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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अगस्त, 2018

कहानी: 


पेट की आग

कामता कमलेश 




कामता कमलेश 

आज जब मंगो अपने घर से बाबू जयराज के यहाँ को चली तो उसने अपने लड़के दतुआ से कहा,”दतुआ सुन,आज साहब के यहाँ पार्टी है|बहुत लोग आएँगे,बड़ा खाना होगा|कई दिन से इंतजाम हो रहा है|हलवाई थाल पर थाल मिठाइयाँ बना रहा है और कमरे फल-फूल और सामान से भर गए हैं|बड़ी रौनक है आज उनके बंगले पर|दतुआ,मैं तुम्हारे लिए बहू जी से कहकर कुछ खाने को लाऊँगी|तू यहीं पर रहना|”
यह सुन दतुआ बहुत प्रसन्न हुआ और उसने माँ से पूछा,”क्या माँ,पूड़ी-कचौड़ी भी बनेगी?”

“हाँ|”उसने कहा |
“क्या मिठाई भी बनेगी?”
“हाँ,बहुत सारी|”मंगो ने हाथ फैलाकर कहा|

“तब तो माँ मैं खूब पूड़ी-कचौड़ी और मिठाई खाऊंगा|कभी खाई नहीं है|जल्दी-जल्दी सब खा जाऊँगा|”
 तभी पास खड़े उसके खिलाड़ी साथी छंगू ने कहा,”अबे,पहले अपना दाँत तो तेज कर ले,तब खाना|”
दतुआ के दो दाँत मुँह के बाहर निकले थे जिससे उसका चेहरा बड़ा भद्दा लगता था|शायद इसी कारण मोहल्ले वालों ने उसका नाम ही दतुआ रख दिया,फिर वही नाम बेचारी मंगो को भी स्वीकार करना पड़ा क्योंकि पूरे मोहल्ले से लड़ने की ताकत उसमें नहीं थी|कुछ जातियों में इस प्रकार के नामकरण प्राय: सुनने को मिलते हैं,जैसे-नाक-कान छिदे हुए बच्चे को छेदी,पैदा होते ही सूप में घसीटू या खचेडू,
जीने की इच्छा से लोकापवाद में बेचे गए बालक को बेचू,रंगों से कालू,भूरा,कन्जू आदि|

श्रीमती जयराज आज बेहद खुश थी क्योंकि उनके पति जयराज आज सेक्रेटरी से सीधे डायरेक्टर बन गए थे|अब तो कई सेक्रेटरी और मैनेजर उनके तहत कार्य करेंगे|इसी ख़ुशी में दोनों पति-पत्नी दौड़-दौड़कर कार्य कर रहे थे|श्रीमती जयराज खाने के प्रबंध को देख रहीं थीं और जयराज अतिथियों के स्वागत-सत्कार का निरीक्षण कर रहे थे|चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ बिखरी पड़ी थीं|मंगो भी पूरे जोश के साथ अपनी ज़ोर-आजमाइश गंदे बर्तनों के साथ आकर रही थी|बर्तन खनाखन बजते हुए उसके गिर रहे थे|इस खनाखन और चमाचम के मध्य मंगो का मन अजीब कल्पना-संसार में गोते लगा रहा था|जब कभी कोई सब्जी की प्लेट आती,मंगो लोगों और बहूजी की निगाह बचाकर उसे सूंघ लेती|सब्जी की ज़ायकेदार सुगंध से उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे वह स्वयं ही उसका स्वाद ले रही हो|बैंगन की कलौंजी,छोले,आलू-कोफ़्ते,मटर-पनीर,दही-बड़े की प्लेटें वह साफ़ करती हुई सोचने लगती है,’ये कैसे बाबू लोग हैं जो इन मसालेदार सब्जियों को भी पूरा नहीं खाते|इनमें कितना घी-तेल और  मसाला पड़ा है|ज़ायकेदार तो होंगी ही साथ में चटपटी भी|इन सब्जियों को मैं पाऊँ तो क्षणमात्र में ही सफाचट कर जाऊँ और घंटों उँगलियों को चाट-चाटकर उसके घी मसाले का स्वाद लेती रहूँ|’तभी उसे एक प्लेट में बची हुई कचौड़ी दिखाई दी जिसे उसने उठाकर उलट-पलटकर देखा|वह मसालेदार आलू से भरी थी|मंगो सोचने लगी,’भला कचौड़ी भी नहीं खाई गई इन बाबुओं से|मैं तो दर्जनों खाकर भी पानी न माँगूँ|दतुआ तो इनके लिए जान देता है|जब ये कचौड़ियाँ छन रहीं थीं तब उनकी महक से पूरा मकान ही गमक उठा था|’कढ़ाई में जैसे कचौड़ी पड़ते ही नाच उठती है वैसे ही मंगो का मन भी नाच उठा और सोचने लगी,’काश!गरम-गरम कचौड़ी और कलौंजी मिलती तो ऐसा खाती कि फिर कुछ न लेती|बैंगन की कलौंजी और कचौड़ी दोनों में कुछ भरा रहता है तभी तो बैंगन इतना अच्छा होता है कि उसके सिर पर छत्र होता है जैसे कि राजाओं के सिर पर|किन्तु तभी उसका दूसरा मन कहता है कि नहीं,नहीं बैंगन बे-गुन अर्थात् इसमें कोई गुन नहीं होता है अत: मटर-पनीर और छोले से खाने में और ही मज़ा आएगा|देखो न,सामने की प्लेट में पनीर के कुछ टुकड़े पड़े हैं|’मंगो ने उसे उठाकर देखा और फिर दबाया|







