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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अगस्त, 2018

डायरी: चार

जनमदिन

कबीर संजय 

हालांकि जनमदिन को लेकर मेरे मन में कोई खास भाव नहीं होता। फिर भी पता नहीं क्यों जनमदिन के आने की आहटों के साथ ही मन उदास हो जाता है। जनमदिन वाले दिन तो खासतौर पर मन कहीं अटका रहता है। अपनी आधी उम्र जी ली है। अगर उम्मीद करूं कि ज्यादा से ज्यादा अस्सी साल तक मैं सक्रिय जीवन जियूंगा। हालांकि, यह उम्मीद भी कुछ ज्यादा ही है। इसके पूरा होने की संभावना भी कम हैं। कभी बीमारियां हमसे हमारा वक्त छीन लेती हैं। कभी वे हमसे हमारा सामर्थ्य छीन लेती हैं। कभी वे हमसे हमारी योग्यता और पैरुख छीन लेती हैं।


मौत अगर वक्त दे भी तो बीमारियां कहां वक्त देती हैं। खासतौर पर देबू के जाने के पूरे दौर में यह महसूस करता रहा। फिर वक्त कहां मिलता है। फिर तो व्याधियों की ही चर्चा होती है और उन्हीं में ही मन उलझा रहता है। स्वस्थ्य और सक्रिय जीवन कहां इतना आसान है। और वो भी अस्सी साल तक। ऐसा होना संभव नहीं है। असंभव।
फिर भी अगर अपने आपको बहुत छूट देते हुए भी सोचूं तो ज्यादा से ज्यादा अस्सी साल तक का सक्रिय जीवन। इसमें आधे से भी ज्यादा मैं जी चुका हूं। क्या किया, कहां रहा, कैसे बिताया। क्या कहूं। लगता है कि जैसे जीवन की आधी रकम खर्च हो जाने के बाद भी वैसे ही असमंजस का शिकार, दुविधाग्रस्त और कंफ्यूज्ड हूं। कहां खर्च करूं। ये पूंजी कहां लगाऊं। कैसे इसको निवेश करूं कि बेहतर मुनाफा मिले। बचे हुए दिन भी क्या इसी उधेड़बुन में बीत जाने वाले हैं।
अब मन में जब इतनी परेशानियां हों तो जनमदिन पर क्या आदमी खाक खुश होगा। मन अवसाद से भर जाता है। मैं उदास हो जाता हूं। अपना जीवन ही काटने को दौड़ने लगता है। क्या कहें। लोग मुबारकबाद देते हैं। खुशियों की कामना करते हैं। कुछ लोग हो सकता है कि आपके जीवन से ईर्ष्या भी करते हों। लेकिन, मैं तो मन ही मन हंस देता हूं। इस जन्नत की हकीकत मुझसे ज्यादा भला किसको मालूम होगा।
जनमदिन क्या है। जिस दिन मैं पैदा हुआ। इसके मायने क्या है। मेरा जनमदिन आखिर मनाया क्यूं जाना चाहिए। ऐसा क्या किया है मैंने जिसे इस समाज को याद रखना चाहिए। क्या मैं अपने निशान छोड़ते हुए यहां तक पहुंचा हूं। क्या मैने अपने पीछे कोई ऐसी लकीरें छोड़ी हैं, जिसपर चलना कोई अन्य पसंद करे। खैर, इतना भी नहीं सोचना चाहिए। हां, ये बातें हुआ करती थीं कभी। हम लोग महापुरुषों की जयंती मनाया करते थे। उनकी मौत के दिन भी उन्हें याद करते थे। उनके योगदान पर चर्चा करते थे। साल दर साल हम उनकी याद करते थे। शहीदों के मजारों पर मेले लगता करते हैं। हम भी लगाया करते थे। लेकिन, फिर सबका जनमदिन क्यों। जिन्होंने समाज के लिए किया। समाज उनका अहसान याद करता है। वो नाशुक्रा नहीं है। अपनी इन्हीं शुक्रगुजारियों को वो याद करता है। साल दर साल।
