03 जनवरी, 2019

 तुषार धवल की कविताएं




तुषार धवल 




इस यात्रा में

इस दूर तक पसरे बीहड़ में
रह-रह कर मेरी नदी उग आती है
तुमने नहीं देखा होगा

नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है

अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं

मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है

जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर

लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध





एक पहाड़ अकेला  

जिसकी गरदन के पीछे से झाँकता सूरज ढल चुका है
धरती की फटी हथेली से उगा वह कुंद फोड़ा
अब नीला पड़ गया है विष पी कर
कितने अवसाद कितनी सदियों के प्रश्न जी कर
वह खड़ा है अकेला जब सब जा चुके हैं
लौट चुका है प्रश्नाकुल दिन का उजाड़ संन्यासिन रातों की कोख में
ओस की दीमक धीरे धीरे घोल रही है उसकी चट्टानी हड्डियों को
खोपड़ी की कोटर में दो आँखें सपनीली सी मगर
डूबी हुई हैं स्वप्न में          सितारों के पार          एक समझौता दुखों से है

समझौता यह दुख का दुखों से
जीवन की जीवन में आहुति मृत्यु के सनातन यज्ञ में
जीवन तिलक लगाता है मृत्यु के ललाट पर
शुभ लिखता है उसके माथे पर

शोध अथक अस्तित्व का जीवन की मिट रही लकीरों पर
उसे थामे रहता है

ज्ञान अकेला कर चुका है उसे अलग अपनी व्याप्ति में
और विष पी कर वह नीला धूसर शांत है

उसकी तहों में उठ रही लहर अभी अधूरी है
ज्ञान भी ज्ञान नहीं है अभी
अनुभूतियाँ बदलेंगी उसका रूप

सब जा चुके हैं
वह खड़ा है अकेला
धरती की हथेली से उगा कुंद फोड़ा

यह किस दुख का पहाड़ है ?
यह किस पहाड़ का दुख है ?

उसकी पीठ पर लदा है संसार एक
उल्टे पड़े बासी बरतनों के निरर्थक औचित्य सा
वही उम्मीदें हैं वही निराशा कुण्ठा भी वही है
जब चाँद यह आकाश की स्लेट पर उजाला लिख रहा है
वह खोजता है राग जीवन से
उसमें अस्थियाँ हैं विसर्जित पूर्वजों की

उसमें बसती हैं कल्पनायें निर्वात अशरीरी
वह बारिश की अँगुलियों से गीत लिखता है हवा में
कराहता है दुःस्वप्नों की नींद में

राग विराग के बीच दुक्खों का सफर
तापता तराशता है उसे
संघर्षों के संस्मरण में
ज्ञान और सत्य आपस में घुल जाते हैं

गहराती बेला में
गूढ़ हो जाता है
धरती की फटी तलहथी से उगा यह कुंद फोड़ा.








कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है 

नाहक ही होती है कविता
नाहक ही छपती है
नाहक के इस उर्वर प्रदेश में जो बस गया
अकेला रह जाता है

मत बसो इस खतरनाक मौसम वाली जगह में
पर्यटक की तरह आओ और निकल जाओ
शिखर की तरफ
कविता के साधन पर सवार

मत लिखो
मत पढ़ो कवितायें
वह बड़ा कवि झूठा है
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है






गेब्रियेला,  तुम्हें भी लगा था ऐसा? 


तुम्हें देखे से नहीं
छुए से
हुआ था इश्क
है न गेब्रियेला !

एक छुअन थी
आँखों से भरी
एक साँस थी कोसी की सगी
एक तुम
एक मैं
और दहकता माँस था
हमारे बीच

एक एक छुअन सिहरती थी
अनादि कम्प में
तुम सदा से थी
मैं सदा से था
अजनबी एक प्रेम आ-जा रहा था
और द्रुत ताल पर धड़कनें
आवारा थीं अनगढ़ी हुई जंगल-जनी 

याद है गेब्रियेला
ब्यूनस आयर्स खुले आकाश तले
सिर्फ और सिर्फ संभोग था
मैं नाथों से नथा हुआ
तुम खुली हुई जैसे कि आकाश
जो अपने अन्धेरे से दहकता हो
मैंने कहा प्लेटॉनिक
तुमने कहा देह
मैंने कहा योग और तुमने
भोग
हम धड़कता माँस थे उस रात
और दहकता जंगल थी वह रात
जहाँ कोई तारा टूटा नहीं था
शिराओं में बहता एक प्रपात था
जो मुझसे तुममें उतरता रहा
जब बरस चुका था आकाश का शहद
तुमने चाट लिया था
अपनी भोगाकुल जीभ से जीवन का सब रस
एक करवट जितने क्षण में
मैंने पाया कि
तुम्हारे संग
बेकल बावरा बेबंध
कितना रिक्त
कितना मुक्त था मैं

तुम्हें भी लगा था गेब्रियेला?