‘अरे,यह तो कैसा मुलायम टुकड़ा है जैसे कलेजी का टुकड़ा हो|उसी प्रकार का चिरमिरापन और लचक|’मंगो पनीर के टुकड़े को इस प्रकार उलट-पलटकर देख रही थी जैसे कोई जौहरी किसी सोने को घुमा-फिराकर देखता है फिर उसे कसौटी पर कसकर देखता है कि वह खरा है या खोटा|उसी भांति मंगो भी पनीर के टुकड़े को परखने के लिए अपना हाथ मुँह पर ले जाना चाहती है पर तभी अप्रत्याशित भय के कारण उसका हाथ नीचे प्लेट पर आ जाता है|मंगो पनीर रूपी सोने के टुकड़े को दाँत रूपी कसौटी पर कसने में अपने को असमर्थ पा रही थी यद्यपि वहाँ कोई नहीं था पर एक भयभीत हरिणी की भांति अकेले जंगल में पड़ी थी जहाँ किसी भी तरफ से आघात हो सकता था|

 सभी अतिथियों के खाने और जाने के बाद श्रीमती जयराज ने एक पत्तल में सभी पकवान रखकर मंगो को दिए|मंगो एक भूखे भेड़िये की भांति उस पर टूट पड़ी और क्षणमात्र में उसने पूरे पत्तल को साफ़ कर दिया|वह पूरी और कचौड़ी इस तरह अपने मुँह में डालकर पेट में ठूंस रही थी जैसे कोई सामने से उसे छीनने को तैयार बैठा हो|उसके बाद वह सकोरे में भरी मखाने की खीर को सुड़कने लगी|सकोरा खाली होने पर सकोरे में चारों ओर लगी खीर को वह अपनी ऊँगली से पोंछ-पोंछकर चाटने लगी|जब वह उसे पूरा चाट चुकी तो उसने देखा कि पत्तलों के बीच में कुछ सब्जी बहकर छिपी पड़ी है|मंगो बड़ी सावधानी से पत्तल की सींक निकालकर उसे भी उँगलियोंसे चाटने लगी|वह उसे उसी तरह चाट रही थी जैसे कोई बिल्ली दही के प्लेट को अपनी लपलपाती जीभ से चाटती है और साथ ही किसी के आने के भय से काँपती भी रहती है|इसके अलावा उसकी भूरी आँखें सामने से निकली किसी दौड़ती हुई चुहिया को पाने के लिए ललचाई दृष्टि से देख भी रहीं हों|ऐसी दशा में मंगो सामने से किसी के आने की राह देख रही थी कि कोई आए तो और माँगूँ और खूब खाऊँ|चाहे कल हाजमे की गोली ही क्यों न लेनी पड़े|तभी उधर से बाबू जयराज आते दिखाई पड़े|मंगो उन्हें देख बहुत खुश हुई और मन ही मन सोचने लगी,’अब तो बाबूजी आ रहे हैं इन्हीं से कचौड़ियाँ मांग लूँगी|आज  तो बहुत खुश हैं|खुले हाथों से देंगे|पर यह क्या!वे तो दूसरी ओर मुड़ गए|अब वे मंगो जैसी महरी को देखेंगे कैसे?डायरेक्टर जो बन गए|अधिकार और बड़प्पन के झूले में वे झूम रहे थे|आदमी जब ऊपरी चोटी पर पहुँच जाता है तब नीचे देखने में उसे डर लगता है पर उसे क्या पता कि जिस निचाई को देखने में उसे भय लग रहा हैवह वहीं से होकर यहाँ तक पहुँच पाता है|’

