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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अगस्त, 2018

मैं क्यों लिखता हूं ?

सुभाष चन्द्र कुशवाहा


रचनाओं में लेखक का अतीत और वर्तमान छिपा होता है। वह विगत के यथार्थ से ग्रहण कर आगत को बुनता है । आगत के बेहतर स्वप्न या बुरे दुःस्वप्न को देखता है । बेहतर या बुरी दुनिया की परिकल्पना करता है। यह परिकल्पना कागजों पर उतरकर लेखन का स्वरूप ग्रहण करती है। लेखक क्यों लिखता है, इसका जवाब लेखक की रचनाओं में छिपा होता है। रचनाएं खुद बताती हैं कि क्यों लिखी गयीं या लिखी जा रही हैं? इस संबंध में मौन साधे बहुत कुछ बोलती हैं रचनाएं ।
मेरा सृजन कार्य कोई अपवाद नहीं रहा। वह उस नकार के सकार से शुरु हुआ, जो आर्थिक विपन्नता और गांव की सामंती समाज से उपजा । मजबूर हाथों के हथियार सदृश निकलने लगे शब्द। लेखन ही वह माध्यम था जो मेरे अंदर के असंतोष को लिपिबद्ध करता । अगर मैं लेखन की ओर न अग्रसर होता तो निश्चय ही अराजक होता। रचनाओं ने जीवन को अराजक बनने से रोक लिया ।
गांव का पूरा परिदृश्य सताये हुए लोगों का था। मेरे पिता परिवार के साथ, गांव में अपने होने और जीने का लड़ाई लड़ रहे थे। उनके साथ हम भाई-बहन भी लड़ने लगे। उसी लड़ाई के दौरान मन में विचार उमड़े जो समय के साथ संवरते गये। मुझे लगने लगा कि मैं इसलिए लिखता हूं कि यह आभास देता है कि मैं ज्यादा से ज्यादा निर्बल और सताये समाज के साथ खड़ा हो रहा हूं । जातिवाद से लड़ रहा हूं। ऊंच-नीच की मानसिकता को नकार रहा हूं।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा


हर लेखक के नकार की अपनी अलग शैली होती है। अलग शब्द और विचार होते हैं यद्यपि कि वे समाज की आर्थिक और राजनैतिक बुनावटों से ही बंधे होते हैं फिर भी होते हैं नितांत अपने। जब जीवन रूखा और खुरदुरा हो तो कोमलता और कलात्मकता का क्या काम?  इसलिए भी मेरी रचनाएं कलात्मकता के बजाय, रूखे और साफ-सपाट पीड़ा व्यक्त करने को उतावली रहीं । उतावलेपन का परिणाम कह लें या यह कि उनमें कहन ज्यादा रहा ।  कथा और गल्प ज्यादा रहा ।  शाब्दिक रंगबाजी बहुत कम रही । मेरी रचनाएं पक्षधर रहीं । होती गयीं। आप कह सकते हैं तो कहें कि मैं पक्षधरता के लिए भी लिखता हूं।  मेरे अंदर शोषक के विरूद्ध और शासित के प्रति, गांव के सामंतों के विरूद्ध,  गरीब खेतिहर मजदूर के साथ खड़ी होने की बेचैनी मन में रही । इस बेचैनी में कहीं न कहीं मुझे जीवन के उन सभी पक्षों को चुनने की ऊर्जा दी, जो गरीब और बेजुबानों की जुबान बन सके।
पक्षधरता बुरी नहीं होती अगर वह मानवीय संवेदना से युक्त हो।  संभ्रांत लोगों के इतिहास के विरूद्ध, आम आदमी के संघर्ष के साथ पक्षधरता करती रचनाएं, जिस मानवीय समाज की परिकल्पना करती हैं, वही सामाजिक सरोकारों का साहित्य होता है। आप कलात्मकता के साथ बेशक रहना चाहें, रहें, यह आपकी पसंद है मगर किसे गेहूं की जरूरत है और किसे गुलाब की, यह सोचने की दृष्टि भी अगर आपमें नहीं है तो आप सामाजिक सरोकारों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। मैं गेहूं के साथ हूं जहां कोई सुगंध नहीं है। कोई सौंदर्य भी नहीं है मगर भूखों की भूख मिटाने में कारगर है। आप साहित्य के बहाने, कलात्मकता और शैलीगत प्रयोगों से अपने कुलीनतावादी एजेंडे को स्थापित करने का काम जब तक करते रहेंगे तब तक मैं या मेरे जैसे लेखक आपकी सोच और समझ के विरूद्ध अपनी लेखनी चलाते रहेंगे। विश्वास कीजिए, बिना किसी लाग-लपेट के कहना है कि इसी पक्षधरता की पहचान के लिए लिख रहा हूं।  जातिदंश को झेलते हुए, जातिवाद को नकारने, धार्मिक शोषण से सताये जाने के कारण उस धर्म को नकारने, ऊंच-नीच और अश्पृस्यता को करीब से देखते हुए उसे नकारने के लिए शाब्दिक स्वर देते रहना ही अपने लेखन का मकसद है।
 कहानियों से लेकर इतिहास लेखन तक, वैचारिक आलेखों से लेकर लोकसंस्कृतियों के सामाजिक पक्ष तक, ऐसा लगता है जैसे मैं अपने अतीत से मुक्त होने की लड़ाई लड़ रहा हूं । मेरा लेखन, उस लड़ाई को विजयश्री में बदले या न बदले, मेरे  मन को सकून देता है।  लगता है मैं जिंदा हूं। सोचता हूं, उपेक्षित समाज की पीड़ा, उसका इतिहास, उस वर्ग से आया लेखक नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा? चिड़ियों का इतिहास बहेलिये तो नहीं लिख सकते न?