 मौन का नेपथ्य

बाजार हुआ कवि
पूँजी के खिलाफ लिखता है
पूँजी चुरा लेती है उसकी कविता
और वह पूँजी के हथकंडे हड़प लेता है
फिर दोनों अमरता की तरफ
साझा कदम बढ़ाते हैं
और उनके चेहरे
अपना विज्ञापन हो जाते हैं

एक स्तम्भित मौन
इन्हें देखता रहता है किसी दूरी से
इन वाचालताओं के बाद भी
कई पन्ने कोरे रह जायेंगे

जो लिखेगा अपने वाजूद का गाढ़ा लहू
अपने असंग में
वह उस मौन का नेपथ्य रचेगा

अभी समय है
अपनी पीठ तय कर लो
जब शोर थकेगा
मौन ही बचेगा
जिसमें देह गिरा कर घुला होगा
उस गाढ़े लहू का निराकार







वह मसीहा बन गया है

हत्या के दाग
अब उस तरह काबिज़ नहीं हैं उसके चेहरे पर
उनके सायों को अपनी दमक में
वह धुँधला चुका है
उसकी चमक में
पगी हुई हैं भक्तित उन्वानों की
आकुल कतारें
उसकी दमक में चले आ रहे सम्मोहित लोगों की
भीड़ से उठते
वशीभूत नारे
आकण्ठ उन्मत्त
स्तुतियों की दीर्घ जीवी सन्तानों का मलय गान
उसकी धरती पर बरस रहा है
काली बरसात के मेढ़कों के मदनोत्सव पर

किसी नव यौवना की अंगभूत कसक
उसका वसन्त रचती हुई
मादक कल्प में अवतरित हुई थी
ताकत की बेलगाम हवस के माथे चढ़ कर

वह रचयिता है नये धर्मों का धर्म ग्रन्थों का
उसकी कमीज़ में फिट होते फ़लसफ़ों का
सृष्टि का नियामक वह सत्ता का

एक परोसा हुआ संकट
खुद को हल करता हुआ
नये चुस्त फॅार्मुलों से
ब्रैण्ड के पुष्पक विमान से
दुनिया लाँघता फूल बरसाता यहाँ आ चुका है...

अब वह मुझमें है
तुममें है
हमसे अलग कहीं नहीं
वह विजेता है नई सदी का
गरीबों का नाम जपता
उनकी देह पर पलता
मसीहा है वह
मरणशील नक्षत्रों का
जहाँ हम जीवित हैं
जीते नहीं।





लौटता हूँ

लौटता हूँ उसी ताले की तरफ
जिसके पीछे
एक मद्धिम अन्धेरा
मेरे उदास इन्तजार में बैठा है

परकटी रोशनी के पिंजरे में
जहाँ फड़फड़ाहट
एक संभावना है अभी

चीज-भरी इस जगह से
लौटता हूँ
उसके खालीपन में
एक वयस्क स्थिरता
थकी हुई जहाँ
अस्थिर होना चाहती है

मकसद नहीं है कुछ भी
बस लौटना है सो लौटता हूँ
चिंतन के काठ हिस्से में

एक और भी पक्ष है जहाँ
सुने जाने की आस में
लौटता हूँ
लौटने में
इस खाली घर में

उतार कर सब कुछ अपना
यहीं रख-छोड़ कर
लौटता हूँ अपने बीज में
उगने के अनुभव को 'होता हुआ'
देखने

लौटता हूँ
इस हुए काल के भविष्य में







 हवस का लोकतंत्र

यह अंतिम है
और इसी वक़्त है
परिणति का कोई निर्धारित क्षण नहीं होता

मेरी ज़ुबान भले ही तुम ना समझो
लेकिन मेरी भूख
तुमसे सम्वाद कर सकती है

हमारे सपनों का नीलापन हमारे होने का उजास नहीं
यह रक्तपायी कुर्सियों के नख दंशों का नक्शा है
जो सत्ता में सहवास की सड़कों का पता बताता है

यही अंतिम है
और इसी वक़्त है

तुम्हारी आत्महत्याएं प्रवंचना हैं
दुखी-अपनों से निरर्थक सम्वाद
महानायकों के विश्वासघाती चेहरों के
दरके भोथड़ेपन से उपजी हुई
अपनी हताशा का


झण्डों के रंग कुछ भी रहें
सत्ता का रंग वही होता है

कई मुद्दों पर
सत्ता की गलियों में मतभेद नहीं होता
बहस नहीं होती ---
यह हमारी हवस का लोकतंत्र है

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