इतने में श्रीमती जयराज मंगो के पास आकर बोलीं,”खा चुकी मंगो|”मंगो कुछ उत्तर देती उसके पहले ही वे आगे बोलीं,”ले,कुछ पूड़ियाँ और कचौड़ियाँ अपने लड़के दतुआ के लिए भी लेती जा और इधर कर अपना सकोरा उसमें कुछ खीर भर दूँ|”मंगो ने बड़ी फुर्ती से मालकिन के हाथ से खाना ले लिया और फिर टुकुर-टुकुर उनकी ओर निहारने लगी|जैसे वह निरीह,खाली आँखों से कह रही हो-‘मालकिन, अभी तो मेरा ही पेट नहीं भरा,पहले मेरा पेट तो भर दो तब दतुआ को देना|’पर तभी श्रीमती जयराज ने उसे यह कहकर उठा दिया,”जाओ और जल्दी ही आ जानाअभी ,मेहमानों के बच्चे फिर खाएंगे उनके भी बर्तन धोने होंगे|”

“अच्छा मालकिन|”कहकर मंगो ने निराश हो पत्तल अपने फटे आँचल में बाँध लिया और एक हाथ में खीर का सकोरा उठा लिया|”मेहमानों के बच्चों तक का इतना ख्याल और मेरा|”जहाँ आज इस घर में बहुतों ने पेट भरकर खाया और कई लोगों ने तो आधा खाना अपने थालों में हो छोड़ दिया और कुछ खाना तो बर्तनों की सफ़ाई में नाली में ही बह गया और कुछ कुत्ते-बिल्ली खा गए,वहाँ उस घर में मेरा पेट भी नहीं भरा तो मेरे बच्चे दतुआ का क्या भरेगा|बलिहारी है बड़ों की निगाहों की और उनकी खुराक की भी|

खाने की तीव्र इच्छा को मन में दबाते हुए मंगो धीरे-धीरे अपने घर की ओर बढ़ रही थी|घर से चलते समय उसने सोचा था कि आज खूब खाऊँगी और माँग-माँग कर पेट का गड्ढा भरुंगी और जब खूब भर तब दतुआ के लिए भी माँग लूँगी और वह भी खूब मजे से खाएगा और जो कुछ थोड़ा बचेगा उसे थोड़ा अपनी मुनिया बकरी को भी चटा दूँगी|वह भी बड़ों के घर का खाना चख लेगी|हमेशा मिमियाती रहती है|घास-पात खाकर जिंदा रहती है|अभी पिछले हफ़्ते साहब कह रहे थे कि मंगो,तुम अपनी मुनिया बकरी को हमें दे दो|घर में जिबह कराकर उसका गोश्त पकाऊंगा|अभी कलोर है|गोश्त लचीला और मुलायम होगा|उसका शोरबा पीने में कुछ लुत्फ़ आ जाएगा|
कैसे होते हैं ये बड़े लोग|घास-पास वाली बकरी पर भी अपनी खूनी आँखें गड़ाए रहते हैं|उन्हें दया नहीं आती इन निरीह बकरियों पर|मरा,इसका शोरबा पिएगा|मुझे तो खीर खिलाई नहीं और चला है शोरबा पीने|गरीब का पेट भरने के लिए दिल बड़ा होना चाहिए क्योंकि गरीबों का पेट एक खाली कुआँ होता है जिसे इस जन्म में भरा जाना कठिन हो गया है,आज के सफेदपोश बाबुओं के लिए|

