25 अक्तूबर, 2018

मलयालम सिनेमा का उत्कर्ष काल

विजय शर्मा


विजय शर्मा


भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है। यहाँ २५ भाषाओं में प्रति वर्ष करीब २००० फ़िल्में बनती हैं। प्रत्येक क्षेत्रीय फ़िल्म एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। फ़िल्में जन-संवाद का एक बड़ा माध्यम है साथ ही ये देश के लिए रेवेन्यू भी उत्पन्न करती हैं। भारतीय फ़िल्म इतिहास का प्रारंभ ७ जुलाई १८९६ को ही हो गया था जब लूमियर भाइयों ने बंबई के वाट्सन होटल में अपनी शॉर्ट फ़िल्मों का प्रदर्शन किया था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इसे ‘मैजिक ऑफ़ द सेंचुरी’ कहा था और यह कथन सत्य साबित हुआ। आज सिनेमा सौ साल से ऊपर का हो चुका है और लोगों में इसका पागलपन बढता ही जा रहा है। इन सौ सालों में सिनेमा का निर्माण, इसके कथानक की प्रस्तुति, इसकी तकनीकि, इसके चरित्र, इसके विज्ञापन का तरीका, इसके प्रदर्शन की विधि सब कुछ परिवर्तित हो चुकी है, लेकिन सिनेमा बना हुआ है। दशकों में बाँट कर सिनेमा के इतिहास का अध्ययन एक रोचक विषय है। मगर हम यहाँ बात करने वाले हैं मात्र इक्कीसवीं सदी के सिनेमा की वह भी केवल मलयालम सिनेमा की। बॉलीवुड की भाँति ही मलयालम फ़िल्म उद्योग अब बहुत अधिक संगठित है। इससे जुड़े लोग आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रोफ़ेशनल हैं। आज फ़िल्म निर्माण तकनीकि से जुड़ कर बहुत विशिष्ट हो गया है। आज फ़िल्म के पास विज्ञापन, वितरण और प्रदर्शन के बेहतर तरीके उपलब्ध हैं। दर्शकों की रूचि भी बदल गई है। एक समय था जब फ़िल्म देखना बुरी बात मानी जाती थी और लोग इसे चोरी-छिपे देखा करते थे लेकिन इक्कीसवीं सदी में फ़िल्में लोगों की मुट्ठी में हैं और वे खुलेआम फ़िल्म देखते हैं और उस पर चर्चा करते हैं। आज फ़िल्में लोगों की रूचि का निर्माण करती हैं, उन्हें प्रेरित करती हैं।

यह एक सार्वजनिक सत्य है कि सिनेमा समाज को प्रतिबिंबित करता है, साथ ही समाज को प्रभावित भी करता है। यह समाज के परिवर्तन को दिखाता है और समाज में परिवर्तन लाता है। एक समय फ़िल्म को सामाजिक बुराई माना जाता था और आज यह ‘एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट’ है। यह बदलाव एकाएक नहीं हुआ है। पूरे देश में पिछली सदी के आठवें-नौंवे दशक से परिवर्तन प्रारंभ हुआ। इसी समय आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगाज हुआ और इसी समय से फ़िल्मों में भी बदलाव आया। अब फ़िल्में बेहतर तकनीकि, बेहतर प्रोजेक्शन, बेहतर लोकेशन्स, बेहतर ड्रेस, सेट, संगीत से लैस हैं। देश के साथ केरल भी बदला। देश के अन्य हिस्सों की तरह केरल में भी मल्टीप्लेक्स संस्कृति का प्रारंभ हुआ। आज केरल जैसे छोटे-से राज्य में ५० से ऊपर मल्टीप्लेक्स हैं। छोटे-छोटे शहरों में इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। इस पद्धति ने एकल स्क्रीन वाले सिनेमा हाल की छुट्टी कर दी है। अब ये हाल शादी के लिए प्रयोग होते हैं।

यह संभव हुआ मध्यवर्ग की खरीदारी क्षमता में इजाफ़ा होने से। आधा केरल खाडी के देशों में काम करता है, इन लोगों की आ-मद-नी खास है और इससे केरल में खूब आय होती है। मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखना सामाजिक हैसियत को प्रदर्शित करता है। इसने फ़िल्मों का आर्थिक स्वरूप परिवर्तित कर दिया है। आज का दर्शक आर्थिक रूप से मजबूत है साथ ही वह प्रौढ़ भी हो चुका है। वह फ़िल्म में एक साथ विभिन्न मुद्दे चाहता है, कथानक की प्रस्तुति में नवीनता उसकी पसंद है। मलयालम सिनेमा दर्शक की इन जरूरतों को समझता है और आज मलयालम में इन्हीं जरूरतों को ध्यान में रख कर फ़िल्में बनाई जा रही हैं। दर्शक एक ही फ़िल्म में अच्छी पटकथा, मनोरंजन दोनों की माँग करता है। उसे रोमांस भी चाहिए और सामाजिक संदेश भी। आज मलयालम फ़िल्म केवल मलयाली दर्शक को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जाती हैं। डबिंग की सुविधा और रिमेकिंग चलन के कारण मलयालम फ़िल्में वैश्विक दर्शक को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं। मलयालम सिनेमा न केवल डोमेस्टिक मार्केट को ध्यान में रख रहा है वरन उसकी दृष्टि ओवरसीज मार्केट पर भी है। मलयालम सिनेमा की बाउंड्री का विस्तार हुआ है। युवा वर्ग फ़िल्म का सबसे बड़ा दर्शक वर्ग होता है, फ़िल्म बनाते समय इसका भी ध्यान रखा जाता है। आज यह एक ग्लोबल एंटरटेनमेंट है। इसे खूब मीदिया कवरेज भी मिल रहा है। मलयालम फ़िल्म अवार्ड्स नाइट का समारोह शिकागो में होता है, दुबई में होता है। इसमें केवल मलयालम फ़िल्म से जुड़े लोग ही भाग नहीं लेते हैं बल्कि बॉलीवुड के लोगो भी वहाँ आमंत्रित होते हैं, समारोह में बढ़-चढ कर हिस्सा लेते हैं। अभी हाल में इसमें अक्षय कुमार, सोनम कपूर को परफ़ॉर्म करते देखा गया है। सिनेमा का प्रभाव टीवी पर देखा जा सकता है। तकरीबन सारे टीवी चेनल फ़िल्म और फ़िल्म आधारित प्रोग्राम दिखाते हैं। अभिनेताओं को बराबर तरह-तरह के टीवी प्रोग्राम में आमंत्रित किया जाता है।