हिन्दी इतिहास राजे-रजवाड़ों की कहानियों के सिवाय क्या है? गैरबराबरी के समाज में संवेदना और सरोकार हर किसी के लिए समान नहीं हो सकते। गरीबी और भूख से जूझता समाज, शिक्षा और सेहत, जीवन के लिए जरूरी होते हुए भी, उसकी उपेक्षा करता है। जैसे वह उसके लिए काम का न हो। तात्कालिक जरूरत उसके लिए रोटी की जुगाड़ होती है।  ऐसे समाज से जब आप आते हैं तो आपकी पहली दृष्टि भी वहीं केंद्रित होनी चाहिए, जहां जीवन तपा होता है।  मैंने अपनी रचना की शुरुआत, गांव-जवार, खेत-खलिहानों से शुरु की।  ‘भूख’ कहानी की उपज, लेखन के शुरुआती दिनों की देन है।
  गांव और घर के शुरूआती अनुभव के बिना साहित्य सृजन संभव न था । विचारों की दृष्टि ने उन अनुभवों के मूल्यांकन की दृष्टि दी जो मेरी पूंजी है। जाति-दंश की पीड़ा ने मेरे अन्दर समाज को परखने, समझने की दृष्टि दी । मैंने इसी दृष्टि से सामन्तां की कुटिल चालां का प्रतिकार करना शुरू किया । मैं शुरू से ही गांव के सामन्तां को पसन्द नहीं करता था।  हमेशा उनसे उलझता रहता । मन में आक्रोश की आग सघन थी । उसके ताप से गुस्सा आना स्वाभाविक था । इसलिए मुझ्ो लोग गुस्सैल प्रवृत्ति का समझने लगे थ्ो । जाति-दंश के अनुभवों ने मेरी वैचारिक ऊर्जा को बचाने में कारगर भूमिका निभाई । गांवां के शादी-बारात में कहा जाता है -‘अब बड़ आदमी लोग खाना खाने चलें ।.......अब छोट आदमी लोग खाना खाने चलें ।’ मैं जब भी यह सुनता, अन्दर से तिलमिला जाता । एक बार एक भूमिहार की बारात में मैं जानबूझ कर तथाकथित बड़ी जाति वालां के पंगत में बैठकर खाने लगा था । जब मेरे गांव के एक भूमिहार ने इसका विरोध किया तो मैं उसे अपशब्द कहते हुए उठा और बारात से वापस लौट आया था ।

शिक्षा के दरवाजे तक जाति पीछा करती रही।  मेरे पाठशाला के मास्टर साहब, हर बच्चे को जाति सूचक शब्दों से बुलाते।  ‘का हो कोईरी भाई, तुहों पढ़ब त बैगन के उगाई’ उनके शब्द कान को छेदते हुए दिमाग में ऐसे घुसे कि वह बाबू साहब कई कहानियों में भिन्न-भिन्न वेष में आए।  मैं उन्हें अतीत से वर्तमान में खींच लाया।