चलते-चलते एक स्थान पर मंगो का पैर टेढ़ा हो जाने से हाथ का सकोरा भी टेढ़ा हो गया,जिससे उसमें से थोड़ी-सी खीर बाहर निकलकर गिरने लगी|वह तुरंत ही वहीं रुक गई और सकोरे को ज़मीन पर रखकर उसके बाहर बही खीर को ऊँगली से पोंछकर चाटने लगी|खीर चाटते ही उसकी जीभ में पुन: लार आ गई और लालच से उसका मन भर गया|तभी उसने सोचा कि यदि खीर से एक पूड़ी खाऊं तो और ही मजा आए|ऐसा सोचकर उसने एक पूड़ी निकालकर चुपके से उसे खाना शुरू कर दिया|खाते समय वह अपने आगे-पीछे चारों ओर चोर की तरह झाँकती जा रही थी जैसे उसे भय था कि रास्ते में कहीं कोई भिखारी या कुत्ता न आ जाए और उसे भी हिस्सा न देना पड़े|बधुआ मार्ग में जब कोई खाना खाते दिखाई पड़ता है तो भिखारी और कुत्ते आज के फ़िल्मी हीरो की तरह प्रकट हो जाते हैं और अपनी इच्छानुसार अलौकिक करतब दिखाते हैं|पर जब मंगो को कोई दिखाई न पड़ा तो उसने चैन की साँस आई और वह मन ही मन पुनः सोचने लगी,”पूड़ी और कचौड़ी सब मिलाकर पाँच ही तो हैं|इससे तो दतुआ का पेट भी नहीं भरेगा|बेचारा वह भी मेरी तरह अधपेटा ही रह जाएगा|न मैं ही पेट भर सकी और न वह ही पेट भार खाएगा|मालकिन ने बड़े उपकार से पूड़ियाँ दी थीं|






‘रात भी काफी बीत चुकी है|दतुआ तो अब सो भी गया होगा और अब रात में उसे जगाकर खिलाना भी ठीक नहीं होगा|सोते-सोते खाने में उसे मजा भी नहीं आएगा|फिर वह तो अभी बच्चा है|साडी उमर खाने को पड़ी है|उसके जीवन में खाने के ऐसे अवसर बहुत आएँगे ;तब वह भरपेट खा लेगा|फिर उसे क्या मालूम कि मालकिन ने उसके लिए खीर और पूड़ियाँ दीं थीं|मैं कह दूँगी–बेटा,सुबह मालकिन के पास चले जाना|रात का बचा हुआ थोड़ा-बहुत खाना मिल जाएगा|भरपेट खा लेना|बचे हुए खाने की बात याद आते ही मंगो काँप गई|अतीत की स्मृतियों में उसका मन डूब गया|दतुआ के कक्का भी तो एक दिन सेठ लालाराम के यहाँ से बचा हुआ खाना खा के गए थे और घर आते ही उनके पेट में ऐसा भयानक दर्द हुआ कि वे कभी अच्छे नहीं हुए|बाद में डॉक्टरों ने बताया कि सड़ा हुआ खाना खाने से पेट में जहर फ़ैल गया और वे ईश्वर को प्यारे हो गए|ऐसा सोचते-सोचते मंगो की आँखें भर आईं|बड़े लोग बचा-खुचा,सड़ा-गला,जूठा सब गरीबों को खिलाते हैं|ताज़ा और साफ़ देते हुए उनकी नानी मरती है,वे खुद क्यों नहीं खाते|एक दिन खाए तो पता चले कि सड़ा-कसैला खाना खाने से क्या होता है|इसलिए अब मैं दतुआ को वहाँ बासी खाना खाने के लिए नहीं भेजूँगी|अगर अभी जग गया तो थोड़ी सी खीर चटाकर सुला दूँगी और कह दूँगी-‘बेटा,क्या करूँ?मालकिन ने तो भरकर दिया था पर रास्ते में तेज चलने से छलककर गिर गई|इतनी ही बची है,खा ले फिर ला दूँगी|’