यूँ तो मलयालम में हर साल ढ़ेरों फ़िल्म बनती हैं, कुछ बहुत अच्छी, कुछ सामान्य और कुछ बहुत बुरी। २००० से अब तक ‘उस्ताद होटल’, ‘सॉल्ट एंड पेपर’, ‘क्षण मात्र’, ‘मुंबई पुलिस’, ‘क्लासमेट्स’, ‘दृश्यम्’, ‘लेफ़्ट राइट लेफ़्ट’, ‘ट्वंटी २०’, ‘केरल वर्मा पड़षी राजा’, ‘ओटाल’, ‘प्रेमम्’, ‘बैंग्लोर डेज’, ’२२ फ़ीमेल कोटयं’, ‘उरमी’, ‘नेरम’, ‘मीसा माधवन’, ‘पलेरी मानकम्’, ‘बिजनेस मैन’, ‘एक्शन हीरो बीजू’, ‘नॉर्थ २४ कथं’, ‘नंदनम्’, ‘रामलीला’, ‘राजमानिक्यम्’, ‘तीरा’, ‘ओपम्’, ‘टेक ऑफ़’ आदि बहुत सारी तरह-तरह की फ़िल्में बनी हैं। शैली के अनुसार भी मलयालम में इस दौरान प्रेम कहानी, एक्शन फ़िल्म, रहस्य-रोमांच सब तरह की फ़िल्में बन रही हैं। मलयालम में समय के साथ चलते हुए समलैंगिक संबंधों (‘संचारम्’, ‘ऋतु’, सूफ़ी प्रान्कथा’, ‘मुंबई पुलिस’) तथा ट्रान्स जेंडर (‘अर्धनारी’) पर भी फ़िल्म बनी हैं। वास्तबिक ट्रांस जेंडर अंजली अमीर एक फ़िल्म में काम कर रही है जिसमें मम्मूटी प्रमुख भूमिका में है। एक फ़िल्म ‘ मेरीकुट्टी’ में मलयालम फ़िल्म का प्रसिद्ध अभिनेता जयसूर्या ट्रांस जेंडर की भूमिका कर रहा है। यहाँ ‘शटर’, ‘डायमंड नेकलेस’, ‘ओम शांति ओशाना’, ‘बुक ऑफ़ जॉब’ तथा ‘चार्ली’ कुल उन पाँच फ़िल्मों की चर्चा हो रही है जिन्होंने इक्कीसवीं सदी में दर्शकों और आलोचकों का ध्यान खींचा है। आज के मलयालम फ़िल्म निर्देशक ऐसी अनोखी पटकथा ले कर आते हैं कि आप उनकी फ़िल्म के प्रेम में पड़े बिना नहीं रह सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं २०१२ में बनी फ़िल्म ‘शटर’ की।
शटर: तनाव की पराकाष्ठा जिंदगी में कब क्या कुछ हो जाए कहा नहीं जा सकता है। एक छोटी-सी भूल जिंदगी बरबाद कर सकती है या फ़िर एक अनुभव आदमी को पूरी तौर पर बदल कर रख दे सकता है। ऐसा होता हुआ देखना है तो मलयालम फ़िल्म ‘शटर’ (इंग्लिश सबटाइट्ल्स के साथ उपलब्ध) देखनी चाहिए। समाप्त होने के बाद भी यह फ़िल्म काफ़ी समय तक दिल-दिमाग में अटकी रहती है। नाटकों में चर्चित नाम जॉय मैथ्यू का फ़िल्म निर्देशन का यह पहला प्रयास है, मगर फ़िल्म की प्रौढ़ता फ़िल्म निर्देशक में दर्शकों तथा समीक्षकों की आस्था बढ़ा देती है।