पर व्यक्ति की भी अहमियत होती है। वो पैदा होता है। उसके पैदा होने से न जाने कितने आंखों में आंसू उमड़ने घुमड़ने लगते हैं। अब चाहे वो खुशी के हों या दुख के। वो किसी एक घर में रहता है, स्कूल जाता है, खेलता है, कूदता है, नौकरी करता है, काम करता है, या फिर निठल्ला रहकर जीवन बिताता है और मर जाता है। अपने परिवार पर वो असर डालता है। अपनी अगली पीढ़ी को अपने बाद वही सबकुछ करने के लिए छोड़ जाता है जो सब करते हुए खुद उसने अपने जीवन के दिन होम कर दिए। इन सीमित अर्थों में उसे भी खुद को याद किए जाने का हक है। हां, याद तो उसे किया ही जाना चाहिए। उसका परिवार, उसके आस-पास के लोग। उसके यार-दोस्त। जिन चीजों के उत्पादन से वो जुड़ा रहा। जहां पर भी अमिट प्रभाव छोड़े। या फिर हो सकता है कि उसके प्रभाव जल्द  ही उड़ जाने वाले हों। फिर। यानी कोई सेलिब्रिटी नहीं भी हो तो क्या। उसे अपनी पैदाइश का दिन याद करने का हक तो है ही। जिस दिन उसका अस्तित्व लोगों के सामने प्रगट हुआ। उसका जन्म हुआ। पूरा जीवन उसने अपने आपको दूसरों के अनुसार और दूसरों को अपने अनुसार ढालने में लगा दिया। वो वैसी दुनिया और घर बनाता रहा जैसा कि वो खुद चाहता रहा। और दुनिया और घर उसे वैसा बनाते रहे, जैसा कि वे चाहते थे कि वो बन जाए। इसके बीच में हर दम लड़ाइयां होती रहीं। जीत-हार चलती रही।
जीवित और मरे हुए के बीच दो बहुत बुनियादी फर्क है। जो जिंदा है वो अपना पोषण करता है और अपनी संतति का प्रजनन करता है। जो मरा हुआ है वो न तो अपना पोषण करता है और न ही उसका प्रजनन होता है। जीवित की सहज इच्छा पूरी दुनिया पर छा जाने की है। यह उसके अस्तित्व के लिए जरूरी सा है। वो सब कुछ पर अपना अधिकार कर लेना चाहता है। अपने निशान छोड़ देना चाहता है। लेकिन, जिस दुनिया में वो जी रहा है वो खुद उसे ऐसा करने से रोक देती है। इसी में लगी रहती है कि कहीं वो उससे ज्यादा न पा जाए, जितने का वो हकदार है। कोई अपने जीवन को फैलाने में लगा हुआ है, अपने जीवन को बिखेरने में लगा हुआ है। और न जाने कितने प्रकार से दूसरे जीवन उस जीवन को बाधित करने में लगे हुए हैं। उसे सीमित करने में जुटे हुए हैं। खुद उसे भी अहसास है कि उसके जीवन को बाधित किया जाएगा। रोका जाएगा। पैदा नहीं होने दिया जाएगा। तो उसने भी इससे बचने के तमाम तरीके निकाल रखे हैं।
पेड़ अपने बच्चों को छोटे-छोटे बीजों की डिबिया में बंद कर देते हैं। बच्चे उसी मे सोते रहते हैं। चुपचाप। ठीक ऐसे ही जैसे कोई बच्चा सबकुछ जानते-बूझते, चुपचाप आंख मूंदकर सोने का नाटक करता हो। वो सोता रहता है। साल बीत जाते हैं। महीनों बीत जाते हैं। फिर वो अचानक जाग जाता है। उसे अपने आसपास अपने अनुकूल की आहट मिल चुकी है। वो अपनी दोनों हथेलियों को जोड़कर डिबिया के खोल को तोड़कर बाहर निकल आता है। फिर वो आगे बढ़ता है। नमी तो उसे पसंद है पर अंधेरे से उसे नफरत है। उसे सूरज की रोशनी चाहिए। वो उसी दिशा में बढ़ने लगता