25 अक्तूबर, 2018

सुमन शर्मा की कविताएं



सुमन शर्मा 



"धूप में छाँव"

हर कोई चाहता है
धूप में छाया
और ठंढी बयार
चाहता है सफ़र की थकान के बाद
विश्राम के लिए शीतल ठौर

लेकिन इसके लिए रोपना होता है एक पौधा
बचाना होता है उसे
हर विपरीत मौसम के दुष्प्रभाव से
उन कीट-पतंगों से
और खर-पतवार से
जो प्रभावित कर सकते हैं उसके समुचित विकास को

पौधे के लिए
ज़रूरी है
धरती और माली भी
ताकि पौधा बने हरा-भरा
घना छायादार वृक्ष...
छांव में जिसकी बैठे रहें
माली और व्याकुल बटोही भी।





"नियंता"

मैंने तो बस चाहा तुम्हें
तुमसे हृदयातल से प्रेम किया
जैसे प्रत्येक साधारण स्त्री
करती है अपने स्वप्न पुरूष से ..
जैसे करती रही
मुझ से पहले  एक  औरत
मां बन कर
उसी ने सौंपी थी यह विरासत मुझे...
तुमने तो कुछ क्षण के लिए
सिर्फ मेरी कामना ही की
कभी नही  चाहा
न प्रेम किया कभी
मेरे प्रेमी तो नहीं बन पाए
हाँ बन गए नियंता
मेरी समस्त भावनाओं के..
नियंत्रित करने लगे मेरे मन को
मेरा सुख-दुःख, खुशी-ग़म
हँसना-रोना है सब कुछ
तुम्हारे रहमो-करम पर
मेरे आंसुओं पर तुम्हारा  आधिपत्य है
और मुस्कान जी रही है
तुम्हारी ही इच्छा पर!!!










" तुम्हारी हँसी...।"

सांझ ढलने लगी है
आकाश में वापस लौटते पक्षियों की आवाज़ सुन
याद आ गई तुम्हारी हँसी
हर तरफ खिल आये हों जैसे मोंगरे के फूल
और मैं धीरे-धीरे डूब रही हूँ
मोंगरे की महक में।

सुनी है कभी हँसी अपनी?
सुनी तो कितनो ने होगी
लेकिन तुम्हारे चेहरे की चमक के आगे
गौण हो गई इसकी आवाज़
क्योंकि प्रकाश की गति ध्वनि से तीव्र होती है न?
तभी तो बिजली की चमक के बाद ही सुनाई देती है बादलों की गड़गड़ाहट..!

मैं भी तो सुनी कितने दफ़ा
लेकिन आज ध्वनि की गति तीव्र थी शायद
और तुम्हारी हँसी काबिज हो गई
मन मन्दिर में बजते स्वर्ण घण्टियों के पवित्र स्वर की तरह

तुम्हारी हँसी बच्चों जैसी मासूम है
सक्षम नहीं  इस पर कभी उम्र
अपनी सीमा निर्धारण करने में
पवित्र है प्रार्थना जैसी
कोमल है एहसासों की तरह...!

बेलौस बहती दरिया सी हँसी तुम्हारी
समाहित कर लेती है सारी उदासी
ग़म पिघलने लगते हैं
दर्द सारे तब्दील हो जाते मुस्कराहटों में

तुम्हारी हँसी तरंगों की तरह छूकर
झंकृत कर देती है देह के तार-तार
और बजने लगता है मदिर संगीत

तुम्हारी हँसी की गहराई में डूब जाते हैं आँसुओ के समंदर
सघनता से गुज़र भी न पाता दुःखों का आभास
जी उठे ख्वाब सारे
सजीव हो जाएं मुरझाई उम्मीदें

तुम्हारी हँसी सुन गाते हैं खगदल
चाँद मुस्कराता है
किलकता है सूरज
खुशी की लालिमा फैल जाती है दसों दिशाओं
और होता है जीवन का नया सवेरा...!!