शराब हानिकारक है मगर इसका चलन सब जगह है, सब तबके में है। शराब पी कर गाड़ी चलाना मना है मगर लोग शराब पी कर गाड़ी चलाते हैं। ‘शटर’ फ़िल्म में शराब बस एक बहाना है, कई चरित्रों को करीब लाने का। अनपढ़ रशीद खाड़ी से कुछ दिनों के लिए अपने घर काजीकोड लौटा है। जल्द ही अपनी बेटी निला (रिया सायरा) की सगाई कर के फ़िर से खाड़ी की तपती जमीन पर लौट जाएगा। बेटी लड़कों के संग मोटरसाइकिल पर जाती है, मोबाइल पर लड़कों से बात करती है अत: उसने बेटी की स्कूली शिक्षा बंद कर दी है।
कहानी में कहन का तरीका उसकी जान होता है, जॉय मैथ्यू कहानी कहना बखूबी जानते हैं। उन्हें सिनेमा की भाषा पता है। बड़े आत्मविश्वास के साथ दो-चार पात्रों की सहायता से ‘शटर’ की कहानी बुनी गई है। अलग-अलग जीवन के पात्र अचानक मिलते हैं और दो रातों तथा एक दिन के भीतर जाने-अनजाने में एक-दूसरे का जीवन सदा के लिए बदल डालते हैं। अभिनय में कौन उन्नीस है, कौन बीस बता पाना कठिन है। रसीद का अभिनय कर रहा लाल मलयालम सिनेमा का मंजा हुआ कलाकार है, फ़िल्म निर्देशक की भूमिका करने वाला श्रीनिवासन भी ख्यातिप्राप्त अभिनेता है मगर बाजी मार ले जाता है ऑटो ड्राइवर सूरा (विनय फ़ोर्ट)। सूरा के रूप में विनय फ़ोर्ट ने मासूमियत, शर्म, बेचैनी, लाचारी, घबराहट-परेशानी-चिंता, रियरव्यू मिरर में अपने ऑटो में बैठी औरत सवारी को निहारना सब भावनाओं-संवेदनाओं को पूरी तन्मयता से अभिव्यक्त किया है।

रसीद अपनी एक दुकान का शटर गिरा कर शाम को रसरंजन की महफ़िल सजाता है। सूरा का एक काम रशीद के लिए शाम की बोतल का इंतजाम करना है। इस दुर्भाग्य-सौभाग्यशाली दिन सूरा के ऑटो में एक फ़िल्म निर्देशक मनोहरन (श्रीनिवासन) बैठता है और गलती से अपनी फ़िल्म स्क्रिप्ट ऑटो में छोड़ कर उतर जाता है। शाम को जब सूरा रशीद के लिए बोतल ले कर आता है तब उसे इसका पता चलता है। रशीद सबको ट्रीट देना चाहता है लेकिन काम और फ़ोन आने के कारण सब चले जाते हैं। रशीद सूरा के ऑटो में बैठ शराब लाने चल देता है। बस स्टॉप पर उसकी निगाह एक स्त्री पर पड़ती है और उसके मन में शराब के अलावा एक और इच्छा जाग उठती है।

वह स्त्री और रशीद, रशीद के अड्ड़े पर आते हैं जहाँ उन्हें मौज-मस्ती के लिए छोड़ कर सूरा खाने का प्रबंध करने चला जाता है। जाते-जाते वह शटर में ताला लगा जाता है। फ़िल्म में यहाँ से तनाव शुरु होता है। स्त्री शुरु में सड़क छाप व्यवहार करती है। रशीद को भय है कहीं वह परिवार और पड़ौसियों के सामने नंगा न हो जाए। इस मुसीबत में उसे अपने दोस्तों की असलियत पता चलती है, सूरा के अलावा उसका कोई दोस्त नहीं है। अजनबी औरत की आँख रशीद के फ़ूले हुए पर्स और घड़ी-अँगूठी पर है। लाचारी-बदनामी के भय से पसीने से तरबतर  रशीद उसे अपना सब कुछ थमा देता है, हताशा-निराशा में रोता है।

यह औरत जब देखती है कि यह आदमी उसमें दिलचस्पी नहीं रखता है तो आराम से सो जाना चाहती है। धीरे-धीरे औरत का व्यवहार रशीद के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हो जाता है। वह अपना नाम तंकम (विशुद्ध सोना) बताती है। ज्यों-ज्यों रशीद की घबराहट बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उसके साथ की स्त्री सेटल होती जाती है। रशीद उसे स्पर्श नहीं करता है मगर वह शोर न करे इसके लिए क्रूरता की हद तक जाता है। दोनों दो रात और एक दिन शटर के भीतर की घुटन-अनिश्चय भरी जिंदगी जीते हुए कई जिंदगियाँ जी लेते हैं। तनाव क्या होता है, यह देखने और अनुभव करने के लिए फ़िल्म ‘शटर’ देखनी होगी। छोटे बजट की, थोड़े से पात्रों को ले कर बनाई गई फ़िल्म ‘शटर’ मानवीय संवेदना के चरम को प्रस्तुत करती है। एक के बाद एक अप्रत्याशित घटनाएँ होती जाती हैं। अपराध बोध से भरा, बेवफ़ाई के विचार से काँपता, पूरी तरह से हारा हुआ, बरबाद और लाचार रशीद तप कर खरा सोना बन निकलता है। वह अपनी बेटी को पहले से बेहतर जानता-समझता है, पिता-पुत्री में एक नया रिश्ता बनता है।
शटर के बाहर और भीतर की दुनिया को जाने-माने कैमरामैन हरि नायर ने बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ा है। सिनेमा की भाषा में देखें तो श्वेत-श्याम और विभिन्न रंगों का प्रयोग फ़िल्म की गुणवत्ता में इजाफ़ा करता है। कैमरा कई बार क्लोजअप से केवल आँखों पर केंद्रित हो कर भावों को दर्शकों के लिए सुलभ कराता है। फ़िल्म की शुरुआत में तीव्र गति से घूमता हुआ कैमरा शहर के दिन-रात को कवर करता है। बंद शटर के भीतर पल-पल परिवर्तित होती जिंदगी को बखूबी पकड़ता है। फ़िल्म में कुल तीन गीत हैं, पाब्लो नेरुदा के गीत ‘आज की रात मैं...’ का उपयोग बखूबी किया गया है। इस गीत को मलयालम में संगीत से सजा कर शाहबाज़ अमान ने गाया है। बिबी शाम तथा जैकब पणिकर ने फ़िल्म का पार्श्व संगीत तैयार किया है। साउंड डिजाइनिंग रंगनाथ रवि की है। यह सस्पेंस थ्रिलर निर्देशक के शब्दों में ‘पोयटिकल वायलेंस ऑन सेल्यूलाइड’ है। फ़िल्म चटपटे, हास्य, तीक्ष्ण, कटु, हृदयविदारक, तनाव, जीत का बड़ा सुंदर मिश्रण है। शटर के बाहर दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही है। जब-तब रशीद अपने घर-परिवार को रोशनदान से देखता है और परेशान होता जाता है।

