20 दिसंबर, 2018

समीक्षा:

सियाहत ...

रश्मि मालवीय


यानी की यात्रा,यानी कि कई परतें जीवन की, यानी की देखना या ना देख पाने की कसक ...
इस दुनिया को जो बनाई गई है हमारे लिए की लो जाओ समझो कौन सी चीज़ कहाँ है और क्यों है।यह भी की सिर्फ तुम्हारा होना ही प्रकृति नहीं और ना चमत्कार, बहुत कुछ है जो देखा जाए तो तुम बेहतर इंसान तो बन ही सकते हो और चाहो तो दुनिया को भी बेहतर बना सकते हो।

वैसे किताबें खुद ही एक सियाहत हैं 

सियाहत एक किताब नहीं है 
एक तिलिस्म है और अंदर क्या क्या है इसका राज तो वही जानेगा जिसने इसके अंदर एक सियाहत की हो।






देश के एक हिस्से में किस दीवार पर कौन सा रंग है ,शहर के किस हिस्से में काई का हरापन है या किस के हिस्से पत्थर का शहर लिखा होना बदा है लेखक ने बखूबी जाना है और बताया है।
जंगल में किस पेड़ के नीचे शांति मिलेगी या समूचा जंगल ही शांति का मंडप है आप जान भी पाएंगे और अगली बार जंगल मे जाने पर पहचान भी पाएंगे।
यह अलग बात है की जंगल सबकी किस्मत में नही लिखे होते।
 इस किताब को पढ़ने पर ना जाने  कितने प्रश्नों के उत्तर मिल गए ,जैसे कि चंदन के पेड़ों पर सांप नहीं लिपटे होते।

रहीम जी ने ना जाने क्यों लिखा था चंदन विष व्याप्त नहीं ....
शायद इसलिए कि हम संगति का असर जान सके ।हाँलाकि साँप तो एक बार डंक ना भी मारे मनुष्य डंक मारने भूल जाये यह असंभव है।

लेखक एक बच्चे की मासूमियत से ही जाते हैं देखने और पढ़ने वाला भी  सोचता है की बाप रे ..पैरों पर ना लिपट ना जाए कहीं लेकिन जिस तरह वहाँ के स्थानीय निवासी हंसते हैं इस बात पर फिर पाठक भी मुस्कुरा कर अपने पैर कुर्सी के नीचे रख लेंगे की सिद्ध हुआ चंदन पर सांप होना कतई जरूरी नही।

जगह जगह यात्रा बिहारी ,रहीम,के दोहे पर भी होती है और निदा फ़ाज़ली के शेर भी ससम्मान अपनी बर्थ पर बैठे मिलेंगे।
लेखक की नज़र कहाँ कहाँ नही जाती देख कर आश्चर्य होता है बस की गति से लेकर मन्दिर के किनारे की गंदगी और मेहमानों के सामने उससे उपजी ग्लानि तक पाठक तक पहुँचती है।शर्मसार होने के अलावा कोई चारा नही दोनों ही के पास।

कभी आप पहाड़ की चोटी पर खड़ा पाते हैं खुद को और सोचने पर बाध्य होते हैं , की हे भगवान ....कहीं पैर फिसला तो ना हड्डी बचेगी  ना किताब।

बहरहाल...
अगले ही पल घने जंगल मे पाते हैं खुद को ,और गाँव का नाम भी तेरा है और जाते जाते लगता है कि अब तेरा क्या क्या होगा !!
जंगल भी वह जहाँ जोंक भी है अब जोंक है तो खून भी पियेगी।यह अलग बात है की आसपास के कई लोग जोंक की तरह खून भी पीते हैं और अहसान भी जताते हैं । 

किताब को पढ़कर यह मेरा मत पुख़्ता हुआ कि अगर भारत से मंदिरों को निकाल दें तो शायद ही कुछ बचे।
कभी किनारे किनारे चलते हुए पहुँच जाते है किसी खाई वाली जगह पर तो कभी किसी अभ्यारण्य में साइकिल से ।
यही यात्राएँ है। असली यात्राएँ। जहाँ से जीवन शुरू तो होता है पर अंत नही होता ।एक के बाद एक घटनाएं होती हैं और इन्हें ही हम जीवन समझ लेते हैं।
इस किताब में दक्षिण के अनेक भागों का विस्तार लेखक की आंखों से देख पाते हैं चर्च है ,यहूदियों का विलुप्तकरन है ,गुफाएं हैं अपनी ही गन्ध से सरोबार, सड़कें है घुमावदार, पेड़ हैं उनके हरे गहरे पत्ते हैं ,कुछ फल हैं आँवले हैं और उन्हें तोड़ते समय कुछ पेड़ पर ही छोड़े जाने की सार्थक वजह है ,अंधेरे हैं ,उजालों की रेखाएं हैं ,पहाड़ हैं उनकी चोटियों समेत ,उन पहाड़ों के बीच खाई हैऔर हर बार की तरह खाई की खूबसूरती है और उसका अपना दुख की वह दो पहाड़ों को जोड़ती तो है पर उनसे बहुत नीचे है। 

शायद एक यही जगह है जहाँ निम्न होना खूबसूरत होता हो। जब ज्यादा ऊंचाई पर होते हैं तब नीचे देखना ही सुखद लगता है पहाड़ की चोटी से आसमां भले ही पास दिखे देखना नीचे खाई को ही सुहाता है।

एक जगह अंधेरो का बहुत जोरदार जिक्र है जब एक लड़की बड़ी ही बेअदबी से बर्थ पर अपना bearth right समझ कब्ज़ा भी करती है और बिहारी को बिहारी होने का ताना भी देती है हम सब कब भारतीय होंगे राज्यों की सीमा से बाहर निकलेंगे।पता नही!!
रोटी के लिए तो निकल गए लेकिन पानी अब तक जहन  से नही निकला।

खैर ....
रेल की यात्रा बड़ी रोचक लगती है खासकर रात में जब खिड़की से सर टिकाकर देखें और कुछ दिखाई ना दे ,अंधेरा घुप्प अंधेरा ,दिखता नहीं कुछ पर होता तो है उस अंधेरे के पार।
अगर दिखना ही आँखो की सार्थकता है तब तो अंधेरे की कोई सार्थकता नहीं।

यह घुमक्कड़ी पर दर्ज दस्तावेज़ हैं सालों बाद भी जब भी कोई यायावर निकलेगा इस किताब के जरिये जरूर जानना चाहेगा की कैसे तितलियां ज़िम्मेदार है फूलों को फैलाव में।


रश्मि मालवीय


कोई जान सकेगा सालों बाद भी की किस रास्ते पर झरना मिलेगा जिसमे बिस्कुट डूबा कर खा सकते है और यह की भारत की सतह क्यों कई सदियों से आकर्षित करती रही है आक्रांताओं को।
तो क्यों ना हम ही ढूढं लें उन कस्तूरी मृगों को जिनकी ख़ुशबू से हज़ारों लोग आए ।
बस हम रह गए अपनी ही धरती को नापने से ।
जो जा सकते हैं जरूर जाएं बाकी के लिये यह किताब है ही।
००


रश्मि मालवीय
415/A, तुलसीनगर, 
इंदौर
452003

समाज शास्त्र में परास्नातक
लाइब्रेरी साइंस में स्नातक
शिक्षा में स्नातक
पिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत
हिंदी  साहित्य से लगाव
पत्रिकाओं एवं  वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित।
०००

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