है। लेकिन, इसी प्रयास में कोई उसे कुचल कर निकल जाता है। कोई उसे खाकर हजम कर जाता है। कोई आकर उसकी नन्हीं हथेलियों जैसी कोंपलों को ही कुतर लेता है। वो मर जाता है। लेकिन, उसके दूसरे भाई-बहन जागते हैं। वो भी आगे बढ़ते हैं। बहुत सारे मारे जाते हैं। लेकिन, फिर भी कुछ बचे रहते हैं। पतझड़ से पहले नीम अपनी हजारों-लाखों संतानों को जमीन में गिरा देता है। बरसात होती है और वे सब जाग जाते हैं। बरगद के बच्चे अपनी कोठरियों में बंद होकर न जाने कितने पक्षियों के पेट में चले जाते हैं। पक्षी उन्हें न जाने कहां-कहां रोप देते हैं। वे वहां जागते हैं, नींद टूट जाती है, कभी जीते हैं कभी मर जाते हैं।
जीवन जहां जितने खतरे में होता है, वहां वो अपने खुद के सर्वाइव करने का उतना ही ज्यादा प्रयास करता है। पेड़ों को लगता है कि उनके न जाने कितने बच्चे जीवित रहेंगे। वे लाखों-करोड़ों बच्चों को जनम देते हैं। हर साल। साल दर साल। वे छा जाना चाहते हैं। लेकिन, बचते बहुत ही कम है। प्रकृति न जाने कितनों की सहायता लेकर उनकी तादाद को नियंत्रित करती है। मछलियां हर साल लाखों अंडे देती हैं। उनकी चाहत भी अपनी संतत्ति को हर कहीं फैला देना है। उनकी संतति के रूप में उनका जीवन अंश भी जीवित रहेगा। वे चाहती हैं कि अपने जीवन अंश को हर कहीं पर बिखेर दें। लेकिन, वे बच्चे बचते बहुत कम हैं। कुछ तो अभी खोल में बंद ही रहते हैं कि कोई उन्हें खाकर हजम कर लेता है। फिर जब वे खोल से बाहर निकलती हैं तब कोई उन्हें हजम कर लेता है। हर समय अपने जीवन पर पड़े खतरे को जानकर वे भागती फिरती हैं। बचती बहुत ही कम हैं। मछलियों को भी पता है कि उनकी संतति को खतरे बहुत हैं। इसीलिए वे बेतादाद अंडे देती हैं। ताकि सबका पेट भरने के बाद भी कुछ न कुछ बचा रहे।
जब जीवन को जरा सी सहूलियतें हुईं। जब जीवन पर खतरे कम हुए। जब जीवन को खतरे से बचाने के लिए दूसरे उपाय भी आ गए तो जीवन ने इतनी बड़ी संख्या में संततियां पैदा करना बंद कर दिया। पक्षियों ने पेड़ की ऊंची डालियों पर घोसले बनाए। उन्हें हर खतरे से बचाने के उपाय किए। फिर उसमें अंडे दिए। उसे गर्मी दी। बच्चे निकले तो उन्हें प्यार दिया, पोषण दिया। छह अंडे दिए तो उसमें चार वयस्क हो गए। संतति की सफलता की दर बढ़ गई। इसलिए उन्होंने कम अंडे देना शुरू कर दिया। स्तनपायी जीवों ने अपनी संतति की सुरक्षा के उपाय और ज्यादा पुष्ट किए। और अपनी संतति की तादाद घटा दी। वे कम बच्चे पैदा करते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं ताकि वे बड़े होकर उनके जैसा बन जाएं और उनकी संतति बढ़ती रहे। उनका वंश चलता रहे।
बताइये भला पेड़ ऐसा कर सकते हैं कहीं। इसीलिए वे बेतादाद बच्चे पैदा करते हैं। कुछ तो बचेगा। एक-एक नींबू में ही दस-दस, बीस-बीस बीज होते हैं। कोई तो बचेगा। किसी को तो पैदा होने की मोहलत मिलेगी। किसी से तो अंकुर फूटेगा। लेकिन, जहां पर जीवन को निश्चिंतता है वहां पर संतति की तादाद कम होती गई।