सूरा और रशीद की कल्पना से फ़िल्म को एक अलग रंग मिलता है। कल्पना में वे बुरी-से-बुरी स्थिति सोचते हैं और उस स्थिति की संवेदनाओं से परिचालित होते हैं। फ़िल्म का अंत भी अप्रत्याशित है। फ़िल्म बनाने के लिए रकम कहाँ से और कैसे-कैसे आती है इस विषय को भी फ़िल्म स्पर्श करती है। मार्टिन स्कॉरसिसे फ़िल्म ‘ह्यूगो’ में भुला दिए गए फ़िल्म निर्देशक को खोज निकाल कर सिनेमा का उत्सव मनाते हैं, जॉय मैथ्यू ‘शटर’ में फ़िल्म बनाने वालों की दीवानगी दिखाते हैं। मनोहरन को हिचकिचाहट के बावजूद प्रड्यूसर मिल जाता है, वह निश्चिंत हो कर फ़िल्म बना सकता है। उसे अपनी खोई हुई स्क्रिप्ट मिल जाती है मगर अब वह उस स्क्रिप्ट पर फ़िल्म नहीं बनाना चाहता है क्योंकि अब उसे एक नई कहानी ‘शटर’ मिल गई है।

डायमंड नेकलेस : जिन्दगी में क्या चाहिए

इकबाल कुट्टीपुरमर लिखित, लाल जोस द्वारा निर्देशित २०१२ की मलयालम फ़िल्म ‘डायमंड नेकलेस’ कुछ ऐसा महत्वपूर्ण संदेश देती है जो काल के परे जाता है और यह फ़िल्म समयातीत बन जाती है। युवा डॉक्टर अरुण (फ़हद फ़ाज़िल) खाड़ी के देश में हाई-फ़ाई जिंदगी बिताता है, उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं है। अस्पताल में नई आई नर्स लक्ष्मी (गौतमी नायार) से वह प्रेम करने लगता है। नर्स जो अपनी माँ का सपना पूरा करने के लिए विदेश में रह रही है। अरुण के पर्स में तमाम क्रेडिट कार्ड हैं लेकिन उसके बैंक में पैसा नहीं है। जल्द ही कर्ज देने वाले उसकी कार उठा ले जाते हैं। उसका पासपोर्ट जब्त हो जाता है और वह अपनी बीमार माँ को देखने देश नहीं जा सकता है। अस्पताल में उसकी सीनियर डॉक्टर सावित्री अक्का (रोहिणी) उसकी समस्याओं को सुलझाती है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब माँ अरुण की शादी राजश्री (अनुश्री) से करवा देती है। राजश्री एक सीधी-सादी लड़की है जो अपने पति को बहुत प्यार करती है। अरुण के जीवन में तीन स्त्रियाँ आती हैं और तीनों उसे परिवर्तित कर जाती हैं। अरुण कैसे बदलता है यही इस फ़िल्म का निचोड़ है। अरुण के जीवन में तीसरी स्त्री माया (संवृता सुनिल) आती है। माया सावित्री अक्का की रिश्तेदार है और कैंसर से पीड़ित है। बीमारी के कारण माया का मंगेतर उसे छोड़ गया है। अरुण को मरती हुई माया का सात लाख का डायमंड नेकलस अपनी समस्याओं का हल नजर आता है। वह असली नेकलेस चुरा कर उसके स्थान पर नकली नेकलेस रख देता है। वही नेकलेस चंगी हो कर हिमालय जाती हुई माया उसे उसकी पत्नी के लिए उपहार स्वरूप दे जाती है।



अब माया भविष्य की चिंता से मुक्त जीवन की ओर बढ़ रही है। अपराधबोध से भरा अरुण असली नेकलेस का क्या करता है, नकली नेकलेस का क्या होता है, यह बता कर फ़िल्म का मजा किरकिरा करना मेरा उद्देश्य नहीं है। फ़िल्म के अंत में राजश्री का निश्छल प्रेम अरुण की आँखें खोल देता है। दुबई के बुर्ज खलीफ़ा में रहने वाला अरुण अपनी करनी से कामगरों के साथ रहने को मजबूर होता है। अरुण की आरामदायक जिंदगी के बरक्स वहाँ शारीरिक श्रम करने वाले, बड़े दिल वाले किस स्थिति में रहते हैं यह सच्चाई फ़िल्म दिखाती है।
फ़िल्म को देखा जाना चाहिए इसके अभिनय के लिए। चरित्रों का निर्वाह बड़ी सहजता और स्वाभाविकता के साथ हुआ है क्योंकि अभिनेताओं का चुनाव बहुत सावधानी के साथ किया गया है। जयश्री का भोलापन, उसकी जीवंतता, लक्ष्मी का शुरु में शरारत भरा और बाद में दर्द से रिसता व्यक्तित्व एवं माया का चमकता ऊष्मा भरा चेहरा फ़िल्म को एक ऊँचाई प्रदान करता है। कैमरामैन समीर ताहिर का कैमरा खाड़ी देश की चकाचौंध, चरित्रों के चेहरे के उतार-चढ़ाव, उनकी बेबसी को खूबसूरती के साथ पकड़ता है। एक सरल-सी कहानी को विशिष्ट तरीके से प्रस्तुत करना कोई लाल जोस से सीखे। ‘डायमंड नेकलेस’ के गीत रफ़ीक अहमद ने लिखे हैं। जिंदगी के उतार-चढ़ाव वाली इस फ़िल्म का खूबसूरत संगीत पक्ष इसमें इजाफ़ा करता है, इसके लिए विद्यासागर को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। गौतमी नायर और फ़हद फ़ाज़िल को भी इस फ़िल्म के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार प्राप्त हुए। इस फ़िल्म को ‘कमिंग ऑफ़ एज’ फ़िल्म भी कहा जा सकता है।