खीर की याद आते ही उसका मन फिर ललचा गया और वह पूड़ी और खीर एक साथ खाने कि अपनी प्रबल इच्छा को न रोक पाई|खाते-खाते वह कह रही थी,”मालकिन ने अपने घर पर भरपेट खिला दिया होता तो मैं यहाँ क्यों खाती?फिर दतुआ तो मेरा बेटा है|उसका दर्द तो मैं जानती हूँ,पर वे क्या जानें? वैसे भी जब वो बड़ा हो जाएगा तो मेहरिया के आने पर उसके कहने में चलेगा और मुझे पूछेगा भी नहीं|तब मैं ही क्यों पूछूँ?आजकल के छोकरे तो बूढी माँ को एक कोने में बिठाकर चुप करा देते हैं| अत: जो खाऊँगी अपने पेट में जाएगा और उसका खाया मेरे पेट में नहीं जाएगा|कहा भी है-“अपना पेट हाऊ मैं,न देऊँ काहू|इस पर कमाई तो मेरी है जिसे खाने का पूरा अधिकार है मुझे,उसे क्यों दूँ?जब उसकी कमाई होगी तो वह भी नहीं देगा|जरा कलुआ को देखा-मुआ,कई साल पहले यहाँ से कानपुर चला गया और अपने साथ अपनी कल्ली मेहरिया को भी लेता गया|यहाँ उसकी बुढ़िया माँ अकेले रंडापा काट रही है|यह तो मोहल्ले वाले हैं कि उसे कुछ खाने-पीने को दे देते हैं,नहीं तो फाके करते-करते कभी का टें बोल जाती|दतुआ भी यही कर सकता है क्योंकि दोनों आपस में गहरे दोस्त हैं|तो भला मैं क्यों उसके लिए पूड़ी ले जाऊँ?” यह कहकर वह सारी पूड़ियाँ सफाचट कर गई|तब भी उसकी खाने की प्रबल इच्छा समाप्त नहीं हुई|अंत में वह अपने सूखे हाथ से ही अपना मुँह साफ़ कर आश्वस्त हो वहीं बैठ गई|

लोग आस-पास से जा रहे थे|मंगो उन्हें चुपचाप देख रही थी तभी उसके पैर में एक चींटी ने काट खाया|झट से उसे अपने हाथ से मारकर वह वहाँ खुजलाने लगी और उसकी विचार-श्रृंखला बदल गई| खाली हाथ,खाली सकोरा और खाली आँचल देख उसका मातृत्व जाग उठा|दतुआ का खाना मैंने खा लिया|वह भूखा रह जाएगा|मैं कैसी सर्पिणी हूँ जो अपने बच्चे को ही खा रही हूँ|मैं ऐसी देवी हूँ जो अपने भक्त को ही खा गई|अब मेरी भक्ति कौन करेगा?उसकी पूजा और सेवा को तो कम से कम देख लेना चाहिए था तब श्राप या आशीर्वाद देती पर मैंने तो भक्त को इस योग्य भी न होने दिया| हाय!मैं कैसी अभागिनी हूँ?माँ का ह्रदय कठोर कैसे हो गया?पर पेट की आग,खाने की हविस?तुझे क्या पता मंगो,भूख आदमी को हैवान बना देती है|वह अपने-पराये का भेद भुला देती है|इस आग के समक्ष अपने के सिवा कोई नहीं बच पाता|तुम जानती हो जो बंदरिया अपने बच्चे को पेट से चिपकाए हमेशा फिरती है वही बंदरिया जब कहीं कुछ खाने लगती है तब उसका छोटा बच्चा भी पेट या पीठ से उतरकर उसे खाने के लिए लपकता है पर तभी वही बंदरिया अपने प्यारे बच्चे को किचकिचाकर काटने दौड़ने लगती है और उसे खाने से दूर भगा देती है और अकेले ही सारा खाना अपने गाल में भर लेती है किन्तु नन्हे से,अपने भूखे बच्चे को एक दाना भी नहीं देती|अंत में फिर वही बंदरिया दौड़कर दूर पड़े बच्चे को पुनः अपने पेट से चिपका लेती है और बच्चा टुकुर-टुकुर माँ के फूले गाल को देखता है,जैसे वह कह रहा हो-माँ,कब तक मैं तुम्हारे सूखे स्तनों को निचोड़ता रहूँगा?           ००

