06 जनवरी, 2019

 कंचन जयसवाल की कविताएं









सही जगह

चीजें अपनी सही जगह पर नहीं थीं;
यह थोडी देर बाद पता चला।
उन्हें अपनी सही जगह पर रखने के लिए
चीजों को थोड़ा इधर या उधर करना पड़ता।
रख देने के बाद भी उनके बीच
कुछ खाली जगहें फिर भी रह जातीं।
कोई भी जगह खाली नहीं होती।
वहाँ कुछ न कुछ जरूर धरा होता है।
चीजें अपनी जगह से हटने के बाद भी
अपने होने का निशान छोड़ जाती हैं।
इस तरह यह भी पता चला कि
चीजों को उनकी सही जगह देने के बजाय
खुद ही
चीजों के थोडा इधर या उधर हो जाया जाए।
और यूं भी
समय के साथ सभी चीजें थोड़ी
इधर या उधर खिसक जाती हैं।





मेरी अनुपस्थिति के बीच में

(1)
उसकी नींद में मैं कहीं नहीं;
मेरे स्वप्न में है बेचैन समुद्र
उफनता हुआ,
अंधेरा,
आसमान से गिरती हुई नौकाएं
और उन्हें बचाने में लगे हुए कुशल कप्तान।

(2)
दुनिया की सभी नौकाएँ
समुन्दर की छाती को चीरती हुई
विजय पताकाएं फहराने को आतुर;

(3)
 स्वप्न से जागती है स्त्री।
रात के तीन बजे हैं।
बगल में सोया आदमी
बुदबुदाता है कुछ
अस्पष्ट सी भाषा में,
अपनी यात्राओं के दर्द,
और वह पुकारता है इक नाम.....

(4) 
स्त्री के भीतर प्रेम जागता है।
वह उसका माथा सहलाते हुए
उसकी थकान अपनी पोरों मे
भर लेती है।
रात धीरे धीरे अंगडाई लेती है।






 समय  में गैरजरुरी

बहुत सी चीजें गैरजरुरी हैं
चीजों को गौर से देखना छोड देने  की प्रक्रिया में
बहुत सी जरुरी चीजें नजरअंदाज हो जाती हैं.
गैरजरुरी चीजें भी.
प्रेम और आग में कोई फरक नहीं है.
जब  प्रेम हमें नजरअंदाज करता है
हमारा देखना गैरजरुरी हो जाता है.
समय का हरापन,बसंत,लोगों  की आवाजाही,
गोल चौराहे,साँय-साँय करती तेज रफतार गाडियाँ
सब चित्रवत हो जाते हैं.
लौटते वक्त बार-बार पीछे मुड कर देखने की आदत
बरबस रोके
हम समय को छूट जाने देते है.
 समय में
आना,आने से ज्यादा तुम्हारा ठहराव जरुरी है.
तुम्हारे भीतर कितनी जरुरी हूँ मैं.
इस गैरजरुरी समय में.
और प्रेम में.
और प्रेम के भीतर बची हुई आग में





 विवशता

किसने तय कर दिए दायरे,
बना दिए मानक,
घेर दिया एक गोल घेरा.
लुढकती रहती हैं जिनमें अतृप्त इच्छाएं
इधर-उधर.
क्या वजह रही होगी,
मिट तो सकती थीं लक्ष्मण-रेखा.

विवशता इतनी प्रबल नहीं होती
कि हाथ पर हाथ धरे बैठा जाए
और चुप्पी साध ली जाए.
सारी संभावनाओं के खिलाफ.
गर्दन तक खींच कर  रेशमी लिहाफ
भुला दिया जाए आजादी की गंध को
और
एडियाँ घिसटते बिता दी जाए
सोने के पिंजरे में कैद हो कर
एक मुक्कमल जिंदगी.






भेडिए घूम रहे हैं

भेडिए घूम रहे हैं
गोश्त की तलाश में,
यहाँ-वहाँ चारों तरफ.
निगाहें  बहुत पैनी हैं इनकी
ओढ रखी है सामाजिकता की चादर
पहचानना भी है मुश्किल .
जहाँ दिखती है थोडी सी
झिर्री ,सुराख ,कोई खुली खिडकी
ताजी हवा के खातिर
घुस जाना चाहते हैं भेडिए वहीं से ,
तोड कर  बेशर्मी की हदें,
और बतलाते हैं  ये

सफेदपोश खुद को
आधुनिकता के नुमाइन्दे
दकियानूसी करार देते हैं
ये प्रेमबन्धन ,नैतिकता ,विश्वास को.

नंगी सभ्यता के ये नंगे पैरोकार
लिपटे रहते हैं देर तक छलावे के लिबास में.







खाली होना

मैंने कभी भी हल नहीं किया सुडोकू
सुडोकू देखते ही मेरे हाथ पांव
ठंडे पड़ जाते हैं।
सुडोकू
कोई यह शब्द बोल भर दे
मेरे कानों के पास
जैसे जोर से धमाका हुआ हो।
और थरथराती है जैसे धरती
मेरी देह में मेरा ह्रदय कंपकंपाने लगता है।
अजीब है चौकोर खाने का यह खेल।
जिसमें बैठे हुए हैं कुछ अंक
अपनी अपनी जगह घेरे।
एक, नौ,तीन
सात,आठ,पांच
चार, दो, छह
और सारे अंक गायब कर दो
तो खाली हो जाते हैं चौकोर घेरे।
और उनकी खाली जगहें घूरने लगती हैं।
दो अंक मानो
खाली बैठे घूर रहे हो अंधेरे को।
उनके जीवन की सांझ मे
थरथरा रहा है अकेलापन।
और सारे अंक कहीं दूर
अनंत आकाश में अपनी जगह घेरे बैठे हों।
 जीवन सुडोकू सा खाली पड़ा हो।
०००

कंचन जयसवाल

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