ओम शांति ओशाना : विशुद्ध प्रेम

होने को तो यह भी ‘कमिंग ऑफ़ एज’ मूवी है। लेकिन ‘डायमंड नेकलेस’ और ‘ओम शांति ओशाना’ का ट्रीटमेंट बिल्कुल भिन्न है। यह केवल टीनएज रोमांस भी नहीं है। किशोरी पूजा मैथ्यू (नज़रिया) को अपने से बड़ी उम्र के गिरि (निविन पौली) से प्रेम हो जाता है। इसमें कोई नई बात नहीं है। नई बात कहन की विधि है। मिथुन मैनुअल थॉमस के साथ मिल कर निर्देशक ज्यूड एंथॉनी ने स्क्रिप्ट तैयार की है। जॉय मैथ्यू की भाँति ज्यूड एंथॉनी की यह पहली फ़िल्म है। पूरी कहानी नायिका के नजरिए से कही गई है। यहाँ हल्का-फ़ुल्का मजाक है, गरिमा है और अश्लीलता का नामो-निशान नहीं है। कैसे होगी अश्लीलता जब नायक कुंग फ़ू टीचर और किसान है। नवीन बड़ी सहजता से चरित्र में प्रवेश कर जाता है। अक्सर हम देखते हैं कि लड़का लड़की के पीछे पड़ता है लेकिन इस फ़िल्म में लड़की लड़के के पीछे पड़ी है। इसी तरह व्याज ओवर के लिए अक्सर पुरुष स्वर का प्रयोग किया जाता है मगर यहाँ स्त्री स्वर का प्रयोग हुआ है।



डॉक्टर मैथ्यू (रेन्जी पणीकर) की बेटी पूजा बेफ़िक्र किशोरी है। फ़िल्म उसके जन्म से प्रारंभ होती है। पूजा की माँ कॉलेज लेक्चरर है और अपनी बेटी को सामान्य माओं की भाँति ये मत करो, वो मत करो कहती रहती है, जिसे पूजा नहीं सुनती है, कौन युवा सुनता है माता-पिता की हिदायत? पूजा अपने पिता के अधिक करीब है। मोटरसाइकिल चलाती पूजा गिरि का प्रेम पाने के लिए तमाम झूठे-सच्चे उपाय करती है। नीतू (अक्षया प्रेमनाथ) और डोना (ओशीन मेर्टिल) उसके दो और दोस्त हैं। वह वाइन बनाने में कुशल अपनी ऑन्टी रेचल (विनया  प्रसाद) के भी बहुत करीब है, पूजा उसकी वाइन टेस्टर है। एक बार गिरि के बाइसवें जन्म दिन पर (यह पॉम संडे भी है) पंद्रह साल की पूजा उसे एक लॉकेट दे कर प्रपोज करना चाहती है पर गिरि कहता है कि वह बच्ची है और अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे। गिरि बूर्जुआ लोगों का दुश्मन है और पूजा का परिवार बूर्जुआ है इसमें कोई शक नही है। साथ ही एक हिन्दू है, तो दूसरा क्रिश्चियन।
पूजा मेडिकल कॉलेज में पढ़ने चली जाती है। इस बीच वीरअप्पन मारा जा चुका है, सुनामी आ चुकी है लेकिन पूजा के पास गिरि नहीं आता है। कैसे आता है पूजा की जिंदगी में गिरि और इस बीच क्या-क्या होता है इसे तो स्वयं देखना होगा। इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए इसके अभिनय, संगीत, एडीटिंग और फ़ोटोग्राफ़ी के लिए। सर्वोत्तम एडीटिंग के लिए लीजो पॉल को केरला राज्य पुरस्कार मिला है। सर्वोत्तम नायिका का राज्य पुरस्कार नजरिया को मिला। कर्णप्रिय संगीत शान रहमान ने दिया है। इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए पूजा की मासूम कल्पनाओं के लिए। इसे देखा जाना चाहिए विनोद इलमपल्ली की फ़ोटोग्राफ़ी के लिए जिसने अपने कैमरे से केरल की ग्रामीण प्राकृतिक खूबसूरती को पकड़ा है। और इसे देखा जाना चाहिए एक सीधी-सादी रोमांटिक कॉमेडी के गैरपरम्परागत संचालन के लिए।


बुक ऑफ़ जॉब : मुन्नार की महागाथा


शुरु से जर, जमीन और जोरू के लिए भाई-भाई आपस में लड़ मरते हैं। भाई भाई के लिए जान दे सकता है तो भाई भाई की जान ले भी सकता है। लालच आदमी को भेड़िया बना देती है। यही प्रतिपाद्य है मलयालम फ़िल्म निर्देशक अमल नीरद की फ़िल्म ‘इयोबिंटे पुस्तकं’ (बुक ऑफ़ जॉब) का। इस फ़िल्म ने सिनेमा की परिभाषा बदल दी है। भाइयों के बीच की दुश्मनाई, हत्या, प्रेम, घृणा, कामुकता, अस्मिता बचाने और प्रतिकार के कथानक वाली यह फ़िल्म ब्रिटिश इंडिया के युग में प्रारंभ हो कर इमर्जेंसी तक चलती है तथा रूसी उपन्यास ‘ब्रदर कारमज़ोव’ की याद दिलाती है।