यहां तक कि सिंगल चाइल्ड तक भी लोग पहुंच गए। या नो किड्स तक भी माना जाने लगा। यानी दो लोग मिलकर अपने पूरे जीवन में सिर्फ एक बच्चा पैदा करेंगे या वो भी नहीं करेंगे। जीवित और मृत के बीच के पुराने अंतर को देखें तो वो यहां पर मिटता हुआ दिखेगा। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो पोषण तो कर रहे हैं, यानी खा पी रहे हैं लेकिन प्रजनन नहीं कर रहे हैं। क्या आप इसे आधा मरा हुआ कहेंगे। यानी हाफ डेड। पता नहीं। कहना मुश्किल है।
लेकिन,यह जरूर है कि ऐसा करने की गुंजाईश या मोहलत भी जीवन की सुरक्षा ने दी है। मनुष्य को अब अपनी प्रजाति के नष्ट होने की चिंता नहीं है। बल्कि चिंता यही है कि कहीं उसकी प्रजाति ही पृथ्वी पर जीवित अन्य प्रजातियों के जीवन के लिए खतरा न बन जाए। तो ऐसी स्थिति में कुछ लोग पोषण तो करते रहें और प्रजनन नहीं करने का फैसला ले सकते हैं। प्रजनन की प्रक्रिया के आनंद से गुजरने में उन्हें परहेज नहीं है। पर प्रजनन में उन्हें रुचि नहीं है। हां, ये भी कहा जा सकता है कि अब मनुष्य का जीवन जहां पर पहुंच गया है वहां पर प्रजनन इतना महत्वपूर्ण भी नहीं रहा। जबकि, आनंद एक भाव है जो कि एक सांस्कृतिक प्राणी होने के चलते या फिर एक जीव होने के चलते उसके लिए अन्य जरूरतों जैसे हैं।
पर उन इंसानी समाजों का क्या जहां पर जीवन को अभी भी इतनी सुरक्षा हासिल नहीं है। वे अपनी संतति को जारी रखने के लिए क्या करते हैं। जी हां, वे बार-बार बच्चे पैदा करते हैं। हर साल बच्चे पैदा करते हैं। उनमें से कुछ बच्चे मर जाते हैं। कुछ पैदा होते समय ही मर जाते हैं। कुछ कोख से ही विदा हो जाते हैं। कुछ बचपन में ही भूख और बीमारियों से मर जाते हैं। कुछ विकलांग होकर पैदा होते हैं। इसके बावजूद कुछ बच्चे स्वस्थ पैदा होते हैं, वे अपनी जिजीविषा से समाज की मुश्किलों को हरा देते हैं। फिर वे अपनी संतति पैदा करते हैं। और इस बात का खयाल जरूर रखते हैं कि इतने बच्चे तो कम से कम पैदा कर ही दें ताकि कुछ न कुछ बच्चे जिंदा बचे, स्वस्थ रहे और अपनी संतति को आगे बढ़ा सकें। युद्धग्रस्त देशों, गृहयुद्ध में फंसे देशों, गरीब और वंचित देशों में आज भी मानव जीवन को इसी तरह से अपने आप को बचाने के संघर्ष में उलझे हुए देखा जा सकता है।
कहा जा सकता है कि आजादी के बाद से हमारे देश में ऐसी उलझने ज्यादा नहीं रहीं। आमतौर पर देश एक सीधी चाल से ही चला है। बारीकी में इसमें भी बहुत उतार चढ़ाव है। लेकिन, आप इस पर विहंगम दृष्टि डालेंगे तो लगेगा कि यह लगभग एक सीधी सपाट पगडंडी जैसा ही है। इसके चलते आज हमारे यहां भी एक पीढ़ी सिंगल चाइल्ड या नो किड्स वाले परिणाम तक पहुंच गई है। इसके पीछे जीवन की सुरक्षा और असुरक्षा दोनों ही काम कर रही है। एक प्रजाति के तौर पर सुरक्षा है पर एक व्यक्ति के तौर पर खुद के जीवन, भविष्य, रहन-सहन के छिनने की आशंका बतौर काम कर रही है। खैर, यह निर्विवाद है कि ऐसी एक पीढ़ी पैदा हो चुकी है।