मेरी प्रत्येक उत्सुकता सिर्फ तुमसे तुम तक!

न सूर्य की आग्नेयता में
न चन्द्र की शीतलता में
न पुष्पों की कोमलता में
न प्रकृति की रमणीयता में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न दिन के निकलने में
न रात के ढलने में
न पवन के चलने में
न नदियों के बहने में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न पक्षियों के चहकने में
न कलियों के चटखने में
न बादल के गरजने में
न सागर के छलकने में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न श्वासों की अनवर्तता में
न अश्रु की क्षारकता में
न समय की क्षणभंगुरता में
न जीवन की नश्वरता में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!!










"फिर कभी नहीं...…..।"
     
तुम्हें एक नज़र देखने के लिए
तरसती हैं आँखें
काश ! तुम समझ पाते
जिन्दगी  के  कितने हसीन पल
मैं तुम्हें सौंपती हूँ l
जानती हूँ
तुम्हारा हर पल कीमती है
पर मेरा क्या
मैं  तुम्हारे खाली वक्त के लिए
खाली वक़्त भर हूँ
अर्थहीन ...

बहुत बार चाहा
चली जाऊँ तुमसे बहुत दूर
जहाँ से मेरी सदा भी आये न तुम तक
लेकिन....
कुछ पगडंडियों के मुहानों पर
नागफणियाँ है
कुछ रास्तों पर
आगे ना बढ़ने की चेतावनी
तुमने कहां छोड़ी कोई राह...
कहीं से भी चलूँ, तुम तक पहुँच ही जाती हूँ।

लेकिन....
अगर कभी मिल गईं जो कोई राह
तुम तक लौटकर फिर नहीं आउंगी
फिर कभी नहीं...





"हर मौसम की तासीर में तुम हो"

कई दिनों के उमस  के बाद
आज शाम ठंढी हवा के झोकों ने
बदल दिया हो जैसे
शहर के मौसम का मिज़ाज

जल्दी से ऑन करती हूँ टीवी
और देखती हूँ मौसम का हाल
क्या तुम्हारे शहर से होकर
आ रही है ये हवा?

भागती हूँ सीढ़ियों पर
हाँफती हुई पहुँच जाती हूँ छत पर
पूर्णिमा का चाँद
अपनी समूर्ण कलाओं से पूर्ण
खिला है आसमान पर

ठंढी हवा के झोंके मेरे बालों को बिखेर देते हैं
चेहरे पर मेरे
उन्हें कानों के पीछे करते जल्दी से
अपने दोनों बाहें फैलाकर
आँखों को बंद कर
भरती हूँ गहरी-गहरी सांसें

शीतलता की तासीर लिए
एक भीनी सुगंध भर आती है
मेरे भीतर
पहचानती हूँ  जिसे जन्मों से
मेरा अंतर्मन तक महक उठता है
और रोम-रोम शीतल हो जाती हूँ मैं.....





तुम्हारा एहसास

तुम्हारे एहसास भर से ही
महक उठता है रोम-रोम
सप्त-रंगी इन्द्र धनुष से
निखर उठते हैं सूखे होंठ ।

मेरी हंसी में
गूँजने लगती है
नदियों की कलकल
मिलन की आस में आतुर
झूम उठती हूं लहर -लहर ।

समूचे जंगल की मदमस्त लताएं
लिपट जाती हैं
तुम्हारे आगोश की तरह
और  मैं समेट लेती हूं
खेतों की सारी हरियाली
अपने दुपट्टे में।

काली स्याह रात
काज़ल की तरह
उतर आती है
आंखों में।

गुलाबी रंगत से
सुर्ख हो जाते हैं
गाल मेरे।

मेरे ख्यालों के उपवन में
खिलते हैं ख्वाब तुम्हारे
और
बन जाता है गुलशन
यह निर्जन सा जीवन ।






" जीना है तुम्हारे प्रेम में .."

