27 दिसंबर, 2018

हेमलता यादव की कविताएं





हेमलता यादव 



जाल
वह खरगोश सी
चपल मुलायम रेशमी
चतुरता का लिबास ओढ़े
निरी मासूम
मैं शिकारी सा
भरोसे के बाण छोड़ता
बातचीत की कमान से
उसकी उजली सी हँसी
मेरे होठों पर फैलती गई
और मेंनें पी ली
उसकी देह की रोशनी
जो फूटी थी
उसकी हँसी के साथ
मेरे लिए अवसर
लंबे इंतजार के बाद
उसके लिए हादसा
कि जाल उसने
देखा ना था





विलुप्त नदी

जब कोई नदी
अपना सर्वस्व समेट
मिल जाती है सागर में
सागर डर जाता है
गरजने से पहले
उमड़ता है दर्द में
सागर का हर
स्पंदन हो जाता है मूक
और हताश भी
कहीं अपनी संगनी के
साथ उसका मिलन
आखरी न हो, क्यूंकि
सागर इंतजार करता रहा
और सो गई कई नदियां
सदा के लिए




अंकुर

मत गाओ
प्रार्थना गीत वातुकि
कोई नहीं लौटा
विद्वेष के इस संकरे गलियारे
के पार जाकर
थोड़ी राख बुझे चुल्हे
की लपेट दो मेरे शरीर पर
कि घृणा के तंग गलियारे
की दमघोटु नमी से
बच सकूं शायद
लेकिन नफ़रत घोटता
आँखियाना दलदल
भीतर ही भीतर समेट लेता है
पैर, हाथ, आंते और आँखें         
मानवीय सहृदयता से
लबालब जल के सोये
तालाब तक पहुचने से पहले
फिर भी तुम्हारा यलावत्
कोशिश करेगा सोये जल को
अंजुरी में भर लोटने की
शायद मानवीय भावनाओं के
कुछ अंकुर फूट पड़े
अंजुरी भर जल से
कबीले की मृत्यु लिप्त
पथरीली अनुभुतियों पर                                                       


नरेश कश्यप 



अट्ठाहस

वातुकि मग्न थी
मधुमास की बेला में
कि यलावत
अचानक उठ खड़ा हुआ
जादुई मंत्र में वशित
चक्करदार घुमने लगा
वातुकि कुछ समझ न सकी
यलावत को थामने
आगे बढ़ी कि....

ठोक दी
उसने एक कील
मजबूती से वातुकि की छाती में
वह दर्द से चिंघाड़ उठी
यलावत को झटक
अपना लहु समटेने लगी
यलावत अब होश में आया
वातुकि को बाहों
में थाम चीखने लगा
पर जा चुकी थी
वो उससे दूर

जादुई कबिला दूर
अट्ठाहस कर रहा था,
हो गया था जादुई कबीले का
एक और प्रयोग
सफल






साँझ का डर

सम्भल कर जाना यलावत्
दुर्घटनाएं प्रत्येक चार कदम पर
रास्ता देखतीं है
जाने कब आकर चिपट जाएं

डर में जीने से ज्यादा बुरा
कुछ नहीं वातुकी
कभी एक डर तो कभी दूसरा

 मैं जरा
बच्चों को देख आता हुं.........
देखो कबीला भी कितना डरावना
लगने लगता है अचानक
जब सांझ तलक
बच्चे घर नहीं लौटते

नरेश कश्यप 




 घृणा

घृणा चुपचाप 
चली आई
जीवन के दूसरे ही पहर
खुले दरवाजों से
रेंगकर पहुँच गई
वातुकि और यलावत
के जिस्मों तलें



शांत घृणा

जैसे किसी ने चुपचाप
तेजाब से
सींच दिया हो पौधा कोई
चीख भी न पाए दोनों
इस भय से कि कहीं
कबीले में न फैल जाए
मुँह से फुटकर घृणा के रक्तबीज
यलावत रात अंधेरे
कबीले से दूर पेड़ पर चढ़ हूँकने लगा
वातुकि कुलदेवता की सिल पर सर
पटकने लगी
निरन्तर निरन्तर
आज तक अनवरत
सुनाई दे जाता है कभी जब
मुझे भी ये विलाप
भर जाती हुँ में भी
घृणा के प्रति घृणा से
आह! कैसे मिटाउ
आधुनिक सभ्य कबीलों से घृणा





चतुर एकलव्य


निषादपुत्र
एकलव्य का
दाहिना अंगूठा आज
तक नहीं उग
पाया गुरु द्रोण
जो उच्चवर्ण के
एकाधिकार संरक्षण हेतु
मांगा था आपने जब
सह न पाए थे
प्रखर एकलव्य का
समानता प्राप्त करता कौशल
सदियों उपरांत आज भी
जंगल के किसी कोने में पड़ा
एकलव्य का
अंगूठा फड़फड़ा
रहा है छिपकली
की पूछ की तरह
दुबारा उगने के लिए






गुरू द्रोण

क्या अब पुनः आओगे
एकलव्य से गुरू दक्षिणा लेने
आज भी उसके हाथों में
बाणों की जगह कलम
की शक्ति
भूस देगी प्रत्येक
भूकनें वाले
कुत्ते का मुंह
अब क्या मांगोगें
अनामिका, माध्यिका
या तर्जनी
इस बार इतने
विश्वास के साथ
मत आना गुरू द्रोण
सदियों के उत्पीड़न ने
एकलव्य को
चतुर बना दिया है
अंगूठा तो उगा
नहीं लेकिन
आपकी पक्षपाती
दृष्टि देखकर
उंगुलियां काटने से पहले
एकलव्य सोचेगा जरूर




नरेश कश्यप 

धर्म

गढ़ के धर्म मानव ने
स्थिर किये विश्वास
विश्वासों से जगी उम्मीद
उम्मीदों ने संवारा जीवन
धर्म फैलता गया
मानव सिमटता गया
आज
धर्म से गढ़ा जाता है मानव
और विश्वास की बिसात पर
सम्प्रदाय के घ्रणित खेल से
आंतक में गुजरता है जीवन

 00

6 टिप्‍पणियां: