शब्द चित्र: कैलाश मनहर
(१)
शिम्भू!ओ शिम्भू!
---------------------
गाढ़े श्याम वर्ण के लम्बोतरे-से चेहरे पर औसत आकार की सुतवाँ नाक,घुंघराले-से बाल और दृढ़ संकल्प की तरह कसे हुये होंठों के अतिरिक्त सब कुछ जान लेने को एकाग्र चमकतीं आँखों के साथ बादलों के बीच हल्की-सी विद्युत-तरंगों की तरह दमकतीं उज्ज्वल दंत-पंक्तियों वाले उस किशोर की स्मृति यदा-कदा मुझे बहुत व्यथित कर देती है |
हालांकि वह मेरे जीवन का कोई विशेष महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है लेकिन तो भी पता नहीं क्यों पिछले डेढ़-दो वर्षों से मैं उसे देखने के लिये अचानक (अनावश्यक ही)
व्याकुल हो उठता हूँ |
पता नहीं उसका मूल निवास प्रमाण-पत्र बना होगा या नहीं,पता नहीं उसने अपना विवाह-पंजीयन करवाया होगा या नहीं और पता नहीं कि वह सतत और सुचारु ढंग से अध्ययन कर रहा होगा या नहीं ?ऐसे बहुत-से प्रश्न और व्यग्रतायें हैं जिन्हें जानना-बूझना कभी-कभी मुझे बहुत जरूरी लगता है तो कई बार स्वयम् की इस नासमझी पर मुझे खिन्नता भी अनुभव होती है |
शिम्भू दयाल बंजारा नाम के उस किशोर विद्यार्थी में कदाचित् मैं अपना बचपन तलाशना चाहता हूँ क्योंकि बचपन में मेरी दादी और माँ भी मुझे इसी नाम से पुकारतीं थीं...शिम्भू! ओ शिम्भू!
(२)
अपने किये को परखने की चाबी:
-----------------------------
और वही शिम्भू राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय,खोरालाड़खानी (शाहपुरा-जयपुर)के कमरा नम्बर-2 (हॉल)में कक्षा-12 का विद्यार्थी मेरे चेहरे पर टकटकी लगाये मेरे भीतर की समूची विद्या को आत्मसात कर लेने की आकांक्षा में लगभग पैंसठ-सत्तर छात्र-छात्राओं के बीच मुझे अलग-सा ही दिखाई दे रहा है |वही झिझक जो मुझे दूसरों से बात करने में ठिठका देती है और वही संकोच जो हमेशा शायद अपने ही भीतर के अन्तर्द्वन्द्वों की उलझन में फंसा कुछ भी कहने से डरता-सा रहता है,इस शिम्भू दयाल बंजारा नाम के छात्र के चेहरे पर छाया हुआ मुझे स्पष्ट प्रतीत होता है |
किन्तु उस दिन जो कि शायद सितम्बर-2010 की कोई तारीख थी,वह शिम्भू दयाल बंजारा अपनी झिझक से कुछ-कुछ उबरता हुआ अपने कक्षा-कार्य की अभ्यास-पुस्तिका ले कर स्टाफ-रूम में आ पहुँचा और मैं वाक़ई कुछ अचकचा-सा गया क्योंकि मैनें सिगरेट सुलगाई ही थी और कुछ विश्राम भी करना चाहता था |मेरी अचकचाहट से ठिठक कर वह वापस जाने ही वाला था कि मैनें तत्काल फ़र्श पर रगड़ कर सिगरेट बुझा दी और उसे बुलाया "हाँ...आओ! बोलो क्या बात है ?"