पर जरा तीस-चालीस साल पहले के हमारे समाज पर निगाह डालिये। वहां पर जीवन की सुरक्षा कम थी। इलाज कम था। बच्चों की मौतें होती थी। मां-बाप कई-कई बच्चे पैदा करते थे। कई बार तो हर साल नया बच्चा पैदा होकर इस दुनिया को अपनी हथेलियों में समेटने की कोशिश करने लगता था। इसमें से कुछ मर जाते थे। कुछ कमदिमाग पैदा होते थे। कुछ बचपन में बीमारियों का शिकार हो जाते थे। फिर भी कुछ बचे रहते थे। हमारी पीढ़ी के लोग भी कई-कई भाई-बहनों वाले हुआ करते थे। खुद मैं पांच भाइयों और एक बहन वाला हूं। मेरी एक बहन जो डेढ़ से दो साल के बीच रही होगी, बीमार होकर मर गई। वरना हम भी पांच भाई और दो बहनों वाले होते।
मैं अपने आसपास के न जाने कितने ऐसे लोगों को याद कर सकता हूं जो कई-कई भाई-बहनों वाले बड़े परिवार में जनमते थे। उन्हीं के साथ बड़े होते थे। उनका भी कोई भाई या बहन बचपन में मर चुका हुआ होता। मिसकैरिज हो गए भ्रूणों की तो खैर कोई गिनती भी नहीं करता।
अब ऐसे में क्या उम्मीद की जाएगी कि किसी के पैदा होने का दिन कौन याद रखेंगा। अपने जनमदिन को लेकर मैं हमेशा से ही शंकालु रहा हूं। बल्कि कहा जाए तो जुलाई में जिनकी भी जन्मतारीख है, उसे लेकर मुझे संदेह ही होता है। घर वाले स्कूल में एडमीशन के लिए गए होंगे। जब जनम की तारीख पूछी गई तो वही लिखा दिया जो उस दिन रहा होगा। जैसे मुझे लगता है कि मेरा एडमीशन कराने जिस दिन लोग गए होंगे, उस दिन जरूर दस जुलाई रहा होगा। इसीलिए मेरा जनमदिन दस तारीख निर्धारित हो गई।
मां को अपना जनमदिन याद नहीं। पता नहीं। उन्हें अपनी उम्र भी नहीं पता। मैं पूछता हूं कि मैं कब पैदा हुआ था तो वे कहती हैं कि वोही साल ई वाली सड़क भी निकली रही। अब मैं जोड़-जाड़कर यह अंदाजा लगाता हूं कि यह जरूर 1975 से 1977 के बीच का कोई साल रहा होगा। तारीख क्या रही होगी, क्या पता। लेकिन, कहा जाता है न कि आप क्या हैं, यह इससे नहीं पता चलता कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं। बल्कि इससे पता चलता है कि दूसरे आपके बारे में क्या सोचते हैं। तो भाई, अब तो दस जुलाई को ही सबकुछ मान लो। असली तो प्रगट हुआ नहीं। तो नकली का ही हिसाब रखो। लेकिन, यह सब मुझे उदास कर जाता है। खासतौर पर इसलिए भी कि यह मुझे याद दिलाता है कि अपनी आधी से ज्यादा उम्र मैंने जी ली और अब जो वक्त बचा है उसमें मुझे बहुत सी नामुराद बीमारियों से लड़ते हुए बिताना पड़ सकता है और इस आधी उम्र में भी मैं अपने लिए कोई रास्ता नहीं खोज पाया। असमंजस में ही रहा। दुविधा में ही रहा। और दुविधा में जीना सचमुच एक बड़ा कष्ट है।
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डायरी की तीसरी कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए।
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_53.html?m=1


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