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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अगस्त, 2018

डायरी:

कनॉट प्लेस
 दो

बीमारी

कबीर संजय

दिन छुट्टी का हो तो कनॉट प्लेस और भी गुलजार हो जाता है। खासतौर पर शनिवार और रविवार की शाम। रेस्तराओं और बार में लोगों की महफिल जम जाती है। खूब जमकर पीने वाले कभी-कभी रेस्टोरेंट की सीढ़ियां उतरकर नीचे कनॉट सर्कल की पार्किंग में उल्टियां करते भी देखे जाते हैं। छह-छह सौ रुपये में तीस एमएल वाले पैग की उल्टियां करते हुए उनके मुंह से निकलने वाले पछतावे भी बहुत मार्मिक होते हैं।

कबीर संजय


खैर, ये सब तो फिर कभी। शनिवार की उस रात भी कनॉट प्लेस के इनर सर्किल में बहुत चहल-पहल थी। नौजवान लड़के-लड़कियां एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले, एक-दूसरे के ऊपर गिरते-भहराते चले जा रहे थे। शादी-शुदा जोड़े एक दूसरे से थोड़ा खिंचे-थोड़ा बंधे उल्लास और वैभव से दमक रहे थे। नौजवानों जैसा देह का चुंबक तो वहां नहीं था। यूं भी देह के रहस्य का एक बार पर्दाफाश होने के बाद फिर उसके अंदर का चुंबक कमजोर होता जाता है।

गोल-गोल पतले खंभो पर टिका बरामदेनुमा गोल चक्कर। एक से एक बार, रेस्टोरेंट और कैफे। खिलौने बेचने वाले, गुब्बारे वाले, गुलाब बेचने वाले। पोस्टर बेचने वाले, मोबाइल के कवर बेचने वाले। ऐसे ही न जाने क्या-क्या बेचने वाले। दुकानों के बाहर इनकी कतारें लगी हुई थीं। कुछ बाहर घूम-फिर के अपना सामान बेच रहे थे, कुछ पटरी पर बैठे थे, कुछ ने अपनी छोटी सी तख्तेनुमा पटरी सजा रखी थी।

डी ब्लाक की शुरुआत में एक बहुत ही मशहूर कैफे-बार के नीचे एक व्हीलचेयर पर एक मरीज बैठा था। उसकी देखभाल करने वाला पीछे था। मरीज का चेहरा कुछ-कुछ वैसा ही निस्तेज था, जैसा कि मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म में व्हीलचेयर पर बैठे आनंद नाम के पात्र का चेहरा रहता है। अस्पतालों की पहचान खास नीले-हरे रंग का मरीजों वाला लबादा उसने पहना हुआ था। उसकी गोद में एक डिब्बा रखा हुआ था। कैंसर पेशेंट। प्लीज हेल्प। व्हीलचेयर के पीछे मरीज की देखभाल करने वाला था। वही, व्हील चेयर को खिसकाते हुए उसे कनॉट प्लेस के एक हिस्से पर ले जाता है। उधर से गुजरने वाले कुछ लोग मरीज को गौर से देखते और मुंह फेर लेते। कुछ लोग उसे देखते और दया से च्च-च्च करते हुए निकल जाते।

ओह, कैंसर कितनी खतरनाक बीमारी है। इलाज का भी कोई फायदा नहीं। कैंसर तो अच्छे-अच्छों को कंगाल कर देता है। इसमें तो बस तभी पता चले कि मरने वाले हैं और कोई इलाज नहीं हो सकता। नहीं तो घर भी बिक जाता है, खेत-खलिहान भी बिक जाते हैं और आदमी की जान भी नहीं बचती। इसलिए, भाई जब मरना ही है तो घरवालों को कंगाल करके क्या मरना।

अब इसी में से कुछ लोग दान के डिब्बे में कुछ डाल भी देते थे। कोई दस रुपये। कोई पांच रुपये। अपने प्रेमी के कंधों पर लगभग भहराती हुई चल रही एक युवती ने जब व्हीलचेयर पर बैठे उस मरीज को कुछ ज्यादा ही विस्फारित नयनों से देखना शुरू किया तो उसके प्रेमी ने बड़ी ही अदा के साथ अपना पर्स खोला और उसमें से पांच सौ रूपये का नोट निकालकर डिब्बे में डाल दिया। लड़की अपने प्रेमी की इस अदा पर रीझ गई, ओह डार्लिंग यू आर सो नाइस। उचककर वह अपना मुंह प्रेमी के कान तक ले गई और उसकी कान की लवों को हल्के से काट लिया। प्रेमी के रोंगटे खड़े हो गए। पांच सौ रुपये में उसे जो हासिल करना था वो हासिल हो चुका था। आगे हासिल होने की उम्मीद भी बंध गई। एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते, बेझते वे दोनों वहां से आगे बढ़ चले।