"गुरु जी!थोड़ीक म्हारी कॉपी चैक कर द्यो, कोई ग़लती व्है तो..."उसने अपनी झिझक तोड़ी |
और सच कहता हूँ श्रीमानों कि उस पल मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैं अपना तमाम संकोच छोड़ कर अपनी ज़ुबान का ताला खुद अपने हाथों से खोलने लगा होऊँ क्योंकि अपने किये को परखने की चाबी मुझे जीवन में पहली बार प्राप्त हुई थी |
(३)
उसके बहाने अपने आप से:
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अब क्या बताऊँ श्रीमानों कि वे पल मेरे लिये कितने आत्मीय पल रहे होंगे कि मैं शिम्भू के रूप में जैसे अपने आप को जाँचने के उपक्रम से गुज़र रहा था |मैनें उसके हाथों से कॉपी ली और देखा कि उसका सुलेख औसत दर्ज़े का ही था लेकिन उसमें अशुध्दियाँ बहुत कम थीं |
"भादों के बाद आश्विन माह में पेड़-पौधों के पत्तों पर दिखने वाली स्वच्छ उज्ज्वलता सूर्य के धूप-ताप से विकसित होतीं प्राकृतिक वनस्पतियाँ" ऐसा ही कुछ भावार्थ आलोक धन्वा की कविता "पतंग" के संदर्भ में उपमा देते हुये उसने लिखा था |
"शाबास!,बहुत अच्छा किया है,लेकिन ज़रा राइटिंग सुधारो यार!अक्षरों की बनावट पर ध्यान दे कर लिखा करो" मैनें जैसे उसके बहाने अपने आप से कहा "राइटिंग किंयान सुधारूँ गुरुजी ?"
"ऐसा करो तुम रोज़ाना एक पेज़ नकल कर के सुलेख लिखा करो,इससे अभ्यास होगा और राइटिंग अपने आप सुधरने लगेगी |"मैनें समझाया उसे |
"ठीक है गुरूजी" और वह चला गया |
वह तो चला गया लेकिन पता नहीं क्या था उसके किशोर व्यक्तित्त्व के भीतर कि मैं बहुत देर तक उसके बारे में सोचता रहा |उसकी बोली-बानी,उसकी वे एकाग्र आँखें और उसकी वह संकोची प्रकृति जो कि विद्यालय के अन्य विद्यार्थियों में स्थानीय होने के खुलेपन से बिल्कुल अलहदा थी,मुझे बार-बार अपनी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिये मज़बूर कर रहे थे बकौल शाइर कि...
"लताफ़त बेकसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती,
चमन ज़ंगार है आईना-ए-बाद-ए-बहारी का "
000
कैलाश मनहर |
(१)
शिम्भू!ओ शिम्भू!
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गाढ़े श्याम वर्ण के लम्बोतरे-से चेहरे पर औसत आकार की सुतवाँ नाक,घुंघराले-से बाल और दृढ़ संकल्प की तरह कसे हुये होंठों के अतिरिक्त सब कुछ जान लेने को एकाग्र चमकतीं आँखों के साथ बादलों के बीच हल्की-सी विद्युत-तरंगों की तरह दमकतीं उज्ज्वल दंत-पंक्तियों वाले उस किशोर की स्मृति यदा-कदा मुझे बहुत व्यथित कर देती है |
हालांकि वह मेरे जीवन का कोई विशेष महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है लेकिन तो भी पता नहीं क्यों पिछले डेढ़-दो वर्षों से मैं उसे देखने के लिये अचानक (अनावश्यक ही)
व्याकुल हो उठता हूँ |
पता नहीं उसका मूल निवास प्रमाण-पत्र बना होगा या नहीं,पता नहीं उसने अपना विवाह-पंजीयन करवाया होगा या नहीं और पता नहीं कि वह सतत और सुचारु ढंग से अध्ययन कर रहा होगा या नहीं ?ऐसे बहुत-से प्रश्न और व्यग्रतायें हैं जिन्हें जानना-बूझना कभी-कभी मुझे बहुत जरूरी लगता है तो कई बार स्वयम् की इस नासमझी पर मुझे खिन्नता भी अनुभव होती है |
शिम्भू दयाल बंजारा नाम के उस किशोर विद्यार्थी में कदाचित् मैं अपना बचपन तलाशना चाहता हूँ क्योंकि बचपन में मेरी दादी और माँ भी मुझे इसी नाम से पुकारतीं थीं...शिम्भू! ओ शिम्भू!