डॉ०कामता कमलेश
(मूल नाम–डॉ०कामता दास गुप्त)                        
(जन्म-10 जनवरी,1939)   

अविरल लेखन,संपादन करते हुए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रों में लगभग 500 लेख,आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से अनेक वार्ताएं प्रसारित तथा 21 पुस्तकें प्रकाशित|विश्व में सर्वप्रथम-‘मानस संख्यावाचक कोश’रचकर वैश्विक ख्याति|अनेक पुरस्कारों,सम्मानों जैसे-हिंदी रत्न,डॉ०विष्णु प्रभाकर स्मृति सम्मान,भाषा भूषण,मानस संगम पुरस्कार,डॉ०महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान,काठमांडू(नेपाल)में साहित्य सम्मान,ट्रिनीडाड में ‘हिंदी गौरव’,फीजी एवं सूरीनाम में ’विश्व हिंदी सेवी सम्मान’ आदि से सम्मानित|जे०एस० हिन्दू डिग्री कॉलेज,अमरोहा(सम्बद्ध रूहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली) के भूतपूर्व हिंदी प्रोफ़ेसर व विभागाध्यक्ष,25 शोधार्थियों का तथा 2 विदेशी शोधार्थियों का निर्देशन कर उन्हें पी०एच० डी० से विभूषित करवाया|सूरीनाम,दक्षिण अमेरिका में विजिटिंग हिंदी प्रोफेसर तथा कई देशों की हिंदी समितियों के सलाहकार|विश्व के लगभग 16 राष्ट्रों की यात्रा कर हिंदी के प्रचार-प्रसार में विशेष योगदान|भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार(नेशनल आर्काइव्ज),नई दिल्ली में वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के ज्ञानार्जन हेतु आधे घंटे का साक्षात्कार  आकाशवाणी में सुरक्षित होने से ऐतिहासिक हिंदी विद्वानों के श्रेणी में स्थापित तथा भूतपूर्व सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,राजभाषा,भारत सरकार|
डॉ०कामता कमलेश 
(भूतपूर्व हिंदी प्रोफेसर) 
बड़ा बाज़ार 
अमरोहा-244221
उत्तर प्रदेश 
मो०-9412633194       
Email- kamtadasgupta@gmail.com




एदुआर्दो गालेआनो के क़िस्से: छठी कड़ी, नीचे लिंक पर सुनी जा सकती है


https://youtu.be/9f-XwhpFQug

5 टिप्‍पणियां:

  1. Marmik kahani. Halankee ab samay badal gaya hai. Kaam vale/ valee apne adhikar ke prati sajag hue hain. Sarita mein beesek saal pahle aise hee kahani padhi the. Kaamvalee apna khana khane ke baad Bete me liye diya gay khan khud kha gai. Aur Bete ko khane ke liye Dipavali kee Aadhi raat ke vakt Malkon ke ghar bhej diya.

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  2. मार्मिक कहानी ।माँ का चरित्र नया लगा ,शायद यह नयापन दर्शाना ही कथाकार का मन्तव्य हो ।

    माँ ऐसी नही होती

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, डॉ॰ विक्रम साराभाई को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. भूख की विवशता को बहुत ही मार्मिक तरीके से प्रस्तुत कीया हैं आपने। बहुत सुंदर्।

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  5. वाह बिलकुल सत्य बहुत हद तक असलियत | संभवतः ये वर्तमान समय में नहीं लिखी गई है |

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