निर्देशक और सिनेमाटोग्राफ़र अमल नीरद का कैमरा केरल, पश्चिमी घाट के मुन्नार के पहाड़ों, लोगों, विशाल पीली रेत, नीले सागर और हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कैद करने में पूरी तरह सफ़ल रहा है। इस फ़िल्म की शूटिंग इडुकी जिले में हुई है। यह गाथात्मक फ़िल्म फ़हद फ़ाज़िल, लाल, जयसूर्या, ईशा श्रावणी, पद्मप्रिया, जीनू जोसेफ़ आदि के अभिनय और तापस नायक के पार्श्व संगीत डिजाइनिंग के लिए सराही जानी चाहिए। ग्रैंड स्केल पर बनने वाली हॉलीवुड या बॉलीवुड की किसी भी फ़िल्म के सामने यह बीस ठहरेगी। भव्य सेट्स के साथ आउटडोर शूटिंग मनमोहक है। अमल नीरद की तकनीकि क्षमता-कुशलता और कलाकारों का अभिनय इस फ़िल्म को एक ऊँचाई प्रदान करता है। अमल नीरद के साथ इसके प्रड्यूसर हैं, फ़हद फ़ाज़िल। गोपाल चिदंबरन तथा श्याम पुष्करन ने मिल कर इसकी कहानी लिखी है। खून-खराबे से भरी यह फ़िल्म हमें जीवन के विषय में गंभीरता से सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती है। फ़िल्म की पूरी कहानी कम्युनिस्ट लीडर वर्णित कर रहा है। इस लीडर की प्रौढ़ भूमिका टी जी रवि ने की है। जबकि युवा कम्युनिस्ट लीडर के रूप में श्रीजित रवि है।

सन १९०० में ब्रिटिश काल में एक ब्रिटिश व्यापारी हैरीसन चाय बागान चलाने के लिए मुन्नार आता है। ताचो का काम चाय बागान में कोड़ा बरसा कर बहुत सारे देसी लोहों से काम करवाना है। मजबूत कद-काठी और मजबूत इरादों वाले एक युवक को हैरीसन अपना गुलाम बना लेता है, ईसाई बना उसका नाम जॉब (हीब्रू में योब) रखता है, उसकी शादी अन्नमा से करवाता है। हैरीसन उपन्यास ‘द ब्रदर्स कारामाज़ोव’ की तर्ज पर जॉब के तीनों बेटों का नाम दिमित्री, इवान तथा अलोसी रखता है। दिमित्री और इवान अपने पिता की तरह बहुत क्रूर हैं, माँ अन्नमा द्वारा पालित होने के कारण अलोसी बहुत नरम दिल तथा विवेकपूर्ण है। हैरीसन पत्नी (रीता मेथन) के वापस अपने देश चली जाने के बाद खूबसूरत तोडा आदिवासी स्त्री काजली (गाँव वाले उसे काला जादू करने वाली मानते हैं) को अपनी रखैल बना लेता है।

जॉब की भूमिका में लाल का अभिनय दृष्टव्य है। कोचीन जाते समय वह एक गुलाम की मुद्रा में है, लेकिन हैरीसन के मरते ही वह मुन्नार से लौटता है तो उसकी चाल बदल चुकी है। आते ही वह काजली को घर से निकाल फ़ेंकता है। काजली जाते-जाते जॉब और उसके पूरे परिवार को शाप दे जाती है। काजली के रूप में लेना अभिलाष को देखना एक अलग अनुभव है। जिस तरह वह मुट्ठी में मिट्टी उठा कर शाप देती है दर्शक दहल जाता है। उन्मादी घोड़े को काबू कर सकने वाली काजली को निकाल फ़ेंक जॉब हैरीसन का घर और उसकी सारी सम्पत्ति हड़प लेता है। उसने हैरीसन की ड्रेस धारण कर ली है। काजली की बेटी मार्था (ईषा श्रावणी) और अलोसी बचपन से दोस्त बन जाते हैं। शांत, एकाकी अलोसी (बालक : सेबिन तथा नेबिस बेनसन, वयस्क : फ़हद फ़ासिल) का एक आदिवासी मित्र चैंबन (विनायकन) है। अलोसी द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेता है लेकिन कम्युनिस्टों के संपर्क में आ कर १९४६ में नौसेना विद्रोह में शामिल होता है और नौसेना से निकाल दिया जाता है।

