना
टेबल पर बैठे बैठे पेन की स्याही खत्म करते जाना
चाय -सिगरेट पर पूरा दिन गुज़ार देना
वगैरह - वगैरह ...
एक किताब बना कर सब दर्ज़ कर दिया है
हक़ीक़त होती
पीछे मुड़ कर देखने का इंतज़ार
नहीं होता
हाथ पकड़ कर खींच ले आना
और कहना
ये दोनों का फैसला
अकेले नहीं होता
आठ
छोटा एक.....
आसमान बना रखा है
उसमे ......
कभी सितारे जड़ देता हूं
बादल बना लेता हूं
बूंदे बना देता हूँ
पंछी बना उन्हें उड़ा देता हूं
कभी सूरज के रंगों से रंग लेता हूं
बस.....
मैं अपने बनाए आसमान में भी
उड़ नही पाता
वैसे ही जैसे
ज़मी पर खड़े हो कर
अपने ऊपर के
आसमान को निहारता हूं
उसमे उड़ नही पाता
नौ
कुछ रास्ते
भूल जाने को
कुछ पन्ने
याद रखने को
मोड़ दिए हैं मैंने
दस
आओ ........
एक ही बार में तसल्ली कर लो
हर बार
यूं बेधड़क से मुझ में चले आना
सिर्फ मुझ में खुद को देखने ....?
माफ़ करना .......
ये तसल्ली इतनी सस्ती नहीं
ग्यारह
एक ही किताब है मेरे पास
खाली पन्नो से भरी
जिस में सब कुछ लिखा था
कोई अपने हिस्से का लिखा
सब कुछ मिटा कर चला गया
ये भूल कर कि ........
उसके हिस्से में
मैं भी था
बारह
कुछ रास्ते
कई कदम
कुछ पेड़
कई पत्ते
कुछ साज़
कई गीत
कुछ किताबें
कई पन्ने
कुछ मौसम
कई खुशबुएं
कुछ आहटें
कई आवाज़ें
कुछ लफ्ज़
कई बातें
कुछ साल
कई दिन
कुछ लड़ाई
कई दोस्तियां
कुछ किस्से
कई मुलाकातें
कुछ पूरा
कितना अधूरा
कुछ " मैं "
कई " तुम "
कुछ " तुम "
कई यादें
एक कहानी
एक " मैं "
सिर्फ " मैं "
तुम नहीं ........
तेरह
सुबह नींद से जागते ही
अपने तकिये के पास
टटोलते हुए अपनी
नंबरों वाली ऐनक
ढूंढता हूँ
रात के ख्वाब
हमेशा
धुंधले रह जाते हैं
चौदह
आज ये सोच रहा था
ये कोई ज़रूरी नहीं था
कि मै चल कर तुम तक पहुंचू
तुम्हे सोच कर तुम तक आना
बस .... सोच यहीं खत्म हो गई
लौट कर आने का तो सोचा ही नहीं
और रही तुम्हारी बात
तुम्हारा ये सोचना कोई ज़रूरी नहीं
की तुम
मुझे सोच कर मुझ तक आ जाओ
तुम ना
सोचना बंद करो
तुम मुझ तक चल कर ही आ जाओ .......
पंद्रह
धूल साफ़ करने का मौसम है
कुछ पुराना सामान लॉफ्ट से नीचे उतारा
पुरानी रद्दी के बीच से
कागज़ो के कुछ पन्नो का
फोल्डर नीचे आ गिरा
छुपाये हुए से लगे
वही निकले आखिर
बेहिसाब सा लिखा हुआ है
इन पन्नों में
कितना लिख देता था
तेरा
मेरा
हमारा
कई बातें थी इन पन्नों में
सोचा इन बातों को
कुछ हवा दूँ
इन पर
कुछ रौशनी डालूं
वो जो सामने फुटपाथ के
किनारे जो पेड़ है ना
उसे
हवा और रौशनी
में बढ़ते देखा है
सौलह
पीठ पर उँगलियों से लिखना
एक बचपन का खेल। ......
बड़े होते होते खेल के
नियम
उँगलियों की
छुअन,
लिखावट ,
उनका लिखने का तरीका
लिखे जाने वाले नाम
और लिखने वाली उँगलियाँ भी
सब बदलने लगी
उन की चुभन
तीखी लगने लगी खंजर बन
घाव बनाने लगी
ये क्या फिर से .....?
फिर उलटे लेट जाना
घावों को सहलाना
खेल फिर नए नियम
नई छुअन
नई लिखावट
नई उँगलियों
और अलग तरीके से
से शुरू हो गया
पता है न .....?
गोली पीठ पर मारी
खंजर भी पीठ में लगा
सारा खेल तो
पीठ पीछे ही हुआ था
सत्रह
वीरान से हो चुके मोहल्ले में
उन दो घरों के बीच का आँगन
आबाद दिख रहा था ........
कई कहानियां बनी थी कभी यहाँ
बढ़ कर देखा
खुद को भी वहीँ पाया
ऐनक लगाए आँखों में
एक डेस्क पर मुँह झुकाये बैठा
मैं ही था ........
पुराने से हो चुके पन्नो पर
धुंधली लिखावट में किरदारों
को फिर से समेट रहा था .....
कहानिया मुकम्मल कर रहा था। .....
अँधेरा हो आया था
गुलाबी ठण्ड में एक चिमनी की रौशनी
ने पास आ कर कंधे पर शॉल रख दी .....
और धीरे से कहा " अब बस "
आखिरी पन्ने पर आखिरी लाइन
लिख दी थी मैंने .........
अठारह
हवा इस कदर तेज़ थी उस दिन
की पन्नो पर रखा कांच का
पेपरवेट टेबल से गिरा
और चूर हो गया
पन्ने भी ऐसे बिखरे
की समेटते - समेटते
कब दीवारों का रंग बदला
कब खिड़कियों ने दिशा बदली
देखा तो ........
कमरे में रखी बुकशेल्फ
की दूसरी कतार में
दांए से सातवें नंबर
से झाँक रही थी
कहानी की किताब
हवाओं के रुख से बे-असर
कुछ गुम हुआ था कहानी में
तो वो थी पन्नों सी उड़ने की
आज़ादी ........
धूल जमती किताबों में
बंद कहानियां .....
लिखने वाले की गुलाम
से ज्यादा कुछ नहीं
उन्नीस
बड़ी है , छोटी है
गहरी है , ऊँची है
पूरी होती , टूटती , गिरती
फिर खड़ी हो जाती
इस छोटे मन की बड़े पैरों वाली हसरतें
" एक छोटा सा मन रोज़ बना कर रोज़ तोड़ देता है
हसरतों की बड़ी बड़ी इमारतें "
वैभव
जन्म इंदौर में हुआ है
शिक्षा राजस्थान में हुई ,
पेशे से इंटीरियर डिजाइनर/आर्केटेक्ट ,
अभी इंदौर ही में है।
great sir bahut khub
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत कविताएँ.
जवाब देंहटाएंWow...good ..
जवाब देंहटाएंWoow...all awesome
जवाब देंहटाएं