कनॉट प्लेस


तभी वहां पर शोर होने लगा। लगभग छह फुट की लंबाई और उसी के अनुकूल चौड़ाई वाला एक थुलथुल सा आदमी उधर से गुजर रहा था। उसकी बीवी उससे कम नहीं। गोल-मटोल सी उसके साथ लुढ़कती-फुदकती सी चल रही थी। मरीज को देखकर उसने अपने होंठ सिकोड़ लिए। ओह माई गाड। देखो तो जरा इसे।

लंबे-चौड़े, थुलथुल ने अपनी आंखे सिकोड़ ली। क्या हुआ है इसे। यहां पर लेकर क्यों खड़े हो।

व्हीलचेयर के पीछे खड़े आदमी ने जवाब देने की कोशिश की, सर। वह हकलाने लगा, सर... इलाज...सर...पैसे...

वो आदमी बिगड़ पड़ा। पहले से ही लाल-लाल उसके गाल और लाल हो गए। मरीज को इस तरह से घुमाते हुए तुम्हे शर्म नहीं आती। यू रास्कल। इसे इंफेक्शन हो गया तो। इसे घर में नहीं रखना चाहिए। यहां घूम रहे हो। इस तरह से तो मर जाएगा। कैसे लोग होते हैं। पैसे के लिए अपने बाप को भी बेच सकते हैं, ये साले। चलो, आगे बढ़ाओ। निकलो, यहां से। घर ले जाओ।

व्हीलचेयर के पीछे खड़े आदमी के मन में कुछ हिचकिचाहट दिखी। सर...सर...वो...बात यह... है..

शर्म नहीं आती तुमको। एक तो एक आदमी की जान ले रहे हो तुम और मुझसे बहस कर रहे हो। जाते हो या बुलाऊं मैं पुलिस को। तुम ऐसे नहीं सुधरोगे, रुको मैं पुलिस को बुलाता हूं। मोबाइल निकालने के लिए वह अपनी जेब टटोलने लगा।

कीमोथेरेपी के चलते मरीज के बाल झड़ चुके थे। चेहरे की त्वचा भी मरी हुई थी। वह किसी भूरे चूहे जैसा लग रहा था। उसकी आंखे जैसे कोई बिल तलाश रही थीं। कहां जगह मिले वह उसी में जाकर समा जाए। छुप जाए। जबकि, मोटा थुलथुल किसी सुअर की तरह गुलाबी लग रहा था।

और हां, उसकी गरदन भी नहीं थी। मतलब, गर्दन इतनी मोटी थी कि वो कंधे का ही एक भाग लगती थी जिस पर सिर उगा हुआ था।
००

कनॉट प्लेस डायरी भाग एक नीचे लिंक पर पढ़िए

गाली

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 परिचय::
10 जुलाई 1977 को इलाहाबाद में जन्में कबीर संजय का मूल नाम संजय कुशवाहा है। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की।
इलाहाबाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल का उन पर गहरा असर रहा है। कथाकार रवीन्द्र कालिया के संपादकत्व में इलाहाबाद से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा यमुना’ में उनकी पहली कहानी 1996 में प्रकाशित हुई। तब से ही तद्भव, नया ज्ञानोदय, पल प्रतिपल, लमही, कादंबिनी, वर्तमान साहित्य, इतिहास बोध, दैनिक हिंदुस्तान जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित होती रही हैं। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन। समय-समय पर कविताएं भी प्रकाशित होती रही हैं। कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ प्रकाशित। इस कहानी संग्रह पर प्रथम रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत। साहित्य के अलावा सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी शामिल रहे है। फिलहाल, साहित्य और पत्रकारिता में रमे हुए हैं।
पताः प्लॉट नंबर—22, फ्लैट नंबर—101, नन्हे पार्क, किरन गार्डेन एक्सटेंशन, उत्तम नगर, नई दिल्ली--59
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ईमेलः sanjaykabeer@gmail.com

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