मैं बहुत जल्द इस तथ्य को समझ गया था कि जातिवाद, हिन्दूधर्म का प्राण है, उसकी संस्कृति है और विशुद्ध रूप से ब्राहमणवाद द्वारा सोची-समझी चालाकी, धूर्तता और आधिपत्य स्थापित करने वाले सिद्धान्त पर आधारित है । वामपन्थी विचारधारा ने मुझ्ो एक दिशा दी, विचारां की दिशा । उसके बाद मेरे लिए हर अन्यायी बिन्दु का विश्लेषण करना आसान होता गया । उसके बाद ही मैंने समझा कि हिन्दू समाज में अर्थवाद के साथ-साथ, कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी है । तभी तो आज भी आर्थिक और श्ौक्षिक रूप से मजबूत दलितां या पिछड़ां को वह सामाजिक सम्मान नहीं मिल पाया है जो ब्राहमणां या ठाकुरां को जन्मजात प्राप्त है। गांव के उच्च शिक्षित पिछड़े या दलित वर्ग को, उन्हीं के समाज के लोग नमस्कार नहीं करते हैं जबकि ठाकुरां या ब्राह्मणां के अशिक्षित लोगां को,  चाहें वे उम्र में छोटे ही क्यां न हां , पिछड़ी या दलित जाति वाले सामान्यतः नमस्कार करते हैं । मुझ्ो इस बात का बचपन से ही मलाल रहा कि मेरे पिता जी का नाम लेकर गांव के भूमिहार जाति के लड़के बुलाते थ्ो । कई बार ऐसा हुआ कि मैं उसके प्रतिकार में उनके बाप का नाम लेकर बुलाने लगा । कई बार टकराव भी हुआ । लेकिन एक बात का सन्तोष तो रहा कि मैं बहुत ज्यादा झुका नहीं और ज्यादातर अपने प्रतिकार को स्थापित कर ले गया । जाति-दंश की अभिव्यक्ति मेरी तमाम कहानियां में हुई है । चाहें वह ‘होशियारी खटक रही है’, ‘भटकुंइया इनार का खजाना’ या ‘पैंतरा’ हो । प्राथमिक पाठशाला में गांव के मास्टर द्वारा प्रयोग किए गए जाति सूचक शब्दां को अभी तक भुला नहीं पाया हूं और वह मेरी एक, दो कहानियां में व्यक्त भी हुई हैं । सामन्तां के अत्याचार से उपजे विचार मेरी तमाम कहानियां में व्यक्त हुए हैं । कई संघर्ष तो मेरे सामने घटित हुए हैं । उनमें से कई अब भी मस्तिष्क में नाचते रहते हैं । मेरी कुछ कहानियां जैसे ‘शिकार’, ‘फैसला’ या  ‘गले में पट्टा’  में मैंने इनको अभिव्यक्ति दी है । ‘जाति-दंश की कहानियां, संपादित कथा संचयन की योजना इसी वैचारिक धरातल के कारण बनी थी ।



घोर अभावों, भूख और असुरक्षा के बीच गुजरे बचपन के दुर्दिन ने मनमस्तिष्क को प्रभावित किया था।  दुर्दिन में पटीदारों के जुल्म, साहूकारों का कर्ज, पल-पल अभाव की जिंदगी का दर्द, मैं कभी भूल नहीं पाता ।  मेरी अधिकांश कहानियों में जीवन के अभावों की अभिव्यक्ति है । वे ही मुझे आंदोलित करती हैं । दुर्दिन में तमाम जीवन यथार्थ, गणित के मौलिक सिद्धान्तों की तरह मस्तिष्क में चिरस्थाई हो जाते हैं । इससे हम जीवन को जोड़ सकते हैं, घटा सकते हैं । गुणा और भाग कर बेहतर भविष्य का, मानवीय संस्कृति का अक्स तैयार कर सकते हैं ।  मैं जब ‘भूख’ कहानी लिख रहा था तब दुर्दिन हमारे मस्तिष्क में छिपे उस गणितीय  सिद्धान्त को प्रयोग में ला रहा था जो समाज के उपेक्षित वर्ग को आज भी भूख मिटाने के संघर्ष में मौत दे रहा है और बदले में न्याय के नाम पर कुछ  राहत या अनुदान बांट रहा है । कुल मिलाकर दुर्दिन में उपजे सिद्धान्त, विश्वसनीय होते हैं । वे अन्यायपरक दुनिया का प्रतिकार  करते हैं और रचना को विश्वसनीय बनाते हैं । ‘दूसरे अन्त की तलाश’ कहानी में मैंने ऐसे ही अनुदान, राहत के प्रतिकार को अभिव्यक्ति दी है । नून, तेल जैसी जीवन की बुनियादी जरूरतां के बीच पता नहीं कहां से मोबाइल घुसा दिया जाता है । एक सुविधा के बरक्स, तमाम असुविधाएं बांट दी जाती हैं जो भविष्य में तमाम तरह की सामाजिकता विरोधी संस्कृति बांट देती है । यह विचार उपजते ही मैंने ‘नून, तेल, मोबाइल’ कहानी लिखा था ।

मैंने अपनी रचानाओं में कहीं भी कर्मकांडां, अंधविश्वासों,  साम्प्रदायिकता और पतनशील संस्कृति को स्थान नहीं दिया है । इन्हें स्थान देना मेरे लिए अस्वाभाविक और बनावटी होता ।  मैंने ऐसे समाज से जिन्दगी की यात्रा शुरू की जहां होली, दिवाली और मुहर्रम, हिन्दू-मुसलिम एक साथ मनाते थे । ताजिया बनाने का खर्च दोनों वहन करते हैं।  कीर्तन गायकी में मुसलमान भी शामिल होते हैं और होलिका दहन की लकड़ी जुटाने में सबसे आगे मुसलमान लड़के होते हैं। दोनों एक दूसरे की संस्कृतियों में घुसे पड़े हैं। यही कारण है कि मेरी अधिकांश कहानियां के पात्र हिन्दू और मुसलिम दोनां हैं । कहने का आशय सिर्फ यह है कि समाज में हो रहे तमाम उथल-पुथल की प्रतिछाया पड़ने के बावजूद, अब भी गांवां में दोनां संप्रदाय के लोग, एक-दूसरे से घुले-मिले हैं । इन तमाम तथ्यां को मैंने ‘अमीन मियां सनक गये हैं’, ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’, ‘संशय’ और ‘कुमार्गी’ कहानियां में व्यक्त किया है ।
एक समीक्षक ने एक बार मेरे पात्रों को देख कर लिखा था कि कहीं कहानीकार ने सयास तरीके से अपनी हर कहानी में मुस्लिम पात्र तो नहीं डाले हैं ? एक आलोचक ने लिखा कि ‘मुस्लिम औरते मांग में सिंदूर?’ कहीं यह अतिरेक तो नहीं? अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि अभी भी निकाह के बाद सिंदूर लगाने का रिवाज हमारे पूर्वांचल के मुस्लिम समाज में मौजूद है। हां, समाज के विभाजनकारी तत्वों के प्रतिरोध के कारण कुछ पढ़े-लिखे या शहरों की यात्रा कर आये मुस्लिम परिवारों में यह रिवाज कम हुआ है मगर समाप्त नहीं हुआ है। मेरी हाल की कुछ कहानियों-‘अमीन मियां सनक गये हैं,’ गांव के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों की सिनाख्त करने का प्रयास है।

लेखक केवल अतीत जीवी नहीं होता।  वह जिस वर्तमान में जी रहा होता है, वहां भी वह विगत और आगत का विश्लेषण करता है।  राष्ट्रवाद की जब नई परिभाषा लिखी जा रही हो, जब  मॉब लिंचिंग जैसा कुकृत्य आम होता जा रहा हो और महापुरुषों को विकृत करने का खेल बड़ी चालाकी से खेला जा रहा हो तब ऐसे समय से टकराये बिना हम कैसे चल सकते हैं। इसी की प्रतिक्रिया में  ‘हूजी आतंकी,’ ‘मलिकार की मार’ और ‘रियाजुद्दीन मर गया,’ जैसी कहानियां वर्तमान समय और समाज से जुड़ती हैं।   तब मुझे लगता है कि मैं इसलिए ही तो लिख रहा हूं कि लिखना जरूरी है वर्तमान से मुठभेड़ करने के लिए । जिस दुनिया की हम परिकल्पना करते हैं, अगर वह दिखाई नहीं देती तो लिखना जारी रहेगा।
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सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010 ।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छा लगा। बहुत ही बेबाकी से आपने अपने रचनाकर्म और रचनाप्रक्रिया को साझा किया है। इसमें कोई बनावट और अलंकार मुझे नहीं दिखा। इस बेबाकी के लिए आपका शुक्रिया और आभार।

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