आधी ब्रिटिश, आधी तोडा मार्था की शांत, सुंदर सूरत देख कर लगता है हम किसी इंग्लिश फ़िल्म को देख रहे हैं। वह अपनी माँ का शव बैलगाड़ी पर रख, बेलचा ले माँ को दफ़नाने अकेली निकल पड़ती है। कंधे तक झूलते उसके बाल, सीधी-सतर देहयष्टि, सौंदर्य की मूर्ति। फ़िल्म की खासियत है मार्था बिना बोले बहुत कुछ संप्रेषित करती है। अलोसी भी मूक रह कर आँखों से बहुत कुछ कहता है। फ़िल्म की शुरुआत में कैमरा पैन करता हुआ मुन्नार के सौंदर्य को पकड़ता है। भारतीय फ़िल्मों में एक्ट्रीम क्लोजअप का प्रयोग न के बराबर होता है। इस फ़िल्म में इसका खूब प्रयोग हुआ है। कैमरा अंगूर रावुतर (जयसूर्या) की भंगिमा को एक्ट्रीम क्लोजअप में कई बार पकड़ता है। फ़हद फ़ाज़िल और जयसूर्या की इंटेंस और कंट्रोल एक्टिंग फ़िल्म को एक नई ऊँचाई देती है। लाल तो लाल है, उसके अभिनय के विषय में क्या कहने। पहले उसे हम ‘शटर’ में देख आए हैं। अभिनय की बात करें तो थोड़ा झुक कर चलते, मालिक के सामने दुम हिलाते, हाथ बाँध कर खड़े लाज़ेर (सुरजित गोपीनाथ) को देखना होगा। मालिक बदलते हैं लेकिन लाज़ेर का एक ही सिद्धांत है जिधर शक्ति-सत्ता है उसे उसी के साथ खड़े होना है। इंस्पैक्टर बना अनिल मुरली कहीं से अभिनय करता नहीं लगता है। अभिनय के लिए पाउली वल्सन को देखना होगा। कुछ मिनटों के लिए चाय खरीदने वह परदे पर आती है मगर इन्हीं कुछ मिनटों में उसकी आवाज, उसकी मुद्रा इतने रंग दिखाती है कि दंग रह जाना पड़ता है। इतना सहज-स्वाभाविक उसका अभिनय है कि दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ती है। ठेठ गँवारूँ स्त्री का अभिनय उसने बड़ी कुशलता से किया है।

दिमित्री पत्नी राहेल (पद्मप्रिया) परिवार का सब हड़पना चाहती है। राहेल और सोने के पिजड़े में कैद पंछी का प्रतीक बहुत सोच-समझ कर प्रयोग किया गया है। होंठों में दबी मुस्कान लिए राहेल खिड़की में बैठ कर बाइनाकुलर से बाहर के दृश्य देखती रहती है। संगीत सुनती, रसदार स्ट्रॉबेरी चूसती, रंगीन पत्रिकाएँ उलटती-पलटती, अपनी सुंदरता को अपना हथियार बनाती राहेल जादूगरनी अंत में आत्यहत्या करती है। जॉब की उम्र बढ़ रही है, जल्द ही उसके हाथ से व्यापार की बागडोर निकल जाती है। जान बचाने के लिए छटपटाता हुआ जॉब और शिकंजे (ट्रैप) में सूअर का प्रतीक बहुत मानीखेज है। ‘बुक ऑफ़ जॉब’ फ़िल्म में जॉब, दिमित्री, इवान, अंगूर, राहेल सब धन पर कुंडली मार कर बैठना चाहते हैं। अंत में सारी संपत्ति का क्या होता है, यह देखना होगा।