(२)
अपने किये को परखने की चाबी:
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और वही शिम्भू राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय,खोरालाड़खानी (शाहपुरा-जयपुर)के कमरा नम्बर-2 (हॉल)में कक्षा-12 का विद्यार्थी मेरे चेहरे पर टकटकी लगाये मेरे भीतर की समूची विद्या को आत्मसात कर लेने की आकांक्षा में लगभग पैंसठ-सत्तर छात्र-छात्राओं के बीच मुझे अलग-सा ही दिखाई दे रहा है |वही झिझक जो मुझे दूसरों से बात करने में ठिठका देती है और वही संकोच जो हमेशा शायद अपने ही भीतर के अन्तर्द्वन्द्वों की उलझन में फंसा कुछ भी कहने से डरता-सा रहता है,इस शिम्भू दयाल बंजारा नाम के छात्र के चेहरे पर छाया हुआ मुझे स्पष्ट प्रतीत होता है |
किन्तु उस दिन जो कि शायद सितम्बर-2010 की कोई तारीख थी,वह शिम्भू दयाल बंजारा अपनी झिझक से कुछ-कुछ उबरता हुआ अपने कक्षा-कार्य की अभ्यास-पुस्तिका ले कर स्टाफ-रूम में आ पहुँचा और मैं वाक़ई कुछ अचकचा-सा गया क्योंकि मैनें सिगरेट सुलगाई ही थी और कुछ विश्राम भी करना चाहता था |मेरी अचकचाहट से ठिठक कर वह वापस जाने ही वाला था कि मैनें तत्काल फ़र्श पर रगड़ कर सिगरेट बुझा दी और उसे बुलाया "हाँ...आओ! बोलो क्या बात है ?"
"गुरु जी!थोड़ीक म्हारी कॉपी चैक कर द्यो, कोई ग़लती व्है तो..."उसने अपनी झिझक तोड़ी |
और सच कहता हूँ श्रीमानों कि उस पल मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैं अपना तमाम संकोच छोड़ कर अपनी ज़ुबान का ताला खुद अपने हाथों से खोलने लगा होऊँ क्योंकि अपने किये को परखने की चाबी मुझे जीवन में पहली बार प्राप्त हुई थी |
(३)
उसके बहाने अपने आप से:
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अब क्या बताऊँ श्रीमानों कि वे पल मेरे लिये कितने आत्मीय पल रहे होंगे कि मैं शिम्भू के रूप में जैसे अपने आप को जाँचने के उपक्रम से गुज़र रहा था |मैनें उसके हाथों से कॉपी ली और देखा कि उसका सुलेख औसत दर्ज़े का ही था लेकिन उसमें अशुध्दियाँ बहुत कम थीं |
"भादों के बाद आश्विन माह में पेड़-पौधों के पत्तों पर दिखने वाली स्वच्छ उज्ज्वलता सूर्य के धूप-ताप से विकसित होतीं प्राकृतिक वनस्पतियाँ" ऐसा ही कुछ भावार्थ आलोक धन्वा की कविता "पतंग" के संदर्भ में उपमा देते हुये उसने लिखा था |
"शाबास!,बहुत अच्छा किया है,लेकिन ज़रा राइटिंग सुधारो यार!अक्षरों की बनावट पर ध्यान दे कर लिखा करो" मैनें जैसे उसके बहाने अपने आप से कहा "राइटिंग किंयान सुधारूँ गुरुजी ?"
"ऐसा करो तुम रोज़ाना एक पेज़ नकल कर के सुलेख लिखा करो,इससे अभ्यास होगा और राइटिंग अपने आप सुधरने लगेगी |"मैनें समझाया उसे |
"ठीक है गुरूजी" और वह चला गया |
वह तो चला गया लेकिन पता नहीं क्या था उसके किशोर व्यक्तित्त्व के भीतर कि मैं बहुत देर तक उसके बारे में सोचता रहा |उसकी बोली-बानी,उसकी वे एकाग्र आँखें और उसकी वह संकोची प्रकृति जो कि विद्यालय के अन्य विद्यार्थियों में स्थानीय होने के खुलेपन से बिल्कुल अलहदा थी,मुझे बार-बार अपनी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिये मज़बूर कर रहे थे बकौल शाइर कि...
"लताफ़त बेकसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती,
चमन ज़ंगार है आईना-ए-बाद-ए-बहारी का "
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अध्यापन ही एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ विद्यार्थी हमें सिखाते भी हैं और हमारे व्यक्तित्व को विकसित होने का अवसर भी देते हैं
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