नहीं नहीं मुझे नहीं मरना अभी
जीना है मुझे तुम्हारे साथ तुम्हारे प्रेम में!
अभी तो उगने लगे हैं ख्वाहिशों को हकीकतों के पंख
उड़ना है मुझे तुम्हारा हाथ थामे
नापना है मुझे तुम्हारे-मेरे हिस्से का आसमान

अभी-अभी तो शुक्लपक्ष का चाँद खिला है
चाँदनी के उजास में
ख्वाबों की तितलियों ने देखा है
नींद में महकता गुलशन

अभी तो सीख रही मुस्कराना
हँसी के झरने की कलकल सुनना है मुझे
भीगना है अभी उन एहसासों की बारिश में
जिनका इज़हार करना अभी-अभी तो सीख रहे हो

अभी-अभी तो मुख़्तसर हुआ है जन्मों का इंतज़ार
रफ़्ता-रफ़्ता कदम दर कदम
तुम आ रहे हो मुझ तक

अभी तो तुम्हारे प्यार के ख़ज़ाने से
दिल की तिज़ोरी को भर लेने के दिन हैं
खरीद लेनी है जिससे दुनिया की सारी खुशियां

अभी अभी तो सौपी है तुमने अपने मन की मिल्कियत
अभी तो करना है हुकूमत तुम्हारे दिल के सम्राज्य पर
और काबिज़ होना है शीर्ष पर बादशाहों के क्रम में

मुझे नहीं मरना,जीना है तुम्हारे प्रेम में......!



     



"तुमसे मोह सृजन है"

कहते हैं कि मोह से छूट जाना
मोक्ष की प्राप्ति है
जिससे कि
छूट जाता है मनुष्य
सारे दुःखों से और
हो जाता है आजाद
हर सांसारिक ताप से

मुक्त हो जाता है जीवन मृत्यु के चक्र से
आख़िर सभी दुःखों का हेतु मोह ही तो है
दुनियां में आवागमन के सफ़र का कारण भी!

लेकिन....
तुम्हारे मोह से छूटना
छूट जाना है सुखों का
रुठ जाना है खुशियों का
निमंत्रित करना है हर सांसारिक ताप!
तुम्हारे मोह से छूटना, मेरी कविता का मर जाना है!

तुमसे मोह सृजन है
संगीत है
उत्सव है
रंग है
जीवन है

तुमसे बंधन आज़ादी है
तुम पर मरना ज़िंदगी!
तुम्हारा साथ है तो धरती स्वर्ग है!
तुमसे मोह मुक्ति!



         



"आँखें बयां करती हैं"

बहुत कुछ चल रहा मन में
रफ़्ता-रफ़्ता रेंगती रात के साथ ही
उथल पुथल है भीतर इतना
कि लगता है जैसे
नींद आँखों के आस पास भी
नहीं फटकने पाएगी..

नींद आती तो है
लेकिन उसका बस नहीं चलता किसी भी तरह
नहीं जीत पाती चेतना से
क्योंकि नहीं चाहती मैं नींद
जिसकी गहराई में
कभी कभी विस्मृत हो जाता है वो
जिसे भूलने की कल्पना भी असह्य होती है....

लेकिन उस संज्ञा शून्यता के बीच
औचक ही आती है एक सदा सी
और आँखों से नींद ऐसे छिटक के भागती है
जैसे कि छू जाता है बिजली का नंगा तार
या कि बेखयाली से पड़ जाता है गर्म तवे पर पाँव....

मेरी आँखें बयां करती हैं
कहानी मेरी रतजगों की
कि कैसे आखों के इर्दगिर्द पड़े
इन स्याह गड्ढों में डूबी हैं
विरह की कितनी ही काली रातें...




-सुमन शर्मा
लखनऊ,उत्तर प्रदेश

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