सेट डिजाइनिंग में प्रमुख है, हैरिसन का विशाल घर। घर के सामने बनी बालकनी वह ऊँचा स्थान है जहाँ कुर्सी पर बैठ कर मालिक अपनी सत्ता स्थापित करता है। अंगेज के बाद सत्ता के इसी स्थान पर जॉब बैठता है, लेकिन दिमित्री और इवान यहाँ नहीं बैठ पाते हैं। उनके स्थान पर अंगूर इस कुर्सी पर बैठता है और राहेल उसे सर्व करती है। अलोसी कभी भी वहाँ बैठने की इच्छा नहीं रखता है। फ़िल्म का लोकेशन मुन्नार है समुद्र का विस्तार कैमरे की जद में है। मुन्नार प्राकृतिक रूप से अत्यंत खूबसूरत है। महाभारत की झलक लिए ‘द बुक ऑफ़ जॉब’ फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफ़ी सारे समय दर्शक को धरती, आकाश, पहाड़, आसमान, जंगल के सौंदर्य से परिचित कराती चलती है। नीला आकाश, नीला समुद्र, मुन्नार की नारंगी-पीली धरती, जंगल की हरियाली, मार्था की सफ़ेद ड्रेस, राहेल की रंगीन साड़ियाँ, सफ़ेद घोड़ा और भयंकर काली रातें, सब निगलने वाला अंधकार। कितने रंग और उनकी छटा है इस फ़िल्म में। एक्शन दृश्य भी बहुत कुशलता के साथ खुद अमल नीरद ने अपने कैमरे से पकड़े हैं। और फ़िल्म की थीम से कदम-ताल करता बैकग्राउंड म्युजिक तो है ही। अलोसी और मार्था पर फ़िल्माया गया गीत-संगीत इस क्रूर फ़िल्म में कोमलता की सृष्टि करता है। सफ़ेद घोड़ा, समुद्र का नीला विस्तार, विशाल बालुका राशि, पियानो, बाथटब, पाल वाली नाव, खूबसूरत छतरी, सब किसी इंग्लिश फ़िल्म की याद दिलाते हैं। विनायक शशिकुमार का गीत-संगीत कर्णप्रिय है। साउंड डिजाइनिंग तापस नायक की है। अलोसी, अंगूर, चेंबन, मार्था तथा बुक ऑफ़ जॉब का थीम म्युजिक नेहा एस नायर ने बनाया जबकि राहेल का थीम म्युजिक उषा उत्थुप का है। ड्रेस डिजाइनिंग का पक्ष कुशलता से समीरा सनीश ने संभाला है।
गोपाल चिदंबरम तथा श्याम पुष्करन की स्क्रिप्ट तथा साबू मोहन के आर्ट डायरेक्शन में बनी यह पूरी फ़िल्म एपिक स्केल पर चित्रित है। नि:संदेह इसे ‘बेनहर’, ‘स्पार्टकस’, ‘मुगल ए आजम’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। विंटेज कार, विशाल सजा-धजा घर, कमरों की सजावट, झोपड़ी सब इसे ऐतिहासिक यथार्थ के निकट ले जाते हैं। २ घंटे ३० मिनट की ऐतिहासिक, तकनीकि दृष्टि से सर्वोत्तम इस फ़िल्म को घर में बैठ कर भी बड़े परदे पर ही देखा जाना चाहिए, तभी इसका पूरा प्रभाव पड़ता है और इसका पूरा आनंद आता है।
मस्तमौला चार्ली अब हम अपनी अंतिम मगर इक्कीसवीं सदी की सबसे खूबसूरत मलयालम फ़िल्म ‘चार्ली’ पर आते हैं। इस जादूई फ़िल्म की शैली भी जादूई है। इसका नायक भी जादूई है। चार्ली कहते जिस त्रासद हास्य का बोध होता है उससे यह कोसो दूर है। यह जीवन का उल्लास मनाती फ़िल्म है। फ़िल्म देखते हुए आप ट्रान्स में चले जाते हैं। इस फ़िल्म में नायक के रूप में दुल्खर सुल्तान को देखना आँखों के लिए एक खास ट्रीट है। दुल्खर ने न केवल इस फ़िल्म में अभिनय किया है वरन इसका ट्रेक गीत, ‘सुंदरी पेने, सुंदरी पेने’ भी गाया है। टेसा (पार्वती) के आते ही परदे पर उजास छा जाती है। इसे देखा जाना चाहिए दुल्खर और पार्वती की अदाकारी के लिए। ऐसे लचीले और इतनी रेंज वाले कलाकार कभी-कभी ही नजर आते हैं। रॉयल एनफ़ील्ड पर सवार केनी के रूप में अपर्णा गोपीनाथ बहुत थोड़ी देर के लिए फ़िल्म में आती है मगर उसका अभिनय स्मरणीय बन जाता है। कुंजप्पन (नेदुमुड़ी वेणु) दर्शक के दिल्म में स्थान बना लेता है। हम सबके मन में एक यायावर बैठा है, हम सब बेफ़िक्र हो कर जीने की आकांक्षा रखते हैं, जिसे यह फ़िल्म साकार करती है। चाक्षुष उत्सव मनाती इस फ़िल्म का संगीत जितना मोहित करता है इसकी फ़ोटोग्राफ़ी भी उतनी ही लुभावनी है। शक नहीं कि इसे केरल राज्य के ४६ वें समारोह में फ़िल्म के सर्वोत्तम नायक (दुल्खर सल्मान), सर्वोत्तम नायिका (पार्वती), सर्वोत्तम निर्देशन (मार्टिन प्रकाट) और सर्वोत्तम फ़ोटोग्राफ़ी (जोमोन टी जॉन) सहित कुल आठ पुरस्कार मिले।
घर वालों की तय की शादी से बचने के लिए ग्राफ़िक आर्टिस्ट टेसा घर छोड़ कर जिस घर में रहने आती है वहाँ पहले कोई और रह रहा था। कमरा बहुत बेतरतीबी से भरा हुआ था। सफ़ाई के दौरान उसे वहाँ रहने वाले यायावर की झलक मिलती है और इसके बाद की पूरी कहानी उस यायावार की खोज है। उसे इस व्यक्ति की आर्टबुक मिलती है जिसमें उसने अधूरी कहानी कही है। कहानी के बाकी हिस्से को पूरा करने का बीड़ा टेसा उठाती है। यह व्यक्ति बेफ़िक्र जीवन बिताता है मगर दूसरों की फ़िक्र करता है। टेसा इस खोज में जितने लोगों से मिलती है सब उसे इस व्यक्ति के एक नए अनोखे रूप से परिचित कराते हैं। दर्शाक इस व्यक्ति को ज्यादा-से-ज्यादा जानना चाहता है। फ़िल्म उसकी झलक दिखाती चलती है। रंगीन छींटदार शर्ट और थोड़ी-सी बेतरतीब दाढ़ी वाले इस प्यारे चमत्कारिक इंसान को प्यार किए बिना आप नहीं रह सकते हैं। वह लोगों की जिंदगी में अचानक अवतरित हो कर उनकी समस्या सुलझाता है और फ़िर गायब हो जाता है।
जोमोन टी जॉन की फ़ोटोग्राफ़ी छोटी-से-छोटी बात अपने कैमरे से पकड़ती है। गोपी सुंदर का कर्णप्रिय संगीत के साथ ‘बुक ऑफ़ जॉब’ फ़ेम की समीरा सनीश का कोस्ट्यूम डिजाइन फ़िल्म के मूड और सौंदर्य दोनों में इजाफ़ा करता है। चरित्रानुकूल ड्रेस फ़िल्म में जान डाल देती है। यायावरी के अनुकूल दुल्खर की ड्रेस और उसकी एक्ससरीज केरल के युवाओं की क्रेज बन गई। बैकपैक लिए यायावर चमकीली टेसा की ड्रेस भी बहुत आकर्षक है। जयश्री लक्ष्मी नारायणन की सृजनात्मक प्रतिभा सेट डिजाइन में नजर आती है।
इक्कीसवीं सदी की मलयालम फ़िल्मों ने वैश्विक पहचान बनाई है और ये दर्शकों तथा समीक्षकों दोनों को लुभा रही हैं। आज मलयालम सिनेमा अपने उत्कर्ष दौर में है।
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विजय शर्मा का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

कादम्बरी: जीवन का सच
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